Friday, January 31, 2014

""सब प्राणियों को मित्र की दृष्टि से देखो ।- यजुर्वेद''

हिन्दू धर्म वेद आधारित है। जो यह सीखाता है कि मनुष्य तो मनुष्य, प्राणी मात्र को भी मित्र की दृष्टि से देखो अर्थात प्राणियों के साथ अच्छा प्रेम भरा व्यवहार करो। दूसरी ओर प्रेम, दया और (तथाकथित) सेवा का उद्‌घोष करने वाला ईसाई धर्म है। जिसके धर्मगुरू पोप जॉन पॉल।। का यह वक्तव्य ध्यान देने योग्य है ''My Religion Takes You to Heaven, Yours to Hell (Oraganiser-9-1-2005).  सोचने योग्य बात यह है कि क्या ईश्वर इतना पक्षपाती है ? निश्यच ही नहीं। नैतिकता की दृष्टि से यह कथन असहिष्णु और तिरस्करणीय है जो ईसाइयत के असली दर्शन को दर्शाता है। तो इससे भी बढकर इसी सेमेटीक परंपरा का धर्म "इस्लाम' है जो अपने आपको "दीन-ए-कामिल' (संपूर्ण धर्म) बतलाता है। अर्थात्‌ संसार के अंत तक इसमें किसी भी तरह का बदलाव संभव नहीं। कुरान का अधिकृत भाष्य कहता है कि ""अब इस दीन (धर्म) को इसी रूप में कियामत (प्रलय) तक बाकि रहना है और संपूर्ण जगत की सारी की सारी कौमों के लिए यही हिदायत का स्तंभ है।''(दअ्‌वतुल कुर्आन खंड। पृ. 339) यह इस्लाम तो सीधे-सीधे मनुष्य जगत को ही ईमानवाले (यानी मुसलमान) और काफिर (गैर-मुस्लिम) इन दो भागों में बांटकर रख देता है। कुरान की सूर "मुजादलति' में स्पष्ट रूप से इंसानों को दो समूहों में बांटकर काफिरों को ""शैतानों का लश्कर'' (शैतानों की पार्टी ) (Hisb-Ush-Shaitan) (आयत 19) तो मुसलमानों को ""खुदाई लश्कर (अल्लाह की पार्टी) (Hizbulla)'' (आयत 22) कहा गया है। ईमानवालों (मुसलमानों) को हमेशा के लिए जन्नत (स्वर्ग) का वादा, तो काफिरों को हमेशा के लिए दोजख की आग (नरकाग्नि) में रहने का फरमाना सुनाता है। जिसे कुरान में बारम्बार दोहराया गया है और यह फरमान इसलिए है कि "अल्लाह ने संपूर्ण जगत की सारी कौमों के लिए इस्लाम को हिदायत (शिक्षा, निर्देश) का स्तंभ' कह दिया है फिर भी काफिर इस्लाम कुबूल करने के लिए तैयार नहीं हैं।

कुरान का अवलोकन करने पर ज्ञात होता है कि कुरान की कुल 114 सूरहों (अध्यायों) में से 101 सूरहों में जन्नत (स्वर्ग) और दोजख (नर्क) मिलने के संदर्भ का उल्लेख है ।  कुरान की कुल 6239 आयतों में से 1590 आयतों (श्लोकों) में इस प्रकार के वर्णन हैं। विश्वास नहीं होता ना ?  तो देखिए कुर्आन-शरीफ की ये चंद आयतें जिनमें काफिरों को मिलने वाले अजाब (पापों का वह दंड जो यमलोक में मिलता है) का वर्णन है, ""उसके लिए दोजख है और उसको पीप का पानी पिलाया जाएगा। वह उसको घूंट-घूंट पियेगा और उसको गले से उतारना कठिन होगा और मौत उसको हर तरफ से आती हुई दिखाई देगी  और वह मरेगा नहीं (कि चैन पा जाए) और उसके पीछे दुखदाई सजा होगी।''(इब्राहीम 16,17) वह दुखदाई सजा किस प्रकार की होगी उसका वर्णन आगे इस प्रकार से है, ""(ऐ पैगंबर !) मैं उसको जल्दी ही सकर (दोजख की आग) में झोंक दूंगा.. वह न बाकी रखती है न छोड़ती है, शरीर को झुलसाती छायी रहती है ।'' (मुद्‌दस्सरि 26-29) (ये उपर्युक्त आयतें प्रकट रूप से सार्वजनिक स्थानों पर धर्म प्रचार करने के लिए पैगंबर को संदेश देने के लिए जो पहली सूरह अवतरित हुई थी उसमें कही गई थी।) ""जब उनकी खालें जल (कर पक) जावेंगी, हम उनको दूसरी खाल बदल देंगे ताकि (वह बराबर) अजाब का मजा चखते रहें।'' (सूर निसा आयत 56) "" उनके लिए आग (दोजख) का बिछौना होगा और उनके सिरों पर खौलता पानी डाला जाएगा। जिससे जो कुछ उनके पेट में है और (उनकी) खालें गल जाएंगी और उनके (मारने के) लिए लोहे के गुर्ज होंगे। (इस दोजख के दु:ख और) घुटन से जब निकलना चाहेंगे तो उसी में फिर ढकेल दिए जावेंगे। और (कहा जाएगा कि बस हमेशा) जलने की सजा का अजाब चखते रहो।'' (हज्जि19-22) कुरान में कहा गया है काफिरों को खाने के लिए सेहुंड का पेड दिया जाएगा। जो ""दोजख (नरक) की जड में (से) उगता है उसके गाभे जैसे शैतानों के सिर सो (दोजखी) उसी में से खाएंगे और उसी से पेट भरेंगे। फिर उस पर उनका खौलता हुआ पानी दिया जाएगा। फिर इनको (नरक की) तरफ लौटना होगा।'' (सूर तुस्साफ्फाति 62-68 ) इस स्वरूप की आयतों से कुरान भरपूर है।

काफिरों के नरक में जाने का नियम इतना अचूक है कि इसमें से पैगंबर मुहम्मद के पूर्वज, माता-पिता तथा पिता समान चाचा अबू तालिब जिऩ्होंने मुहम्मद साहेब की 40 साल तक साज-सम्हाल की थी भी अपवाद स्वरूप बच नहीं सके। इससे संबधित हदीसेें भी उपलब्ध हैं। और कुरान की सूर तौबा की आयात 113 में स्पष्ट रूप से ही कहा गया है कि: ""पैगंबर के लिए और मुसलमानों के लिए यह जेब (शोभा) नहीं देता कि वे मुशरिकों (मूर्तिपूजक) के लिए माफी चाहें, गो वह रिश्तेदार (संबंधी ही क्यों न) हों, जबकि उन्हें मालूम हो चुका है कि वे मुशरिक (मूर्तिपूजक) दोजख की भड़कती आग वाले हैं।'' कुरान का तो यह भी कहना है कि : ""और उनमें से जो मरे उसकी नमाज (जनाजा) तुम हरगिज न पढ़ना और न कभी उसकी कब्र पर खड़े होना। क्योंकि उन्होंने अल्लाह के साथ कुफ्र किया और इस हाल में मरे कि वे फासिक (अवज्ञाकारी) थे।'' (सूर तौबा आयत 84) इस आयात पर दअवतुल कुर्आन खंड 1 के अधिकृत भाष्य मेें कहा गया है : ''कब्र पर खड़े होने का मतलब कब्र पर जाकर क्षमा की प्रार्थना करना और दया की भावना को प्रकट करना है। यह मनाही जिस प्रकार मुनाफिकों (दांभिक मुसलमान) के लिए है उसी प्रकार काफिरों (गैर-मुस्लिम), मुश्रिकों (मूर्तिपूजक, अनेकेश्वरवादी), मुहफिदों (नास्तिकों) के लिए भी है क्योंकि जो लोग मरते दम तक काफिर रहे वे अल्लाह के दुश्मन हैं और अल्लाह के दुश्मनों के लिए एक मोमिन के दिल में दया भाव नहीं हो सकता।'' (पृ.657) और हो भी क्यों जब कुरान ही सीखाती है कि काफिर अल्लाह की नजर में ''जियादती करने वाले'' (बकर 190) ""फसादी'' (बकर 205) ''कृतघ्नी (नाशुके)'' (हाज्जि38) ""दगाबाज'' (अंफालि 58) ""कसूरवार'' (निसा 107) ""जालिम (अन्यायी)'' (इमरान 57) ""इतराने वालेे'' (निसा 36) ""गुनहगार'' (बकर 276) ''नापाक (गंदे) ""(तौबा 28)'' अल्लाह का हुक्म न मानने वाले (अवज्ञाकारी) है ""(इमरान 32) अर्थात इस्लाम न कुबूल करने वाले है, इसलिए पसंद नहीं करता।

यही अल्लाह उसके दीन-इस्लाम को मानने वाले उसके बंदो यानी मुसलमानों पर अपने सद्‌गुणों रहमान और रहीम के कारण इतना मेहरबान है कि बेझिझक, बिना किसी विशेष रोक टोक के उन्हें सीधे जन्नत की नेमतें प्रदान करता है। ये नेमतें कौन सी हैं यह जानना भी बड़ा दिलचस्प होगा जिनका वर्णन कुरान में बहुतायात से मौजूद है। जन्नत की खुशखबरी सुनानेवाली कुछ आयतें अवलोकनार्थ प्रस्तुत है: ""उसको (ईमानवाले को) (बिहिश्त के) दो बाग मिलेंगे ......जिसमें बहुत सी टहनिया हैं इनमें दो चश्में बहते होंगे....उनमें हर मेवे की दो किस्में होंगी ......यह (जन्नत वाले) बिछौनों पर तकिए लगाए (बैठे) होंगे जिनके अस्तर ताफते के होंगे और दोनों बागों के मेवे (बहुतायत से) झुक  रहे होंगे..... उनमें (लजाती) नीचे निगाहवाली (पाक हूरें) होंगी, उनसे और पहले न तो किसी मनुष्य ने उन पर हाथ डाला होगा और न किसी जिन्न ने ।'' (तुर्रहमानि 46 से 56) आगे और वर्णन सुनिए: ""निअमतों के बागों में जडाऊ तख्तों के ऊपर आमने-सामने तकिए लगाए (बैठे होंगे) उनके पास लड़के जो हमेशा नौजवान बनें रहेंगे। उनके पास आबखोंरें गडुए और साफ शराब से भरे प्याले लाते और ले जाते होंगे। (वह शराब) जिससे न तो उनके सिर दुखेंगे और न बकवाद लगेगी और जिस किस्म के पक्षी का मांस उनकी इच्छा हो और हूरें बड़ी-बड़ी आँखो वाली जैसे जतन से सजाए आबदार मोती........ हमने हूरों की एक खास सृष्टि बनाई है फिर इनको कंवारी बनाया है (कि किसी जिन्न या इन्सान नें उन्हें हाथ नहीं लगाया) प्यारी और समान अवस्था वाली।'' (वाकिअति 12 से 36)  ""बड़ी-बड़ी आँखों वाली (गोरी) हूरों से हम उनका ब्याह कर देंगे।'' (सूरतुद्‌दुखानि 54) सूर बकर की आयात 25 में कहा  गया है "" वे जन्नत में अपनी पाक साफ बीवियों के साथ सदैव रहेंगे।'' 

संक्षेप में इस्लाम की संकल्पना मानव जगत को दो भागोंं ""काफिर और ईमानवाले'' (गैर मुस्लिमों और मुस्लिमों) में बांटकर हमेशा के लिए प्रदान किए जाने वाले नरक तथा स्वर्ग के इर्द-गिर्द घूमती रहती है। जिसमें काफिर की भूमिका संसार के निकृष्टतम प्राणी की है जैसा कि कुरान की सूर अंफालि की आयत 55 में कहा है ''निश्चय ही अल्लाह के निकट बदतरीन जानवर वे लोग हैं जिन्होंने कुफ्र  (इस्लाम से इंकार) किया और वे ईमान (श्रद्धा) नहीं लाते।'' द.कु.खंड। के अधिकृत भाष्य में पृ.595 पर ऐसे काफिरों को ""बहरा, गूंगा और अंधा तथा बेसमझ'' (बकर 171) ""अज्ञानी, हृदय हीन (बिना सिंग-पूछ के) पशुओं की तरह है बल्कि उनसे भी जियाद: भटका हुआ'' (अरफि 179) कहा गया है। कुर्आन इतने पर ही बस नहीं करते हुए काफिरों को चेतावनी देती है'' जो शख्स अल्लाह के दीन (इस्लाम) के सिवा किसी ओर दीन (धर्म) को तलाश करेगा तो (अल्लाह के यहां) उसका वह दीन हरगिज कबूल नहीं और वह आखिरत (अंतिम निर्णय दिन) में नुकसान उठाने वालों में से होगा।'' (इमरान 85) कुरान कियामत का वर्णन करते हुए आगे कहती है: ''यह बदले का दिन है यह वही फैसले का दिन है जिसे तुम झूठलाते थे जमा करो जालिमों (काफिरों) को और उनके साथियों को और उनको साथियोंें को और उनको भी जिनकी ये पूजा करते थे। अल्लाह को छोड़कर (जिनकी ये पूजा किया करते थे) फिर इन सबको जहन्नम (नर्क) का रास्ता दिखाओं।'' (तुस्साफ्फति 19-23)

धर्म तो सभी के लिए यानी विश्व के परमार्थ के लिए, विश्व कल्याण के लिए होता है लेकिन यह दीन-ए-इस्लाम तो ऐसा निराला धर्म है कि जो कहने को तो अपने आपको "भाईचारे' का धर्म बतलाता है लेकिन उसका भाईचारा केवल इस्लाम के अनुयायियों तक ही सीमित है। क्योंकि वह केवल अपने ही अनुयायियों को ""खैर-उम्मत'' (बेहतरीन गिरोह) ""(इमरान 110)'' उम्मते वसत (उत्तर समुदाय) बकर 143) इस आधार पर कहता है कि ""यही उम्मत (समाज) सत्यधर्म (इस्लाम) पर चल रही है।'' (द.कु.खंड1पृ.211पर का भाष्य) खुद को दीन-ए-अकिब यानी अंतिम सत्यधर्म और अपने पैगंबर को अकिब यानी आखरी पैगंबर मानता है। जिसके बाद अब न तो कोई नया धर्म आने वाला है न ही कोई पैगंबर जैसा कि कुरान की सूर अल-अहजाब की आयत 40 में कहा गया है ""मुहम्मद अल्लाह के रसूल और नबियों के समापक है।'' अर्थात दीन अब पूर्णत्व को पहुंच चुका है, और अब किसी भी तरह के सुधार या बदलाव की गुंजाईश ही नहीं है। इसीलिए कुर्आन भाष्य में कहा गया है ""इस्लाम के सिवा जो शुद्ध रूप से एकेश्वरवादी जीवन प्रणाली है किसी भी धर्म की ओर मामूली सा झुकाव भी ईमान को प्रभावित कर देता है और सभी धर्मो के सही होने की बात तो सरासर गुमराही की बात है। '' (द.कु.खंड 3 पृ. 1413) या जो यह कहता है कि ""समस्त धर्म उसके (यानी अल्लाह के) नजदीक पंसदीदा हैं बड़े ही दुस्साहस की बात है और ऐसा व्यक्ति बड़ा ही गलतकार, दुष्कर्मी और सबसे बड़ा जालिम है।'' (पृ.1647) ""अत: जीवन को धर्म और संसार के खानों में विभक्त कर अल्लाह और उसके रसूल के कितने ही फैसलों को जो पारिवारीक, आर्थिक एवं राजनीतिक जीवन से संबंधित हैं रद्द कर देना और  तथाकथित धर्म निरपेक्ष जीवन पद्धति को अपनाना इस्लाम से खुली विमुखता है।'' (पृ.1457) अंत में भाष्य चेतावनी देता है कि ""सारे धर्म समान है उनमें सत्य और असत्य का कोई फर्क नहीं'' के सिद्धांत को जो लोग तैयार करना चाहते है वह हरगिज यह आशा न रखें कि उन्हें कुर्आन का समर्थन प्राप्त हो सकेगा।'' (पृ.2368) अब पाठक स्वयं ही सोचें कि "सब धर्म समान' का कथन कितना थोथा और हास्यास्पद है।

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