Monday, January 6, 2014

 नाम में क्या रखा है?
कणाद  shirishsapre.com

हिंदी में कहावत है यथा नाम तथा गुण, जैसा नाम वैसा काम और कुछ लोग अपने जीवन काल में अपने कार्यों से इन कहावतों को सार्थ सिद्ध करते भी नजर आते हैं और इनमें से कई तो इतिहास में अपना नाम भी दर्ज कर जाते हैं। इन नामों तथा इनके द्वारा किए गए कार्यों से प्रभावित होकर, प्रेरित होकर अपना बेटा भी कुछ ऐसा ही कर गुजर जाए जिससे इतिहास में उसका भी और अपने खानदान का भी नाम रौशन हो जाए। सोचकर माता-पिता अपने बेटों का नाम ऐसे महापुरुषों के नाम पर से रख देते हैं। ऐसे बेटे कितना क्या करते हैं यह तो ऊपरवाला जाने। परंतु, इनमें से कई बेटे कभी-कभी ऐसा कुछ कर गुजर जाते हैं कि कहना पडता है, नाम में क्या रखा है? नाम बडे और दर्शन खोटे।

उपर्युक्त पंक्तियां लिखने का कारण है आतंकी 'उमर फारुक अब्दुल मुतल्लब" जो दिसंबर 2009 की ख्रिस्मस पर अमेरिका में विमान में विस्फोट कर 9/11 की पुनरावृत्ति करने में नाकाम रहा। इस आतंकी के साथ इस्लाम के दो महापुरुषों के नाम जुडे हुए हैं। 1). उमर फारुक और 2). अब्दुल मुतल्लब। अब्दुल मुतल्लब पैगंबर मुहम्मद के दादा थे और उन्हींने मुहम्मद साहेब के माता-पिता की मृत्यु के बाद उनकी परवरिश की थी। वे ही उन्हें उनके पैदा होते ही मक्का के काबागृह में ले गए थे और ईश्वर के प्रति आभार प्रकट किया था। मुहम्मद साहेब पर उनका इतना प्रभाव था कि इस्लाम के इतिहास में प्रसिद्ध हुनैन युद्ध के समय जब शत्रुओं ने उनकी सेना पर एक संकरे दर्रे में अचानक हमला कर दिया और उनकी सेना घबराकर भागने लगी तब अपनी सेना में जोश भरने के लिए उन्होंने कहा था 'अब अग्निभट्टी भडकी हुई है। मैं पैगंबर हूं; झूठ नहीं बोलूंगा। मैं अब्दुल मुत्तल्लब का अंश हूं।" ये अब्दुल मुत्तल्लब मक्का के निकट की हिरा पहाडियों की गुफाओं में चिंतन-मनन, ध्यान के लिए जाया करते थे। जहां आगे चलकर मुहम्मद साहेब भी तपस्या के लिए जाने लगे और इसी हिरा की एक गुफा में एक दिन जब वे ध्यानस्थ अवस्था में बैठे हुए थे तभी अचानक उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ, पैगंबरत्व प्राप्त हुआ। उनके सामने मनुष्य रुप में एक देवदूत 'जिब्रिइल" आ खडा हुआ और उन्हें कुरान की सूर 'अलकि" क्र.96 की पांच आयतें प्राप्त हुई। जिसका पहला शब्द था 'इकरा" अर्थात्‌ 'पढ़!" पढ़ शब्द इन पांच आयतों में दो बार आया हुआ है। हदीस के अनुसार 'ज्ञान प्राप्त करना अल्लाह की सर्वोत्कृष्ट उपासना है।" 'ज्ञान प्राप्त करने के लिए चीन भी जाओ।" इतना महत्व है पढ़ने का इस्लाम में। परंतु, इस आतंकी ने तो जब उसके अभिभावकों ने उसे पढ़ने के लिए लंदन भेजा तो, उसने उनसे संबंध विच्छेद कर दिए और बजाए पढ़ाई के आतंकवादी गतिविधियों में लिप्त हो गया और एक घिनौने कुकृत्य को अंजाम देने के पूर्व ही पकडा गया।

उमर फारुक इस्लाम की 'आदर्श खिलाफत" 'खुलफा-ए-राशिदीन" के दूसरे आदर्श खलीफा थे और मुहम्मद साहेब के ससुर थे। उनके जमाने में मक्का में जो 17 लोग साक्षर थे उनमें से वे एक थे। उन्हें यहूदियों की हिब्रू भाषा भी आती थी। उनका इस्लाम स्वीकार का क्रम 40वां था। वह पैगंबर काल का छठा वर्ष चल रहा था। भले ही इस्लाम का प्रकट रुप में प्रचार शुरु हो गया था फिर भी सार्वजनिक रुप से नमाज पढ़ी नहीं जा सकती थी। अपन मुस्लिम हो गए हैं यह भी प्रकट रुप से कहा नहीं जा सकता था। मुहम्मद साहेब ने उमर को यही सलाह दी थी कि, वे अपने धर्मांतरण को प्रकट ना करें। परंतु, उनकी यह सलाह पसंद न आने के कारण उन्होंने पूछा 'ऐ, पैगंबर! अपना धर्म सत्य होकर भी अपन प्रकट रुप से प्रार्थना क्यों नहीं कर सकते? अपन मुस्लिम हो गए हैं यह प्रकट रुप में कहने का समय अभी आया नहीं है क्या?" पैगंबर ने उमर को वैसा करने की अनुमति दे दी।
इसके तत्काल बाद उन्होंने वे मुस्लिम हो गए हैं की घोषणा कर दी। दूसरे दिन उमर और मुहम्मद साहेब के चाचा हमजा के नेतृत्व में दो पंक्तियों में मुस्लिम काबागृह में गए, उसकी परिक्रमा की और नमाज पढ़ी। वहां उपस्थित कुरैश (मुहम्मद साहेब भी इसी कुरैश टोली के थे) यह सब शांति से देखते रहे। उमर के कारण वे कुछ कर ना सके। उनकी नमाज की ओर देख वे दुःख से कहने लगे ः'सचमुच उमर को इस्लाम स्वीकार करवा कर मुस्लिमों ने कुरैशों से बदला लिया है।" इसके बाद मुहम्मद साहेब ने उमर को 'अल-फारुक" (सत्य और असत्य को अलग करनेवाला) की उपाधि प्रदान की। इसके बाद शेष बचे मुस्लिम जाहिर रुप से गर्व से कहने लगे कि वे मुस्लिम हैं और सार्वजनिक स्थानों पर नमाज पढ़ने लगे; इस्लाम का नया पर्व प्रारंभ हो गया।

उमर द्वारा दी गई सलाह को मुहम्मद साहेब बडी गंभीरता से लेते थे। नमाज की अजान के लिए मनुष्य की आवाज उपयोग में लाई जाए की सलाह इन्होंने ही दी थी। मद्यनिषेध का आदेश निकालने का पैगंबर से आग्रह उमर का ही था। वही आदेश कुरान 5ः51 में आया हुआ है। इस्लाम के इतिहास में प्रसिद्ध बद्र युद्ध जिसमें थोडे से मुस्लिम अल्लाह की मदद से अपने से तीन गुना शत्रुओं से विजयी हुए थे जिससे वे प्रेरणा लेते हैं कि युद्ध में विजयी वे ही होंगे में मुसलमानों ने 70 लोगों को बंदी बनाया था। इन कैदियों को कोई बदला लेकर मुक्त कर दिया जाए कि उन्हें कत्ल कर दिया जाए, ऐसा प्रश्न उपस्थित हुआ। इस संबंध में उमर ने मत दिया 'ऐ, पैगंबर! ये अल्लाह के शत्रु हैं। इन्हें कत्ल किया जाना चाहिए। ये श्रद्धाहीनों/मूर्तिपूजकों के नेता हैं.... ऐसा करने पर अल्लाह इस्लाम को शक्तिशाली करेगा और मूर्तिपूजकों को अवनत करेगा।" मुहम्मद साहेब ने उमर से कहा 'ऐ उमर, तुम पैगंबर नूह जैसे हो जिन्होंने कहा था ''ऐ परवरदिगार! दुनिया में श्रद्धाहीनों का कोई घर (तबाह करने से बाकी) न छोड।"" (71ः26) और तुम पैगंबर मूसा जैसे हो जिन्होंने कहा था ''ऐ हमारे परवरदिगार! इनकी (श्रद्धाहीनों की) सम्पदा को मिटा दे और इनके दिलों को कठोर कर दे कि उनको ईमान (इस्लाम पर श्रद्धा) लाना नसीब न हो, यहां तक कि दुखदाई अजाब को (आखिर अपनी आँखों) देखें।"" (10ः88) बाद में मुहम्मद साहेब ने बदला लेकर कैदियों को छोड दिया। दूसरे दिन मुहम्मद साहेब ने उन्हें कहा 'ऐ उमर, अल्लाह ने कैदियों संबंधी तुम्हारी सूचना को मान्य कर लिया है। इसके बाद मुहम्मद साहेब ने हाल ही में अवतरित हुई 8ः67 आयत सुनाई ''जब तक अच्छी तरह (श्रद्धाहीनों की) खूँरेजी (हत्याकांड) न कर लें पैगंबर को मुनासिब नहीं कि उसके पास कैदियों का जमाव हो; तुम तो (बदले में धन लेकर कैदियों को छोडने और) संसार के माल असबाब चाहने वाले होओ अल्लाह (तुम्हारे हाथों दीन को कायम करवा कर तुम्हारे लिए) आखिरत (की चीजें देना) चाहता है।"" इस प्रकार से उमर की सूचना पर अल्लाह ने अपनी स्वीकृति की मुहर लगाई।
पर्शियन और रोमन सम्राटों को अनेक लडाइयों में धूल चटानेवाला यह मुस्लिम सम्राट (खलीफा) जिस साधारण अरब पद्धति से यात्रा कर उधर गया उसको इतिहास में विशेष रुप से दर्ज किया गया है। जेरुसलेम शहर में प्रवेश के समय उनके स्वागत के लिए बिशप सहित अनेक नगरवासी नगर के बाहर एकत्रित हुए थे। बिशप ने उमर को शहर की चाबियां सौंपी। मुस्लिम जेरुसलेम के राजा बने। हाथ में लाठी और सादे फटे-पुराने अरब पोशाक में उमर, भारी महंगे वस्त्रों में बिशप और रोमन सेनानियों के साथ भव्य और पवित्र शहर में प्रवेश और पैदल चलते देख सभी नगरवासी आश्चर्यचकित रह गए। वहां के पवित्र और ऐतिहासिक स्थल देखते हुए बिशप सहित उमर उस समय के शहर के सबसे बडे चर्च में पहुं्‌चे। वहीं पर प्रार्थना करने की (नमाज पढ़ने की) बिशप ने उनसे विनती की। उसे नकारते हुए उमर ने कहा ''अगर मैंने यहां (नमाज पढ़ी) प्रार्थना की तो उसके आधार पर मुसलमान एक दिन इस चर्च पर कब्जा जमा लेंगे और इसकी मस्जिद बना डालेंगे।"" इसके बाद उन्होंने चर्च की सीढ़ियों पर नमाज पढ़ी। उसी समय उसी सीढ़ी पर एक समय में एक से अधिक मुस्लिमों को नमाज पढ़ने से प्रतिबंधित किया। परंतु, बाद के काल में उसके बगल में ही मुस्लिमों ने मस्जिद का निर्माण किया और सीढ़ियों का आधा हिस्सा और चबूतरे को उसमें समाविष्ट कर डाला।
ऐसे दिलेर और समझदारी से भरे खलीफा उमर को ही इस्लाम में पैगंबर के बाद सबसे अधिक सम्मान प्राप्त है। इस्लाम का प्रसार करने और उसे वटवृक्ष के रुप में रुपांतरित करने का श्रेय उन्हें ही प्राप्त है। अपने दस वर्ष के कार्यकाल में उन्होंने लगभग 58 लाख वर्ग कि. मी. क्षेत्र जीता था। जो वर्तमान भारत का लगभग 1.7 गुना होता है।

कुर्आन भाष्य कहता है ''जिहाद ईमान (इस्लाम पर श्रद्धा) की कसौटी है।""(दअ्‌वतुल कुर्आन खंड 3, पृ.1832) और यह जिहाद कुरान द्वारा किया जाना चाहिए। जैसाकि उमर ने उपर्युक्त संदर्भ में मक्काकाल में तब करके दिखलाया था जब मुसलमान अल्पसंख्य थे और परिस्थितियां विपरीत थी। विपरीत परिस्थितियों में संघर्ष कर बिना डरे अपने सत्यधर्म (इस्लाम) पर डटे रहना जिहाद के अंतर्गत ही आता है और उमर ने यही तो किया था। कुरान की सूर 'अल-फुर्कान" की आयत 52 कहती है ''तो इन काफिरों की बात तुम न मानो और इसके द्वारा उनके साथ बरदस्त जिहाद करो।"" इस पर कुर्आन भाष्य कहता है '' इस आयत में काफिरों (इस्लाम पर श्रद्धा न रखनेवालों) के साथ बडे जिहाद (अर्थात्‌ जिहाद ए अकबर) का आदेश दिया गया है। जिसका मतलब यह है कि इस दावती संघर्ष में कुरान तुम्हारा हथयार हो कुफ्र (इस्लाम से इंकार) और शिर्क (अनेकेश्वरवाद) के खंडन में कुर्आनी आयतों को पेश किया जाए ... उनकी काफिराना बातों का तोड कुरान के द्वारा किया जाए।"" (द.कु.खंड2, पृ.1243) भाष्य आगे कहता है ''आज भी इस्लाम की दावत (निमंत्रण) देने के क्षेत्र में जिहाद (संघर्ष) करने की अत्यधिक आवश्यकता है। अर्थात्‌ अरबी न जाननेवालों के सामने कुर्आन को उसके अनुवाद के साथ प्रस्तुत करना और विरोधी के हथियारों के मुकाबले में कुर्आन को ढ़ाल बनाना बहुत बडा जिहाद है। जो समय का अतिमहत्वपूर्ण तकाजा है और इस राह के मुजाहिद (धर्मयोद्धा) वही लोग बन सकते हैं जिन पर कुर्आन की धुन सवार हो और वे उसके नायक बनकर आगे आएं।""(1243) इस संबंध में एक हदीस है - पैगंबर ने कहा 'कुरान का प्रचार करो.... उसके लिए इस जन्म में बदला मत देखो; (अगले जन्म में) इसके लिए प्रचंड बदला मिलने वाला है।"
खलीफा उमर मक्काकाल में इसी 'जिहाद ए अकबर" के मार्ग पर चले थे और सफल भी हुए थे और इसीके फलस्वरुप मुसलमानों को अपने प्रकट रुप में नमाज पढ़ने अर्थात्‌ धर्मपालन का अधिकार प्राप्त हो सका था। मुहम्मद साहेब को भी हिरा की गुफा में यही 'जिहाद ए अकबर" का ज्ञान प्राप्त हुआ था। जो 'सब्र" के उपदेश के रुप में पूरे मक्काकाल में दिया गया था और स्वयं उन्होंने भी आचरण में लाकर दिखलाया था। ''सब्र" का वर्णन कुरान में 70 से भी अधिक बार हुआ है इससे उसकी आवश्यकता और महत्व का अंदाजा लगाया जा सकता है।""(द. कु. खंड 1, पृ.67) लेकिन इस आतंकी उमर फारुक अब्दुल मुत्तल्लब ने तो अपने कुकृत्य द्वारा यही सिद्ध किया है कि नाम बडे और दर्शन खोटे।

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