Monday, May 27, 2013

सावरकरजी के बुद्धिवाद की उपेक्षा क्यों?

जिस प्रकार से सूर्य के प्रकाश में विविध रंगों की छटा समाई होती है उसी प्रकार से बहुमुखी प्रतिभा के धनी सूर्य समान सावरकरजी के तेजस्वी विचारों में भी विविध प्रकार की समाजहितकारी बुद्धिगम्य विचारों की छटा बिखरी हुई दृष्टिगोचर होती है और वह भी इतनी कि क्या ये विचार एक ही व्यक्ति के हैं का प्रश्न किसी के भी सम्मुख उपस्थित हो सकता है। उनके भक्तों एवं अनुयायियों के लिए तो वे एक श्रद्धास्थान ही हैं और वे प्रायः हिंदुत्वनिष्ठ ही हैं और वे आग्रहपूर्वक उनकी हिंदुत्वनिष्ठा को ही बताने में लगे रहते हैं व उनके बुद्धिवाद के बारे में बोलना टालते हैं जबकि सावरकरजी एक प्रखर बुद्धिवादी थे।

सावरकरजी के बुद्धिवादी विचारों का आकर्षण इन हिंदुत्ववादियों को कभी भी नहीं रहा है। क्योंकि, शुरु में ही उनके यह ध्यान में आए बगैर नहीं रहता कि बुद्धिवाद और हिंदुत्ववाद परस्पर विरोधी हैं। इसलिए उनके बुद्धिवाद पर वे मौन रहना ही पसंद करते हैं। और रही बात विरोधियों की तो उनके लिए सावरकरजी का हिंदुत्वनिष्ठ होना ही पर्याप्त होता है। इस प्रकार से सावरकरजी का बुद्धिवाद दोनो ही पक्षों द्वारा उपेक्षित है।

सावरकरजी का हिंदुराष्ट्र धर्माधिष्ठित (चातुर्वर्णाधिष्ठित हिंदूधर्म पर) ही होगा यह मानकर चलने के कारण और सावरकरजी के विज्ञाननिष्ठ निबंधों में भी हिंदूराष्ट्र शब्द आने के कारण ये विरोधी यह मानकर ही चलते हैं कि सावरकरजी इस राष्ट्र को मध्ययुग में ले जाना चाहते थे और ऐसा व्यक्ति भला बुद्धिवादी हो ही कैसे हो सकता है? इसी सोच के कारण ये विरोधी सावरकरजी का समावेश बुद्धिवादी विचारकों में करने को तैयार नहीं होते और इसका कोई खेद भी उनके भक्तों-अनुयायियों को नहीं होता यह एक विडंबना ही है।

सावरकरजी एक तत्त्वज्ञ होने के साथ ही साथ एक नेता भी थे। एक तत्त्वज्ञ अपने विचार सुसूत्रबद्ध और सुसंगत पद्धति से प्रस्तुत करता है जो उसके तत्त्वों से संलग्न होते हैं और उनको प्रस्तुत करने के स्तर की भाषा कितनी भी उंचे स्तर की हो सकती है। परंतु, एक नेता की भाषा, उसके विचारों की प्रस्तुति के स्तर को एक तत्त्वज्ञ का स्तर नहीं लगाया जा सकता नेता को उसके अनुयायियों की बोली भाषा में बोलना पडता है। यदि नेता के व्यवहारिक विचारों को तात्त्विक विचारों की कसौटी पर कसा जाने लगे तो उसे बडे ही निचले स्तर का तत्त्वज्ञ ठहराया जा सकता है और यही सावरकरजी के साथ भी हुआ है।

भारत में विचारकों की दो परंपराएं हैं। पहले में वे आते हैं जिन्होंने प्रखर बुद्धिवाद का समर्थन किया और समाज की रचना को आमूलाग्र रुप से बदलना चाहिए की भूमिका ली। इनमें महात्मा फुले, आगरकर, नेहरु, अंबेडकर आदि आते हैं। समाज को धर्ममुक्त करना चाहिए इस विचार का उन्होंने समर्थन किया। इस मंडली को भारत के इतिहास, धर्म, परंपराओं पर प्रखर गर्व नहीं था। ये प्रखर राष्ट्रवाद के प्रति नहीं अपितु उदारवाद की ओर झुकाव रखनेवाले लोग थे।

दूसरी परंपरा में लोकमान्य तिलक, स्वामी विवेकानंद, श्रीअरविंद जैसे धार्मिक व प्रखर राष्ट्रवादी आते हैं। इस मंडली को अपने भारत के इतिहास पर बडा जबरदस्त गर्व था। राष्ट्रवाद जिस इतिहास, संस्कृति, परंपरा पर खडा होता है उसे पहली परंपरा वाले संकुचित समझते थे। उन्होंने राष्ट्र क्या है, राष्ट्र का आधार कौनसा होता है, एकात्म राष्ट्र के घटक कौनसे होते हैं आदि का कभी गंभीरतापूर्वक विचार ही नहीं किया। राष्ट्र, राष्ट्रवाद का विचार तो अपरिहार्य होने के कारण उन्हें करना पडा। उनका विश्वास तो इस पर था कि, समता, बंधुता, न्याय आदि के तत्त्वों पर सभी मानवों को एकत्रित किया जा सकता है। कुछ का तो विश्वास केवल आर्थिक समता या समाजवाद के आधार पर सभी को एकत्रित किया जा सकता है पर था। एकात्म राष्ट्र इन्हीं तत्त्वों के आधार पर खडा किया जा सकता है, ऐसा यह समझते थे। ये प्रादेशिक राष्ट्रवाद को माननेवाले हैं। धर्म, वंश, जाति संस्कृति, भाषा आदि के आधार पर किसी भी तरह के भेदभाव करने को अपने देश में वे बुद्धिवाद के विरोध में और संकुचित समझते थे।

परंतु, प्रखर राष्ट्रवादियों की भूमिका इनके ठीक उलट थी। ये धर्म, संस्कृति, परंपरा, इतिहास में गहरी श्रद्धा रखते थे, इस पर उन्हें गर्व था। इनकी भूमिका यह थी कि, हमारा धर्म, तत्त्वज्ञान, संस्कृति विश्व में सबसे श्रेष्ठ है। धर्मचिकित्सा इन्हें मान्य नहीं थी। उन्हें इस बात पर गर्व था कि, हमारे तत्त्वज्ञान में मानव को अध्यात्म के सर्वोच्च स्तर पर ले जाने का सामर्थ्य है।ये मामूली से सुधारों के साथ पुराने को टिकाए रखने की प्रवृत्ति रखते थे। इनके प्रखर राष्ट्रवाद का आधार धर्म, संस्कृति, इतिहास था यानी जिसे सांस्कृतिक राष्ट्रवाद कहा जाता है उसका समर्थन इन्होंने किया। इनके द्वारा प्रस्तुत सिद्धांत के अनुसार देश प्रेम यानी इस देश के इतिहास, धर्म, संस्कृति, परंपराओं से प्रेम। ये दोनो ही परंपराएं मोटे तौर पर परस्पर विरोधी हैं।

सावरकरजी इनमें से किसी भी परंपरा में नहीं आते। सावरकरजी ने पहली परंपरा के प्रखर बुद्धिवाद को स्वीकारा तो दूसरी परंपरा के हिंदुत्वनिष्ठ राष्ट्रवाद को स्वीकारा। जैसाकि हमने ऊपर देखा ये दोनो ही परंपराएं परस्पर विरोधी होने के कारण सावरकरजी के बुद्धिवाद के संबंध में अनेक भ्रांतियां निर्मित हो गई हैं। और सावरकरजी को दूसरी परंपरा में मान लेने के कारण उनके बुद्धिवाद की घोर उपेक्षा हुई है।

आज समाज को बुद्धिवाद की ओर ले जाने की नितांत आवश्यकता है। इस दृष्टि से सावरकरजी ने बुद्धिवाद का जो मार्ग अपनाया था उसका अध्ययन कर उसे समाज के सामने लाने की जिम्मेदारी निश्चय ही उनके हिंदुत्त्वनिष्ठ अनुयायियों की बनती है और जब अब पूरा सावरकर साहित्य हिंदी में भी उपलब्ध है तो भ्रांत धारणाएं दूर करने के लिए अनुयायी उनके साहित्य के प्रचार-प्रसार के कार्य को हाथ में ले तो अधिक उचित होगा। क्योंकि, सावरकरजी का बुद्धिवाद समझना हो तो, जो उनके सारे साहित्य और जीवनकार्य में बिखरा हुआ है, का अध्ययन करना होगा।

लोगों में सबसे अधिक भ्रांत धारणा यह व्याप्त है कि, हिंदू राष्ट्र धर्माधिष्ठित होगा यह सर्वथा असत्य है यह समझने के लिए उनकी पुस्तक 'हिंदुत्व" जिससे स्वामी श्रद्धानंद, पंडित मदनमोहन मालवीयजी तक प्रभावित हुए थे का अध्ययन करें तो समझ सकेंगे कि सावरकरजी का हिंदू राष्ट्र धर्माधिष्ठित नहीं था।

उनके हिंदूराष्ट्र का व्यापक अर्थ यह है कि, हिंदुओं के न्याय्य अधिकार सुरक्षित रखनेवाला राष्ट्र। उनकी दृष्टि में हिंदू राष्ट्र एक भावनिक संकल्पना है। यदि मुसलमान यह मानते हैं कि, वे एक राष्ट्र हैं तो हिंदू भी यह क्यों नहीं मान सकते कि वे भी एक राष्ट्र हैं वैसे भी हिंदू राष्ट्र पुरातन है। हिंदुओं की राष्ट्रीय भावना मुस्लिम भावना की प्रतिक्रिया नहीं। जब तक मुसलमान उनकी स्वतंत्र राष्ट्रीयत्व की भावना का त्याग नहीं करते तब तक हिंदू भी अपनी हिंदू राष्ट्र की भावना को रखने के लिए बाध्य हैं। सावरकरजी का यह दृष्टिकोण क्या व्यवहारिक नहीं और यहीं सावरकरजी दूसरे बुद्धिवादियों से अलग पड जाते हैं। सावरकरजी मानते हैं कि एक शासन तले दो राष्ट्र रह सकते हैं इसके लिए हर एक को एक मत, धर्मनिरपेक्षतापूर्वक सभी को समान अधिकार तथा अल्पसंख्यकों के धर्म और संस्कृति को संरक्षण का विश्वास।

हिंदूराष्ट्र का दूसरा अर्थ बहुसंख्यकों का राष्ट्र और इसी आधार पर 'बहुसंख्यकत्व ही राष्ट्रीयत्व है" का सिद्धांत वे प्रतिपादित करते हैं। हिंदू बहुसंख्य होने के कारण 'हिंदुत्व ही राष्ट्रीयत्व है" का सिद्धांत प्रस्तुत करते हैं। परंतु, इसका अर्थ यह नहीं कि अल्पसंख्यकों को राष्ट्रीयत्व नहीं होता यह सिद्धांत केवल वस्तुस्थिति को दर्शाता है कि अहिंदू अल्पसंख्य हैं। और बहुसंख्य को अल्पसंख्य बनाना अराष्ट्रीय है। इन अर्थों से भी हिंदुत्व का हिंदूधर्म से कोई संबंध नहीं आता। उपर्युक्त अर्थों से कोई भी बुद्धिवादी इंकार नहीं कर सकता, हिंदू एक राष्ट्र है, बहुसंख्यकों का राष्ट्रीय जीवन पर प्रभाव पडता ही है लेकिन यही बातें ये सेक्यूलर विद्वान हिंदू के स्थान पर भारतीय कहकर प्रस्तुत करते हैं।


Saturday, May 18, 2013


स्वच्छतागृहों की कमी से जुझते नागरिक

गांधीजी का वचन है -स्वच्छता आजादी से महत्वपूर्ण है। वस्तुतः स्वच्छ, सुरक्षित स्वच्छतागृह नागरिकों का मूलभूत अधिकार है और किसी भी नगर का सांस्कृतिक निर्देशांक वहां के स्वच्छतागृहों की दशा पर से ही तय होता है। परंतु, इस महत्वपूर्ण मूलभूत आवश्यकता की इतनी उपेक्षा है कि इस पर कोई सार्वजनिक रुप से चर्चा तक नहीं करता जैसे यह कोई मुद्दा ही नहीं है।

जबकि वास्तविकता यह है कि किसी भी शहर में जाओ स्वच्छतागृह (शौचालय, मूत्रालय) ढूंढ़ना पडते हैं। पहले तो वे मिलते नहीं और जब मिलते भी हैं तो वहां की अस्वच्छता देख उनमें घुसने की हिम्मत जुटानी पडती है और उपयोग में लाने के लिए अपनी जुगुप्सा को दबाना पडता है। इसकी कमी की पीडा एवं कष्ट सबसे अधिक महिलाएं ही भुगतती हैं परंतु, किसी भी नगरपालिका-निगम की महिला पार्षद इस संबंध में मुखर होकर आगे नहीं आती। जबकि महिला सशक्तिकरण के तहत उन्हें 30% आरक्षण उपलब्ध है। परंतु, शायद लज्जावश बजट आवंटन के समय इस संबंध में अपनी आवाज उठा नहीं पाती।

वैसे तो हर शहर की यह एक ज्वलंत समस्या है परंतु, विशेषतः महिलाओं के संबंध में यह समस्या बहुत ही विकराल है। अधिकांश सार्वजनिक स्वच्छतागृहों के दरवाजे या तो टूटे हुए या जर्जर हो चूके हैं और वहां भयंकर दुर्गंध का साम्राज्य व्याप्त रहता है, नलों की टोटियां या तो होती ही नहीं है या उनमें पानी नहीं होता। कहीं-कहीं शौचलयों के बाहर पानी की कोठियां भरी हुई होती हैं परंतु, अंदर या तो डिब्बे नहीं होते या होते भी हैं तो फूटे हुए होते हैं।

कई महिला शौचालयों का उपयोग तो पुरुष ही करते नजर आते हैं, सुरक्षा की कोई व्यवस्था नहीं। कई स्थानों पर महिला स्वच्छतागृह किसी कोने-काने में स्थित होते हैं और वे भी ठेलों-गुमटियों के अतिक्रमण से घिरे जहां शोहदे आती-जाती महिलाओं को घूरते खडे रहते हैं इस कारण कोई अकेली महिला तो वहां जाने से ही कतराती है। ऐसा लगता है असुरक्षा, अस्वच्छता और अव्यवस्था सार्वजनिक स्वच्छतागृहों के पर्यायवाची नाम हैं, विशेषकर महिलाओं के।

कई रेल्वे स्थानकों पर तो स्वच्छतागृह ढूंढ़ना पडते हैं, जो स्थानक के किसी कोने में स्थित होते हैं जहां रात में अंधेरा छाया रहता है। बस स्टैंडों का हाल तो उससे भी बदतर होता है। गंदगी इतनी कि लोग विशेषकर महिलाएं उनका उपयोग करने की बजाए थोडा समय वैसे ही निकाल लेने में अपना भला समझती हैं अन्यथा उपयोग में तभी लाती हैं जब कोई विकल्प ना बचा हो।

वर्तमान में मधुमेह के रोगी भी बहुतायत से हैं और वे बहुमूत्रता की समस्या से पीडित होते हैं, कई बार कुछ विशिष्ट शस्त्र क्रियाओं के कारण भी बार-बार शौचालय में जाने की आवश्यकता पडती है, ऐसे में शौचालयों की कमी अखरती है। भले ही वे स्वच्छ ना हों अस्वच्छ ही सही परंतु पर्याप्त तो हों।

हाल ही में प्राप्त एक चौंका देनेवाली रिपोर्ट के अनुसार सुप्रीम कोर्ट के फरमान के बावजूद स्कूलों में शतप्रतिशत शौचालय बन नहीं सके हैं और जो बने हैं उनकी जानकारी के्रंद के पास नहीं है। म.प्र. के शासकीय स्कूलों में जब शौचालयों की गिनती हुई तो प्रदेश में 53365 शौचालयों के निर्माण का लक्ष्य रखा गया था। हालांकि कागजों पर 43477 शौचालयों को पूर्ण करने की बात कही गई है, जबकि 10471 शौचालयों का निर्माण हुआ ही नहीं है। वहीं 36543 शौचालयों को कार्य पूर्णता का प्रमाण-पत्र भी दे दिया गया है। उल्लेखनीय है कि पिछले शिक्षण सत्र के दौरान नवंबर दिसंबर में यह लक्ष्य पूर्ण करने के निर्देश दिए गए थे।

परंतु, हमारे जनप्रतिनिधि वास्तविकता के धरातल पर चल शौचालयों जैसी मूलभूत समस्या की ओर ध्यान न देते नित नई लोकलुभावन घोषणाएं करते रहते हैं, नई-नई योजनाएं प्रारंभ करते रहते हैं। उदाहरण के लिए हमारे शहर के बाजारों में ही मूत्रालयों की कितनी कमी है और जो हैं वे संख्या में कितने कम और भयंकर अस्वच्छ हैं। परंतु, हमारे जनप्रतिनिधियों को तो शहर के नागरिकों को 24 घंटे नलों में पानी देने की पडी है। जबकि उनका ध्यान इस वास्तविकता की ओर है ही नहीं कि पानी कितनी दूर से लाना पड रहा है और कितना महंगा है तथा उसका कितना भयंकर दुरुपयोग इस समय हो रहा है और वह भी तब जबकि वह नियंत्रित मात्रा में, निश्चित समयावधि में ही दिया जा रहा है और जब 24 घंटे पानी की उपलब्धता होगी तो उसका कितना दुरुपयोग होगा।

Tuesday, May 7, 2013


एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारों

नित सामने आते रिश्वतखोरी से कमाए धन के प्रकरण, उजागर हो रहे राजनेताओं द्वारा किए गए आर्थिक घोटाले-भ्रष्टाचार के अंतहीन मामलों से देश की जनता आहत, त्रस्त हो रही है, अपने आप को असहाय एवं ठगा हुआ सा महसूस कर रही है। इस कारण जहां भी जाओ लोग इसके लिए राजनेताओं को जिम्मेदार ठहराते हुए नजर आ रहे हैं। जो बहुत कुछ अंशों में सत्य भी है। लेकिन यही वह समय भी है जो आत्मपरिक्षण भी मांगता है कि क्यों हमारे द्वारा चुने हुए ये राजनेता इस प्रकार से बेगुमान हो गए हैं? क्यों ये इतने लापरवाह एवं बेखौफ हो गए हैं?

भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी आदि तो देश की स्वतंत्रता के समय से ही और इसके भी पूर्व से मौजूद रही है। परंतु, यह समस्या आज जिस विकराल रुप में नजर आ रही है इसके पूर्व न थी। जितना कालाधन पिछले बीस वर्षों में देश में पैदा हुआ और देश के बाहर गया उतना देश की आजादी के 40 वर्षों बाद भी नहीं हुआ था।

यदि वर्तमान राजनैतिक परिदृश्य पर दृष्टि डालें तो यही नजर आएगा कि जीवन के जो विभिन्न कार्यक्षेत्र हैं उनमें जो व्यक्ति कुछ ना कर सका वही राजनीति में सक्रिय एवं सफल नजर आ रहा है। इसके लिए वह अवांछनीय हथकंडे उपयोग में ला रहा है क्योंकि, बाकी जगहों पर तो वह कुछ कर ना सका था इसलिए वह यहां सफल होने के लिए सभी तरह के हथकंडे फिर वह चाहे अनैतिक, समाज के लिए हानिकारक भी क्यों ना हो उपयोग में ला रहा है। अधिकांशतः ऐसे ही व्यक्तियों ने राजनीति को दूषित कर पैसा बनाने का माध्यम बना रखा है।

इस प्रकार के राजनेताओं के साथ भ्रष्ट नौकरशाहों-कारपोरेट क्षेत्र ने हाथ मिला रखे हैं और यही गठजोड देश को लूट रहा है,  विकास की नई परिभाषा गढ़ रहा है तथा चंद लोगों की आर्थिक संपन्नता जो चमचमाते मॉल्स, होटल्स, मल्टीप्लेक्स, चौडी सडकों पर दौडती महंगी गाडियों के रुप में नजर आ रही है को देश की आर्थिक प्रगति बता रहा है। जनता भी भ्रमित हो आर्थिक संपन्नता को ही सच्चा विकास मान इस संकुचित दृष्टिकोण को सामने रख संपन्नता की लालसा, अधिकाधिक धन प्राप्ति को ही ध्येय बना, आर्थिक संपन्नता को ही यश-अपयश का पैमाना बना बैठी है। 

वस्तुतः यह विकास नहीं विनाश है और इसके परिणाम भी हम भुगत रहे हैं। समाज दिशाहीन हो गया है। केवल कुछ लोगों की मौज मजे के लिए की गई विदेश यात्रा, पानी जैसा पैसा जहां समारोहों में बहाया जाए यह जिन्हें हासिल है ऐसे गिनेचुने लोगों द्वारा यह समझना कि हम आर्थिक महासत्ता बनने जा रहे हैं यह उच्च पदस्थों का स्वार्थीपना, ढ़ोंग वस्तुतः घृणास्पद है।

परंतु, हम समझने को तैयार नहीं। क्योंकि, जो सुशिक्षित मध्यम वर्ग हमेशा देश को सुविचार देता है, सबसे ज्यादा नैतिकता का झंडाबरदार बनता है, देश या समाज के लिए कुछ करने की चाह रख आगे आता है, आदर्श सामने रखता आया है वही आज इस मामले में सबसे पीछे है क्योंकि, यही वर्ग तो इस उपर्युक्त अनैतिक गठजोड से सबसे अधिक लाभान्वित हो रहा है इसलिए अपनी आंखे मूंदे अधिकाधिक धन प्राप्त करने की होड में सबसे अधिक शामिल है।

इस विकास की अंधी दौड में प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन हो रहा है जो पर्यावरण के संतुलन को बिगाड रहा है। चंद लोगों का आर्थिक विकास सच्चा विकास नहीं है। विकास सर्वसमावेशक होना चाहिए। विकास वह है जिससे मनुष्य को आनंद की प्राप्ति हो। जरा खुद ही कुछ सोचिए इस तथाकथित विकास से प्राप्त क्या हो रहा है- आनंद, संतुष्टि, मानसिक शांति या केवल तनाव, हताशा और साथ ही साथ नई-नई समस्याओं का अंबार जिन्हें हल करने जाओ तो फिर एक नई समस्या। सच्चा विकास तो वह है जिसमें सभी को अच्छी शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधाएं मिले, जीवन सीमा बढ़े, पर्याप्त आमदनी हो, रोजगार उपलब्ध हों। बिजली, पानी, सडक के साथ सभीको शौचालयों की सुविधा उपलब्ध हो।

जीडीपी की दौड में शामिल हो उसके आंकडे बताने में गर्व महसूस करनेवाले, व्यस्त रहनेवाले खुद ही बता रहे हैं कि, शौचालयों की समस्या कितनी गंभीर है। देश के 60% लोगों को शौचालयों की सुविधा उपलब्ध नहीं है फिर भी विकास, विकास की रट लगाए जा रहे हैं। सच्चा विकास तो वह है जिसमें प्रकृति का अवांछित दोहन ना हो, धार्मिक विवादों से उत्पन्न अशांति ना हो, विवाद ना हों, सामाजिक एकता हो, कला साधना भी हो रही हो। इसके लिए गांधीजी और वीर सावरकर को बलराम-श्रीकृष्ण समझ सावरकरजी की विज्ञाननिष्ठा (बुद्धिवाद) और गांधीजी की ग्राम विकास की अवधारणा (अंत्योदय) का समन्वय जरुरी है।

यदि सच्चा विकास चाहिए हो तो भ्रष्टाचार का प्रखर विरोध हो। इसके लिए सबसे जरुरी है कि, महाभ्रष्ट, असामाजिक तत्व जो राजनीति में घुस आए हैं सबसे पहले उन्हें ही राजनीति से बाहर का रास्ता दिखाया जाए। चुनें उसे जो ना कहना जानता हो, नकारना जानता हो सिफारिशों को, प्रलोभनों को। लेकिन हो रहा है उल्टा, हम चुन रहे हैं उन्हीं नेताओं को जो अनुचित सिफारिशें सुनता हो  और उन्हीं के अनुसार निर्णय लेता हो। प्रलोभनों की बलि चढ़ भ्रष्टाचार को बढ़ावा देता हो तथा उसका एक हिस्सा हम पर खर्च कर स्वयं कृतार्थ होता हो और हमें भी कृतार्थ करता हो हम उसीकी विकास पुरुष के रुप में जयजयकार करते हैं।

राजनेता का काम है समाज का निर्माण इसके लिए जो उचित हों वह कानून बनाता है, जनता को सुयोग्य नेतृत्व प्रदान करता है और इसके लिए जनता को अपने पीछे चलने के लिए बाध्य करता है। जब देश अनाज के संकट से ग्रस्त था तब लालबहादुर शास्त्री के आवाहन का देश की जनता ने साथ दिया था कि नहीं! आज भी यदि कुछ राजनेता समाज निर्माण का व्रत ले आगे आएं तो आज भले ही वे गिने-चुने हों कल अपनी अडिग ध्येय निष्ठा के बलबूते निश्चय ही अपने जैसे लोग एकत्रित कर ही लेंगे और कौन कहता है कि, ऐसा हो नहीं सकता।

जिस जमाने में इसी देश के लोग अंग्रेजों की गुलामी में ही खुशी महसूस कर रहे थे उनके राज्य को ईश्वर का वरदान मानते थे उसी जमाने में वीर सावरकर ने क्रांति का दर्शन दिया था। वासुदेव बलवंत फडके जिन्हें क्रांति का जनक कहा जाता है ने दलितों और अतिपिछडों को एकत्रित कर अंग्रेजों को नाकों चने चबवाए थे कि नहीं और अदन में विदेशी भूमि पर अंतिम सांस ले हौतात्म्य स्वीकारा था। गांधीजी को तो चलती ट्रेन से उठाकर बाहर फैंक दिया गया था परंतु, उस निहत्थे गांधी ने देश से अंग्रेजों को भगाकर देश को स्वतंत्रता दिलवाई कि नहीं? जनता भी इन्ही गांधीजी के पीछे गई थी। यही दृष्टिकोण सामने रख चंद अच्छे नेता भी यदि आगे आएं तो बदलाव क्यों नहीं हो सकता। अच्छे लोग ऐसे राजनेता से जुडना निश्चय ही पसंद भी करेंगे क्योंकि, वे जानते हैं कि राजनीति ही एक ऐसा सशक्त माध्यम है जिससे जुडकर निश्चय ही समाजोपयोगी कोई सा भी कार्य अधिक आसानी से करने में सहायता मिल सकती है।

खरबूजे को देखकर खरबूजा रंग बदलता है तो एक अच्छे नेता को देखकर दूसरा नेता क्या थोडा बहुत भी नहीं बदलेगा। बस यही प्रक्रिया सतत चलती रहे तो बदलाव जरुर आकर रहेगा। परंतु, समाज को भी यह समझना जरुरी है कि ऐसे नेताओं का साथ दे। यहीं पर एक बात का स्पष्टीकरण किसी तरह की गलतफहमी ना रह जाए इसलिए कर देना बेहतर होगा कि क्रांति मतलब हर समय सशस्त्र विद्रोह नहीं होता यहां क्रांति का अर्थ समाज में रुढ़ हो चूकी समाज विरोधी मान्यताओं के विरुद्ध खम ठोंक के खडे होना। क्योंकि, यह भी कोई आसान काम नहीं, अकेले पड जाने का डर बना रहता है। 

आज राजनेता बहाना बना रहे हैं कि, यदि जनता की बेजा सिफारिशों को पूरी ना करुं तो हार जाऊंगा, अलोकप्रिय हो जाऊंगा, इसलिए गलत कामों की तरफ से आंखें मूंद लेता हूं, प्रश्रय देने के लिए बाध्य हो जाता हूं। नेता का कहना भी ठीक है, उसने क्रांतिकारी बनने का ठेका थोडे ही ना ले रखा है, जो अच्छा और ईमानदार सुशासन दे और ऐसा कर वह अपनी बलि चढ़ाए। हम भी तो छोटे-छोटे कामों के लिए नेता का मुंह ताकते हैं, जो काम हम थोडा सा कष्ट उठाकर या लाइन में लगकर स्वयं कर सकते हैं, उसके लिए थोडा इंतजार भी तो कर सकते हैं को छोडकर झट नेता से सिफारिशी चिट्ठी लिखवाने या फोन करवाने जा धमकते हैं। पहले अवैध कार्य करते हैं फिर उसे नियमित करवाने के लिए नेता पर दबाव बनाते हैं। यदि नेता नहीं करता तो उसे बदनाम करने पर उतारु हो जाते हैं। भ्रष्ट राजनेता हमारी इसी मानसिकता का लाभ उठा रहे हैं और कहते भी हैं राजतंत्र में यथा राजा तथा प्रजा परंतु, अब प्रजातंत्र है और प्रजातंत्र में यथा प्रजा तथा राजा का मुहावरा फिट बैठता है। जैसी प्रजा होगी वैसा ही उसे नेतृत्व मिलेगा। यह निरा पाखंड है। जनता गांधी, सावरकर जैसे नेताओं के पीछे गई थी कि और वे तो धारा के विरुद्ध ही तैर रहे थे।

यदि सुधार चाहते हैं तो यह सब छोडना पडेगा पहले हम भी तो अपने कर्तव्यों का पालन करना सीखें। परिचित नेता के पद पाते ही हम अपने कर्तव्यों से विमुख होने लगते हैं, बेजा लाभ पाने के उद्योग में रम जाते हैं। यातायात के नियमों का पालन नहीं करते, जुर्माने से बचने के लिए नेताओं से बात करवाते हैं, कई बार अनावश्यक ऐसी ट्रांसफर-पोस्टींग के लिए नेता पर दबाव बनाते हैं बस यहीं से भ्रष्टाचार भी शुरु हो जाता है।

करें यह कि यदि लगभग पूरी तरह भ्रष्ट हो चूकी व्यवस्था से निजात पाना चाहते हैं तो, राजनेताओं द्वारा की जानेवाली घोषणाओं, कार्यों का विवरण मांगें, उनसे स्पष्टीकरण मांगना सीखें। इसके लिए चाहें तो ई-मेल करें यदि हजारों मेल जाएं तो नेता सोचने के लिए बाध्य होगा। विभिन्न समाचार पत्रों में संपादक के नाम पत्र लिखकर भी अपनी समस्याएं उठा सकते हैं, स्पष्टीकरण मांग सकते हैं। चाहें तो इसके लिए कुछ संगठन बनाकर संगोष्ठियां आयोजित कर नेताओं का ध्यान आकर्षित कर सकते हैं। भ्रष्ट राजनेताओं को सम्मानित करना उन्हें सामाजिक आयोजनों में अतिथि के रुप में बुलाना बंद कर उनका बहिष्कार करें।

आज जब सोशल मीडिया का जोर है तो उस पर अपनी आवाज उठा सकते हैं। विभिन्न समस्याओं पर लेख लिख सकते हैं, टिप्पणीयां दे सकते हैं। सोशल मीडिया का शोर राजनेताओं के कानों तक जाता ही है। कुछ नेताओं ने तो फेसबुक जैसे लोकप्रिय सोशल साइट्‌स पर अपने पेजेस बना रखें हैं उन तक आपकी आवाज अवश्य जाएगी। अपनी समाजोपयोगी मांगे, विचार राजनेताओं तक पहुंचाएं शायद ही कोई नेता होगा जो ना सुने वो आपको इतनी आसानी से टाल नहीं सकता। यह सब करें देखिए दबाव बनना शुरु हो जाएगा। यदि कोई नेता किसी तरह का अच्छा कार्य करता है तो जितना संभव हो उसे समर्थन प्रदान करें, अपनी ओर से जितना संभव हो सहयोग दें। इंटरनेट एक अत्यंत ही प्रभावी माध्यम है अपनी जायज बात रखने का किसी घोटाले को सामने लाने का। इसका सदुपयोग करें।

सबसे अधिक योग्य मार्ग है चुनाव पद्धति में सुधार। जिसके लिए वास्तव में एक बहुत बडे आंदोलन की जरुरत है जो कोई भी नहीं कर रहा है। जब तक यही चुनाव पद्धति रहेगी पैसा-बाहुबल प्रभावी रहेगा ही। अपनी वर्तमान चुनाव पद्धति बदली जाना चाहिए यह सब जानते हैं परंतु प्रयत्न कोई नहीं कर रहा, इसके लिए आंदोलन कोई नहीं चला रहा जबकि इसके लिए विशेष अधिक कुछ करना नहीं है पूर्व में ही कई विशेषज्ञों की रिपोर्टे उपलब्ध हैं, समितियां, आयोग इस संबंध में बन चुके हैं जिनके द्वारा प्रस्तावित संशोधनों को मात्र लागू ही तो करना है बस उसके लिए एक बडे आंदोलन को चलाने की आवश्यकता है, धनबल और चुनाव के बीच के गठजोड को तोडे बगैर कुछ होनेवाला नहीं है। जब सब इस मामले में एकमत हो प्रयत्न करेंगे तभी कुछ होगा।

हमें अपनी मानसिकता बदलना होगी नेताओं के बेजा महत्व को भी कम करना होगा जैसाकि पूर्व के एक लेख में मैं लिख भी चूका हूं कि, 'कम करें महत्व राजनेताओं का" यह भी एक उपाय है जिससे इन नेताओं का अहंकार थोडा कम होगा। हमारे लिए क्या इष्ट है क्या अनिष्ट है यह समझना नितांत आवश्यक है जिसकी ओर हम में से अधिकांश आंखें मूंदे हुए हैं। भ्रष्टाचार के समाचारों को पढ़कर केवल नेताओं के खिलाफ जबानी खर्च करने से कुछ नहीं होगा। प्रयत्न किए जाएं तो क्या नहीं हो सकता। इस संसार में कुछ भी असंभव नहीं।

कौन कहता है कि आसमां में सुराख हो नहीं सकता, एक पत्थर तो तबियत से उछालों यारों।