Sunday, July 29, 2012

एकात्मकता - विज्ञानवादी दृष्टिकोण का प्रतीक - श्रावणमास

हिंदू पचांग में जिसे श्रावण मास कहा गया है वह रिमझिम फुहारों का महीना है। चैत्रमास से पांचवा मास श्रावणमास होता है। इस मास की पूर्णिमा को आकाश में श्रवण नक्षत्र का योग बनने के कारण इस मास को श्रावणमास कहा जाता है। इसी मास से चातुर्मास आरंभ होता है जिसका धार्मिक दृष्टि से बहुत महत्व होकरइसे ईश्वर भक्ति, अध्यात्म का काल भी कहते हैं। इस चातुर्मास की कालावधि में जो श्रावण, भाद्रपद, अश्विन और कार्तिक चार मास आते हैं उन्हीं में हिंदुओं के अनेक त्यौहार आते हैं। इस दृष्टि से श्रावण यानी त्यौहारों का राजा। भारत की विविध जातियों के प्रत्येक वर्ग का आनंदोत्सव, एकात्मकता, विज्ञानवादी दृष्टिकोण का प्रतीक है यह श्रावण का महीना। वस्तुतः भारत में मनाए जानेवाले सभी त्यौहारों के मूल में इस देश की कृषिप्रधान संस्कृति है, प्रकृति से तादात्म्य बनाए रखना है।

चातुर्मास के दौरान सूर्यदर्शन कम ही होते हैं साथ ही सृष्टि सौंदर्य चरम पर होता है। परंतु, इस काल में पाचनतंत्र दुर्बल हो जाता है इसलिए भारी भोजन शरीर स्वास्थ्य की दृष्टि से हानिकारक हो जाते हैं ऐसा आहार शास्त्र विशेषज्ञों का कहना होने के कारण प्याज, लहसुन जैसे मसालेदार पदार्थ न खाने की प्रथा का पालन किया जाता है। कृषिप्रधान देश होने के कारण आनेवाले महीनों में कृषिकार्यों में शारीरिक व्याधियों के कारण बाधा न आए इसलिए इन महीनों में इस प्रकार की प्रथा रुढ़ हुई होगी। इन मासों में आनेवाले त्यौहारों में नागपंचमी, रक्षाबंधन, जन्माष्टमी जैसे त्यौहार प्रमुख होकर श्रावण यानी सावन का महीना शिवोपासना का महीना माना जाता है।

श्रावण मास में ही समुद्र मंथन हुआ था और उसमें से निकले हलाहल का पान आदिदेव शंकर ने किया था इसलिए इस मास के सोमवार को शिवजी की पूजा की जाती है। प्रत्येक शिव मंदिर में विराजमान नंदी, वृषभ यानी बैल। इस बैल का कृषि कार्य में बहुत महत्व होने के कारण महाराष्ट्र में श्रावण अमावस्या को बैल की पूजा कर, उसे उत्तम भोजन करवा काम से विश्राम दिया जाता है।  इसके पीछे उसके कष्टों का भान कृषक को है यह दर्शाने का प्रतीक है। महाराष्ट्र के अनेक जिलों में बैलों को सजाकर उनकी शोभायात्राएं  निकाली जाती हैं। बंगाल और गुजरात में भी बैलों का त्यौहार मनाया जाता है।

सावन के महीने की शुक्ल पंचमी को मनाया जानेवाला त्यौहार है नागपंचमी। जो लोगों को नागों की रक्षा का संदेश देता है। इस दिन बांबी और नाग की पूजा कर दूध का चढ़ावा चढ़ाया जाता है। नाग और अन्य अनेक जंगली प्राणियों को डर के कारण लोग मार डालते हैं। ये प्राणी प्रकृति का संतुलन बनाए, टिकाए रखने का कार्य सतत करते रहते हैं। इसलिए पर्यावरणविद्‌ व वन्य पशु संरक्षण कार्यकर्ता, प्रेमी इनके संरक्षण के लिए और लोगों में इन प्राणियों के प्रति योग्य जानकारी उपलब्ध हो इसके लिए आंदोलनरत हैं। नाग को नहीं मारेंगे यह निश्चय कर नाग की पूजा करना योग्य है इस दृष्टि से पर्यावरणवादी इस उत्सव के संबंध में विचार करें इस प्रकार का प्रतिपादन कुछ सामाजिक कार्यकर्ता कर भी रहे हैं। कृषि को हानि पहुंचाने का काम करनेवाले चूहों का नाश करने के लिए नाग की आवश्यकता है इसलिए इनकी रक्षा करने की आवश्यकता है। नाग की चमडी सुंदर होती है, औषधी भी है, कुछ सापों का विष भी अत्यंत उपयोगी होने के कारण मूल्यवान होता है। इसलिए नागों की हत्या न हो इसके लिए भी विज्ञानवादी प्रयत्नरत हैं। इन प्रयत्नों को देखते हुए इस त्यौहार की ओर पर्यावरणवादी दृष्टिकोण से देखने का झुकाव निरंतर बढ़ रहा है।
वर्तमान में इस श्रावण मास को केवल उपवास, जप-तप, पोथी-पठन आदि तक सीमित न रखते इस मास के अन्य विज्ञानवादी दृष्टिकोणों को समझ इस मास का आधुनिक जीवन से सामंजस्य बैठाने का प्रयत्न करें तो, वह निश्चय ही अधिक योग्य होगा। 


Monday, July 23, 2012

इस्लाम में खूनी आक्रमकता का प्रारंभ कहां से?

गत दिनों 26/11 मुंबई के भयानक आतंकवादी हमले और उसी तर्ज पर अन्य स्थानों पर भी हमले की साजिश का आरोपी खूंखार आतंकवादी अबू हमजा बडे ही कठिन प्रयासों के बाद दिल्ली पुलिस द्वारा पकडा गया। वैसे अबू हमजा नाम धारण करनेवाला यह आतंकवादी कोई पहला आतंकवादी नहीं इसके पूर्व ही एक इजिप्शियन आतंकवादी अबू हमजा अल मिसरी मूल नाम मुस्तफा कमाल मुस्तफा यूरोप एवं अमेरिका में कई आतंकवादी आरोपों का सामना कर रहा है। इन खूंखार आतंकवादियों द्वारा यह नाम धारण करने के कारण अकस्मात्‌ आंखों के सामने इस्लाम का वह इतिहास तैर गया जहां से इस्लाम की खूनी आक्रमकता का प्रारंभ हुआ।

अबू हमजा पैगंबर मुहम्मद के चाचा का नाम था। जो पैगंबर के समवयस्क भी थे। वे एक उत्तम शिकारी थे जिन्होंने हाल ही में इस्लाम का स्वीकार कर पैगंबर का अनुयायित्व स्वीकारा था। इसी प्रकार से पैगंबर के एक और रिश्तेदार थे अबू जहल। परंतु, वे पैगंबर का हमेशा मजाक उडाया करते थे। जो पैगंबर के अनुयायियों को सहन नहीं होता था। एक बार इस अबू जहल ने पैगंबर के सामने ही पैगंबर का मजाक उडाया और निंदा की। इसकी सूचना मिलते ही अबू हमजा क्रोधित हो अबू जहल को सबक सीखाने के इरादे से ढूंढ़ते हुए काबा गृह जहां वे अन्य कुरैशों (पैगंबर की जाति) के साथ बैठे हुए थे जा पहुंचे। वहां हाथ के धनुष्य से एक मुक्का लगा कहा 'क्यों तू पैगंबर की निंदा कर रहा था ना? मैं भी उनके धर्म का अनुयायी हूं। हिम्मत हो तो लडने के लिए तैयार हो जा !" इस पर अन्य लोग अबू जहल को बचाने के लिए आगे आ गए और उसको बचा लिया। इसी अबू हमजा को आगे चलकर 'अल्लाह का सिंह" की उपाधि मिली तो, अबू जहल को मुसलमान 'अज्ञान का पिता" नाम से संबोधित करते हैं।

इसी प्रकार से इस्लाम के इतिहास की प्रारंभिक आक्रमकता का एक और उदाहरण इस्लाम का स्वीकार करनेवाले 40वें क्रमांक के उमर का है (वैसे इस बारे में मतभेद हैं) जो आगे चलकर मुसलमानों के दूसरे क्रमांक के खलीफा बने। उन्होंने जब इस्लाम स्वीकारा तब पैगंबर काल का छठा वर्ष था(इ.स. 615-6)। इस्लाम का खुला प्रचार शुरु हो गया था। फिर भी सार्वजनिक रुप से नमाज पढ़ी नहीं जा सकती थी। अपन मुसलमान हो गए हैं यह भी खुले रुप में कहा नहीं जा सकता था। पैगंबर ने भी उमर को यही सलाह दी थी कि, वे अपने धर्मांतरण को स्पष्ट रुप से ना कहें। परंतु, उनकी यह सलाह पसंद ना आने के कारण उन्होंने पूछा ः ''ऐ पैगंबर, अपना धर्म सत्य होते हुए भी अपन खुले तौर पर प्रार्थना क्यों नहीं कर सकते? अपन मुस्लिम हो गए यह खुलकर कहने का समय अद्याप आया नहीं है क्या?"" पैगंबर ने उमर को वैसी अनुमति दे दी?
उसके तत्काल बाद उन्होंने वे मुस्लिम हो गए हैं यह स्पष्ट रुप से जाहिर कर दिया। दूसरे दिन उमर और पैगंबर के चाचा अबू हमजा के नेतृत्व में दो कतारों में मुस्लिम काबागृह गए, उसकी परिक्रमा की और नमाज पढ़ी। वहां उपस्थित कुरैश शांति से यह देखते रहे। उमर को देखकर वे कुछ ना कर सके। उनकी नमाज की ओर देख वे दुख से कहने लगे ''सचमुच उमर को इस्लाम स्वीकार करवाकर मुस्लिमों ने कुरैशों से बदला लिया है।"" इसके बाद पैगंबर ने उमर को अल-फारुक (सत्य और असत्य को अलग करनेवाला) की उपाधि प्रदान की। इसके बाद बचे हुओ ने भी वे मुस्लिम हो गए हैं यह कहना जाहिर रुप से एवं गर्व से कहना प्रारंभ कर दिया और सार्वजनिक स्थल पर नमाज पढ़ने लगे। इस्लाम का नवपर्व आरंभ हो गया।

अब सवाल यह उठता है कि, इस्लाम में खूनी आक्रमकता का सबसे पहले प्रारंभ किसने किया? तो, उसका नाम है सद बिन वकास। और इसका कारण इस प्रकार से है - पैगंबर ने प्रारंभ में तीन चार वर्ष तक इस्लाम धर्म का प्रचार गुप्त रुप से अपने निकटवर्तियों में और व्यक्तिगत संपर्क स्थापित कर घरेलु पद्धति से किया था। अनुयायियों की संख्या लगभग 38 होने और तीन वर्ष का काल बीत जाने और अल्लाह का संदेश (74ः1 से 10), (21ः18), (15ः94) आने पर खुला धर्मप्रचार पैगंबर ने आरंभ किया। परंतु, जैसे ही पैगंबर ने खुले रुप में सार्वजनिक तौर पर धर्मप्रचार शुरु किया, मूर्तियों की निंदा और श्रद्धाहीन (इस्लाम पर श्रद्धा न रखनेवाले) अवस्था में मृत्यु पाए उनके पूर्वज नरक में गए हैं कहना प्रारंभ किया लोग नाराज हो गए और क्रमशः श्रद्धावान (इस्लाम पर श्रद्धा रखनेवाले) और श्रद्धाहीनों में शत्रुता बढ़ने लगी और इसीमें से रक्तपात की एक घटना हुई।
सद नामका पैगंबर का एक अनुयायी नमाज पढ़कर अपने श्रद्धावान सहयोगियों के साथ जाते समय उसका कुछ श्रद्धाहीनों से विवाद हो गया और इसके बाद हुई धक्का-मुक्की में सद ने उंट की तीक्ष्ण हड्डी एक श्रद्धाहीन में घुसैड दी। इसी घटना को 'इस्लाम का पहला रक्तपात" के रुप में जाना जाता है। यह सद बिन वकास इस्लाम के इतिहास का एक अत्यंत महत्पूर्ण चरित्र है। इस्लाम का स्वीकार करनेवालों में उसका अनुक्रम चौथा था। वह पैगंबर का प्रतिष्ठित सहयोगी था। जिन दस लोगों को पैगंबर ने स्वर्ग का आश्वासन दिया था उनमें से वह एक था। वह पैगंबर की मां का भतीजा होकर वीर था। बद्र और उहूद की लडाइयों में उसने भाग लिया था। उसके शौर्य के कारण उसे 'गुफा का सिंह" की उपाधि मिली थी। पैगंबरकाल में 17 वर्ष की आयु में उसने पहली बार अनेकेश्वरवादी का खून बहाया था। वह गर्व से कहता था कि इस्लाम में श्रद्धाहीन का खून बहानेवाला पहला मैं ही हूं।

ईरान के साथ हुई इतिहास प्रसिद्ध कादिसिया की लडाई में उसने दूत न्यूमन बि. मुकरीन को 12 लोगों का एक शिष्ट मंडल लेकर सम्राट यज्दगिर्द के पास भेजा था।

ईरान पर आक्रमण किसलिए?

सम्राट ने उस दूत से पूछा - ''हमारे देश पर आक्रमण तुमने किसलिए किया है? हमारी अंतर्गत कलह के कारण तुमने यह साहस किया है क्या?"" दूत प्रमुख न्यूमन ने गर्व से कहा - ''हम अल्लाह द्वारा चुने हुए लोग हैं। अल्लाह ने उसके पैगंबर के माध्यम से हमको इस्लाम के प्रसार की जिम्मेदारी सौंपी है ..... उस अनुसार इस संसार से अनेकेश्वरवाद और मूर्तिपूजा को नष्ट करने का और सभी को इस्लाम का संदेश देने का हमने निश्चय किया है। क्योंकि, केवल इस्लाम के कारण ही मानव को शांति और सुख मिल सकता है। इस्लाम में ही सभी अच्छाइयों का स्त्रोत है... उस अनुसार हम तुम्हें इस्लाम का निमंत्रण दे रहे हैं। अगर तुमने इस्लाम का स्वीकार किया तो उसके जैसा अच्छा कुछ भी नहीं। हम तुम्हें अकेला रहने देंगे। तुम्हारे मार्गदर्शन के लिए अल्लाह का ग्रंथ (यानी कुरान) सौंप देंगे। तुम्हें उसकी आज्ञाओं का पालन करना पडेगा। परंतु, अगर तुम इंकार करोगे तो हमें जिजिया दो और हमारे मांडलिक बनकर रहो। अगर तुम्हें यह भी मान्य न हो तो फिर इसका निर्णय यह तलवार करेगी।... क्रोधित सम्राट को उत्तर देते हुए आगे एक वयोवृद्ध दूत ने कहा ''अल्लाह ने हमें होशियार और बहादुर बनाया है। उसने हमें आज्ञा दी हुई है कि, श्रद्धाहीनों से, जब तक वे इस्लाम का स्वीकार नहीं करेंगे तब तक, लडाई करो। उसके इस आदेश के अनुसार ही हम यहां आए हुए हैं ... हे सम्राट अब आगे चर्चा निरर्थक है। अतः इस्लाम का स्वीकार करो, नहीं तो जिजिया दो, अन्यथा लडने के लिए तैयार हो जाओ!!""

कादिसिया के युद्ध स्थल पर ईरानी सेनापति रुस्तम द्वारा मुस्लिम दूत रुबी बिन अमीर से यह पूछे जाने पर कि, ''इस देश में तुम्हारे आने का उद्देश्य क्या है?"" दूत ने उत्तर दिया - ''यहां के लोगों को वस्तु और प्रकृति की पूजा से मुक्त कर एकमात्र सृष्टिकर्ता की(अल्लाह की) उपासना करवाने के लिए हम आए हैं। उसने आगे कहा ः ''हमारा उद्देश्य इस्लाम का प्रचार करना है। अगर तुम इस्लाम का स्वीकार करोगे तो हम तुम्हारे भाई हैं और अपने में शांति प्रस्थापित होगी। अगर तुमने इसे नकार दिया तो हम तुमसे युद्ध करेंगे और इसका निर्णय अल्लाह के स्वाधीन रहेगा।"" रुस्तम ने पूछा ः ''इस कार्य के लिए तुम्हें क्या मिलनेवाला है?"" रुबी ने उत्तर दिया ः ''अल्लाह के इस कार्य के लिए लडते हुए जीवित रहे तो विजय मिलेगी और मृत्यु को प्राप्त हुए तो स्वर्ग मिलेगा।""

एक और उदाहरण खलीद का है जो पैगंबर द्वारा अपने चाचा अल-अब्बास की सलहज मैमूना के साथ निकाह के बाद जो की उसकी मौसी थी के साथ इस्लाम का स्वीकार कर अपने मित्र अमीर के साथ जो आगे चलकर इजिप्त का विजेता बना मक्का का सेनापतित्व छोड मदीना चला आया था। इस खलीद ने शांतिपूर्ण मक्का विजय के समय कुछ मक्कावासियों को मौत के घाट उतार दिया था। जो पैगंबर की स्पष्ट आज्ञा कि लडाई नहीं होना चाहिए का सरासर उल्लंघन था। यह बात पैगंबर को मालूम होने पर पैगंबर नाराज हो गए और खलीद से जवाब तलब किया। परंतु, खलीद के उत्तर से संतुष्ट हो पैगंबर ने कहा - ''अल्लाह की आज्ञा से जो होता है वह सर्वोत्कृष्ट ही होता है।"" यही खलीद आगे जाकर इस्लाम के इतिहास में 'अल्लाह की तलवार" अथवा 'इस्लाम की तलवार" के रुप में चमका, अजरामर हो गया तथा आगे की मुस्लिम पीढ़ियों के लिए प्रेरक ठहरा।

'अल्लाह की तलवार" यह उपाधि कितनी सार्थ थी यह उसने उसके कर्तृत्व से दिखला दिया था। पैगंबर के काल में उसने छः बार सेना का नेतृत्व किया था मुटा की लडाई में उसकी आठ तलवारे टूट गई थी। इस्लाम के स्वीकार के बाद अल्लाह के कार्य के लिए उसने 100 से अधिक लडाइयां लडी थी और उनमें से 40 लडाइयां महत्वपूर्ण थी। बगैर लडाई के वह बेचैन हो जाता था अशांत हो जाता था। बगैर लडाई के घर में बैठना उसे समय का दुरुपयोग लगता था। उसका कहना था - ''मेरी जबान को खून का स्वाद आनंददायी लगता है।"" इराक में मार्च 633 से 634 के मध्य 16 बडी लडाइयां लडी गई उनमें से चार लडाइयों में कुल 2 लाख 2 हजार शत्रु सैनिक मारे गए; पांच लडाइयों के आंकडें उपलब्ध नहीं परंतु, 'हजाराोें" और 'प्रचंड संख्या में" शब्द उपयोग में लाए गए हैं; बची हुई 7 लडाइयों की मृत्यु संख्या ग्रंथों में मिलती नहीं है। मारे गए मुस्लिमों की दर्ज संख्या दखल पात्र नहीं होने होने के कारण दी हुई नहीं है। विशेष बात यह है कि लडनेवाले मुस्लिमों की संख्या केवल 10 से 20 हजार है।

पर्शिया के खिलाफ हुई उल्लेस की लडाई में जो युफ्रातिस और उसकी उपनदी कासीफ के दरम्यान हुई थी के समय खलीद ने प्रार्थना की ''ऐ अल्लाह, अगर मुझे विजयी किया तो यह नदी लाल होने तक मैं एक भी शत्रु को जीवित नहीं छोडूंगा।"" विजय के बाद तीन दिन तक कत्लेआम चला। पकडे गए 70000 सैनिकों को नहर किनारे लाकर मौत के घाट उतारा गया। नहर के द्वार खोलकर उसमें पानी छोडा गया यह सारा रक्त बहकर नदी में जा मिला खून से नदी लाल हो गई। खलीद की शपथ भी पूर्ण हो गई। उस नदी को बाद में खून की नदी नाम पडा। दमास्कस शहर की विजय के समय खलीद ने गर्जना की थी ''अल्लाह के शत्रुओं को  क्षमा नहीं।"" और इतना प्रचंड कत्लेआम किया था कि वह देख खुद खलीद की आंखों में भी आंसू आ गए थे।  

खलीद के संबंध में डॉ. इकबाल का कहना था ः ''इस्लाम स्वीकार के बाद उसका जीवन ध्येय अल्लाह के कार्य के लिए लडना ही था।"" उसकी प्रशंसा करते हुए प्रा. फजल अहमद कहते हैं - ''खलीद की मृत्य से इस्लाम के इतिहास का एक सर्वश्रेष्ठ पुत्र खो गया। तथापि, उसका आदर्श चिरंतन रहनेवाला है। इस्लाम को इतिहास की सर्वश्रेष्ठ शक्ति बनाने के लिए खलीद जीवनभर लडा। और इसी खूनी आदर्श इस्लामी इतिहास को सामने रख अनेकानेक मुस्लिम आतंकवादी वैश्विक जिहाद छेडे हुए हैं।

Saturday, July 7, 2012

विश्व में तहलका मचानेवाली छलांग - वीर सावरकर की छलांग

8 जुलाई 2010 को वीर सावरकर द्वारा जब उन्हें लंदन से बंदी बनाकर भारत लाया जा रहा था उस समय समुद्र में छलांग लगाकर तैरते हुए मार्सेलिस के सागर तट की दीवार पर चढ़कर मार्सेलिस बंदरगाह पर जा पहुंचने का जो वैश्विक कीर्तिमान उन्होंने बनाया था और उनके इस साहसी कार्य के कारण पूरा विश्व हिल उठा था तथा वैश्विक प्रतिक्रिया होकर  पूरे विश्व का ध्यान भारत में चल रहे स्वतंत्रता संग्राम की ओर आकर्षित हुआ था। इस घटना के 100 वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्य में वहां जो समारोह आयोजित होने जा रहा है के कारण वर्तमान में फ्रांस के पर्यटन केंद्र के रुप में विख्यात बंदरगाह 'मार्सेलिस" चर्चा का केंद्रबिंदु बन गया है।

परंतु, सावरकरजी का समुद्र में छलांग लगाकर मार्सेलिस पहुँचने का उपक्रम ब्रिटिशों द्वारा उन्हें अवैध तरीके से पुनः हिरासत में लेने के कारण विफल भले ही रहा हो फिर भी उनकी इस छलांग के कारण पूरे विश्व में तहलका मच गया और जो तीव्र वैश्विक प्रतिक्रिया हुई उसका फ्रांस की आंतरिक राजनीति पर दूरगामी परिणाम हुआथा और आगे चलकर फ्रांस के प्रधानमंत्री को इस मामले में इस्तीफा देना पडा था। पूरे विश्व के स्वतंत्रता प्रेमी जनमत ने इसे नापसंद किया। सावरकरजी को फिर से फ्रांस सरकार को सौंपा जाए की मांग पूरे फ्रांस ही नहीं अपितु पूरे विश्व में हुई। इस तीव्र प्रतिक्रिया से फ्रांस के सार्वभौमत्व को आंच पहुंची और जो आंदोलन फ्रांस में हुआ उसका समर्थन इस प्रकार से निम्न व्यक्तियों ने किया ः-

1. कार्ल मार्क्स का पोता जीन लांग्वे और उसके प्रचंड पाठक वर्ग वाले समाचार पत्र 'एल ह्यूमिनिटी"।
2. मार्सेलिस का महापौर और फ्रांस का महान समाजवादी नेता ज्वारे।
3. मानव अधिकार संघ के अध्यक्ष फ्रांसिस इ प्रेसेन्से।
4. फ्रांस के सभी छोटे-बडे समाचार पत्र।
5. इंग्लैंड के समाचार पत्र 'हेरल्ड ऑफ रिवोल्ट" और उसके युवा संपादक गाय-ए-अल्ड्रेड (इस संपादक को सावरकरजी की मुक्ति के लिए जो प्रचार और प्रयत्न किए उसके कारण देड वर्ष का कारावास भी भुगतना पडा) और सोशल डेमोक्रेटिक दल के प्रमुख हिंडमन और मुखपत्र 'जस्टिस" ने तो ब्रिटिश सरकार की कठोर आलोचना शुरु कर दी। सावरकरजी की मुक्तता की मांग इंग्लैंड के 'द मार्निंग पोस्ट" और 'दे डेली न्यूज" ने भी की।
6. सावरकर मुक्तता समिति लंदन।
7. स्पेन के ब्रिटेन स्थित उप राजदूत मॉनशूर पीएरॉ, लेटिन अमेरिका पेराग्वे देश के राजदूत मॉन्सूर जॉमबा और पुर्तगाल देश के राजदूत।
8. यूरोप के सभी बडे समाचार पत्र। इनमें स्वित्जरलैंड से जर्मन भाषा में प्रकाशित 'डेर वाण्डरर" भी शामिल हैं।
9. यूरोप की सोशलिस्ट कांफ्रेन्स के सितंबर 1910 के अधिवेशन में कोपनहेगन में आयोजित अधिवेशन में सावरकरजी को स्वतंत्र कर फ्रांस भेजने का प्रस्ताव सर्वसम्मति से पारित किया गया। इस प्रस्ताव के सूचक थे विश्वविख्यात कम्यूनिस्ट क्रांति के महानायक ब्लादिमिर लेनिन। उन्होंने अपने भाषण में कहा कि 'हम मानव मात्र की स्वतंत्रता की मांग करते हैं; इस कारण भारत की स्वतंत्रता के लिए लडने के सावरकरजी के अधिकार को हमारा पूर्ण समर्थन है। फ्रेंच गणतंत्र ने अपने सार्वभौमत्व की लज्जा रक्षण के लिए तो भी सावरकरजी की स्वतंत्रता का आग्रह करना चाहिए।"
10. जापान के डाएट सदस्य मोयो।
11. सर हेनरी कॉटन - ये नरमपंथी थे। सर बीपीनचंद्र पाल के घर में 1911 के नववर्ष समारोह में उन्होंने कहा कि 'सामने की दीवार पर सावरकरजी का चित्र है, सावरकरजी के बौद्धिक धैर्य और स्वदेश भक्ति की मैं प्रशंसा करता हूं। सावरकरजी को विदेश में आश्रय लेने का अधिकार है। मुझे आशा है कि सद्‌भाव और सद्‌हेतु इनका ही प्रभाव पडेगा। ब्रिटिश सरकार सावरकरजी को फ्रेंच सरकार को सौंपेगी।" हेनरी कॉटन का यह भाषण जब ब्रिटेन के समाचार पत्रों में छपा तब 'लंदन टाईम्स" ने लिखा कि 'कॉटन की सर पदवी छिन ली जाना और उनका निवृति वेतन भी बंद कर दिया जाना चाहिए।"
12. मॅडम कामा, पंडित श्यामजी कृष्ण वर्मा।
13. जर्मनी के सभी समाचार पत्रों ने भी सावरकरजी की अवैध हिरासत की तीव्र आलोचना की। 'बर्लिन पोस्ट" ने इसे अंतर-राष्ट्रीय कानून की बलि निरुपित किया।
14. बेल्जियम और अन्य राष्ट्र।

समाचार पत्रों द्वारा लगातार की गई तीव्र आलोचना के कारण ब्रिटेन को झुकना पडा और सावरकरजी की फ्रांस की भूमि पर किए गए अवैध हिरासत के मामले को अंतर राष्ट्रीय हेग न्यायलय को सौंपने का करार करना पडा। सावरकरजी के इस महान पराक्रम से पूरी दुनिया हिल उठी और भारत को भी विश्व प्रसिद्धि मिली।
ऐसे महान पराक्रमी वीर सावरकरजी के 26 फरवरी 2003 के पुण्य स्मरण दिवस पर भारत की संसद में तैल चित्र को प्रतिष्ठित कर उनके प्रति समग्र राष्ट्र की श्रद्धा अर्पण करने के अवसर पर अत्यंत श्रद्धा एवं प्रसन्नता से श्री एपीजे कलाम राष्ट्रपतिजी ने वीर सावरकरजी की ऐतिहासिक समुद्र छलांग का उल्लेख कर एक अत्यंत महत्वपूर्ण विचार प्रकट करते हुए कहा था कि ''किसी व्यक्ति के द्वारा राष्ट्रहित महान कार्य किए जाने पर, राष्ट्र को चाहिए कि उस व्यक्ति द्वारा किए गए कार्य को देखें, उसके द्वारा किया गया छोटा काम भी यदि राष्ट्र की दृष्टि से बडा हो तो उस काम का सम्मान करना मेरा कर्तव्य है। अतः आज की मेरी उपस्थिति कर्तव्य के रुप में है।""

स्व. इंदिरा गांधीजी की सरकार ने वीर सावरकर को एक महान क्रांतिकारी मानते हुए 25 मई 1970 को सावरकरजी पर एक डाक टिकट जारी किया था। डाक तार विभाग भारत शासन द्वारा उस समय प्रकाशित एक पम्पलेट में वीर सावरकर की संक्षिप्त जीवनी प्रकाशित की गई थी और उसके अंतिम पैरा में लिखा था - 'डाक तार विभाग भारत के इस महान सपूत की स्मृति में डाक टिकट जारी करते हुए अपने-आपको गौरान्वित महसूस कर रहा है।" स्व. इंदिराजी के मन में वीर सावरकरजी के लिए कितनी श्रद्धा थी इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जब मुंबई में सावरकरजी का राष्ट्रीय स्मारक बनाए जाने की घोषणा हुई तो उन्होंने अपने व्यक्तिगत बैंक खाते से इस स्मारक के लिए ग्यारह हजार रुपये दिए थे। श्रीमति इंदिराजी के शासनकाल में ही फिल्मस डिवीजन की ओर से वीर सावरकर पर 1983 में एक अनुबोध पट निकाला था जिसे 1984 में बेस्ट डॉक्यूमेंटरी ऑफ द इयर का फिल्म फेयर अवार्ड भी मिला था।

महाराष्ट्र के भू.पू. मुख्यमंत्री सुशील कुमार शिंदे का भी सावरकर प्रेम जगजाहिर है। नागपूर में सावरकर की प्रतिमा का अनावरण सुशील कुमार शिंदे के ही मुख्य आतिथ्य में संपन्न हुआ था। सोनियाजी के राष्ट्रीय अध्यक्ष रहते महाराष्ट्र के महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री  विलासराव देशमुख ने वीर सावरकर पर बनी फिल्म को राज्य में 13 नवंबर 2001 को टैक्स फ्री घोषित कर अपना सावरकर प्रेम प्रदर्शित किया था। महाराष्ट्र के कांग्रेसी ही मुख्यमंत्री यशवंतराव चव्हाण ने 15 अगस्त 1957 को वीर सावरकर का सम्मान किया था। उन्होंने यह भी कहा था कि वे अपनी किशोरावस्था से ही वीर सावरकर से अत्यधिक प्रभावित थे और उनके दर्शन करने का जुनून उन पर इस कदर सवार था कि जब सावरकर रत्नागिरी जेल में नजरबंद थे तो वे उनसे मिलने वहां जा पहुंचे थे। कांग्रेसियों का सावरकर प्रेम सिर्फ यहीं तक सीमित नहीं रहा। सन्‌ 1965 में महाराष्ट्र की कांग्रेस सरकार ने वीर सावरकर को मासिक सम्मान राशि देने की भी शुरुआत की। इसीको देखते हुए 12 मार्च 1965 को लोकसभा में पूरक प्रश्न के रुप में यह मांग उठाई गई कि केंद्र सरकार भी महाराष्ट्र सरकार की तरह ही उनका सम्मान करे। उस समय संसद में मौजूद सांसद आबिद अली  ने इसका विरोध किया तो कांग्रेस सहित सभी दलों के सांसदों का रोष आबिद अली पर फूट पडा। सभापति डॉ. जाकिर हुसैन ने भी आबिद अली के विरोध को नजरअंदाज करते हुए सभी सांसदों की सहमति से वीर सावरकर को रु. 2000 तदर्थ अनुदान के रुप में दिए जाने का आदेश दिया था। स्मरण रखने योग्य बात यह है कि उस समय केंद्र में सरकार कांग्रेस की ही थी।

पूर्व उप राष्ट्रपति श्री शंकरदयाल शर्मा ने मुंबई में निर्मित सावरकर स्मारक का उद्‌घाटन किया था और उन्हें इस राष्ट्र का महान सपूत करार दिया था। उन्होंने उस आयोजन में अपने भाषण में कहा था कि वीर सावरकर द्वारा देश की स्वतंत्रता के लिए किया गया कार्य महान और स्मरणीय है तथा ऐसे व्यक्ति का स्मारक होना अत्यंत आवश्यक था। उन्होंने अपने भाषण के दौरान यह भी कहा था कि नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने भी कई अवसरों पर वीर सावरकर से ही प्रेरणा ली थी। तत्कालीन उपराष्ट्रपति श्री शंकरदयाल शर्मा ने तो यहां तक कहा था कि वीर सावरकर के विचार संपूर्ण राज्य क्रांति और सामाजिक क्रांति के आधार हैं।

24 दिसंबर 1960 को सावरकरजी के सम्मान में मनाए गए मृत्युंजय दिवस पर जाने-माने समाजवादी नेता एस.एम. जोशी ने कुछ यूं कहा था - 'सावरकर ने भारत की संपूर्ण राजनीतिक स्वतंत्रता की घोषणा जब की थी तब मैं किशोरावस्था में था और मुझे उससे स्फूर्ति प्राप्त हुई थी। मैंने उन्हीं दिनों एक पत्र प्रकाशित किया था, जिसमें लिखा था कि 'सावरकरी बाना" का तेज आज भी नष्ट नहीं हुआ है। सावरकरजी की विचारधारा का प्रभाव लाखों देशवासियों पर पडा। सावरकर भारत की स्वतंत्रता का संदेश देनेवाले पहले नेता हैं। राजनीतिक स्वतंत्रता के संदेश के साथ ही सावरकरजी ने सामाजिक कुरीतियों पर अत्यंत निर्भीकता से कठोर प्रहार किए थे।"

शरद पवार जब महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री थे तब 28 मई 1989 को संपन्न हुए सावरकर स्मारक के उद्‌घाटन अवसर पर उन्होंने अपने भाषण में कहा था कि वीर सावरकर ने अपने सशस्त्र संघर्ष से महात्मा गांधी के अहिंसक आंदोलन को धारदार बनाया। उन्होंने स्मारक को स्वतंत्रता के बाद पैदा पीढ़ी का इस महान स्वतंत्रता सैनानी के प्रति आभार प्रदर्शन बताया। सन्‌ 2001 में मुंबई के सावरकर स्मारक में आयोजित एक कार्यक्रम में शरद पवार ने न सिर्फ वीर सावरकर पर लिखी पुस्तक का विमोचन किया बल्कि उनके विचारों की भी पैरवी की। इन्हीं शरद पवार ने वीर सावरकर के पच्चीसवें पुण्य स्मरण पर मुख्यमंत्री रहते 22 अप्रैल 1993 को उनकी सरकार द्वारा जिला नासिक ग्राम भगूर सावरकर जन्मस्थान सावरकर वाडा और उससे लगे हुए घर क्र. 424, 425 और 426 के मूल्य पेटे 9,35,063 रुपये चूकाकर यह संपत्ति खरीदकर 'राष्ट्रीय स्मारक" बनाने की दृष्टि से महाराष्ट्र राज्य पुरातत्त्व विभाग को सौंप दी। जिसको बाद में और 23 लाख रुपये व्यय कर वीर सावरकर की 115वीं जयंती पर 28 मई 1998 को महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री मनोहर जोशी ने राष्ट्र को समर्पित किया।

देश के दो महान सपूत गांधीजी और सावरकरजी की पूरे जीवन में दो बार ही भेंट हुई थी और दोनो ही बार उत्सुकता गांधीजी ने ही दर्शाई थी। पहली भेंट 1909 में लंदन में जहां क्रांतिकारियों के आग्रह पर उनके द्वार आयोजित दशहरा समारोह में कार्यक्रम की अध्यक्षता गांधीजी ने स्वीकार की थी। कहते हैं कि गांधी सावरकर में अहिंसा और सशस्त्र संघर्ष विषय पर तीन दिन तक भरपूर चर्चा हुई पर दोनो अपने-अपने विचारों पर अडिग रहे। दूसरी भेंट रत्नागिरी में जब वीर सावरकर नजरबंद थे। यहां वीर सावरकर से मिलनेवाली अन्य उल्लेखनीय हस्तियों के नाम हैं आगे चलकर जो लोकसभा के अध्यक्ष बने श्री जी.वी. मावलंकर, यशवंतराव चव्हाण, एस.के. पाटिल, अच्युतराव पटवर्धन आदि गांधीवादी। 1937 में जब सावरकरजी पूर्ण बंंधन मुक्त किए गए तब भारत के गवर्नर जनरल वरिष्ठ कांग्रेसी नेता राजगोपालाचारी ने वीर सावरकर की जीवनी लिखी। सरदार भगतसिंह और नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने वीर सावरकर रचित देशवासियों को क्रांतिप्रवण करनेवाला ग्रंथराज '1857 का प्रथम स्वातंत्र्य समर" गुप्त रुप से प्रकाशित करवा कर प्रसारित करवाया था।

पुणे के 'ऋण विमोचन ट्रस्ट" द्वारा युद्धनीति तथा रक्षा तैयारियों से संबद्ध अनुसंधान के क्षेत्र में मौलिक अनुदान देनेवाली राष्ट्रीय व्यक्ति या संस्था को दिए जानेवाले 'वीर सावरकर पुरस्कार" से वर्ष 1998 में डॉ एपीजे कलाम को सम्मानित किया गया था। वीर सावरकर पुरस्कार से अभिभूत भारत रत्न सम्मान से मंडित देश के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. एपीजे कलाम ने अपने उद्‌बोधन में बडे ही मुक्त ह्रदय से यह रहस्योद्‌घाटन किया था कि आपने अपनी रचना 'इंडिया 2020 ए विजन फॉर द न्यू मिलिनियम" ग्रंथ में 'स्ट्रैंग्थ रिस्पेक्ट्‌स स्ट्रैंग्थ" (शक्ति ही शक्ति का सम्मान करती है) यह जो दार्शनिक वाक्य प्रस्तुत किया था, वह मूलतः वीर सावरकर का दिया हुआ है। उन्होंने यह भी कहा कि उनकी तरुणाई के दिनों में वीर सावरकर के त्याग एवं विचारों को पढ़कर वे अभिभूत थे और उन्होंने सावरकर साहित्य को पढ़ा है। इस कार्यक्रम में अतिथियों का परिचय ले. जनरल बी.टी. पण्डित (से.नि.) ने दिया, सावरकर पुरस्कार की जानकारी एडमिरल नाडकर्णी (से.नि.) ने देते हुए बतलाया कि वर्ष 1997 का पुरस्कार टाईम्स ऑफ इण्डिया के (फॉरेन अफेयर) कन्सल्टिंग एडिटर श्री सुब्रह्मण्यम को भारत के तत्कालीन मुख्य सेनाध्यक्ष जनरल शंकरराय चौधरी द्वारा दिया गया था। मानपत्र का वाचन श्री नाडकर्णी ने ही किया। तत्पश्चात थलसेनाध्यक्ष जनरल वेदप्रकाश मलिक ने पुरस्कार राशि रुपये एक लाख तथा स्मृतिचिन्ह (भारत के मानचित्र में वीर सावरकर की प्रतिज्ञा जिस पर 'जयोस्तुते" अंकित है) डॉ. कलाम को प्रदान किया। कार्यक्रम का संचालन एअर मार्शल सदानन्द कुलकर्णी ने किया था। 
 
ऐसे पूर्व इतिहास को देखते हुए सावरकरजी के इस महान कर्तत्व की दखल भारत सरकार द्वारा ली जाना चाहिए। सावरकरजी के इस अद्‌भूत पराक्रमी विश्व को चमत्कृत कर देनेवाली विश्व प्रसिद्ध छलांग की स्मृति चिरंतन रहे इसके लिए फ्रांस सरकार ने मार्सेलिस में स्मारक निर्माण के लिए स्थान भी 1998 में ही उपलब्ध करा दिया है। सर्वप्रथम स्मारक निर्माण के मुद्दे को उठानेवाले थे मुंबई के महापौर रमेश प्रभु और रा.स्व.से.संघ के वयोवृद्ध कार्यकर्ता श्री रामभाऊ बर्वे उन्होंने इस संबंध में सावरकर सेवा केंद्र विलेपार्ले (मुंबई) के माध्यम से मार्सेलिस नगर के महापौर के साथ पत्राचार किया और सफलता पाई। मार्सेलिस नगर के महापौर श्री जीन क्लाऊडे ने उनका प्रस्ताव स्वीकारते हुए उन्हें थ्रू प्रापर चैनल यानी भारत सरकार के माध्यम से प्रस्ताव भेजने को कहा। सा.से.केंद्र के श्री बर्वे और श्री प्रभु ने अटलजी से इस संबंध में अनुरोध किया। अटलजी ने यह मामला विदेश विभाग को सौंप दिया। परंतु, दुर्भाग्य कि भाजपानीत एनडीए ने एक पत्र न भेजा और भाजपा श्रेय से वंचित रही तथा मामला ठंडे बस्ते में चला गया। परंतु, विश्व में तहलका मचा देनेवाली इस छलांग का यह शताब्दी वर्ष होने से यह मुद्दा फिर से चर्चा में आ गया और लोकसभा में भी इस मुद्दे पर चर्चा हुई यह बात अलग है कि अय्यर जैसे विघ्न संतोषी कुछ लोगों ने विरोध किया। परंतु, कई कांग्रेसी सावरकरजी पर श्रद्धा रखते हैं स्मारक स्थापित करने के प्रति उत्सुक हैं। इसलिए सावरकर स्मारक समिति भगूर, जिला नासिक (महाराष्ट्र) के पदाधिकारियों की विदेश मंत्री श्री एस.एम. कृष्णा के साथ इस संबंध में बैठकें भी हो चूकी हैं और हम ऐसा सोचते हैं कि शायद कांग्रेस सरकार को सद्‌बुद्धि आ जाए। अगर सरकार स्वयं को इस राष्ट्रीय पुण्य से वंचित रखना चाहे तो रखे। परंतु, जनता गुरुवार 8 जुलाई 2010 को फ्रांस के सागर तट पर मार्सेलिस बंदरगाह में बहुत बडी संख्या में उपस्थित रहकर वीर सावरकर का जयगान गूंजाते हुए उन्हें श्रद्धांजली देनेवाली है। उनका नेतृत्व करनेवालों में विख्यात महामहोपाध्याय श्री शंकर अभ्यंकर भी हैं। जिनका सहयोग अनेक ट्रेवल एजेंसियां करते हुए अपने साथ बडी संख्या में भारतीयों को ले जानेवाली हैं।

Sunday, July 1, 2012

सावरकर नावाचा सूर्य

सावरकर म्हणजे प्रखर सूर्य! एक बहुआयामी व्यक्मित्त्व असलेला आजच्या युगातला राष्ट्रोद्धारक मानवतावादी महर्षि! त्यांच्या प्रखर हिंुदत्व दर्शनाने भल्या-भल्यांचे डोळे दिपले. पण म्हणूनच त्यांचे अन्य समाजोद्धारक विचार नि आचार उपेक्षितच राहिले. विशेषकरुन मुळातच भक्तीभावी स्वभावाच्या अम्हां लोकांस आचरण हे आवडत नाही. म्हणून तर सावरकरांचा समाजसुधार जो एकेकाळी गायला जायचा आज ऐकायला ही मिळत नाही.

वीर सावरकरांचा हिंदुराष्ट्र हा काही एकांगी, ठिसूळ किंवा तात्पुरत्या पायावर उभारलेला नाही. हिंदुराष्ट्राची प्रबळ आणि प्रभावी उभारणी करण्यासाठी राज्यक्रांतीप्रमाणेच समाजक्रांती केली पाहिजे. ऐका क्रांतीवाचून दुसरी क्रांती घडणेच कठीण; घडली तरी टिकणेतर सुतराम अशक्य. हिंदु संघटनेच्या आंदोलनाची तत्त्वात्मक नि कार्यात्मक योजना वीर सावरकर अंदमानातून सुटण्यापूर्वीपासूनच आंखीत होते. सन्‌ 1924 मध्यें ते बंदीतून सुटून रत्नागिरीस स्थलबद्ध झाले. त्या दिवसापासून त्यांनी त्या योजनेची तिच्या त्या दुहेरी स्वरुपांत कार्यवाही करण्यास प्रारंभिले, तेव्हापासूनच ते प्रचारावू लागले आणि त्यांच्या कार्यक्रमाचे त्यांच्या स्थलबद्धतेच्या कक्षात सामावतील असे प्रत्यक्ष प्रयोगहि त्यांनी चालविले. त्यांनी त्यांतील अंगोपांगाचे विशदीकरण करणारे अनेक स्वतंत्र ग्रंथ आणि श्रद्धानंद, केसरी, किर्लोस्कर प्रभृती नियतकालिकांमधून शतावधि स्फुट लेख ही लिहिले होते. तेच प्रयोग आम्ही आता पाहणार आहोत -  

1924 साली सशर्त सुटका झाल्यानंतर पहिली तीन वर्षे म्हणजे 1926 अखेर पर्यंत सावरकरांना अस्पृश्यता निवारण, स्वदेशी प्रचार व बलसंवर्धनासाठी व्यायामशाळांचा प्रसार या तीन गोष्टींवर मुख्यतः भर दिला. पुढ़े महाराष्ट्रभर ज्या त्यांच्या भाषाशुद्धीच्या आंदोलनाने धमाल उडाली त्या भाषाशुद्धीचे कार्यहि या काळात सुरु झालेले होते. याची उदाहरणे म्हणजे 'हवामाना"ला 'ऋतुमान", रत्नागिरीच्या 'नेटिव्ह जनरल लायब्ररी"चे रुपांतर 'नगरवाचनलया"त किंवा 'नगरग्रंथालया"त झाले. याच प्रमाणे शाळांतून 'हजर"च्या ऐवजी 'उपस्थित"चा पुकारा करणे इत्यादि. कोणत्याहि नवीन गोष्टीची आरंभीच्या काळात जशी हेटाळणी आणि टवाळी होते त्याप्रमाणे या भाषाशुद्धीबाबत घडू लागले होते. याच काळात सावरकरांनी विद्यार्थ्यांसाठी हिंदीचे वर्ग चालविले. सावरकरांना भारताची हिंदी हीच राष्ट्रभाषा अभिप्रेत होती. मात्र ती हिंदी संस्कृतनिष्ठ असली पाहिजे असा त्यांचा आग्रह होता. त्याच प्रमाणे त्यांनी लिपिशुद्धी व भाषाशुद्धी मंडळे स्थापन केली, जातीभेदोच्छेदक संस्थेला जन्माला घातले. पहिले भारतीय वायुवीर रत्नागिरीचे कॅॅप्टन दत्तात्रय लक्षमण पटवर्धन तथा 'डी. लॅकमन" यांच्या देखरेखीखाली 'रायफल क्लब"ची त्यांनी स्थापना केली. तसेच सावरकरांनी रत्नागिरीत समाजक्रांतील पूरक असे एक 'अखिल हिंदु उपहारगृह" सुरु केले. त्या उपाहारगृहाचे संचालक श्रीगजाननराव दामले होते. तेथे चहा, चिवडा महाराच्या हातचा मिळे. तेथेच सावरकरांचे पाहुणे त्यांना भेटायला येत. अस्पृश्योद्धाराबरोबरच सावरकरांचे शुद्धीकरणाचे कार्यहि सुरु होते. त्यांनी घडवून आणलेले महत्वाचे शुद्धीकरण म्हणजे खारेपाटणच्या धाक्रस कुटुंबाचे. दहा-पंधरा वर्षापूर्वी ख्रिश्चन झालेल्या या कुटुंबाला सावरकरांनी शुद्धीसमारंभ करुन परत हिंदुधर्मात घेतले. समाजात रुळविले इतकेच नव्हे तर त्यांच्या दोन उपवर मुलींची लग्ने योग्य अशा वरांशी करुन दिली. आणि एका मुलीच्या लग्नात तर श्रीधाक्रस यांच्या आग्रहावरुन कन्यादान ही केले. सावरकरांनी प्रचारिलेल्या गोष्टी आता समाजाच्या अंगवळणी पडू लागल्या होत्या. पण त्यावर संतुष्ट न राहता गतिमान असणे हा सावरकरांच्या कोणत्याहि आंदोलनाचा एक महत्वाचा भाग असे. म्हणून देवालयाच्या 'पायरीनंतर सभामंडप आंदोलन" सावरकरांनी सुरु केले. स्पृश्यास्पृश्यांचे समिश्र मेळे देवालयाच्या सभामंडपात जाण्यास काहीच हरकत नाही असा प्रचार सुरु केला. कोणत्याहि सार्वजनिक कार्यक्रमाच्या वेळी अस्पृश्य मानल्या गेलेल्या बांधवांना बरोबर घेऊन ते देवळात जाऊ लागले. या आंदोलनामुळे अनेक लोक त्यांस सोडून जाऊ लागले सुधारकच काय ते राहिले. सामान्य लोकांना अस्पृश्यांचा देवालय प्रवेश हा त्याकाळी भयंकर भ्रष्टाचार वाटला यांत काहीच नवल नाही. सावरकर आपल्या कोणत्याहि नव्या आंदोलनाचा उपक्रम करीत तो सार्वजनिक गणेशोत्सवातून आणि रत्नागिरीच्या पुरातन श्रीविट्ठल मंदिरातून. गणेशोत्सव समिती हे सावरकरांचे व्यासपीठ होते. अस्पृश्यता ही धर्मशास्त्राला धरुन असल्याने तिचे पालन केले जावे असे म्हणणाऱ्यांची व्याख्याने मुद्दाम सनातन्यांनी घडवून आणावी तर अस्पृश्यता निषेधाची सुधारकांनी. अशी ही रस्सीखेच जवळ-जवळ दोन वर्षे सुरु होती. या मुळे समाज अगदी खालच्या थरापासून ढ़वळून निघत होता. अस्पृश्यते बाबत अनुकूल वा प्रतिकूल चर्चा या विना रत्नागिरीच्या वातावरणात इतर विषय नव्हता.

1928 मध्यें दसऱ्याच्या शुभदिनी, परधर्मीयांना आपण आपल्या घरात जेथ पर्यंत जावू देतो तेथ पर्यंत तरी अस्पृश्यास येऊ देण्यास तयार असलेल्या हिंदु नागरिकांच्या घरात, आपल्या सवाशे अनुयायी आणि 8-10 अस्पृश्यांस समवेत समारंभपूर्वक प्रवेश केला. आणि ती सर्व नावे प्रसिद्ध करण्यात आली. शाळातून ही अस्पृश्य समजल्या जाणाऱ्या मुलांना सरमिसळ बसविण्यात यावे, त्यांना शाळेच्या पडवीत किंवा वर्गात एका बाजूला बसविण्यात येऊ नये. ही गोष्ट सावरकर हिंदु संघटनाच्या दृष्टीने अत्यंत भरीव आणि मूलगामी समजत. पण सावरकरांच्या या ही आंदोलनाला प्रखर विरोधाला तोंड द्यावे लागले. कित्येक शाळातून शिक्षकांचे संप झाले तर कित्येक गांवातून गांवकऱ्यांचा विरोध झाला. काही ठिकाणी स्पृश्यांनी दिलेल्या जागा काढून घेतल्या तर काही ठिकाणी अस्पृश्यांनी मुलांस शाळेत पाठिविले तर बहिष्कार घालण्यात येईलच्या धमक्या देण्यात आल्या.

देवालय प्रवेशा बरोबरच सावरकरांना समाजाच्या ऱ्हासास कारणीभूत झालेल्या 'बंद्या" तोडून टाकावयाच्या होत्या व म्हणून जुन्या देवालयां मध्यें अस्पृश्यांच्या प्रवेशाच्या चळवळी बरोबरच ज्या देवालयात अस्पृश्यांना सवर्ण हिंदुं प्रमाणे प्रवेश नि इतर अधिकार असतील असे 'अखिल हिंदुंसाठी श्रीपतितपावन मंदिर" श्रीभागोजी कीर शेटजींच्या साहय्याने उभारले. 1929च्या दहा मार्चला या मंदिराची कोनशिला बसविण्याचा समारंभ श्रीमत्‌ शंकराचार्य डॉ. कूर्तकोटी यांच्या हस्ते पार पडला. उपस्थित असलेल्या स्पृश्यास्पृश्यांच्या प्रचंड जनसमुदाया समोर सावरकरांनी या देवालयाच्या उद्देशाची रुपरेषा खालील प्रमाणे कथन केली -

1). या देवालयात शंख, चक्र, पद्म, गदाधारी भगवान श्रीविष्णुंची लक्ष्मीसह स्थापना करण्यात येईल. 2). त्या मूर्तीची पूजा करण्याचा अधिकार जातीनिर्विशेषपणे सर्व हिंदुंना समान असेल. 3). मात्र अशी पूजा करणाऱ्याने प्रथम देवालयाच्या आवारात स्नान करुन व शुद्ध वस्त्रे धारण करुन नंतर पूजेसाठी गाभाऱ्यात जावे. 4). देवालयाचा पुजारी 'स्वधर्मक्षम" असला पाहिजे, मग तो कोणत्याहि जातीचा असो. अशा प्रकारे सर्वहिंदुंना खुले असणारे देवालय अखिल महाराष्ट्रातच काय पण अखिल भारतातहि दुर्मिळ असल्यामुळे या मंदिराला एक वैशिष्ट्य प्राप्त झाले. या प्रसंगी सावरकरांनी भाषणात म्हटले ''अस्पृश्यांना प्रेमाने शिवून अंगीकारणारे दोन शंकराचार्य झाले. पहिले पीठ स्थापक आद्य शंकराचार्य काशीला स्नान करुन येत असता मार्गात अद्वैत तत्त्वज्ञानी अशा एका अस्पृश्याला आलिंगणारे आणि दुसरे हे शंकराचार्य डॉ. कूर्तकोटी अखिल हिंदुंचे प्रतिनिधी म्हणून आलेल्या पांडु विठु महारास हार आणि हात आपल्या गळ्यात घालू देऊन त्या पांडोबा बरोबरच स्वतःहि कृतार्थ झाले. हे श्रीपतितपावन मंदिर आठवण आहे सनातन्यांच्या विरोधाला दाद न देता अस्पृश्यतेच कलंक धुवून काढ़ण्याच्या सावरकरांच्या क्रांतीकारी कार्याची.

श्रीपतितपावन मंदिरा मुळे सावरकरांना निर्वेधपणे समाजक्रांतीचे कार्य करण्यासाठी स्वतंत्र व्यासपीठ प्राप्त झाले. जेव्हा सनातन्यांनी अस्पृश्यांना गणेशोत्सवाकरिता विट्ठल मंदिराच्या सभामंडपात प्रवेश देण्याचे नाकारले तेव्हा सावरकरांनी सभासदत्वाचे त्यागपत्र देऊन अखिल हिंदुंना गणेशोत्सवात भाग घेता येईल असा अखिल गणेशोत्सव श्रीपतितपावन मंदिरात सुरु केला. याच उत्सवात दीड हजार स्त्रियांनी भाग घेतलेले अखिल हिंदु हळदीकुंकुहि झाले. विशेष नमूद करण्या सारखे म्हणजे पाच अस्पृश्य मुलांनी गायत्रीपठणाच्या  स्पर्धेत भाग घेतला. शिवू भंग्याने शास्त्रशुद्ध स्वरां मध्यें शेकडो लोकांसमोर तीनदा गायत्रीमंत्र म्हणून बक्षीस पटकाविले. सर्वात महत्वाची गोष्ट म्हणजे सावरकरांची 'हिंदुतील जातीभेद" या विषयावर झालेली व्याख्याने, ही होय. हिंदुजातीच्या सध्याच्या दुबळेपणाला, विस्कळीतपणाला 'हिंदुतील जातीभेद" महत्वाचे कारण आहे. हिंदुंच्या सामर्थ्याला खच्ची करुन टाकणाऱ्या बहुतेक सर्व दुष्ट रुढ़ींचे मूळ या जन्मजात जातीभेदात आहे अशी त्यांची ठाम धारणा होती. आणि म्हणूनच जातीभेदाच्या उच्छेदनाचे आंदोलन हाती घेण्याचे त्यांनी ठरविले.
त्यांनी 'केसरी"मधून 'जातीभेदाचे इष्टनिष्टत्व" या मथळ्याखाली लेखमाला लिहिली व या प्रश्नाला महाराष्ट्रात चालना दिली. प्रचलित जातीभेदाचा अनिष्टपणा मुख्यतः तरुणांच्या मनावर बिंबला पाहिजे म्हणून रत्नागिरीतील तरुणांचे 'हिंदु मंडळ" स्थापन करुन त्यात जातीभेदाचे अनिष्टत्व सिद्ध करण्यासाठी चर्चा करित असत. त्यांचे म्हटणे होते जातीभेद हा सप्तपाद प्राणी आहे. ते पाय म्हणजे वेदोक्तबंदी, सिंधुबंदी, शुद्धीबंदी, व्यवसायबंदी, स्पर्शबंदी, रोटीबंदी व बेटीबंदी. यातील विशेषतः तीन पाय स्पर्शबंदी, रोटीबंदी व बेटीबंदी तोडले की जातीभेद खाली कोसळलाच म्हणून समजा. याकरिता 'जातीभेदोच्छेनार्थ अखिल हिंदु सहभोजन करिष्ये" असा संकल्प सोडून सहभोजने झाली पाहिजेत. 16 सप्टेंबर 1930 रोजी हे पहिले सहभोजन रत्नागिरीला झाले. या समारंभामुळे रत्नागिरीतच नाही तर महाराष्ट्रभर खळबळ उडाली. आता जातीभेदउच्छेदनाचा संकल्प सोडून सहभोजने म्हणजे आगीत तेल ओतणे होते. आधीच त्यांना रुढ़ीप्रिय समाज 'पाखंडी", 'सबगोलंकारी" म्हणत होता. पूर्वीच काही अनुयायी देवालय प्रकरणामुळे सोडून गेले होते. त्यात आणखिन भर पडली. तथापि, 'वरंजनहितं ध्येयं केवला न जनस्तुती" या ध्येयाने प्रेरित झालेल्या सावरकरांनी फिकीर केली नाही.

जात्युच्छेदक सहभोजनांचा व सहभोजकांवरील सनातन मंडळीच्या बहिष्काराचा धुमाकूळ सुरु झाला असताना श्रीपतितपावन मंदिराच्या उद्‌घाटनाच्या वेळेस भागोजी कीर शेटजी जातीने भंडारी असल्यामुळे वेदोक्त पद्धतीने आम्ही धार्मिक विधि करणार नाही, असे शास्त्रीपंडितांनी सांगितले. तेव्हा सावरकर एका बाजूला आणि शास्त्रीपंडित दुसऱ्या बाजूला या पद्धतीने दोन दिवस शास्त्रार्थ चालला होता. सावरकरांचे धर्मग्रंथांचे वाचन किती दांडगे आहे हे त्यावेळी सर्वांच्या प्रत्ययास आले. शंकराचार्य डॉ. कूर्तकोटी यांनी कीरशेटजींच्या हस्ते वेदोक्त पद्धतीने धार्मिक विधि व्हावयास हरकत नाही असा निर्णय दिला. तरीहि शास्त्रीपंडितांना ते मान्य झाले नाही. भाविक वृत्तीचे शेटजी म्हणाले पुराणोक्त तर पुराणोक्त पण देवप्रतिष्ठा वेळेवर होऊ द्या. सावरकर तत्काल म्हणाले प्रत्येक हिंदुला वेदोक्ताचा अधिकार आहे. या तत्त्वाला सोडणार असाल तर मला ही सोडा, पण जर तत्त्वास सोडणार नसाल तर पूर्वास्पृश्यांचा जो हजारोंचा समुदाय आज आलेला आहे त्या हजारो हिंदुंच्या हस्ते देवमूर्ती उचलून 'जय देवा" असा घोष करुन आम्ही ती मूर्ती स्थापणार. हाच आमचा विधि. 'हिंदुधर्म की जय"चे हजारो कंठातून निघणारे जयघोष हाच आमचा वेदघोष आणि 'भावेहि विद्यते देवो" हाच आमचा शास्त्राधार.

शेवटी मसूरकर महाराजांच्या आश्रमातील वे.शा.सं. विष्णुशास्त्री मोडक यांनी महाराजांच्या आज्ञेनुसार कीरशेटजींच्या हस्ते वेदोक्त विधिने देवप्रतिष्ठादिक सारे धर्मविधि यथासांग पार पाडले आणि दिनांक 22 फेब्रुवारीला श्रीपतितपावनाची मूर्तीची प्राणप्रतिष्ठा श्रीशंकराचार्यांच्या हस्ते 'हिंदुधर्म की जय"च्या गगनभेदी आरोळीत करण्यात आली. या समारंभात पुण्याचे श्रीराजभोग यांनी शंकराचार्यांची पाद्यपूजा केली. दुसऱ्या दिवशी 23रोजी अन्नसंतर्पणाच्या कार्यक्रमात 'सावरकरांचे पाखंडी सहभोजन होता कामा नये" असा आग्रह अनेक सनातनीयांबरोबरच श्रीमसूरकर महाराज, संत पाचलेगांवकर महाराज व स्वतः डॉ. कूर्तकोटी यांनी कीरशेटजीकडे   धरला. सहभोजन, जातीउच्छेदन ही आंदोलने आततायीपणाची व पाखंडी आहेत. सावरकरांच्या या आंदोलनाला आमची मुळीच संमती नाही असे ते जाहीरपणे सांगू लागले.
पण या अन्नसंतर्पणातील जात्युच्छेदक सहभोजनाचा कार्यक्रम सावरकर रद्द करणे शक्यच नव्हते. या समारंभातील दूरदूरच्या ठिकाणाहून आलेल्या लोकांना रत्नागिरीतील समाजक्रांतीचे प्रात्यक्षिक दाखविण्याची संधी गमविणे सावरकरां सारख्या आग्रही प्रचारकाला मानविणारे नव्हते. त्यांनी कीरशेटजींकडे न्याय्य मागणी केली, ''अन्नसंतर्पणाचा सहभोजन करु इच्छिणाऱ्यांची एक स्वतंत्र पंगत ठेवण्याची व्यवस्था करा, ज्याला त्या पंगतीत बसावयाचे असेल तो बसेल. सनातन्यांच्या जातवार पंक्तीला आम्ही सहभोजक विरोध करणार नाही. त्यांनी आमच्या पंक्तीला विरोध करु नये. त्यांचा प्रामाणिकपणा आम्ही मानावा आमचा त्यांनी."" सावरकरांच्या जातीभेदोच्छेदक सहभोजनाचे लोण आमच्या इंदुरातहि चटनी-रोटी सहभोजनाच्या रुपात पोहोचले होते. 

22 फेब्रुवारीलाच मंदिराच्या सभामंडपात दुपारी मुंबईचे अस्पृश्यता निवारक परिषदेचे सहावे अधिवेशन भरले. अध्यक्ष म्हणून सावरकरांची निवड करण्यात आली. सुभेदार घाटगे (पुणे) यांनी तर 'आमचे हे खरे शंकराचार्य" अशी पदवी सावरकरांना दिली. स्त्रियां पुरुषांपेक्षा अधिक कर्मठ, रुढ़ीग्रस्त असतात. त्यामुळे जात्युच्छेदनाचे आंदोलन स्त्रियांत रुजले तरच ते जास्त शाश्वत स्वरुपाचे होण्याचा संभव होतो. त्यासाठी त्यांच्यातहि उघडपणे रोटीबंदी तोडण्याची प्रवृत्ती सुरु करणे आवश्यक होते. पण ते काम साधे नव्हते. त्यासाठी खूप मेहनत पडली. वर्ष-दीडवर्षाच्या प्रयत्नांनंतर तीस-पस्तीस सुविद्य स्त्रियां आणि वीस-पंचवीस अस्पृश्य स्त्रियां यांचे पहिले सहभोजन 21सप्टेंबरला पार पडले. याच मंदिरात सावरकर अस्पृश्यांना जानवी सुद्धा वाटत असत. 
1933 सालच्या शिवरात्रीला रत्नागिरीतील जन्मजात अस्पृश्यतेचा मृत्युदिन पाळण्याचे रत्नागिरी हिंदूसभेने ठरविले. त्यां 'दिना" साठी पुण्याच्या डिप्रेस्ड क्लास मिशनचे कर्मवीर शिंदे आणि दलित वर्गाचे पुढ़ारी पा.ना.राजभोग आले होते. समारोपाच्या अध्यक्षीय भाषणात कर्मवीर शिंदे ज्यांनी अस्पृश्यता निवारणाच्या कार्यात आपले सगळे जीवन व्यतीत केले होते. महर्षि शिंदे म्हणाले ''रत्नागिरीतील सामाजिक परिवर्तनाची मी बारिक रीतीने पाहणी केली ती वरुन मी निःशंकपणे असे सांगतो की, येथे घडत असलेली सामाजिक क्रांती खरोखरच अपूर्व आहे, सामाजिक सुधारणेचे काम जन्मभर करीत आलो आहे. ते इतके कठीण आणि किचकट आहे की, मी देखील मधून-मधून निरुत्साही होतो. पण असे हे किचकट काम अवघ्या सात वर्षात रत्नागिरीसारख्या सनातनी नगरात सावरकरांनी करुन दाखविले. ही रत्नागिरी केवळ अस्पृश्यतेचेच उच्चाटन करुन थांबली नाही तर ती जन्मजात जातीभेदांचेच उच्चाटन करण्यास बद्ध-परिकर झाली. तुम्ही अस्पृश्यांबरोबर सहभोजन, सहपूजन इत्यादि सारे सामाजिक व्यवहार प्रकटपणे करीत असताना मी पाहिले आहे. याचा मला इतका आनंद होत आहे की, हे दिवस पाहायला मी जगलो हे बरे झाले असे मला वाटते.""

सावरकरांची ही समाजक्रांती पुढ़े खंडित झाली परिणामी 1927 मध्यें महाडला डॉ. आंबेडकरांची केलेली घोषणा 1956च्या दसऱ्याला कार्यवाहीत आणली. 24मे 1956 बुद्धजयंतीला मुंबईच्या नरे पार्कवर डॉ. आंबेडकरांनी निर्वाणीची घोषणा केली की येत्यां 14ऑक्टोंबर 1956विजयादशमीला अनुयायांसमवेत मी बौद्धधर्म ग्रहण करणार. डॉ. आंबेडकरांना या विचारापासून परावृत्त करणारी एकहि हिंदुशक्ती नव्हती असेच म्हणावे लागेल. सरसंघचालक श्रीगोलवलकर गुरुजींनी दत्तोपंत ठेंगडींना डॉ. आंबेडकरांकडे पाठविले. ठेगंडींच्या माध्यमें आलेल्या संघाच्या विनंतीवर डॉ. आंबेडकर म्हणालेत संघस्थापनेच्यानंतरच्या तीस वर्षात तुम्हीं केवळ 27-28लाख सवर्ण, दलितांना संघात आणू शकलात तर साऱ्या दलितवर्गाला तुमच्या संघात आणायला किती वर्षे लागतील? ठेंगडी मौन झाले नि प्रत्यक्ष नागपूरातच दसऱ्याच्या विजयदिनी तथाकथित अस्पृश्यांचा मोठा भाग हिंदुधर्मसमाजातून वेगळा झाला.