Monday, July 23, 2012

इस्लाम में खूनी आक्रमकता का प्रारंभ कहां से?

गत दिनों 26/11 मुंबई के भयानक आतंकवादी हमले और उसी तर्ज पर अन्य स्थानों पर भी हमले की साजिश का आरोपी खूंखार आतंकवादी अबू हमजा बडे ही कठिन प्रयासों के बाद दिल्ली पुलिस द्वारा पकडा गया। वैसे अबू हमजा नाम धारण करनेवाला यह आतंकवादी कोई पहला आतंकवादी नहीं इसके पूर्व ही एक इजिप्शियन आतंकवादी अबू हमजा अल मिसरी मूल नाम मुस्तफा कमाल मुस्तफा यूरोप एवं अमेरिका में कई आतंकवादी आरोपों का सामना कर रहा है। इन खूंखार आतंकवादियों द्वारा यह नाम धारण करने के कारण अकस्मात्‌ आंखों के सामने इस्लाम का वह इतिहास तैर गया जहां से इस्लाम की खूनी आक्रमकता का प्रारंभ हुआ।

अबू हमजा पैगंबर मुहम्मद के चाचा का नाम था। जो पैगंबर के समवयस्क भी थे। वे एक उत्तम शिकारी थे जिन्होंने हाल ही में इस्लाम का स्वीकार कर पैगंबर का अनुयायित्व स्वीकारा था। इसी प्रकार से पैगंबर के एक और रिश्तेदार थे अबू जहल। परंतु, वे पैगंबर का हमेशा मजाक उडाया करते थे। जो पैगंबर के अनुयायियों को सहन नहीं होता था। एक बार इस अबू जहल ने पैगंबर के सामने ही पैगंबर का मजाक उडाया और निंदा की। इसकी सूचना मिलते ही अबू हमजा क्रोधित हो अबू जहल को सबक सीखाने के इरादे से ढूंढ़ते हुए काबा गृह जहां वे अन्य कुरैशों (पैगंबर की जाति) के साथ बैठे हुए थे जा पहुंचे। वहां हाथ के धनुष्य से एक मुक्का लगा कहा 'क्यों तू पैगंबर की निंदा कर रहा था ना? मैं भी उनके धर्म का अनुयायी हूं। हिम्मत हो तो लडने के लिए तैयार हो जा !" इस पर अन्य लोग अबू जहल को बचाने के लिए आगे आ गए और उसको बचा लिया। इसी अबू हमजा को आगे चलकर 'अल्लाह का सिंह" की उपाधि मिली तो, अबू जहल को मुसलमान 'अज्ञान का पिता" नाम से संबोधित करते हैं।

इसी प्रकार से इस्लाम के इतिहास की प्रारंभिक आक्रमकता का एक और उदाहरण इस्लाम का स्वीकार करनेवाले 40वें क्रमांक के उमर का है (वैसे इस बारे में मतभेद हैं) जो आगे चलकर मुसलमानों के दूसरे क्रमांक के खलीफा बने। उन्होंने जब इस्लाम स्वीकारा तब पैगंबर काल का छठा वर्ष था(इ.स. 615-6)। इस्लाम का खुला प्रचार शुरु हो गया था। फिर भी सार्वजनिक रुप से नमाज पढ़ी नहीं जा सकती थी। अपन मुसलमान हो गए हैं यह भी खुले रुप में कहा नहीं जा सकता था। पैगंबर ने भी उमर को यही सलाह दी थी कि, वे अपने धर्मांतरण को स्पष्ट रुप से ना कहें। परंतु, उनकी यह सलाह पसंद ना आने के कारण उन्होंने पूछा ः ''ऐ पैगंबर, अपना धर्म सत्य होते हुए भी अपन खुले तौर पर प्रार्थना क्यों नहीं कर सकते? अपन मुस्लिम हो गए यह खुलकर कहने का समय अद्याप आया नहीं है क्या?"" पैगंबर ने उमर को वैसी अनुमति दे दी?
उसके तत्काल बाद उन्होंने वे मुस्लिम हो गए हैं यह स्पष्ट रुप से जाहिर कर दिया। दूसरे दिन उमर और पैगंबर के चाचा अबू हमजा के नेतृत्व में दो कतारों में मुस्लिम काबागृह गए, उसकी परिक्रमा की और नमाज पढ़ी। वहां उपस्थित कुरैश शांति से यह देखते रहे। उमर को देखकर वे कुछ ना कर सके। उनकी नमाज की ओर देख वे दुख से कहने लगे ''सचमुच उमर को इस्लाम स्वीकार करवाकर मुस्लिमों ने कुरैशों से बदला लिया है।"" इसके बाद पैगंबर ने उमर को अल-फारुक (सत्य और असत्य को अलग करनेवाला) की उपाधि प्रदान की। इसके बाद बचे हुओ ने भी वे मुस्लिम हो गए हैं यह कहना जाहिर रुप से एवं गर्व से कहना प्रारंभ कर दिया और सार्वजनिक स्थल पर नमाज पढ़ने लगे। इस्लाम का नवपर्व आरंभ हो गया।

अब सवाल यह उठता है कि, इस्लाम में खूनी आक्रमकता का सबसे पहले प्रारंभ किसने किया? तो, उसका नाम है सद बिन वकास। और इसका कारण इस प्रकार से है - पैगंबर ने प्रारंभ में तीन चार वर्ष तक इस्लाम धर्म का प्रचार गुप्त रुप से अपने निकटवर्तियों में और व्यक्तिगत संपर्क स्थापित कर घरेलु पद्धति से किया था। अनुयायियों की संख्या लगभग 38 होने और तीन वर्ष का काल बीत जाने और अल्लाह का संदेश (74ः1 से 10), (21ः18), (15ः94) आने पर खुला धर्मप्रचार पैगंबर ने आरंभ किया। परंतु, जैसे ही पैगंबर ने खुले रुप में सार्वजनिक तौर पर धर्मप्रचार शुरु किया, मूर्तियों की निंदा और श्रद्धाहीन (इस्लाम पर श्रद्धा न रखनेवाले) अवस्था में मृत्यु पाए उनके पूर्वज नरक में गए हैं कहना प्रारंभ किया लोग नाराज हो गए और क्रमशः श्रद्धावान (इस्लाम पर श्रद्धा रखनेवाले) और श्रद्धाहीनों में शत्रुता बढ़ने लगी और इसीमें से रक्तपात की एक घटना हुई।
सद नामका पैगंबर का एक अनुयायी नमाज पढ़कर अपने श्रद्धावान सहयोगियों के साथ जाते समय उसका कुछ श्रद्धाहीनों से विवाद हो गया और इसके बाद हुई धक्का-मुक्की में सद ने उंट की तीक्ष्ण हड्डी एक श्रद्धाहीन में घुसैड दी। इसी घटना को 'इस्लाम का पहला रक्तपात" के रुप में जाना जाता है। यह सद बिन वकास इस्लाम के इतिहास का एक अत्यंत महत्पूर्ण चरित्र है। इस्लाम का स्वीकार करनेवालों में उसका अनुक्रम चौथा था। वह पैगंबर का प्रतिष्ठित सहयोगी था। जिन दस लोगों को पैगंबर ने स्वर्ग का आश्वासन दिया था उनमें से वह एक था। वह पैगंबर की मां का भतीजा होकर वीर था। बद्र और उहूद की लडाइयों में उसने भाग लिया था। उसके शौर्य के कारण उसे 'गुफा का सिंह" की उपाधि मिली थी। पैगंबरकाल में 17 वर्ष की आयु में उसने पहली बार अनेकेश्वरवादी का खून बहाया था। वह गर्व से कहता था कि इस्लाम में श्रद्धाहीन का खून बहानेवाला पहला मैं ही हूं।

ईरान के साथ हुई इतिहास प्रसिद्ध कादिसिया की लडाई में उसने दूत न्यूमन बि. मुकरीन को 12 लोगों का एक शिष्ट मंडल लेकर सम्राट यज्दगिर्द के पास भेजा था।

ईरान पर आक्रमण किसलिए?

सम्राट ने उस दूत से पूछा - ''हमारे देश पर आक्रमण तुमने किसलिए किया है? हमारी अंतर्गत कलह के कारण तुमने यह साहस किया है क्या?"" दूत प्रमुख न्यूमन ने गर्व से कहा - ''हम अल्लाह द्वारा चुने हुए लोग हैं। अल्लाह ने उसके पैगंबर के माध्यम से हमको इस्लाम के प्रसार की जिम्मेदारी सौंपी है ..... उस अनुसार इस संसार से अनेकेश्वरवाद और मूर्तिपूजा को नष्ट करने का और सभी को इस्लाम का संदेश देने का हमने निश्चय किया है। क्योंकि, केवल इस्लाम के कारण ही मानव को शांति और सुख मिल सकता है। इस्लाम में ही सभी अच्छाइयों का स्त्रोत है... उस अनुसार हम तुम्हें इस्लाम का निमंत्रण दे रहे हैं। अगर तुमने इस्लाम का स्वीकार किया तो उसके जैसा अच्छा कुछ भी नहीं। हम तुम्हें अकेला रहने देंगे। तुम्हारे मार्गदर्शन के लिए अल्लाह का ग्रंथ (यानी कुरान) सौंप देंगे। तुम्हें उसकी आज्ञाओं का पालन करना पडेगा। परंतु, अगर तुम इंकार करोगे तो हमें जिजिया दो और हमारे मांडलिक बनकर रहो। अगर तुम्हें यह भी मान्य न हो तो फिर इसका निर्णय यह तलवार करेगी।... क्रोधित सम्राट को उत्तर देते हुए आगे एक वयोवृद्ध दूत ने कहा ''अल्लाह ने हमें होशियार और बहादुर बनाया है। उसने हमें आज्ञा दी हुई है कि, श्रद्धाहीनों से, जब तक वे इस्लाम का स्वीकार नहीं करेंगे तब तक, लडाई करो। उसके इस आदेश के अनुसार ही हम यहां आए हुए हैं ... हे सम्राट अब आगे चर्चा निरर्थक है। अतः इस्लाम का स्वीकार करो, नहीं तो जिजिया दो, अन्यथा लडने के लिए तैयार हो जाओ!!""

कादिसिया के युद्ध स्थल पर ईरानी सेनापति रुस्तम द्वारा मुस्लिम दूत रुबी बिन अमीर से यह पूछे जाने पर कि, ''इस देश में तुम्हारे आने का उद्देश्य क्या है?"" दूत ने उत्तर दिया - ''यहां के लोगों को वस्तु और प्रकृति की पूजा से मुक्त कर एकमात्र सृष्टिकर्ता की(अल्लाह की) उपासना करवाने के लिए हम आए हैं। उसने आगे कहा ः ''हमारा उद्देश्य इस्लाम का प्रचार करना है। अगर तुम इस्लाम का स्वीकार करोगे तो हम तुम्हारे भाई हैं और अपने में शांति प्रस्थापित होगी। अगर तुमने इसे नकार दिया तो हम तुमसे युद्ध करेंगे और इसका निर्णय अल्लाह के स्वाधीन रहेगा।"" रुस्तम ने पूछा ः ''इस कार्य के लिए तुम्हें क्या मिलनेवाला है?"" रुबी ने उत्तर दिया ः ''अल्लाह के इस कार्य के लिए लडते हुए जीवित रहे तो विजय मिलेगी और मृत्यु को प्राप्त हुए तो स्वर्ग मिलेगा।""

एक और उदाहरण खलीद का है जो पैगंबर द्वारा अपने चाचा अल-अब्बास की सलहज मैमूना के साथ निकाह के बाद जो की उसकी मौसी थी के साथ इस्लाम का स्वीकार कर अपने मित्र अमीर के साथ जो आगे चलकर इजिप्त का विजेता बना मक्का का सेनापतित्व छोड मदीना चला आया था। इस खलीद ने शांतिपूर्ण मक्का विजय के समय कुछ मक्कावासियों को मौत के घाट उतार दिया था। जो पैगंबर की स्पष्ट आज्ञा कि लडाई नहीं होना चाहिए का सरासर उल्लंघन था। यह बात पैगंबर को मालूम होने पर पैगंबर नाराज हो गए और खलीद से जवाब तलब किया। परंतु, खलीद के उत्तर से संतुष्ट हो पैगंबर ने कहा - ''अल्लाह की आज्ञा से जो होता है वह सर्वोत्कृष्ट ही होता है।"" यही खलीद आगे जाकर इस्लाम के इतिहास में 'अल्लाह की तलवार" अथवा 'इस्लाम की तलवार" के रुप में चमका, अजरामर हो गया तथा आगे की मुस्लिम पीढ़ियों के लिए प्रेरक ठहरा।

'अल्लाह की तलवार" यह उपाधि कितनी सार्थ थी यह उसने उसके कर्तृत्व से दिखला दिया था। पैगंबर के काल में उसने छः बार सेना का नेतृत्व किया था मुटा की लडाई में उसकी आठ तलवारे टूट गई थी। इस्लाम के स्वीकार के बाद अल्लाह के कार्य के लिए उसने 100 से अधिक लडाइयां लडी थी और उनमें से 40 लडाइयां महत्वपूर्ण थी। बगैर लडाई के वह बेचैन हो जाता था अशांत हो जाता था। बगैर लडाई के घर में बैठना उसे समय का दुरुपयोग लगता था। उसका कहना था - ''मेरी जबान को खून का स्वाद आनंददायी लगता है।"" इराक में मार्च 633 से 634 के मध्य 16 बडी लडाइयां लडी गई उनमें से चार लडाइयों में कुल 2 लाख 2 हजार शत्रु सैनिक मारे गए; पांच लडाइयों के आंकडें उपलब्ध नहीं परंतु, 'हजाराोें" और 'प्रचंड संख्या में" शब्द उपयोग में लाए गए हैं; बची हुई 7 लडाइयों की मृत्यु संख्या ग्रंथों में मिलती नहीं है। मारे गए मुस्लिमों की दर्ज संख्या दखल पात्र नहीं होने होने के कारण दी हुई नहीं है। विशेष बात यह है कि लडनेवाले मुस्लिमों की संख्या केवल 10 से 20 हजार है।

पर्शिया के खिलाफ हुई उल्लेस की लडाई में जो युफ्रातिस और उसकी उपनदी कासीफ के दरम्यान हुई थी के समय खलीद ने प्रार्थना की ''ऐ अल्लाह, अगर मुझे विजयी किया तो यह नदी लाल होने तक मैं एक भी शत्रु को जीवित नहीं छोडूंगा।"" विजय के बाद तीन दिन तक कत्लेआम चला। पकडे गए 70000 सैनिकों को नहर किनारे लाकर मौत के घाट उतारा गया। नहर के द्वार खोलकर उसमें पानी छोडा गया यह सारा रक्त बहकर नदी में जा मिला खून से नदी लाल हो गई। खलीद की शपथ भी पूर्ण हो गई। उस नदी को बाद में खून की नदी नाम पडा। दमास्कस शहर की विजय के समय खलीद ने गर्जना की थी ''अल्लाह के शत्रुओं को  क्षमा नहीं।"" और इतना प्रचंड कत्लेआम किया था कि वह देख खुद खलीद की आंखों में भी आंसू आ गए थे।  

खलीद के संबंध में डॉ. इकबाल का कहना था ः ''इस्लाम स्वीकार के बाद उसका जीवन ध्येय अल्लाह के कार्य के लिए लडना ही था।"" उसकी प्रशंसा करते हुए प्रा. फजल अहमद कहते हैं - ''खलीद की मृत्य से इस्लाम के इतिहास का एक सर्वश्रेष्ठ पुत्र खो गया। तथापि, उसका आदर्श चिरंतन रहनेवाला है। इस्लाम को इतिहास की सर्वश्रेष्ठ शक्ति बनाने के लिए खलीद जीवनभर लडा। और इसी खूनी आदर्श इस्लामी इतिहास को सामने रख अनेकानेक मुस्लिम आतंकवादी वैश्विक जिहाद छेडे हुए हैं।

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