Sunday, March 30, 2014

31 मार्च नववर्ष विशेष -

 विविध प्रकार से नववर्ष मनाते हैं भारतीय 

पाश्चात्य देशों में जितने जोरशोर से नववर्ष के आगमन का स्वागत किया जाता है उतना उत्साह हमारे यहां प्रकट करते हुए लोग नजर नहीं आते। इसका प्रमुख कारण है हमारे देश में प्रचलित विभिन्न प्रकार के पंचांग और उससे भी अधिक सादगी से त्यौहार मनाए जाने की हमारी रीत। विभिन्न पंचागों के कारण पूरे देश में नववर्ष भिन्न-भिन्न माहों एवं तिथियों को मनाया जाता है। परंतु, पाश्चात्य संस्कृति के अंधानुकरण के कारण हममें से कई ईस्वी संवत्‌ को ही विश्व संवत समझ बैठे हैं और जनवरी माह की पहली तारीख को ही नववर्ष का प्रथम दिन । अंगे्रजों के आने के पूर्व भारत में कई संवत प्रचलित थे। उनमें विक्रम एवं शक संवत प्रमुख हैं। बौद्ध संवत्‌ भी प्रचलित था। यह भगवान बुद्ध के निर्वाण से आरंभ हुआ था। इस संवत को सन्‌ 110 ई. पू. लिच्छवियों ने नेपाल और भारत में प्रचलित किया था। परंतु, अंगे्रजों ने अपनी भाषा की तरह ही अपना संवत्‌ भी हम पर लाद दिया जिसे हम आज भी ढ़ो रहे हैं। भारत सरकार ने ईस्वी संवत्‌ के साथ शक संवत्‌ को भी मान्यता दे रखी है। परंतु, भूलेभटके ही चैत्र शुद्ध प्रतिपदा को कुछ ही लोग नववर्ष की शुभकामनाएं भेजते हैं।

वर्षप्रतिपदा का दिन सृष्टि की रचना का दिन है, भारत की गौरवमयी परंपराओं का द्योतक है। ब्रह्म पुराण के अनुसार 'चैत्रे मासिक जगद्‌ ब्रह्मा ससजं प्रथमे हनि" अर्थात्‌ चैत्र मास की पहली तिथि को ब्रह्माजी ने सृष्टी की रचना की। इसी दिन भारत के समस्त ग्रहों, वारों, महीनों और संवत्सरों की वैज्ञानिक रचना की गई। मुगलकाल में हिजरी संवत्‌ का वर्चस्व रहा, राजभाषा फारसी तो कालगणना इस्लामी भले ही बनी रही परंतु, भारत के जनजीवन के कार्यों जैसेकि मंगल कार्य, व्यापारिक कामकाज, भवननिर्माण, यात्रा, आपसी पत्र व्यवहार आदि पर भारतीय संवत्‌ का प्रभाव बना रहा। परंतु, राजकीय सम्मान सम्राट पृथ्वीराज चौहान के काल तक ही रहा।

चैत्र शुद्ध प्रतिपदा अर्थात्‌ गुढ़ी पाडवा साढ़े तीन शुभ मुहुर्तों में से एक माना जाता है। इसलिए महाराष्ट्र में इस त्यौहार को अत्यंत महत्व प्राप्त हुआ है। कोई भी नया कार्य प्रारम्भ करना हो तो यह दिन शुभ माना जाता है। इसी दिन चौदह वर्ष वनवास और लंका विजय के पश्चात भगवान राम ने अयोध्या में प्रवेश किया था। महाराज युधिष्ठिर का राज्याभिषेक भी इसी दिन हुआ था। हिंदूधर्म एक होने पर भी नववर्ष लगभग प्रत्येक समाज के विभिन्न होकर उसे मनाने की विधियां भी उस-उस प्रदेश या समाज की भिन्न-भिन्न हैं। कश्मीर में नववर्षोत्सव का शुभारंभ चैत्र मास की पहली तिथि से मानते हैं। नववर्ष को कश्मीरी भाषा में 'ना वेरह" (नूतन वर्ष) कहते हैं। उस दिन थालियों में फल-फूल, नया अन्न  और आभूषण सजाकर मंदिरों में यह मानकर ले जाया जाता है कि इससे नववर्ष जीवन में सुख-समृद्धि लेकर आएगा। 

केरल में नववर्ष को कोलल वर्ष कहते हैं, जो मलयाली कैलेण्डर के अनुसार अप्रैल के समानान्तर 'मेडम" माह की पहली तिथि को मनाया जाता है। इस प्रथम दिवस को 'विशु" कहते हैं जो बडे धूमधाम से मनाया जाता है। बीत गए वर्ष की अंतिम रात्री को सारी बहुमूल्य वस्तुएं और सामग्री सजाकर एक कमरे में बंद कर रख देते हैं और नववर्ष के पहले दिन पहली दृष्टि उन्हीं पर पडे यह सोच उस कमरे की ओर दौड पडते हैं। इसके पीछे सोच यह है कि जिस भी वस्तु पर पहली दृष्टि पडेगी वही चीज उन्हें वर्ष भर मिलती रहेगी। तमिलनाडु में नववर्ष तमिल पंचांग के अनुसार पौष महिने में शुरु होता है। तमिलनाडू में इसे पोंगल तो कर्नाटक में संक्रांती  कहते हैं। सूर्यदेवता का यह उत्सव तीन दिन तक मनाया जाता है।

तमिल पंचांग के अनुसार मार्गली या मार्गशीर्ष वर्ष का अंतिम महीना रोगकारी और अशुभ माना जाता है। इस कारण इस महीने में इन कष्टों के निवारणार्थ कुछ विधियां और व्रत किए जाते हैं। अंतिम दिन को भोगी कहते हैं। तमिल में भोगी मतलब इन्द्र। कंदस्वामी मंदिर से बडी रथयात्रा निकलती है। मदुराई, त्रिचनापल्ली और तंजावर क्षेत्र में 'जाल्लिक्कटू" यानी बैलों की शर्त लगाई जाती है। मस्त हो चूके बैलों के सिंगों पर पैसे बांधकर हाथ में लकडी वगैराह कुछ भी ना लेते पैसे हस्तगत करने का खेल खेला जाता है।  

असम में नववर्ष बैसाखी पर ही शुरु होता है उसे 'गौरबिहू" कहते हैं यानी पशुओं का मेला। पशुओं की पूजा की जाती है। बैलों का श्रंगार किया जाता है और उनकी शोभायात्रा निकाली जाती है। जिसमें लोग उमड पडते हैं, लोक संगीत की धुन पर नाचते-गाते चलते हैं। शोभा यात्रा के अंत में पशुओं को गुड खिलाते हैं। सिंधी समाज का नववर्ष यानी चेटीचांद। इस दिन मंदिर में जाकर भगवान झूलेलाल की आरती उतारी जाती है। झूलेलाल पानी का अवतार होने के कारण पानी में दिए छोडकर आराधना की जाती है।

पंजाब में बैसाखी के दिन से नववर्ष का प्रारम्भ माना जाता है। इसका स्वागत समाज भांगडा नृत्य द्वारा करता है। महिलाएं और लडकियां 'गिद्दा" नृत्य करती हैं। बिहार में चैत्र में नववर्ष मनाया जाता है। नववर्ष के आगमन पर  दिन भर अबीर और रंगों से खेलते हैं। भांग घुटती है। नववर्ष के स्वागत में देर रात तक नाचते-गाते हैं। बंगाल में आषाढ़ी संवत्‌ प्रचलित है। आषाढ़ का पहला दिन नववर्ष होता है। उत्तरप्रदेश में चैत्र शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को नववर्षोत्सव मनाया जाता है। वाराणसी, विंध्याचल, पूर्णागिरी और अयोध्या में नवरात्री मेले में भाग लेने के लिए देश भर से श्रद्धालु इकट्ठा होते हैं। चैत्र सुदी प्रतिपदा को ही महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्रप्रदेश, गुजरात तथा राजस्थान में विशेष उत्साह के साथ नववर्ष मनाया जाता है। महाराष्ट्र में इस दिन को गुढ़ीपडवा कहते हैं। इस प्रकार से विभिन्न प्रदेशों में भिन्न-भिन्न प्रकार से नववर्ष मनाते हुए हम इस राष्ट्र को विभिन्न छटाओं-परंपराओं के साथ एक सूत्र में पीरोए हुए हैं। 

Thursday, March 27, 2014

बढ़ता शहरीकरण एक अभिशाप

पिछले कुछ वर्षों में देश के सभी राज्यों में शहरीकरण अत्यंत तीव्र गति से हुआ है और इसके दुष्परिणाम भी उसी तीव्रता से दृष्टिगोचर होने लगे हैं। इस तीव्र गति का एक सबसे बडा कारण है जनसंख्या विस्फोटजो भारत की विकास की राह का बहुत बडा रोडा साबित हो रहा है। शहरीकरण की समस्या सीधी जनसंख्या विस्फोट से ही जुडी हुई है। बढ़ती आबादी के कारण ही रोजगार और संसाधनों तथा सुविधाओं का अभाव हो रहा है एवं गांवों से शहरों की ओर पलायन हो रहा है।

एक जानकारी के अनुसार लगभग 48000 गांव बेचिराग (उजाड) हो गए हैं। गांवों की रौनक समाप्त होती जा रही है। लोगों में यह प्रवृत्ति बल पकडती जा रही है कि अपना गांव छोडकर निकट के बडे गांव या शहर में जाकर बसना। ग्रामीण लोग शहरों की चकाचौंध ही नहीं अपितु शहरों में स्वास्थ्य सुविधाओं, शिक्षा और रोजगार मिलने की लालसा में आकर्षित हो गांवों से पलायन कर शहरों का रुख कर रहे हैं। क्योंकि गांवों में या तो ये सुविधाएं उन्हें हासिल नहीं या हैं भी तो दोय्यम दर्जे की। गांवों की दुर्दशा यह है कि गांवों तक के पहुंच मार्ग कच्चे हैं उन्हें पक्की सडक की सुविधा नहीं, बिजली-पानी नहीं, ऐसे में वे करें भी तो क्या करें सिवाय शहरों की ओर पलायन के।

यह अवश्य है कि शहरीकरण के अपने कुछ लाभ हैं जैसेकि शहरीकरण के कारण शिक्षा का स्तर सुधरता है, रोजगार के अवसर अधिक उपलब्ध होते हैं साथ ही आसपास के गांवों का भी विकास होता है। देश का विकास मुख्यतः शहरों के विकास से जुडा होता है। जातिगत भेदभाव कम होते हैं। बुद्धिजीवियों को अधिक अवसर मिलते हैं। उद्यमियों, व्यवसायियों को समाज में विशेष दर्जा मिलता है, संपत्ति में बढ़ोत्तरी होती है। गांवों की अपेक्षा परंपरागत आचार-विचारों से मुक्ति मिलने कारण व्यक्तिगत स्वतंत्रता अधिक मिलती है। लेकिन इसके कुछ दुष्परिणाम भी समाज को भुगतने पडते हैं जैसेकि रोकटोक ना होने कारण व्यक्तियों में कुप्रवृत्तियां बलवती होती हैं। क्योंकि,  गांवों में संबंध भावनाओं पर आधारित होते हैं जबकि शहरों में उपयोगिता पर इसके कारण जो सामाजिक बंधन कुप्रवृत्तियों को थामने के काम आते हैं वे शिथिल हो जाते हैं।

शहरीकरण के दुष्परिणाम

शहरीकरण से कांक्रीट के जो बियाबान पैदा होते हैं वे सबसे बडी हानि पहुंचाते हैं तो वो है बडे पैमाने पर वृक्षों के सफाये कारण पर्यावरण को। घनी आबादी नागरिक सुविधाओं पर बोझ बन जाती हैं। बढ़ती मोटर गाडियां, उद्योग कई तरह के प्रदूषण को जन्म देते हैं। बडी आबादी द्वारा उत्पन्न कचरा निपटान, जल-मल निकास की सुविधाएं कम पड जाने के कारण पर्यावरण बडे पैमाने पर दूषित हो रहा है। महंगी होती जा रही स्वच्छ पेयजल सुविधा और उसकी कमी एवं यातायात की समस्याएं गंभीर रुप धारण कर रही हैं। भूमि की कम उपलब्धता और अधिक कीमतों के कारण  झुग्गी-झोपडियों वाली गंदी बस्तियां जन्म लेती हैं जो समाज में जघन्य अपराधों का कारण बनती हैं। मकान छोटे और महंगे होने के कारण पूरे परिवार को कई तरह की समस्याओं का सामना करना पडता है। जगह की कमी के कारण बच्चों के खेलने की सुविधा ना के बराबर  होती जा रही हैं। घरों में प्रकाश और स्वच्छ हवा की कमी के कारण स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं भी उत्पन्न हो रही हैं। निजता नामकी चीज को बचा पाना असंभव सा होता जा रहा है। संयुक्त परिवार के अपने जो लाभ थे उनसे भी हम दिन ब दिन वंचित होते जा रहे हैं। 

बडे शहरों में वह सामाजिक ताना-बाना नहीं होता जो गांवों और छोटे शहरों में होता है, बडे शहरों में लोग अजनबी की माफिक रहते हैं। गांवों या छोटे स्थानों की तरह सुख-दुख में साथ नहीं देते, एक दूसरे का सहारा बनने की कोशिश नहीं करते। इस अकेलेपन एवं सामाजिक दूरियों के कारण डिप्रेशन, आत्महत्या, ह्रदय रोग, मधुमेह, ब्लडप्रेशर जैसे रोग बडे शहरों में अधिक होते हैं बनिस्बत छोटे स्थानों के। ग्रामीण भाग में जन्मे बच्चे शहरों में जन्मे बच्चों की अपेक्षा अधिक दृढ़ एवं स्वस्थ भी होते हैं।
बढ़ता शहरीकरण तेज गति से शहरों के आसपास की कृषिभूमि को निगलता जा रहा है। किसी भी शहर को देखिए छोटा हो या बडा कृषिभूमि और वह भी सिंचित पर कई तरह की टाऊनशिप के रुप में कांक्रीट के जंगल आकार ले रहे हैं जो कालांतर में तो क्या वर्तमान में ही देश और समाज के लिए कई प्रकार से हानिकारक सिद्ध हो रहे हैं। यह टाऊनशिप अब एक नए रुप में गांवों को हानि पहुंचाते नजर आ रही हैं। कुछ टाऊनशिपों का निर्माण छोटे परंतु संपन्न गांव के निकट जो किसी बडे शहर के भी निकट हो को दृष्टि में रख किया जा रहा है। जो उस संपन्न गांव के निकट के गांवों के लोगों को वहां रहने के लिए आकर्षित करेंगे जो कालांतर में कई गांवों को भूतहा बनाने में अपना सहयोग देंगे।
इन बढ़ते शहरों की आबादी अपने मनोरंजन और बदलाव के लिए शहरों के आसपास के दर्शनीय, सुंदर प्राकृतिक स्थानों जैसे झरने, तालाबों और पहाडियों, तीर्थस्थलों एवं ऐतिहासिक स्थलों की ओर सप्ताहांत व्यतीत करने के लिए उमड पडती है और वहां के पर्यावरण को हानि पहुंचाने के साथ ही साथ वहां के सामाजिक वातावरण को दूषित करने से बाज नहीं आती। इस प्रकार यदि हम देखें तो बढ़ता शहरीकरण अनेकानेक रुप से हानिकारक सिद्ध होता जा रहा है। कुल मिलाकर शहरीकरण से कितना लाभ और कितनी हानि पहुंच रही है तो हानि ही अधिक नजर आएगी और बढ़ता शहरीकरण घातक ही नजर आएगा। उदाहरण के लिए बढ़ते वाहनों की संख्या को ही लें। उदारीकरण की नीतियों के बाद आम व्यक्ति की क्रय शक्ति बढ़ी है परिणाम स्वरुप सडकों पर वाहनों की संख्या भी उसी अनुपात में बढ़ी है। इन वाहनों के ईंधन पर बहुमूल्य विदेशी मुद्रा खर्च हो रही है जो हमारा व्यापार घाटा बढ़ाने में ही योगदान देती है। ये वाहन बेतहाशा प्रदूषण फैलाते हैं सो अलग। आज जहां देखों वाहनों की कतारें और लगते हुए ट्रेफिक जाम से आम आदमी त्रस्त है, जरा कल्पना कीजिए बीस वर्षों बाद क्या होगा।

घातक होते शहरीकरण की रोकथाम 

देश की स्वतंत्रता के बाद गांधीजी ने कहा था- चलो गांव की ओर। अब जब लोग इस बेतहाशा तेज गति से बढ़ते शहरीकरण से घबरा से गए हैं। तो, आज गांधीजी का यह नारा क्या अपना औचित्य सिद्ध नहीं कर रहा है। क्या यह उचित नहीं होगा कि इस बढ़ते शहरीकरण के घातक होते स्वरुप को थामने के उपाय अभी से समय रहते किए जाएं। इसके लिए सत्ता, साधनों, सुविधाओं, कारखानों का विकेंद्रिकरण किया जाए। छोटे और उपेक्षित पडे जिलों पर ध्यान केंद्रित किया जाए, पिछडे जिलों को संवारा जाए। वहां की जनता का स्तर सुधारने के लिए अच्छे शिक्षा और स्वास्थ्य केंद्र खोले जाएं। ऐसी नीतियां अपनाई जाएं कि वहां अच्छे स्तर के शिक्षा संस्थान खुले और वहां से निकलनेवाले विद्यार्थियों के रोजगार के उपाय किए जाएं। ग्रामीणों के लिए स्थानीय रोजगार निर्मित किए जाएं। छोटे कस्बों-नगरों की ओर रहने के लिए लोग आकर्षित हों इस दृष्टि से वहां सुंदर बगीचों, अच्छे साफ-सुथरे बस स्टैंड बनाए जाएं। वहां बसनेवालों को कम ब्याज पर हाउसिंग लोन सरकारी बैंकों द्वारा दिया जाए। वैसे तो कई छोटे शहरों में  महाविद्यालय खुल रहे हैं। परंतु, इंग्लैंड-अमेरिका की तरह बडे शहरों के स्थान पर छोटे कस्बों में विश्वविद्यालय भी स्थापित हों।

बडे नगरों में या उनके आसपास ही चलाना चाह रहे बडे उद्योगों को मध्यम दर्जे के शहरों के निकट स्थापित करने के लिए  प्रोत्साहित किया जाए । बडे शहरों के आसपास नियुक्त सरकारी अधिकारी-कर्मचारियों को उनके कार्यस्थान पर ही रहने के लिए बाध्य किया जाए, उनके बडे शहरों में रहकर निकट के गांवों-कस्बों में प्रतिदिन अप-डाउन करने को हतोत्साहित किया जाए। बडे शहरों में नियुक्त सरकारी अधिकारी-कर्मचारियों को बारी-बारी से छोटे स्थानों पर अनिवार्य रुप से स्थानांनरित किया जाए। 

विदेशों में कई बडे नेता राजनीति से निवृत्त होने के बाद अपने मूल छोटे गांवों में रहवास के लिए लौट जाते हैं, ऐसा हमारे यहां क्यों नहीं हो सकता। हमारे नेता तो हमेशा राजधानी या किसी बडे शहर में निवास क्यों करना चाहते हैं जबकि उनमें से अधिकांश ग्रामीण परिवेश से ही आए हुए होते हैं। सांसद, विधायक इस प्रकार का आदर्श प्रस्तुत करें। चाहे तो सरकार उन्हें गांवों या छोटे शहरों-कस्बों में बसने के लिए आवासीय भूमि वगैराह दे। जनता की बडे शहरों में बसने की मानसिकता में बदलाव के लिए वे इस प्रकार का आदर्श प्रस्तुत करें आज नहीं तो कल उनका यह आदर्श अपना योग्य परिणाम बतलाकर रहेगा। आम जनता को भी बडे शहरों में बसने की नीति पर शहरीकरण के घातक दुष्परिणामों को देखते हुए पुनर्विचार करना चाहिए।

Thursday, March 20, 2014

समय का तकाजा - वृद्धाश्रम

चारों ओर वैश्वीकरण की हवा बह रही है, इसके फलस्वरुप शहरीकरण भी बडी द्रुतगति से हो रहा है, छोटे शहर महानगरों में तब्दील होने के मार्ग पर हैं तो महानगर कास्मोपोलिटिन होते चले जा रहे हैं। प्रगति के नए-नए दालान खुलते चले जा रहे हैं। नई पीढ़ी आतुरता से उसमें सहभागी होकर ऊँची उडान भरने की तैयारी में हैं, तो कुछ ऊँची उडानें भर भी रहे हैं। जिंदगी तेज रेस में तब्दील हो गई है। इन सबका परिणाम पहले से ही विघटित होती चली जा रही संयुक्त कुटुंब-परिवार की प्रणाली और भी तेज गति से विघटित हो रही है। नई पीढ़ी अपना मूलस्थान छोडकर दूर बडे शहरों में काम-धंदे के निमित्त जाकर बस रही है। विदेश जाना और वहीं सॅटल हो जाना बिल्कूल सामान्य होते चला जा रहा है, उसमें कुछ अनुचित भी जान नहीं पडता, यह तो होगा ही। यह तो समय का तकाजा है। क्योंकि, कालानुसार सबकुछ बदलता है यह तो प्रकृति का नियम ही है। जो समय के साथ कदम मिलाकर नहीं चलते वे पीछे रह जाते हैं।

पहले भी लोग काम-धंदे, नौकरी-व्यवसाय के सिलसिले में घर छोडकर जाया करते थे। परंतु, कुछ समय या सेवानिवृत्ति पश्चात साधारणतया अपने मूलस्थान पर वापिस लौट आया करते थे। परंतु, अब सब उल्टा हो रहा है। इस कारण नई-नई समस्याएं पैदा हो रही हैं, सामने आ रही हैं। और इन सब में सबसे ज्यादह यदि कोई पीसा जा रहा है तो वह है वृद्धों का वर्ग। वे इस भागदौड भरी तेज गति से दौड रही दुनिया में दुर्लक्षित हो रहे हैं, उपेक्षित हो रहे हैं, एकाकी हो गए हैं। संयुक्त परिवार जो पहले से ही हम दो हमारे दो के कारण छोटे हो गए थे अब विघटन के बाद और भी छोटे हो गए हैं। एकल परिवारों का चलन बढ़ रहा है ऐसे में इन वृद्धों को कौन कंपनी देगा, इनकी ओर ध्यान देगा। इस कारण समाज में  पारिवारिक समस्याएं, चिंताएं भी बढ़ रही हैं। परंतु, समाज में जैसा होना चाहिए वैसा जागरण वृद्धों की समस्याओं की ओर नहीं है। इस कारण उन समस्याओं के हल के प्रति भी कुछ विशेष प्रयत्न किए जाएं, उसके लिए अपने समाज की कुछ विशिष्ट कालबाह्य होती चली जा रही मान्यताओं को भी बदला जाना चाहिए इसकी ओर जो उपेक्षा है उस ओर ध्यान आकर्षित करनेे का हमारा यह एक अल्प सा प्रयास है, इस दृष्टि से कुछ प्रसंगों का उल्लेख हम कर रहे हैं। 

एक बडे शहर का एक मध्यमवर्गीय परिवार जिसमें विधवा मॉं, बेटा-बहू और उनके जवान होकर नौकरी में लग चूके दो पुत्र एक बेडरुम, हाल,किचन के फ्लेट में निवास, मॉं, एक कमरे में बिस्तर पर ह्रदयरोग और लकवे से पीडित। उसकी सेवा के लिए दो नर्सें जो बारी-बारी दिन और रात देखरेख के लिए मौजूद रहती हैं। घर की ओर ध्यान देने के लिए बेटा नौकरी छोडकर घर में बैठा है। ऐसी परिस्थिति में विवाह योग्य बेटा (पोता) विवाह करे तो कैसे? हो तो कैसे? परिवार के सभी सदस्य अंदर ही अंदर घुट रहे हैं। ऐसे न जाने कितने परिवार हर बडे शहर में मौजूद हैं जहां तीन पीढ़ियां एक साथ मौजूद हैं जो इसी प्रकार की मिलती-जुलती कम या ज्यादह गंभीर-कठिन परिस्थितियों-समस्याओं से दो-चार हो रहे हैं। कहीं-कहीं तो चार पीढ़ियां भी मौजूद हैं। इसी प्रकार के एक परिवार में जहां पहली पीढ़ी 90 पार तो दूसरी पीढ़ी अस्सी के दशक में चल रही है, तीसरी पीढ़ी भी ढ़लान पर है, चौथी पीढ़ी का एकमात्र प्रतिनिधि के रुप में 24 वर्षीय पुत्र नौकरी के लिए अपना घर-शहर छोडकर दूर जा चूका है। उस परिवार का अपना तनाव यह है कि यदि दूसरी या तीसरी पीढ़ी को कुछ हो गया तो पहली पीढ़ी के सदस्य का क्या होगा? उसकी देखभाल कौन करेगा? परंतु, पुराने संस्कारों, रीति-नीतियों-रिवाजों और समाज क्या कहेगा का भय साथ ही वृद्धाश्रमों के बारे में यह कल्पना कि यह तो समाज के परित्यक्त-असहाय, निर्धन, बेसहारा-निराश्रित लोगों का ठिकाना है जो समाज से प्राप्त दया दृष्टि से दिए गए दान से संचालित होते हैं वहां जाने से इन वृद्धों को और उनके परिजनों को भेजने से रोकती है। और पूरा परिवार तनाव, घुटन तथा चिंताग्रस्त अवस्था में जीते रहता है।

इसी प्रकार से बढ़ते विदेश गमन के कारण भी वृद्धजन अकेले पडते जा रहे हैं। बेटा-बहू विदेश जाकर वहीं स्थायीरुप से बस चूके हैं। परंतु, माता-पिता वहां जाना नहीं चाहते और यहां अकेले रहना दूभर हो रहा है, असुरक्षा महसूस होती है, अपनी दैनिक आवश्यकताओं, कामकाजों के लिए जो वृद्धावस्था के कारण स्वयं कर नहीं सकते या करने में कठिनाई महसूस करते हैं उसके लिए किसी दूसरे को याचना करने में भी संकोच होता है। यही परिस्थिति उन परिवारों की भी है जिनके बेटे-बहू बडे शहरों में स्थायी हो गए हैं और खुद ही महंगी अपर्याप्त आवास समस्या से पीडित हैं जो दिनोदिन बढ़ती ही जा रही है तो माता-पिता को कहां रखें। हमें परिवारों के लिए वृद्धों की उपयोगिता, उनसे परिवार के बच्चों को मिलनेवाले आधार-सुरक्षा, संस्कारों से कोई इंकार नहीं पर जो समस्याएं मुँह बॉंए खडी हैं उनका क्या? जो पूरी तरह निराधार, निराश्रित-निर्धन हैं उनके लिए तो समाज के दान-सहयोग से चलनेवाले वृद्धाश्रम हैं। परंतु, जो स्वाभिमानवश और उस श्रेणी में न आने के कारण और स्वयं का खर्च उठा सकने की हैसियत रखते हैं वे भला वहां क्यूं जाएंगे या जाना नहीं चाहते या उनके परिजन भेजना चाहेंगे, भेजना नहीं चाहते, वे क्या करें? उनकी भी तो कोई व्यवस्था होना चाहिए? यह समस्या दिनोदिन बढ़ना ही है क्योंकि एक सर्वेक्षण के अनुसार आगामी दस वर्षों में 7 करोड लोगों का गांवों से शहरों की ओर आवज्रन होगा और उसके लिए नए 500 शहरों की आवश्यकता होगी। तब यह वृद्धों की समस्या कितना विकराल रुप धारण कर लेगी, कितने परिवार इस समस्या के कारण चिंता, तनाव और घुटन में जीएंगे इसकी कल्पना ही कितनी भयावह है। बढ़ते जीवनस्तर और चिकित्सकीय सुविधाओं के कारण भी मनुष्य की आयु बढ़ी है, ऐसे में वृद्धों की संख्या भी भविष्य में निश्चित रुप से बढ़ेगी ही।

ऐसी परिस्थिति में परिजनों में कटुता न बढ़े, आपस में प्रेमभाव, मधुर संबंध बने रहें इसके लिए ऐसे वृद्धाश्रमों की नितांत आवश्यकता है जहां वृद्ध घर जैसी सुविधाओं के साथ, जो उनकी आयु के अनुकूल हों, सुकून से निवास कर सकें, समान आयु के वृद्धों के साथ अपना समय बीता सकें, स्वयं को सुरक्षित महसूस कर सकें। ऐसे वृद्धाश्रमों में सुविधा की दृष्टि से विभिन्न आर्थिक स्तर भी रखे जा सकते हैं। ऐसे वृद्धों के लिए अलग से बहुमंजिला भवन बनाए जा सकते हैं जिनमें हर स्थान पर जहां वे चलें-फिरें, उपयोग में लाए रेलिंग लगे हों जिनका सहारा लेकर वे सुरक्षित ढ़ंग से चल-फिर सकें। यदि संभव हो तो इस प्रकार के वृद्धाश्रमों में स्वयं के स्वामित्व के या भाडे के फ्लैट, कुटिया रुपी छोटे मकान, बंगले आदि भी मुहैया करवाए जा सकते हैं। एक व्यापक परिकल्पना के रुप में वृद्धों के लिए एक अलग टाउनशिप की योजना भी विचारार्थ ली जा सकती है। जहां विभिन्न सुविधाएं विभिन्न आर्थिक स्तरों के अनुरुप हों। ऐसे वृद्धाश्रमों में नियमित चिकीत्सकीय सुविधाओं के रुप में डॉक्टर, नर्स-नर्सिंग होम आदि के अतिरिक्त जिरेट्रीशियन (वृद्धावस्था के कारण होनेवाले रोगों के उपचार का विशेषज्ञ) नियुक्त किए जा सकते हैं या समय-समय पर वे वहां विजिट के लिए आएं इस प्रकार की भी व्यवस्था की जा सकती है।

इन विचारों को आलोचना का विषय बनाने की बजाए स्वयं को उस स्थान पर रखकर, यथार्थ के धरातल पर रहकर देखें, सोचें तो यह एहसास होगा कि नई पीढ़ी जो अत्यंत कठिन परिस्थितियों, प्रतियोगी माहौल का सामना कर रही है की उन्नति के लिए यदि हम उनसे अलग रहकर उन्हें व्यर्थ के तनाव-चिंताओं से मुक्त कर सकें तो यह मधुर संबंध एवं परस्पर के हित बनाए रखने की दृष्टि से हितावह ही होगा, यही समय का तकाजा भी है। वृद्धों या वरिष्ठजनों के स्वतंत्र रहने की सामयिकता अब अटलनीय बन गई है। क्योंकि, वर्तमान में कुटुंब प्रमुख का मुख्य लक्ष्य रहता है स्वयं का एक छोटासा आवास और अपनी संतान की अच्छी शिक्षा-दीक्षा का प्रबंध।

इस दृष्टि से समाज सेवा के क्षेत्र के अग्रणी कहे जानेवाले, जिनमें से कई तो निराश्रितों के लिए वृद्धाश्रम समाज का दायित्व समझ संचालित कर ही रहे हैं, विचार, चिंतन-मनन कर कुछ सकारात्मक पग उठाने के लिए आगे आएं तो बेहतर होगा, कई व्यवसायिक कंपनियां जो प्रतिवर्ष अपने वार्षिक बजट में समाज सेवा के लिए कुछ राशि का प्रावधान रखती हैं भी आगे आ सकती हैं। बिल्डर-कॉलोनाइजर भी केवल वृद्धों के लिए के प्रकल्प पर व्यवसायिक दृष्टिकोण से विचार कर इस क्षेत्र में आ सकते हैं। हमें व्यक्तिगत लाभों-स्वार्थों के लिए की जा रही रोज की भागदौड में से थोडा सा समय निकालकर वृद्धों के लिए सोचना चाहिए क्योंकि हर युवा को एक दिन वृद्ध होना ही है और जो आज वृद्ध हैं वे भी कभी युवा थे और उन्होंने भी अपनी युवावस्था में समाज के लिए कुछ ना कुछ तो किया ही होगा, कुछ ना कुछ तो दिया ही होगा। अतः वर्तमान में कार्यरतों का यह कर्तव्य भी बनता है कि वे इन वृद्धों के लिए कुछ सोचें। जिससे कि वे अपना समय सुख-चैन, शांति से बीता सकें।

Saturday, March 15, 2014

होली विशेष
विदेशों में होली

होली फाल्गुन शुद्ध पूर्णिमा को पूरे भारतवर्ष में विशेष रुप से उत्तर भारत में बडे उल्हासपूर्वक मनाई जाती है। होली का दूसरा नाम हुताशनी पूर्णिमा भी है। यह त्यौहार नगर-गांवों के नागरिकों के साथ ही साथ आदिवासियों में भी बडी धूमधाम से मनाया जाता है, उनके लिए तो यह त्यौहार मानो दीपावली ही होता है। 

हंसी-खुशी, रंग, आतशबाजी, पुतले जलाना आदि विभिन्न साधन अपनाकर भारत के समान ही विश्व के लगभग सभी देशों के लोग यह रंगों का त्यौहार वर्ष के किसी ना किसी दिन अवश्य मनाते हैं। होली में मनुष्य अपनी जिस वृत्ति का प्रदर्शन करता है वह मानव स्वभाव है जिसको इस दिन के बहाने वह किसी ना किस रुप में व्यक्त करता है। जर्मन, स्वीडन, पोलैंड, रुस आदि अन्य देशों में भी होली किसी ना किसी रुप मे समारोहित करते हैं। 

चेकोस्लोवाकिया में ईस्टर पर ईसाई और मूल पेगनधर्म का मिलेजुले रुप का प्रतीक है यह त्यौहार जो शताब्दियों से लडके-लडकियों द्वारा मनाया जा रहा है। लडके लडकियों पर इत्र-पानी फैंकते हैं लेकिन लडकियां नहीं फैंकती। लडकियों को गीला करने के बाद लडके उन्हें घास के बने आभूषण तो लडकियां भी लडकों को कुछ कलापूर्ण उपहार भेंट स्वरुप देती हैं।

इंग्लैंड, फ्रांस, बेल्जियम के लोग इसे 'मूर्खो का त्यौहार" कहते हैं। राजा-रानी का चुनाव होता है और मदिरापान किया जाता है। जो लोग इस कार्यक्रम में भाग नहीं लेते उनके मुंह पर कालिख पोतकर सिर पर सिंग लगाकर मूर्ख बनाया जाकर,चिढ़ाया जाता है। शाम को उत्सव का समापन पुतला जलाकर किया जाता है। यूरोप कई शहरों में होली का त्यौहार लगभग एक सप्ताह तक चलता है। 
   
पडौसी देश नेपाल में वसंत पंचमी से ही होली का त्यौहार प्रारंभ हो जाता है। ग्रामीण क्षेत्र के लोग रातभर होली गीत गाते हैं। गीत गाने के पश्चात गुड और चावल का चिवडा खाते हैं। होली जलाने के भी निश्चित नियम हैं। हर गांव में होली नहीं जलाई जाती। गांव का कोई वीर यदि किसी अन्य गांव में जल रही होली से एक मशाल उठा लाए तो उस गांव में होली जलेगी परंतु, जिस गांव से होली चुराई गई है उस गांव में अगले वर्ष होलिका दहन नहीं होता। होली चुराना कोई आसान काम नहीं यदि पता चल गया कि होली चुराई जा रही है तो उस गांव के लोग खुखरियां लेकर पीछा करते हैं और चोर तेज गति से दौडनेवाले घोडे पर सवार हो भाग निकलता है। होली की चोरी गांव की प्रतिष्ठा का विषय होता है।

मलाया, जावा, सुमात्रा और हिंदचीन के देशों में भी संवत्सर पर्व की बडी धूम रहती है। वहां के रहवासी जो कि बुद्धानुयायी हैं  होली तो नहीं मनाते परंतु, इष्ट-मित्रों और पडौसियों को दावत देते हैं तथा नाच-गाना करते हैं।
बर्मा में भगवान बुद्ध के आदर प्रीत्यर्थ 'तेंच्यां" नामक पर्व मनाया जाता है। जो तीन से चार दिन तक चलता है। बर्मावासियों का विश्वास है कि भगवान बुद्ध इसी समय स्वर्गलोक से मृत्युलोक में पधारते हैं। वहां रंगों का प्रयोग नहीं किया जाता बल्कि इस अवधि में वे पानी से एक दूसरे को तरबतर करते रहते हैं। बर्मा के अलावा दक्षिण पूर्व के अन्य देश जैसे कम्बोडिया, लाओस थायलैंड तथा इसी प्रकार से यूनान, चीन में भी पानी का प्रयोग नववर्ष आगमन के स्वागत के रुप में किया जाता है।

इस प्रकार से यह त्यौहार हिंदुस्थान ही नहीं अपितु विश्वभर के देशों में विभिन्न नामों से समारोहित किया जाता है भले ही त्यौहार मनाने के तरीके भिन्न हों, विचित्र हों। सचमुच यह पर्व सम्पूर्ण मानवजाति का पर्व है, ऐसा भी कहा जा सकता है।

Thursday, March 13, 2014

मानवता के संहारक - रासायनिक एवं जैविक हथियार 

मानव का इतिहास युद्धों से भरा है। प्राचीन काल से ही शत्रु को मारने, उसे समाप्त करने के लिए नई-नई विधाओं का प्रयोग युद्ध इतिहास का अंग रहा है। इराक ने कुर्दों पर घातक रसायनों का हमला कर एक लाख से अधिक कुर्दों को मार डाला था। हाल ही में सीरिया के राष्ट्रपति असद ने गृहयुद्ध के दौरान जिस प्रकार से रासायनिक हथियारों को उपयोग में लाया है वैसा उपयोग इतिहास के लिए कोई नया नहीं है। इनमें से एक शत्रु को विभिन्न पद्धतियों से विष का प्रयोग कर समाप्त करना भी है। विष भी तो एक रसायन ही है।

 हमारे भारत के इतिहास में भी शत्रु पर विष प्रयोग कर उसे मारने के प्रयास के उदाहरण हैं। दुर्योधन द्वारा भीम को भोजन में विष देकर में गंगा में बहा देने का उदाहरण तो बहुत ही प्रसिद्ध है। विषकन्याओं का उल्लेख भी मिलता है। आचार्य वाग्भट के अष्टांग ह्रदय यानी सार्थ वाग्भट ग्रंथ के 35 और 36 वें अध्याय विष के संबंध में ही हैं। चालुक्य नरेश सोमेश्वर के मानसोल्लाह ग्रंथ में विष के तीन प्रकार स्थावर, जंगम और कृतिम रुप से मानव द्वारा निर्मित किए गए विषों का वर्णन मिलता है। परंतु, हमारे यहां विष या विषैले रसायनों का प्रयोग युद्ध में बडे पैमाने पर कर एक प्रकार का सामूहिक नरसंहार करने के उदाहरण नहीं मिलते। इसका श्रेय अन्य देशों को ही जाता है।

ईसा से 1000 वर्ष पूर्व के चीनी ग्रंथों में विषैली वायु तैयार कर उन्हें युद्ध में उपयोग लाने के वर्णन मिलते हैं। ईसा से सात शताब्दी पूर्व असीरियनों (मेसोपोटोमिया की सभ्यता के लोग) द्वारा शत्रु के पीने के पानी के कुंअॆ में विष डालने के उदाहरण दर्ज हैं।  स्पार्टा के योद्धाओं ने एथेन्स के कुओं में बडे पैमाने पर विष डालकर अनेक यूनानियों को मार डाला था। ईसा से लगभग 600 वर्ष पूर्व ग्रीकों द्वारा युद्ध में विषैले रसायनों का प्रयोग कर नदी को विषैली बनाने का उल्लेख मिलता है। ई. पू. 431 से 404 के काल में विश्वप्रसिद्ध स्पार्टा का युद्ध में विषैले रसायनों द्वारा विषैली गैस तैयार कर दम घोंटकर शत्रुओं को मारा गया था। जिसे आज हम जैविक या बायोलॉजिकल युद्ध कहते हैं उसका भी प्रयोग इस युद्ध में हुआ था।

यूनानी पुराणों में विषैले बाण किस प्रकार तैयार किए जाते थे के वर्णन विस्तार से मिलते हैं। आज भी गैंगरीन, टिटेनस जैसी बीमारियों के नाम सुनकर हमारे रोंगटे खडे हो जाते हैं। वे बीमारियां इन बाणों के लगने के बाद हो जाया करती थी। यूनानियों ने तो ऐसे रसायन तैयार कर लिए थे कि जब वे इन्हें पानी पर छोडते तो पूरे पानी में ही आग लग जाती और दुश्मनों की नौकाएं जल जाती। रोमनों ने भी विषैले हथियार तैयार करने में महारत हासिल कर रखी थी। ईसा से लगभग 184 वर्ष पूर्व ख्यात योद्धा हन्निबल ने तो विषैले सांपों से भरे मटके ही निर्णायक हथियार के रुप में यूनानियों के जहाजों पर पर्गोमान के युद्ध में फैंक कर लडाई को जीत लिया था। ईसा से लगभग 80 वर्ष पूर्व रोमननों ने ऐसी गैस का निर्माण किया था जो दुश्मन को अंधा कर देती थी। इसके द्वारा उन्होंने कई युद्ध भी जीते। इस गैस का उपयोग बाद में ईसाइयों ने तुर्कों को रोकने के लिए किया था। ई.स. 673 में ईसाइयों ने मुसलमानों को रसायनों का प्रयोग कर कॉन्सटंंटिनोपोल की लडाई में पानी में जलाकर मार डाला था।

विषैले रसायनों के अतिरिक्त जैविक युद्ध के तंत्र को भी ट्रॉय के युद्ध में अपनाया गया था। यह युद्ध ईसा से 1100 से 1300 वर्ष पूर्व हुआ था। ईसायुग के आरंभिक दिनों में यूरोप में ऐसी भयंकर अमानवीय प्रथा कि किसी खतरनाक अपराधी को किसी मृत देह से बांधकर किसी महाभयानक रोग से ग्रस्त हो तिल-तिलकर मरने के लिए छोड दिया जाता था। यूरोप के इतिहास में काफ्फा (यूक्रेन) के युद्ध में मंगोल तार्तारों ने प्लेग से मृत रोगियों के शरीरों को एक बडी गुलैल की सहायता से शत्रुओं पर फैंका। कभी-कभी वे मनोरंजन के लिए मरे हुए चूहे भी शत्रुओं पर फैंका करते थे। समय के साथ प्लेग ने शत्रुओं में जोर पकडा। उसी काल में वहां व्यापार के सिलसिले में आए हुए इटली के व्यापारी इन रोगों के वाहक बनकर यूरोप पहुंचे और धीरे-धीरे पूरे यूरोप में प्लेग फैल गया और इसमें करोडों लोग बलि चढ़ गए। तुर्कों ने भी संक्रमित मृत पशु शरीरों को दुश्मनों के जल स्त्रोतों में फिंकवा कर इस महामारी को फैलाने में अपना योगदान दिया। लगभग तीन सौ वर्ष पूर्व नेपोलियन ने भी इस प्रकार के क्रूर अमानवीय तरीके को अपनाया था। 18वीं शताब्दी में उत्तरी अमेरिका में ब्रिटिशों ने रेडइंडियनों की आबादी को कम करने के लिए चेचक की महामारी को फैलाया था। इससे हजारों लोग मारे गए। रुस ने भी स्वीडिश नगरों में प्लेग संक्रमित पशुओं को फैंक कर बीमारी को फैलाया था।

तो यह था मानवता के संहारक रासायनिक एवं जैविक हथियारों के प्रयोग का संक्षिप्त इतिहास जिसे और भी भयंकर तरीके से दोनो विश्वयुद्धों में दोहराया गया और आज भी यह खतरा सिर पर मंडरा रहा है। सच कहें तो पहिले महायुद्ध में रासायनिक हथियारों ने जो कहर बरपाया था उसे देखते हुए सभी राष्ट्रों ने इन हथियारों से तौबा कर लेनी चाहिए थी। परंतु, ऐसा हुआ नहीं बल्कि अनेक देशों में जहरीली गैस निर्माण की प्रयोगशालाएं धडल्ले से बनने लगी। रसायन शास्त्र के नए-नए प्रयोग कर अमेरिका ने इसमें महारत हासिल कर ली। 

अमेरिका ने मस्टर्ड गैस से भी अधिक घातक, विषैली लेविसाइट नामक रसायन प्रथम विश्वयुद्ध समाप्त होने के पूर्व ही तैयार कर लिया था। परंतु, युद्ध थम जाने की वजह से मित्र राष्ट्रों द्वारा उपयोग में लाया न गया। इसके संपर्क में आनेवाले को ऐसा लगता था कि आँखों में खंजर घोंपे जा रहे हों चमडी उबले हुए आलू के छिलके की भांति निकल जाती थी। इटली और फ्रांस ने भी इसका निर्माण कर लिया था। जापान ने तो रसायन शास्त्र के इस क्षेत्र में बहुत बढ़त बना ली। मस्टर्ड गैस के साथ लेविसाइट गैस भी बना ली। हारने के बावजूद जर्मनी ने भी इस काम को फैला दिया। 'गैस वेफर्स 1918" नामका एक यंत्र जो फॉस्जेन बम की मार सतत कर सके विकसित कर लिया। इंग्लैंड ने भी 'एम डिव्हाइस" नामक अत्यंत जहरीली आर्सेनिक गैस तैयार कर ली। यह गैस किसी भी मुखौटे को भेद सकने में सक्षम थी। 1925 में जिनेवा में एक संधि द्वारा रासायनिक हथियारों के निर्माण को रोकने की पहल की गई। परंतु, विभिन्न कारण बताकर वह करार सबने मिलकर असफल करके ही दम लिया।

अब नए हथियारों के इस्तेमाल की भूमि बनी हमारी भारत की धरती। 1919 में सरहद प्रांत के विद्रोहियों पर ब्रिटिश फौजों ने  इन घातक रासायनिक हथियारों का प्रयोग किया। कितने मारे गए इसका कोई हिसाब नहीं क्योंकि, मृतकों की संख्या को दर्ज करने  की जहमत अंग्रेजों ने उठाई ही नहीं। फ्रांस, स्पेन, रशिया भी पीछे नहीं रहे। रशियनों ने 'प्रोजेक्ट टॉम्का" नाम रखा इन रसायनों की निर्मिती का। 1935 में इटली ने इथोपिया पर टनों मस्टर्ड गैस से हमला किया था। मनुष्य व खेत दोनो बर्बाद हो गए। पीडितों को इतनी यातनाएं भुगतनी पडी कि ऐसा लगने लगा इससे तो मौत भली। परंतु, मुसोलिनी ने आनंद व्यक्त किया।

1936 में जर्मनी ने कुख्यात नर्व्ह गैस यानी 'टबून" का निर्माण कर लिया। बाद में 1939 में 'सरीन" (आयसोप्रोपाइल मिथाइल फॉस्फोनोफ्लुरिडेट) नामका ऐसा खतरनाक रसायन तैयार जैसा कि आज तक निर्मित हो नहीं पाया है। परंतु, अखिल मानव जगत का सौभाग्य कि हिटलर को द्वितीय महायुद्ध में इसे आजमाने की बुद्धि नहीं हुई अन्यथा मित्र राष्ट्रों की विजय असंभव हो जाती।

जापान के अमर्याद क्रौर्य का वर्णन किए बगैर रासायनिक एवं जैविक युद्ध का इतिहास अधूरा रह जाएगा। जापान की चीन से दुश्मनी ऐतिहासिक है और वह भी छठी शताब्दी से चली आ रही है। जापान ने चीन पर 1932 में जैविक हमला किया था जिसमें एक हवाई जहाज से विषाक्त प्लेग के विषाणु छोड गए थे। 1940 के प्रारंभ में जापान जैविक युद्ध यूनिट 731 के तहत विभिन्न रोग जैसेकि टायफाइड, कॉलरा, प्लेग, एंथ्रेक्स आदि बीमारियों के जीवाणु विकसित करने में लगा था और इसके लिए चीनी कैदियों पर प्रयोग किए गए थे और प्रभावों के अध्ययन के लिए कैदियों को जिंदा ही चीरा-फाडा गया था। इन सबके पीछे दिमाग था शिरो इशी नामक के वैज्ञानिक का और यह सब कुछ सम्राट हिरोहितो की जानकारी में उन्हीं के आदेश पर किया गया था। परंतु युद्धोपरांत उसे दंडित करने के स्थान पर अमेरिका में उसे विश्वविद्यालय में पढ़ाने और शोधकार्य के काम पर लगाया गया। यह इसलिए कि अमेरिका को उसका शोधकार्य चाहिए था। इसी युद्ध में जैविक युद्ध संबंधित कुछ कागजात रशिया के भी हाथ लग गए थे। जिसका लाभ उसने भी अपने जैविक युद्ध कार्य को आगे बढ़ाने में किया।

द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात भी इस क्षेत्र में कार्य जारी है। डबल्यू एच ओ के अनुसार लगभग 17 देशों के पास जैविक हथियारों के उत्पादन की क्षमता है। प्रयोगशालाओं से जीवाणुओं के रिसाव का खतरा है और इस प्रकार की दुर्घटनाएं घट भी चूकीहैं। जीवाणुओं के आतंकवादियों के हाथ लगने का खतरा भी सिर पर मंडरा रहा है। इस प्रकार के कुछ हादसे विभिन्न देशों में हो भी चूके हैं। कुछ वर्ष पूर्व भारत में भी इंडियन मुजाहिदीन ने जैविक हमले की धमकी दी थी। इस मामले में अमेरिका भी चिंता प्रकट कर चूका है कि भारत जैविक हमले का शिकार हो सकता है। परंतु, खतरनाक जीवाणुओं की यात्रा बदस्तूर जारी है न जाने यह कब थमेगी।  

Saturday, March 8, 2014

पैगंबर का चित्र 2

पैगंबर का चित्र किसी समाचार पत्र में छपना और मुस्लिमों का उत्तेजित होकर विरोध प्रदर्शन करते हुए सडकों पर उतर आना कोई नई बात नहीं। अब की बार यह वाकया नार्वे की राजधानी ओस्लो में दोहराया गया। कुछ वर्ष पूर्व डेनमार्क में पैगंबर के चित्र छपने पर भी पूरी दुनिया भर के मुसलमान सडकों पर उतर आए थे। और हाल ही में डेनमार्क के कोपेनहेगन में एक मुसलमान को पैगंबर का रेखा-चित्र बनानेवाले कार्टूनिस्ट पर हमले के लिए हथियारबंद होकर उसके घर में घूसने का प्रयास करते हुए पुलिस ने घायल कर गिरफ्तार कर लिया। पैगंबर का चित्र छपने पर मुसलमानों का उत्तेजित होना इसलिए स्वाभाविक है क्योंकि, इस प्रकार का चित्रीकरण इस्लाम को मान्य नहीं। क्योंकि, पैगंबर का कथन है 'उससे बडा अपराधी/अन्यायी कौन है कि जो मेरी निर्मिति जैसी निर्मिति करने (यानी चित्र बनाने, मूर्ति बनाने) का प्रयत्न करता है।" (बुखारी 5953, मुस्लिम 5275) इसी प्रकार से पैगंबर का एक और कथन है- 'चित्र बनानेवाले सभी चित्रकार नरक में जाएंगे।" (मुस्लिम 5272, मजह 5121, मुवत्ता मलिक 1743) 'जिन्हें अल्लाह द्वारा कठोरतम दंड मिलेगा वे (लोग यानी) चित्रकार हैं।"(बु. 5950; मु. 5266,68,73; मजह.3653)  इसी प्रकार से एक हदीस कथन है - 'आयशा (पैगंबर की पत्नी) ने कहा 'प्रतिमा और क्रास हो उस घर में पैगंबर रहते नहीं थे, यदि (वहां) गए तो उन्हें नष्ट कर डालते थे।" (बुखारी 5953) इस प्रकार की और भी कई हदीसें हैं। 

इस प्रकार से चित्र या मूर्ति बनाने की मनाही होने के बावजूद 'हदीस सौरभ" (लेखक-मुहम्मद फारुक खॉं) में पृ. 192 से 194 पर 'मुखारबिन्द" शीर्षक तले तीन हदीसें दी हुई होकर कहा गया है कि ''आपके मुखाकृति आदि के विषय में 'रिवायतें" बहुत हैं। यहां उदाहरणार्थ केवल 'तीन रिवायतें (हदीस बयान करना)" दी गई हैं। शायद इन्हीं पर से चित्रकार या कार्टूनिस्ट उनका रेखा-चित्र बनाते हों। जो भी हो परंतु, मराठी पत्रिका विवेक के 1981 के दीपावली विशेषांक में मलकानीजी ने एक लेख में लिखा है 'ईरान में लगभग सभी घरों में पैगंबर मुहम्मद के चित्र लगे हुए हैं।"

पैगंबर के चित्र के कारण ही 'मुंबई में बडे दंगे का आरंभ 17 अक्टूबर 1851 को हुआ। श्री बैरामजी गांधी नामके एक पारसी सज्जन उन दिनों 'चित्रज्ञान-दर्पण" नामका एक समाचार पत्र चलाते थे। वे प्रत्येक अंक में किसी विशिष्ट व्यक्ति का चित्र प्रकाशित कर उसका परिचय देते थे। इसी क्रम में एक बार उन्होंने मुहम्मद पैगंबर का चित्र के साथ परिचय प्रकाशित किया। इस्लाम के अनुसार मुहम्मद का चित्र प्रकाशित करना हराम होकर उस अपराध का दंड बडा ही भयंकर होता है। इसकी गांधीजी को शायद कल्पना न हो। 17 अक्टूबर जुम्मे के दिन सुबह दस बजे मुसलमानों की भीड दीन-दीन चिल्लाते हुए मुंबई की जामा मस्जिद से निकल पडी। टोलियों में घूमते दंगाई जहां भी पारसी दिखाई दे उसे पीटते चले गए। जब मामला पुलिस से न सम्हल सका तब सेना को बुलाया गया। वैसे इस दंगे में पुलिस कमिश्नर फ्रेंक साऊटर ने बडी कडाई बरती थी। एक माह तक पारसी मुसलमानों की शत्रुता चलती रही, मारपीट चलती रही। अंत में सरकार के प्रयासों से पारसी तथा मुसलमानों की एक संयुक्त सभा आयोजित की गई जिसमें चित्रज्ञान दर्पण में मुहम्मद साहेब का चित्र प्रकाशित करनेवाले गांधीजी ने क्षमायाचना की और मुंबई के पहले दंगे का अध्याय समाप्त हुआ।" 

इसी प्रकार से 'द इंडियन पोस्ट' नामके अंग्रेजी समाचार-पत्र ने 15 अगस्त 1988 के अपने अंक के एक नियमित स्तम्भ 'द वीक इन हिस्ट्री" में इस प्रकार संक्षिप्त जानकारी प्रकाशित की थी कि '20 अगस्त 570ई. को इस्लाम के संस्थापक मुहम्मद का जन्म मक्का के एक गरीब कुरैशी अरब परिवार में हुआ था।" इसके साथ ही मुहम्मद साहेब का एक छोटा सा स्केच (चित्र) प्रकाशित किया गया था। पर यह क्या संपादक महाशय को धन्यवाद की जगह धौंस-धमकियां मिली। तंजिम ई अल्लाह हो अकबर का बारह सदस्यीय प्रतिनिधि मंडल उसी दिन 'द इंडियन पोस्ट" के कार्यालय पर जा धमका और रोष व्यक्त करते हुए विद्वान संपादक श्री विनोद मेहता को कल के अखबार में खुली माफी मांगने की हिदायत दे आया। बेचारा संपादक घबरा गया और उसने उनकी बात मान ली।" 

इसी प्रकार की असहिष्णुता केवल चित्र प्रकाशन तक ही सीमित नहीं है जरा-जरा सी बात पर मुस्लिम समाज उत्तेजित हो जाता है और सडकों पर उतर आता है। इसके भी कई उदाहरण दिए जा सकते हैं। उदा. 'गैर मुस्लिमों द्वारा अल्लाह शब्द के उपयोग के संबंध में मलेशिया में हाईकोर्ट द्वारा कैथोलिक न्यूजलेटर हेराल्ड को अपने बहासा मलेशिया संस्करण में ईश्वर के संदर्भ में अल्लाह शब्द का उपयोग कर सकता है का फैसला देने को लेकर कई चर्चों को निशाना बनाना।" नीदरलैंड जैसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का चरम रखनेवाले देश में 'मुस्लिम महिलाओं के विरुद्ध हिंसा कुरान सम्मत होने का चित्रीकरण 'सबमिशन" नामक चित्रपट में करने के अपराध में वॅन गॉग को गोली मारी। वॅन गॉग द्वारा घुटने के बल बैठकर दया की भीख मांगने के बावजूद पहले गोली मारी फिर छुरे से हमला किया। बाद में कुरान की आयतें लिखी हुई चिट्ठी छुरे की सहायता से उसके सीने में घोंपी। जिसमें अमेरिका, यूरोप, नीदरलैंड को नष्ट करने की दर्पोक्ति थी। पहले भी वॅन गॉग द्वारा सेमेटिक परंपरा पर लेखन किया गया था। यह भी एक उसका अपराध था।" 

'मुंबई का दूसरा दंगा भी पारसी और मुसलमानों में ही हुआ था। सन्‌ 1874 में एक पारसी सज्जन रुस्तमजी जालभाई ने आयर्विंग नामक अमरीकी लेखक के कुछ लेखों को अनुवादित कर प्रकाशित किया। इस प्रकाशन में मुहम्मद पैगंबर के संबंध में जो कुछ था वह मुसलमानों की दृष्टि से उनके रसूल का अपमान करनेवाला लेखन था। बस फिर क्या था 13 फरवरी को मुसलमान जामा मस्जिद से निकल पडे और पारसी दिखा कि पिटाई करते चले गए। अरब, पठान, सिंधी मुसलमानों ने पारसियों की सम्पत्ती की लूट मचाई, पारसियों की दो अग्यारियों में भी तोडफोड की। ऐसी अवस्था में प्रशासन को सेना की सहायता लेनी पडी।"

इसी प्रकार से कुछ वर्षों पूर्व एक फिल्म 'मुस्तफा" का नाम बदल कर 'गुलाम ए मुस्तफा" रखने के लिए विवश किया गया था। कहा गया था कि 'मुस्तफा" इस्लाम के पैगंबर मुहम्मद का एक नाम था। वैसे इसे असलियत माना नहीं जा सकता इसलिए कि यह उनका नाम था ही नहीं। हां, इतना जरुर है कि जब मुसलमानों की मुहम्मद साहेब के प्रति श्रद्धा बढ़ी तो जैसाकि मनुष्य मात्र का स्वभाव है, सम्मान के साथ-साथ उनके लिए श्रेष्ठता सूचक शब्दों का, उपाधियों का होने लगा। 'मुस्तफा" अरबी भाषा का शब्द होकर उसका अर्थ होता है, पुनीत, निर्मल, शुद्ध। मतलब कुछ मुसलमान 'मुहम्मद साहेब" को 'मुस्तफा" याने पुनीतात्मा" कहने लगे। किसी देवता, प्रेषित, सन्तपुरुष के लिए सम्मानजनक विशेषण को निमित्त बनाकर विवाद को यदि चलाया जाए तो फिल्मवालों के लिए नामकरण एक आफत ही बन जाएगा। अब यही देखिए भगवान विष्णु के एक हजार नाम हैं तो भगवान शिव के सातसौ। तैंतीस करोड देवी-देवताओं को माननेवाला यह बहुदेववादी हिंदू समाज यदि इस प्रकार की दकियानूसी पर उतर आए तो!
  
नार्वे के इन उपर्युक्त प्रदर्शनकारियों ने हाथ में तख्तियां ले रखी थी जिन पर लिखा था 'सभी धर्मों को सम्मान दो, मुस्लिमों को नीचा दिखाना बंद करो।" प्रथमदृष्टया मुस्लिमों की मांग उचित ही नजर आती है। परंतु, मांगने से सम्मान नहीं मिलता। यदि आप सम्मान चाहते हैं तो, आपको भी दूसरों को सम्मान देना होगा; उनसे सहिष्णुता का व्यवहार करते हुए उनकी भावनाओं-आस्थाओं के प्रति सम्मान दर्शाना होगा। तभी आप उनसे सम्मान की, बराबरी से व्यवह्रत किए जाने की आशा कर सकते हैं, मांग कर सकते हैं। लेकिन मुस्लिम अपने आचरण द्वारा कहीं भी इस प्रकार का यानी कि दूसरे धर्मों को सम्मान और बराबरी का दर्जा देने का, सहिष्णुता का व्यवहार करते नजर नहीं आते। वे तो सर्वश्रेष्ठता की ग्रंथी से पीडित नजर आते हैं। 

यदि मुसलमान अपने पैगंबर के चित्रीकरण से आहत महसूस करते हैं, 75 लाख की आबादीवाले एक छोटे से देश स्विट्‌जरलैंड में मीनारों पर प्रतिबंध से मुसलमानों की धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकारों काहनन होता है और वे वैसाही चाहते हैं जैसाकि वे प्रदर्शन ेके दौरान तख्तियों पर लिखकर दर्शा रहे थे तो, मुसलमानों को अपनी अतिअसहिष्णुता को त्यागकर मुहम्मदसाहेब के मक्काकालीन जीवन का आदर्श सामने रख संयम, सहिष्णुता, शांति की नीतियों का अवलंबन करना होगा। जैसाकि उनके कई मुस्लिम धार्मिक विद्वान, नेता और विचारक कहते रहते हैं। इस संबंध में मौ. वहीदुद्दीन का यह अभिप्राय यथार्थ है ः 'मुसलमानों के मनों में सबसे प्रभावी विचार इस्लाम का हित किस प्रकार से होगा यह होना चाहिए, स्वयं का व्यक्तिगत हित नहीं। उनकी सारी चिंता का विषय इस्लाम के संदेश का प्रसार होना चाहिए। अगर स्वयं के हित और धर्मप्रसार का हित इनमें विरोध आया तो धर्मप्रसार के हित को अग्रक्रम मिलना चाहिए। धर्मप्रसार के हित के लिए ही पैगंबर ने (इस प्रकार की प्रतिकूल परिस्थिति में) संयम का उपदेश दिया हुआ है।"
पैगंबर का चित्र 1

पैगंबर का चित्र किसी समाचार पत्र में छपना और मुस्लिमों का उत्तेजित होकर विरोध प्रदर्शन करते हुए सडकों पर उतर आना कोई नई बात नहीं। अब की बार यह वाकया नार्वे की राजधानी ओस्लो में दोहराया गया। कुछ वर्ष पूर्व डेनमार्क में पैगंबर के चित्र छपने पर भी पूरी दुनिया भर के मुसलमान सडकों पर उतर आए थे। और हाल ही में डेनमार्क के कोपेनहेगन में एक मुसलमान को पैगंबर का रेखा-चित्र बनानेवाले कार्टूनिस्ट पर हमले के लिए हथियारबंद होकर उसके घर में घूसने का प्रयास करते हुए पुलिस ने घायल कर गिरफ्तार कर लिया। पैगंबर का चित्र छपने पर मुसलमानों का उत्तेजित होना इसलिए स्वाभाविक है क्योंकि, इस प्रकार का चित्रीकरण इस्लाम को मान्य नहीं। क्योंकि, पैगंबर का कथन है 'उससे बडा अपराधी/अन्यायी कौन हो सकता है कि जो मेरी निर्मिति जैसी निर्मिति करने (यानी चित्र बनाने, मूर्ति बनाने) का प्रयत्न करता है।" (बुखारी 5953, मुस्लिम 5275) इसी प्रकार से पैगंबर का एक और कथन है- 'चित्र बनानेवाले सभी चित्रकार नरक में जाएंगे।" (मुस्लिम 5272, मजह 5121, मुवत्ता मलिक 1743)  इसी प्रकार से एक हदीस है - 'आयशा (पैगंबर की पत्नी) ने कहा 'प्रतिमा और क्रास हो उस घर में पैगंबर रहते नहीं थे, यदि (वहां) गए तो उन्हें नष्ट कर डालते थे।" (बुखारी 5953) इस प्रकार की और भी कई हदीसें हैं। 

इस प्रकार से चित्र या मूर्ति बनाने की मनाही होने के बावजूद 'हदीस सौरभ" (लेखक-मुहम्मद फारुक खॉं) में पृ. 192 से 194 पर 'मुखारबिन्द" शीर्षक तले तीन हदीसें दी हुई होकर कहा गया है कि ''आपके मुखाकृति आदि के विषय में 'रिवायतें" बहुत हैं। यहां उदाहरणार्थ केवल 'तीन रिवायतें (हदीस बयान करना)" दी गई हैं। शायद इन्हीं पर से चित्रकार या कार्टूनिस्ट उनका रेखा-चित्र बनाते हों। जो भी हो परंतु, मराठी पत्रिका विवेक के 1981 के दीपावली विशेषांक में मलकानीजी ने एक लेख में लिखा है 'ईरान में लगभग सभी घरों में पैगंबर मुहम्मद के चित्र लगे हुए हैं।" 

नार्वे के इन उपर्युक्त प्रदर्शनकारियों ने हाथ में तख्तियां ले रखी थी जिन पर लिखा था 'सभी धर्मों को सम्मान दो, मुस्लिमों को नीचा दिखाना बंद करो।" प्रथमदृष्टया मुस्लिमों की मांग उचित ही नजर आती है। परंतु, मांगने से सम्मान नहीं मिलता। यदि आप सम्मान चाहते हैं तो, आपको भी दूसरों को सम्मान देना होगा; उनसे सहिष्णुता का व्यवहार करते हुए उनकी भावनाओं-आस्थाओं के प्रति सम्मान दर्शाना होगा। तभी आप उनसे सम्मान की, बराबरी से व्यवह्रत किए जाने की आशा कर सकते हैं, मांग कर सकते हैं। लेकिन मुस्लिम अपने आचरण द्वारा कहीं भी इस प्रकार का यानी कि दूसरे धर्मों को सम्मान और बराबरी का दर्जा देने का, सहिष्णुता का व्यवहार करते नजर नहीं आते। वे तो सर्वश्रेष्ठता की ग्रंथी से पीडित नजर आते हैं। इसका उदाहरण है - विश्वप्रसिद्ध मुस्लिम विचारक डॉ. जाकिर नाईक से एक भेंट के रुप में जो इस प्रकार से है -

 भेंटकर्ता ने डॉ. नाईक से कहा ''भारत के एक गैर-मुस्लिम ने एक प्रश्न पूछा है। इस्लामी राष्ट्रों में गैर-मुस्लिमों को अपने धर्म के प्रचार-प्रसार करने की, धार्मिक स्थल निर्मित करने की इजाजत है क्या? और यदि ऐसी इजाजत हो तो सऊदी अरब में मंदिर और चर्च निर्माण की इजाजत क्यों नहीं? मनाही क्यों है? लंडन और पेरिस जैसे शहरों में मुस्लिम लोग मस्जिदें खडी करते हैं और सऊदी अरब में भर मंदिर-चर्च निर्माण की अनुमति नहीं, ऐसा क्यों? 

इस पर डॉ. नाईक का उत्तर ः''सऊदी अरब और तत्सम अन्य कुछ राष्ट्रों में अन्य धर्मों के प्रसार पर प्रतिबंध है। पूजास्थल (मंदिर-चर्च) खडे करने की मनाही है। हमारे देश में मुस्लिमों को धर्मप्रचार/प्रसार की प्रार्थनास्थलों (मस्जिदों) के निर्माण पूर्ण की पूर्ण स्वतंत्रता रहने पर भी इस्लामी राष्ट्रों में अन्य धर्मीयों के पूजास्थलों के निर्माण पर मनाही क्यों है? इस प्रकार के प्रश्न अनेक गैर-मुस्लिम पूछते हैं। इस पर मैं उन्हें प्रतिप्रश्न करना चाहता हूं कि, मानलो तुम एक विद्यालय के प्रधानाध्यापक हो। तुम्हारे विद्यालय में गणित शिक्षक की आवश्यकता है। उसके लिए उम्मीदवारों के साक्षात्कार चल रहे हैं। दो और दो कितने? ऐसा प्रश्न तुमने उनसे पूछा। इस पर एक उम्मीदवार ने उत्तर दिया- 'तीन!" दूसरे उम्मीदवार ने- 'चार!" और तीसरे ने कहा- 'छः!" अब ऐसे उत्तर देनेवाले उम्मीदवारों को तुम गणित के शिक्षक के रुप में चुनोगे क्या? उत्तर- नकारार्थी ही होगा। जिसे गणित का पर्याप्त ज्ञान नहीं, उसे कैसे चुनें? ऐसा वे कहेंगे। धर्म के मामले में भी वैसा ही है। ईश्वर की दृष्टि में इस्लाम ही सच्चा धर्म है ऐसी हमारी अटल- अपार श्रद्धा है, भावना है। इस्लाम के अलावा अन्य कोई सा भी धर्म परमेश्वर को मान्य नहीं ऐसा पवित्र कुरान (3ः85) में स्पष्ट रुप से कहा हुआ है। अब दूसरा प्रश्न है वह मंदिर और चर्च निर्माण पर मनाही का! इस पर मैं कहता हूं कि, जिनका धर्म ही गलत है, जिनकी प्रार्थना, पूजा पद्धति गलत है; उन्हें धर्मस्थल खडे करने की अनुमति क्यों दें? इसीलिए इस्लामी राष्ट्रों में इस प्रकार की बातों के लिए हम अनुमति नहीं देते!""

भेंटकर्ता ः''अपना ही धर्म (इस्लाम) सत्य है ऐसा मुस्लिमों को लगता है और वैसा वे दावा करते भी हैं। गैर-मुस्लिम भर हमारा धर्म ही सत्य है का दावा नहीं करते।""

डॉ. नाईक ः'"दो और दो यानी तीन ऐसा पढ़ानेवाले शिक्षक गैर-मुस्लिमों को भी मान्य नहीं यह पहले ही ध्यान में लेना चाहिए। धर्म के संबंध में, धार्मिक बातों के संबंध में हम ही (मुस्लिम) सही हैं, हमारे विचार, और मार्ग योग्य, उचित हैं इसका हमें विश्वास है। गैर-मुस्लिम मगर इस मामले में स्थिर नहीं। अपनी भूमिका, विचार ही योग्य हैं ऐसा उन्हें स्वयं को ही विश्वास नहीं। इस्लाम ही एकमात्र सच्चा और उचित धर्म है ऐसा हमारा विश्वास होने के कारण मुस्लिम राष्ट्रों में हम अन्य धर्मों के प्रचार-प्रसार की अनुमति नहीं दे सकते। तथापि, इस्लामी राष्ट्र में रहकर एकाध गैर-मुस्लिम को उसके धर्मानुसार आचरण करना हो तो उस पर मनाही नहीं, विरोध नहीं। केवल एक शर्त है कि, वह उसके स्वयं के घर में करे! सार्वजनिक स्थानों पर, जाहिर रुप से वह कर नहीं सकता।  धर्मप्रचार/प्रसार की इजाजत नहीं। आचरण की है, वह भी केवल घर की चारदीवारी के अंदर। दो और दो तीन होते हैं ऐसा कहनेवाले को उसके विचारों की पूर्ण स्वतंत्रता है। परंतु, उसके गलत विचार, गलत भूमिका वह उसके तक ही मर्यादित रखे; नई पीढ़ी को, विद्यार्थियों को गलत न सीखाए। यही धर्म के मामले में भी है। इस्लाम, इस्लाम की सीख, विचार, भूमिका ही योग्य है। अन्यों की नहीं इसलिए इस्लामी राष्ट्रों में गैर-मुस्लिमों को धर्मप्रचार/प्रसार की अनुमति नहीं।""

यदि मुसलमान अपने पैगंबर के चित्रीकरण से आहत महसूस करते हैं, 75 लाख की आबादीवाले एक छोटे से देश स्विट्‌जरलैंड में मीनारों पर प्रतिबंध से मुसलमानों की धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकारों काहनन होता है। तो, क्यों नहीं उपर्युक्त प्रकार की भेंटवार्ता की आलोचना करने के लिए दुनियाभर के मुसलमान एक मंच पर आते हैं। क्यों नहीं मुसलमान आगे आकर उपर्युक्त भेंट में कही गई बातों, जिनमें गैर-मुस्लिमों की धार्मिक भावनाओं, स्वतंत्रता का हनन होता है, पर विरोध प्रकट कर कुरान सर्वधर्मसमभाव, धार्मिक स्वतंत्रता को मान्यता देती है के लिए हमेशा उद्‌. की जानेवाली सूर अल-काफिरून की आयत 6 ''तुम्हारे लिए तुम्हारा दीन (धर्म) और मेरे लिए मेरा दीन।""  कुरान की धार्मिक स्वतंत्रता का जाहिरनामा (मॅग्नाचार्ट) के रुप में पहचानी जानेवाली इस आयत ''दीन (धर्म) में जबरदस्ती नहीं है।"" (2ः256) और धर्म के मामले में जबरदस्ती को प्रतिबंधित करनेवाली, धार्मिक स्वतंत्रता देनेवाली व बहुधर्मवाद का सिद्धांत प्रतिपादित करनेवाली के रुप में अनेकों बार अनेकों द्वारा उद्‌धृत की जानेवाली इस आयत ''ऐ पैगंबर! अगर तेरा परवरदिगार चाहता तो जितने आदमी जमीन की सतह पर हैं सबके सब ईमान (इस्लाम पर श्रद्धा) ले आते। तो अब क्या तू (हस्ती रखता है कि) लोगों को मजबूर करे कि वे ईमान ले आवें।""(10ः99) को आचरण में लाने का अभियान चलाते। 

Friday, March 7, 2014

8 मार्च विश्व महिला दिवस - 
भारत प्रभावित बर्मा की गांधी - औंग सान सू की

औंग सान सू की का बर्मी उच्चारण होता है ऑन सान सू की। बर्मी लोग उसे आदरवश 'दाउ" भी कहते हैं जो बर्मी में आदर और स्नेह सूचक शब्द है। कभी-कभी उन्हें 'द लेडी" भी कहते हैं। उन पर 'द लेडी" नामकी एक फिल्म भी बनी है। 'द लेडी" शब्द उनके बर्मी अनुयायियों में उनकी लोकप्रियता का सूचक है। यह नाम विश्व स्तर पर बहुचर्चित इसलिए है कि इस महिला ने बर्मा जिसे अब हम म्यांमार के नाम से जानते हैं में प्रजातंत्र की स्थापना के लिए किए हुए संघर्ष में हिंसा और रक्तपात का सामना अत्यंत जीवटता से शांतिपूर्वक अहिंसा के मार्ग से किया। इसीलिए उसकी तुलना न केवल गांधीजी से की जाती है अपितु नेल्सन मंडेला से भी की जाकर उसे बर्मा की नेल्सन मंडेला भी कहा जाता है। 

बर्मा (ब्रह्मदेश) 1886 से 1939 तक ब्रिटिश भारत का अंग रहा है। ब्रह्मदेश का हमसे बडा प्राचीन संबंध है। सबसे पहले सम्राट अशोक ने ईसा पूर्व 300 वहां बौद्ध धर्म का प्रचार करने के लिए बौद्ध भिक्षुओं को भेज ब्रह्मदेश को भारतीय संस्कृति से जोडा। 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के बाद अंतिम मुगल बादशाह जफर को यहीं की रंगून (जिसे अब येंगो कहा जाता है) जेल में रखा गया था। आजादी की लडाई के दौरान लोकमान्य तिलक को भी म्यांमार की मंडाले जेल में कैद रखा गया था। यहीं पर उन्होंने विश्वप्रसिद्ध 'गीता रहस्य" लिखा था। बर्मा के अंतिम सम्राट 'थे बाउ" की मृत्यु अपना निर्वासन काल भारत में गुजारते हुए महाराष्ट्र के कोंकण के जिले रत्नागिरी में हुई थी। 

सू की के पिता जनरल औंग सान बर्मा की आजादी की लडाई के सबसे लोकप्रिय नेता और आधुनिक बर्मी सेना के संस्थापक थे। उन्हें बर्मा का राष्ट्रपिता कहते हैं। बर्मा की आजादी के छः माह पूर्व उनकी हत्या 19 जुलाई 1947 को कर दी गई और उसके ठीक एक महीना पहिले 19 जून को सू की का जन्म हुआ। 19 जुलाई को बर्मा की जनता शहीद दिवस मनाती है। दाउ सू की ने अपने हत्यारों के खिलाफ कभी भी बदले की भावना से काम नहीं किया। बल्कि हिंसा का जवाब प्रेम से दिया, शांतिपूर्ण संघर्ष कर। यह कदम उनकी मां खिन की के प्रभाव व प्रेरणा के फलस्वरुप था। जिन्होंने अपने पति की हत्या के बाद भी, जो देश में प्रजातंत्र लाना चाहते थे की हत्या के बाद भी शांति से काम लेकर अपने दुश्मनों को न केवल माफ किया बल्कि अपनी पुत्री को उन्हीं की गोद में पलने-बढ़ने दिया। उनके इस कदम से देश गृहयुद्ध से बच गया। यह खिन की पर भारतीय संस्कारों और संतों के विचारों का प्रभाव था। सू की ने अपने पिता के हत्यारों और उनके समर्थकों से ही जाना की उनके पिता ने किस प्रकार से देश के लिए बलिदान दिया।

भारत के महत्व को देखते हुए सैनिक शासकों ने खिन की को 1960 में बर्मा का राजदूत बनाकर भारत भेजा। वे बर्मा की पहली  कूटनीति मिशन की प्रमुख थी। बचपन में जब वे अपनी मां खिन की के साथ नेहरुजी से मिलने गई तब इंदिरा गांधी ने ही उन्हें महात्मा गांधी की पुस्तक पढ़ने के लिए दी थी। सू की ने इंदिरा गांधी को अपनी दूसरी मां के रुप में देखा। सू की मानसिक और वैचारिक रुप से परिपक्व हो इसलिए उनकी मां ने उन्हें महात्मा गांधी की कार्यपद्धति से प्रेरणा लेने को कहा। भारत में रहकर सू की ने भारत की स्वतंत्रता की लडाई में साहित्यकारों के योगदान का भी अध्ययन किया। वह समझ गई कि सभी समुदायों को साथ लिए बगैर संघर्ष में सफलता मिल नहीं सकती। अलग-अलग प्रांतों की मांग के लिए लडने की बजाए एक ही प्रांत यानी बर्मा के लिए लडा जाए। यह राष्ट्रीय भावना बर्मा के विभिन्न कबीलों जैसे कि कारेन, काछेन, जिनपाउ लिछू, शान, बर्मी आदि में निर्मित की, भाईचारा निर्मित किया। इसका उल्लेख उन्होंने अपनी पुस्तक 'फ्रीडम फ्रॉम फियर" में किया है।

इसका एक अन्य उद्देश्य यह भी था कि ईसाई मिशनरियों द्वारा सेवा की आड में अलगाववाद को भडकाने के प्रयासों को भी विफल करना। वह अपने भाषणों में प्रायः कहती 'मैं कारेन हूं",'मैं शान हूं", 'मैं बर्मी हूं" की भावना को हमें राष्ट्रीय एकता के लिए त्यागना होगा। भारत में रहते उन पर गांधीजी के आदर्शों और विचारों का गहरा प्रभाव पडा और वे उनके प्रेरणा स्त्रोत बन गए। उनके विपक्षी मोर्चे के कार्यालय का नाम भी 'गांधी भवन" ही है। उन पर नेहरुजी के राजनीतिक चिंतन का इतना प्रभाव था कि उन्होंने अपनी रचनाओं में पिता के साथ-साथ उनका जिक्र भी कई स्थानों पर किया हुआ है। उनके प्रजातंत्र समर्थक एक पोस्टर में नेहरुजी के भाषण की भी एक पंक्ति इस प्रकार से है - ''अगर कोई सरकार अपने देश के लोगों पर नियंत्रण रखने के लिए भय और आतंक का इस्तेमाल करती है, इसका मतलब वह सरकार प्रभावहीन है।""

सन्‌ 1974 में जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में हुए आंदोलन का भी उसने अध्ययन किया था। जुलाई 1989 के आंदोलन के दौरान अपने समर्थकों की रक्षा के लिए गांधीजी के सत्याग्रह वाले शस्त्र को अपने से अधिक शक्तिशाली शत्रु सैनिक शासन के विरुद्ध अपनाया और 12 दिन के अनशन के पश्चात अपनी मांगें मनवाने में सफल रही। इसी दौरान उन्हें 'बर्मा की गांधी" की उपाधि से नवाजा गया। सू की के शांतिपूर्ण आंदोलन को कुचलने के कार्य में बर्मा के सैनिक शासन का सहयोगी था चीन। ऐसे कठिन समय में सू की ने महात्मा गांधी की आत्मकथा और भारत के स्वतंत्रता संघर्ष की कहानियों का दोबारा अध्ययन किया। नजरबंद रहते ही उसने पति माइकल एरिस से 'रामायण" और 'महाभारत" की थाई और कंबोडियाई भाषावाले संस्करण मंगवाए। इन्हीं ग्रंथों में डूबकर उसने कठिन चुनौतियों का सामना करने की शक्ति पाई। वह जान चूकी थी कि भारत की स्वतंत्रता की लडाई में संत-महात्माओं ने जनजागृति कर लोगों में चेतना जगाने का काम किया था। और अंग्रेज भी इनकी चमत्कारीक गाथाओं से भय खाते थे।

 स्वामी विवेकानंद की यह पंक्ति भी उन्होंने  उद्‌धृत की है - 'उठो, जागो और लक्ष्य तक पहुंचे बिना रुको मत।"  इससे प्रेरित हो उसने भारत में रहते योग-ध्यान प्रारंभ कर दिया था। जिससे उसका मनोबल हमेशा बना रहा। कारावास में अकेले रहते उसने कठिन योग-व्यायाम करने के साथ आध्यात्मिक चेतना जाग्रत करनेवाली कुंडलिनी योग-अभ्यास कर स्वयं को निर्भय और दृढ़ निश्चयी बना लिया। ऐसी जुझारु नोबल पुरस्कार से लेकर सखारोव और जवाहरलाल नेहरु अवॉर्ड और अनेकानेक अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त दाउ सू की की कथा अभी समाप्त नहीं हुई है। उनकी लडाई जारी है, देखना यह है कि दुबली-पतली कायावाली, महिला प्रतिरोध की प्रतीक सू की की यह लडाई कहां जाकर, क्या हासिल कर थमती है। 

Sunday, March 2, 2014

स्वदेशीचा अंगीकार करा - बहिष्कार करा चीनी सामानचा

20 जुलाई 1905ला ब्रिटिश शासनाने बंग-भंगची घोषणा केली आणि त्यांच्या या आव्हानाला भरपूर हिंमतीने स्वीकारत लोकमान्य टिळकांनी साम्राज्यवादी शक्तींना सडेतोड उत्तर देण्याकरिता परकीय वस्तुंचा बहिष्कार व स्वदेशी वस्तुंचा स्वीकार हे दोन सूत्र प्रामुख्याने दिले. वस्तुतः 'स्वदेशी" आणि 'बहिष्कार" एकच नाण्याचे दोन पैलू आहेत आणि म्हणूनच 7 आगस्ट 1905 पासून परकीय वस्तुंचा बहिष्कार व स्वदेशी वस्तुंचा स्वीकार चळवळ तीव्रतेने सुरु झाली. अरविंदघोष, रविंद्रनाथठाकुर, लालालजपतराय, विपिनचंद्रपाल या चळवळीच्या मुख्य उद्‌घोषकांपैकी होते. पुढ़ेजाऊन गांधींनी या स्वदेशी चळवळीला स्वातंत्र्याच्या लढ्‌याचा केंद्रबिंदु बनविला. या चळवळीच्या प्रभावामुळेच लोकमान्यांनी 'हिंदकेसरी"ची सुरुवात करुन हिंदीच्या प्रचार-प्रसाराची मोहिम राबविली. पंडित मदनमोहनमालवीय यांनी काशी हिंदुविद्यापीठची स्थापना केल्या नंतर हिंदी एक विषयाच्या रुपात सामील करुन 'अभ्युदय", 'मर्यादा", 'हिंदुस्थान" आदि पत्रांची सुरुवात एवं संपादन करुन हिंदीच्या प्रचार-प्रसाराची सुरुवात केली होती.
   
टिळकांच्या आवाहनावर देशात स्वदेशी व बहिष्कारची चळवळ चालवणाऱ्यांन मध्यें क्रांतीकारी सावरकरबंधुंचे विशेष स्थान आहे. 1 ऑक्टोबर 1905ला पुण्याच्या एका सभेत सावरकरांनी विद्यार्थीं समोर परदेशी वस्त्रांची होळी जाळण्याचा एक अद्‌भुत प्रस्ताव ठेवला. या प्रस्तावाच्या स्वीकृतीसाठी जेव्हां सावरकर टिळकांना भेटले तेव्हां त्यांनी एक अट टाकली की दहा-वीस वस्त्र जाळण्यानी काम चालायचे नाही. जर कां परदेशी वस्त्रांची होळी जाळायचीच आहे तर ढ़ीगभर वस्त्र जाळावे लागतील. या अटी प्रमाणेच सावरकरांनी 7 ऑक्टोबर 1905ला दहा-वीस नाही तर ढ़ीगभर परदेशी वस्त्रांनी भरलेल्या एका गाडीचीच होळी जाळली. सावरकरांची ही कल्पना इतकी विलक्षण होती की पूर्ण 16 वर्षानंतर 9 ऑक्टोबर 1921 मध्यें मुंबईत गांधींनी याच प्रकाराची परदेशी वस्त्रांची होळी जाळली.

गांधीत स्वदेशीची तळमळ इतकी जागृत होती की दक्षिण आफ्रिकेहून प्रकाशित होणारी आपली पत्रिका 'इंडियन ओपिनियन" (गुजराथी संस्करण 28डिसेंबर 1907) मध्यें पाठकांना 'पैसिव रेजिस्टंट", 'सिविल डिसओबिडियन्स" आणि अशाच कित्येक शब्दांकरिता समानार्थक गुजराथी शब्द सुचविण्यास सांगून त्याकरिता बक्षीस पण ठेवले होते. गांधींच्या या आवाहनाच्या प्रतिसादात त्यांना 'प्रत्युपाय, कष्टाधीन प्रतिवर्तन, कष्टाधीन वर्तन, दृढ़प्रतिपक्ष, सत्यनादर, सदाग्रह आदी शब्द जेव्हां मिळाले तेव्हां त्यांनी त्या सगळ्या शब्दांच्या अर्थांचे वेग-वेगळे विश्लेषण केल्या नंतर सदाग्रह शब्द निवडला आणि त्यास बदलून 'सत्याग्रह" केला. या विषयी गांधींनी तेव्हां लिहिले होते ''सिविल डिसओबेडियन्स" तर असत्याचा अनादर आहे आणि जेव्हां तो अनादर सत्य पद्धतीने असेल  तर तो "सिविल" म्हणविला जाईल. त्यांत देखील 'पैसिव"चा अर्थ सामावलेला आहे. म्हणून सध्यातरी एकच शब्द उपयोगात आणला जाऊ शकतो आणि तो आहे 'सत्याग्रह". गांधींनी पुढ़े हे देखील लिहिल होते की ः घाई करुन वाटेल तो शब्द देऊन टाकण्याने आपल्या भाषेचा अपमान होतो व आपला अनादर होतो. म्हणून असे करणे व ते पण 'पैसिव रेजिस्टंस" सारखे शब्द अर्थ देण्याच्या संदर्भात, एकप्रकारे 'सत्याग्रही"च्या संघर्षाचेच खंडन होते. 

सावरकरांनी तर 1893त वयाच्या दहाव्या वर्षीच 'स्वदेशी"चा उपयोग करा चा विचार प्रस्तुत करणारा फटका लिहिला होता. हे निर्विवाद्य आहे की टिळकांचा खूपच प्रभाव सावरकरांवर होता आणि कदाचित्‌ टिळकांच्याच कोठल्यातरी भाषणात सावरकरांनी ते ऐकिले असेल हे शक्य आहे. टिळकांनी तर 1898 मध्येंच पुण्यात स्वदेशी वस्तुंच्या विक्रीकरिता एक दुकान सुरु केले होते. त्यांच्या पण आधी बंगालच्या भोलाचंद्रनी 1874 मध्यें शंभुचंद्र मुखोपाध्यायांच्या 'मुखर्जीज मॅगझीन" मध्यें स्वदेशीची घोषणा दिली होती. 1870 मध्यें 'वंदेमातरम्‌"चा महामंत्र देणारे बंकिमचंद्र चटोपाध्याय यांनी 1872त 'बंगदर्शन" मध्येें स्वदेशीची घोषणा दिली होती. वंदेमातरम्‌च्या उद्‌घोषाला या चळवळीच्या काळात महामंत्राचे रुप मिळाले व प्रत्येक भारतीय प्रत्यक्ष कृति से जोडला गेला.

उपर्युक्त उदाहरण याकरिता दिले गेले आहेत कि स्वदेशीचा विचार किती जुना आहे हे वाचकांस कळावे. तुम्हांस आश्चर्य वाटेल की हा विचार सगळ्यात आधी महाराष्ट्राचे निष्ठावान सामाजिक कार्यकर्ता गणेश वासुदेव जोशी (9-4-1828 ते 25-7-1880) यांनी दिला होता. त्यांनी केलेल्या सामाजिक कार्यांमुळे त्यांना 'सार्वजनिक काका" ही म्हटले जाऊ लागले होते. समाजसुधारक न्यायमूर्ती रानड्यां बरोबर सल्लामसलत करुन सार्वजनिक काकांनी 1872 मध्यें स्वदेशी चळवळीची मुहुर्तमेढ़ रोवली. त्यांनी 'देशीव्यापारोत्तेजक मंडळ" ची स्थापना करुन शाई, साबण, मेणबत्या, छत्र्या आदी स्वदेशी वस्तुंच्या उत्पादनास प्रोत्साहन दिले व त्याकरिता आर्थिक झीज देखील सोसली होती. या स्वदेशी मालाच्या विक्रीकरिता सहकाराच्या तत्वावर आधारलेली दुकाने पुणे, सातारा, नागपूर, मुंबई, सुरत इ. ठिकाणी सुरु करण्याकरिता प्रोत्साहन दिले होते. स्वदेशी वस्तुंचे प्रदर्शन देखील आयोजित केले. त्यांच्या प्रयत्नांनी आगऱ्यात कॉटनमिल सुरु केली गेली होती. हेच कार्य सावरकरांनी 1924 ते 1937 रत्नागिरीत नजरबंदीच्या काळात खूप मोठ्या प्रमाणाते केले होते.

12-1-1872ला त्यांनी खादी उपयोगात आणण्याची शपथ घेतली आणि आयुष्यभर पाळली. खादीचा वापर करणारे व त्याचा प्रचार-प्रसार करणारे तेे पहिले द्रष्टा देशभक्त होते. इतकेच नव्हें तर खादीचा पोशाखकरुन 1872 मध्यें दिल्लीदरबारात पण सार्वजनिक सभेकडून गेले होते. या सभेची स्थापना त्यांनी त्याकाळात पुण्यातल्या 95 प्रतिष्ठित लोकांना घेऊन सनदशीर पद्धतीने राजकीय कार्य करता यावे या करिता केली होती. जनतेची गाऱ्हाणी सरकार समोर प्रस्तुत करता यावी, सार्वजनिक करता यावी या  करिता 1970 मध्यें केली होती. राजकारणाचे आद्यपीठ किंवा कांग्रेसची जननी म्हणता येऊ शकेल अशी ही सभा होती.

हे इतिहास कथन या करिता की ह्यापासून प्रेरणा घेऊन आज पुन्हा या स्वदेशीचा विचार स्वीकारण्याचा, रुजविण्याचा, त्याचा प्रचार-प्रसार करण्याचा व त्या करिता चळवळीची आवश्यकता तीव्रते भासत आहे। परदेशी वस्तुंचा बहिष्कार, स्वदेशी वस्तुंचा प्रयोग कांग्रेस किंवा कोणा विशिष्ट विचारसरणीच्या लोकांचा नाही तर तो संपूर्ण राष्ट्राचा संकल्प होता, आणि असावयास हवा. आज ग्लोबलायजेशनच्या काळात ओपन डोअरच्या नीतिचा फायदा घेऊन चीन आपले स्वस्त सामान पूर्ण भारतात पसरवित चालला आहे. आमचे उद्योग-धंदे नाश पावत आहेत. चीनचा इतिहास विश्वासघाताचा राहिला आहे तो आमची भुमी दाबून बसला आहे, सीमेवर समस्या निर्माण करित आहे इतकेच नव्हें तर आपल्या स्वस्त मालाचा ढ़ीग आमच्या बाजारातून लाऊन आम्हांस कित्येक पद्धतीने नुक्सान पोहोचवून राहिला आहे, आमच्या समोर नवनव्या समस्या उभ्या करण्या बरोबरच आम्हास आव्हान देऊन राहिला आहे. 

आज बाजारात जिकडे बघा तिकडे चीनी सामान दिसून राहिले आहे. घरगुती सामानापासून, लहान मुलांची खेळणी, इलेक्ट्रॉनिक्सचे सामान, मोबाईलपासून आमच्या देवांच्या मूर्तीदेखील. हे सगळे चीनी सामान आमच्या स्वकीय उद्योगां द्वारा निर्माण केलेल्या उत्पादानांपेक्षा स्वस्त आहे. बाजाराकरिता उत्पादनापेक्षा स्वस्त आयात पडून राहिले आहे. पण यामुळे आमचे छोटे, मध्यम व कुटीरोद्योग नाश पावित आहेत. लाखो लोक बेकार होत आहेत. यावर चिंतन आवश्यक आहे। ही एक दुष्ट क्लृप्ति आहे. आज स्वस्त दिसणारे सामान उद्या खूप महागात पडणार आहे. इंग्रजांनी पण याच पद्धतीने स्वस्त माल प्राप्त करवून आधी व्यापार व मग देशाची दुर्दशा केली. आर्थिक गुलामीचा दूसरा टप्पा राजकीय गुलामी आहे.

स्वस्त चीनी सामानाची आम्हांस सवय होत चालली आहे. चीनी उद्योगांनी आमच्या उद्योगांना गिळंकृत करण्यास सुरवात करुन दिली आहे. याच ठळक उदाहरण म्हणजे लुधियानाचा सायकल उद्योग. आमच्याच पैशाने चीनी संपन्न तर आम्ही गरीब होत आहोत. विश्वासघाती व अरेरावी करणारा चीन आमचा हितैषी कधीच होऊ शकत नाही. स्वस्त मिळत आहे म्हणून चीनी माल विकत घेऊन  आम्ही चीनला दृढ़ करुन स्वतःची फसवणूक करित आहोत. आज कंपन्या, उद्योग घांवा करित आहेत पण कोणीही लक्ष देत नाही.

चीन बरोबर आमचा निर्यात कमी व आयात जास्त आहे. परिणाम आमचा पैसा त्याच्या जवळ जात आहे जो आमच्याच विरोधात उपयोगाता आणला जात आहे. पाहाणीप्रमाणे वीजेचे सीएफएल चा मुख्य कच्चा माल फॉस्फोरसकरिता आम्ही चीनवर अवलंबून आहोत. नुकतेच चीन ने किमत वाढ़वून आम्हांस हादरवून सोडले. औषध उद्योग बल्कड्रगकरिता पूर्णपणे चीनवर आश्रित आहे. दुरसंचार क्षेत्रचा 50% आयातवर आश्रित आहे त्यातल्या 62% वर चीनचा अधिकार आहे. वीजप्रकल्पाचे 1/3 बॉयलर, टरबाईन चीनहून आलेले आहेत. देशभरात चालेल्या प्रकल्पांत चीन कमी भावात कंत्राट घेऊन हळू-हळू आपल्या हालचाली वाढ़वित आहे जे पुढ़े जाऊन आम्हांस घातक सिद्ध होईल. त्याची कमी दर्जाची मशिनरी, जुनी होत चाललेली टेक्नॉलॉजी स्वस्त मिळते म्हणून आम्ही घेत चालले आहोत. जे उद्या आम्हांस नक्कीच डोईजड होणार. चीन आमच्याकडून कच्च्या मालाच्या रुपात उदा. रबर घेतो, कापूस घेतो व नंतर निर्माण केलेल्या मालाच्या रुपात आम्हालाच निर्याताच्या रुपात पाठवितो. जे ईस्टइंडिया कंपनीने केले तेच तर चीन पण करुन राहिला आहे.

आता आम्हाला पुन्हा एकदा टिळकांच्या स्वदेशीचा अंगीकार व परदेशी (म्हणजे चीनी)चा बहिष्कार च्या सूत्राचे अवलंबन करावे लागेल. आम्ही चीनीमालाचा बहिष्कार करुन आपल्या राष्ट्रधर्माचे पालन करावयास हवे. भारतीय उत्पादनांची विश्वासर्हता संपूर्ण जगात चीनपेक्षा जास्त आहे. आमचे प्राधान्य स्वस्त नाही तर 'सुरक्षितता, सन्मान, स्वाभिमान" चे असले पाहिजे.

आज देखील प्रासंगिक असल्या मुळे या लेखाचा समारोप मी बंकिमचंद्र चटोपाध्याय व भोलाचंद्रांच्या या कथनांबरोबर करित आहे - ''जो विज्ञान स्वदेशी असता तर आमचा दास असता, तो परदेशी झाला की आमचा स्वामी बनुन बसतो, आम्ही लोक दिवसे-दिवस साधनहीन होत आहोत. अतिथिनिवासात राहणाऱ्या अतिथिप्रमाणे आम्हीं लोक स्वामीच्या आश्रमात पडलेले आहोत, ही भारतभूमी भारतीयांकरिता एक विराट अतिथिनिवास झाली आहे."" ''या आपण सगळे लोक हा संकल्प घेऊ या की परदेशी वस्तु विकत घेणार नाही। आम्हांस नेहमी हे स्मरण राहिले पाहिजे की भारताची उन्नती भारतीयांकडूनच शक्य आहे.""