Thursday, October 30, 2014

छोडें मोदी का अंधविरोध और अंधश्रद्धा भी

नरेंद्र मोदी इस समय भारतीय राजनीति का ऐसा चर्चित चेहरा हैं जिसका डंका ने केवल देश में अपितु विदेशों में भी बज रहा है।  जिन्होंने अपने तौर-तरीकों, सूझबूझ और कार्यपद्धति से स्थापित राजनीति की मान्यताओं को ही बदल दिया है। लोकसभा चुनाव की अभूतपूर्व विजय के बाद जब उन्होंने सत्ता संभाली तब कुछ समय तक वे और उनके मंत्रीमंडल के सदस्यों ने चुप्पी सी साध ली थी। तब उनका मजाक उडाया जाने लगा कि मनमोहन तो अकेले ही मौनी बाबा थे लेकिन अब तो मोदी से लेकर उनके सारे मंत्री भी मौनी बाबा बन गए हैं। और अब जब मोदी मुखर हो गए हैं तो आलोचना की जा रही है कि पहलेवाला प्रधानमंत्री तो बोलता ही नहीं था और यह प्रधानमंत्री है कि बोलता ही चला जा रहा है। एक चर्चा यह भी की जा रही है कि इस प्रधानमंत्री ने तो एक नया ही धंधा चालू कर दिया है पहले खुद विदेश जाना फिर विदेशी मेहमानों को देश में बुलाना और रोज भाषण ठोकते फिरना। मतलब यह कि मोदी कुछ भी करें या ना करें वे चर्चा में बने ही रहते हैं। वैसे यह भी एक बडी उपलब्धी ही है कि एक लंबे समय तक बिना कोई पत्रकार वार्ता किए ही वे हमेशा हॉट टॉपिक बने रहे हैं।

कुछ लोग उनके हर कार्य को ही शक की नजर से देखने के आदि हैं। वे कुछ भी करें वे आलोचना करने में ही लगे रहते हैं। तो, कुछ लोग इतना भी करने की जहमत उठाना नहीं चाहते। वे तो सिर्फ आलोचना करने में ही व्यस्त रहते हैं। कुछ लोग उन्हें मुस्लिम विरोधी बताने में ही अपनी सारी ऊर्जा खर्च करते रहते हैं इसके लिए उनके पास सबसे बडा आधार होता है गोधरा कांड का। अब उन्हें एक नया आधार और मिल गया है कश्मीर का कि वे वहां दीपावली पर ही क्यों गए? ईद पर क्यों नहीं? यह लोग इस बात को समझ ही नहीं रहे हैं कि इस समय कश्मीर के बाढ़ पीडितों को आवश्यकता है उसकी जो उनकी पीडा को समझें, उन्हें सांत्वना दे और यही तो प्रधानमंत्री मोदी ने किया है। ये शकी, रात-दिन आलोचना करने में लगे लोग यह समझ ही नहीं रहे हैं कि इन हरकतों से वे अपरोक्ष रुप से मोदी ही की सहायता कर रहे हैं, उन्हें लाभान्वित कर रहे हैं और स्वयं को हार के मार्ग पर ले जा रहे हैं।

यदि उन्हें मोदी से इतनी ही खुन्नस है तो उन्हें चाहिए कि वे निरी आलोचना करते बैठे रहने की बजाए मोदी के भाषणों-वक्तव्यों-कार्यों का तथ्यात्मक विश्लेषण करें। उसमें की कमजोरियों को उजागर करें। यदि उन्हें लगता है कि उनके भाषणों-वक्तव्यों में अतिरेक है, कोई असत्य है तो उन्हें जनता के सामने लाएं साथ ही योग्य विकल्प भी प्रस्तुत करें अन्यथा मोदी तो इसी प्रकार से बडी-बडी घोषणाएं, कार्ययोजनाएं बडे-बडे मेगा शो के माध्यम से करते ही रहेंगे और जनता में अपनी पैठ मजबूत करते ही रहेंगे और ये आलोचक अगली हार के लिए फिर से शापित रहेंगे।

इन उपर्युक्त के अलावा एक बहुत बडा वर्ग मोदी के अंधश्रद्धों का भी है जिनका एक सूत्री कार्यक्रम यही चलता रहता है कि मोदी के भाषणों की कैसेट इधर-उधर बजाते फिरना। इसके बाद जो समय बच जाता है उसका सदुपयोग ये लोग कांगे्रस की आलोचना में लगा देते हैं। उनकी आलोचना का रुख कुछ इस प्रकार का रहता है कि मानो कांग्रेस ने पूरे देश का सत्यानाश ही फेर दिया है और जो कुछ अच्छा दिख रहा है उसकी शुरुआत मानो मोदी के आने के बाद ही हुई है और जो कुछ भी कमीपेशी नजर आ रही है उसकी जिम्मेदार कांग्रेस ही है। इन दोनो ही पक्षों का हाल यह है कि ये दोनो ही आपको अपने पक्ष में ही देखना चाहते हैं, तटस्थता की कोई गुंजाईश ही नहीं छोडी जाती वर्ना .... यह सब देख सुनकर माथा पीट लेने का जी करता है। 

मेरा इन अंधश्रद्धों से कहना है कि अपनी सारी ऊर्जा उपर्युक्त कार्य में नष्ट करने की बजाए वे अपनी कुछ ऊर्जा मोदी के स्वच्छ भारत के अभियान में लगाएं। गांधीजी के तो कई अनुयायी आजीवन सार्वजनिक स्वच्छता के काम में जुडे रहे थे। मुझे तो अभी तक  केवल एक ही मोदी भक्त (जिनसे मैं परिचित भी हूं) नजर आया है जो टीव्ही पर आनेवाले विज्ञापन एकला चालो एकला चालो एकला चालो रे की तर्ज पर अपने घर के अंदर ही नहीं तो बाहर अपने घर के आसपास भी स्वच्छता करते नजर आता है। वह भी बिना किसी प्रचार या स्वार्थ के। 

वैसे भी इस बात से कोई भी इंकार नहीं कर रहा है कि मोदी ने देशवासियों के मन में आशा की किरण जगाई है, वे देश से निराशा का वातावरण दूर करने में भी कुछ हद तक सफल रहे हैं। परंतु, यह भी सच है कि कृषि क्षेत्र के हालात बदतर हैं, बाजारों में सन्नाटा छाया हुआ है, आर्थिक हालात अभी भी गंभीर बने हुए हैं के समाचार छप रहे हैं, आगे की राह कठिन है। बेहतर होगा कि शांत रहकर संतुलित प्रतिक्रियाएं जाहिर करें, मोदी के कार्यों का मूल्यांकन करने का अभी समय आया नहीं है, कुछ राह देखिए, जो कुछ वे कर रहे हैं उनका परिणाम तो आने दीजिए - जिसमें समय लगना स्वाभाविक है।  

Monday, October 27, 2014

आइएस द्वारा इराक में इस्लाम का इतिहास ही दोहराया जा रहा है

भारत, यूरोप से लेकर अमेरिका तक के युवा इनमें कई युवतियां भी शामिल हैं जिस रफ्तार से अल बगदादी और उसके आतंकी  संगठन आइएसआइएस की ओर आकर्षित हो रहे हैं उससे इस समय सारा विश्व आतंकित और भयभीत है। बगदादी के आइएस (इस्लामिक स्टेट) ने जिस बर्बरता से इराक के तिरकित शहर में 1700 लोगों को सामूहिक रुप से मौत के घाट उतार दिया उसके दिल दहला देनेवाले वीडियो इंटरनेट पर लोड किए गए हैं। इसके अलावा इस संगठन द्वारा ब्रिटिश नागरिक एलन हैनिंग, राहतकर्मी डेविड हेंस, अमेरिकी पत्रकार जिम फोली, अमेरिकी इजराईली पत्रकार स्टीवन स्कॉटलाफ के सिर कलम करने के भी वीडियो, चित्र प्रकाशित हो चूके हैं। जिन्हें सर कलम करते समय केशरिया (भगवा) कपडे पहनाए गए हैं। भले ही इस इस्लामी स्टेट के विरुद्ध सब लोग एकजुट हों इसका आवाहन किया जा रहा है, अमेरिका निर्णायक कारवाई की बात कर रहा हो परंतु, यह सब जो कुछ भी आइएस द्वारा किया जा रहा है इसके पूर्व भी अरब भूमि में दोहराया जा चूका है। इसका गवाह इस्लाम का इतिहास है जिसे सारी दुनिया शायद विस्मृत कर चूकी हो। परंतु भारत के लोगों को तो इसका ज्ञान भी होगा क्या इस संबंध में शंका ही है। अतः लोगों को इस इतिहास का ज्ञान हो इसके लिए वह इतिहास यहां लिखना पड रहा है।

हजरत मुहम्मद ने अपने अपने जीवन के मदीनाकाल खंड के दस वर्ष के दौरान कुल 82 लड़ाइयां लड़ीं, उन्हीं में से एक महत्वपूर्ण लड़ाई ''खंदक युद्ध'' के नाम से प्रसिद्ध है, जिसका 1400 वां (हिजरी) स्मृति दिन सन्‌ 1985 में धूमधाम से मनाया गया था। इस लड़ाई में मूर्तिपूजकों पर विजय संपादन के बाद ''जिब्रैल के जरिये अल्लाह का हुक्म पाकर पैगंबर मुहम्मद कुरैजा (मदीना का यहूदी कबीला) के किले के पास जा पहुंचे, जहां कबीले के सब लोगों ने पनाह ली थी। वे उनसे बोले 'ऐ बंदरों और सूअरों के भाईबंदों! हम आ गए हैं। अल्लाह ने तुमको जलील किया है और अपना कहर तुम पर नाजिल किया है।" रसूल ने पच्चीस रातों तक उनको घेरे रखा, जब तक कि वे टूट ना गए और अल्लाह ने उनके दिलों में दहशत पैदा न कर दी।" उन्होंने बिना शर्त समर्पण कर दिया और वे बंदी बना लिए गए। ('हदीस के माध्यम से इस्लाम का अध्ययन" पृ. 120) हदीसों और पैगंबर के प्रामाणिक जीवन चरित्रों में इन कैदियों के भाग्य का बखान उल्लासपूर्वक किया गया है। हम यहां विलियम म्यूर की किताब 'लाइफ ऑफ महोमेट" में जिल्द 3 पृ. 276-279 पर संक्षिप्त में की गई कहानी प्रस्तुत कर रहे हैं - 

'मर्दों और औरतों को रातभर अलग-अलग बाडों में बंद रखा गया... (उन्होंने) पूरी रात प्रार्थना करते हुए, अपने शास्त्रों के अंश दोहराते हुए और एकदूसरे को अविचलित रहने का प्रबोधन देते हुए गुजारी। उधर रातभर कब्रें या खाइयां ... बाजार में खोदी जाती रहीं ... सबेरे जब ये तैयार हो गईं तो पैगंबर ने जो स्वयं इस क्रूर घटनाक्रम की देखरेख कर रहे थे, हुक्म दिया कि बंदियों को पांच-पांच या छह छह की टोलियों में बारी बारी से लाया जाए। हर टोली को उस खाई के किनारे बिठा दिया गया जो उसकी कब्र के लिए नियत थी। वहां टोली में से हरेक का सिर काट डाला गया। एक टोली के बाद दूसरी इस तरह वे लोग लाए जाते रहे और उनकी निर्मम हत्या होती रही, जब तक वे सब खत्म ना कर डाले गए ...... 

'बदले की प्यास बूझा लेने के बाद और बाजार को आठ सौ लोगों के खून से रंग लेने के बाद और उनके अवशेषों पर तेजी से मिट्टी डाल देने का हुक्म दे देने के बाद, लूट के माल को चार श्रेणियों में बांटा गया - जमीन, बरतन-भाण्डे ढ़ोर-डांगर और गुलाम।  पैगंबर ने हर श्रेणी में से अपना पांचवा हिस्सा ले लिया(छोटे बच्चों को छोडकर जिनको उनकी माताओं के साथ गिना गया) एक हजार कैदी थे। इनमें से अपने हिस्से में आए कैदियों में से पैगंबर ने कुछ गुलाम औरतों और नौकरों को उपहार के रुप में अपने दोस्तों को दे दिया और बाकी औरतों और बच्चों को नजद के बद्द कबीलों में बेचने के लिए भेज दिया। उनके बदले में घोडे और हथियार ले लिए। 

इस पूरे किस्से को पैगंबर मुहम्मद के जीवनीकारों इब्न इसहाक, तबरी और मीरखोंद ने वर्णित किया है। तबरी पहले के एक जीवनीकार वाकिदी के हवाले से बतलाते हैं कि पैगंबर ने खुद 'गहरी खाइयां खुदवाई, खुद वहां बैठे रहे और उनकी मौजूदगी में अली और जुबैर ने कत्ल किए।" एक अन्य जीवनीकार इब्न हिशाम कुछ ऐसी सामग्री प्रस्तुत करते हैं जो दूसरे विवरणों में छूट गई दिखती हैं। उनके किस्सों में से एक से यह पता चलता है कि मुहम्मद ने स्थानीय संघर्षों का अपने स्वार्थ के लिए कैसे इस्तेमाल किया। मदिना के दो सर्वाधिक महत्वपूर्ण और गैर-यहूदी कबीले थे बनू औस और बनू खजरज। बनू कुरैजा के यहूदी बनू औस के साथ संधिबद्ध थे और इसलिए बनू खजरज उन्हें पसंद नहीं करते थे। इसलिए पैगंबर ने जब यहूदियों के सिर काटने का हुक्म दिया तो 'खजरज बडे शौक से सिर काटने लगे। रसूल ने देखा कि खजरज लोगों के चेहरों पर खुशी थे किंतु औस लोगों के चेहरों पर ऐसा कोई भाव नहीं था। रसूल को शक हुआ कि औस और बनू कुरैजा में पहले मैत्री थी इसीलिए औस के लोग हत्या करते हुए हिचकिचा रहे थे। जब सिर्फ बारह कुरैज बच गए तो पैगंबर ने उन सबको औस लोगों को सौंप दिया। हर दो औस के हिस्से में एक यहूदी आया। पैगंबर ने कहा ः तुम में से अमुक उसे मारेगा और अमुक उसे खत्म करेगा।""

इस पूरे घटनाक्रम पर भाष्य करते हुए 'हदीस के माध्यम से इस्लाम का अध्ययन" के लेखक रामस्वरुप कहते हैं - जो लोग पैगंबर का अनुसरण करते हैं, उन्हें नई चेतना और नई निष्ठा के साथ नया आदमी बनना होगा। उन्हें इस्लाम की प्रखर पाठशाला में अपने मानस को कठोर करना पडेगा, इस्लाम की रक्तरंजित रस्मों में हिस्सा लेना होगा। उन्हें ऐसे कामों में सहभागी बनना होगा, जो उसी मात्रा में पूरे माने जाएंगे जिस मात्रा में कि उनकी चरित्र हानि हो सकेगी। कोई व्यक्ति जिसमें अपनी कोई निष्ठा बची हो, निर्भर करने योग्य नहीं रहता। किसी भी स्थिति में इस्लाम के अनुयायियों को यह मौका नहीं मिलना चाहिए कि वे अपनेआपको श्रेष्ठ समझें और किसी काम से सिर्फ इसलिए परहेज करें कि उनकी नजर में वह काम अन्यायपूर्ण अथवा क्रूर है। उन्हें जो भूमिका निभानी है इसीके हिसाब से अपनी चेतना को संवारना चाहिए और जो नए काम उन्हें सौंपे जाएं उनको करने लायक बनना चाहिए।

कुरान की सूर अल अहजाब की आयतें 26 और 27 में लड़ाई और न्याय का वर्णन इस प्रकार से आया हुआ है: ""और अहले किताब (यहूदी) में से जिन लोगों ने उन (हमलावर) गिरोहों की सहायता की थी अल्लाह ने उनके दिलों में ऐसा रोब डाल दिया कि एक गिरोह (पुरूषों) को तुम कत्ल करते रहे और दूसरे गिरोह (स्त्रियों व बच्चों) को तुमने कैद कर लिया और (अल्लाह ने) तुमकों उनकी जमीन, उनके घरों और उनके माल का वारिस बना दिया, और ऐसी(उपजाऊ) जमीन का भी जिस पर अभी तुमने कदम नहीं रखे। अल्लाह हर चीज पर सामर्थ्यवान है।"" अर्थात्‌ यह सब कुछ अल्लाह की मदद से और उसके मार्गदर्शनानुसार तथा इच्छानुसार ही हुआ है।

इस दंड के संबंध में न्यायाधीश सैयद अमीर अली ने 'The Spirit of Islam' में लिखा है : ""थोड़ा सोचिए अगर अरबों की तलवार ने अपना काम अधिक दयालुता से किया होता तो हमारा (मुस्लिमों का) और आकाश तले के अन्य प्रत्येक देश का भविष्य आज क्या होता ? अरबों की तलवार ने, उनके रक्तांकित कृत्यों से संसार के हर कोने के पृथ्वी पर के सभी देशों के लिए दया लाने का काम (Work of Mercy) किया है।'' (पृ. 81,82) उनका अंतिम निष्कर्ष यह है कि: ''किसी भी भूमिका में से हो पूर्वाग्रह रहित मानस को ऐसा ही लगेगा कि, बनी कुरैजा को कत्ल किया था इसलिए पै. मुहम्मद को किसी भी तरह से दोषी ठहराना सम्मत नहीं।'' (पृ.82)

एक बात बची रहती है वह यह कि जिन पत्रकारों को बगदादी की फौज ने मौत के घाट उतारा उन्हें केशरिया कपडे क्यों पहनाए गए? तो, उसका आधार हमें हदीसों (पैगंबर की उक्तियां और कृतियां) में मिलता है। वह इस प्रकार से है ः पैगंबर ने 'भगवा रंग के कपडे पहनने के लिए अनुयायियों को प्रतिबंधित किया था। इस संबंध में उनका कहना था ः 'ये कपडे (हमेशा) श्रद्धाहीन (गैरमुस्लिम) उपयोग में लाते हैं, (इसलिए) तुम उन्हें उपयोग में मत लाओ।" (मुस्लिम 5173) एक व्यक्ति केशर में रंगे कपडे पहने हुए था। यह देखकर कि पैगंबर ने वे कपडे पसंद नहीं किए उसने उनको धो डालने का वायदा किया। लेकिन पैगंबर बोले ''इनको जला दो।"" (मु. 5175) न केवल कपडे बल्कि केशों को भी केशर द्वारा नहीं रंगना चाहिए। (5241) 

स्पष्ट है कि बगदादी अपने इस्लामी स्टेट में जो कुछ भी कर रहा है उसकी प्रेरणा वह इस्लाम के 1400 से अधिक वर्षपूर्व के  इतिहास से ग्रहण कर रहा है। वह भी यह बिना सोचे कि अब वो जमाना बीत चूका है। आजके इस आधुनिक युग में ऐसी बातों के लिए कोई स्थान ही नहीं है। लेकिन वह तो उसी इतिहास, उन्हीं बाबाआदम के जमाने की बातों को सर्वकालिक सत्य मानकर बतलाकर युवाओं को बरगला रहा है और उसके भडकाऊ प्रचार के चक्कर में पडकर कई मुस्लिम युवा अपना जीवन बर्बाद करने पर उतारु हैं और अपने निर्दोष साधारण जीवन जीनेवाले परिवारजनों को कष्ट और असहनीय पीडा भोगने के लिए पीछे छोड बगदादी की सेना में भर्ती होने जा रहे हैं। यह निश्चय ही बहुत बडी चिंता का विषय है।

Tuesday, October 21, 2014

चरमराती डाक-व्यवस्था की सुध कौन लेगा !

ब्रिटिश राज की भारत को तीन अच्छी देन हैं ः भारतीय रेल, भारतीय सेना और भारतीय डाक। भारतीय डाक व्यवस्था दुनिया की सबसे उन्नत व्यवस्थाओं में से एक है, जो एक लंबा सफर तय कर चूकी है। आज की इस भागमभाग भरी, गलाकाट प्रतिस्पर्धा के दौर में भी उसने अपना महत्व बनाए रखा है इसकी पुष्टि बढ़ती स्पीड-पोस्ट सेवा के ग्राहकों की सूची से मिलती है। यह विशेष स्पीड-पोस्ट सेवा कुछ अधिक मूल्य लेकर उच्च सेवा, तीव्र गति से देने के उद्देश्य से शुरु की गई थी। इस सेवा के बढ़ते ग्राहकों की संख्या डाक विभाग की विश्वसनीयता और बेहतरी को ही दर्शाती है। वैसे उसमें भी कुछ त्रुटियां हैं जैसेकि संवादहीनता एवं समन्वय की कमी जिन्हें दूर किए जाने की तत्काल आवश्यकता है। 

परंतु, जब साधारण डाक वितरण की ओर दृष्टि डालते हैं तो बिल्कूल विपरीतता ही दृष्टिगोचर होती है। डाक देर से मिलने की शिकायत करना तो लोग भूल ही गए हैं। क्योंकि, अब डाक मिल जाना ही बहुत बडी बात हो गई है। पहले मुहल्ले या कालोनी में डाकिये (पोस्टमेन) का दिख पडना आम बात थी, परंतु अब उसके दर्शन ही दुर्लभ हो गए हैं। जबकि पहले दिन में दो बार डाक बांटी जाती थी और तीसरी डाक के रुप में रजिस्ट्री, मनिऑर्डर आदि तो, चौथी डाक के रुप में कभी-कभी आनेवाले टेलिग्राम जो अब बंद हो गए हैं; होती थी। इस समय डाक वितरण की जो बदहाल स्थिति है उसके पीछे सबसे बडा कारण एक लंबे समय से डाकियों की भर्ती न होना भी है। जबकि समय के साथ कई डाकिये सेवानिवृत्त होते चले गए, जनसंख्या वृद्धि और नगरों के फैलाव के कारण ग्राहक एवं मकानों की संख्या तो बढ़ गई लेकिन डाकियों की संख्या बढ़ने के स्थान पर कम हो गई और कार्यक्षेत्र एवं कार्यभार अवश्य बढ़ गया है जिसकी भरपाई आउटसाइडर (ओएस) से काम कर करवाई जा रही है, इनकी अपनी अलग ही पीडा है शोषण की। दस पंद्रह वर्षों तक काम करने के बाद भी उनका नियमितीकरण नहीं हुआ है। स्टाफ की इस कमी के कारण डाक विभाग का काम बुरी तरह प्रभावित हो रहा है।

कुछ वर्षो पूर्व तक लगभग हर चौराहे या महत्वपूर्ण स्थानों पर पोस्ट ऑफिस का लाल डिब्बा हुआ करता था। कई स्थानों पर लाल डिब्बे के अलावा लोकल डाक के लिए हरा डिब्बा तो, सफेद डिब्बा राजधानी या महत्वपूर्ण शहरों के लिए हुआ करता था। जिनसे दिन में कितनी बार कितने-कितने बजे डाक निकाली जाएगी लिखा रहता था। इन डिब्बों से डाक निकालकर छंटाई कर सीधे गंतव्य की ओर रवाना की जाती थी। लेकिन धीरे-धीरे ये डिब्बे गायब होते चले गए और अब तो लाल डिब्बे ही बडी मुश्किल से नजर आते हैं जिसमें सारी डाक पहले एकत्रित की जाती है फिर छंटाई कर उसको गंतव्य स्थान की ओर जिलों के माध्यम से रवाना किया जाता है। उदाहरण के लिए पहले खरगोन जिले के गोगांवा डाक पहुंचाना हो तो सीधे गोगांवा ही भेज दी जाती थी लेकिन अब बदली हुई व्यवस्था के अंतर्गत डाक पहले जिला स्थान यानी खरगोन जाएगी फिर गोगांवा इसमें समय अधिक लगता है और डाक देरी से पहुंचती है। यह सब स्टाफ की कमी की वजह से हो रहा है और डाक वितरण की व्यवस्था गडबड हो रही है। 
  
एक जमाना था जब शहर के पोस्टमास्टर जनरल का सम्मान कलेक्टर से अधिक हुआ करता था लोग उसे अतिथि के रुप में आमंत्रित किया करते थे। समाचार पत्रों में समाचार छपा करते थे कि किस तरह बिना ठीक पते या आधे-अधूरे पते के, गलत पता लिखा होने के बावजूद पत्र गंतव्य तक सही सलामत पहुंचा। डाकिये से लोग आत्मीयता रखते थे। यह सारा सम्मान, आत्मीयता का कारण था डाक विभाग की उत्कृष्ट सेवा। परंतु, कुछ भ्रष्ट एवं कामचोर कर्मचारियों एवं डाकियों के कारण इस सम्मान-आत्मीयता एवं विश्वसनीयता में कमी अवश्य आई है, परंतु डाक विभाग का महत्व आज भी बरकरार है इससे कोई भी इंकार नहीं कर सकता।

स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात जब रफी अहमद किदवई संचार मंत्री बने तब उन्होंने डाक तंत्र को मजबूत बनाने के प्रयत्न किए थे। यह समर्थन आगे भी जारी रहा। परंतु, धीरे-धीरे ढ़र्रा बिगडने लगा। यूपीए सरकार के समय जब ज्योतिरादित्य सिंधिया संचार मंत्री थे तब उनके कार्यकाल में अवश्य कुछ सुधार नजर आने लगा था। सिंधिया ने कई ई.डी. या ओएस यानी आउटसाइडर को संभागों, प्रदेशों एवं ग्रामीण क्षेत्रों में जूते, चप्पल, झोलों का वितरण समय पर किया था, डाकियों को तीन साल में वर्दी विभाग द्वारा दी गई। डाक विभाग के आधुनिकीकरण के तहत कमप्यूटराजेशन आरंभ किया, छोटे-छोटे पोस्ट-ऑफिसों में तक कर्मचारियों को ट्रेनिंग दी गई। पूरे विभाग में एक उत्साह का वातावरण बनाने में वे सफल रहे उसके फलस्वरुप कार्यपद्धति में सुधार आना प्रारंभ हुआ। परंतु, उनके बाद फिर से डाक विभाग की गाडी पुराने बदहाल ढ़र्रे पर लौट आई। अब हालात यह हैं कि पोस्टमेन के पास वर्दी ही नहीं है तो वाशिंग अलाउंस मिलने का सवाल ही नहीं उठता। उसके पास उसका पहचान पत्र तक नहीं, नाम पट्टिका नहीं, मोनो जो उसके कंधों की शोभा बढ़ाता था वह भी नहीं। अब उसमें और किसी अनजान से कोरियर कर्मचारी में कोई फर्क नहीं बच रहता।

राजे रजवाडों की सरकारों के समय में संदेशों का आदान-प्रदान हरकारों के द्वारा होता था। वर्तमान समय में पोस्टमेन द्वारा होता है। कुछ वर्ष पूर्व पोस्टकार्ड की लागत बहुत कम थी मात्र पंद्रह पैसे जो अब पचास पैसे है। वर्तमान में अंतरदेशीय पत्र दो रुपये पचास पैसे और लिफाफा पांच रुपये का है। जो महंगाई और लागत को देखते हुए जनता के लिए बहुत ही सस्ता और विभाग के लिए महंगा सौदा। सरकार को चाहिए कि आधुनिक टेक्नालॉजी का उपयोग कर अपनी सेवाओं की उत्कृष्टता-गुणवत्ता को बढ़ाए; कार्यपद्धति को अधिक सुगम और कार्यकुशलता बढ़ाए। ईमानदार, कार्यकुशल एवं दक्ष पोस्टमेन, कर्मचारी, अधिकारियों को पुरस्कृत करे और मक्कार, कामचोर बेईमानों को डाक विभाग से निकाल बाहर करे। डाक सामग्री की कीमतें बढ़ाने के साथ ही साथ उन्हें पर्याप्त मात्रा में पोस्ट आफिसों पर उपलब्ध भी कराए। जब सभी चीजों और सेवाओं की कीमतें सभी क्षेत्रों में बढ़ाई जा रही हैं चाहे वे बैंकिंग सेवाएं हो, इंश्योरंस हो या रेल सेवा तब पोस्ट आफिस द्वारा घाटा खाकर सेवा देने में कोई तुक नजर नहीं आती बनिस्बत इसके की सेवाओं को ही बंद कर दे। जैसाकि सुनने में आ रहा है कि पोस्टकार्ड का प्रकाशन जो कि नासिक से होता है विभाग बंद करने जा रहा है। इसके लिए तर्क दिया जा रहा है कि लागत बहुत अधिक है और आजकल वाट्‌स एप, मोबाईल, फेसबुक के जमाने में लोग पोस्टकार्ड को उपयोग में ही नहीं लाते और जो स्टॉक है वही अनबिका पडा है। कुछ हद तक तो यह ठीक है परंतु एक बहुउपयोगी सेवा को इस तरह के तर्क देकर बंद कर देना कुछ गले नहीं उतरता। 

आज भी शहरों में ही एक बहुत बडा वर्ग है जो इन साधनों का ऐसा उपयोग धडल्ले से नहीं करता जैसाकि बतलाया जा रहा है। सभी जगह इंटरनेट सुविधाएं नहीं हैं। कई लोग तो जिस एसेमेस की दुहाई दी जा रही है को पढ़ना तो दूर की बात रही आते से ही डिलीट कर देते हैं। आज भी भारत का ग्रामीण भाग 70 प्रतिशत है जो 2036 तक 60 प्रतिशत रहने की संभावना है। 80 प्रतिशत पोस्ट आफिस भी तो ग्रामीण क्षेत्र में ही हैं। कुछ इसी प्रकार के तर्क मोबाईल के बढ़ते प्रयोग को देखकर लैंडलाइन के बारे में भी व्यक्त किए गए थे। परंतु, आज भी लैंडलाइन का महत्व बरकरार है उपयोग करनेवाले आज भी लैंडलाइन का ही उपयोग कर रहे हैं। पत्र पढ़ने से आत्मीयता का भाव जगता है। साने गुरुजी का कहना था 'पत्र आधी भेंट होती है" इसलिए भेंट भले ही ना हो परंतु, पत्र भेजना चाहिए। आदतें तो बनाने से बनती हैं। 

पोस्ट कार्ड के माध्यम से कई समाज जागरण के और समाजोपयोगी अभियान भी तो संचालित किए जा रहे हैं। उदाहरणार्थ महाराष्ट्र के सातारा के वाई के प्रदीप लोखंडे ने सन्‌ 2000 में पुणे में 'रुरल रिलेशन्स" नामकी संस्था ग्रामीण क्षेत्र की भावी पीढ़ि को शैक्षणिक दृष्टि से दृढ़ करने और ग्रामीण क्षेत्र के विकास के लिए स्थापित की है। इसके द्वारा 'ग्यान की" यह ग्रंथालय उपक्रम प्रारंभ किया गया है जिसके तहत अभी तक 1255 ग्रंथालय दान किए गए हैं। इस उपक्रम द्वारा प्रभावित हुए विद्यार्थियों ने प्रदीप लोखंडे को 94000 पत्र लिखकर अपना अभिप्राय सूचित किया है। हर रोज उन्हें 200 से 400 पत्र प्राप्त होते हैं। एक और उदाहरण लें ः 'गोरखपुर मांगे एम्स" अभियान के तहत 139139 पोस्टकार्ड भेजे गए थे। इस प्रकार से पोस्ट कार्ड द्वारा अभिव्यक्ति व जनजागरण एवं रचनात्मकता के और भी कई अभियान पूरे देश में संचालित किए जा रहे हैं। 

इसलिए इस बहुउपयोगी पोस्टकार्ड को बंद करने की बजाए इसकी कीमतें बढ़ाई जाए। जब रिजर्व्ह बैंक ने ही पचास और पच्चीस पैसे के सिक्कों को बंद कर दिया है तो पोस्ट कार्ड की कीमत पचास पैसे और अंतरदेशीय की कीमत ढ़ाई रुपये रखने की तुक ही समझ से परे है। आखिर डाक विभाग का एक बहुत बडा योगदान देश में साक्षरता बढ़ाने और आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक विकास में रहा है यह कैसे भुलाया जा सकता है। इसी पोस्ट कार्ड के माध्यम से सरकार ने कई नारों द्वारा जनजागरण अभियान चलाए हैं। घाटा पूर्ति के लिए पोस्ट कार्ड पर विज्ञापन भी तो छापे जा सकते हैं। चाहें तो क्या नहीं हो सकता, कहते हैं इंदिरा गांधी ने 1980 में ही पोस्ट कार्ड बंद करने का निर्णय लिया था। उनका कहना था कि वसूली गई रकम की तुलना में छपाई और वितरण सेवा नहीं पुसाती। उस समय के पोस्टमास्टर जनरल जे. एल. पठान ने संतोषी माता को 16 पत्र भेजने के शगूफे को उपयोग में ला डाक विभाग को लाभ में लाया था। आज भी यदि कोई  अभियान जिससे लोग पोस्ट कार्ड लिखने की ओर प्रेरित हों, उसका उपयोग फिर से बढ़े, प्रारंभ करें का चलाया जाए तो सफलता क्यों नहीं हासिल की जा सकती। 

उदाहरण के लिए त्यौहारों के मौसम में यदि जनता कोे उच्च गुणवत्तावाली सेवाएं डाक विभाग प्रेम-स्नेह पत्र समय पर डिलीवर करे तो डाक विभाग घाटे से तो उभरेगा ही साथ ही लोग उसकी ओर फिर से आकर्षित भी होंगे। दशहरा-दीवाली जैसे त्यौहारों पर एक साधारण सा दस रुपये का ग्रीटिंग भेजने के लिए पांच रुपये का टिकिट लगाए जाने के स्थान पर यदि तीन रुपये का शुल्क लिया जाए और समय पर डिलीवर किया जाए तो जनता को पोस्टमेन त्यौहारों पर दिखेगा और लोगों का ध्यान भी उसकी समय पर दी गई सेवाओं की ओर आकर्षित होकर वह फिर से पोस्ट आफिस का रुख करेगा जो कि अब कम हो गया है। समय पर डाक पहुंचाने के लिए इंडियन एयरलाइंस के विमानों का भी प्रयोग बढ़ाया जाए जिससे कि डाक समय पर पहुंच सके आखिर वह एयर लाइंस डाक विभाग को छूट भी तो देती है।

डाक विभाग एवं उसकी सेवाएं फिर से एक बार बहुत लोकप्रिय हों, वह बदहाली से उभरे इसके लिए एक अभियान सा चलाया जाना चाहिए जिसके द्वारा लोगों में फिर से पोस्टमेन और डाक व्यवस्था में पुराना विश्वास, आत्मीयता बहाल हो, उनको भारतीय डाक विभाग का उज्जवल इतिहास बताया जाए। लोग जानते ही नहीं हैं कि भारतीय डाक विभाग से कई बडे नामचीन लोग जुडे रहे हैं। जैसेकि, नोबल पुरस्कार प्राप्त वैज्ञानिक सी. व्ही. रमन, फिल्म अभिनेता देवानंद, साहित्यकार मुंशी प्रेमचंद, महाश्वेता देवी, राजिंदर बेदी आदि। भारत में वायसराय रहे लॉर्ड रीडिंग भी डाक विभाग से जुडे रहे हैं, अमेरिका के राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन पोस्टमेन थे। महात्मा गांधी पोस्ट कार्ड के अच्छे प्रशंसक एवं उपयोगकर्ता थे। लोगों ने पोस्टकार्ड पर क्या-क्या न उकेरा है। उसका उपयोग किस प्रकार से बडे पैमाने पर जन जागरण एवं समाज के उपयोग के लिए किया है। डाक विभाग ने इस लंबे सफर में कितने कष्ट सहकर, समय आने पर जान की बाजी लगाकर भी लोगों को सेवाएं दी हैं। इन सबसे बढ़कर बात यह है कि भारत सरकार का एक कर्मचारी अपने कार्यक्षेत्र में आनेवाले हर घर तक पहुंच रखता है यह बहुत महत्वपूर्ण बात है।

Sunday, October 19, 2014

उपेक्षित है लक्ष्मी का वाहन उल्लू

जिसके नाम का उच्चारण ही भयकारक है ऐसा पक्षी है उल्लू। उल्लू से अनेक अंधविश्वास जुडे हुए हैं। जैसेकि यदि उसे ढ़ेला मारा तो  जिसप्रकार से पानी में ढ़ेला धीरे-धीरे घुल जाता है उसी प्रकार से मारनेवाला छीज-छीजकर मर जाता है। उल्लू को भूत-भविष्य-वर्तमान सबका पता रहता है मानो वह कोई त्रिकालज्ञ हो। उल्लू दुष्ट शक्तियों का वाहक होता है, आदि। ऐसे अशुभ, विनाशसूचक जिसे मूर्ख माना जाता है जिससे हम डरते हैं, घृणा करते हैं को देवी लक्ष्मी का वाहन होने का सौभाग्य कैसे प्राप्त हुआ यह हमें विचार में डाल देता है। 

इस संबंध में लोगों की धारणाएं हैं कि लक्ष्मी और उल्लू में एक दो समानताएं हैं। पहली, दीपावली में अमावस्या की रात्री में ही लक्ष्मी की पूजा की जाती है और ऐसा माना जाता है कि इस रात लक्ष्मी घूमती रहती है और ऐसी अंधियारी रात्री में उन्हें उल्लू जैसा निशाचर ही तो वाहन के रुप में मिल सकता है। दूसरा, उल्लू अंधकार में रहता है और लक्ष्मीजी भी अंधकार के मार्ग से ही आती हैं भले ही वह ज्योतिरुपेण क्यों ना हो, अनुचित आय भी तो अंधकार में ही प्राप्त होती है। ऐसी भी धारणा है कि, उल्लू निशाचर होने के साथ ही हिंसक होता है, प्रकाश से डरता है ऐसे वाहन पर बैठकर आनेवाली लक्ष्मी अपकारक ही होगी, लक्ष्मी नहीं वह अपलक्ष्मी होगी। लक्ष्मी तो विष्णूप्रिया है यदि उसे आमंत्रित ही करना है तो विष्णु के साथ ही आमंत्रित करना चाहिए जो विष्णु के साथ गरुड पर बैठकर ही आए। 

उल्लू का वेदकालीन नाम 'उलूक" है और उलूक ऋषी तो मृत्युज्ञानी। इस दृष्टि से तो उल्लू भी ऋषितुल्य हुआ। कुछ लोग यह मानते हैं कि उल्लू की विष्ठा का तिलक कपाल पर लगाएं तो भूत-भविष्य का ज्ञान हो जाता है। ऐसा उल्लू जो लक्ष्मी का वाहन है और लक्ष्मी यानी समृद्धि-संपन्नता। फिर उल्लू अशुभ कैसे? 'उलूक" तो नाम है वैशेषिक दर्शन के आद्यप्रवर्तक 'कणाद" का जिनके उदर निर्वाह का साधन था खेत में पडे हुए अन्न के कण एकत्रित कर उससे अपनी क्षुधा शांत करना। उनकी इस उच्छवृत्ति के कारण लोग उन्हें कणभक्ष या कणभुज कहते थे। उनकी दिनचर्या थी दिनभर ग्रंथरचना और रात्रि में आहार प्राप्ति हेतु विचरण। इसलिए लोग उन्हें 'उलूक" कहने लगे। कण भर अन्न पर जीकर ज्ञानसाधना करनेवाला 'कणाद" यानी 'उलूक"। उलूक गणों का कोहबर भी है और 'उलूकी" नाम है मातृदेवता का। संस्कृत में उलूक को कौशिक भी कहते हैं।

महाभारत से ज्ञात होता है कि शकूनी मामा उलूक जाति का था उसके जन्म के समय उल्लू चिल्लाया था। उसके रथ का ध्वजचिन्ह उल्लू ही था। ऐसा अपशकुनी, अशुभ, तिरस्करणीय शकूनी का चरित्र हमारे सामने आता है महाभारत में और सारी उजाड कथा हमारे ध्यान में आ जाती है। शकूनी और उल्लू का संबंध सामने आकर वीराने खंडहरों में सुनसुनान स्थानों पर मिलनेवाला, विचरनेवाला उल्लू का संबंध सर्वनाश से जुडना समझ में आ जाता है। श्रीलंका में भी इसे अशुभ पक्षी मानते हैं। रोम में तो कहावत है कि यदि उल्लू ने रोम में प्रवेश नही किया होता तो रोम का विनाश नहीं हुआ होता। परंतु, यूनानी इसे शास्त्र और कला का निदर्शक प्राणी मानते हैं। प्रसिद्ध पक्षीविद्‌ सालेम अली के अनुसार उल्लू एक बुद्धिमान प्राणि है। जहां तक अशुभ का प्रश्न है, उल्लू का किसी भी प्रकार की विनाशलीला से संबंध नहीं है। वास्तव में कतई ऐसा नहीं है कि किसी अट्टालिका पर उल्लू बैठे और उसके बोलना प्रारंभ करते ही वह खंडहर में तब्दील हो जाए।

फिर भी आश्चर्य तो बच ही रहता है कि आखिर देवताओं की कल्पना करनेवालों ने उल्लू को लक्ष्मी का वाहन क्यों बनाया? भाषा के प्रयोग में लक्ष्मी को सौंदर्य और समृद्धि के प्रतीक के रुप में प्रयोग में लाया जाता है। चित्रों में भी लक्ष्मी अत्यंत सुंदर रुप में दर्शाई जाती है। सौंदर्य का प्रतीक कमल उसका आसन है। फिर सौंदर्य का प्रतीक लक्ष्मी का वाहन कुरुप और अशुभ उल्लू ही क्यों? यह असंगति इतनी अग्राह्य प्रतीत होती है कि हंसवाहिनी सरस्वती की भांति उल्लूवाहिनी लक्ष्मी के चित्र सहसा दिख ही नहीं पडते। कमलासन लक्ष्मी के चित्र ही मिलते हैं और दीपावली पर इन्हीं चित्रों की पूजा भी की जाती है।

भारतीय संस्कृति की कल्पना में प्रायः सभी देवताओं के वाहन हैं। वाहन का अर्थ 'यान" है, जो किसीको वहन करता है अर्थात्‌ ले जाता है। प्राचीनकाल में यानों को पशु ही चलाते थे। अतः पशु ही मुख्य रुप से वाहन थे। पशुओं की पीठ पर बैठकर भी यात्रा की जाती थी। अतः पशुओं को ही सामान्यतया वाहन माना गया साथ ही कुछ पक्षियों को भी देवताओं के वाहन बना दिया गया। भारतीय संस्कृति कोई साधारण संस्कृति तो है नहीं कि केवल प्राचीन वाहन प्रथा के आधार पर देवताओं के वाहनों की कल्पना कर ली। इसके पीछे कुछ दार्शनिक रहस्य भी है। इसीलिए कुछ पक्षियों को भी वाहन के रुप में सम्मिलित कर लिया गया वरना हमारे देश में तो इतना बडा कोई पक्षी होता ही नहीं है कि उस पर कोई मनुष्य सवार हो सके। वाहन गति का सूचक है। सजीव वाहन का ग्रहण  सांस्कृतिक धारणाओं की सजीवता और गतिशीलता का द्योतक है। जैसेकि सरस्वती विद्या की देवी है तो, लक्ष्मी शील, सौंदर्य एवं समृद्धि की अधिष्ठात्री है। संकेत यह है कि सजीव भाव और गतिशील साधना के द्वारा ही देवताओं के प्रतीकों से लक्षित सांस्कृतिक तत्त्वों को जीवन में प्रतिष्ठित किया जा सकता है। 

पशु भूमि पर चलते हैं और पक्षी हवा में उडते हैं। भूमि यथार्थ की और हवा कल्पना की सूचक है। शिव के समान जिन देवताओं की धारणा में यथार्थ की प्रधानता है उनके वाहन पशु हैं। यथार्थ की गति भी पशुओं की भांति मंद होती है। यहां सिंह अपवाद है। कल्पना वायु के समान सूक्ष्म और पक्षियों के समान उसकी गति तीव्र होती है। विद्या, कला, सौंदर्य आदि में कल्पना ही प्रधान होती है। अतः सरस्वती, लक्ष्मी आदि के वाहन पक्षी हैं। ध्यान योग्य बात यह है कि वाहनों के चयन में सौंदर्य की अपेक्षा उपयोगिता पर बल दिया गया है। उपयुक्तता के आधार पर ही उल्लू को लक्ष्मी के वाहन के रुप में मान्यता दी गई है।

सौंदर्य और कल्याण तो आंतरिक भाव हैं। जो बाहर से कुरुप और अशुभ दिखते हैं उनके अंदर भी सुंदरता और मंगल भाव हो सकते हैं। वैसे भी उल्लू तो मात्र वाहन है लक्ष्मी तो कमल पर ही विराजती हैं। धन तो अस्थायी है आज है कल नहीं। इसी भांति लक्ष्मी भी चंचल, अस्थिर है। संचय करने पर भले ही वह स्थिर दिखे परंतु, उत्तराधिकारियों के हाथों में आते ही वह अपना चंचल स्वरुप दिखला ही देती है। किसी को उल्लू कहना यानी वह मूर्ख है ऐसा समझा जाता है। परंतु, वास्तव में उल्लू एक बुद्धिमान और उद्यमी पक्षी है। जब सारी दुनिया सोती है तब रात्री में जागनेवाला मानो यह कोई संयमी मुनी। अंधेरे की राख मला हुआ कोई निस्संग योगी। उसकी दृष्टि तमोभेदिनी।

इसी प्रकार से लक्ष्मी के साधक व्यवसायी उद्यमी उद्यम के लिए उस समय सजग होते हैं जब दूसरे लोग सोते रहते हैं या जिस उद्यम के बारे में वे सोच रहे होते हैं उसके प्रति दूसरे अनभिज्ञ रहते हैं। रात्रि के अंधकार में जब लोग बाहर निकलना भी पसंद नहीं करते ना ही उन्हें कहीं समृद्धि की संभावना नजर आती है। ऐसे में तीव्र दृष्टि से वे साधक समृद्धि का मार्ग ढूंढ़ ही लेते हैं। यहां अंधकार भविष्य का सूचक है और चूंकि भविष्य अदृष्ट होने से अंधकारमय ही होता है। भविष्य के इस अंधकार में जिस के संबंध में लोग सजग नहीं होते ये लक्ष्मी के साधक समृद्धि के मार्ग को खोज लेते हैं।

जिन खंडहरों में या वीरानों में उल्लू घूमता है वे दूसरों की असफल या खंडित योजनाओं के प्रतीक हैं जो अपने वैभव को बनाए ना रख सके परंतु, ये उद्योगीजन इन्हीं खंडित योजनाओं को साकार कर यश प्राप्त करते हैं, लक्ष्मीपति बनते हैं। वीरान स्थान प्रतीक है अछूत क्षेत्रों का जिनमें कम ही लोग जाते हैं या जाने से डरते हैं। रात के अंधेरे में उल्लू इन्हीं वीरानों को आबाद करते हैं। इसी प्रकार उद्यमीजन इन्हीं अछूते क्षेत्रों में अपना भविष्य आजमाते है, सफलता एवं समृद्धि को प्राप्त करते हैं। उल्लू अन्य पक्षियों की भांति झुंड में नहीं रहता निर्भय हो अकेला ही वीरानों में रहता है और अपनी तीव्र दृष्टि (उल्लू के दृष्टपटल मनुष्य से पांच गुना होते हैं), से वह देख लेता है, तीक्ष्ण कानों से वह सुन लेता है जो हमें ना तो दिखाई देता है ना ही सुनाई देता और अपनी इन प्रभावी शक्तियों का उपयोग कर अपना शिकार हासिल कर लेता है। ठीक इसी प्रकार से लक्ष्मी के साधक उद्यमी भी अपना लक्ष्य हासिल कर के ही दम लेते हैं। 

लक्ष्मी के वाहन उल्लू के शिकार होते हैं चूहे, छछूंदर, सांप, कीडे-मकोडे, गिरगिट, गिलहरियां जो फसलों को हानि पहुंचाने में लगे रहते हैं। इस प्रकार से उल्लू तो किसान मित्र हुआ। बेहतर होगा कि शुभाशुभ के झंझटों को छोड हम उल्लू की उपेक्षा करना छोडें, उसके संबंध में भ्रांत धारणाओं के त्यागें। अंधविश्वास में लिप्त हो उसकी हत्या करना छोडें।      
  

Thursday, October 16, 2014

व्रतों के जंजाल में उलझती महिलाएं

वर्तमान में स्त्री-पुरुष समानता की बातें चरम पर हैं। हर क्षेत्र में महिलाओं का दखल बढ़ता जा रहा है। लिंग पर आधारित भेद को नकारकर पुरुषों के एकाधिकार, वर्चस्व को चुनौती दी जा रही है। लेकिन व्रत रखने के मामले में महिलाओं का एकाधिकार सा ही है। इन व्रतों की विशेषता यह है कि ये सभी पति या बेटों यानी पुरुषों को केंद्र में रखकर उन्हीं के लाभ के लिए, देवी-देवताओं के प्रकोप से घर-परिवार को बचाए रखने के लिए पत्नी या मां के रुप में महिलाओं द्वारा ही रखे जाते हैं।

पूरे सप्ताह में एक दिन भी ऐसा नहीं होगा जिस दिन हिंदू महिलाएं व्रत ना रखती हों। सप्ताह के इन दिनों के अतिरिक्त संकष्टी चतुर्थी, रामनवमी, जन्माष्टमी, शिवरात्री, एकादशी आदि के व्रत अलग हैं और भी कई व्रत हैं जिनकी सूची बडी लंबी है जो दिन ब दिन बढ़ती ही जा रही है। व्रत में देवी-देवताओं के पूजन के अलावा विशेष किस्म के वृक्षों-पत्थरों आदि की भी पूजा की जाती है।

कई लोगों को याद होगा कि 1975 के आसपास एक  फिल्म आई थी 'जय संतोषी मां"। इसके पूर्व इस देवी का कहीं अता-पता ना था परंतु यह पिक्चर क्या सुपरहीट हुई महिलाएं संतोषी माता का व्रत रखने लगी। वैसे अब यह व्रत रखा जाता है कि नहीं इस संबंध में मैं कुछ कह नहीं सकता परंतु, सुनने में जरुर आता नहीं। हां, अब साई बाबा का बुखार अवश्य ही चरम पर है और हो सकता है कि जिस प्रकार से साई बाबा के मंदिर रातोरात उग आते हैं वैसे ही हो सकता है महिलाएं साईबाबा का भी व्रत रखने लगी हों, तो कह नहीं सकते। यह भी हो सकता है कि शायद पुरुषों ने इस मामले में महिलाओं के एकाधिकार को भंग भी कर दिया हो। लेकिन यह बात निश्चित है कि साईबाबा से मनौतियां भरपूर चढ़ावे सहित जरुर दिल खोलकर मांगी जा रही हैं।

व्रतों की होड में क्या शिक्षित क्या अशिक्षित सभी महिलाएं जोरशोर से लगी रहती हैं। महिलाओं की हालत यह है कि भले ही बच्चों के पाठ्यक्रम की पुस्तकों की उन्हें कोई जानकारी ना हो परंतु, भिन्न-भिन्न व्रतों-उपवासों की बखान भरी कब कौनसी विधि रखना, क्या चढ़ावा चढ़ाना, मुंहमांगी मुराद कैसे पूरी होगी और यदि व्रत भंग हुआ तो क्या हानियां होगी से भरपूर पुस्तकें जरुर इन महिलाओं के संग्रह में मिल जाएंगी।

चूंकि, व्रत रखनेवाला स्वयं भी कार्यसिद्ध हो इसलिए जुट जाता है तो सफलता मिलने की संभावनाएं भी बढ़ जाती हैं। यदि सफलता मिल गई तो उस देवी या देवता का माहात्म्य बढ़ जाता है परिणामस्वरुप भक्तों की संख्या भी बढ़ जाती है। कार्यसिद्धि के पश्चात भक्त का कर्तव्य बनता है कि वह पुनः व्रत रखे और उद्यापन करे जिसमें बहुत व्यय करना पडता है। ना करने पर देवी-देवताओं का कोपभाजन बनने का भय रहता है। इन उपवासों के साइड इफेक्ट के रुप में कमजोरी की शिकायत उपवासकर्ता द्वारा की जाती है जबकि कोई विशेष शारिरीक श्रम किए होते नहीं है बल्कि तरमाल सुतने का कार्यक्रम जरुर किया गया होता है फिर भी शिकायत तो करना ही पडती है। भले ही हमेशा रुखा-सूखा जाया जाता हो परंतु, कुछ विशेष व्रतों पर विशेष खाने-पीने की व्यवस्था की ही जाती है। मानो व्यंजन नहीं बने तो व्रत के पुण्यलाभ से वंचित रह जाएंगे। इसमें घर का बजट बिगडना तय ही होता है।

व्रत यानी धार्मिक दृष्टि से किया जानेवाला उपवास या प्रतिज्ञा, रखने में कोई हानि नहीं यदि उससे मन को सकारात्मक विचारसरणी की शिक्षा या अनुशासन मिलता हो तो उसका भौतिक फल लाभ मिल सकता है। इस दृष्टि से व्रत रखने में कोई हानि नहीं। लेकिन ये व्रत तो वर्तमान में अंधविश्वास, बाजारवाद का शिकार हो गए हैं और घर का बजट ही बिगाडने पर उतारु हैं। उदाहरणार्थ कुछ वर्षों पूर्व एक स्थान पर आग लगी तो तर्क यह दिया गया कि शीतलासप्तमी को घर के लोगों ने गरम भोजन किया इसके फलस्वरुप आग लगी और हानि हुई। अब इसे अंधविश्वास नहीं तो क्या कहा जाए। हमारी गलतियों से घटी दुर्घटना की जिम्मेदारी देवी-देवताओं पर थोपना कदापि उचित नहीं। हिंदू धर्म की विशालता को छोटा करने के समान है। हम तो ईश्वर को दयालु, मित्र, सखा मानते हैं। अपने तारणहार, दुखहर्ता के रुप में पूजते हैं, ऐसा ईश्वर भला हमारी छोटी सी चूक की इतनी बडी सजा हमें कैसे दे सकता है।  

आजकल करवा चौथ और वैभव लक्ष्मी व्रत रखने का चलन बडे जोरों पर है। करवा चौथ के व्रत पर बाजारवाद किस प्रकार से हावी है यह टी. व्ही. पर साफतौर से देखा जा सकता है। प्रतिदिन भले ही महिलाएं सादगी से रहती हों परंतु, इस व्रत पर भडकीली साडियां पहनने, ओढ़ने की होड लग जाती है। जमकर सोलह श्रंगार किया जाता है लॉकर से निकालकर गहने पहने जाते हैं। नई प्रसाधन सामग्री खरीदने में महिलाएं जुट जाती हैं। रोज पति को ताने सुनाए जाते हों लेकिन इस दिन चरण स्पर्श किए जाते हैं। दिन भर भूखे रहकर पति के दीर्घायु की कामना की जाती है फिर शाम को जमकर भारी भोजन भरपेट किया जाता है इससे स्वास्थ्य गडबडा जाए तो भी चलेगा, भई साल भर में एक बार ही तो यह व्रत दिवस आता है। अब इन्हें कौन समझाए कि यदि व्रत रखने मात्र से पति दीर्घायु होने लगते तो दूसरे धर्मों की औरतें भी यह व्रत न रखने लग जाती।

यही हाल वैभव लक्ष्मी व्रत का है जहां जाओ वहां महिलाएं यह व्रत रखते नजर आ जाएंगी। इस व्रत में लक्ष्मीनारायण की पूजा, पक्वानों का भोग और दान-दक्षिणा की विधि होती है। इस व्रत का स्वागतार्ह भाग यह है कि इस व्रत को रखने की शर्त यह है कि इसमें मन को सदैव प्रसन्न रखना होता है और शाम को उपवास समाप्ति के समय घर के सभी लोग एकत्रित भोजन करें यह नियम होता है। आजकल की भागदौड भरी जिंदगी में एकत्रित भोजन करना दुश्वार होता जा रहा है ऐसे में यदि इस धार्मिक नेम से यह साध्य होता हो तो निश्चय ही प्रशंसनीय है। यदि व्रत ऐहिक वैभव की आशा किए बिना केवल मनःशांति के लिए किया जाए तो स्वागतार्ह है। परंतु इसलिए किया जाए कि रातोरात ऐश्वर्यसंपन्न हो जाएंगे तो यह चिंता का विषय है। यदि ऐसा है तो इसका अर्थ यह हुआ कि इन महिलाओं को व्रत किसलिए रखे जाते हैं का अर्थ ही समझा नहीं है। व्रत में व्रती को अपने अंदर की आंतरिक शक्ति को जागृत करना होता है। जीवन के आव्हान को स्वीकार कर व्यवसाय में सफलता का मार्ग ढूंढ़ें तो लक्ष्मी प्रसन्न होगी। मेरा कार्य ही मेरी पूजा है इस श्रद्धा के साथ अपना नियत कार्य करें तो क्या यह भी वैभव लक्ष्मी का पूजन नहीं होगा। 

वर्तमान में महिलाएं अधिकारों के नाम पर हर मामले में हक जताते नजर आती हैं, बराबरी का दावा करती रहती हैं। विवाह के पश्चात पति से नहीं पटी तो पति तो क्या पूरे परिवार को डराने-धमकाने से बाज नहीं आती। कोर्ट-कचहरी कर तिगनी का नाच नचा देती हैं तब तो उन्हें सीता-सावित्री नजर नहीं आती। अंत में केवल यही कहना है कि व्रत-उपवासों से ही देवी-देवता प्रसन्न होते हैं या नहीं? यह तो कोई नहीं जानता लेकिन इन व्रतों की भरमार से व्रत रखनेवाले का स्वास्थ्य और परिवार की व्यवस्था अवश्य प्रभावित हो जाती है। व्रत दिवस पर घंटों भगवान के दर्शनार्थ मंदिर की कतार में लगना, फिर सत्संग-प्रवचन के नाम पर भीड में धक्के खाते फिरने में कोई तुक नजर नहीं आती इससे तो अच्छा है कि कोई उपयोगी कार्य किया जाए। 

Saturday, October 4, 2014

आखिर कब आचरण में लाएंगे हम संपूर्ण स्वच्छता को

आज से कुछ वर्षों पूर्व मैंने एक लेख पढ़ा था उसमें प्रसिद्ध उद्योगपति राहुल बजाज ने कहा था यदि हम केवल स्वच्छता को ही अपनालें तो केवल पर्यटन उद्योग से ही हम पर्याप्त रोजगार उत्पन्न कर सकते हैं। दूसरी बात उन्होंने उन छोटे-मोटे धंधे करनेवालों के संबंध में कही थी कि वे किस प्रकार से विदेशियों को ठगते हैं। इन्हीं मुद्दों को लेकर आमिर खान ने टी.व्ही. पर 'शर्म का ताज", और 'अतिथि देवो भव", सत्यमेव जयते जैसे कार्यक्रमों के माध्यम से प्रचार कर हमारा आचरण किस प्रकार का है और किस प्रकार का होना चाहिए का संदेश दिया था।

भूतपूर्व राष्ट्रपति एपीजे कलाम ने भी अपने हैदराबाद के प्रसिद्ध भाषण में जो कुछ कहा था उसका लब्बेलुआब कुछ इस प्रकार का था कि, आप सिंगापूर की सडकों पर सिगरेट का टुकडा नहीं फैंकते, किसी स्टोर में नहीं खाते। ऑस्ट्रेलिया-न्यूजीलैंड के समुद्र तटों पर कचरा नहीं फैंकते। जापान की सडकों पर पान खाकर नहीं थूकते। परंतु, भारत में हमारा आचरण वहां हम जो आचरण करते हैं ठीक उसके विपरीत होता है। अमेरिका में हर कुत्ते का मालिक उसके कुत्ते के मल त्याग के पश्चात उसको स्वयं साफ करता है यूं ही सडक को खराब करने के लिए छोड नहीं देता। इसके विपरीत भारत में लोग सुबह-शाम कुत्ते को लेकर घूमने निकलते हैं और उनके कुत्ते जगह-जगह मल-मूत्र विसर्जन करते फिरते हैं और बाद में वे ही लोग शिकायत करते फिरते हैं कि नगर पालिका साफ सफाई नहीं करती। लेकिन हम हमारे गिरेहबान में झांककर नहीं देखते।

कुछ वर्ष पूर्व मैं पूणे गया था वहां एक उद्योगपति ने तिरुपति बालाजी की प्रतिकृति वाला मंदिर बनाया है उस मंदिर परिसर की शौचालयों सहित स्वच्छता देखते ही बनती थी। परंतु, चारों ओर ध्यान से देखने पर नजर आया कि जगह-जगह पर सिक्यूरिटी गॉर्ड लगे हैं इसलिए यह स्वच्छता है। यही हाल अंतरराष्ट्रीय एअरपोर्ट का है वहां जो स्वच्छता नजर आती है वह इसीलिए है कि वहां सतत स्वच्छता चलती ही रहती है। यदि सतत स्वच्छता ना चले तो क्या होता है यह मैंने इंदौर-भोपाल के बीच चलनेवाली डबल डेकर ट्रेन में देखा है जिसका किराया लगभग रुपये 450 है। उस ट्रेन में हर डिब्बे में कचरे का डिब्बा रखा हुआ है परंतु लोग ट्रेन में खाते-पीते हैं और कचरे को जहां बैठे थे वही कहीं तो भी डाल देते हैं, घुसैड देते हैं। 

उपर्युक्त पर से यह साफ दिख पडता है कि अस्वच्छता के मामले में हममें अमीर-गरीब का कोई भेद नहीं, अस्वच्छता फैलाने में कोई किसी से कम नहीं। हम अफ्रीकियों के बारे में कोई बहुत अच्छे विचार नहीं रखते। परंतु, वे भी इस मामले में हमसे बेहतर हैं। मैंने अपने भाई जिन्होंने युगांडा (कम्पाला) की यात्रा की है उन्हीं से यह जाना है कि वहां कोई सडक किनारे पेशाब करते नहीं दिख पडेगा। वैसे मैंने वहां की सडकों के चित्र देखे हैं जिन पर कागज का एक टुकडा तक नजर नहीं आता जबकि हमारे यहां मुंबई के पेडर रोड, मलाबार पर तक गंदगी दिख पडती है। यह देखकर लगता है कि दुनिया में शायद सबसे गंदे लोग हम ही हैं।

कहने को तो हम लोग बडे धार्मिक हैं और हमारा देश बडा धर्म प्रधान है और सभी धर्म स्वच्छता पर जोर देते हैं। महामहोपाध्याय डॉ. पांडुरंग काणे लिखित 'धर्म शास्त्र का इतिहास" (भाग 1) का उल्लेख करना अप्रासंगिक नहीं होगा। जिसमें मल-मूत्र त्याग एवं देह की स्वच्छता एवं शुद्धि के नियम विस्तार से 'आह्निक एवं आचार" के अंतर्गत देते हुए जो पर्यावरण हितेषी भी हैं। एक स्थान पर कहा गया है 'बस्ती से दूर दक्षिण या दक्षिण-पश्चिम जाकर मल-मूत्र त्याग करना चाहिए।" (मनु 5/126) प्रातः समय शरीर-स्वच्छता तो सामान्य शौच (शुद्धता, पवित्रता) का एक अंग है। गौतम (8/24) के मत से शौच एक आत्मगुण है। ऋगवेद (7/56/12) ने शुचित्व पर बल दिया है। हमारे यहां स्नान किए बगैर कोई धार्मिक कर्मकांड किया ही नहीं जा सकता। हर पर्व पर पवित्र नदियों में स्नान किया जाता है। चाणक्य ने भी नदी में मल-मूत्र त्याग करने को मना किया है।  

कुरान में भी कहा गया है अल्लाह तआला खूब पाक रहने वालों को पसंद फरमाता है। पैगंबर की आज्ञा है कि प्रार्थना के समय  शरीर अपवित्र हो गया हो तो स्नान करना चाहिए वैसी आवश्यकता ना होने पर प्रत्येक प्रार्थना के समय कम से कम 'वुजू" तो भी करना चाहिए। वुजू का बहुत महत्व है। क्योंकि, पैगंबर ने कहा है कि जो प्रार्थना के पूर्व वुजू करता है उसके हाथ-पांव आदि अवयव न्यायदिवस के दिन पूर्णिमा के चांद के समान चमकेंगे इस कारण वह भीड में भी उठकर दिखेगा और उसे स्वर्ग की ओर बुलाया जाएगा। इसलिए वुजू (नमाज के लिए नियम पूर्वक हाथ-पांव और मुंह आदि धोना) करें यह पैगंबर का कहना है। बाइबल भी सीखाती है 'क्लीनलीनेस इज नेक्सट टू गॉडलीनेस" जो अंग्रेजी में एक वाक्यांश भी है जिसका अर्थ है ः ईश्वरीय ही है स्वच्छता। स्वच्छता ईश्वर के निकट ले जाती है। 

अमेरिका के लोग हर रविवार चर्च जाते हैं उनमें से कई चर्च द्वारा किए जानेवाले धर्मांतरण के या अन्य अवांछित राजनैतिक क्रियाकलापों से सहमत नहीं होते, उसका विरोध भी करते हैं। परंतु, वे चर्च में बडी श्रद्धा से अपनी सेवाएं किसी ना किसी रुप में अवश्य प्रदान करते हैं। इस संबंध में एक इंदौर के प्रसिद्ध आश्रम के ब्रह्मचारी ने जो एक सन्यासी के साथ ही थे ने चर्चा के दौरान कहा अपने यहां तो इसके उलट होता है। हमारे आश्रम में लोग आते हैं और स्वच्छता में हाथ बंटाने की बात तो दूर रही पर गंदगी अवश्य फैला जाते हैं।    

गांधीजी देश के पहले ऐसा नेता हैं जिन्होंने शौचालयों की ओर लोग का ध्यान आकृष्ट किया था। उनके कई अनुयायियों ने आजीवन सार्वजनिक सफाई का काम किया। गांधीजी के अनुयायी अप्पा पटवर्धन ने तो 1928 से ही संडास-मूत्रालय-सफाई बाबद अनेक उपक्रम, प्रचार, प्रयोग और सत्याग्रह किए थे। सेनापति बापट (12-11-1880 से 28-11-1967) जो सशस्त्र क्रांतिकारी, तत्त्वचिंतक और संघर्षशील समाज सेवक थे सुबह उठकर गांव के रास्तों पर झाडू लगाना और शौचालय स्वच्छ करना के व्रत को उन्होंने जीवन भर जीया। बाबा आमटे जब वर्धा नगरपालिका के अध्यक्ष थे तब उन्होंने सफाईकर्मियों की हडताल के समय सडकों पर उतरकर स्वयं सफाई कार्य किया था।

भारत सरकार ने सन्‌ 1886 में केंद्रिय ग्रामीण स्वच्छता कार्यक्रम प्रारंभ किया था जो 1999 में संपूर्ण स्वच्छता अभियान (टीसीसी) में रुपांतरित हो गया। 2012 में निर्मल भारत अभियान को भी इसी मकसद से शुरु किया गया। जब जयराम रमेश ग्रामीण विकास मंत्री तब उन्होंने शौचालयों की आवश्यकता की ओर ध्यान आकृष्ट करने के लिए कई बयान दिए उनमें विवादस्पद भी थे, उसी समय मोदी ने भी पहले 'शौचालय फिर देवालय" का नारा दिया था। परंतु जैसी चाहिए वैसी सफलता हासिल हो नहीं पाई। अब मोदी ने प्रधानमंत्री बनने के बाद 2 अक्टूबर से गांधीजी की 150वीं जयंती 2019 से पहले गांधीजी के स्वप्न स्वच्छ भारत को साकार करने के लिए संपूर्ण भारत को स्वच्छ बनाने के लिए स्वच्छ भारत अभियान का श्रीगणेश स्वयं हाथ में झाडू लेकर स्वच्छता कर किया है। जिसे अच्छा प्रतिसाद भी मिला है। 

लेकिन क्या इससे सचमुच भारत स्वच्छ हो जाएगा? क्योंकि, यह कार्य प्रतीकात्मक तौर पर किया गया है जो प्रेरणास्पद तो निश्चय ही है और यह बात भी निश्चित ही है कि इस कार्य में, जो चाहिए वह लक्ष्य हासिल करने में जब तक समाज का साथ नहीं मिलेगा सफलता मिलना मुश्किल ही है।
वन्य प्राणी सप्ताह 2 से 8 अक्टूबर
नासमझ कौन मनुष्य या पशु - पक्षी
world animal day 4th october

प्राचीनकाल से ही मनुष्य का पशु-पक्षियों से अटूट संबंध रहता चला आया है जो आज तक अबाध है। यह संबंध संस्कृत सुभाषितों, कहावतों, किस्से-कहानियों से लेकर मुहावरों, गीत-कविताओं से लेकर पौराणिक आख्यायनों तक में हम भारतीयों में ही नहीं तो विदेशियों तक में नजर आता है। परंतु, हम इनका उल्लेख अधिकांशतः इन्हें हीन, निर्बुद्ध समझकर ही आपस में एकदूसरे को अपमानित महसूस हो इसीको मद्देनजर रख गाली के रुप में करते हैं। उदाहरण के रुप में चिडियाघर का उल्लेख आते ही हमारी नजरों के सामने अजीबोगरीब जानवरों का जखीरा जमा हो जाता है। जबकि वहां प्रकृति की सुंदरता करिश्माई अंदाज में मौजूद होती है। जहां से हम बहुत कुछ सीख भी सकते हैं। जिराफ की गर्दन बहुत लंबी और बडी अजीब दिखती है परंतु, अधिकांश लोगों को यह मालूम ही नहीं होगा कि जिराफ और मनुष्य दोनो की गर्दन की हड्डियां समान संख्या में होती हैं। इसी प्रकार से हाथी की सूंड दिखने में बेहद बेढ़ंगी हो परंतु वह भी प्रकृति की अद्‌भुतता समेटे हुए है, वह एक साथ मुंह, नाक, कान का काम जो करती है।

'गधे के सिर से सिंग" यह मुहावरा हम तब उपयोग में लाते हैं जब कोई अचानक गायब हो जाता है। गधा हमारे यहां मूर्खता के प्रतीक के रुप में जाना जाता है जबकि किसी व्यक्ति को गधा कहना यानी उसका नहीं वरन्‌ गधे का ही अपमान करना है। क्योंकि शायद आप स्वयं नहीं जानते कि गधे की गणना बुद्धि के धनी जीवों में की जाती है और गधा सदियों से आदमियों का पालतू है और  मनुष्य का साथ निभाता चला आया है। कभी भारत, सीरिया, इजिप्त आदि में गधे बहुतायत से पाए जाते थे पर अरब देशों में इनका भारी मात्रा में शिकार किया गया और अब ये वहां करीब-करीब विलुप्त ही हो गए हैं। भारत में भी अब ये बहुत कम ही बचे हैं।

किसी मंद गति व्यक्ति को देखकर हम उसे कछुए की उपाधि बडी सहजता से दे देते हैं लेकिन विश्व में अनेक स्थानों पर कछुए का प्रतीकात्मक महत्व है उसे कहीं शुभ तो कहीं अशुभ माना जाता है। भारतीय आख्यायन के अनुसार दशावतारों में एक कूर्म  अवतार भी है। किसी को कछुआ कहने से पहले सोचिए कि आखिर कछुआ अपनी किस विशेषता के कारण दीर्घजीवी है। लकडबग्घे को हम घृणास्पद जीव समझते हैं जबकि वह तो जंगल का दरोगा है, जंगल को स्वच्छ रखनेवाला प्राणी है। वस्तुतः हमें तो उससे हमदर्दी जताना चाहिए। लेकिन अफसोस है कि लकडबग्घे के संबंध में बहुत कुछ जानकारी हमें उपलब्ध ही नहीं है। बल्कि ट्यूमर के इलाज में उसकी जीभ व गठिया में उसकी चर्बी उपयोगी होने कारण आज वह बेमौत मारा जा रहा है।

भेडिये को एक खलनायक की तरह ही पाशविकता से भरा, शोषक के रुप में दुनिया के हर तानाशाह की शक्ल में भेडिये को ही प्रस्तुत किया जाता है। हिंदी कवियों ने तो मानो भेडियों के विरुद्ध अभियान सा ही छेड रखा है। भेडियों को मारने के लिए बाकायदा पुरस्कार भी घोषित किए जाते हैं। अब भेडिये ने आदमी का कितना क्या बिगाडा है यह तो नहीं मालूम परंतु अपने आपको सभ्य कहलवाने वाले आदमी ने जरुर भेडियों का संहार करने में कोई कोरकसर बाकी नहीं छोड रखी है। तभी तो सन्‌ 1973 में स्टाकहोम में बचेखुचे भेडियों को बचाने के लिए वैज्ञानिकों, पर्यावरणविदों को एक सम्मेलन आयोजित करना पडा था। वास्तव में भेडिये अपनी छवि के विपरीत बेहद शर्मीले और मनुष्य से लुकछिपकर जीनेवाले, चौकस व जरा सी आहट होते ही भाग खडे होनेवाले तथा समूह में रहकर छोटे-मोटे शिकार कर पेट भरनेवाले होते हैं। अब भेडिये के दर्शन हमें चिडियाघर में ही होते हैं।

यही हाल चमगादड का है आज से लगभग छः दशक पूर्व जिस संचार सिद्धांत के द्वारा रडार का निर्माण मनुष्य ने किया उस संचार के सिद्धांत का उपयोग आज से लाखों साल पहले से चमगादड करते चले आ रहे हैं। उसकी प्राकृतिक रडार पद्धति का मुकाबला आज भी आसान नहीं। इसीलिए कई संचारिकी यांत्रिकी इस अनोखे जीव का अध्ययन करते रहते हैं। उडते समय चमगादड उच्च आवृत की ध्वनी तरंगे छोडते हैं और जब ये तरंगें किसी अवरोध या कीडे-मकोडों से टकराकर वापिस लौट आती है तो उनके कान इन्हें तत्काल ग्रहण कर लेते हैं। इस प्रकार से मार्ग के अवरोध की सूचना उन्हें पहले ही से मिल जाती है। इसी कारण यदि वे लाखों की संख्या में भी निकले तो मजाल है जो कोई किसीसे टकरा जाए। वे अपनी अपनी तरंगों के माध्यम से एक दूसरे के साथ संपर्क बनाए अपना अपना मार्गक्रमण निर्बाध करते रहते हैं। 

अन्य अनेक जीवों की तरह चमगादड भी इस समय दुनिया के सबसे अधिक खतरे में पडे हुए जीवों में से एक है। क्योंकि, गलतफहमी तथा अंधविश्वासों चलते इन्हें डरावना मान भूत-प्रेत-चुडैलों से जोडा जाता है। वास्तविकता यह है कि चमगादड विश्व के बडे भले और लाभदायक प्राणियों में से एक है और इससे हमें कोई खतरा नहीं। परंतु, दुर्भाग्यवश इन्हें कई देशों में किसी भी तरह का कोई संरक्षण ना होने के कारण इनकी कई प्रजातियां विलुप्ती की कगार पर हैं और बची-खुची प्रजातियों को संरक्षण की आवश्यकता है। उत्खनन गतिविधियों ने इनके रहवास की गुफाओं को बहुत क्षति पहुंचाई है। अंधविश्वास के चलते इनके मांस को कामेच्छावर्द्धक मान इनका शिकार व्यापारिक तौर पर हो रहा है। ये कटिबंधीय वृक्षों के प्राकृतिक संवर्द्धन के लिए अनिवार्य हैं। 'फ्रूट बेट्‌स" नस्ल का चमगादड एक रात में 60,000 तक बीज बिखेर देता है। परागण के अलावा चमदागड की बीट उसमें नत्रजन की उपस्थिति के कारण अच्छा खाद है। रात में उडनेवाले कीट-पतंगों का शिकार कर, फसलों की रक्षा एवं प्रकृति के संतुलन में हाथ बंटाता है, हमें, हमारे उपयोगी मवेशियों व फसलों को बीमारियों से बचा समूचे वातावरण को स्वच्छ रखता है। 

अब सवाल यह उठता है कि आखिर मनुुष्य को यह अधिकार किसने दे दिया कि विभिन्न पशु-पक्षियों के प्रति मिथ्या प्रचार करे, उनका संहार करे और ऐसे में नासमझ किसे समझें आदमी को या पशु-पक्षियों को।