Friday, January 27, 2012

नदीतमा - देवीतमा ः सरस्वती

भारतीय वाड्‌मय में सरस्वती शब्द दो अर्थों में आया हुआ है। एक नदी के रुप में और दूसरा देवी के रुप में। नदी सरस्वती ब्रह्माजी की कन्या है जो स्त्री से नदी के रुप में ब्रह्माजी के शाप के कारण परिवर्तित हो गई। एक और कथानक के अनुसार प्रलयकाल में सारा ब्रह्मांड वाडाग्नि के कारण ज्वालामय हो गया। सारे देवता और दानव हमारी रक्षा करो की प्रार्थना करते हुए ब्रह्माजी के पास जा पहुँचे। ब्रह्माजी ने उस अग्नि को एक पात्र में बंद कर वह पात्र सरस्वती के हाथ में दे उसे समुद्र में डूबो देने के लिए कहा। परंतु, वह उष्ण पात्र ले जाते समय अति उष्णता के कारण वह स्वयं ही जलरुप में परिवर्तित हो बहने लगी। वह आकाश में बहती है इसलिए दिखती नहीं और बहते हुए अंत में वरुण के मुख में गिरती है।

इस नदी का उद्‌गम हिमालय के ब्रह्म सरोवर से होकर पर्वतीय यात्रा समाप्ति के बाद मैदानी क्षेत्र में पश्चिम-दक्षिण वाहिनी हो समुद्र में गिरती है। ऋगवेदिक सभ्यता-संस्कृति का उद्‌भव एवं विकास सरस्वती के तट पर ही हुआ था। विभिन्न भौगोलिक कारणों से सरस्वती का प्रवाह कालांतर में क्षीण होेते-होते सूखकर अंत में मरुभूमि में लुप्त हो गया और महत्व सिंधु को प्राप्त हो गया। परंतु, उसके तट पर बसे तीर्थ बने रहे।

यों तो साधारणतः सरस्वती को 'विद्या की देवी", 'वीणा-पाणी" या बुद्धिदायिनी के रुप में माना-जाना और पूजा जाता है। किंतु, देवी सरस्वती के रुप से बहुत कम ही लोग परिचित होंगे और वह है 'शत्रुविनाशिनी" का रुप। वस्तुतः मनुष्य के मन में एक भयंकर युद्ध जो सतत चलता रहता है वह है सुप्रवृत्तियों (देवता) और कुप्रवृत्तियों (असुर) के मध्य का। सुप्रवृत्तियों की प्रतीक मातृकाशक्ति वागेश्वरी के रुप में कुप्रवृत्तियों के नाश के लिए सक्रिय हो उठती है। यह मातृशक्ति इसलिए है क्योंकि, ब्रह्माजी के वामांग से उत्पन्न होकर इसे शतरुपा, सावित्री, गायित्री, ब्रह्माणी और सरस्वती नाम प्राप्त हुए हैं। ऋगवेद, सामवेद और यजुर्वेद की जन्मदात्री होकर इसीने ब्रह्माजी की उत्पादक शक्ति मंत्रों को जन्म दिया है। महाभारत के रचयिता महर्षि व्यास कुरुक्षेत्र के महायुद्ध की भीषण हिंसा-प्रतिहिंसा से व्यथित होकर सरस्वती नदी के एकांत, शांत एवं पावन तट पर निवास करने आए थे और युद्ध के बाद गणेशजी से 'जय" नामका अर्थात्‌ 'महाभारत" ग्रंथ लिखवाने में प्रवृत्त हो गए।

ज्ञान और विद्या की अधीष्ठातृ देवी के रुप में सरस्वती के प्रति आज भी करोडों भारतीयों के मन में जो श्रद्धा-भक्ति भाव बसता है उसे इस भूतल पर विद्या देवी के रुप में मान्यता कैसे मिली? - ब्रह्माजी ने सरस्वती से कहा पृथ्वी पर जो योग्य मनुष्य मिले उसकी जिह्वा पर तू निवास करना। उसके पृथ्वी पर आने के बाद कई वर्ष गुजर गए सत्ययुग समाप्त होकर त्रेतायुग प्रारंभ हो गया। एक बार जब वह तमसा नदी के तट के परिसर में घूम रही थी तभी एक व्याध ने कामकेली में संलग्न क्रौंच पक्षी के जोडे में से एक को बाण से विद्ध कर दिया। दूसरा जोडीदार पक्षी आक्रोश करते हुए उस विद्ध पक्षी के आस-पास घूमने लगा। यह देख मर्माहत होकर वहीं उपस्थित वाल्मिकी ने उस व्याध को श्राप दे दिया। यह करुण दृश्य देख सरस्वती का अंतःकरण चलबिचल हो वह एकदम वाल्मिकी के जिह्वाग्र पर जा बसी। और जैसे घनघोर काले बादलों में से अमृतबिंदुओं के रुप में जलबिंदू स्त्रावित हो उठे हों वैसे संस्कृत शब्द उसके मुख से फूट पडे -

मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः सभा। यत्क्रौंच मिथुनादेकमवधीः काम मोहितम्‌।। ः हे व्याध तुम कभी भी शाश्वत शांति प्राप्त नहीं कर सकोगे, क्योंकि तुमने कामवश मोहित क्रौंच पक्षियों के इस युगल में से एक को मार डालाहै।

श्लोक के शब्दों पर विचार करते वाल्मिकी आश्रम में लौट आए। वास्तव में यह वाल्मिकी और कोई नहीं एक समय के नरवध कर यात्रियों को लूटनेवाले डाकू वाल्मिकी थे। जिन्हें नारद मुनि ने मरा मरा मंत्र का जाप कर पापों का परिमार्जन करने के लिए कहा था और उस मंत्र का जाप करते-करते वह कब राम राम में बदल गया यह उन्हें पता भी न चला। और पुण्यसंचय हो अनजाने वे वाल्मिकी से महर्षि वाल्मिकी बन गए। तभी ब्रह्माजी भी उनसे मिलने आए वाल्मिकीजी ने ब्रह्माजी से उक्त करुणा के ज्वार से उत्पन्न उस दुख की अभिव्यक्ति उस घटना का वर्णन कर वह श्लोक उन्हें सुनाया। ब्रह्मदेव ने उसे उन्हीं के आशीर्वाद का फल बताया। इसी में रामकथा का बीज छुपा हुआ है।  ब्रह्माजी ने उन्हें सूक्ष्म दृष्टि देते हुए रामकथा लिखने का आशीर्वाद प्रदान किया। एक पक्षी के कारण साक्षात सरस्वती ने उन्हें आदिकवि होने के सम्मान का अधिकारी बना दिया। परंतु, यही सरस्वती जब कुंभकर्ण की जिह्वा पर सवार हुई तो उसने ब्रह्मा से वर मांगा - स्वप्न वर्षाव्यनेकानि। देव देव ममाप्सिनम। अर्थात्‌ मैं कई वर्षों तक सोता रहूं, यह मेरी इच्छा है। इस प्रकार से देवताओं की रक्षा करने का श्रेय सरस्वती को होने के कारण वह और भी पूज्य हो गई । अतः विद्याध्ययन आरम्भ करने के पूर्व इस श्लोक का उच्चारण छात्रों द्वारा किया जाता है सरस्वती नमस्तुभ्यं वरदे कामरुपिणि। विद्यारम्भं करिष्यामि सिद्धिर्भवतु मे सदा।। अर्थात्‌ हे वरदायिनी, कामनापूर्णकरनेवाली सरस्वती देवी! आपको मेरा प्रणाम है। मै (अब) विद्याध्ययन आरम्भ करता हूं। (अतः) इसमें मुझे सदैव सफलता प्राप्त हो। सरस्वती विद्या की देवी है इसका उल्लेख ऋगवेद में है। आर्यों ने इसीके तट पर निवास कर यज्ञयाग किए। यज्ञ से सरस्वती इच्छा पूर्ण करती है, सहजता से प्रसन्न होती है। बाद में उसके सतत स्तवन-पूजन से उसका संक्रमण वाणी मेें हो वह नदी देवता से वाणी देवता में रुपांतरित हो गई। उसके पास नीर-क्षीर-विवेक बुद्धि होने के कारण समस्त वस्तु मात्र में योग्य चुनाव करने का ज्ञान होने के कारण उसका वाहन हंस होकर वह भाषा, कला और अलंकारों की जननी है। उसका स्वरुप है शुभ्रतम वस्त्र और हीरे के अलंकार धारण करनेवाली। चतुर्भुज होकर उसके हाथों में अक्षमाला, वीणा, पुस्तक व कमंडल है। वह हंस या कमल पर विराजमान होती है।
शनैः शनैः सरस्वती का यह रुप भारतीय स्थापत्य कलाओं के साथ भी संबद्ध हो गया। सरस्वती जैनागमों में भी बडी अनुपमलयता के साथ चित्रित की गई है। बौद्ध वाड्‌मय में भी सरस्वती प्रथमतः विद्या की अधिष्ठात्री देवी के रुप में और तद्‌नंतर मंजुश्री के रुप में अभिचित्रित की गई है।

 सामान्यतः सरस्वती प्रतिमा के साथ एक मुख और दो हाथ चित्रित हैं। एक हाथ में कमल और दूसरे हाथ में वरदमुद्रांकित है। एक तिब्बती प्रतिमा में सरस्वती के तीन हाथ और छह मुख हैं। इसका वर्ण श्वेत नहीं अपितु, रक्तिम है। मुद्रा वीरत्व की है। 'विष्णुधर्मोत्तर पुराण" में सरस्वती अभिनृत्य मुद्रा में चित्रित है। इस प्रकार से सरस्वती विविध प्रतिमाओं में महिमामंडित है। इसके श्वेत अंग सत्गुणों के प्रतीक हैं जो जीवन के अभीष्ट हैं। कमल गतिशीलता का प्रतीक है जो राग-द्वेष से परे निरपेक्ष भाव से जीने की सीख देता है। इसका रंग, रुप एवं गंध सभी कुछ मधुर, मंजुल एवं संयत है। सरस्वती के हाथ में शोभित पुस्तक सब कुछ जान लेने, समझ लेने के प्रतीक के रुप में प्रेरणा का स्त्रोत है। सरस्वती की वीणा में साम संगीत के सारे विधि-विधान सन्निहित होकर, वीणावादन शरीर को स्थैर्य प्रदान करता है। वीणावादन से शरीर का अंग-अंग परस्पर गुंथकर समाधि अवस्था को प्राप्त हो जाता है।

नवरात्री की महासरस्वती सरस्वती का ही रुप होकर उसकी आठ भुजाएं हैं। देवी सरस्वती को ही शारदा, ब्राह्मी, वागी, वाणी , गायित्री, भारती, कुंजकन्या पुटकारी भी कहते हैं। जैनधर्म की विद्या की देवता सोलह होकर उन पर सरस्वती तथा श्रुती देवी का वर्चस्व है। ऐसी यह देवी वंदनीय होकर भी बहुत थोडे से लोग ही इसे चाहते हैं बाकी सब के सब देवी लक्ष्मी के पीछे लगे रहते हैं। जबकि वसंत पंचमी जो कि देवी सरस्वती की जयंती है को श्री पंचमी भी कहा जाता है। श्री से लक्ष्मी का बोध होता है और इस दिन देवी सरस्वती की आराधना-पूजा की जाती है। इस प्रकार से यह दिवस लक्ष्मी और सरस्वती के मंजुल सामंजस्य को दर्शाने का दिन है। यही सामंजस्य प्रातः काल में सबसे पहले हथेलियों के दर्शन कर जिस श्लोक का उच्चारण किया जाता है उसमें भी नजर आता है। यह श्लोक इस प्रकार से है - कराग्रे वसते लक्ष्मीः कर मध्ये सरस्वती। करमूलेत्‌ गोविंदम्‌ प्रभाते कर दर्शनम्‌।। इस श्लोक में धन की अधिष्ठात्री देवी लक्ष्मी तथा विद्या की देवी सरस्वती और भगवान विष्णु का वास हथेलियों में बतलाकर उनकी स्तुती की गई है। छत्रपति शिवाजी महाराज के गुरु समर्थ रामदास के प्रसिद्ध ग्रंथ 'सार्थ श्रीदासबोध" में तो पूरा एक समास ही शारदास्तवन के नाम से है में इसे शब्द सृष्टि के मूल के रुप में मूलमाया कहा गया है।

Monday, January 23, 2012

कैसे कहें हम ईमानदार - बेदाग मनमोहन को !!

वर्ष 2010 भयंकर घोटालों के लिए जाना जाएगा तो, वर्ष 2011 उसके बचाव के लिए जानेवाली लीपा-पोती, उसके अपेक्षित परिणामों, सर्वोच्च न्यायालय की लताडों, बेतहाशा बढ़ती महंगाई-भ्रष्टाचार से त्रस्त जनता की आहों-कराहों-बेबसी और इस पर निष्क्रिय, राजनैतिक ब्लैकमेलिंग के आगे झुकते, अपनी असहायता प्रकट करते, राष्ट्र को विशाल आर्थिक हानि पहुंचते हुए देखकर भी, स्वयं के चरित्र को कलंकित करवाने तक गिरकर अपनी सत्तालोलुपता को गठबंधन की मजबूरी बतानेवाले मनमोहनसिंह के रुप में इतिहास में कभी भी सुप्रीम कोर्ट द्वारा इतनी विपरीत टिप्पणियां न की गई हों ऐसे प्रधानमंत्री के रुप में झेलने को विवश होनेवाले वर्ष के रुप में।

हमने मनमोहनसिंह को सत्तालोलुप कहा इसलिए कि यह कैसे भुलाया जा सकता है कि किसी भी कीमत पर सत्ता की निकटस्थता प्राप्त करने में वे माहिर रहे हैं। मनमोहन 1991 में आर्थिक सुधारों को लागू करने से पहले भी वित्त सचिव, रिजर्व बैंक के गवर्नर, भारत सरकार के वित्त सलाहकार पदों पर रहते नेहरुजी की नीतियों को आगे बढ़ाने में लगे रहे। जिनके बारे में उन्होंने संसद में अपना पहला बजट पेश करते हुए कहा था 'लम्हों ने खता की थी, सदियों ने सजा पाई।" इन विभिन्न वरिष्ठ पदों पर रहते उन्होंने उस समय कभी भी इंसपेक्टर राज खत्म करने की, उदारता की वकालात नहीं की। क्योंकि, ये तो जोडतोड में विश्वास रखते हैं। इसका प्रदर्शन भी वे नरसिंहाराव सरकार के कार्यकाल में जब वे वित्त मंत्री रहकर कर चूके हैं। जो जोडतोड कर के ही बहुमत वाली सरकार बनी थी। स्वयं के प्रधानमंत्रीत्व काल में भी जब वामपंथियों ने इनसे परमाणु मुद्दे पर समर्थन वापिस ले लिया था तो जोडतोड करके ही उन्होंने सरकार बचाई थी। ये वही मनमोहन हैं जो कभी नरसिंहाराव के विश्वस्त थे और आज सत्ता केंद्र बदलते ही सोनियाजी के निकटस्थ, विश्वसनीय बन बैठे हैं। इनकी चापलूसी का प्रदर्शन करनेवाला एक चित्र प्रियंका गांधी के पुत्र को दुलारते हुए भी एक समाचार पत्र में छप चूका है। इसी प्रकार की धूर्ततापूर्ण चापलूसी भरी चतुराई के कारण आज वे शीर्ष पर पहुंचने में कामयाब रहे हैं।

अपनी सौम्य और गंभीर छवि के लिए भले ही मनमोहन विख्यात हों। परंतु, इन्हीं मनमोहन के वित्तमंत्री रहते विश्वप्रसिद्ध शेयर घोटाला 'हर्षद मेहता कांड" के रुप में हुआ था। तब संसद के समक्ष उन्होंने यह वक्तव्य दिया था कि 'अगर शेयर बाजार में एक दिन उछाल आ जाए और दूसरे दिन गिरावट हो तो इसका मतलब यह नहीं है कि मैं अपनी नींद हराम कर लूं।" (प्रतिभूति एवं बैंक कारोबार में अनियमितताओं की जांच के लिए गठित संयुक्त संसदीय समिति की रिपोर्ट खंड 1, पृ. 211, लोकसभा सचिवालय, दिसंबर 1993)। उस समय जांच के लिए गठित जेपीसी द्वारा जब उनसे पूछा गया कि शेयर मार्केट में जब इतना बडा घोटाला हो रहा था उस समय आप क्या कर रहे थे। इस पर उनका उत्तर था 'मैं सो रहा था।" आप ऐसा कैसे कह सकते हैं यह जब उनसे कहा गया तो उन्होंने उत्तर दिया 'मैं मजाक कर रहा था।" यह अगंभीर उत्तर है गंभीर छवि वाले मनमोहन का।
इसी का परिणाम है कि इनका वास्तविक सामर्थ्य जान लेने के कारण ही इनके मंत्रीमंडल के मंत्री बेलगाम हैं, उन पर उनका कोई नियंत्रण नहीं यह तो ए. राजा के कार्यों से ही जगजाहिर हो गया और मनमोहन अपनी असहायता दर्शाकर चुप हो गए। ममताजी तो रेलमंत्रालय में अपनी बंगाल एक्सप्रेस चलाकर मस्त हैं। वरिष्ठ मंत्री शरद पवार अपनी भविष्यवाणियों द्वारा बहुत नाम और दाम कमा चूके और मनमोहनजी असहाय से चुपचाप देखते रहे। किसी समय इन्हीं शरद पवार के शागिर्द रहे कलमाडी कामनवेल्थ खेलों में भ्रष्टाचार में मशगूल रहे मीडिया चिल्लाता रहा पर मनमोहन अनदेखी करते रहे।

किसान आत्महत्याएं कर रहे हैं। मायक्रो फायनंस वाले मनमाना ब्याज वसूल कर समृद्ध हो रहे हैं। उधर अपने अर्थशास्त्री होने का दंभ भरनेवाले मनमोहन अपनी ही मुरली की तान में मस्त हैं। सेज के लिए उद्योगपतियों को किसानों की हजारों एकड उपजाऊ जमीनें आवंटित की जाने की नीतियों को आंख मूंदकर समर्थन दे रहे हैं। उन्हें किसानों का दर्द महसूस नहीं होता उलट महाराष्ट्र में सूखा पीडित किसानों को उनके द्वारा बांटे गए चेक बाऊंस हो गए। अनियंत्रित, अनियोजित आर्थिक विकास के चलते अमीर और अमीर तो गरीब और गरीब होकर जीने के लिए बाध्य हो रहे हैं। यह इन्हीं मनमोहनी नीतियों की उपलब्धि है कि गरीबों का सबसे सस्ता प्रोटीन कहे जानेवाली दालों की कीमतें आसमान तक जा पहुंची और इन्हें ऐसा न हो इसके लिए कोई नीति बनाई जाए का होश तक न रहा। शहरों के आसपास की सारी उपजाऊ जमीनें कहीं सेज तो कहीं टाउनशिप की भेंट चढ़ गई, सब्जियां महंगी हो गई तो अब नीति बनाई जा रही है कि शहर के आसपास सब्सीडी देकर किसानों को सब्जियां उगाने के प्रोत्साहित किया जाएगा।

इन्हीं की घातक आर्थिक नीतियों का दुष्परिणाम है कि आज नक्सलवाद इतना बढ़ रहा है कि यूएनओ भी भारत सरकार को इस गंभीर खतरे के बारे में चेतावनी दे रहा है। देश के 83 जिले पूरी तरह तो 100जिले आंशिक रुप से नक्सल प्रभावित हो गए हैं।  कृषि क्षेत्र से जुडी 65% आबादी सकल उत्पाद का 17% पाती है तो 35 से 57% सेवा सेक्टर के लोगों पर खर्च होता है। इधर हमारे प्रधानमंत्री मनमोहन तर्क दे रहे हैं कि विकास दर बढ़ने के साथ महंगाई भी बढ़ेगी ही। लेकिन कितनी इसका उत्तर उनके पास नहीं है। वैसे वे जिस विकास की दुहाई दे रहे हैं उसकी वास्तविकता तो न्यूजवीक के एक सर्वेक्षण में आ गई है जिसमें भारत को दुनिया के सर्वोत्कृष्ट देशों की सूची में 78वें स्थान पर दर्शाया गया है। इसी प्रकार की बेढ़ंगी टिप्पणी 2जी घोटाले में हुए भ्रष्टाचार के कारण हुई हानि पर देते हुए उन्होंने हानि की तुलना खाद्य और केरोसिन पर सब्सिडी से कर दी।

इस दुर्दशापूर्ण हालात में हमें पहुंचाने के जिम्मेदार मनमोहनसिंहजी के कार्यकाल की एक और उपलब्धि देखिए - इन्हीं महाशय के कार्यकाल में बोफोर्स के आरोपी क्वात्रोची को सीबीआई से क्लीनचिट मिली और उसके बाद फ्रीज किए खाते मुक्त करने का नतीजा दूसरे ही दिन क्वात्रोची ने उस खाते से पूरा पैसा निकाल लिया। स्वयं मनमोहन ने क्वात्रोची को चरित्र प्रमाणपत्र देने की कोशिशों के तहत कहा था कि लोगों को प्रताडित करना भारतीय विधिक व्यवस्था के लिए अच्छा नहीं है और क्वात्रोची मामले के चलते भारत सरकार को दूसरे देशों में शर्मिंदगी उठानी पडी है। इसी प्रकार की क्लीनचिट ए. राजा को भी वे दे चूके हैं जो अब कारागार में बंद हैं।

भ्रष्टों को बचाने प्रश्रय देने की कडी में नाल्को के अध्यक्ष श्रीवास्तव का नाम भी आता है। जिन्हें पीएमओ के इशारे पर ही इस महत्वपूर्ण पद पर बैठाया गया। सीवीसी पीजे थॉमस के मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा किरकीरी होने पर मनमोहन अब गलती जरुर स्वीकार रहे हैं। क्योंकि, उनकी मादाम सोनिया भी तो अब उनकी सरकार के कार्य करने के तरीके पर एतराज उठा रही है। उन्हीं के वरिष्ठ सहयोगी मंत्री चिदंबरम पीएमओ के दबाव की स्वीकारोक्ति दे रहे हैं। भू.पू. प्रधानमंत्री नरसिंहाराव जिनसे मनमोहन मौन रहने की कला सीखे हैं जिन्होंने बाबरी ढ़ांचा ढ़हाए जाने पर कहा था कि यहां बाबरी मस्जिद का पुनः निर्माण होगा की तर्ज पर उनसे दो कदम आगे बढ़ते हुए कहा कि देश के संसाधनों पर सबसे पहला अधिकार मुसलमानों का है और उन्हें यह तथाकथित अधिकार दिलवाने की कार्यवाही भी उन्होंने शुरु कर दी है।

मीडिया और उनके लगुए-भगुए चाहे लाख उन्हें पाक-साफ दिखलाने की कोशिशें करें। देनेवाले चाहे उन्हें देश का सबसे ईमानदार प्रधानमंत्री होने का प्रमाणपत्र दे डालें। परंतु, पंजाब के नक्सल प्रमुख हाकमसिंह से जब मनमोहन पंजाब में मात्र एक प्रोफेसर हुआ करते थे के नक्सली गतिविधियों में लिप्त होने के संदेह में पुलसिया पूछताछ हो चूकी है। यह बात हाकमसिंह ने 1991 में एक इंटरव्यू में कही थी उस समय मनमोहनसिंह देश के वित्तमंत्री थे। इन हाकमसिंह को तमिलनाडु के राज्यपाल सुरजीतसिंह बरनाला और मार्क्सवादी कम्यूनिस्ट के महासचिव रह चूके हरकिशनसिंह सुरजीत महान क्रांतिकारी बतला चूके हैं। इन सब बातों को मद्देनजर रखते हम कैसे मनमोहनसिंहजी को ईमानदार बेदाग कह सकते हैं। हमारी नजर में तो यदि मनमोहनसिंहजी अपने मंत्रीमंडल को ईमानदार बनाए नहीं रख सकते, अपने कार्यालय के अधिकारियों पर नियंत्रण नहीं रख सकते जो भ्रष्टों को बढ़ावा दे रहे हैं तो, उनकी ईमानदारी मात्र ढ़कसोला है। देश की जनता के किसी काम की नहीं।

Thursday, January 19, 2012

'वंदेमातरम्‌" - तो भारतमाता का अभिवादन है मियॉं !

3 नवंबर से 6 नवंबर 2009 तक देवबंद में चले देश के मुस्लिमों के एक बडे सम्मेलन में देश के गृहमंत्री चिदंबरम और प्रसिद्ध योगगुरु बाबा रामदेव को भी अतिथियों के रुप में आमंत्रित किया गया था। जहां बाबा रामदेव ने अपनी योगक्रियाओं का भी प्रदर्शन किया। इस सम्मेलन में 3 नवंबर को जो पच्चीस प्रस्ताव पारित किए गए उनमें एक प्रस्ताव वंदेमातरम्‌ को गैर-इस्लामिक करार देने का भी था। इस समय जब देश में वंदेमातरम्‌ का कोई मुद्दा ही नहीं था तब देवबंद में 10,000 से अधिक मौलवियों के समर्थन से इस तरह का फतवा जारी करना और फिर सम्मेलन के चौथे दिन आमंत्रित अतिथि बाबा रामदेव के बारे में यह जानते हुए भी कि उनके शिविरों में वंदेमातरम्‌ गाया जाता है, उनको अपमानित करनेवाला यह आदेश जारी करना कि बाबा रामदेव के शिविरों में भाग न लें क्योंकि, वहां वंदेमातरम्‌ गाया जाता है। यह साफ-साफ दर्शाता है कि यह सब जानबूझकर किया गया कृत्य है और इससे राजनीति की बू आती है। अन्यथा क्यों नहीं वे उन मुस्लिम लोगों-नेताओं को इस्लाम से खारिज करते जिन्होंने फतवे का विरोध किया, कर रहे हैं या वंदेमातरम्‌ गाते हैं। उदा. प्रसिद्ध गायक-संगीतकार ए. आर. रहमान जिन्होंने तो एक अल्बम ही वंदेमातरम्‌ पर निकाला था जिसकी रिकार्ड तोड बिक्री भी हुई थी। इस परिप्रेक्ष्य में बाबा रामदेव की यह घोषणा निश्चय ही स्वागत योग्य है कि 'मेरे जो कार्यक्रम होते हैं उनमें तिरंगा फहराया जाता है परंतु वंदेमातरम्‌ प्रतिदिन नहीं गाया जाता था। परंतु, अब वंदेमातरम्‌ का गान प्रतिदिन होगा, नियमित रुप से होगा।" इसके लिए वे निश्चय ही धन्यवाद के पात्र हैं।

देश में वंदेमातरम्‌ पर विवाद सबसे पहले तब शुरु हुआ जब दिसंबर 1923 में काकीनाडा में कांग्रेस के राष्ट्रीय अधिवेशन में गांधी-नेहरु और अन्य राष्ट्रीय नेताओं की उपस्थिति में अधिवेशन की अध्यक्षता कर रहे मौलाना मोहम्मद अली ने महान शास्त्रीय कलाकार पंडित विष्णु दिगंबर पलुस्करजी को वंदेमातरम्‌ गाने से रोक दिया और कहा था कि 'यह गीत इस्लाम विरोधी है इसलिए कोई भी मुसलमान इसे नहीं गाएगा"। पंडितजी बोले थे 'मौलाना याद रखो कि मैं राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में वंदेमातरम्‌ गा रहा हूं, अन्य किसी मंच से नहीं और यह किसी मजहब या समुदाय का दल नहीं है। इसलिए यह राष्ट्रगीत गाने से मुझे रोकने का अधिकार आपको किसने दिया?" हजारों की संख्या में उपस्थित श्रोताओं ने पंडितजी की तेजस्वी निर्भीकता का तालियां ंबजाकर स्वागत किया। यदि इस अति गंभीर मुद्दे को उस समय यूं ही न टाल दिया गया होता, समुचित उपचार किया गया होता तो आज यह परिस्थिति उत्पन्न न हुई होती और जो दुष्परिणाम विगत में देश विभाजन के रुप में भोगने पडे थे भोगने न पडते।

ये मोहम्मदअली अली बंधुओं में से एक हैं जिनके नेतृत्व में 'खिलाफत आंदोलन" चला था। जिसे गांधीजी ने एक वैचारिक आधार प्रदान कर कांग्रेस को भी अपने पीछे चलने के लिए विवश कर इस आंदोलन में पूरी शक्ति से भाग लिया था। गांधीजी द्वारा खिलाफत के प्रश्नको भारत के राष्ट्रीय आंदोलन का हिस्सा बनाने से उलेमाओं को प्रतिष्ठा मिली और विशाल मुस्लिम समाज की मजहबी कट्टरता संगठित होकर आंदोलन के रास्ते पर बढ़ी। खिलाफत की रक्षा का अर्थ इस्लाम के वर्चस्व की वापसी यह सोच मुस्लिम समाज में विकसित हुई और परिणामस्वरुप खिलाफत आंदोलन प्रारंभ होने के कुछ महीनों के भीतर ही अगस्त 1921 में मलाबार में मोपला मुसलमानों द्वारा हिंदुओं पर आक्रमण के रुप में सामने आई। ''भारत सेवक मंडल की जांच समिति के प्रतिवेदन के अनुसार इस कांड में 1500 हिंदू मार दिए गए, 20000 हिंदू बलात्‌ मुसलमान बना दिए गए और कोई 3 करोड रुपये की संपत्ति लूटी गई। हिंदू महिलाओं के साथ दुर्व्यव्हार और उनके अपहरण का तो कोई ठिकाना ही नहीं रहा। डॉ. एनी बेसैंट ने कहा है ः'उन्होंने जी भरकर हत्या की, लूटपाट की और उन सभी हिंदुओं को मार डाला अथवा खदेड दिया जिन्होंने अपना धर्म नहीं त्यागा। कोई एक लाख लोगों को उनके घरों से खदेड दिया गया। उस समय उनके तन पर केवल उनके कपडे ही थे, शेष सब छीन लिया गया।" उन्होंने यह आरोप भी लगाया कि इन सब भीषण अत्याचारों के लिए खिलाफत का सांप्रदायिक प्रचार ही उत्तरदायी था।"" इस भयंकर कांड ने गांधीजी को यह स्वीकारने के लिए बाध्य कर दिया कि 'बलात्‌ धर्मांतरण और लूटपाट के मोपला आचरण पर शर्मिंदगी और ग्लानि किसी मुस्लिम नेता ने व्यक्त नहीं की।" (यंग इंडिया 20 अक्टूबर 1921)

एक ओर तो मजहबी उन्माद जो सडकों पर उतर आया था, दूसरी ओर देश विभाजन और मुस्लिम बहुसंख्यावाले क्षेत्रों की बात भी खुलकर शुरु हो गई। दिसंबर 1921 में अहमदाबाद में कांग्रेस, खिलाफत कांफ्रेंस और मुस्लिम लीग के अधिवेशन अल्प समय पर साथ-साथ हुए थे। कांग्रेस और खिलाफत कांफ्रेंस की अध्यक्षता हकीम अजमल खां ने की तो, मुस्लिम लीग की अध्यक्षता मौ. हसरत मोहानी ने। मौ. ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि आमतौर पर मुसलमान हिंदुओं की बहुसंख्यक स्थिति से भयभीत है क्योंकि, पूरे भारत में मुसलमान अल्पसंख्या में हैं। किंतु कश्मीर, पंजाब, सिंध, बंगाल और असम जैसे प्रांतों में वे अल्पसंख्या में नहीं है। और इन प्रांतों में हमारी बहुसंख्या मद्रास, मुंबई और संयुक्त प्रांत आदि प्रांतों के हिंदू बहुमत को मुसलमानों पर जोरजबरदस्ती करने से रोकने का काम करेगी। यद्यपि मौ. ने सीधे-सीधे देश विभाजन की बात तो नहीं की तथापि, उन्होंने पहली बार मुस्लिम लीग के मंच से भारत के मानचित्र को हिंदू-मुस्लिम जनसंख्या के आधार पर विभाजित कर देखा, दोनो समाजों के बीच अविश्वास की गहरी खाई देखी और सांप्रदायिक हितों की रक्षा के लिए 'बंधक सिद्धांत" का प्रतिपादन किया। एक प्रकार से यह चिंतन-कथन देश विभाजन की ओर ही इंगित कर रहा था।

तुर्की में सत्ता परिवर्तन के साथ ही खिलाफत आंदोलन का जोश ठंडा पडने लगा परंतु जाग्रत मुस्लिम उन्माद कहर बनकर हिंदुओं पर टूट पडा जिसे ब्रिटिश सरकार ने हिंदू-मुस्लिम दंगों का नाम दिया। ''1923 के मार्च और अप्रैल में अमृतसर, मुलतान और पंजाब के अन्य भागों में गंभीरस्वरुप के दंगे हुए। मई में अमृतसर में फिर से दंगे हुए और सिंध में भी। जून-जुलाई में मुरादाबाद और मेरठ उसी प्रकार से इलाहबाद जिले में सांप्रदायिक उद्रेक हुए  और अजमेर में गंभीर दंगा भडका अगस्त सितंबर में अमृतसर, पानीपत, जबलपूर, गोंडा, आग्रा और रायबरेली में अशांत कर देनेवाले दंगे भडके। इन सब में सबसे अधिक गंभीरस्वरुप का दंगा सहारनपूर में मोहरम पर हुआ। बाद में दिल्ली, नागपूर, लाहौर, लखनऊ, भागलपूर, गुलबर्गा, शहाजहानपूर और काकीनाडा भी इन सबसे बच न सके। सितंबर 1924 में कोहट में बहुत बडा दंगा हुआ, लगभग 155 लोग मारे गए अथवा जख्मी हुए, लगभग 9 लाख रुपये कीमत के मकान और संपत्ति नष्ट हुई और बडे पैमाने पर संपत्ति की लूटपाट हुई। सारी हिंदू जनता कोहट छोडकर चली गई। डॉ. पट्टाभिसीतारमय्या ने 'हिंदी राष्ट्रीय कांग्रेस के इतिहास" में दर्ज किए अनुसार 9 और 10 सितंबर की गोलाबारी और कत्लेआम के बाद 4000 हिंदुओं को विशेष गाडियों से स्थानांतरित किया गया। उनमें से 2600 लोग रावलपिंडी में तो 1400 अन्य स्थानों पर लोगों के औदार्य पर दो महीने रहे थे।""

हिंदू-मुस्लिम एकता जिसके समर्थन मेंे गांधीजी ने अपनी अहिंसा के सिद्धांत को पराकाष्ठा की कसौटी पर लगा दिया था को खिलाफत आंदोलन अंग्रेजों से मुसलमानों को अलग कर कांग्रेस के साथ जोडने का एक सुनहरा अवसर लगा था। जबकि लोकमान्य तिलक, एनी बेसैन्ट, महामना मालवीयजी जैसे राष्ट्रीय आंदोलन के पुराने अनुभवी नेताओं ने गांधीजी को खिलाफत आंदोलन न अपनाने की सलाह दी। पर गांधीजी को लगा कि राष्ट्रीय एकता के हित में एक बार यह प्रयोग करना आवश्यक है। परंतु, इस खिलाफत के फलस्वरुप जो तनाव और हिंसा पूरे देश में फैली जिसका चरम कोहाट में प्रकट हुआ था ने गांधीजी को हिलाकर रख दिया। प्रायश्चित स्वरुप उन्होंने 17 सितंबर 1924 को 21 दिन का उपवास आरंभ कर दिया और इसके लिए स्थान चुना मौ. मोहम्मद अली का दिल्ली स्थित निवास स्थान। हिंदुओं पर हो रहे अत्याचारों के लिए उन्होंने स्वयं को दोषी माना। उनके सचिव और घनिष्ठ सहयोगी  महादेव देसाई द्वारा यह पूछने पर कि उनसे ऐसा कौनसा अपराध हो गया जो आप प्रायश्चित कर रहे हैं? गांधीजी के उत्तर को महादेव देसाई ने अपनी डायरी में इस प्रकार से लिपिबद्ध किया है ः'मेरी भूल क्यों नहीं? मुझ पर हिंदुओं के साथ विश्वासघात का आरोप लग सकता है। मैंने ही उन्हें मुसलमानों से दोस्ती करने का आग्रह किया। मैंने ही मुसलमानों के मजहबी स्थलों की रक्षा के लिए अपने प्राणों और संपत्ति को दांव पर लगाने का आवाहन किया। आज भी उन्हें अहिंसा का उपदेश दे रहा हूं, कह रहा हूं कि अपने झगडों का निपटारा मारकर नहीं स्वयं मर कर करें। और इस सब का क्या परिणाम मैं देख रहा हूं? .. हिंदू महिलाएं मुसलमान गुंडों के डर से थर-थर कांप रही हैं, कई स्थानों पर वे अकेले बाहर निकलने से डरती हैं। मुझे अमुक का पत्र मिला है। उसके नन्हें बच्चों को जिस तरह सताया गया उसे मैं कैसे सहन करुं?"

कोहाट में जो कुछ घटा उससे अधिक पीडा तो गांधीजी को अली बंधुओं की सोच और व्यवहार से हुई। अली बंधुओं ने कोहाट के दंगों के लिए हिंदुओं को ही दोषी ठहराते हुए कहा कि हिंदुओं ने पैगंबर मुहम्मद के प्रति एक अपमानजनक पत्रक वितरीत कर मुसलमानों की मजहबी भावनाओं पर आघात किया  और एक हिंदू ने पहले गोली चलाकर मुसलमानों को आक्रमण के लिए उत्तेजित किया। अली बंधुओं में से एक मोहम्मद अली जो दिसंबर 1923 के कांग्रेस के काकीनाडा अधिवेशन के अध्यक्ष थे ने अपने अध्यक्षीय भाषण में हिंदू-मुस्लिम समस्या को हल करने के लिए लज्जाजनक सुझाव दिया था कि अछूत कहे जानेवाले हिंदुओं का बंटवारा कर लिया जाए। इन्हीं मोहम्मद अली ने दिसंबर 1924 में बंबई में मुस्लिम लीग के अधिवेशन में पारित करने के लिए भेजे गए अपने प्रस्ताव में उक्त आरोप को दोहराया था। गांधीजी को इस प्रस्ताव से बहुत पीडा हुई और उन्होंने इसका मोहम्मद अली को पत्र लिखकर तीव्र प्रतिवाद किया।

दूसरे अली बंधू ने तो और भी अधिक पीडा पहुंचाई। कोहाट दंगों की जांच के लिए कांग्रेस ने गांधीजी और शौकतअली की कमेटी बनाई थी जो अंग्रेजों द्वारा कोहाट जाने देने की अनुमति न मिलने कारण जांच के लिए रावलपिंडी के शरणार्थी शिविर में पहुंची। वहां शौकतअली मोहम्मदअली की लाइन पर ही जांच को आगे बढ़ाने की कोशिश करते रहे। जबकि गांधीजी ने जड तक पहुंचने के लिए अनेक लोगों से जिरह की और इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि कोहाट में लंबे समय से हिंदुओं का भय और प्रलोभन से धर्मांतरण-मतांतरण का कार्य चल रहा था। एक मुस्लिम साथी पीर कमाल ने स्वीकार किया कि प्रत्येक शुक्रवार को मस्जिद में मतांतरण किया जाता था। कई बार विवाहित स्त्रियों को भी मुस्लिम बनाया जाता था। मतांतरण के बाद झगडा होता था कि वह किसकी बीबी बने। जिन घटनाओं को दंगे का कारण बताया जा रहा है वह मतांतरण की प्रतिक्रिया मात्र थी, कारण नहीं। इसी दौरान शौकतअली के अंतर्मन को टटोलने पर उन्होंने पाया कि वे इस्लाम में मतांतरण को उचित व जायज समझते हैं। गांधीजी द्वारा बहुत प्रयास करने पर भी दोनो एकमत न हो सके और अंत में दोनो ने ही अपनी-अपनी अलग-अलग जांच रपट व कारण मीमांसा प्रस्तुत की।

इस अनुभव ने गांधीजी को बहुत विचलित कर दिया। रावलपिंडी से लौटकर गांधीजी ने वल्लभभाई पटेल से कहा 'मन करता है कि सब काम छोडकर खुद को आश्रम में बंद कर लूं। इस गंदे राजनीतिक वातावरण में कोई कितनी देर जी सकता है? लगता है राजनीति मेरे जैसे आदमी के लिए नहीं है।" आश्रम लौटकर उन्होंने लोगों से कहा कि 'कोहाट के दंगों का मूल कारण धर्मांतरण है। तेज रफ्तार से हो रहे धर्मांतरण के बारे में जब हिंदू चौकन्ने हुए तो मुसलमानों को यह पसंद नहीं आया और वे बदला लेने के लिए कोई मौका ढूंढ़ने लगे। उस आपत्तिजनक पत्रक को उन्होंने बदला लेने का बहाना बनाया। गांधीजी ने आगे कहा 'अगर सबके सब हिंदू मुस्लिम धर्म के ग्रंथों का पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर अपने निजी बौद्धिक विश्वास के आधार पर इस्लाम कबूल कर लें तब मैं पृथ्वी पर अकेला ही हिंदू होने का संतोष कर लूंगा। तब मैं अपनी जीवनशैली से हिंदू धर्म का उजाला फैला सकूंगा। किंतु भय या प्रलोभन से मुसलमान बनाना मुझे बर्दाश्त नहीं है। वहां ऐसा ही हुआ। आप लोगों से मैं यह सब इसलिए कह रहा हूं कि आप अपने धर्म के प्रति निष्ठा में अडिग रहें। मेरा एकमात्र उद्देश्य इस पवित्र उषाकाल में आपको जगाना और चौकस करना है। यह मैं इसलिए कह रहा हूं क्योंकि हो सकता है किसी दिन आपको भी ऐसी परिस्थिति का सामना करना पड जाए। यदि आश्रम से किसी बच्चे, लडके या लडकी का अपहरण हो तो, मेरी अहिंसा का गलत अर्थ निकाल कर मूकदर्शक मत बने रहना।"

खिलाफत आंदोलन के कटु-अनिष्टकारी परिणामों के कारण '1921-22 में शुरु हुए दंगे सालों तक संयुक्त-प्रांत, मुंबई, बंगाल, मध्य-प्रांत, बिहार, उडिसा, पंजाब, वायव्य सीमा-प्रांत और दिल्ली में चलते रहे।" क्या आज देवबंद, जिसको मुस्लिम जगत में वही मान्यता प्राप्त है जो 1000 साल पुराने इजिप्त के अल-अजहर विश्वविद्यालय को प्राप्त है और इसी मदरसे से निकले आलिमों (विद्वान) ने पूरे भारत नें मदरसों का जाल बिछाया है, के मौलाना फिर से यह सब दोहराना चाहते हैं, क्या वे इन दंगों को फिर से शुरु करना चाहते हैं, क्या वे एक और विभाजन चाहते हैं, जो इस प्रकार के फतवे एकमत होकर दे रहे हैं।

यह है वह पृष्ठभूमि जो वंदेमातरम्‌ को गैर-इस्लामिक करार देने से जुडी हुई है। जबकि वंदेमातरम्‌ में इबादत है, वंदन है। जिस प्रकार से हिंदी में प्रणाम, मुस्लिमों में सलाम या आदाब है वैसे ही यह वंदन है। जिसके प्रति श्रद्धा हो उसे ही वंदन किया जाता है। परंतु, जिनकी दीनी सीख में ही अपनापन, श्रद्धा की भावना केवल हिजाज (मक्का-मदीना का भूभाग) के प्रति ही हो जो मक्का की भूमि को ही इतना पावन मानते हों कि हज करने के तरीके में यह भी बयान किया जाता है कि ''अगर मुमकिन हो तो हरम (मक्का के आस-पास का क्षेत्र, काबा) की जमीन में पैदल चलें और बहुत आजिजी (विनम्रता) से कदम उठाएं। इस तरह चलें कि जैसे कोई आजिज (विनम्र) और मिस्कीन (सीधा-सादा, सरल) आदमी बादशहा के दरबार में हाजिर होता है।""(बहिश्ती जेवर-दीन की बातें, पृ.205, रचयिता-मौ. अशरफ अली थानवी, दीनी बुक डिपो, उर्दू बाजार, दिल्ली) मक्का की मिट्टी को इतना पवित्र माना जाता है कि जब किसी मुर्दें को दफन किया जाता है तो उसकी छाती पर ''मक्का की मिट्टी से धार्मिक वचन (अर्थात्‌ कुरान की आयतें) लिखे जाते हैं।""(इस्लामची जीवनपद्धती पृ.59, जफर शरीफ लिखित 'कानून-इ-इस्लाम" या ग्रंथाचा अनुवाद अनुवादक प्रा. अ.प.सूर्यवंशी- प्रकाशक, सचिव, महाराष्ट्र राज्य साहित्य संस्कृती मंडळ, सचिवालय, मुंबई) और जो कफन ओढ़ाया जाता है उसका ''कपडा जमजम के पानी में डूबाया हुआ होता है।""(पृ.60) और ''मुँह पश्चिम की ओर यानी मक्का, यानी किबला (नमाज पढ़ने की दिशा अर्थात्‌ ही मक्का का काबागृह) की ओर होता है।""(61) इस्लामी मान्यता के अनुसार अल्लाह की सबसे बडी नियामत (अलभ्य अथवा दुर्लभ वस्तु, पक्वान, धन-दौलत) आबे जमजम अर्थात्‌ जमजम का पानी है। इसीलिए हजयात्रा कर लौटते समय हजयात्री जमजम का पानी साथ लेकर आते हैं। ''रमजान का उपवास (रोजा) छोडते समय इसका थोडासा पानी पिते हैं अथवा सभी के उपयोग के लिए रखे पानी में इसकी कुछ बूंदे डालते हैं। ऐसा करने के पीछे सभी पापों का नाश हो यह उद्देश्य रहता है। कुछ दृष्टि सुधार के लिए इसका पानी आँखों को लगाते हैं। यह पानी यात्री अपनी शान दिखाने के लिए भी अन्य समय पर पिते हैं। वैसेही मरणोन्मुख व्यक्ति को यह पानी शुद्धरुप में अथवा शरबत में मिलाकर पिलाते हैं। एकाध व्यक्ति को अरबी भाषा का उच्चारण न आता हो तो उसे यह पानी घूंटभर पिलाने से उसे उच्चारण तत्काल आ जाता है ऐसी मान्यता है।"" (74) इसीलिए तो जब शिया नेता कल्बे सादिक ने हरिद्वार में आयोजित होनेवाले आगामी कुंभ में शामिल होकर गंगा-स्नान करने की इच्छा प्रकट की तो कुछ ने व्यंगात्मक ढ़ंग से आलोचना की तो कुछ ने विरोध दर्शाया।

इस प्रकार की मान्यताओं-श्रद्धाओं के कारण जब यह प्रश्न पूछा जाता है मजहब बडा कि देश तो संतोषपूर्ण जवाब मुसलमानों की ओर से नहीं मिलता। कवि रविंद्रनाथ ठाकूर ने 1924 में एक बंगाली वृत्तपत्र के प्रतिनिधि के सामने यह उद्‌गार निकाले थे ''मैंने अनेक मुसलमानों को यह प्रश्न अत्यंत स्पष्टरुप से पूछा था कि अगर एकाध मुस्लिम देश ने हिंदुस्थान पर हमला किया तो ऐसे समय में मुसलमान अपनी सभी लोगों की मातृभूमि की रक्षा के लिए हिंदुओं के कंधे से कंधा मिलाकर खडे रहेंगे क्या? और इसका मुझे कोई संतोषजनक जवाब नहीं मिला। आगे उन्होंने ऐसा भी कहा कि, मैं निश्चितरुप से यह कह सकता हूं कि, मोहम्मदअली जैसे लोगों ने जाहिर रुप से कहा था कि मुसलमान, फिर वह किसी भी देश का हो उसे दूसरे मुसलमान के विरुद्ध खडे रहने की अनुमति नहीं।""

जब इस प्रकार की मान्यताएं-श्रद्धाएं हैं तो उनकी उपज 'वंदेमातरम्‌ नहीं गाएंगे" के रुप में ही सामने आएंगी तो उद्धव ठाकरे, विनय कटियार जैसे लोग कहेंगे ही कि 'जो लोग वंदेमातरम्‌ नहीं बोल सकते उन्हें देश में रहने का अधिकार नहीं। वे पाकिस्तान चले जाएं।" और कोई किस मुँह से इन्हें ऐसा कहने से रोक सकता है, गलत कह सकता है। वस्तुतः सत्य को तो डॉ. अम्बेडकर और वीर सावरकर ने पहचाना था और विभाजन के समय विभाजन शांतिपूर्वक निपट जाए खूनखराबा न हो इसके लिए आबादी की अदला-बदली का हल प्रस्तुत किया था। यदि उक्त हल अमल में लाया जाता तो लाखों लोग बेघर नहीं होते, लाखों लोगों की हत्याएं न होती, हजारों स्त्रियों की अस्मत लूटी न जाती, करोडों की संपत्ति नष्ट न होती। परंतु, अब जब जागे तभी सबेरा की तर्ज पर इस फतवे को गंभीरता से लेना होगा क्योंकि, मुद्दे जस के तस हैं मतलब एक और विभाजन की तैयारी। दरअसल जिन नेताओं ने विभाजन के समय इन जैसों को पाकिस्तान जाने से रोका था उन्होंने उसी समय इन जैसों के नेतृत्व से यह वचन क्यों नहीं ले लिया था कि 'गर इस देश में रहना है तो वंदेमातरम्‌ गाना होगा"। क्योंकि देशभक्त बनने के लिए आवश्यक है मातृभूमि से प्यार।

Thursday, January 12, 2012

रीयल आयडॉल्स

श्री अण्णा हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के समर्थन में एक बडा जनसमूह उमड पडा था तो मुझे कोई बहुत आश्चर्य नहीं हुआ। क्योंकि, जनता महंगाई और भ्रष्टाचार की अति से तंग आ चूकी है इसलिए जब उन्हें लगा कि एक साफ-सुथरा, ईमानदार व्यक्ति हमारी लडाई लडने के लिए आगे आया है तो, वे उसके साथ हो लिए। इस आक्रोशित जनसमूह में एक बडी संख्या युवाओं की भी थी। यह देखकर भी कोई आश्चर्य नहीं हुआ। क्योंकि तरुणाई तो हमेशा से ही जोश और उत्साह से भरी हुई होती है जो कुछ कर गुजरने की चाह रखती है, कुछ कर गुजरने का माद्दा रखती है और इसीलिए किसी भी क्रांति या बदलाव में वे ही सबसे अधिक अग्रिम मोर्चे पर नजर आते हैं। यहां तक तो ठीक है परंतु, जब मैं यह देखता हूं कि सेना में युवा अधिकारियों की कमी खल रही है। हजारों की संख्या में कमिशन्ड अधिकारियों के पद रिक्त पडे हुए हैं। यही हाल समाज सेवा का क्षेत्र हो, राजनीति का हो, किसी शोध एवं अनुसंधान कार्य का हो, गणित या विज्ञान का क्षेत्र हो, तो इन क्षेत्रों में यह युवाओं की भीड नदारद नजर आती है। तो, मैं सोच में पड जाता हूं कि, ऐसा क्यों?

तो, विचारोपरांत मैं पाता हूं कि, इन युवाओं की प्राथमिकताएं बदल गई हैं। युवाओं का एक बहुत बडा तबका फास्ट मनी के पीछे हैं, कंपनियों के ग्लैमर, पैकेज संस्कृति के पीछे है। जिससे कि वे अधिकाधिक धन, भौतिक सुख-सुविधाएं जुटा सकें। इनके आयडॉल्स बदल गए हैं और उनकी इस प्रवृति को बढ़ावा दे रहे हैं टी.वी. शोज जैसेकि, कौन बनेगा करोडपति, गाने-बजाने के रीयल आयडॉल्स की प्रतिस्पर्धा वाले कार्यक्रम जिनमें युवा दंपत्ति अपने छोट-छोटे मासूम बच्चों को प्रतिभागी बना बिना सोचे-समझे  कि इसका परिणाम भविष्य में उस मासूम पर क्या होगा डटे हुए हैं।

इसीलिए यह युवा सेना जैसे देशभक्ति के रोमांचक, आव्हानात्मक केरियर वाले क्षेत्र की उपेक्षा कर इन नकली चकाचौंध वाले  क्षेत्रों की ओर दौड रहा है। शोध कार्य, समाजसेवा जैसे लोकहितकारी क्षेत्रों को नीरस, ऊबाऊ समझता है तो, राजनीति को चोरों का क्षेत्र। जबकि राजनीति जीवन के हर पहलू का स्पर्श करती है, अपना प्रभाव डालती है, इसके प्रभाव से कोई अछूता नहीं। यह सही है कि राजनीति के क्षेत्र में चोरों, गुंडों की भरमार हो गई है लेकिन यह हुई ही इसलिए है कि अच्छे लोग गए नहीं।

यदि हम ध्यान से देखें तो राजनीति में दो ही वर्ग के लोग ज्यादा हैं। पहला वर्ग वह है जो सडक पर खडा है या तो स्वयं ही बाहुबलि है, गुंडा है या गुंडा प्रवृति का होकर धन, सत्ता, के लिए कुछ भी कर सकता है और कुछ भी नहीं जमा, कहीं भी सफलता हासिल नहीं कर पाया इसलिए राजनीति के क्षेत्र में चला आया है। दूसरा वर्ग वह है जिसका पेट भरा हुआ है, साधन-संपन्न है वह उच्चवर्ग का होकर उसने राजनीति को जो कुछ उसके पास है उसको सुरक्षित रखने का और अधिकाधिक जुटाने का माध्यम बना लिया है, ऐसे लोग भला हमारी चिंता क्यों पालने लगे !
वास्तव में हर क्रांति, हर बदलाव के पीछे होता है पढ़ा-लिखा मध्यम वर्ग। क्योंकि, सबसे ज्यादा सोचता भी वही है तथा समाज सेवा, समाज सुधार, जनप्रबोधन, जनजागरण के कार्य में सबसे आगे भी यही वर्ग रहता है और समय आने पर कुशल नेतृत्व भी वही प्रदान कर सकता है, करता है और इतिहास इसका गवाह है। परंतु, असली समस्या यह है कि इस वर्ग ने अब अपनी प्राथमिकताएं बदल ली हैं, यही वर्ग पहले सबसे अधिक समाज सेवा के क्षेत्र में जाता था, समाज सुधार में अग्रणी था। राजनीति में भी जाकर सबसे अधिक साफ-सुथरा रहने का प्रयत्न करता था। परंतु, इस वर्ग के आयडॉल्स अब समाज सेवा के अग्रणी जैसेकि, बाबा आमटे, उनके पुत्र डॉ. प्रकाश आमटे आदि जैसे समर्पित या किसी शोध कार्य में खप जाने वाले संदीप वासलेकर आदि या कोई समाज सुधारक नहीं रहे। और यही वर्ग आज सबसे अधिक फास्टमनी, कार्पोरेट सेक्टर के ग्लैमर, पैकेज के पीछे है।
वैसे इसके भी कारण हैं। मेरी दृष्टि में जो प्रमुख कारण हैं वह यह कि इस वर्ग में यह भावना पैदा हो गई है कि दूसरे ही क्यों करोडपति बनें हम क्यों नहीं? और वर्तमान की उदारीकरण, वैश्विकरण की नीतियों से उपजे इस नए परिवेश में जब हमें मौका मिल रहा है तो हम क्यों पीछे रहें? और वास्तविकता भी यही है कि यही वर्ग सबसे अधिक भ्रष्टाचार, राजनीति गंदी है, सारे राजनीतिज्ञ चोर हैं का शोर भी मचा रहा है।

यह वर्ग जो सबसे अधिक अपने सामाजिक दायित्व को निभाता था एकदम निष्क्रिय सा इसलिए भी हो गया है क्योंकि, इनके पूर्ववर्तियों ने जो सेवा आदि उपर्युक्त क्षेत्रों में गए उन्होंने कभी सोचा ही नहीं कि मनुष्य को विचारों के साथ-साथ पेट भी होता है बस वे तो अपनी धुन में बिना घर-परिवार की चिंता किए, उन्हें उपेक्षित छोड अपने कार्य में लगे रहे। उसका जो दुष्परिणाम सामने आना ही था वही अब प्रखरता से सामने आ रहा है। अतः यदि वर्तमान परिस्थितियों को बदलना है तो इस वर्ग को अपनी प्राथमिकताओं पर पुनर्विचार करना होगा। क्योंकि, जिस रौं में वे बहे जा रहे हैं उसके दुष्परिणाम भी सामने आने लगे हैं।
 ब्लॉगर - कणाद shirish-sapre.blogspot.com

Saturday, January 7, 2012

विचारों के आदान -प्रदान का एक प्रभावी माध्यम इंटरनेट

लंदन का हाईड पार्क वहां वर्षभर होने वाले अनेकानेक असाधारण बडे सार्वजनिक आयोजनों के लिए प्रसिद्ध है। इस पार्क की एक विशेषता और भी है और वह यह कि वहां एक स्थान ऐसा भी है जहां एक बेंच पर खडे होकर कोई भी व्यक्ति अपने विचार मुक्त रुप से रख सकता है और विशेषता यह है कि उसे श्रोता भी मिल जाते हैं। वर्तमान में लोकप्रिय फेसबुक, आरकुट, ट्‌विट्‌र जैसी सोशल साइट्‌स भी कुछ इसी प्रकार के मंच जैसा कार्य कर रही हैं। निश्चय ही ये साइट्‌स मुक्त एवं स्वतंत्र विचारों के आदान-प्रदान का एक महत्वपूर्ण मंच बनकर उभरी हैं और करोडों-अरबों लोग इन साइट्‌स का लाभ अनेकानेक ढ़ंग से उठा भी रहे हैं। उनमें टाइमपास करने, व्यवासायिक लाभ उठाने आदि से लेकर ज्ञान आदान-प्रदान करने जैसे कार्य भी सम्मिलित हैं।

ज्ञान की महिमा को तो सभी धर्मों ने स्वीकारा है। गीता में कहा गया है - ना हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिहविद्यते। अर्थात्‌ इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला निस्संदेह कुछ भी नहीं है। ""ज्ञानदेव तु कैवल्यम्‌। ज्ञान के कारण ही मोक्ष की प्राप्ति होती है।'' भगवान राम युद्ध में पराजित और मरणासन्न रावण के पास अपने लघु भ्राता लक्ष्मण को ज्ञान प्राप्त करने के लिए भेजते हैं। योग वसिष्ठ में महर्षि वसिष्ठ भगवान राम को कहते हैं - ज्ञानवान्‌ एव सुखवान्‌, ज्ञानवान्‌ एव जीवति। ज्ञानवान्‌ एव बलवान्‌, तस्मात्‌ ज्ञानमयो भव।।

ज्ञान और विचारों के मुक्त आदान-प्रदान की, अभिव्यक्ति की, अपने-अपने विचारों को मानने की स्वतंत्रता तो हमारे यहां प्राचीनकाल से ही है। निराकार के पूजक सिख धर्म के संस्थापक गुरुनानकदेवजी के सुपुत्र श्रीचंदजी साकार के पूजक निकले और प्रसिद्ध उदासीन आश्रम की स्थापना की। महांकाल की पेढ़ी पर बैठक चार्वाक घोषणा करते हैं - यावज्जीवेत्सुखं जीवेत्‌ ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत्‌। भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः ।। उन्हें भी हम ऋषि परंपरा में गिनते हैं और उन्हें भी भक्त प्राप्त हैं तथा उनके विचारों को चार्वाक या लोकायत दर्शन माना जाता है। आद्य शंकराचार्य अद्वैत पर भाष्य करते हैं और मूर्तिपूजकों के लिए मंत्रो की रचना भी करते हैं।

महाराष्ट्र में भी लगभग 138 वर्षों की परंपरावाली वसंत व्याख्यानमाला का आयोजन हर वर्ष होता है। जिसका शुभारंभ प्रसिद्ध समाज सुधारक न्यायाधीश महादेव गोविंद रानडेजी द्वारा किया गया था। जिसे बाद में लोकमान्य तिलकजी ने आगे बढ़ाया। यह व्याख्यानमाला आरंभ करने के पीछे विचार यह था कि विविध प्रकार के व्याख्यान, विविध विषयों पर आयोजित किए जाएं, क्योंकि उस समय समाचार पत्र सरलता से उपलब्ध नहीं होते थे। और यह व्याख्यानमाला ज्ञान प्रदान करने का माध्यम बन सके। अब यह व्याख्यानमाला फेसबुक  और ट्‌विट्‌र पर भी अपनी उपस्थिति दर्ज करा चूकी है।

इस प्रकार से विविधता को स्वीकारने और ज्ञान की परंपरा को माननेवाले हम हिंदुस्थानी यदि फेसबुक आदि जैसी सोशल साइट्‌स से बडी संख्या में न जुडते तो ही आश्चर्य होता। परंतु, इस लाभदायी उपक्रम को कुछ लोगो ने अश्लीलता, असभ्यता-अभद्रता, अशालीनता फैलाने का माध्यम बना दिया है। जिस प्रकार से अभद्र, अशालीन टिप्पणियां, अश्लील फोटो फेसबुक पर चस्पा किए जा रहे हैं या कुछ लोगों द्वारा दूसरों के अकाउंट को हैक कर अश्लील व्हिडीओ आदि सामग्रियां लोड की जा रही हैं यह निश्चय ही चिंतनीय एवं आपत्तिजनक, अवैधानिक, स्वतंत्रता का दुरुपयोग करना ही है। इस प्रकार के कृत्यों पर कुछ लोग प्रतिबंध लगाने की बातें कर रहे हैं तो कुछ लोग इसे स्वतंत्रता का हनन समझकर विरोध प्रकट कर रहे हैं। इस संबंध में चिंतक सावरकरजी की यह टिप्पणियां विचारणीय हैं -

1). किसी व्यक्ति का अथवा समाज की केवल मानहानि, केवल उपमर्द या केवल हानि करने की दुष्ट बुद्धि से घृणित या असभ्य भाषा में जो लिखा जाए वही वाड्‌मय ही अनैर्बंधिक (गैर-कानूनी) या अप्रसिद्धेय समझा जाना चाहिए।

 2). ... सत्य जिज्ञासा से या तथ्य प्रतिपादन के उद्देश्य से जिस मत की प्रस्थापना कोई करना चाहता है उसे जहां तक संभव हो सके प्रतिबंध नहीं होना चाहिए। लेखन अथवा उपदेश की स्वतंत्रता होनी चाहिए। इसके कारण पवित्रता का विडंबन हो रहा है ऐसा किसी को लगता हो तो उसका यह मत गलत है ऐसा विरुद्ध पक्ष द्वारा साधार प्रतिपादन किया जाना चाहिए; यानी उसके विडंबन की अप्रतिष्ठा हुए बगैर रहेगी नहीं। उसका कहना सत्य अथवा तथ्य ठहरा तो अपन ने भलती ही बात को असत्य अथवा अतथ्य बात को पवित्रता दी थी यह अपने ध्यान में आएगा। सत्य की ओर तथा तथ्य की ओर मनुष्य की  अधिक प्रगति होगी।

Thursday, January 5, 2012

बुरका

स्त्री-पुरुष के मध्य आकर्षण प्रकृत्ति प्रदत्त है यह एक जानी-पहचानी बात है। यह आकर्षण कहीं अनैतिक रुप धारण न कर ले इसलिए सभी धर्मों और उनके धर्मग्रंथों में इस आकर्षण को नियंत्रित रखने के लिए कुछ नियम, कुछ आज्ञाएं आई हुई हैं। कुरान में भी हैं। इतना होने के बावजूद जब पैगंबर को अनुभव हुआ कि इस आकर्षण का अतिरेक कहीं इन नियमों-आज्ञाओं का उल्लंघन कर सामाजिक मर्यादाओं को भंग न कर दे तो इस्लाम में परदा-बुरका का प्रादुर्भाव हुआ। परदा या बुरका की परंपरा कोई नई न होकर ईसा से 300 वर्ष पूर्व कुलीन-अभिजात वर्ग की असीरियन महिलाओं में परदा प्रथा थी। साधारण महिलाओं और वेश्याओं को परदे की अनुमति नहीं थी। मध्यकाल में यद्यपि एंग्लो-सेक्सन महिलाएं अपने बालों और चेहरे को ढ़ंाकने के लिए एक कपडे को उपयोग में लाती थी। फिर भी स्पष्टरुप से वह कोई धार्मिक प्रथा नहीं थी। धार्मिक रुप से कॅथलिक नन और मॉरमन्स यद्यपि बहुत बाद में धार्मिक समारोहों और कर्मकांडों में परदे को उपयोग में लाती थी। परंतु, मुुस्लिम महिलाओं के लिए इस प्रकार का धार्मिक परदा केवल कुछ कर्मकांडों तक ही सीमित नहीं बल्कि प्रतिदिन के लिए जीवन में धार्मिक दृष्टि से भी बाध्यकारी है। भारत के संदर्भ में ''उच्च कुल की नारियां बिना अवगुंठन के बाहर नहीं आती थी, किंतु साधारण स्त्रियों के साथ ऐसी बात नहीं थी। उत्तरी एवं पूर्वी भारत में परदा की प्रथा जो सर्वसाधारण में पाई जाती है उसका आरंभ मुसलमानों के आगमन से हुआ।"" (धर्मशास्त्र का इतिहास- पृ. 337)

'प्राचीन अरबस्थान में परदे के संबंध में विभिन्न प्रथाएं थी। रेगिस्तानी प्रदेश में रहनेवाले समाज की स्त्रियां परदा न करते ही पुरुषों के मध्य उन्मुक्ततापूर्वक विचरन करती थी। तो, नगर में रहनेवाली स्त्रियां परदा करती थी। स्वयं पैगंबर की कुरैश जाति की सभी स्त्रियां परदा करती थी। इतिहासकार फकी के कथनानुसार प्राचीन मक्कावासी अपनी अविवाहित लडकियों और स्त्री गुलामों को तडक-भडकवाले कपडे पहनाकर और बिना बुरके के उनकी काबा के आस-पास प्रदर्शनी लगाते थे। उनके लिए विवाह प्रस्ताव अथवा उन्हें खरीदने के लिए कोई आए ऐसी उनकी अपेक्षा रहती थी। वह पूरी होने के बाद वे स्त्रियां हमेशा के लिए बुरका धारण कर लेती। मुहम्मद साहेब ने अपने घर की स्त्रियों को 'अज्ञानकाल" (इस्लामपूर्व काल) के अनुसार सज-संवरकर सार्वजनिक स्थानों पर न घूमने की और घर में ही रहने की आज्ञाएं दी। वे कुरान में इस प्रकार से आई हुई हैं ''ऐ नबी की पत्नियों! तुम दूसरी औरतों की तरह नहीं हो।""(33ः32) ''अपने घरों में ठहरी रहो और पिछली जाहिलियत की सी नुमाईश न करो।""(33ः33) स्पष्ट है कि यह आज्ञाएं उपर्युक्त 'अधार्मिक प्रथा" के संबंध में हैं।"(इस्लामची सामाजिक रचना - पृ.125)

इसी सूरह में आया हुआ है ''ऐ नबी! अपनी पत्नियों और अपनी बेटियों और ईमानवालों की औरतों से कह दो कि अपने ऊपर अपनी चादरें डाल लिया करें। यह इस लिहाज से अधिक मुनासिब है कि उनकी पहचान हो जाए और सताई न जाएं।""(33ः59) इस पर कुर्आन भाष्य कहता है ''अपने ऊपर अपनी चादरें डाल लिया करें" इससे पता चल जाएगा कि वे शरीफ और हयादार औरतें हैं ... मतलब यह है कि मुसलमान औरतें जब घर से निकलें तो अपने ऊपर ऐसा कपडा डाल कर निकलें जो ओढ़नी से बडा हो और जो उनके शरीर और उनके परिधान को छिपाए। इससे अभिप्रेत शरीर के खुले हिस्सों और परिधानों के बनाव सिंगार को छिपाना है।"" (दअ्‌वतुल कुर्आन खंड3 पृ. 1499) सूरह 'नूर" की आयत 31 में जो इसके बाद अवतरित हुई है औरतों को जहां अपने बनाव-सिंगार छिपाने का आदेश दिया गया है वहां 'सिवाय उसके जो जाहिर हो जाए" की रिआयत भी दी गई है।""(1499) ''इसलिए यदि हाथ और चेहरा अपने श्रंगार के साथ दिख जाता है तो औरत को इसकी छूट हैै। हदीसों से साबित होता है कि मुहम्मद साहेब के जमाने में औरते चेहरे का परदा करती थी और नहीं भी करती थी।""(द.कु.खं.2 पृ.1203) अतः ''चेहरा और हाथों को छिपाने और चादर को इस तरह सर से पांव तक लपेट लेने पर हठ पकडना कि लिबास का कोई भाग कतई खुलने न पाए, कुर्आन के एक व्यापक आदेश में कडाई पैदा करने के सिवा कुछ नहीं। यह कडाई यदि अतीत में की गई थी तो वह उस समय के हालात में स्वीकार ली गई होंगी परंतु मौजूदा हालात में जबकि औरतों को अपनी बहुत सी जरुरतों को पूरा करने और अपनी बहुतेरी जिम्मेदारियों को अंजाम देने के लिए घर से निकलना पडता है, परदे के हुक्म में इस कडाई के पैदा करने से उनके लिए बडी कठिनाई और अवरोध उत्पन्न हो सकते हैं और इसका नतीजा यह भी निकल सकता है कि औरतें परदे को अव्यवहारिक बताकर बिल्कूल ही त्याग दें। इसलिए बीच की राह का लिहाज करना आवश्यक है।""(द.कु.खं.3 पृ. 1499)

इसी सूरह में आया हुआ है ''ऐ लोगों जो ईमान (इस्लाम पर श्रद्धा) लाए हो। नबी (मुहम्मद साहेब) के घरों में दाखिल न हो मगर उस समय तक जब तुम्हें नबी की पत्नियों से कोई चीज मांगना हो तो परदे के पीछे से मांगों तुम्हारे लिए यह हरगिज जायज नहीं कि अल्लाह के रसूल को कष्ट दो और न यह जायज है कि इसके बाद भी कभी तुम उनकी पत्नियों से निकाह करो।"" (33ः53) इस पर कुर्आन भाष्यकार बैदावी की टीका इस प्रकार से है ''उमर द्वारा इस प्रकार से कहा गया 'ऐ परमेश्वर के दूत, आपके घर आनेवाले मनुष्य सीधे-सादे अथवा दुष्ट भी हो सकते हैं। इसलिए धर्मनिष्ठों (मुसलमानों) की मॉंओं (यानी पैगंबर की पत्नियों) को बुरका पहनना चाहिए इस प्रकार की आज्ञा आपके द्वारा दी जाना योग्य होगा इसके बाद पैगंबर को इन वचनों का साक्षात्कार हुआ। अपने घर की स्त्रियों द्वारा अपने कबीले की पुरानी प्रथा का पालन किया जाना चाहिए ऐसा मुहम्मद साहेब का मत होना चाहिए, ऐसा इस पर से स्पष्ट रुप से दिखाई पडता है। परंतु, मुहम्मद साहेब के परिवार की ही एक स्त्री भर यह पुरानी परिपाटी अथवा मुहम्मद साहेब की इच्छा बंधनकारक मानने को तैयार नहीं थी। उनकी पत्नी की भांजी ने-आयशा ने-इस मामले में वह स्वतंत्र है का आग्रह किया। पति के विरोध की परवाह न करते बुरका न पहनते वह लोगों के मध्य विचरन करती थी।""(126)
''हिजरी की तीसरी शताब्दी तक और उसके बाद भी मस्जिद में जाकर पुरुषों के साथ नमाज पढ़ने का अधिकार स्त्रियों को था। उमर द्वारा सार्वजनिक नमाज के साथ स्त्रियों को कुरान पढ़कर दिखलाने के लिए एक विशेष व्यक्ति की नियुक्ति की गई थी। उस समय स्त्रियों द्वारा बुरका ना भी पहना हो तो चलता था। परंतु, सार्वजनिक नमाज के समय स्त्रियों द्वारा पहनी जानेेवाली पोशाक के विषय में कानून में सूचनाएं हैं। छाती पर चोली और माथेके ऊपर ओर बुरका और शरीर पर अंगरखा होना चाहिए। चेहरा, हाथ और पांवों के निकट के ऊपरी भाग आच्छादित करने की जरुरत नहीं। इनमें से पांवों के ऊपर का भाग ढ़ंका जाए कि नहीं इस पर मतभेद हैं। पेंटट्‌यूक (बाइबल की पांच पुस्तकें) के यहूदी भाष्यकारों ने बाइबल की आज्ञाओं का पूर्णरुप से पालन हो इसके प्रति सावधान रहकर जिस प्रकार से 'आज्ञाओं की झाडबंदी" की, उसी प्रकार से कुरान के भाष्यकारों को भी कुरान में जो आदेश मूलतः कहे गए हैं उनसे भी अधिक किया जाए की अपेक्षा थी। पैगंबर ने मूलतः अपने स्वयं के घर की स्त्रियों, लडकियों को बुरके के संबंध में जो आदेश दिए थे वे कुरान भाष्यकारों ने सभी स्त्रियों पर लागू कर दिए। जिस प्रकार से पैगंबर की सुन्नाह अनुकरण करना स्तुत्य समझा जाता है। उसी प्रकार से स्त्रियों को भी पैगंबर के घर की स्त्रियों की पद्धति का अनुकरण करना योग्य है ऐसा बहुधा कुरान के भाष्यकारों का युक्तिवाद होना चाहिए।""(127)

स्पष्ट है कि परदा या बुरका इस्लाम का भाग नहीं है। इसलिए बुरके से इस्लाम की पहचान को जोडना या उसे शरीअत का स्तंभ मानना, फोटोयुक्त पहचान पत्र पर बेजा बहस करना, शर्तें डालना दकियानूसीपन है, कट्टरता है। यहीं नहीं इस दकियानूसीपन, कट्टरता के चरम का प्रदर्शन पश्चिमी देशों में भी किया जा रहा है। जो ब्रिटिश मुस्लिम सांसद के संस्थापक अध्यक्ष डॉ. कलाम सिद्दीकी के हिजाब पर के कथन से पता चलता है वे कहते हैं ''जब हम पुरुष सडक पर चलते हैं तो हम भीड का हिस्सा मात्र होते हैं। जब हमारी महिलाएं हिजाब पहनकर सडक पर चलती हैं तो अपने साथ इस्लाम का झंडा लिए चलती हैं। वे एक राजनीतिक उदघोष करती हैं कि यूरोपीय सभ्यता हमें अस्वीकार्य है, कि यह एक रोग है, मानवता के लिए महामारी है। वे एक प्रकार से जेहाद का उदघोष करते चलती हैं।""(हिंदू वॉइस जुलाई 2007 पृ.13)

बेहतर होगा कि मुस्लिमों के अध्वर्यू बने बैठे उपर्युक्त प्रकार के लोग अपना अडियल, दकियानूसी रवैया हर मामले में अपनाना छोडें वरना वह डर जो द.कु. के भाष्यकार ने अपने भाष्य में, जो पूर्व में दिया जा चूका है, व्यक्त किया है सच साबित होकर रहेगा। और इसकी शुरुआत भी हो चूकी है।
'सऊदी अरब में एक महिला पत्रकार नदीन बेदार ने अपने एक आलेख, जो इजिप्त के प्रसिद्ध अखबार 'अल मिस्त्री अलयोम" में 'माय फोर हसबेंड्‌स एंड आय", के जरिए चार निकाह करके चार शौहर रखने का अधिकार मांग कर इस्लामी जगत में हलचल मचा दी है। उसका कहना है कि इस्लाम में यदि पुरुष चार निकाह कर सकता है तो, यह अधिकार महिला को क्यों नही? यदि पुरुष सुंदरता और कामुकता के आधार भिन्न-भिन्न महिलाओं का चयन करता है तो एक महिला को भी अधिकार हो कि वह भी रंग-रुप और चाहत के आधार पर अपने अलग-अलग शौहर (पति) चूने। नदीन बेदार के विरुद्ध कुछ राजनीतिज्ञ भी अब मैदान में आ गए हैं। नदीन के समर्थक भी बाहर निकल आए हैं, उनका कहना है कि आज की वर्तमान परिस्थिति में इन कुप्रथाओं पर विचार होना चाहिए। अल अजहर विश्वविद्यालय के बाहर कुछ लोगों ने नारे लगाए और कहा या तो  महिला को चार शौहर रखने की छूट दें या फिर पुरुषों के लिए भी अनिवार्य करो कि वह केवल एक ही बीवी रखे। कई महिलाएं भी बिना परदे किए वहां खडी थी और नारे लगानेवालों का साथ दे रही थी। इजिप्त में कुछ दिन पूर्व शेख अल अजहर शेख अल तावावी ने भी परदे के संबंध में अपना वक्तव्य देकर वातावरण को गर्मा दिया था। उनका कहना था कि परदे के विषय में इस्लाम ने कोई आदर्श प्रस्तुत नहीं किया है इसलिए महिलाओं पर परदा करने की बात अनिवार्य रुप से लादी नहीं जा सकती है।"(पांचजन्य 14-2-10)

अतः बेहतर होगा कि परदे की अनिवार्यता के स्थान पर मुस्लिम महिलाओं को इच्छा स्वातंत्र्य प्रदान करने की पहल मुस्लिम समाज के सुधारवादी कहे जाने वाले लोग करें, साथ ही जो महिलाएं इच्छा स्वातंत्र्य के महत्व को समझ स्वयं होकर आगे आकर सकारात्मक पहल करना चाहती हैं, उन्हें समर्थन प्रदान करें।