Saturday, March 28, 2015

भारत में भ्रष्टाचार का इतिहास

यद्यपि भ्रष्टाचार कोई अकेले भारत की समस्या नहीं है अपितु वह तो विश्वव्यापी समस्या है। तथापि, इस बात से कोई भी इंकार नहीं कर सकता कि जिस प्रकार से चारों ओर फैले हुए भ्रष्टाचार ने हमें ग्रसित कर रखा है उस कारण भ्रष्टाचार सर्वसाधारणजन और हमारे देश दोनों को लिए एक भयंकर समस्या बन गया है। भले ही भगवान राम या कृष्ण के काल में हमें भ्रष्टाचार का उल्लेख नहीं मिलता। फिर भी भ्रष्टाचार की हमारी ऐतिहासिक परंपरा पुरातन तो निश्चय ही है। मौर्यकाल में इसका उल्लेख मिलता है। आचार्य चाणक्य के अर्थशास्त्र का यह उद्धरण प्रमाणस्वरुप दिया जा सकता है कि जिस प्रकार जल के भीतर रहनेवाली मछली जल पीती है या नहीं यह पता लगाना कठिन है उसी प्रकार सरकारी नौकर भ्रष्टाचार करते हैं या नहीं यह पता लगाना भी एक कठिन कार्य है। उस काल में भी घूस देने को एक अस्त्र की तरह माना जाता था।

भ्रष्टाचार केवल रिश्वत लेना ही नहीं बल्कि देना भी है। टैक्स न देना या चुराना, लायसेंस-परमिट बेचना, किसी की संपत्ति औने-पौने में लेना, बिना बिल का माल-खरीदना बेचना या झूठे बिल बनाना, बिना दौरे किए भत्ते लेना, आदि यानी कि भ्रष्टाचार के सहस्त्रों रुप और नाम हैं। इस सब पर से तो यही मानना पडेगा कि हमें चिराग लेकर उन्हें ढूंढ़ना पडेगा जो भ्रष्टाचार से वास्तव मंंें सख्त नफरत करते हों। हम भारतीयों के जीवन में भ्रष्टाचार इस प्रकार से व्याप्त हो गया है जैसेकि किसी हरे-भरे पेड के कण-कण में विद्यमान पानी। वास्तव में हम सब किसी ना किसी मौके की तलाश में ही रहते हैं। ये बात अलग है कि यह मौका हर किसीको मिल नहीं पाता या मिला तो वह उसे भुना नहीं पाता। इस कारण वह अनिच्छा से ही क्यों ना हो पर ईमानदार बना रह जाता है।

किंतु, सच पूछा जाए तो भारत में भ्रष्टाचार का इतिहास मुगलकालीन भारत से शुरु है। मुगल बादशाहों विशेषकर अकबर ने रिश्वत के राजनैतिक हथियार का प्रयोग अपने विरोधियों के दमन के लिए किया, मगर फिर भी भ्रष्टाचार उस काल में इतना विकराल नहीं था। वास्तव में भ्रष्टाचार ने व्यापक रुप लेना प्रारंभ किया ब्रिटिशों द्वारा भारत पर कब्जे के बाद। उन्होंने पटवारी, पुलिस कॉन्सटेबल और चपरासी जो क्रमशः राजस्व, कार्यपालिका एवं न्यायपालिका से संलग्न थे, नियुक्त किए और इन तीनो के ही वेतन बहुत कम रखे इस कारण वे अतिरिक्त कमाई रिश्वत की आय से करने लगे। इन तीनो को ही ब्रिटिशों ने अपनी शासन पद्धति का आधार स्तंभ बना रखा था। इस प्रकार भ्रष्टाचार बढ़ने लगा तथा कुछ विभाग तो भ्रष्टाचार के लिए ही मशहूर हो गए।

आगे चलकर जब देश स्वतंत्र हुआ तो उद्योगीकरण की शुरुआत हुई। लोगों में संपत्ति का मोह कुछ अधिक ही बढ़ने लगा साथ ही नैतिक पतन भी प्रारंभ हुआ और भ्रष्टाचार ने अपनी जडें विभिन्न क्षेत्रों में जमाना भी प्रारंभ कर दिया। स्वतंत्रता प्राप्ति के दो-तीन दशकों तक तो ऊपर की कमाई करनेवाले लोग बडे गुपचुप तरीके से रिश्वत लेते थे और समाज के सामने रिश्वत के पैसों का भौंडा प्रदर्शन भी नहीं करते थे ताकि उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा बनी रहे। क्योंकि, उस समय भ्रष्टाचारी को लोग अच्छी नजरों नहीं देखते थे। मगर धीरे-धीरे परिदृश्य बदलने लगा और भ्रष्टाचारी समाज में प्रतिष्ठा पाने लगे। आगे चलकर जब वैश्वीकरण-निजीकरण की बयार बहने लगी तो भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारियों का कुनबा बढ़ने लगा उसने वटवृक्ष का रुप धारण कर लिया और ईमानदार व ईमानदारी ने उसके तले दम तोडना प्रारंभ कर दिया।

चुनावी खर्चों के कारण संविधान द्वारा घोषित प्रजातांत्रिक समाजवादी राष्ट्र राजनेताओं और भ्रष्ट नौकरशाहों के हाथों का खिलौना बन गया। उद्योगपतियों से चंदा उगाही शुरु हो गई। जिसके कारण अनुचित व्यापार पद्धति और कालाबाजारी दिए गए चंदे की कई गुना वसूली की प्रवृत्ति स्वाभाविक रुप से जोर पकडने लगी। इस भ्रष्टाचार के माध्यम से अधिकाधिक धन कमाने के लिए कोटा-परमिट राज लाया गया, ट्रस्ट बना डोनेशन के माध्यम से धन एकत्रित किया जाने लगा। सरकारी बैंकों से फर्जी तरीके से लोन लेकर वारे-न्यारे किए जाने लगे। इस पूरे सिस्टम में बाधक बननेवाले नेताओं-अधिकारियों को धन से खरीदा जाने लगा या रास्ते से किसी ना किसी प्रकार से हटाया जाने लगा। इस प्रकार भ्रष्टाचार का घोडा सरपट दौडने लगा। इस पूरी प्रक्रिया से कालाधन पैदा होने लगा। 21 दिसंबर 1963 को भारत में भ्रष्टाचार के खात्मे पर संसद में हुई बहस में राममनोहर लोहिया ने जो भाषण दिया था वह आज भी प्रासंगिक है। उस समय लोहिया ने कहा था कि सिंहासन और व्यापार के बीच संबंध भारत में जितना दूषित, भ्रष्ट और बेईमान हो गया है उतना दुनिया के इतिहास में कहीं नहीं हुआ। 

उदारीकरण-बाजारवाद-वैश्विकरण-निजीकरण की नीतियां अपनाने के बाद पहले कोटा-परमिट इंस्पेक्टर राज को भ्रष्टाचार को लिए दोषी ठहराया गया अब नए दौर को दोष दिया जा रहा है। किंतु, यह सच भी है कि इस नए दौर में जितना कालाधन पैदा हुआ विदेशों में गया उतना पहलेवाले दौर में नहीं हुआ था। इस सबका सबसे बडा दुखद पहलू तो यह है कि भ्रष्टाचार का वायरस न्यायपालिका, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे पवित्र एवं सेवाभावी पेशों में गहरे तक पैठ गया है। वस्तुतः आज भ्रष्टाचार गॉडफादर बन गया है इसे खुश रखो और मजे में जीयो वरना जीना दुभर हो जाएगा ऐसी परिस्थिति निर्मीत हो गई है। किसी एक को दोषी नहीं ठहराया जा सकता, हमाम में सभी नंगे हैं, जितना जिसके हाथ लग जाए उतना वह साफ कर देता है और जिसको मौका नहीं मिलता वह पाक-साफ बना भ्रष्टाचार का रोना रोते रहता है। 

सच तो यह है कि भ्रष्टाचार हमारी सबसे बडी कमजोरी है और इस भ्रष्टाचार की उत्पत्ति मानव आचरण में नैतिकता के क्षरण का परिणाम है। भ्रष्टाचार के इस जानलेवा विषाणु से मुक्ति पाना कोई आसान काम नहीं। इसके प्रभाव को शनैः शनैः ही कम करना होगा। इसके लिए आचरण की शुद्धता की आवश्यकता है। साधारण लोग तो बडों का ही अनुसरण करते हैं और जब तक शीर्ष पर बैठे लोग सादगी का और भ्रष्टाचार मुक्त आचरण का प्रदर्शन नहीं करते। आदर्श प्रस्तुत नहीं करते तब तक इस भ्रष्टाचार की दीमक से छुटकारा नहीं मिल सकता। इसके अलावा सबसे अधिक आवश्यकता यदि किसी बात की है तो वह है सामाजिक संस्कारों की भी जिसकी शुरुआत घर से ही होती है जो लगभग ओझल सी हो गई है।

Wednesday, March 11, 2015

आशाओं पर तुषारापात - जाएं तो जाएं कहां?
मई 2014 में जब भाजपा की मोदी सरकार 'अच्छे दिन आएंगे" के नारे के साथ अपने बलबूते पूर्ण बहुमत के साथ सरकार बनाने में कामयाब हुई तो, लोगों की आशाएं परवान चढ़ने लगी। सर्वसाधारण जनता को लगने लगा था कि अब अवश्य बदलाव आएगा, सरकारी ढ़र्रा कुछ बदलेगा, भ्रष्टाचार से मुक्ति मिलेगी, कालाधन वापिस आएगा, महंगाई से राहत मिलेगी। जो लोग मोदी के भाषणों के मुरीद और कट्टर समर्थक थे उन्होंने तो मानो मोदी का झंडा सा ही उठा रखा था। रोज मोदी भाषण देते और समर्थक उन भाषणों पर चर्चा कर खुशी जताते, विरोधियो की आलोचनाओं का मजाक उडाते। परंतु, गुजरते समय के साथ इन समर्थकों से लेकर आम जनता में भी बेचैनी बढ़ने लगी, उत्साह कुछ ठंडा पडने लगा। नया कुछ होते नजर नहीं आ रहा कि भावना बलवती होने लगी लेकिन फिर भी जनता ने मोदी के नाम पर वोट देकर भाजपा को महाराष्ट्र, हरियाणा, झारखंड में विजय दिलवाने के साथ ही कश्मीर में भी अभूतपूर्व सीटें जीतवा दी।

मोदी के भाषण बदस्तूर जारी रहे। परंतु, अब बेचैनी जाहिर रुप से लोग प्रकट करने लगे और अंततः बेचैनी ने उग्र रुप धर लिया। दिल्ली में भाजपा बुरी तरह पराजित हुई। मोदी का नारा 'कांग्रेस मुक्त भारत" को वे तो साकार नहीं कर पाए परंतु केजरीवाल ने जरुर दिल्ली को कांग्रेस मुक्त कर दिया। वैसे तो मूलतः यह नारा होना था 'भ्रष्टाचार मुक्त भारत" क्योंकि, भ्रष्टाचार की जननी तो कांग्रेस ही है और उसीने ऊपर से लेकर नीचे तक भ्रष्टाचार फैलाया, उसे प्रश्रय दिया।

दिल्ली के नतीजों के बाद मुझे कई लोग प्रतिक्रिया देते नजर आए कि, अच्छा हुआ कुछ जमीन पर आएंगे। कुछ लोगों की प्रतिक्रिया थी कि चलो कोई तो मिला, अब कम से कम विपक्ष तो भी नजर आएगा। क्योंकि, कांग्रेस तो मृत प्राय पडी है, विरोधी पक्ष की भूमिका भी निभा नहीं पा रही। उसे तो बस विपक्ष के नेता का दर्जा चाहिए। इसी बीच एक बडी गलती मोदी सरकार से हो गई भूमि अधिग्रहण अधिनियम संशोधन की। बस विपक्ष में जान आना प्रारंभ हो गई। दिल्ली के चुनाव में भाजपा की हार में इस अधिग्रहण की भी बडी भूमिका रही।

मोदी सरकार के समर्थक और कुछ लोग फिर भी आशाएं लगाए रहे कि चलो बजट के बाद कुछ बदलाव आएगा। परंतु, इस बजट ने तो उनकी आशाओं पर तुषारापात ही कर दिया। वोटर अपने को ठगा सा महसूस कर रहे हैं। आरंभ से ही भाजपा और मोदी का सबसे बडा समर्थक वर्ग मध्यम वर्ग ही रहा है। कांग्रेस सरकार के जमाने में सबसे ज्यादा उसीको भुगतना पडा था। उनकी नौकरियां खतरे में आ गई थी। उनका तो फील गुड ही जो चला गया था। उन्हें भी बडी आशा थी। परंतु, उन्हें इन्कमटैक्स में कोई छूट नहीं मिली, वे निराश हो गए, छूट के नाम पर हैल्थ प्लान में इंवेस्टमेंट की लीमिट 15000 से बढ़ाकर 25000 कर दी। किंतु, इस छूट का लाभ उठाने के लिए पैसा भी तो बचना चाहिए, नई नौकरियां भी तो मिलना चाहिए बल्कि कई कंपनियों में तो छंटनी होना शुरु हो गई है तो, कई स्थानों पर तलवार लटक गई है।

ऐसे में सर्विस टैक्स में बढ़ौत्री ने किसी को भी कहीं का भी नहीं छोडा, ऊपर से 2 प्रतिशत स्वच्छता कर अलग से यानी कुलामिलाकर 16 प्रतिशत का बोझा। लेकिन सिलसिला यहीं नहीं रुका बजटवाली रात को ही पेट्रोल डीजल के भाव प्रति लीटर तीन रुपये से अधिक बढ़ा दिए जिससे कि बजट के बाद जो महंगाई का कहर आम जनता पर पडनेवाला है उसका ठीकरा पेट्रोल-डीजल पर फूटे। अब जनता की तो हालत यह हो गई है कि जाएं तो जाएं कहां? बडे बेआबरु होकर जो उनके कूचे से निकले। 

हां, कारपोरेट टैक्स को कम करने में सरकार चूकी नहीं है। आखिर वे भी तो मोदी के पक्के समर्थक जो हैं। रही मीडिल क्लास की बात तो वित्तमंत्री जेटली ने कह ही दिया कि मिडिल क्लास अपना ध्यान खुद रखे। लेकिन यदि इस मिडिल क्लास ने इन बडबोलों का ध्यान रखने की ठान ली ना तो क्या होगा, इसका भी तो जरा विचार कर लें। सोशल मीडिया पर यही वर्ग सबसे अधिक सक्रिय है और उसीने पिछली बार कांग्रेस विरोधी हवा बनाने में एक अहं रोल निभाया था।

Sunday, March 8, 2015

महिलाओं की आजादी की पक्षधर 
मलिका - ए - अफगानिस्तान ः सुरय्या

20वीं सदी के उत्तरार्ध में तालिबान द्वारा देश को मुहम्मद गजनी और मुहम्मद गौरी के दौर में पहुंचाने और इस्लाम के नाम पर अफगान महिलाओं को पिंजरेनुमा बुर्के में कैद करने के कारण अफगानिस्तान चर्चा में आया, तो 20वीं सदी के पूर्वार्ध में अफगानिस्तान दो कारणों से प्रसिद्ध हुआ एक, अंग्रेजों के चंगुल से छूटकर स्वतंत्रता प्राप्ति में सफल होने और दो, अफगानिस्तान की मलिका (रानी) सुरय्या के कारण जिसको पाश्चात्य देशों में बडी प्रसिद्धी और कीर्ति प्राप्त हुई।

अफगानिस्तान की स्त्रियों को सर्वप्रथम मुक्ति का मार्ग दिखानेवाले थे वहां के राजा अमानुल्लाह और उनकी पत्नी सुरय्या। अमानुल्लाह का शासनकाल (1919-29) मात्र दस वर्ष चला और अंत में उन्हें अपने सुधारवादी रवैये के कारण देश छोडकर भागना पडा। उसकी प्रतिभा और साहस लोकोत्तर था। उसने अमीर का पद तोडकर स्वयं को बादशाह घोषित कर अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध का शंखनाद कर दिया। दबाने में असफल हो अंततः विवश हो अंगे्रजों ने उससे संधि कर ली अफगानिस्तान एक स्वतंत्र राष्ट्र के रुप में सामने आया। अमानुल्लाह यूरोप में शिक्षित होकर उदारचेता एवं अपने देश को रुढ़िवाद से मुक्त कर इस्लाम के अंधकार से निकाल उन्नत और सभ्य देशों की श्रेणी में लाना चाहता था। उसने यूरोप और एशिया के प्रमुख देशों के साथ व्यापारिक एवं कूटनीतिक संबंध जोडे। 1920 में ही उसने नया क्रिमिनल एवं सिविल कोड तैयार किया था।

उसने 1913 में जिस स्त्री सुरय्या से विवाह अपनी पहली पत्नी परिगुल से संबंध विच्छेद कर किया था वह दमास्कस (सीरिया) में शिक्षित होकर वहां उसने आधुनिक और पाश्चात्य कल्पनाओं को अंगीकार कर लिया था। सुरय्या के पिता सरदार महमूद तर्जी  अफगान होकर राजनैतिक कारणों से सीरिया में आश्रय लेकर रह रहे थे। महमूद तर्जी एक विचारवंत नेता होकर अमानुल्लाह के पिता हबीबुल्लाह ही उन्हें वापिस अफगानिस्तान लेकर आए थे। अफगानिस्तान को आधुनिक बनाने की कोशिशों में उनका बडा ही योगदान है। महमूद तर्जी बहुपत्नीत्व परंपरा के विरोधी थे और स्त्रियों की शिक्षा और रोजगार का आग्रह रखते थे। सुरय्या भी इसी विचारसरणी का मूर्तिमंत प्रतीक थी। अमानुल्लाह ने भी इन्हीं विचारों को अंगीकृत कर गांव-गांव में स्त्री शिक्षा का आंदोलन चलाया। सुरय्या भी सामाजिक बदलाव लाने के लिए आग्रही होने के कारण अनेक लडकियों ने उच्च शिक्षा ग्रहण की यहां तक कि विदेशों में भी जाकर और आगे जाकर यही स्त्रियां सरकारी विभागों में उच्चाधिकारी बनकर कार्य कर सकी। 

यह सुरय्या के प्रोत्साहन का ही नतीजा था कि अनेक महिलाएं शिक्षा ग्रहण करने लगी। तुर्कस्तान के बदलाव को देखकर उसने 15 होशियार लडकियों को वहां भेजा। अफगानिस्तान की नई मानसिकता तैयार करने के लिए तर्जी ने 'सिराजुल अखबार" नामक पत्र चलाया था। सुरय्या ने भी स्त्रियों के लिए 'इरशाद-ए-निसवान" मासिक शुरु किया था। सुरय्या अपने भाषणों में पुरुषों की बराबरी से ही स्त्रियों को भी स्वतंत्रता मिलना चाहिए का प्रचार अपने भाषणों द्वारा करती थी। देश की उत्क्रांति में सुरय्या की महत्वपूर्ण भूमिका को देखते हुए अमानुल्लाह जनता को संबोधित करते हुए कहा करता था मैं तुम्हारा राजा हूं और तुम्हारी शिक्षामंत्री  तुम्हारी रानी सुरय्या है। सुरय्या उन्हें शिक्षा एवं ज्ञान प्राप्ति के लिए कहती थी। वे एक साथ अनेक सार्वजनिक कार्यक्रमों में शिरकत करते थे। वह उसके साथ शिकार और अश्वारोहण का शौक भी रखती थी। अफगानिस्तान की आजादी की लडाई में घायल सैनिकों से मिलती उनके साथ संवाद स्थापित कर उन्हें भेंट भी देती, विद्रोह स्थलों पर जाकर लोगों से चर्चा भी करती।

अमानुल्लाह के आधुनिकीकरण और सुधार अभियान का जबरदस्त विरोध भी हुआ। इस्लाम के नाम पर चल रहे ढ़ोंग को उसने शीर्षासन करवा दिया। परदा प्रथा को बंद करा दिया। अफगान महिलाएं भी पाश्चात्य पद्धति के कपडे पहनने लगी, बाल कटवाने लगी। बालविवाह पर बंदिश आई। लडकियां अपना पति स्वयं पसंद करने लगी। अफगानियों को कोट-पैंट पहनना अनिवार्य कर दिया गया। शुक्रवार के स्थान पर गुरुवार को छुट्टी घोषित कर दी गई। यहां तक कि देवबंदी उलेमाओं को देश निकाला दे दिया गया।

1928-29 में अमानुल्लाह और सुरय्या ने यूरोप यात्रा की ऑक्सफोर्ड यूनिव्हर्सिटी ने उन्हें सम्मानीय पदवी प्रदान की सुरय्या ने वहां विद्यार्थियों के समक्ष व्याख्यान दिया। अमानुल्लाह पाश्चात्य तंत्रज्ञान से प्रभावित था। वही सबसे पहले फोटोग्राफी के साधन  अफगानिस्तान में लाया। उन दोनो की जीवनप्रणाली पाश्चात्य पद्धति की होकर वे शूटिंग, हंटिंग व फिशिंग उनकी दिनचर्या में शामिल थी। सुरय्या हमेशा चायपार्टी आयोजित किया करती थी। वह इंग्लैंड की उच्चभ्रू महिलाओं के समान पोशाक किया करती थी। इस प्रकार की दिनचर्या से अफगान लोग पूरी तरह से अनभिज्ञ थे। 10 दिसंबर 1927 को अमानुल्लाह और सुरय्या भारत चमन आए थे। चमन से वे कराची गए वहां एक समारंभ में सुरय्या ने अनेक स्त्रियों से भेट की। उस समय सुरय्या द्वारा कही गई कथाएं और उसके सौंदर्य के वर्णन चर्चा का विषय बने। 

1919 में अंग्रेजों से किए गए युद्ध के कारण अमानुल्लाह और अंग्रेजों के संबंध कुछ अच्छे ना थे। उसने अफगानिस्तान का संविधान तैयार किया था। सरकार का स्वरुप और राजा की भूमिका ये सारी बातें संविधान की दृष्टि से जनता के सामने स्पष्ट की। सारे विश्व में अमानुल्लाह और सुरय्या द्वारा किए गए सुधार चर्चा का विषय बने। किंतु, अंग्रेजों ने सुरय्या की स्त्री मुक्ति आंदोलन का विरोध किया, अफगानिस्तान को आधुनिक बनाने का उपक्रम वहां के कट्टरपंथियों को भी रास ना आया। जब 1929 में वे वापिस लौटे तब तक उनके विरोध में जोरदार जनमत तैयार हो चूका था। अंतर्गत गृहयुद्ध को टालने के लिए उन्होंने देश त्यागने का निर्णय लिया और रोम में स्थायी होना तय कर विदेशों में अपना शेष जीवन बीताया। अफगानिस्तान फिर से पीछे चला गया। तुर्की में कमाल अता तुर्क तो सुधार लाने में सफल रहा परंतु, अमानुल्लाह अफगानिस्तान में सफल ना सका। लेकिन अमानुल्लाह और सुरय्या द्वारा बोए बीज दोबारा प्रस्फुटित हो गए।

1977 में कुछ पुरोगामी विचारों की महिलाओं ने एकत्रित आकर 'रिव्होल्यूशनरी अफगान विमेन्स एसोसिएशन" (रावा) की स्थापना की। सामाजिक न्याय और मानवाधिकारों की रक्षा 'रावा" का ध्येय है। 'रावा" मुस्लिम कट्टरपंथियों के विरोध में तो है ही परंतु, 1979 में अफगानिस्तान पर हुए रशिया के हमले का भी 'रावा" ने विरोध किया था। जब तालिबान ने सत्ता में आने के बाद अफगान स्त्रियों का जीवन अंधकारमय कर दिया था तब इस प्रकार की भयानक परिस्थिति में भी बहुत बडा धोखा उठाकर भी कुछ अफगान महिलाओं ने लडकियों के लिए गुप्त रुप से स्कूल चलाए। 'रावा" अपना भूमिगत कार्य चलाते रही। जब असंभव हो गया तब पाकिस्तान जाकर वहां भी निर्वासित अफगान स्त्रियों-लडकियों के लिए स्कूल चलाए। उपजीविका के साधनों के रुप में सिलाई-कढ़ाई-बुनाई की शिक्षा दी, महिलाओं के लिए दवाखाने चलाए। यूनो के सामने अफगान स्त्रियों की दुर्दशा प्रस्तुत की, उनकी ओर से प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष सहायता की अपेक्षा रखी। परंतु, किसी ने उनकी परवाह नहीं की लेकिन जब अमेरिका पर 11 सितंबर का हादसा गुजरा तब दुनिया जागी। परंतु, बिना हताश हुए अफगान स्त्रियों ने हिम्मत, धैर्य के साथ अनंत यंत्रणाएं सहकर भी अपनी लडाई जारी रखी। अपने परिवारों को, समाज को रीढ़ की हड्डी बन संभाले रखा।