Wednesday, June 25, 2014

कणाद: स्पूतनिक के छप्पन वर्ष और मैं मेरा स्पूतनिक परिवा...

कणाद: स्पूतनिक के छप्पन वर्ष और मैं 
मेरा स्पूतनिक परिवा...
: स्पूतनिक के छप्पन वर्ष और मैं  मेरा स्पूतनिक परिवार से संबंध बलरामजी के कारण आया। हमारा परिवार 1972 में इंदौर आया और तभी से मेरी बलराम...
स्पूतनिक के छप्पन वर्ष और मैं 

मेरा स्पूतनिक परिवार से संबंध बलरामजी के कारण आया। हमारा परिवार 1972 में इंदौर आया और तभी से मेरी बलरामजी से मित्रता है। हमारी मित्रता का कारण एक ही स्कूल में होना और लगभग प्रतिदिन साथ ही स्कूल आना-जाना। कभी-कभी मैं उनसे मिलने प्रेस जो उस समय आर.एन.टी मार्ग पर स्थित थी चले जाया करता था। आगे चलकर हमारे संबंधों में कमी आ गई इसका कारण उनका वाणिज्य संकाय तो मेरा विज्ञान-यांत्रिकी में होना था। हमारे संबंधों की बीच की महत्वपूर्ण कडी थी श्री दीपक कसरेकर जो स्पूतनिक परिवार के सक्रिय सदस्य लंबे समय तक रहे और हम दोनो के ही घनिष्ठ मित्र हैं। उन्हीं के माध्यम से स्पूतनिक की दबंग पत्रकारिता और उसके प्रभाव के बारे में मैं जब भी इंदौर आता सुनता रहता था।

1984-85 में मैंने अपने निर्माण कार्य का व्यवसाय कुछ निजी तो कुछ सरकारी ठेके लेकर शुरु किया। इस दौरान मैं देवास, धार, झाबुआ, बडवानी, खरगोन आदि जिलों में घूमा, कुछ स्थानों पर कार्य भी किया। उस दौर में मैंने कई पत्रकारों और अखबारों, उनके प्रतिनिधियों को पीत पत्रकारिता करते हुए देखा। लेकिन उस समय से लेकर आज दिनांक तक मैंने न तो कभी किसी स्पूतनिक संवाददाता को पीत पत्रकारिता करते देखा ना ही कभी किसी सरकारी अधिकारी या व्यवसायी से यह सुना कि स्पूतनिक से संबंधित कोई व्यक्ति मुझे परेशान या ब्लैकमेल कर रहा है। स्पूतनिक की यह एक बहुत बडी उपलब्धि है। 

फिर आया 1991 के आसपास का राममंदिर आंदोलन का दौर उसी समय मैं फिर से इंदौर लौटा और यहां मैंने अपना ट्रांसपोर्ट का व्यवसाय शुरु किया। स्वाभाविक ही था कि मुझे अपने लेटर पैड, बिलबुक आदि छपवाने की आवश्यकता महसूस हुई और मैं स्पूतनिक प्रेस जा पहुंचा। और यहीं से मेरी स्पूतनिक परिवार और बलरामजी से घनिष्ठता बढ़ना प्रारंभ हुई। मैं स्पूतनिक अखबार का नियमित पाठक बन गया। इस दौरान मेरा कार्यालय प्रेसकाम्पलैक्स के निकट ही होने के कारण मेरा आना-जाना स्पूतनिक में बढ़ गया। स्पूतनिक में छपे समाचार और कार्यालय में होनेवाली चर्चाओं को मैं सुनता रहता, कभीकभार उनमें भाग भी लेता था। कई बार उन्हींके आधार पर मैं बाहर भी भाष्य किया करता। स्वाभाविक ही था कि वह लीक से हटकर होता था। उन बातों को सुनकर मेरे एक निकटस्थ जो वर्तमान में भाजपा के बडे राजनेता हैं ने मुझसे स्पूतनिक के मालिकों से भेंट करवाने को कहा। बलरामजी ने मुझसे कहा कि श्याम भैया से मिलवा दो। 

उन दोनो की चर्चा दो घंटे से अधिक चली। जिसका लुब्बेलुबाब वही था जो श्यामभैया, डॉ. गीता, युगेशजी शर्मा और श्री रघु ठाकुर के स्पूतनिक के छप्पन वर्ष पूर्ण होने पर लिखे गए लेखों में है। इसी चर्चा के दौरान मुझे यह भी मालूम हुआ कि किस प्रकार से स्पूतनिक ने मध्यप्रदेश मालवा के संघ के एक प्रमुख समाचार पत्र को बहुमूल्य सहायता समय-समय पर की थी। यही नहीं किसी जमाने में इंदौर के एक बडे समाचार पत्र में गिने जानेवाले अखबार को भी अनमोल सहायता की थी। जो स्पूतनिक को दूसरों से एक अलग पहचान देता है। 

आज स्पूतनिक परिवार से इतने वर्षों के घनिष्ठ संबंधों के आधार पर मैं विश्वासपूर्वक यह कह सकता हूं कि स्पूतनिक आज भी अपने मार्ग से विचलित नहीं हुआ है, ना ही होगा। इसका श्रेय संपूर्ण स्पूतनिक परिवार को जाता है। स्पूतनिक परिवार के एक अंग के रुप में मेरी भगवान से यही प्रार्थना है कि वह स्पूतनिक परिवार में हमेशा इतनी शक्ति बनाए रखे कि वह अपने ध्येय वाक्य - 

'हवा के साथ बहे वह पत्रकारिता नहीं, हवा बनाए वह पत्रकारिता है" पर अडिग रह सके।

Sunday, June 22, 2014

 अच्छे दिन कब आएंगे !

नरेन्द्र मोदी की अभूतपूर्व जीत के पीछे के कई कारकों में से एक 'अच्छे दिन आएंगे" का उद्‌घोष भी है। जो लोगों की जबान पर चढ़ गया था। सन्‌ 2004 के लोकसभा चुनाव के समय भाजपानीत एनडीए द्वारा उछाला हुआ नारा 'फीलगुड" लोगों के बीच इतना अधिक चर्चित हो गया था कि आज भी जब कोई बहुत अधिक प्रसन्न नजर आता है तो लोग कहते हैं क्यों 'फील गुड" हो रहा है क्या? यह बात अलग है कि यह नारा लोगों की भावनाओं को आहत करनेवाला होने कारण भाजपानीत एनडीए को ले डूबा था वहीं 'अच्छे दिन आएंगे" के सकारात्मक, आशावादी और दिल को छू जानेवाला होने के कारण पार्टी की नैया इस बार पार लग गई।

लेकिन अब जब जीत का उन्माद उतार पर है तो विचारवान लोग इस बात पर चर्चा करने लगे हैं कि देश के सामने खडी चुनौतियों का सामना मोदी सरकार कैसे करेगी, महंगाई कब कम होगी, ब्याज दरें कब कम होंगी या यह दौर यूं ही लंबा चलता रहेगा, भविष्य में रिजर्व बैंक क्या रणनीति अपनाएगा? वित्तमंत्री की नीतियों के साथ उसका तालमेल बैठेगा या नहीं? क्योंकि, महंगाई अब भी ऊंचाई पर है, मानसून किस करवट बैठेगा कुछ कहा नहीं जा सकता। बजट को अभी आना बाकी है, आदि।

परंतु, सर्वसाधारण जनता इन सब बातों से अनजान रहकर पेट्रोल-डीजल की दरें कब कम होंगी, गैस कब सस्ती मिलेगी, की राह तकते बैठी है। उसे इस बात का कोई इल्म नहीं कि यह इतना आसान नहीं। जनता बस इतना जानती है कि जब गोआ में पेट्रोल-डीजल सस्ता मिल सकता है तो मध्यप्रदेश में क्यों नहीं? हां, वह यह जरुर जानती है कि म.प्र. में ही पेट्रोलियम पदार्थों पर टैक्स की दरें देश में सबसे अधिक हैं - पेट्रोल पर 28 तो डीजल पर 24 प्रतिशत है। सरकार ने गैस की दरें 25 रुपया जरुर कम की हैं परंतु वह कम दरें गैरसब्सीडीवाले गैस सिलेंडरों पर लागू होती हैं, सब्सीडाइज्ड सिलेंडरों पर नहीं। जनता को इससे भला क्या लाभ हो सकता है। गैस पर एंट्री टैक्स के रुप में 10 प्रतिशत टैक्स अलग से लगा हुआ है। सीएनजी के रुप में सस्ता और प्रदूषण रहित ईंधन को बढ़ावा देने की बातें की गई लेकिन सीएनजी के पंप इतने कम हैं कि उसका उपयोग करना भी दुखदायी सिद्ध हो रहा है। आम जनता को तो कोई राहत नहीं पर हवाई जहाजों को लगनेवाला एटीएफ यानी हवाई ईंधन जरुर सस्ता कर दिया गया है। उस पर टैक्स की दर केवल 5 प्रतिशत है।
पहले की सरकारों ने सर्विस टैक्स के नाम पर जो असहनीय बोझा लाद रखा है वह कम हो तो कोई बात बने। जब प्रारम्भ में सर्विस टैक्स लागू किया गया था तो वह कुछ इनेगिनों पर ही था परंतु, उसने सुरसा की तरह मुंह फैलाकर हर किसीको चपेट में ले लिया है अब वह क्षेत्र ढूंढ़ना पडेगा जहां यह कमरतोड ऊंची दरोंवाला सर्विस टैक्स लागू न हो। कभी बदलाव के तौर पर होटल में भोजन के लिए चले जाओ तो वहां भी 12 प्रतिशत सर्विस टैक्स जजिया कर के रुप में मौजूद है। पहले ही तो महंगाई मारे दे रही है उस पर से यह सर्विस टैक्स। यदि वास्तव में अच्छे दिन लाने हैं तो इस सर्विस टैक्स यानी सेवाकर को समाप्त करें। हमारी सेवा तो वह धोबी या नाई करता है जिसको हम उसकी सेवा के बदले उसका पारिश्रमिक देते हैं यहां सरकार हमारी कौनसी सेवा कर रही है जो यहां भी टैक्स मांग रही है और वसूल भी रही है। यह तो सरासर अन्याय है। पुराने जमाने में राजा तो क्या प्रजा यानी आम जनता भी साल में एक बार परिवार की सेवा करनेवाले इन धोबी, नाई, दर्जी आदि लोगों को अपनी-अपनी हैसियत के अनुसार जो बने वह पारिश्रमिक स्वरुप कुछ ना कुछ दिया करती थी। परंतु, इस सरकार ने इनको भी नहीं छोडा और इनके माध्यम से आम जनता से वसूली कर रही है। 

मकान बनाने इंजीनिअर के पास जाओ या कानूनी सलाह लेने वकील के पास हर कोई मानो अपना व्यवसाय नहीं कर रहा है बल्कि ऐसा लगता है मानों वह सरकारी मुलाजिम के रुप में उनकी सेवाएं लेनेवालों से सरकार का सर्विस टैक्स वसूलने बैठा है। अब भला जनता को राहत कैसे मिलेगी और जब तक राहत नहीं मिलती तब तक भला जनता कैसे महसूस करेगी कि 'अच्छे दिन आ गए हैं या आनेवाले हैं।"

कमर तोड महंगाई बढ़ने के कारकों में से एक है टोलटैक्स। अच्छे रोड देने के नाम पर बीओटी को लाया गया जो अच्छा कितना और बुरा कितना यह अलग बात है लेकिन इन टोलनाकों ने हर तरह से लूट मचा रखी है। टोलटैक्स के नाम पर जो अनाप शनाप वसूली हो रही है वह भी असहनीय है। जगह-जगह पर के टोलनाकों के कारण माल-भाडा और यात्री किराए में अत्याधिक वृद्धि हो जाती है जो अंततः महंगाई के रुप में ही सामने आती है। इस बात का कोई हिसाब ही नहीं कि कितने कि.मी. पर टोलनाके होना चाहिए। इन टोलनाकों के कारण यात्रा व्यय एक रुपया प्रति कि.मी से अधिक तक बढ़ जाता है। तो, माल भाडा कितना बढ़ जाता होगा इसकी कल्पना सहज ही की जा सकती है। ये टोलनाके किस आधार पर और कितने समय तक वसूली करेेंगे इसके क्या माप दंड हैं इसका भी कोई हिसाब किताब दिख नहीं पडता। टोलनाकों की समयावधि पूरी हो जाने के बाद भी कई स्थानों पर वसूली बदस्तूर जारी है यह दिखाई पडना आम बात है और वह भी हर प्रदेश में तथा यह लूट का पैसा कहां जा रहा है किस-किस की जेब में जा रहा है, यह भी कोई नहीं जानता। 

मोबाइल फोन जो अब हर व्यक्ति की आवश्यकता बन गया है के क्षेत्र में तो गजब की लूट मची है चाहे जब बेलेन्स कम हो जाता है, बिना मांगे चाहे जब कोई सा भी प्लान एक्टिवेट हो जाता है और पैसे कट जाते हैं, नेटवर्क मिलता ही नहीं है फिर भी पैसा मांगा जा रहा है, बढ़ा चढ़ाकर बिल पेश करना तो आम बात है। कोई संतोषजनक उत्तर कंपनियां देती नहीं। इंटरनेट की स्पीड मिलती नहीं जबकि जिस स्पीड का वादा किया गया है वह देने के लिए कंपनियां नियमानुसार बाध्य हैं। परंतु, इस सिलसिले में कोई सुनवाई नहीं होती। हफ्तों इंटरनेट सेवाएं बाधित रहती हैं परंतु, कंपनियां परवाह नहीं करती। इंटरनेट के साथ संलग्न फोन को उपयोग में लाओ या ना लाओ बिल भेज दिया जाता है। उपभोक्ता अपने को लूट हुआ और असहाय सा महसूस करता है जब तक यह लूट, अंधेरगर्दी बंद नहीं होती तब तक यह निश्चित जानिए कि अच्छे दिन आनेवाले नहीं हैं।   

Friday, June 20, 2014

दुनिया को मुसीबत में डालता शीआ - सुन्नी विवाद

इस समय इराक में छिडे हुए गृहयुद्ध ने सारी दुनिया की सांसें रोक रखी हैं। यह युद्ध शीआ-सुन्नी विवाद के फलस्वरुप उपजा है। नफरत की यह जंग इराक को तबाही की ओर ले जा रही है और सारी दुनिया खौफजदा है। इस शीआ-सुन्नी विवाद ने पूरे मध्यपूर्व को ही सुलगा रखा है। यह विवाद कोई आज का नहीं है यह चौदह सौ से अधिक वर्षों से चला आ रहा है और इसकी जड में है पैगंबर साहब का उत्तराधिकारी यानी खलीफा कौन होगा? सबसे पहले खलीफा और खिलाफत की संकल्पना को समझ लें।

खलीफा का अर्थ होता है प्रतिनिधि या किसी की अनुपस्थिति में उसके स्थान पर काम करनेवाला, राजा, प्रमुख या मुहम्मद साहेब का उत्तराधिकारी। मुहम्मद साहेब ने कहा था 'मेरे बाद अब कोई पैगंबर नहीं आएगा खलीफा भर आएंगे।" परंतु जब मुहम्मद साहेब मृत्यु को प्राप्त हो गए तो उनके बाद उनका प्रतिनिधित्व कौन करेगा इस संबंध में कोई सूचना उन्होंने रख नहीं छोडी थी। इस कारण खलीफा पद के लिए विवाद की स्थिति निर्मित हो गई और मुस्लिमों के विभिन्न गुटों व व्यक्तियों के बीच विवाद उभर कर सामने आ गया।

 मक्कावासी (मुहाजिर, निर्वासित) मुहम्मद साहेब के कुरैश वंश के होने के कारण और इस्लाम स्वीकृति के मामले में वरिष्ठ होने के कारण व मुहम्मद साहेब के इन वचनों के आधार पर कि 'खिलाफत (राज्य सत्ता) हमेशा कुरैशों के ही हाथों में रहेगी भले ही उनके दो मनुष्य ही (पृथ्वी पर) जीवित रहें तो भी (वह रहेगी)।" (मुस्लिम 4476,बुखारी 7140) खलीफा पद पर अधिकार जमाना चाहते थे। तो मदीनावासी (अनसार यानी मददगार, जिन्होंने मुहम्मद साहेब और उनके साथियों को मक्का से हिजरत अर्थात्‌ देशत्याग कर मदीना आने पर शरण दी थी) इस सोच के कारण कि उनके द्वारा आश्रय दिए जाने के कारण ही मुहम्मद साहेब का इस्लाम इतना फल-फूल सका था। इसलिए वे ही खलीफा पद के असली दावेदार हैं महत्वाकांक्षी हो खलीफा पद पर किसी मदीनावासी को ही देखना चाहते थे।

 अतः मदीनावासियों ने नेता के रुप में 'सद बिन उबादह" को चुन भी लिया था। यह पता चलते ही अबू बकर और उमर (यानी मक्कावासी) दोनो ही तत्काल वहां पहुंचे। अबू बकर ने मदीनावासियों को दो टूक शब्दों में कह दिया कि ''ऐ मदीना के लोगों! अपनी गुणवत्ता के विषय में तुम जो कह रहे हो वह बिल्कूल सत्य है। इस संंबंध में तुम जैसे प्रशंसा के पात्र दुनिया में और कोई नहीं। परंतु, अरब लोग हमारी टोली कुरैश के सिवाय अन्य किसी को अपने प्रमुख के रुप में मान्यता नहीं देंगे। हम अमीर (राजा) हैं तुम वजीर (प्रधान) हो।" इस पर मदीनावासियों ने कहा 'ऐसा नहीं है। फिर भी, ऐसा करो ः तुम में से एक को अमीर और हम में से भी एक को अमीर बनाओ।" यह दो अमीरों की मांग अबू बकर ने तत्काल ठुकरा दी और कहा 'नहीं, हम अमीर और तुम हमारे वजीर (ंमंत्री) हो। हम सभी अरबों में सर्वश्रेष्ठ कुल के और वंश से सर्वश्रेष्ठ हैं।" 'उमर (दूसरा खलीफा) ने भी आगाह कर दिया कि दो खलीफा (कुछ लोगों के मतानुसार 'तलवार") एक साथ नहीं रह सकते। वह एक अरिष्ट होगा। अल्लाह की कसम, पैगंबर के कुल के सिवाय अन्य किसी को भी अरब खलीफा के रुप में नहीं मानेंगे...हम पैगंबर के कुल के (यानी कुरैश) हैं और इसलिए हम से बेहतर खलीफा पद का हकदार और कौन हो सकता है? केवल दुराग्रही, पापी और विनाश के गड्‌ढ़े में गिरने की चाह रखनेवाला ही इसे नकार सकता है।" इस प्रकार से पैगंबर की विरासत यानी खिलाफत के लिए संघर्ष शुरु हुआ।

 परंतु, मदीनावासियों द्वारा पीछे हटने के कारण मक्कावासियों का रास्ता साफ हो गया और उमर तथा एक और प्रभावशाली मक्कावासी अबू उबैदा (पैगंबर के आरंभिक सहयोगी) द्वारा तत्काल अबू बकर के प्रति एकनिष्ठता की शपथ लेकर उन्हें पैगंबर का वारिस खलीफा घोषित कर दिया गया। रुबेन लेव्ही के मतानुसार 'सच कहें तो उमर के इस निर्णय के कारण हर तरह से अबू बकर समाज पर लादा गया था। उसके बदले में अबू बकर ने मरते समय (अपने बाद) उमर की खलीफा पद पर नियुक्ति की थी।"  

परंतु, 'अबू बकर का विरोध करनेवाले केवल मदीनावासी ही नहीं थे बल्कि कुछ मक्कावासी भी उनके विरोध में थे। वे अली के समर्थक थे। इनका कहना था कि वे पैगंबर चचेरे भाई, दामाद और पैगंबर के ही हाशिम वंश के होने और योग्य होने के कारण खलीफा पद पर अधिकार अली का बनता है। जब अबू बकर को खलीफा चुना गया उस वक्त यह इने-गिने वहां मौजूद नहीं थे। मुहम्मद साहेब के निकट के रिश्तेदार होने के कारण वे उनकी अंत्येष्टि क्रिया की तैयारियों में व्यस्त थे। अबू बकर के चुनाव के संबंध में उनसे पूछा भी नहीं गया था। अली के पक्ष के लोग 'शीआ" तो अबू बकर, उमर के पक्ष के लोग 'सुन्नी" कहलाए और यहीं से इस्लाम के इन पंथों में विभाजन की शुरुआत हुई।

 शीआ गुट का आक्षेप है कि पैगंबर के हाशिम वंश के व्यक्ति को खलीफा पद से दूर रखने के लिए ही अली को इस पद से दूर रखा गया और इस संबंध में उनका सबसे अधिक गुस्सा उमर के प्रति है। शीआओं का कहना है कि सकिफा (सभागृह का नाम जहां चुनाव हुआ था) ('सकिफा" को 'मुस्लिमों कापहला विघटन" सूचित करनेवाला सामान्य नाम मानना चाहिए) में कुछ मदीनावासियों ने अली को खलीफा के रुप में चुनने की मांग की थी और यह भी कहा था कि मक्कावासियों में केवल अली ही ऐसे व्यक्ति हैं जिनकी योग्यता पर ऊंगली नहीं उठाई जा सकती और उन्हें मानवंदना देने के लिए हम तैयार भी हैं। (इन योग्यताओं को मुस्लिम इतिहासकार इब्ने खलदून ने अपने 'मुकद्दमे" मेें विस्तार से पृ. 178 से 180 पर दिया हुआ है।) 

परंतु, उमर ने तत्काल अबू बकर से निष्ठादर्शक हाथ मिला लिया। इतना होने पर भी कुछ अनसारों ने विरोध कर चिल्लाते हुए कहा 'हम अली के सिवाय अन्य किसी भी (कुरैश) नेता की मानवन्दना नहीं करेंगे"। परंतु, उनकी आवाज नक्कारखाने में तूती की आवाज बनकर रह गई।" 

'दूसरे दिन सार्वत्रिक मानवंदना के लिए जो जनसभा आयोजित की गई उसमें अली के पक्ष के लोग उपस्थित नहीं हुए। उनमें अली सहित अब्बास (पैगंबर के चाचा), जुबैर, तल्हा, खलीद बि. सईद, अमर (सभी पैगंबर के सहयोगी) और अन्य प्रतिष्ठित शामिल थे। हाशिम वंश (जिसके कि स्वयं पैगंबर थे) का कोई भी उपस्थित नहीं था (वे अंत्येष्टि क्रिया में व्यस्त थे)। दफन विधि के बाद अली के पक्ष के लोग अली की पत्नी फातिमा (पैगंबर की बेटी) के घर एकत्रित हुए। यह बात अबू बकर और उमर को पता चली। अबू बकर ने उमर को उधर भेजा। अली और उनके समर्थकों को खलीफा से एकनिष्ठता की शपथ लेने के लिए बाध्य करने का काम उन पर सौंपा गया था। वहां जाकर उमर ने फातिमा के घर में अनधिकृत प्रवेश कर उन्हें इशारा दिया कि, अगर उन्होंने ऐसी शपथ नहीं ली तो, वे घर को जला डालेंगे। वहां उपस्थित जुबैर ने उमर के विरोध में तलवार उठा ली। परंतु, उमर के लोगों ने उन्हें निःशस्त्र कर दिया और उनसे एकनिष्ठता की शपथ लेने में सफल रहे। परंतु, अली ने शपथ लेने से इंकार करते हुए उमर के सामने वही तर्क दोहराया जो उमर ने अनसारों के सामने दोहराया था कि 'खलीफा पद पर हमारा अधिकार इसलिए अधिक है क्योंकि, हमने तुमसे पहले इस्लाम का स्वीकार किया था और हम पैगंबर के अधिक निकट के रिश्तेदार हैं। उसी तर्क के आधार पर तो इस्लाम स्वीकार करनेवालों में तुमसे पहले मैं हूं कि नहीं? क्या तुम सबसे अधिक निकट का खून का रिश्ता पैगंबर के साथ मेरा है कि नहीं? इसलिए यदि तुम सच्चे मुसलमान हो तो अल्लाह से डरो और पैगंबर के परिवार से उसके वारिस होने का अधिकार मत छीनो।" दरवाजे की आड से फातिमा ने गर्जना की ऐ लोगों! पैगंबर का शव हमारे पास रखकर तुम हमारे अधिकार को नजरअंदाज कर खिलाफत हथियाने के लिए भागे।" उसके बाद रोते हुए वह बडी जोर से चिल्लाई 'ऐ पिताजी! ऐ अल्लाह के पैगंबर! इधर तुम गए उधर कितनी जल्दी अबू बकर और उमर हमारे ऊपर मुसीबतें डाल रहे हैं।" इसके बाद अली को अबू बकर के पास ले जाया गया। वहां उसे शपथ लेने के लिए कहा गया। इस पर अली ने स्पष्ट रुप से पूछा, 'अगर मैंने शपथ नहीं ली तो तुम क्या करोगे?" उसे उत्तर दिया गया ः'ऐ अल्लाह! तो फिर हम तुम्हें मार डालेंगे।" इस पर अली ने निर्भयतापूर्वक पूछा ः'क्या तुम अल्लाह के सेवक को और पैगंबर के भाई का कत्ल करोगे?" इस पर उमर ने कहा 'तुम पैगंबर के भाई हो यह हमे मान्य नहीं।"* इसके बाद खलीफा ने निर्णय दिया 'ऐ अली! अगर तुम्हें शपथ नहीं लेना हो तो मैं जबरदस्ती नहीं करुंगा।" इसके बाद अली सीधे पैगंबर की कब्र पर गए और जोरों से बोले 'ऐ मेरे भाई! ये लोग मेरे साथ कैसा तुच्छता का व्यवहार कर रहे हैं और मुझे कत्ल करने की तैयारी में हैं।" अंत में अली ने छह महीने बाद अबू बकर के प्रति एकनिष्ठता की शपथ ली। इस दौरान उनकी पत्नी फातिमा की मृत्यु हो गई थी।"

* लगता है उमर यहां मक्का यात्रा से मदीना लौटते समय सन्‌ 632 में 'खुम गधीर" के प्रवचन में पैगंबर मुहम्मद द्वारा अली के संबंध में निकाले गए उद्‌गारों को भूल गए उसमें पैगंबर ने कहा था ः'जो कोई मुझे मौला (स्वामी) के रुप में स्वीकारता है, उसने अली को भी मौला के रुप में स्वीकारना चाहिए। ऐ अल्लाह! अली के मित्रों का तू मित्र बन और अली के शत्रुओं का शत्रु बन। जो उसकी मदद करेंगे तू उनकी मदद कर, और जो उसे कमतर आंकेंगे तू उनकी आशाओं को निष्फल कर।" 'शीआ पंथीय मुस्लिम इस प्रवचन को इतना महत्व देते हैं कि खुमगधीर की घटना को वे ईद के रुप में (ईद की बजाए) मनाते हैं।" पैगंबर ने अली की प्रशंसा में कहा था 'अली मेरा और मैं अली का अंश हूं।" 'अली कुरान के साथ और कुरान अली के साथ है।" 'जो अली पर प्रेम करता है, वह मुझ पर प्रेम करता है। और जो अली का द्वेष करता है, वह मेरा द्वेष करता है, वस्तुतः वह अल्लाह का द्वेष करता है।" 'जो अली को कष्ट देता है, वह मुझे ही कष्ट देता है।" 'जो अली को कुछ देता है वह मुझे ही कुछ देता है।" 'जो अली को गाली देता है वह मुझे ही गाली देता है।" 'अली मेरा वजीर है, मेरे बाद वही मानवों में सर्वश्रेष्ठ है।" 'मैं जिनका नेता हूं, अली उनका नेता है।"

अली के धर्मप्रेमी, संयमी, उदार स्वभाव के कारण और इस्लाम की एकता को प्रधानता देने के कारण खुला संघर्ष नहीं हुआ और जो भी विवाद था वह अली द्वारा एकनिष्ठता की शपथ लेने के कारण समाप्त हो गया। परंतु, तात्कालिक रुप से वह विवाद भले ही थम गया था। परंतु, उनके अनुयायियों में बना रहा और आज भी शीआ-सुन्नी के रुप में पूरे विश्व में नजर आता है। फिर वह ईरान-इराक, सीरिया, लेबनान आदि अरब देश हों या भारत।

Friday, June 13, 2014

दुनिया से निराला काफिरस्तान
 
मुहम्मद मुस्तफा खॉं के उर्दू-हिंदी शब्दकोश के अनुसार 'काफिर" का अर्थ होता है- माशूक, प्रेमपात्र, कृषक, किसान, दर्या, नदी, ईश्वर की दी हुई नेमतों पर कृतज्ञता प्रकट न करनेवाला, सत्य को छिपानेवाला और 'काफिरस्तान" देश का निवासी। अधिकांश लोगों के मन में निश्चय ही सवाल उठ खडा होगा कि क्या काफिरस्तान नामका भी कोई देश या प्रदेश हो सकता है तो, उन्हें यह जानकर आश्चर्य का झटका लगेगा कि हां इस प्रकार का एक प्रदेेश इस विश्व में है और वह भी पाकिस्तान में तो उनका आश्चर्य दोगुना हो जाएगा। क्योंकि सामान्य हिंदू तो यही समझता है कि काफिर मतलब वह जो इस्लाम को नहीं मानता और भला ऐसा प्रदेश और वह भी पाकिस्तान में कैसे हो सकता है? 
 
यह प्रदेश गांधीजी के अनन्य सहयोगी सरहद गांधी के वायव्य प्रांत से लगा हुआ होकर बारहमासी नदी 'चित्रल" के तट पर बसे चित्रल शहर से तीस किलोमीटर दूर स्थित है। यह प्रदेश पूरी तरह पहाडी है और पिछडा होकर आज भी मानो 18वीं शताब्दी में ही जी रहा है। इसके दो कारण है हमेशा तेज गति से बहते रहनेवाली चित्रल नदी और अत्यंत दुर्गम पहाडी भाग होना। ब्रिटिश सरकार तक को इसकी कोई विशेष जानकारी नहीं थी।
 
इंटरनेट की जानकारी के अनुसार पाकिस्तानी लेखक अफजल खान ने 'चित्रल और काफिरस्तान ः ए पर्सनल स्टडी" नामका यात्रा वृतांत लिखा है उसमें पृष्ठ 12 से 15 के बीच 'ए शॉर्ट हिस्टरी ऑफ चित्रल एंड काफिरस्तान" नामका एक अध्याय है उसमें काफिरस्तान का नामोल्लेख है। इसका कारण बतलाते हुए लेखक का कहना है ः 'काफिर लोगों से चर्चा करने के लिए मुझे कोई दुभाषिया नहीं मिला।" इन लोगों की भाषा बिल्कूल ही भिन्न होकर उनकी बोली को भी काफिर ही कहें तो ज्यादा बेहतर होगा क्योंकि  संसार की किसी भी भाषा से उसकी समानता नहीं। इनकी भाषा की कोई लिपि नहीं होने के कारण कोई साहित्य ही नहीं होता।
 
पिछले सौ वर्षों में कुछ गिने-चुने विदेशी ही वहां तक पहुंचे हैं। सन्‌ 1890-91 में ब्रिटिश जॉर्ज स्कॉट राबर्टसन ने वहां भेंट थी थी और वहां का रोचन वर्णन 'काफिर ऑफ द हिंदूकुश पर्वत" में किया है। उनसे प्राप्त जानकारी के अनुसार ये काफिर विश्वविजेता सिकंदर के सिपाहियों के वंशज हैं। लाल-गोरा रंग, सुनहरे बाल, नीली आंखों वाले ये लोग जब सिकंदर खैबर दर्रे से वापिस यूनान लौट रहा था तब हिंदूकुश पर्वत के इस दुर्गम भाग में कुछ सैनिक रास्ता भूल गए और बहुत प्रयत्नों के बावजूद जब वे वहां से निकल ना सके तो वहीं बस गए। रुडयार्ड किपलिंग की कलाकृति 'द मॅन हू वुड बी किंग"(1888) काफिरस्तान के लोगों पर ही लिखी हुई होना चाहिए ऐसा इंग्लिश साहित्य समीक्षकों का कहना है। जिस पर एक फिल्म (1975) भी बनी थी जिसमें जेम्सबांड फेम 'सीन कानेरी" और मायकल कैन ने काम किया था। 
 
काफिरस्तान के लोग मूर्तिपूजक होकर बहुदेववादी थे। उनके तीन प्रमुख देवताओं के नाम 'इमरा" (श्रेष्ठ निर्माता), 'मोनी" (हीन देवता) और 'गिश" युद्ध देवता। इतिहासकारों के मतानुसार 1398 में इन काफिरों ने तैमूरलंग से और 1526 में जब मुगल बादशाह बाबर  इधर आया था तब इन्होंने उनसे टक्कर ली थी। 1895-96 में अफगिनास्तान के अमीर अब्दुर रहमान खान ने इस क्षेत्र के लोगों को साम दंड भेद की नीति अपनाकर मुसलमान बनाया और इस प्रदेश का नाम नूरीस्तान (नूर यानी प्रकाश) रखा। इसने जीतने के बाद हजारों लोग को यहां से हटाकर दूसरे प्रदेशों में बसा दिया। 1900 में इनकी आबादी 60,000 थी जो अब बहुत ही कम हो गई है।
 
इनका रहन-सहन बिल्कूल ही अलग है ये वाइन पीना और नाच-गाना पसंद करते हैं और हर गांव में एक नाचने का प्लेटफॉर्म और नाचघर होता ही है। नवजात के जन्म के समय, विवाह के अवसर पर और तो और मृत्य के अवसर पर भी ये नाचगाने का आयोजन करते हैं। ठंड के दिनों में ये अग्नि की पूजा करते हैं। खेती के मौसम में जलपूजक बन जाते हैं। ब्रिटिश डॉ. जॉर्ज राबर्टसन के अनुसार इनके 70 देवता हैं। कुछ वर्षों बाद गए लुईस डुप्री ने इनके सात देवताओं के बारे में बतलाया है इनमें अग्नि, वरुण, सूर्य, चंद्र का समावेश है। पूजा के समय सुगंधित धूप जलाते हैं और बकरे की बलि देते हैं। 
 
मई महीने में ये वसंतोत्सव मनाते हैं। उसे 'जुशी" कहते हैं। इस समय ये रंगबिरंगे कपडे पहनते हैं। इनके पोशाक वनस्पतीजन्य प्राकृतिक रंगों से रंगे जाते हैं। शरीर को फूलों से सजाकर नाचते गाते हैं। जुलाई में गेहूं बुआई का उत्सव मनाते हैं। सितंबर में अंगूर और अखरोट की फसल आने पर आनंदोत्सव समारोहित करते हैं। इनका नववर्ष दिसंबर में आता है जिसे ये जोर शोर से मनाते हैं।  गेंहू, जौं और बकरे का मांस इनका प्रमुख भोजन है इसके अलावा हिंदूकुश पर्वत पर मिलने वाले फल भी इनका आहार होते हैं। अतिथि सत्कार भरपूर अखरोट से करते हैं। 
 
काफिरों का धर्मगुरु होने के लिए धनवान होना आवश्यक है जो अधिकाधिक लोगों को भोजन करा सके। इनकी धारणा है कि उसका हुक्म मानना चाहिए। इनके धर्मगुरु को 'उटाह" कहते हैं। इनमें बहुविवाह की प्रथा है। विवाह योग्य लडके को एक भाला और कुछ भेडों के साथ जंगल में छोड दिया जाता है। एक वर्ष पश्चात जब वह शारीरिक और मानसिक शक्ति प्राप्त कर लौटता है तब उसका विवाह उसकी पसंद की लडकी से कर दिया जाता है।  
 
इनके मृतक के अंतिम संस्कार की रीत भी दुनिया से निराली है। ये अंतिम संस्कार पर्वत शिखर पर किसी विशिष्ट स्थान पर करते हैं। किसी रोग से मृत्यु होने पर अग्निसंस्कार किया जाता है। अकाल मृत्यु पर मृत देह को लकडी की पेटी में रखकर उसके साथ कपडे, आभूषण और मृतक की पसंदीदा चीजें रखी जाती हैं। परंतु मृत देह को न दफनाते पर्वत शिखर पर खुले में रखा जाता है जिसे पशु-पक्षी खा जाते हैं। एक विशेषता और खुले में रखी हुई होने के बावजूद कोई भी बहुमूल्य वस्तुओं को हाथ नहीं लगाता इसके पीछे सोच यह है कि ऐसा करना यानी मृत्यु को बुलावा देना है। पुनर्जन्म में ये विश्वास करते हैं। प्राकृतिक मृत्यु होने पर भी उत्सव मनाते हैं और पूरे गांव को मटन का भोजन कराते हैं। ऐसी अपनी दुनिया से निराली आधुनिक संस्कृति से दूर काफिर जाति के ये लोग अत्यंत निर्भय होकर स्वयं की अपनी निराली दुनिया में रमे रहना पसंद करते हैं।