Friday, June 28, 2013

तुर्की में दरकती दीवारें प्रजातंत्र की
तुर्की पूरी दुनिया में एकमात्र ऐसा इस्लामी देश है जो धर्मनिरपेक्ष है यहां की 99% जनता मुस्लिम है । वर्तमान में तुर्की युवाओं एवं मजदूर संगठनों द्वारा पिछले दो सप्ताह से भी अधिक समय से किए जा रहे 'तकसिम एकजुटता" आंदोलन और इस आंदोलन को कुचलने के लिए प्रधानमंत्री एर्दोगान की इस्लामी पार्टी द्वारा अपनाए जा रहे दमनकारी रवैये के कारण अंतरराष्ट्रीय पर चर्चा में है। बडे शहरों के युवा व्यक्तिगत आजादी एवं अनुदारवादी इस्लामी सरकार के बढ़ते नियंत्रण के विरोध में हैं। तुर्की का हर दूसरा नागरिक एर्दोगान के रवैये को निरंकुश बता रहा है। सरकार विरोधी प्रदर्शन तब प्रारंभ हुए जब सरकार ने इस्तंबूल के प्रसिद्ध गेजी पार्क में ऑटोमन काल की सैनिक बैरेक बनवाना चाहा। इस आंदोलन के फलस्वरुप हजारों जख्मी हो गए हैं व कुछ लोग मारे भी गए होकर यह आंदोलन तुर्की के सभी प्रमुख शहरों में फैल गया है।

ये एर्दोगान वही नेता हैं जिन्होंने 2007 में हिजाब (परदा) बंदी हटाएंगे का आश्वासन अपने घोषणापत्र में दिया था। उन्होंने यह भूमिका ली थी कि हिजाब पहना इसलिए नौकरी नहीं मिलेगी, पढ़ने नहीं दिया जाएगा मानवाधिकार विरोधी है। उस समय भी हजारों धर्मनिरपेक्षवादियों ने मतदान के दौरान भारी विरोध प्रदर्शन किया और सुप्रीम कोर्ट की ़शरण ली व कोर्ट ने हिजाबबंदी को कायम रखा। आंदोलनकारियों को डर है कि कहीं सरकार तुर्की का धर्मनिरपेक्ष रुप बदल ना दे। एर्दोगान तुर्की के सामाजिक जीवन में इस्लामी परंपराओं को फिर से स्थापित करने के पक्षधर हैं और विरोधियों का कहना है कि तुर्की आज जो कुछ भी है वह धर्मनिरपेक्ष होने के कारण ही है। एक इस्लामी देश में धर्मनिरपेक्षता का इतना जोर कहां से व किस प्रकार आया तथा वह धर्मनिरपेक्ष किस प्रकार से बना इसके लिए तुर्की के इतिहास का अवलोकन करना पडेगा।

इस्तंबूल तुर्की की सांस्कृतिक राजधानी। पूर्वी भाग यानी एशिया का भाग को 'अनातोलिया" (एशिया मायनर) यानी 'सूर्योदय का", 'प्रकाश का प्रदेश" तो, पश्चिम की ओर का भाग यानी 'यूरोप"शब्द का अर्थ 'सूर्यास्त का" यानी 'अंधेरे का प्रदेश"। ईसा पूर्व इसका नाम था बायजंटाईन। यहां की प्रजा में विविध उपासना पद्धतिवाले लोग थे। उनमें संघटित उपासना पद्धतिवाला समाज यानी यहूदी समाज। बाकी के समाजों के ईश्वर, कर्मकांड आदि भिन्न-भिन्न होने के बावजूद वे एकत्रित रहते थे व प्रजातांत्रिक थे।

ई.पू. 546 में पर्शियन राजा ने बायजंटाईन को जीत लिया और प्रजातंत्र नष्ट होकर एकतंत्री शासन हो गया। सन् 300 में रोमन राजा कांस्टंटटेनियस ने बायजंटाईन को जीतकर इसका नाम कांस्टंटाईन कर दिया इसका और चर्च का झगडा था और चर्च के काम में वह हस्तक्षेप किया करता था इसने स्वयं ही एक बिशप को नियुक्त कर दिया चर्च द्वारा विरोध भी हुआ परंतु इसने कुचल दिया। सन् 361 में ज्यूूलियन राजा हुआ इसने सत्ता हिजडों के हाथ में सौंप दी। सन् 390 के आसपास थियोडोसियस राजा बना वह यहूदियों के मामले में उदार था उसने ईसाइयों द्वारा उनके ध्वस्त किए गए सायनागॉग के पुनःनिर्माण की अनुमति दी और एक कानून बनाकर मूर्तिपूजा बंदी लागू कर मूर्तिपूजकों के मंदिरों को नष्ट कर दिया। इसीके काल में ईसाई परंपराओं, धर्म के विविध अर्थ निकाले जाने लगे। सन् 691 में जस्टियन के कार्यकाल में 120 फतवे निकाले गए। फतवों में अभिनय की बंदी की गई थी, स्त्रियां खुले में नाच नहीं सकती थी, स्त्रियां पुरुषों के और पुरुष स्त्रियों की पोशाक पहन नहीं सकते थे, आदि। सन् 717 में लिओ मूर्तिभंजक शासक था। ईसाई मूर्तिभंजक उसने ईसा के एक तेलचित्र को नष्ट कर दिया। सन् 1180 में कांस्टंटटिनोपल में 2500 यहूदी व उनके सायनागॉग भी थे। कोई अमीर तो कोई गरीब परंतु उनके साथ व्यवहार अपमानजनक ही किया जाता था।

सन् 1453 में ऑटोमन सुलतान दूसरे महमूद (1429-81) ने कांस्टंटटिनोपल को जीतकर उसका नाम इस्तंबूल कर दिया और वहां के चर्च 'हागिया सोफिया" का रुपांतरण 'सोफिया कबीर मस्जिद" में कर दिया। बाद में कबीर मस्जिद चर्च को रुपांतरित कर बनाई गई थी इसलिए उसने सोफिया कबीर मस्जिद के सामने ही भव्य नीली मस्जिद का निर्माण किया। पैगंबर मुहम्मद ने मदीना में जो परंपरा स्थापित की थी वह ही इस्तंबूल में टिकी। मस्जिद के आसपास इमामों के रहने के स्थान, हमामखाने निर्मित किए गए, दुकानें खुली।

तुर्की के राष्ट्रीय समाज की रचना सुलेमान (1494-1566) के काल में हुई। उसे यूरोप में मॅग्निफिसेंट और उसके साम्राज्य को 'कानूनी" यानी कानून निर्माता के अभिधान प्राप्त हुए। यह इस्लामी मान्यता के विरुद्ध था क्योंकि इन कानूनों का उद्गम 'शरीअत" से नहीं था। इस प्रकार सुलेमान मौलवियों से मुक्त हो गया। वह स्वयं ही मुफ्ती की नियुक्ति करने लगा। मस्जिदों के इमाम, कुरान पाठक आदि पगारदार सरकारी नौकर हो गए। उसने मदरसों को भी अपने अधीन ले लिया। यूरोप के लोगों पर ऑटोमन कानून लागू न करने के कारण वहां तद्देशीय व्यापारी वर्ग का उदय हुआ और व्यापार पर विदेशियों का नियंत्रण रहा।इन सुधारों का इमामों और मुल्लाओं ने विरोध किया।

सुलतान दूसरे मुहम्मद (1808-39) के काल यानी 1830 के आसपास उसने पश्चिमी पद्धति की शिक्षण पद्धति को इस्तंबूल की पाठशालाओं में लागू किया। इस शिक्षा पद्धति से निकले हुए लोग सेना और सुलतान के कामकाज में ऊंचे पदों पर जाने लगे। समाज में उनका दबदबा निर्मित हुआ और सुधारों को प्रतिष्ठा प्राप्त हुई। इन सुधारवादी विचारों में धर्म, सेक्यूरिज्म का प्रवाह था। मुहम्मद के पुत्रों पहला अब्दुल (1839-61) और अब्दुल अजीज (1861-76) के कार्यकाल में सुधारों को अमल में लाया गया। इन सुधारों के आंदोलन को तंजीमात कहते हैं। सुधारों का स्वरुप विविध था। कानूनों को अमल में लाने का काम उलेमाओं से छिनकर सरकारी न्यायलयों को सौंप दिया गया। मस्जिदें और शिक्षा सरकार के हाथों मे आ गई।

इन तंजीमात के एक परिणाम के रुप में युवा तुर्क के नाम से बुद्धिवादी देशभक्तों का संगठन सामने आया। इनमें से नामिक कमाल (1840-88) के सुधारों का व्यापक परिणाम हुआ। उसीने सबसे पहले देश का एक ही संविधान होना चाहिए की कल्पना लोकप्रिय की। राष्ट्रभक्ति व निष्ठा ऑटोमन पितृभू के प्रति होना चाहिए का विचार लोगों के सामने रखा। 1867 में इस्तंबूल के 'तस्वीर इ एफकार" इस वर्तमान पत्र में उसने स्त्री-पुरुष समानता के संबंध में एक लेख लिखा उसे इस्लाम विरोधी समझने के कारण वह लोगों का कोपभाजन बन गया और उसे देश छोडना पडा। 1870 में वह वापिस लौटा परंतु, उसे स्त्री स्वतंत्रता का विषय छोडना पडा। वह राष्ट्रवाद एवं स्वतंत्रता पर लिखने लगा। इस प्रकार से तंजीमात और उदार मतों का तुर्की में सूत्रपात हुआ उसकी पूर्णता 2 अप्रेल 1924 को हुई।

जिस समय ऑटोमन साम्राज्य अस्त हो रहा था उस समय तुर्कस्तान के लोग स्वयं को ऑटोमन के स्थान पर तुर्क कहने लगे। पहला महायुद्ध समाप्त होने के बाद तुर्की मित्र राष्ट्रों के चंगुल से छूटकर स्वतंत्र हुआ। इस स्वतंत्रता आंदोलन का नेता था कमालपाशा। 1922 में उसकी सत्ता दृढ़ हुई, 1923 में तुर्की एक स्वतंत्र रिपब्लिक राष्ट्र के रुप में सामने आया और विश्व पटल पर एक प्रजातांत्रिक राष्ट्र के रुप में अवतरित हुआ। इसी वर्ष चुनावों में स्त्रियों का अंतर्भाव किया जाए का प्रस्ताव विधिमंडल में पारित हुआ। कमाल पाशा ने स्त्रियों के मामले में जरा सावधानी बरती उसे मालूम था कि मुसलमान स्त्रियों के संबंध में अपने पुराने विचार छोडने के लिए इतनी आसानी से तैयार नहीं होंगे।

एक जाहिर भाषण में उसने कहा 'स्त्रियों को शिक्षा मिलनी ही चाहिए केवल शिक्षा ही नहीं अपितु अच्छी शिक्षा। यदि अपने को अच्छे पुरुष, नागरिक चाहिए हों तो उनका माताएं अच्छी शिक्षित होना ही चाहिए...समाज का एक भाग पुरुष प्रगति करे और दूसरा स्त्रियों का भाग पिछडा रहा तो समाज की प्रगति कैसे होगी? ... अपन ने शुरु की हुई क्रांति तभी सफल होगी जब स्त्री-पुरुष समान स्तर पर हों, उनमें मित्रत्व का नाता निर्मित होना आवश्यक है।" तुर्की के लोगों के लिए यह सबकुछ नया था परंतु, कमालपाशा बोल रहा है इसलिए उन्होंने सुन लिया। आगे उसने कहना प्रारंभ किया कि 'यात्रा के दौरान मैंने देखा कि स्त्रियां टॉवेल या किसी कपडे से मुंह ढ़ककर बैठती हैं, पुरुष सामने आने पर चेहरा घूमा लेती हैं। एक सुसंस्कृत समाज में माता-बहनों का इस प्रकार के व्यवहार  का क्या अर्थ निकलता है। इससे अपना देश, समाज हास्य का पात्र बनता है।... स्त्रियां बुरका छोड दें। उसने स्त्री-पुरुष पाश्चात्य संगीत के ताल पर नृत्य करें इस प्रकार के कार्यक्रम आयोजित करना प्रारंभ किए। प्रसंग ढूंढ़कर वह इस प्रकार के कार्यक्रम आयोजित करता था। आश्चर्य की बात यह है कि नृत्य वह शुक्रवार जो मुसलमानों का पवित्र दिन है उसी दिन आयोजित करता था।

कमालपाशा ने स्त्रियों को समान अधिकार देने की व्यवस्था संविधान में 1926 में शरीअत को दूर कर एवं यूरोपीय पद्धति का एक स्वतंत्र नागरिक कानून जारी कर विवाह-तलाक-उत्तराधिकार विषयक व्यवस्थाएं उसमें की। इस कानून का आधार कोईसा भी धर्मग्रंथ नहीं था। इस कानून के अनुसार सिविल मेरिज पद्धति से विवाह करना और उसका पंजीकरण सरकार के पास करना बंधनकारक था। इसी कानून में एकपत्नीत्व की व्यवस्था भी थी, बहुविवाह गैरकानूनी था। तलाक भी न्यायालय के माध्यम से ही होते थे मुल्लाओं का कोई स्थान न था। 1928 में स्त्रियों को नगरपालिका चुनावों में मतदान का अधिकार मिला। 1933 में लोकसभा चुनावों में मतदान का अधिकार मिला। उसीके प्रयत्नों से 1935 के चुनावों में 17 स्त्रियां लोकसभा में चुनकर गई। विरोध भी बहुत हुआ क्योंकि, इस्लामी मानस के लिए यह सबकुछ एकदम नया ही था। अल्लाह, पैगंबर, धर्म इन सबको उसने ताक पर रख दिया और विरोध प्रदर्शन करनेवालों को जेल की हवा खिला दी। कानून बनाना, लागू करना प्रजातांत्रिक पद्धति से होने के कारण वह मौका आने पर पुलिसबल का उपयोग करने से भी नहीं चूकता था।

2 अप्रैल 1924 को कानून बना मदरसों पर बंदी ला दी। कमालपाशा केवल यही नहीं रुका बल्कि उसने ढूंढ़-ढूंढ़कर मदरसे बंद कर दिए। उसके पूर्व के सुलतानों ने सेक्यूलर शिक्षा देनेवाली स्कूलें जरुर खोली पर मदरसों पर पाबंदी नहीं लगाई थी।परंतु, कमालपाशा ने यह कदम उठाया। सरकार ने एक स्वतंत्र धार्मिक कामकाजों का विभाग खोलकर मस्जिदों के इमामों को सरकारी नौकर बना दिया उनके लिए भी स्कूलें खोलकर उनको विज्ञान, गणित की शिक्षा दी जाती है। कॉलेजेस में धर्मविषयक शिक्षा का गहन ज्ञान दिया जाता है, संसार के अन्य धर्मों की शिक्षा भी दी जाती है। कुरान, कुरानपठन विषय रहते हैं परंतु, कुरान का क्या अर्थ लगाना यह सरकार तय करती है। अतिरेक, आतंकवाद, गुलामगिरी का समर्थन करनेवाली कालबाह्य बातों का समर्थन करना नहीं सीखाया जाता। प्रारंभ में मुल्लाओं ने विरोध किया परंतु उन्हें बाकायदा मुकदमे चलाकर दंडित किया गया।


आज तक यह व्यवस्थाएं तुर्की में टिकी हुई हैं। इस्लामी पक्ष जरुर सिर उठा रहे हैं, परंतु जनता यह व्यवस्था भंग की जाए की मांग नहीं करती। धर्मनिरपेक्षता, संसद द्वारा बनाए कानूनों के आधार पर की गई व्यवस्था जनता में रच-बस गई है इसीलिए  एर्दोगोन जिन्होंने तुर्कस्तान के कृषकों व छोटे उद्यमियों के लिए कष्टकारी कानूनों को हटाकर विकास में आर्थिक निवेश किया। सीरिया, आर्मेनिया, यूनान जैसे शत्रु राष्ट्रों के साथ करार कर शत्रुता समाप्त की। रक्षा खर्च कम कर गांवों के विकास में खर्च किया जब वही उनकी धर्मनिरपेक्षता के आडे आने लगे तो वे आज उनके विरुद्ध अपनी स्वतंत्रता व धर्मनिरपेक्षता की रक्षा के लिए खडे हो विरोध प्रदर्शन के नए-नए तरीके अख्तियार कर रहे हैं।   

Thursday, June 20, 2013

सूत ना कपास जुलाहों में लट्ठमलट्ठा क्यों?

भारत के फिल्म इतिहास के दो लीजेंड हैं दिलीपकुमार और देवआनंद। दिलीपकुमार जिन्होंने अपने लाजवाब अभिनय से ट्रेजेडी किंग का खिताब हासिल किया और देवआनंद जो सदाबहार ऐव्हरग्रीन चाकलेटी हीरो के रुप में जाने गए, मेटिनीकिंग के रुप में नवाजे गए। लेकिन दिलीपकुमार ने उम्रदराज होने के बाद भी अपने आदर-सम्मान को बरकरार रखा क्योंकि कब रिटायर हो जाना चाहिए इसका भान उन्होंने समय रहते रखा। वहीं देवआनंद भले ही अपने अंतिम समय तक फिल्म निर्माण के काम में लगे रहे और लोगों ने उनके बिना थके या निराश हुए फ्लाप फिल्मों की झडी (1980 में अपनी अंतिम सफल फिल्म देस-परदेस के बाद उनकी कोई भी फिल्म सफल नहीं हुई) लगाने के बावजूद अपनी लगन व समर्पण के कारण फिल्में बनाते रहने की जीजीविषा की सराहना की। परंतु अपनी नाती की उम्र की हीरोइनों के साथ हीरो के रुप में काम करते रहने और बुढ़ापे का असर चेहरे चाल-ढ़ाल में दिखने के बावजूद हीरो के रुप में डटे रहने के कारण अंततः वे हास्य के पात्र ही बने और अपना वह सम्मान जिसके वह वास्तव में हकदार थे खो बैठे।

जो हाल देवआनंद का हुआ वही हाल अब आडवाणी का हो रहा है। माना कि वे आज भी पूरी तरह स्वस्थ एवं कार्यक्षम हैं परंतु, जमाना बदल गया है, वे अब चूक गए हैं समय रहते उन्हें रिटायर हो स्वयं होकर पार्टी के मार्गदर्शक की भूमिका में आकर युवा नेतृत्व के लिए स्थान रिक्त कर देना था। परंतु उन्होंने किया क्या जब स्पष्ट दिख रहा था कि पार्टी धीरे-धीरे मोदी के पीछे लामबंद होती जा रही है, ऐसे समय में बीमारी का बहाना बनाकर कोपभवन में जा बैठना, बाद में इस्तीफे का ब्रह्मास्त्र चलाना फिर पीछे घूम की स्थिति में आ जाना, अपन पराजीत हो गए हैं कि स्थिति में स्वयं को लाना आडवाणी जैसे तपे-तपाए राजनीतिज्ञ ने जो इतना विचारवान और कुशाग्र हो कि आठ माह पूर्व साक्षात्कार में दिए हुए उत्तर के बाद आज की तारीख में दिए हुए उत्तर में ऐसा कोई विरोधाभास नजर आए कि कोई स्पष्टीकरण देना पडे या गलतफहमी पैदा हो, ऐसा कभी होते दिखा नहीं ऐसा परिपक्व आजीवन अपने ध्येय के लिए समर्पित रहनेवाला राजनेता स्वयं को हंसी का पात्र बनवा लेनेवाला इस प्रकार का उपक्रम, जब स्पष्ट दिख रहा था कि मोदी का प्रभाव बढ़ गया है करेगा ऐसा लगा नहीं था। परंतु ऐसा हुआ और वे फजीहत को प्राप्त हुए।

लालकृष्ण आडवाणी का जन्म 8 नवंबर 1927 को कराची में एक खुशहाल उच्चमध्यमवर्गीय परिवार में ज्येष्ठ पुत्र के रुप में हुआ। उनका मूल नाम लाल और पिता का कृष्ण परंतु कालांतर में उसका हो गया लालकृष्ण। उनकी शिक्षा कराची के प्रसिद्ध सेंट पॅट्रिक्स स्कूल में हुई इस कारण प्रारंभ में उन पर फादर एवं नन्स के संस्कार हुए। उनके एक मामा रामकृष्ण मीरचंदानी थे जो कांग्रेस का कार्य करते थे परंतु उनके जीवन पर मामा के विचारों का कोई प्रभाव नहीं पडा। घर में किसी भी तरह का सामाजिकता का भान न होने के बावजूद वे रा.स्व.से. संघ की ओर आकृष्ट हुए। 1942 में 15 वर्ष की अवस्था में आडवाणी अपने ननिहाल हैदराबाद आए और वहां राम कृपलानी के घर की छत पर लगनेवाली संघ की शाखा में अपने चचेरे भाई प्रीतम और एक अन्य रिश्तेदार हीरु के साथ मात्र उत्सुकतावश गए। वहां शामलाल का बौद्धिक था और विषय था 'हिंदुत्व"। आडवाणी को संघकार्य का महत्व समझ में आया और वे हमेशा के लिए संघ के सच्चे स्वयंसेवक बन गए।

इसी दौरान उन्होंने एक पुस्तक पढ़ी 'ऐ वार्निंग टू द हिंदू सोसायटी" जिसे मूलतः एक ग्रीक परंतु विवाहोपरांत हिंदू बन चूकी विद्वान महिला 'सावित्रीदेवी" ने लिखा था। इस ग्रीक महिला ने इस पुस्तक में इशारा दिया था कि, 'तुम जाग जाओ। अभी भी समय गया नहीं है। ब्रिटिशों (ईसाई) के केवल राजनैतिक ही नहीं तो सांस्कृतिक आक्रमण के कारण जिस प्रकार से ग्रीक संस्कृति रसातल में चली गई उसी प्रकार से हिंदू संस्कृति भी रसातल में चली जाएगी। इसलिए हिंदुओं अब तो भी जाग जाओ। सामने की परिस्थिति का सामना करो।" इस पुस्तक एवं शामलाल के बौद्धिक के विचारों के कारण आडवाणी के जीवन की दिशा ही बदल गई। और शिक्षा छोड संघ प्रचारक बनने का निर्णय उन्होंने 1946 में ले लिया। उस समय वे इंजीनियरिंग के द्वितीय वर्ष में पढ़ रहे थे। इसी वर्ष वे नागपूर में संघ के तृतीय वर्ष के शिविर के लिए आए थे उनके साथ केदारनाथ साहनी, के. आर. मलकानी भी थे। संघ के घोष पथक में वे बांसुरी बजाया करते थे। अधिकाधिक बच्चों पर संघ संस्कार हो सके इसके लिए वे कराची के मॉडल हायस्कूल में शिक्षक की नौकरी करने लगे।

विभाजन के पश्चात 12 सितंबर 1947 को चोरी-छिपे हवाई मार्ग से भेस बदलकर हमेशा के लिए भारत आ गए और 1952 में जनसंघ की स्थापना के पश्चात राजस्थान में जनसंघ का कार्य करने लगे। बाद में प्रचारक का कार्य छोडकर 'ऑर्गनायजर" में पत्रकारिता करने लगे। आपको आश्चर्य होगा परंतु,1964 में ऑर्गनायजर में वे सिनेमा विषयक स्तंभ लिखने लगे। आयु के 37वें वर्ष 1965 में वे कमलाजी से विवाहबद्ध हो गए। उन्हें एक पुत्र जयंत एवं पुत्री प्रतिभा है। उनके परिवार से कोई भी राजनीति में  सक्रिय नहीं है।

उनका इतिहास गवाह है कि वे परास्त जरुर होते रहे हैं परंतु, हताश नहीं। इसलिए वर्तमान में नजर आ रही उनकी हार को हार मान लेना भूल करना होगा। जिन्होंने विभाजन की त्रासदी भोगने के बाद निर्वासित के रुप में भारत आकर 1948 में गांधी हत्या के बाद संघ पर आए भयंकर संकट का सामना एक प्रचारक के रुप में किया हो, 1952 में 3, 1957 में 4, 1962 में 14 सांसद पार्टी के चुने गए, ऐसे संघर्षपूर्ण काल में अडिग रहकर सतत बिना विचलित हुए कार्य करते आपातकाल रुपी विपरीत काल भी देखा और भोगा भी। 1984 में 2 सीटों पर पहुंच गई पार्टी को 2 से 186 तक का सफर तय करवाया हो जिनकी पार्टी पर इतनी पकड थी कि पार्टी में अटल टू आडवाणी और आडवाणी टू आडवाणी के अलावा अन्य कोई पार्टी अध्यक्ष वह रुतबा ही हासिल नहीं कर पाया जो आडवाणी का था। वह निश्चय ही इतनी जल्दी हार मानकर हताश हो, अपनी उपेक्षा सह अपमान का घूंट पीकर चुप बैठ जाएंगे, प्रधानमंत्री पद की अपनी दावेदारी छोड देेंगे लगता नहीं।

जिन मुद्दों को उठाकर आडवाणी ने इस्तीफा दिया था वे तो उनके कार्यकाल में भी मौजूद थे लेकिन तब वे उन्हें नजर नहीं आए और आज अचानक नजर आने लगे। राजनीति के इस माहिर खिलाडी द्वारा इस्तीफा देकर पार्टी को धर्मसंकट में डालना फिर वापिस लेना एक सोची समझी रणनीति ही नजर आती है भले ही इससे पार्टी की साख को बट्टा लग गया हो । इस बदलते परिवेश में पार्टी के अंदर अपने समर्थन में कौन, किस प्रकार के और कितने हैं तथा पार्टी के बाहर अपने पक्ष में कौन खडे हो सकते हैं, अपनी मान्यता कितनी है का जायजा लेने के लिए अपनाई गई एक रणनीति है। मोदी की प्रधानमंत्री के लिए चल रही घुडदौड में बाधा डालना मात्र है। हां उनके इस कदम से यह जरुर हो गया है कि मोदी को तत्काल प्रधानमंत्री पद का पार्टी प्रत्याशी घोषित करना हालफिलहाल टल गया है और भविष्य में लिए जानेवाले फैसलों में उनकी सलाह जरुर ली जाए ऐसी परिस्थिति निर्मित करने में वे सफल हो गए हैं। वर्तमान में वे सभी पदों पर बने हुए हैं।

इसके पूर्व सन् 2005 में जिन्ना की तारीफ में कसीदे पढ़ना भी अपनी छबि बदल स्वयं को सेक्यूलर कहलवा पार्टी के बाहर अपनी मान्यता बढ़ाने का एक उपक्रम ही तो था। परंतु यह प्रयास सफल हो, चर्चित हो उसके पूर्व ही पार्टी में हुए भारी विरोध के कारण वे अपनी छबि को धक्का जरुर पहुंचा बैठे। वैसे अभी उन्होंने जो रणनीति अपनाई है उसका परिणाम तो चुनाव बाद ही नजर आएगा। परंतु, अब परीक्षा की घडी तो मोदी की है जिन्हें चुनाव प्रचार प्रमुख के रुप में पार्टी को इतनी सीटें जीतवाकर लाना है कि सरकार बनाने के लिए अन्य छोटी-मोटी पार्टियां उनके साथ स्वयं होकर जुडें और एक वृहत्तर एनडीए का गठन हो उनका प्रधानमंत्री पद तक पहुंचने का मार्ग प्रशस्त हो सके। वरना इतिहास फिर से दोहराए जाने कि संभावना है कि गठबंधन के लिए सर्वमान्य नेता के रुप में आडवाणी को ही चुना जाए। भले ही आज एनडीए विघटित होते दिख रहा हो परंतु, भाजपा को सबसे अधिक सीटे मिलने की स्थिति में हालात बदल भी सकते हैं। नए दल जुड भी सकते हैं। वैसे जो भी होगा वह तो भविष्य के गर्भ में ही छिपा हुआ है।

लेकिन अपनी अतिमहत्वाकांक्षा की जद में आकर वह यह भूल बैठे कि जिस आक्रमकता के लिए वे जाने जाते थे वह आक्रमकता अब गायब हो गई है। पार्टी मूलतः ही जुझारु एवं आक्रमक प्रवृत्ति की है और जब भी वह आक्रमक स्थिति में आती है आपसी फूट, विवादों को भूलकर एकजुट हो विजय के पथ पर अग्रसर होती है। 90 के दशक की आक्रमकता अब आडवाणी में रही नहीं है, वे पार्टी कार्यकर्ताओं में वह जोश भी नहीं भर सकते जो वे भर दिया करते थे और पार्टी अब पुनः 90 के दशक के मार्ग पर बढ़ चली है इसलिए अब पार्टी कार्यकर्ता भी उनके पीछे नहीं आक्रमक मोदी के पीछे हैं।

'गांधीनु गुजरात को मोदीनु गुजरात" में बदलनेवाले नरेंद्र मोदी के बारे में सबसे पहले विहिप के अशोक सिंघल ने कहा था- 'मोदी आज नेहरु जितने ही लोकप्रिय हैं।" यह लोकप्रियता मोदी ने लोगों की इच्छाओं आकांक्षाओं पर सवार होकर हासिल की है और जब कोई नेता यह सफलता हासिल कर लेता है तो उस नेता की इच्छाएं आकांक्षाए, संकल्पनाएं जनता की हो जाती हैं और वह नेता के पीछे चलना प्रारंभ कर देती है। यह सफलता हासिल करनेवाले मोदी का जन्म गुजरात के मैहसाणा जिले के वडनगर में 17 सितंबर 1950 को हुआ था। शालेय जीवन में ही वे संघ के प्रचारक बन गए। शीघ्र ही वे अ.भा. विद्यार्थी परिषद के अध्यक्ष बने। आपातकाल में उन्होंने सरकार विरोधी पत्रक बांटने का काम किया। पॉलिटिकल साइंस में वे स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त है। 1987 में गुजरात भाजपा में प्रवेश कर एक ही साल में पार्टी महासचिव बने। 1995 में भाजपा को सत्ता प्राप्त होने पश्चात वे राष्ट्रीय  सचिव बने और पांच राज्यों की जिम्मेदारी उन्हें सौंपी गई। 1998 में दिल्ली की सत्ता भाजपा को दिलाने में उनका अहम योगदान था। आडवाणी की अयोध्या यात्रा और मुरलीमनोहर जोशी की एकता यात्रा के प्रबंधन की धुरा उन्होंने ही सफलतापूर्वक संभाली थी। गुजरातियों की अस्मिता जागृत करने में सफलता प्राप्त करने के कारण ही आज मोदी गुजरात में अजेय है इसके लिए उन्होंने महान स्वतंत्रता सेनानी श्यामजीकृष्ण वर्मा के अस्थि कलश की यात्रा निकालने जैसा कार्य भी किया। 

मोदी गुजरात में अजेय कैसे बने और आज राष्ट्रीय स्तर पर उन्हें जो भारी लोकप्रियता प्राप्त है वह उन्हें कैसे मिली उसके भी कुछ कारण और विश्लेषण इस प्रकार हैं-

1. भुज के भूकंप के समय केशुभाई मुख्यमंत्री थे और कुशासन-भ्रष्ट प्रशासन के कारण लोग इतने बेहाल हो गए थे कि लोग कटाक्षपूर्वक कहने लगे थे कि, यदि कांग्रेस को जीतना है तो वह प्रतिदिन प्रार्थना करे कि केशुभाई मुख्यमंत्री बने रहें वे अपनेआप चुनाव जीत जाएंगे। परंतु, नरेंद्र मोदी मुख्यमंत्री बन गए और पासा पलट गया भाजपा फिर से सत्ता में आ गई। इसके बाद उन्होंने विकास और सुशासन की वो लहर चलाई कि उनके विरुद्ध सांप्रदायिकता कासतत धुआंधार प्रचार करनेवाले भी इस मामले में उनके मुरीद हो गए।

2. मोदी कभी पार्षद का चुनाव तक नहीं लडे बल्कि सीधे मुख्यमंत्री बने लेकिन संगठन पर पकड और संगठन को खडा करने के लिए वे गांव-गांव घूमे थे और इसी कारण 1984 में चली राजीवगांधी की आंधी में भी उन्होंने पार्टी को गुजरात में टिकाए रखा। अपनी इसी क्षमता एवं योग्यता के कारण मुख्यमंत्री बनने के बाद सफलता पूर्वक प्रशासन पर अपनी पकड बना ली और गुजरात को विकास की राह पर ले आए।

3. उनके द्वारा गुजरात में किए गए चौतरफा विकास, दंगारहित एवं शांत गुजरात, जहां कानून-व्यवस्था की स्थिति उत्तम है महिलाएं आम जनता अपनेआपको सुरक्षित महसूस करते हैं, औद्योगिक शांति एवं बिजली, पानी, सडक, शीघ्र भूमि उपलब्ध हो जाती है के कारण देश के शीर्ष उद्योगपति एवं युवाओं के लिए पर्याप्त रोजगार उपलब्ध होने के कारण युवा तक आज उनके सबसे बडे समर्थक बन गए हैं। एक सर्वेक्षण के अनुसार युवाओं के समर्थन के तीन कारण हैं- अ). वे एकमात्र नेता हैं जो पाकिस्तान द्वारा की जा रही हरकतों का करारा जवाब दे सकते हैं। ब). वे एकमात्र नेता हैं जो निर्णय लेने की क्षमता रखते हैं। स). वे ही ऐसे नेता हैं जो देश को प्रगति के पथ पर ले जा सकते हैं।

लेकिन यह भी एक बहुत बडा सच है कि गुजरात पहले से ही एक विकसित एवं सुसंपन्न राज्य रहा है, अपनी विशिष्ट भौगोलिक स्थित का भी उसे बहुत लाभ मिलता चला आया है, लेकिन विपक्ष एवं तथाकथित सेक्यूलर मीडिया द्वारा सांप्रदायिकता के नाम पर उनके खिलाफ इतना शोर मचाया गया कि सारे देश-विदेश के लोगों का ध्यान मोदी और गुजरात की आकर्षित हो गया और इसीके कारण उनके द्वारा किए गए विकास के कार्य लोगों की नजरों में चढ़ गए। इसमें मोदी का मीडिया प्रबंधन कौशल भी बहुत काम आया जिसमें वे अत्यंत माहिर हैं यह उनका मीडिया प्रबंधन कौशल ही है कि उन्होंने खुद होकर कभी भी नहीं कहा कि वे प्रधानमंत्री पद के दावेदार हैं पर मीडिया एवं विपक्ष ही सबसे अधिक शोर मचा रहा है कि वे प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं, वे प्रधानमंत्री बन गए तो बडा भारी अनर्थ हो जाएगा।

जब भी किसी राजनेता के विरुद्ध सब लोग लामबंद होकर गरियाने लगते हैं तो जनता का ध्यान उसकी ओर आकर्षित हो जाता है और लोग आगे होकर दोनो ही पक्षों के ही कार्यों पर नजर रख उनका मूल्यांकन करने लगते हैं, उसके साथ सहानुभूति रखने लग जाते हैं। याद कीजिए जनता पार्टी का शासन काल उस समय इंदिरा गांधी के साथ किस प्रकार का व्यवहार किया गया था नतीजा क्या हुआ इंदिराज सत्ता में ढ़ाई साल में ही लौट आई। यही सोनिया गांधी के मामले में भी हुआ। लेकिन इससे सबक सीखने की बजाए वही इतिहास मोदी के साथ दोहराया जाने लगा उसका लाभ भी मोदी को मिला। परंतु, यही लाभ वे अपने अतिअहंकार, गर्वोक्तियों एवं अशालीन तथा अतिआक्रमक भाषा के कारण कहीं गंवा ना दे।

4. मोदी पर आरोप है कि उन्हें बडी जल्दी मची है प्रधानमंत्री बनने कि तो इसके भी कारण हैं हर अपने आपको योग्य समझनेवाला राजनेता प्रधानमंत्री बनने की चाह रखता है और ऐसी चाह रखनेवालों में आडवाणी, नीतिशकुमार से लेकर कई राजनेता शामिल हैं। परंतु, इस दौड में मोदी भारी इसलिए नजर आ रहे हैं क्योंकि इस समय सबसे बडे करिश्माई व्यक्तित्व के धनी वे ही हैं उनके पीछे जनाधार भी नजर आ रहा है, सर्वेक्षणों में भी उन्हें ही बढ़त मिलती नजर आ रही है। आज की तारीख में उन्हें जितनी लोकप्रियता हासिल है वह अटलजी को तो प्रधानमंत्री बनने के बाद ही हासिल हुई थी। इसीका लाभ वे उठाना चाहते हैं।

सोशल साईट्‌स पर भी मोदी ही छाए हुए हैं। ऊपर जिन कारणों की चर्चा की गई है वे गुजरात के संदर्भ में तो ठीक हैं परंतु वे ही कारण राष्ट्रीय स्तर पर भी सटिक बैठेंगे क्या, यह एक प्रश्न ही है! सबसे पहली बात तो यह है कि आज जो मोदी मोदी का शोर चारों तरफ है वह चुनावों तक यथावत रह भी पाएगा क्या? जिस जनाधार की चर्चा की गई है वह देश के कई प्रदेशों में जबरदस्त जातिगत राजनीति के चलते बरकरार रह पाएगा? वह मतदानवाले दिन मतों में बदलकर मोदी को समर्थन दिला पाएगा? यह सब तो नतीजों के आने के बाद ही पता चल पाएगा। कांग्रेस कौनसे मुद्दों पर चुनाव लडेगी, कौनसी रणनीति अपनाएगी यह भी सामने आना है, यह भी देखना पडेगा कि तीसरा मोर्चा बनता भी है या नहीं उसमें कौन-कौन से दल होंगे, वे क्या रणनीति अपनाते हैं, चुनावों से पहले व चुनावी नतीजों के बाद कौन किस पाले में जाता है, आदि।

सबसे वरिष्ठ नेता आडवाणी 2009 में असफल सिद्ध हो चूके हैं, भाजपा में मोदी जितने जनाधारवाले राजनेता नजर भी नहीं आ रहे हैं। सत्तारुढ़ दल के कुशासन एवं घोटालों से लोग तंग आ चूके हैं इसीका लाभ उठाने के लिए मोदी ने आक्रमक रुख अख्तियार कर लिया। परंतु, आडवाणी भी अपनी वरिष्ठता, पार्टी के लिए किए गए त्याग, तपस्या, बलिदान का प्रतिफल चाहते हैं, वे यह भी जानते हैं कि मिलीजुली सरकारों के युग में एनडीए में अपनी सेक्यूलर छवि बनाने के लिए एवं स्वीकार्यता बढ़ाने के लिए किए प्रयत्नों के कारण गठबंधन के नेता के रुप में उनकी स्वीकार्यता मोदी से अधिक है और मोदी भी वर्तमान हालात को अपने लिए सुनहरा मौका मान दौड में सबसे आगे निकलने की फिराक में हैं इसीलिए आज जब कब चुनाव होंगे तक का किसी को पता नहीं है फिर भी 'सूत ना कपास जुलाहों में लट्ठमलट्ठा जारी" की कहावत चरितार्थ की जा रही है।


Friday, June 7, 2013

इस्लाम में मूर्तिभंजन की परंपरा
इस्लाम मूर्तिपूजा का निषेध करता है। क्योंकि, इस्लाम की मान्यता है कि, ईश्वर एक ही है और वह अल्लाह है, इसके अलावा अन्य कोई ईश्वर नहीं इस एकेश्वरवाद पर श्रद्धा रखना यह इस्लाम का पहला और मूलभूत सिद्धांत है। मूर्तिपूजा का विरोध इस सिद्धांत का उपसिद्धांत है। क्योंकि, मूर्ति को मानना मतलब एकमेव अल्लाह के सिवाय अन्य देवी-देवताओं को मानना है अथवा अल्लाह के एकाध प्रतिस्पर्धी को मानना है यानी अनेकेश्वरवाद/बहुदेववाद को मानना है और यही विवाद का मुद्दा भी है।

कुरान मूर्तिपूजा को सबसे बडा धर्मद्रोह, गंदगी मानती है और उसका कठोरता से निषेध करती है। कुरान की आयत 22ः30 में कहा गया है- ''बुतों (मूर्तियों) की गंदगी से बचो।"" इस आयत पर दअ्वतुल कुर्आन का भाष्य इस प्रकार है : ''बुतों की गंदगी से तात्पर्य आस्था एवं आचरण की वह गंदगी है जो मूर्तिपूजा के फलस्वरूप पैदा होती है। ऐसे लोेग व्यर्थ के भ्रमों, अंधविश्वासों और मानसिक निकृष्टता में लिप्त रहते हैं। मनुष्य के अंतर्मन को पाक साफ रखने वाली चीज एकेश्वरवाद की धारणा और ईमान ही है। बहुदेववाद तो मनुष्य के अंर्तमन को गंदगियों से भर देता है।'' (दअवतुल कुरान खंड 2 पृ. 1131) इसीलिए कुरान का सम्पूर्ण और मुख्य जोर शिर्क (अनेकेश्वरवाद) एवं मूर्तिपूजा नष्ट करने पर है।

एकेश्वरवाद और मूर्तिपूजा विरोध इन दोनो ही प्रमुख बातों को मुहम्मद साहेब उन्हें पैगंबरत्व प्राप्त होने के पूर्व से ही मानते थे। एक बार उन्होंने स्पष्ट किया था कि, 'जन्म से ही मैंने मूर्ति के प्रति गहरा द्वेष और बैरभाव पाल रखा है।" मक्कावासी कट्टर मूर्तिपूजक थे और उन्हें मूर्तिपूजा का विरोध कदापि सहने होनेवाला नहीं था यह बात मुहम्मद साहेब अच्छी तरह जानते थे इसलिए प्रारंभ में उन्होंने अपने इस्लामधर्म का प्रचार अपने निकटस्थों में गुप्त रुप से किया। तीन वर्षों में उन्हें केवल 33 अनुयायी मिले। तीन वर्षों पश्चात उन्हें खुले प्रचार का संदेश अल्लाह से प्राप्त हुआ जो इस प्रकार से है

 ः ''ऐ (वही यानी आयत के प्रभाव से) चादर ओढे हुये (पैगंबर!) उठो और लोगों को सचेत करो, और अपने परवरदिगार की बडाई (का बखान) करो, और अपने कपडों को पाक रखो, और (मूर्तिपूजा की) नापाकी से अलग रहो। और (इहसान से) जियाद: बदला पाने के लिए किसी पर इहसान न करो, और अपने परवरदिगार (की कुदरत) पर सब्र रखो। फिर (उस कियामत के दिन) जब सूर (नरसिंहा) फूंका जायगा, तो वह दिन (श्रद्धाहीनों के लिए) बडा कठीन होगा। कि उसमें श्रद्धाहीनों को (यानी गैर-मुस्लिमों के लिए) आसान न होगा।"" (74:1-10)

असत्य धर्म के विषय में तटस्थ रहकर अथवा गुप्त रुप से प्रचार करके नहीं चलेगा बल्कि सत्य धर्म की विजय के लिए खुले रुप से प्रचार करना होगा। ऐसा अल्लाह का संदेश था। इसी समय आगे का संदेश भी अवतरीत हुआ : ''(नहीं), बल्कि हम (यानी अल्लाह) सच को झूठ पर खींच मारते हैं तो वह उसके सिर को कुचल देता है फिर वह (झूठ) उसी दम मटियामेट हो जाता है। (और लोगों !) तुम जैसी बातेें बनाते हो उससे तुम्हारी ही खराबी है ।'' (21:18) ''पस जो तुमको आज्ञा हुई है उसे खोलकर सुना दो । ''(15:94) इस प्रकार के प्रचार की परिणिती मूर्तिभंजन में होना थी और आगे चलकर शक्ति संपन्न होने पर वह हुई भी।

वैसे भी मूर्ति के प्रति द्वेष और भंजन तो सेमेटिक (यहूदी, ईसाई, मुस्लिम) धर्मों की परंपरा ही है और इन तीनों के ही समान पूर्वज हैं इब्राहीम जिनकी सारे पूर्व पैगंबरों में सर्वाधिक प्रशंसा कुरान में की गई है। मुहम्मद साहेब, इब्राहीम के चालीसवें वंशज थे, ऐसा माना जाता है। इब्राहीम के दो लड़के थे, इस्माईल और इसहाक। दोनों ही बाद में पैगंबर बने। इस्माईल से आगे जो वंश तैयार हुआ वह मुस्लिमों का था। वे मुस्लिमों के पैगंबर बने। इसहाक से जो वंश तैयार हुआ वह यहूदी लोगों का था। वे यहूदियों के पैगंबर बने। बाइबल में उनका नाम अब्राहम है। इस प्रकार ये तीनों ही धर्मों के श्रद्धेय पैगंबर हैं। कुरान का कहना है :''और कौन है जो इब्राहीम के दीन से मुंह फेरे, सिवा उसके जो अपने को बिल्कुल बे अकली के सुपुर्द कर दे । और बेशक हमने इब्राहीम को दुनिया-लोक में चुन लिया, और आखिरत (परलोक) में (भी) वह सदाचारियों में होंगे । जब उनसे उनके पालनकर्ता ने कहा कि (मेरे) आज्ञाकारी (मुस्लिम) बनो, (तो जवाब में) निवेदन किया कि मैं सारे संसार के स्वामी का आज्ञाकारी (मुस्लिम) हुआ... इब्राहीम अपने बेटों को वसीयत कर गए, कि ऐ मेरे बेटो! बेशक अल्लाह ने इस दीन को तुम्हारे लिए पसंद फरमाया है तो तुम मुस्लिम (अल्लाह के अनुवर्ती) होने की हालत ही में मरो।'' (2:130-132) अर्थात् इस्लाम धर्म मूलत: इब्राहीम को बताया हुआ है।

उन्होंने मार्गदर्शन स्वरुप क्या किया वह कुरान में इस प्रकार से आया हुआ है ः''फिर (इब्राहीम ने एक दिन उन लोगों की गैर मौजूदगी में उन)बूतों को (तोड़-फोड़कर) टुकड़े-टुकड़े कर दिया""(21ः58) जब मूर्ति एवं मूर्तिपूजा से इतनी घृणा है तो स्पष्ट है कि, उसके पूजकों से घृणा होगी ही होगी वे निंदा के पात्र, घृणास्पद होंगे ही। कुरान में कहा गया है ः''अल्लाह के नजदीक सबसे खराब वह जीव है (worst of beasts) जो कुफ्र (इस्लाम से इंकार) करते हैं, फिर वह श्रद्धा नहीं लाते ।""(8:55) वैसे ही (8:22) ''(अल्लाह को छोड़कर) शैतान को पूजनेे लगे थे, तो यही लोग दर्जे में खराब ठहरे, और सीधी राह से बहुत दूर भटक गए।""(5:60) ''उन्होंने (इब्राहीम ने) अपनी कौम (मूर्तिपूजक लोगों) से कहा कि हम तुमसे और जिनको तुम अल्लाह के सिवाय पूजते हो उनसे विमुख हैं । और हममें और तुममें दुश्मनी और बैर हमेशा के लिए खुल पड़ा।""(60:4) इसी कारण से इब्राहीम के वंशज ईसाई और मुसलमान हम मूर्तिपूजकों को पैगन-काफिर कहकर हमें निकृष्ट समझते हैं, नरकगामी समझते हैं और दोनो ने ही हिंदुस्थान में मूर्तिभंजन किया है।

इतने स्पष्ट आदेश होने के बावजूद तथाकथित सेक्यूलर विद्वान इस्लाम और उसके अनुयायियों को पाक साफ समझते हैं तथा उनको मूर्तिभंजन के आरोपों से बचाने के लिए नए-नए और अजीबोगरीब तर्क गढ़ने से बाज नहीं आते। विगत दिनों जब दक्षिण भारत में एक प्रसिद्ध मंदिर से अकूत खजाना मिला तो इन्हीं तथाकथित सेक्यूलरों में से एक ने एक लेख लिखकर यह तर्क प्रस्तुत किया कि मंदिरों के इस प्रकार के अकूत धन को लूटने के लिए ही मुहम्मद गजनी जैसे इस्लामधर्मी हिंदुस्थान में आए, आक्रमण किया और रही बात मूर्तिभंजन की तो वह कश्मीर में राजा हर्षवर्धन और उसके मंत्री ने भी किया था।

यहां हम यह स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि यह राजा हर्षवर्धन अपवाद है जिसने मूर्तिभंजन किया और मंदिरों को लूटा और उसने जो कुछ किया उसके लिए उसे कोई धार्मिक आदेश नहीं था। यह हमारी परंपरा नहीं। हमारे यहां तो आद्य शंकराचार्य इधर तो अद्वैत का दर्शन देते हैं उधर मूर्तिपूजकों के लिए भी सिद्ध मंत्रों की रचना करते हैं किसी तरह का कोई द्वेष नहीं। आर्य समाज के स्वामी दयानंद सरस्वती एकेश्वरवादी होकर मूर्तिपूजा का विरोध करते हैं परंतु, मूर्तिभंजन करो का न तो कोई आदेश देते हैं ना ही स्वयं करते हैं। जबकि इसके विपरीत स्वयं मुहम्मद साहेब ने मूर्तिभंजन किया भी और मूर्ति को लूटने का कार्य भी उन्हीं के पैगंबरत्व काल में हुआ था जो उन्हीं के इस्लाम के अनुयायियों ने इस प्रकार से दर्ज कर रखा है-

मक्का विजय के बाद पैगंबर तत्काल ही पवित्र काबागृह गए । वहां पवित्र 'काले पत्थर" का भक्तिभाव से अभिवादन किया, प्रेम से चुंबन लिया, 'अल्लाह हो अकबर' (अल्लाह सर्वश्रेष्ठ है) की घोषणा की। उसके बाद उन्होंने परंपरानुसार काबागृह की सात बार परिक्रमा की काबागृह में कुल 360 मूर्तियां थी। अनेक देवी-देवताओं के, पूर्व पैगंबरों के चित्र थे। पैगंबर ने उनके हाथ की लकड़ी से निर्देश किया। उस अनुसार उनके आदेश पर प्रत्येक मूर्ति इस तरह फोड़ डाली गई कि तोडी गई मूर्ति नीचे जमीन पर मुंह के बल   गिरे। भग्न मूर्तियों का ढ़ेर हो गया। प्रत्येक मूर्ति को तोड़ते समय और नीचे गिराते समय पैगंबर बड़ी जोरों से कुरान की यह आयत कहते थे :'सत्य प्रकट हो गया और असत्य मिट गया, बेशक असत्य तो मिटनेवाला होता ही है।" (17ः81, 34:49) 

इस प्रकार सारी मूर्तियां कुछ ही समय में मिट्‌टी में मिला दी गई,  इस्लाम के अनुसार मूर्ति याने अल्लाह को आव्हान था; अल्लाह से स्पर्धा करना था, वह अल्लाह से विद्रोह था; वह अल्लाह विरोधी गुनाह था। इस कार्य में आज काबागृह तक ही सफलता मिली थी। वहां हुबल की जो प्रमुख और प्रचंड मूर्ति थी, वह पैगंबर ने अली के कंधों पर खड़े रहकर स्वयं के हाथों से फोड डाली। उसके जमीन पर गिरने पर टुकड़े कर दिए गए। उसके बाद इस स्थान पर के चित्र नष्ट किए गए। उनमें इब्राहीम, इस्माईल, इन पैगंबरों के और मेरी के चित्र भी थे। चित्र नष्ट करते समय पैगंबर ने प्रार्थना की : 'अल्लाह इन श्रद्धाहीनों का नाश करेे।" इसके बाद शहर भर में डोंडी पिटवाई गई कि : 'जो कोई अल्लाह पर और अंतिम निर्णय दिन पर श्रद्धा रखता है, वह उसके घर में कोई भी मूर्ति न रखे यदि हो तो उसे नष्ट कर डाले।" पैगंबर ने मक्कावासियों का आवाहन किया कि, वे एकमेव अल्लाह को मानें; उन्हें अल्लाह के पैगंबर के रुप में मान्य करें; श्रद्धा अर्पण करें, उनकी आज्ञा का पालन किया जाए। 

संक्षेप में,लोग श्रद्धावान बनें; इस्लाम का स्वीकार करें ऐसा आवाहन किया गया। मक्का विजय के संबंध में वे आगे बोले : 'अल्लाह ने अपना वचन पूर्ण किया और उसके दासों की मदद की। उसने अकेले ही सारी शत्रु सेना को धूल चटा दी। सभी पुराने गर्व, बदला लेने के और रक्त के बदले के सभी अधिकार आज मेरे पैरों तले हैं ...ऐ कुरैश लोगों ! अल्लाह ने श्रद्धाहीनता का अभिमान नष्ट किया है। तुम्हारे अज्ञान काल का सारा अभिमान और उच्च कुल का गर्व आज मिट्‌टी में मिल गया है। सभी मनुष्य इसी मिट्‌टी से जन्मे हुए आदम के ही वंशज हैं।"

इसी प्रकार से तायफ शहर की जीत के बाद पैगंबर ने निर्णय दिया था कि, 'इस्लाम और मूर्ति एक साथ रह नहीं सकते। (सभी) मूर्तियों को एक दिन के अंदर मटियामेट कर दिया जाए।" मूर्ति और मंदिर नष्ट करने के लिए भूतपूर्व मक्का प्रमुख अबू सुफियान और एक को नियुक्त किया गया। उन्होंने तायफ जाकर वहां स्थित अल-लात की भव्य मूर्ति गेंती की चोटें मारकर चकनाचूर कर दी। अपनी इस मूर्ति की यह दशा देखकर शहर की औरतें छाती पीटकर आक्रोश करके रो रही थी। उस मंदिर में बहुत सारी संपत्ति और मूर्ति पर बहुत कीमती ऊंंचे दर्जे के जेवरात थे। मूर्ति फोड़ी जाने वाली है यह मालूम होते हुए भी मूर्ति को दु:ख पहुंचेगा इसलिए वे जेवरात वहां के लोगों ने नहीं उतारे। मूर्ति फोड़ने के लिए गए हुओं ने वह संपत्ति और जेवरात अपने कब्जें में ले लिए। मूर्ति फोड़ने के बाद वहां की संपत्ति लूटने का यह पहला ही उदाहरण था। मक्का विजय के समय भी वहां की सम्पत्ति लूटी नहीं गई थी। पैगंबर के बाद के समय में भर इस्लाम का प्रसार, मूर्ति का भंजन और वहां की संपत्ति की लूट इन तीनों घटनाओं का एक दूसरे में मिश्रण हो गया था।


मुहम्मद साहेब ने जो कुछ किया वह सुन्नत है और उस सुन्नत का पालन करना मुस्लिमों का आदर्श है। इसीलिए आज भी मुसलमान जब भी मौका मिलता है मूूर्तिभंजन से बाज नहीं आते और समय-समय पर होेनेवाले दंगों या होनेवाली सांप्रदायिक घटनाओं में इस आदर्श को आचरण में लाकर दिखलाते रहते हैं। वैश्विक स्तर पर तो ऐतिहासिक महत्व की अफगानिस्तान की बामियान मूर्तियों को ध्वस्त करने का और हाल ही में मालदीव के संग्रहालय की प्राचीन मूर्तियों को भग्न करने का पराक्रम दिखाने का श्रेय भी इन्हीं इस्लाम के बंदों को जाता है।