Friday, July 26, 2013

गंभीर स्थिति शौचालयों की - आवश्यकता है मानसिकता बदलने की

गांधीजी खुले में शौच की आदत को पसंद नहीं करते थे। बच्चों को फिराना तो असभ्यता मानते थे। गांधीजी एक व्यवहारवादी जननेता थे। उन्होंने भारतीयों की मानसिकता को भली-भांति समझा था, उससे परिचय प्राप्त किया था। इसे ही जनता की नब्ज पकडना भी कह सकते हैं और यही उनकी सफलता का राज भी था। इसके लिए उन्होंने अफ्रीका से लौटने के पश्चात पूरे भारतवर्ष का भ्रमण ट्रेन के तृतीय श्रेणी के डिब्बे से किया था। शौच से उत्पन्न होनेवाली गंदगी और समस्या के हल के लिए वे कहते थे- यदि जंगल हो आना हो (यानी खुले में शौच) तो गांव से एक मील दूर जहां आबादी ना हो, वहां जाना चाहिए। टट्टी करने से पूर्व एक गड्ढ़ा खोद लेना चाहिए और निबटने के पश्चात मल पर खूब मिट्टी डाल देना चाहिए। समझदार किसानों को तो चाहिए कि अपने खेतों में ही पूर्वोक्त प्रकार के पाखाने बनाकर अथवा गड्ढ़े में मैला गाडकर बिना पैसे की खाद लें।

श्रीजयराम रमेश जिन्होंने शौचालयों की समस्या के लिए मानो एक जनजागरण अभियान सा ही छेड रखा है का कहना है कि खुले में शौच जाने की मानसिकता को बदलने में दस वर्ष लगेंगे यह समस्या कितनी गंभीर है इसकी बानगी इस प्रकार के समाचारों से ही लग सकती है कि पचास हजार की आबादी वाले उ.प्र. के कस्बे रुदौली में एक भी शौचालय नहीं। वर्ष 2000 में बने पांच सीटर शौचालय की दशा जर्जर है। हाल ही में हुई जनगणना के आंकडों के मुताबिक 53.1 प्रतिशत घरों में शौचालय सुविधा ही नहीं है। कुछ समय पूर्व ऑस्ट्रेलिया के एक उद्घोषक ने भारत को शौचालय का छेद करार दिया था। यह बात अलग है कि बाद में विरोध होने पर उसने माफी मांग ली। परंतु, फिर भी शौचालयों और स्वच्छता के प्रति हमारी कितनी अनास्था है को तो निश्चय ही नकारा नहीं जा सकता।

महिलाओं के लिए शौचालय होने को कितनी उपेक्षा प्राप्त है इसका पता इसी बात से लगता है कि आजादी के इतने वर्षों पश्चात देश की संसद के परिसर में लोकसभा अध्यक्ष मीराकुमार द्वारा महिलाओं के लिए अलग से प्रसाधनकक्ष बनाए जाने के पूर्व वहां तैनात महिला पुलिस कर्मियों, आनेवाली महिला पत्रकारों या दूसरी कर्मचारियों के लिए यह एक बुनियादी जरुरत है कि आवश्यकता ही समझी नहीं गई थी।

नोएडा में तो कई कारखाने ऐसे हैं जहां संयुक्त टॉयलेट में दरवाजे तक नहीं हैं, ऐसा इसलिए क्योंकि महिलाएं टॉयलेट में ज्यादा समय ना बीताएं और काम में जुटी रहें। यह तो अमानवीयता की पराकाष्ठा है। ऐसी भीषण परिस्थिति में कोई महिला कैसे अपने महिला होने पर गर्व कर सकती है। महिलाओं के लिए टॉयलेट की उपेक्षा इतनी अधिक है कि कई बडे-बडे संस्थान अपने रिसेप्शन की सजावट पर तो भरपूर खर्च करते हैं पर वहां बैठनेवाली महिला रिसेप्शनिस्ट और वहां कार्य करनेवाली अन्य महिला कर्मचारियों के लिए अलग से प्रसाधन कक्ष होना चाहिए को कोई प्राथमिकता ही नहीं देते हैं।

वैसे शौचालयों के लिए किए जा रहे जनजागरण का इतना असर तो अब साफ दिखाई पडने लगा है कि लोग विशेषकर महिलाएं इस संबंध में जागरुक होने लगी हैं। कई स्थानों पर शौचालय नहीं है इसलिए लडकियों ने विवाह करने से इंकार कर दिया तो कहीं शौचालय नहीं है इसलिए महिलाओं ने प्रदर्शन का सहारा लिया है। कहीं शासन ही घोषणा कर रहा है कि ग्राम पंचायत का चुनाव लडना हो तो उम्मीदवार के पास घर में शौचालय है का प्रमाणपत्र संलग्न करने को कहा जा रहा है तो कहीं बार-बार चेतावनी दिए जाने के बावजूद शौचालय निर्मित नहीं किए गए इसलिए कइयों के ग्रामपंचायत सदस्यत्व निरस्त कर दिए गए हैं। म. प्र. में तो मुख्यमंत्री कन्यादान योजना के तहत दुल्हे टॉयलेट सीट के साथ फोटो खिंचवाते नजर आ रहे हैं क्योंकि इस योजना के तहत विवाह के लिए यह एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है। उ. प्र. सरकार ने तो शौचालय निर्माण के लिए धनराशी 1000 से बढ़ाकर 1400 करने का निर्णय लिया है।

एक तरफ तो इतना उत्साह एवं उतावलापन दूसरी तरफ इस योजना के तहत हो रहा अंधाधुंध भ्रष्टाचार जिस पर मानो कोई अंकुश ही नहीं। उ.प्र. में सूचना के अधिकार के तहत यह खुलासा हुआ है कि शौचालय निर्माण में 2856 लाख का घोटाला हुआ है। बुंदेलखंड में 14 करोड खर्च होने के बावजूद नतीजा सिफर है फिर भी अनुदान रेवडियों के माफिक बंट गया। भ्रष्टाचारियों ने इस अच्छी योजना को धोखे और लूट का माध्यम बनाना प्रारंभ कर दिया है। परिस्थिति को इतना दयनीय बना दिया गया है कि कहीं शौचालय निर्माण लक्ष्य से पीछे चल रहा है तो कहीं लाखों की लागत से निर्मित शौचालय अतिक्रमण की भेंट चढ़ गए हैं। महिला शौचालयों पर ताले जड महिलाओं को उनकी मूलभूत सुविधा से वंचित किया जा रहा है। लक्ष्य प्राप्ति के लिए बी.ओ.टी के तहत भी प्रयत्न किए गए किंतु ठेकेदार इस डर से सामने नहीं आ रहे कि निर्माण के बाद यदि लोगों ने पैसे नहीं दिए और मुफ्त में सुविधा दो के लिए आंदोलन छेड दिया तो पैसे कौन देगा।

सरकारी धन का इस योजना में दुरुपयोग इस प्रकार से भी किया जा रहा है कि पहले तो योजना के तहत शौचालय बना लिए  जाते है परंतु उनका उपयोग शौचालय की बजाए स्नानगृह अथवा जानवरों का भूसा रखने या जलावन लकडी आदि रखने के लिए उपयोग में लाया जाने लगता है। कहीं-कहीं इसके लिए तर्क यह दिया जाता है कि पीने के लिए तो पर्याप्त पानी नहीं तो शौचालय के लिए पानी कहां से लाएं। यह भी तो समस्या ही है कि जो शौचालय बन गए उनका उपयोग किस प्रकार से किया जा रहा है उसे देखेगा कौन? महाराष्ट्र में जलप्रदाय एवं स्वच्छता विभाग एवं जनगणना के आंकडों में 31 लाख का अंतर है यानी 31 लाख शौचालय गायब हैं और यह अंतर यूनीसेफ ने अपने अध्ययन से निकाला है। जबकि महाराष्ट्र स्वच्छता के मामले में अग्रसर माना जाता है और प्रतिवर्ष निर्मल ग्राम योजना का पुरस्कार प्राप्त करता चला आ रहा है।


इतने प्रचार-प्रसार, अरबों रुपये खर्च होने के बावजूद निर्मल भारत योजना से अभी तक मात्र 9प्रतिशत गांव जुडे हैं और आगामी 10 वर्षों में देश की सभी ग्रामपंचायतें जुड जाएंगी ऐसा केंद्रीय पेयजल एवं स्वच्छता मंत्री भरतसिंह सोलंकी ने एक कार्यक्रम में कहा है। वस्तुतः इस एक अच्छी योजना का पूरा लाभ उठाना है तो लोगों की मानसिकता को बदलना होगा, स्वच्छता के संबंध में जागरुकता बढ़ाने के साथ ही साथ इसे शिक्षा पाठ्यक्रम से जोडना होगा क्योंकि जो लोग पीढ़ियों से खुले में शौच करते चले आ रहे हैं रातो-रात उनकी मानसिकता बदलना भी तो इतना आसान नहीं। लोगों के अपने तर्क भी अपने स्थान पर हैं खाने को तो है नहीं शौचालय निर्माण के लिए पैसे कहां से लाएं? सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद स्कूलों में शौचालय बन भी गए तो उनके रखरखाव का खर्च कहां से आएगा। इतनी सारी समस्याओं का अंबार और लोगों की विचित्र मानसिकता को देखते लक्ष्य प्राप्त करना मुश्किल ही नहीं तो असंभव सा ही है। वास्तव में सबसे बडा कटु सत्य तो यह है कि देश की सारी समस्याओं की जड में है सामाजिक संस्कारहीनता और बेतहाशा बढ़ती आबादी जिसकी ओर से सभी लोग आंखें मूंदे हुए हैं।

Wednesday, July 17, 2013

आशाओं का सौदागर नेता - नरेंद्र मोदी

नेपोलियन का कहना था 'लीडर इज ए डीलर इन होप" अर्थात्‌  नेता वह है जो आशाओं का सौदा करना जानता हो। आज यह कहावत मोदी पर उपयुक्त ठहरती नजर आ रही है। मोदी वो नेता हैं जो इस समय देश में चरम पर पहुंच चूके अथाह भ्रष्टाचार एवं कुशासन से पीडित देश की जनता के सामने बडी तेजी से आशा की किरण बनकर उभर रहे हैं। युवाओं में तो उनका क्रेज था ही अब तो पार्टी के भीतर भी उनका विरोध कमजोर पडता नजर आ रहा है। पार्टी के दूसरे, तीसरे, चौथे स्तर के नेता भी यह जानते हैं कि अब नहीं तो कभी नहीं की परिस्थितियां बन गई हैं। और मोदी इन सबसे वाफिक होने के कारण अब इस तरह के कदम उठा रहे हैं कि पार्टी तो क्या सारे देश की राजनीति उनके इर्दगिर्द केंद्रित हो जाए। इसके लिए वे कभी 'कुत्ते का पिल्ला" जैसे जुमले उछालते हैं तो कभी 'सेक्यूलर बुर्के" की बात कर सबको आंदोलित कर देते हैं और चर्चा के केंद्र में आ जाते हैं।

इसमें उन्हें सफलता और लाभ भी मिलता नजर आ रहा है पार्टी में उनके विरोध के स्वर मंद होते जा रहे हैं। जो कांग्रेस और दिग्विजयसिंग यह कहते फिर रहे थे हम नरेंद्र मोदी को कोई महत्व नहीं देते वे उनके वक्तव्यों पर प्रतिक्रिया देने के लिए बाध्य होते जा रहे हैं। उनकी स्वयं की पार्टी भी उनके वक्तव्यों पर होनेवाली प्रतिक्रियाओं का उत्तर देने में व्यस्त है, शिवसेना भी इस मामले में पीछे नहीं रही जो कभी दबे स्वरों में उनका विरोध दर्शा चूकी है। उ.प्र. जहां सबसे अधिक उनकी सफलता की परीक्षा है वहीं मुख्य प्रतिद्वंदियों में से एक बसपा के सांसद विजयबहादुर ने न उनके 'कुत्ते के पिल्ले" वाले वक्तव्य का पुरजोर समर्थन किया बल्कि मोदी की आलोचना करनेवालों को आडे हाथों लेने से भी नहीं चूके। फलस्वरुप मायावती को विजयबहादुर को चेतावनी देना पडी।

मोदी की सफलता इससे भी नजर आती है कि पार्टी में उठी यह आवाजें कि कांग्रेस मोदी को निशाना बनाकर अपनी असफलता को नैपथ्य मेें ले जाना चाहती है, मुद्दे से भटकाना चाहती है को कोई महत्व मिलते नजर नहीं आया, मोदी तो चाहते ही हैं कि सारी चर्चाओं के केंद्र में वे अकेले ही रहें बाकी सभी मुद्दे गौण हो जाएं। वैसे भी जनता इस कांग्रेस सरकार के नाकारापन से इतनी आजीज आ चूकी है कि अब उसे कुछ भी कहने की जरुरत नहीं। रोज गिरते रुपये के दुष्परिणामों से बचना मुश्किल होता जा रहा है को जनता समझ भी रही है और भोग भी रही है व यह जान चूकी है कि यह सब पिछले पांच वर्षों के निकम्मेपन का परिणाम है।

मोदी की सफलता इस बात से भी जाहिर होती है कि जो कांग्रेस रातोरात 'खाद्य सुरक्षा बिल" लाकर उसे चुनावी मुद्दा बना गरीबों की हमदर्द होने की इमेज बनाना चाहती थी और उसकी रणनीति थी कि सोमवार (15जुलाई) से यही मुद्दा चर्चा का विषय बन जाए को असफल करने में मोदी सेक्यूलर बुर्के की चर्चा छेड सफल रहे हैं। क्योंकि, 'खाद्य सुरक्षा बिल" को छोड कांग्रेस मोदी पर पिल पडी और आंकडों की बाजीगरी में उलझ कर रह गई और मोदी आगे हैदराबाद बढ़ गए जहां उन्हें सुनने के लिए टिकट लेना पडेगा। जिसका उपयोग वे उत्तराखंड की आपदा के प्रभावित लोगों की सहायता के लिए करेंगे। यह विचार लोगों में राजनेताओं को गंभीरता से लिया जाए की ओर बढ़ाया गया एक पग माना जाना चाहिए जिसकी आवश्यकता भी थी, की पूर्ति करेगा। अमेरिका में तो यह प्रचलन में है कि वहां लोग सुनने के लिए आते भी हैं और पैसे भी खर्च करते हैं। बिल क्लींगटन तो राष्ट्रपति पद से निवृत होने के बाद जहां भाषण देने जाते हैं वहां से बाकायदा फीस लेते हैं। आपातकाल के बाद जनता पार्टी द्वारा 'नोट भी और वोट भी" की अपील सफल रही थी। उसके वर्षों बाद अब यही प्रयोग अब एक अलग रुप में किया जा रहा है। परंतु, कांग्रेस इसे समझने की बजाए फिर से आलोचना में जुट गई।

मोदी का इतिहास बतलाता है कि दूसरों से अलग दिखने, करने की चाह उनमें हमेशा से ही रही है उसका एक प्रतीक है उनकी आधी बांह का कुर्ता जो उनके समर्थकों में अब फैशन का रुप धरता जा रहा है। प्रतीकों का उपयोग करने में मोदी निश्चय ही लाजवाब हैं और इसके लिए वे धार्मिक प्रतीकों का उपयोग करने से भी कोई गुरेज नहीं करते। जैसेकि अभी हाल ही में सेक्यूलर बुर्का शब्द का प्रयोग। इसके पूर्व भी यह प्रयोग चुनाव आयुक्त लिंगदोह के मामले में उनके पूरे नाम जेम्स माइकल लिंगदोह का उच्चारण कर उनके ईसाई होने के प्रतीक के रुप में कर चूके हैं तो, कांग्रेस नेता अहमद पटेल को उनके नाम का उच्चारण अहमद मियां पटेल से करना, आदि।

हिंदू भावनाओं की लहरों पर सवार होना भाजपा की रणनीति का हमेशा से एक अहम हिस्सा रहा है। यहां भी मोदी हटके हैं वे अच्छी तरह से जानते हैं कि चाहे जो हो जाए अल्पसंख्यक उन्हें वोट नहीं देंगे इसलिए उनका पूरा ध्यान हिंदू वोटों के धु्रवीकरण पर है इसलिए वे सद्‌भावना उपवास कार्यक्रम रखते हैं परंतु, मुस्लिम टोपी नहीं पहनते जबकि उनके पूर्ववर्ती लालकृष्ण आडवाणी तो अजमेेर की दरगाह पर हाथ जोडकर खडे हैं के चित्र उपलब्ध हैं। मोदी के इस प्रकार के व्यवहार से अपने आप वे जो चाहते हैं वह उन्हें हासिल हो जाता है हिंदू भावनाएं तुष्ट होती हैं और वे उनके कट्टर समर्थक बनते चले जाते हैं। मुंबई में तो उनके हालिया हिंदुत्व संबंधी बयान के बाद जगह-जगह पर होर्डिंग लगे हैं जिनमें मोदी के फोटो के साथ लिखा है 'हां मैं हिंदू राष्ट्रवादी हूं"।


परंतु, कांग्रेस जो भारतीय राजनीति की सबसे पुरानी और शातिर खिलाडी है जो पहले तो नई-नई समस्याएं स्वयं ही खडी करती है फिर बाद में उद्धारक की भूमिका में आकर उन्हें हल भी स्वयं ही करने आ धमकती है और श्रेय ले जाती है। लगता है इस समय अपनी सारी चालाकियां भूल मोदी फोबिया से ग्रस्त हो गई है तभी तो अपने स्वयं के मुद्दे जिन्हें लेकर उसे चुनावी मैदान में जाना है को ठीक से जनता के सामने लाने का कार्य छोड मोदी-मोदी का जाप करने में लगी है और मोदी इसीका लाभ उठा कांग्रेस को बडी ही होशियारी से भ्रमित करने में सफल हो रहे हैं।     

Thursday, July 4, 2013

चीन में मुस्लिम अलगाववाद

चीन में मुस्लिम अलगाववाद

पिछले महीने जून में चीन के सबसे संवेदनशील प्रांत शिनजियांग में हिंसा भडक उठी थी जिसमें 27 लोग मारे गए थे। यह प्रांत रुस, मंगोलिया, कजाकिस्तान, किर्गिजिस्तान, ताजकिस्तान, अफगानिस्तान, पाकिस्तान और भारत की सीमा पर है और तेल व गैससंपदा से भरपूर है। यह संघर्ष तुर्की मूल के मुस्लिमों जिन्हें 'उइघर" कहा जाता है उनमें और चीन वंश के 'हान" समुदायों में हुआ। चीनी वंश के मुसलमानों को 'हुई" कहा जाता है। अप्रेल में भी हुए सीरियल बम विस्फोटों में कम से कम 21 मारे गए थे और 8 घायल हुए थे। इसके पूर्व भी जुलाई 2009 में भडकी हिंसा में 156 से अधिक लोग मारे गए थे, 1500 घायल और 1000 लोग गिरफ्तार हुए थे। दंगे इतने गंभीर थे कि राष्ट्रपति जीन्ताहो को जी8 की बैठक छोडकर स्वदेश लौटना पडा था।

वहां सक्रिय ईस्ट तुर्किस्तान इस्लामिक मूवमेंट का संबंध अल कायदा से है। इस संगठन को चीन सरकार ने प्रतिबंधित कर रखा है। चीन सरकार के आग्रह पर अमेरिका ने भी इसको आतंकवादी संगठनों की सूची में डाल रखा है। चीन सरकार उनसे चिंतित है। इस मुस्लिम उइघर आबादी में तालिबान के प्रति समर्थन है। तालिबानी शासन के दौरान 300 उइघर मुस्लिम अफगानिस्तान जाकर तालिबानी प्रशिक्षण ले चूके हैं। मुस्लिम आबादी में उग्रवादी भावनाओं के पनपने के लिए एकाधिक बार चीन पाकिस्तान पर भी उंगली उठा चूका है। यहां विद्रोहों का लंबा इतिहास रहा है चीन की नीति वहां के मुसलमानों को इन उइघर मुसलमानों से दूर रखने की है।

चीन में बाहर से आए दो कट्टरपंथी मुस्लिम पंथों 'वहाबी" और 'नक्शबंदी" के प्रसार के बाद बडे पैमाने पर विद्रोह होकर यूनान प्रांत में अल्पसंख्य मुसलमानों की सत्ता भी स्थापित हो गई थी। यह 19वीं शताब्दी के मध्य की बात है। चीनी सत्ता ने इन सारे प्रयत्नों को कठोरतापूर्वक कुचल दिया था। अल्पसंख्य होकर सत्ता प्राप्ति के यह प्रयत्न चीनी शासकों को धोखादायक लगे और यह इतिहास पर से सिद्ध भी हो गया। उसी इतिहास को अब हम देखेंगे।

तेरहवीं शताब्दी में मंगोलों ने चीन को जीत लिया। वांशिक दृष्टि से मंगोल और चीनी भिन्न हैं। मंगोलों ने राजपाट चलाने एवं अपने को समर्थन मिले, स्थानीय चीनी हावी ना हो जाएं इसलिए मध्य एशिया से तुर्कों को बुलाया इनके बहुसंख्य अधिकारी मुस्लिम थे। उन्हें बडे पद मिले। सारी चीनी जनता मंगोलों की सत्ता से जबरदस्त नफरत करती थी साथ ही इन मुस्लिम तुर्क अधिकारियों से भी। ये अधिकारी चीनियों के साथ गुलामों सा व्यवहार करते थे। इन तुर्क नौकरशाहों ने ही चीन में बडे पैमाने पर धर्मांतरण करवाया। इसके कारण चीन के हर प्रांत में मुसलमान नजर आने लगे। मंगोल आने के पूर्व यूनान में तो एक भी मुस्लिम नहीं था परंतु, मंगोलों के पहले प्रशासक सय्यद शम्सुद्दीन के काल से इस्लाम के प्रसार की शुरुआत हुई।

पहले चीनी स्त्रियों से विवाह करना और अकाल में और अनाथालयों से चीनी बच्चों को खरीदना, कभी बलपूर्वक तो कभी प्रलोभनों से सेना में सैनिकों का धर्मांतरण करना, आदि । अब सत्ताबल मिल गया। जैसे-जैसे संख्याबल बढ़ने लगा वैसे-वैसे मुसलमानों की राजनैतिक आकांक्षाएं परवान चढ़ने लगी विद्रोह होने लगे और चीनी सत्ता के ध्यान में धोखा आने लगा। अठराहवीं शताब्दी से शुरु हुए इन मुस्लिम आंदोलनों का उद्देश्य देश से अलग होकर स्वतंत्र इस्लामी राज्य की स्थापना करना था। कट्टरपंथियों के प्रभाव में आकर हजारों चीनी मुसलमान हज यात्रा पर जाने लगे।

अभी तक चीन में जो इस्लाम परंपरागत था उसमें यह नई लहर 1761 के आसपास आई। इस नई लहर का नेता था नक्शबंदी मामिंगसिंन तब तक चीन ने पूर्व तुर्कस्तान, शिनजियांग प्रांत को जीत लिया था। नक्शबंदी संपर्क उधर से ही आया होना चाहिए। मामिंगसिन ने पूर्व तुर्कस्तान के यार्कद और काशगर के धार्मिक विद्यापीठों में अध्ययन किया था। वहां से लौटकर कान्सू प्रांत में उसने अपने संप्रदाय की स्थापना की। पारंपरिक धर्म में आक्रमकता प्रविष्ट कराने का यह प्रयत्न था। चीनी इस्लाम में चीनियों के संपर्क से जो रुढ़ियां घुस आई थी उन पर हमला बोला गया। यह स्वाभाविक ही था कि पुराने और नए में संघर्ष प्रारंभ हो गया, दंगों की शुरुआत हो गई।

नए पंथ के आक्रमक पैतरे से उत्पन्न धोखे को चीन ने पहचान लिया और कान्सू में कडे प्रतिबंध लागू कर दिए- 1. चीनियों के इस्लाम स्वीकार पर बंदी, 2. चीनी बच्चों को गोद लेकर उनके इस्लामीकरण पर बंदी, 3. प्रार्थना के लिए एक गांव से दूसरे गांव जाने पर बंदी, 4. प्रांत के बाहर के धर्मप्रचारकों के प्रांत में आने पर बंदी, 5. नई मस्जिद बनाने पर पाबंदी। मामिंगसिन के विद्रोह को कुचल दिया गया। परंतु, उसका पंथ कभी भूमिगत रुप से तो कभी खुलकर कार्य करता ही रहा। उसके इस कार्य के पीछे जिहाद की भूमिका थी। यह विद्रोह बरसों चला।

उसके बाद चीनी मुसलमानों को नया नेता मिला माहुआलुंग। जिहाद की भूमिका के साथ उसने एक और कल्पना जोड दी। वह थी महदी (उद्धारक) की 'संपूर्ण रुप से मेरी शरण में आओ, मैं तुम्हारा उद्धार करुंगा"। वह स्वयं को 'त्सुंग ता आहुंग" यानी सेनापति और आचार्य कहलवाने लगा। लोगों को वह चमत्कार लगने लगा। चीनी सामग्री कहती है- उसके अनुयायी शिष्यत्व स्वीकारने के बाद एकदम कट्टर बन जाते हैं। 'कोई उनका शिष्यत्व स्वीकारने को तैयार ना हो तो उस पर सशस्त्र हमला किया जाता है। जबरदस्ती धर्मांतरण से भी उनको परहेज नहीं।" चीनी सत्ता ने पराकाष्ठा के प्रयत्न कर यह विद्रोह कुचल डाला। उसे उसके अनुयायियों सहित मार डाला गया। स्वतंत्र राज्य स्थापित करने के उसके प्रयत्नों का इस प्रकार अंत हुआ। अल्पसंख्यक होकर भी सत्ता प्राप्त करने के सतत प्रयत्नों को चीनी सत्ता ने हमेशा धोखादायक महसूस किया है और यह इतिहास सिद्ध है।

शेनजियांग (काशगर) प्रांत जहां तुर्क बहुसंख्य थे। जिन्हें चीनी मुसलमान नहीं कहा जा सकता क्योंकि उनकी मातृभाषा तुर्की है को चीन के मंचू राजघराने ने जीत लिया। इस प्रांत के सत्ताधारी खोजा (ख्वाजा) चीन के मांडलिक थे। 1757 में उन्होंने विद्रोह किया उसे कुचल दिया गया। तुर्कस्तानी बेग सरदारों को चीन ने सत्ता में हिस्सा दिया। 1820 में पहले के सत्ताधारी खोजाओं ने विद्रोह किया उनके नेता जहांगीर खोजा को 1828 में पकडकर मार डाला गया। पडोस के खोकंद प्रांत के अमीरों ने सतत 1830 से 1862 तक हमले किए। 1862 में शेन्सी और कान्सू प्रदेशों में हुए प्रखर मुस्लिम विद्रोहों के कारण काशगर बिल्कूल अलग-थलग पड गया इसका लाभ उठाकर खोकंद प्रदेश के तुर्क नेता याकूब बेग ने काशगर पर हमला कर स्वतंत्र मुस्लिम राज्य की स्थापना की। यह राज्य 1878 तक टिका। इस काल में चीनी सत्ता विद्रोहियों का जबरदस्त सामना करने में जुटी रही। 1876 में कान्सू प्रदेश के विद्रोह को समाप्त करने के बाद चीनी सत्ता ने काशगर पर हमला कर उसे फिर से जीत लिया। और रशिया व मध्यपूर्व की नीतियों को देखते उन्हें मांडलिक ना रखते उस प्रदेश को चीन में शामिल कर डाला।

चीन के यूनान प्रदेश का मुस्लिम विद्रोह जिसका नेतृत्व तेहसीन के पास था 19वीं शताब्दी के शेनजियांग, कान्सू, शेन्सी के संघर्षों के समान ही एक बडी घटना है। 1839 में रंगून के मार्ग से उसने मक्का की यात्रा की थी। भारत के नक्शबंदी और मुजाहिद  तथा अरबस्थान के वहाबी आंदोलनों से वह पूरी तरह परिचित था। भारत के नक्शबंदी नेता सय्यद अहमद सरहिंदी (मृ.1624), उसका पोता (औरंगजेब का गुरु घराना), शाहवलीउल्लाह जिसने नजीब द्वारा अफगानिस्तान के अब्दाली को भारत पर आक्रमण के लिए बुलावा भेजा था, जिहाद कर पंजाब में स्वतंत्र राज्य स्थापित करने की चाह रखनेवाला सय्यद अहमद (मृ.1831) के जिहाद आंदोलनों का उस पर पूरा प्रभाव था। इसीने कुरान का अनुवाद चीनी भाषा मंें करना प्रारंभ किया था जिसे उसके शिष्य तूवेन सियू जो बडा ही करतबी नेता था ने पूरा किया।

इसकी यूनान में सशस्त्र लढ़ाई सफल हुई। ब्रह्मदेश के मुसलमान और भारत के मुजाहिदीनों ने इसे हथियारों की पूर्ति की थी। तूवेन सियू ने यूनान में स्वतंत्र इस्लामी राज्य की स्थापना की। 1853 से 1873 तक  यह राज्य टिका। इस राज्य में मुस्लिम अल्पसंख्यक होकर बहुसंख्य चीनियों को 'जिम्मी" बनाया गया। वातावरण को धर्मांतरणाकूल बनाया गया। कुरानप्रणीत शरीअत ही राज्य का सामान्य कानून बन गया। चीनी संस्कृति के समाजजीवन के आचार-विचारों की पहचानों को मिटाया जाने लगा। चीन के मध्य एक मुस्लिम राज्य ऐसा कभी हुआ नहीं था। चीनी राज्य सत्ता को यह सहन नहीं हुआ उसने पूरी ताकत से इस राज्य पर हमला कर उसे नष्ट कर डाला। इस संघर्ष में हजारों लोग मारे गए। चीन का अखंडत्व बना रहा।

इन सब बातों के उद्रेक का कारण था- इस्लामी जगत से संपर्क, उच्चगंड, यजमान संस्कृति के प्रति तुच्छता की और अलगाव की भावना, महदी, जिहाद की घोषणाओं का अज्ञजनों पर हुआ परिणाम, शासन का अज्ञान, उपेक्षा और अव्यवहार्य निर्बंध।

कम्यूनिस्ट शासन आने के बाद कम्यूनिस्टों की नीति मुसलमानों के बारे में बडी सख्त और सावधानता की रही। एक नीति के रुप में शेनजियांग और अन्य मुस्लिम बस्तियों वाले प्रदेशों में चीनियों को बडे पैमाने पर बसाया गया। इस पर मुस्लिमों की प्रतिक्रिया तीव्र हुई। 1958 का यह समाचार देखिए- कान्सू राष्ट्रांक समिति ने मत व्यक्त किया है कि, हुई (मुस्लिम) लोगों में स्थानीय राष्ट्रवाद बहुत फैला हुआ है। कान्सू प्रदेश में तो वह चरम पर है। मुस्लिमों के मतानुसार मुस्लिम कम्यूनिस्ट और उनके साथ सहानुभूति रखनेवाले मुस्लिम राष्ट्र के शत्रु हैं।

हुई (मुस्लिम) लोगों ने चीनी पितृभूमि और चीनी राष्ट्र इन कल्पनाओं की खिल्ली उडाई। उन्होंने घोषित किया कि, 'हुई राष्ट्र (मुस्लिम) की चीन पितृभूमि हो नहीं सकती। हुई (मुस्लिम) लोगों की मातृभाषा अरबी है। संसार के सारे हुई (मुस्लिम) एक ही परिवार के घटक हैं।" सरकारी विवरणों से जानकारी मिलती है कि- 'हुई (मुस्लिम) का कहना है कि, चीन में रहें ऐसी परिस्थिति नहीं। उन्होंने देशत्याग करने की अनुमति (परमिट) खुल्लमखुल्ला मांगी। उनका कहना है हम अरबस्तान में जाकर वहीं रहेंगे। उनमें से कुछ लोग कहते हैं कि, इस्लामी राज्य की स्थापना होकर इमाम की सत्ता चालू होगी।"

1958 में 'पीपुल्स डेली" इस समाचार पत्र ने गोपनीय जानकारी प्रकाशित की- होनान प्रांत में हुई (मुस्लिम) लोगों ने 1953 में दो बार विद्रोह किए। उनका उद्देश्य इस्लामी राज्य की स्थापना करना था। 1958 के अप्रेल और जून में निंघसिया के हुई इमाम मा चेन वू ने विद्रोह की नेतृत्व किया, उसका उद्देश्य एक चीनी मुस्लिम प्रजासत्ताक राज्य बनाएं था। उसकी घोषणा थी- 'इस्लाम का तेज चमके", 'ग्लोरी टू इस्लाम"।

वैश्विक कारणों से और वैश्विक तनावों के कम ज्यादा होने के अनुसार चीन में भी अल्पसंख्यकों के प्रति नीतियों में कम या अधिक बदलाव होते रहते हैं परंतु जिस प्रकार से रशिया या मध्यपूर्व के देशों के बारे में समाचार मिलते रहते हैं वैसा चीन के संबंध में हो नहीं पाता। वहां के समाचार चीन की अभेद दीवारों को लांघकर बहुत कम ही बाहर आ पाते हैं।