Wednesday, February 26, 2014

शिव - शक्ति और शांति का उपासक बिल्व (बेल)

हमारी भारतीय संस्कृति में वनस्पति जगत के महत्व को स्वीकारा गया है, उनके गुणों का बखान भी कथाओं, वेद-पुराणों में हुआ  है और उनको धार्मिक विधियों में भी उचित स्थान प्राप्त हुआ है। तुलसी दल विष्णु को अर्पित किए बिना पूजा की पूर्तता नहीं होती। दुर्वा के बगैर गणेश पूजा सफल नहीं हो सकती। बिल्व-पत्र दल के सिवा शिवशंकर की पूजा-आराधना पूर्ण नहीं होती। ये सभी वनस्पतियां औषधी भी हैं। इस कारण इनके महत्व के बारे में सभीको ज्ञात हो यह उत्तम।

पौरुष के देवता एवं प्रकृति स्वरुप पार्वती के समन्वित रुप अर्धनारीश्वर की बिल्व पत्र से पूजा-अर्चा, आराधना कैसा सार्थक और सुंदर प्रतीक है। बेल वृक्ष के आस-पास महादेव का लिंग होता ही है, ऐसी प्रथा है। बेल के फूलों की सुगंध बहुत होती है। बेल ेपत्ते, फल, छिलके व जड प्रत्येक में उपयुक्त औषधी द्रव्य हैं। मनुष्य के जीवन का आनंद प्रदाता है यह बेल वृक्ष। इसीलिए आयुर्वेदाचार्यों ने इसका संशोधन कर इसके गुण गाए हैं। जिस स्थान पर यह वृक्ष होता है उसके आस-पास शरीर को हानि पहुंचानेवाले जीव-जंतु रह नहीं सकते। हवा शुद्ध हो मनुष्य आरोग्य संपन्न रहता है।

प्राचीनकाल में ऋषिगण योगाभ्यास और समाधिस्थ होने के लिए जिन वनस्पतियों का उपयोग करते थे उनमें बेल महत्पूर्ण है। बिल्व की खनिज संपदा में पारद के पाए जाने के कारण वह बिल्व के विविध गुणों को दिव्यता प्रदान करता है। पारद को शिव का वीर्य कहा गया है। अतः शक्ति की उपासना और प्रसन्नता के लिए बिल्व शिव के समान ही सेवनीय है। बेल के वृक्ष पर लगे सुखे पुराने फल भी वर्षाकाल के बाद पुनः हरे और ताजे हो जाते हैं। कच्चा फल अधिक औषधीय गुण रखता है। कच्चा फल कफ, वायुनाशक, अग्निदीपक, पाचकग्राही, लघु स्निग्ध कहा गया है। पका फल मधुर और भारी होता है। दोनो ही प्रकार के फल ग्रहणी दोष को नष्ट करनेवाले होते हैं। बेलफल आंतों की शिथिलता को दूर कर उनकी संकोच शक्ति को बढ़ाता है। जिससे मल निष्कासन की क्रिया में तेजी से सुधार होकर, आंव को बाहर कर आंतों को बलवान बनाता है। बेल का शरबत उदर रोगों में लाभकारी होकर मलशोधन कर रक्त में वृद्धि कर उत्साह प्रदान करता है। बेल का तेल गर्भाशय की शुद्धि कर वात व्याधि एवं कर्णविकार में उत्तम है।

इसके पत्र वृक्ष से टूटकर भी छः महिने तक सुरक्षित और ताजे बने रहते हैं, गुणहीन नहीं होते। फलों की अपेक्षा बिल्वपत्रों में पारद के योगिकाणुओं की और भी अधिक मात्रा पाई जाती है, जिसने बिल्व में अनेक गुणों के साथ मिलकर कई चमत्कारिक, असाधारण गुणों की सृष्टि की है। बिल्वपत्रों से शिवार्चना कर ऋषियों ने शिव के समान वीर्य से पूर्ण, शांतचित्त समाधि में समर्थ, विषों से अप्रभावी, स्वस्थ, निरोग और अनिश्वर काया बिल्व सेवन से प्राप्त की। बिल्व सेवित होने के कारण शिव विष पान कर नीलकंठेश्वर और विषधरों से अलंकृत होकर अर्धनारीश्वर के रुप में कैलाश पर्वत पर समाधि में लीन हैं।

बिल्व विषनाशक होने के कारण कीडे-मकोडों के काटने से उत्पन्न सूजन पर बेल के पत्तों का रस लगाने से शांति मिलती है। बेलपत्र और जड का रस पिलाने से सांप का विष उतरता है। यदि शरीर में कांटा रह जाए तोे बेलपत्र की पुल्टिस बांधने से कांटा अंदर ही अंदर गल जाता है। संखिया के विष पर बेल के पके फलों को यदि भरपेट खा लिया जाए तो यह नीलकंठेश्वर के समान समस्त विष को सोंखकर उसके मारक प्रभाव को नष्ट कर देता है। जो लोग नित्य बेलफल का सेवन करते हैं उन पर विषधर के विष का मारक प्रभाव नहीं पडता।

बेल का पत्ते जहां पूजा के काम आते हैं वहीं इसकी लकडी यज्ञ एवं प्रसूता के पलंग बनाने के काम में आती है। इसके फल, छाल, जड, बीज और फूल भी कई रोगों में उपयोगी होते हैं। यही नहीं बेल वृक्ष की छाया भी शीतल और आरोग्यकारी होती है। इसके पत्तों के धुंअॆ से कीडे-मकोडे, मच्छर, मकडी आदि नष्ट हो जाते हैं। बेल के छिलके भी अत्यंत प्रभावी औषधी हैं, चंदन के समान गुणों में श्रेष्ठ हैं।

आयर्वेद में बिल्व का बहुत विशद विवेचन मिलता है। चरक संहिताकार ने इसे बहुत पवित्र एवं अशुद्धि निवारक माना है। सुश्रुत ने इसे आयु की वृद्धि एवं अलक्ष्मी का नाश करनेवाला माना है और ऋगवेदोक्त श्रीसूक्त का उदाहरण प्रस्तुत करते हुए बिल्व की आहूति का विधान किया है। बिल्व मुख्य रुप से इन रोगों में बहुपयोगी है - 

सिरदर्द, कब्ज, बहुमूत्र रोग, पसीने की बदबू में, निर्बलता, अतिसार-उल्टी, हरे-पीले दस्त हो रहे हों तो, गठिया, बवासीर, ह्रदय रोग, मधुमेह, प्रमेह, प्रदर, अनिद्रा, स्वप्नदोष, वीर्यदोष, उपदंश, जलने पर, बच्चों के दांत निकलते समय, पीलिया, मुंह में छाले, मंदाग्नि, आदि।

आधुनिक चिकित्सकों और वैज्ञानिकों ने भी यह स्वीकार लिया है कि बिल्व फल के गूदे, पत्र और मूल यानी जड में जो रासायनिक तत्त्व पाए जाते हैं, उनका विशेष प्रभाव आंत और रक्तसंस्थान पर होता है। फलों के अंदर के लसदार पदार्थ से आंतों में स्निग्धता आती है, उसकी गतिशीलता नियमित होकर मलावरोध एवं रस धातु का शोषण होता है और मल बंधा हुआ आता है। इससे रक्त संपादन का कार्य अधिक होता है। बेल मृदु विरेचक और उदरशोधक है। शरबत उदारमय एवं अजीर्ण में लाभकारी। बिल्व रोगोत्तर काल में बहुत उपयोगी है। इस प्रकार यह बेल अमृत फल है।

Tuesday, February 25, 2014

भविष्य-चिंतक वीर सावरकर के सपनों का भारत

हिंदूराष्ट्र के उद्‌गाता वीर सावरकर न केवल एक महान हिंदूसंगठक थे, जिन्होंने अंडमान के कारागार में ही शुद्धि यज्ञ का सूत्रपात किया था अपितु, एक महान साहित्यकार भी थे, जिन्होंने कालकोठरी में ही रहते 'कमला" जैसे महाकाव्य का सृजन किया था, मुंबई मराठी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष पद से 1938 में 'लेखनियां तोडो और बंदूक हाथ में लो" का क्रांतिकारी वक्तव्य देकर खलबली मचा दी थी। वे क्रांतिमंत्र के उद्‌गाता, जो जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में क्रांतिकारी रहे; जिनका कहना था प्रत्येक क्रांति एक प्रयोग होता है, विज्ञाननिष्ठ, तर्कसिद्ध सर्वकालिक हिंदुत्व के प्रवक्ता, द्रष्टा-भविष्यचिंतक भी थे। अंडमान के तट को दूर से देखते ही, जहां उन्हें दो कालापानी का दंड भुगतने के लिए लाया जा रहा था, उनके मन में विचार उठे थे अरे! यह तो हिंदुस्थान के समुद्र का पूर्व की ओर का द्वार ही है, जहां भविष्य में भारतीय नौ-सेना का एक बलिष्ठ सैनिकी अड्डा स्थापित होगा, जो पूर्व की ओर से होनेवाले किसी भी आक्रमण का प्रथम प्रत्याघात कर देश की रक्षा करेगा। उनका यह स्वप्न सुन कारागार के अधीक्षक ने उपहास करने के लिए उनसे कहा - 'यह देखो सावरकर, इस अंडमान के तुम्हारे भावी जलदुर्ग के योद्धा इधर-उधर पहरा दे रहे हैं। देखो!" सावरकरजी ने इस पर हंसकर कहा, 'यह तुम्हें और मुझे कदाचित्‌ दिख न सकेंगे परंतु, अपने बच्चे बहुधा यहां आएंगे।" वीर सावरकर का यह स्वप्न सिद्ध हुआ। वे द्रष्टा ठहरे। 10 मई 1973 को लोकसभा में रक्षामंत्री ने पोर्टब्लेअर पर नौ-सेना का अग्रगामी अड्डा स्थापित करने के सरकार के निर्णय की घोषणा की। 

वीर सावरकर के हिंदुत्व-हिंदूराष्ट्रवाद को संकुचित समझनेवाले समझते रहें परंतु, उनका हिंदुत्व ग्रंथ जो 1921 के अंत और 1922 के प्रारंभ में गुप्तरुप से लिखकर अंडमान के कारागार से बाहर भेजा गया था वह 1923 में 'मराठा" इस सार्थ नाम से प्रकाशित हुआ था। और 1925 के प्रारंभ में हिंदूमहासभा के बेलगांव अधिवेशन में डॉ. मुंजे, लाला लाजपतराय, लाला हंसराज, बॅ. जयकर, तात्यासाहेब केलकर, बाबू राजेन्द्रप्रसाद जैसे बडे-बडे नेता उपस्थित थे में सावरकरजी द्वारा इस ग्रंथ में 'हिंदुत्व" की दी गई व्याख्या बतलाई गई थी। इस 'हिंदुत्व" ग्रंथ को जो कोई भी पढ़ेगा वह निःशंक होकर स्वीकारेगा कि सावरकरजी का हिंदुत्वाभिमान अंधधर्मांधता न होकर सांस्कृतिक स्वाभिमान था। हिंद्वेत्तर धर्मांधों को मुंहतोड उत्तर देनेवाला स्वाभिमानभरा संकल्प था। परंतु, जो बिना पढ़े ही उन्हेें और हिंदुत्ववादियों को धर्मांध और सांप्रदायिक ठहराना चाहते हैं। उन्हें अब क्या कहें?

'हिंदूराष्ट्र" की कल्पना को संकुचित कहनेवालों को उनके द्वारा दिया गया उत्तर था - हिंदूराष्ट्र की कल्पना संकुचित नहीं। क्योंकि, यदि इस प्रकार से कहा गया तो हिंदीराष्ट्र की कल्पना भी मानवता की विशाल कल्पना के सामने संकुचित ही ठहरेगी। 
  
वीरसावरकर भी हिंदूराष्ट्र का सपना देखा करते थे का उल्लेख कर हिंदुत्ववादियों का उपहास कर हिंदुत्व एवं हिंदुत्ववादियों के प्रति अनर्गल प्रलाप करनेवाले जिन्हें परंपरागत रुप से ही 'हिंदुत्वद्वेष" प्राप्त हुआ है वस्तुतः जानते ही नहीं कि वीर सावरकर अपने सपने के भारत के बारे में क्या विचार रखते थे। वीर सावरकर के शब्दों में ही - ''मेरे सपनों का भारत एक लोकतंत्रीय राज्य है, जिसमें सभी रुप धर्मों और मत-मतांतरों के अनुगामियों के साथ पूर्ण समानता का व्यवहार किया जाएगा। किसीको दूसरे पर आधिपत्य जमाने का अवसर न रहेगा। जब तक कोई व्यक्ति हिंदुओं की इस पुण्यभूमि तथा मातृभूमि हिंदुस्थान को एक राज्य मानकर इसके प्रति अपने दायित्वों का निष्ठा सहित पालन करेगा, जो आसिंधु-सिंधु पर्यंत विस्तीर्ण है, एक ओर अविभाज्य है तब तक उसे नागरिकता के पूर्ण अधिकार प्राप्त होंगे। हिंदू एक जातिविहीन और संगठित आधुनिक राष्ट्र का रुप ग्रहण करेंगे। विज्ञान और टैक्नोलोजी को बढ़ावा मिलेगा, जिसमें सभी भूमि राज्य की होगी और कोई भी जमींदार न होगा। सभी महत्वपूर्ण उद्योगों का राष्ट्रीयकरण होगा तथा भारत खाद्यान्न, वस्त्र और प्रतिरक्षा की दृष्टि से पूर्णतः आत्मनिर्भर होगा। मेरे स्वप्नों के भारत का वसुधैव कुटुम्बकम के महान आदर्श में विश्वास होगा। सैनिक दृष्टि से सबल अखंड हिंदुस्थान की विदेश नीति होगी तटस्थता और शान्ति की। शक्तिशाली और अखंड हिंदुस्थान ही विश्व में स्थाई शान्ति और समृद्धि की दिशा में प्रभावी योगदान दे सकता है।""

हिंदुत्व पर होनेवाले आक्रमणों एवं कुप्रचार से तथा गिरती नैतिकता देखकर निराश होनेवाले हिंदुत्ववादियों के लिए सावरकरजी के ये वचन निश्चय ही गौर करने लायक होकर उनके लिए सम्बल प्रदान करनेवाले हैं - ''स्वतंत्रता के 18 वर्ष (वर्तमान में 66) उपरान्त भी हम लोगों को निराश, हताश, विक्षुब्ध और नैतिकता से गिरता हुआ देख रहे हैं। आज जनसाधारण जो पेट की रोटी और अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहे हैं, बडी योजनाओं ने उनको तनिक भी प्रभावित नहीं किया है। किन्तु इतने पर भी एक क्षण के लिए भी यह सोचना कि यह देश खंड-खंडित हो जाएगा, पागलपन ही होगा। एक ऐसा देश जिसने चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य, शालिवाहन, चाणक्य और शिवाजी जैसे महान राजनीतिज्ञों को गोदी में खिलाया है, वह कभी भी राजनैतिक दृष्टि से दिवालिया नहीं हो सकता। सहस्त्रों वर्षों के इतिहास में हिन्दुस्थान पर जब-जब संकट के घन घहराए हैं तब ही किसी-न-किसी महापुरुष ने इसका नेतृत्व कर राष्ट्र को सम्बल दिया है। जैसा अतीत में हुआ है भविष्य में भी ऐसे लोग होते रहेंगे जो देश का दिशा निर्देशन करेंगे, इसकी सेवा के लिए ही जिएंगे और मरेंगे।""

जिस प्रकार से उनके 'हिंदुत्व" के प्रति अनेक भ्रांतियां व्याप्त हैं उसी प्रकार से उनकी धर्म संबंधी भूमिका, मान्यताओं के बारे में भी अनेकानेक भ्रांतियां फैली हुई हैं। धर्म संबंधी उनके विचार थे - ''क्या धर्म अर्थात्‌ पारिमार्थिक चर्चा द्वैत, अद्वैत का वाद-विवाद या चेतन-अचेतन की खोज है? या केवल भावना है जो व्यक्ति शून्य हो? नहीं विशेष रुप से हमारा धर्म महान होने से हम धर्म को ही राष्ट्र कहते हैं। हमारा इतिहास ही धर्म है। इतना ही नहीं परंतु हमारा दैनिक व्यवहार जो इतिहास समाज और राष्ट्र को पुष्ट करता है वही हमारा धर्म है। धर्म की यह परिभाषा निधर्मी स्टालिन से कम्युनिस्टों को भी माननी पडी थी। धर्म की इस परिभाषा से यह स्पष्ट होता है कि कोई भी व्यक्ति धर्मातीत रह ही नहीं सकता। अमरीका का राष्ट्रपति बाइबल हाथ में लिए बिना राष्ट्रपति पद की शपथ ग्रहण नहीं कर सकता; इंग्लैंड का सम्राट यदि प्रोटेस्टन्ट न हो तो उसे राज्य पद से त्यागपत्र देना पडता है। यदि छोटे से छोटे पाश्चात्य देश में भी हम गए तो हमें यही दिखाई देगा कि यह राष्ट्र किसी-न-किसी धर्म का अनुयायी होगा। हम हिन्दू हैं और हमने दुनिया देखी है? देश इतिहास और व्यवहार के विशुद्ध न्यायपूर्ण बरताव को ही हम धर्म कहते हैं। इसलिए धर्म में महान शक्ति होती है। हम, हमारा देश, इतिहास और व्यवहार हिंदुस्थान के वैभव को बढ़ानेवाला है। इस प्रकार व्यक्तिगत और सामाजिक भावनाओं में व्याप्त प्रेरणा को ही हम धर्म कहते हैं। धर्म की इस परिभाषा से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि हिंदुस्थान का धर्म हिंदू है।""

इस हिंदूधर्म को और अधिक विस्तृत रुप से समझने के पूर्व उनके द्वारा दी गई हिंदू की परिभाषा जो उनकी प्रतिभा दर्शाती है को समझना अनिवार्य है। उनकी व्याख्या के अनुसार 'आसिंधु-सिंधु-पर्यन्ता, यस्य भारतभूमिका। पितृभूः पुण्यभूश्चैव स वै हिंदुरिति स्मृतः।।" सिंधुस्थान ही जिनकी केवल पितृभूमि ही नहीं तो पुण्यभूमि भी है वह हिंदू। सावरकरजी की 'हिंदू" शब्द की यह व्याख्या अतिव्याप्ति और अव्याप्ति इन दोनो ही प्रकार के दोषों से मुक्त है। इस व्याख्या के अनुसार वैदिक धर्मानुयायी, सिक्ख और भारतीय बौद्ध, जैन, लिंगायत, नास्तिक, ब्राह्मोसमाजी, गिरीजन, वनवासी आदि का समावेश 'हिंदू" में होता है। चीनी बौद्धों का समावेश हिंदुओं में नहीं होता। क्योंकि, हिंदुस्थान उनकी पुण्यभूमि होने पर भी पितृभूमि नहीं है।

 'हिंदूधर्म" यह नाम किसी एक विशिष्ट धर्म अथवा पंथ विशेष का न होकर जिन अनेक धर्मों और पंथों की यह भारतभूमि ही पितृभू और पुण्यभू है उन सारों का समावेश करनेवाले धर्मसंघों का हिंदूधर्म सामुदायिक अभिधान है। बहुसंख्य हिंदुओं के धर्म को सनातन धर्म अथवा श्रुति-स्मृति-पुराणोक्त धर्म अथवा वैदिक धर्म इस प्राचीन एवं मान्य संज्ञाओं से संबोधित किया जाता है। अन्य हिंदुओं के धर्मों को उनके उनके मान्य नामों से जैसे सिक्ख धर्म अथवा आर्यधर्म अथवा जैन धर्म अथवा बौद्ध धर्म संबोधित किया जा सकता है। जब इन सारे धर्मों को एकत्रित नाम देने की आवश्यकता होगी तब हिंदूधर्म यह व्यापक नाम देना उचित होगा। इसके कारण अर्थहानि तो होगी ही नहीं, परंतु वह अचूक और निःसंदिग्ध जरुर होगी और अपने छोटे समाज के संदेह और बडे समाज का क्रोध दूर कर अपने समान वंश और समान संस्कृति दर्शानेवाले अपने प्राचीन ध्वज तले पुनः एक बार सभी हिंदुओं के एकत्रित करेगा। इसी प्रकार से हमारे यहां एक ही धर्म पुस्तक न होने का लाभ बतलाते हुए सावरकरजी इस संबंध में अपने विचार प्रकट करते हुए कहा इससे अपना धर्मविकास थमा नहीं। हमारे धर्मतत्त्व भी किसी पुस्तक के दो पुट्ठों में समा नहीं सकते। इस विश्व के दो पुट्ठों में जितना सत्य और ज्ञान विस्तृत फैला हुआ है उतनी हमारी धर्म पुस्तक विस्तृत होगी। अंत में उनका कहना था कुछ भी हो तो भी बुद्धिवाद की दृष्टि से देखा जाए तो कुल मिलाकर सभी धर्मों में ग्राह्यतम धर्म यदि कोई हो सकता है तो वह है हिंदूधर्म।

सावरकर हिंदुत्ववादी थे किंतु उसकी अपेक्षा अधिक 'सेक्यूलर" भी थे। परंतु उनके सेक्लूरिजम को भी उनके विरोधियों ने विकृत कर जनता के सामने प्रस्तुत किया और उनके अनुयायियों ने भी उसे कभी जनता के सामने ठीक ढ़ंग से प्रस्तुत नहीं किया। 'सेक्यूलिरिजम" यानी शासन की धर्म संबंधी भूमिका। इस संबंध में वीर सावरकरजी की भूमिका इस प्रकार की थी, धर्म से संबंधित विषय पारलौकिक और आध्यात्मिक स्वरुप का माना जाना चाहिए। लौकिक विषयों में धर्म का अधिकार मान्य नहीं होना चाहिए। उनका कहना था - धर्म शब्दनिष्ठा और श्रद्धा का प्रांत है और परलोक उसका विषय; इहलोक यानी कानून, व्यवहार होकर प्रत्यक्षनिष्ठ प्रयोग का क्षेत्र! वहां धर्म नहीं चलेगा। धर्म अलग। कानून अलग। धर्मग्रंथ को बंद कर अगर बुद्धिवाद से विचार किया जाए तो ही ऐहिक जीवन के प्रश्न हल हो सकते हैं। अतः मानव जीवन का ऐहिक और पारलौकिक इस प्रकार का विभाजन कर धर्म को केवल पारलौकिक विषयों तक ही मर्यादित रखना और ऐहिक जीवन के सारे विषय बुद्धिवाद के या उपयुक्ततावाद के हवाले करना इस प्रकार की उनकी सेक्यूरिजम संबंधी भूमिका थी। इहलौकिक जीवन से धर्म को दूर कर उसे केवल पारलौकिक जीवन तक का मर्यादित माने बगैर ऐहिक मानवी जीवन के निर्णय बुद्धि के आधार पर लिए नहीं जा सकेंगे, ऐसा उनका कहना था। 'अरबी संस्कृति का उच्चाटन" इस निबंध में उन्होंने इस संबंध में बिल्कूल सुस्पष्ट विचार प्रस्तुत किए हैं। तुर्कस्थान के कमालपाशा ने इस्लाम को पारलौकिक जीवन तक मर्यादित कर डाला था। ऐहिक जीवन में इस्लाम के हस्तक्षेप का अधिकार गैरकानूनी कर डाला था। राजनीति, सामाजिक नीति, अर्थनीति, शिक्षा, रक्षा, भाषा, कानून आदि सारे ऐहिक विषय उन्होंने शासन के, विधिमंडल के बुद्धिवादी क्षेत्रतले ले लिए थे। ऐहिक क्षेत्र से धर्म का साफ उच्चाटन कर डाला था। 

सावरकरजी को भारत में यही भूमिका लेनी थी। भारत का संविधान और कामकाज पूरी तरह से बुद्धिवाद पर आधारित रहेगा; वह वेद, गीता, कुरान, बाइबल इस प्रकार के किसी भी धर्मग्रंथ पर आधारित नहीं रहेगा इस प्रकार की उन्होंने घोषणा ही की हुई थी।  धर्मग्रंथ आज कालबाह्य हो गए हैं; आज हम किस प्रकार से रहें; व्यवहार करें यह कहने का अधिकार धर्मग्रंथों को नहीं; धर्मग्रंथों पर आधारित सामाजिक संस्थाओं को खडा करने के दिन गए; आज हमें जो सामाजिक संस्थाएं खडी करनी हैं वे धर्मग्रंथ पर न होकर विज्ञानग्रंथों पर, बुद्धिवाद पर खडी करनी हैं इस प्रकार की उनकी भूमिका थी। सावरकरजी के सेक्यूलरिजम की यह भूमिका हिंदू-मुस्लिम समस्या सहित अनेक राष्ट्रीय और सामाजिक समस्याओं पर रामबाण उपाय जैसी थी। उन्हें मालूम था कि, संसार की धर्मों संबंधी अधिकांश समस्याएं, धर्म जो मनुष्य के इहलौकिक जीवन मेें प्रभावी होता है से पैदा होती हैं। उदाहरणार्थ सामाजिक विषमता की समस्या को लें तो धर्म ने जीवन के विषय में कही हुई आज्ञाओं में से ही वह पैदा हुई हैं। इहलौकिक जीवन पर के धर्म के अधिकार को ही निकाल लिया जाए तो धर्मप्रणीत सामाजिक विषमता का आधार ही उखड जाता है। मुस्लिमों का स्वतंत्र राष्ट्र यानी इहलौकिक रहनेवाले राजनैतिक क्षेत्र में धर्म का उपयोग। धर्म का विषय परलोक तक का मर्यादित कर दिया जाए तो सारा इहलौकिक मानवी जीवन धर्म के नियंत्रण से मुक्त हो जाता है और धर्मसंबंधी सारी समस्याएं समाप्त हो जाती हैं, इस प्रकार की उनकी भूमिका थी। इस भूमिका के कारण हिंदुओं पर होनेवाला अन्याय भी समाप्त होनेवाला था, मुस्लिमों का प्रश्न भी हल होनेवाला था; धर्म का राजनैतिक आधार भी समाप्त होनेवाला था; सामाजिक सुधार और आधुनिकता का मार्ग भी खुला होनेवाला था। जिसे परलोक में या अध्यात्म में श्रद्धा होगी वह उस विषय तक का मर्यादित अपने धर्म का पालन कर सकेगा। पारलौकिक और आध्यात्मिक अर्थ का धर्म केवल मानसिक और आत्मिक संतुष्टि तक का सीमित होने के कारण उसका किसी भी तरह का दुष्परिणाम समाज पर और राष्ट्र पर नहीं होगा। सेक्यूलरिजम की इस प्रकार की भूमिका रखनेवाले होने के बावजूद सावरकरजी के  धर्म संबंधी विचारों के बारे में भ्रांतियां फैलाना, उन पर मिथ्या दोषारोपण करना इस अज्ञान को या जानबूझकर किए जानेवाले भ्रामक प्रचार को क्या कहा जाए?

Friday, February 21, 2014

कणाद - वैशेषिक दर्शन के प्रणेता

आज हम सभी जानते हैं कि प्रत्येक पदार्थ अतिसूक्ष्म कणों से बना हुआ होता है। परंतु, क्या आप जानते हैं कि सबसे पहले यह प्रतिपादित किसने किया? ऋषि 'कणाद" ने। पृथ्वी, तेज, जल और वायु इनके अविभाज्य सूक्ष्म अंशों से यानी अणुओं से इस विश्व की निर्मिती हुई है। प्रत्येक अविभाज्य अणु उसीके समान अणु से अलग होता है। यह सिद्ध करनेवाला विलक्षण धर्म 'विशेष" प्रत्येक अणु में है। यह उन्होंने तर्क द्वारा सिद्ध किया। इसीलिए उन्हें वैशेषिक दर्शन का आद्य प्रवर्तक माना जाता है।

कणाद यह कोई उनका असली नाम नहीं, उनका असली नाम क्या है? यह भी किसीको मालूम नहीं। शायद कण (अणु) वाद का जोरदार समर्थन करने के कारण उनका नाम कणाद पडा हो। यह भी संभव है कि उनके द्वारा खेतों में पडे अनाज के कण एकत्रित कर अपनी उपजीविका चलाने के व्रत को आचरण में लाने के कारण उनको कणभक्ष, कणभुज एवं कणाद नाम प्राप्त हुआ हो। उनके पिता का नाम उलूक और गौत्र कश्यप था। कुछ लोगों के मतानुसार वे दिन भर तो ग्रंथ रचना करते और रात्री में भोजन प्राप्ति के लिए उल्लू के समान निकलते इसलिए उन्हें लोग उलूक कहते और उनके दर्शन को उलूक का तत्त्वज्ञान या औलूक्य दर्शन। बौद्धवाद पर उनके कणवाद का प्रभाव दिख पडता है। परंतु, उनके वैशेषिक सूत्र में कहीं भी बौद्धवाद का उल्लेख नहीं। उनके बुद्ध पूर्व होने की संभावना व्यक्त की जाती है।

कुछ लोगों का यह कहना है कि वर्तमान में अफगानिस्थान के कंदाहार प्रांत में 'उलूक" नाम की एक जाति थी। कणाद ऋषि का जन्म उसी जाति में हुआ होना चाहिए इसलिए उनका नाम उलूक पडा। कणाद के दो नाम और भी बतलाए जाते हैं - कश्यप और पाशुपत। कणाद कब हुए इसकी निश्चित कालावधि तो किसीको मालूम नहीं। परंतु, वह ईसा से छः शताब्दी पूर्व हुए, ऐसा माना जाता है। सौराष्ट्र (वर्तमान गुजरात) के सागर किनारे आश्रम बना उसमें वे निवास करते थे। प्रत्येक पदार्थ अतिसूक्ष्म कणों से बना है यह सर्वप्रथम प्रतिपादित करने का श्रेय डिमॉक्रिट्‌स को दिया जाता है। वह पांचवी शताब्दी में हुआ यानी कणाद उसके भी पूर्व हुए  और उन्होंने विज्ञानवाद पर भाष्य करना उस काल में प्रारंभ किया इसको अब मान्यता भी मिलने लगी है। 

वैशेषिक दर्शन इस ग्रंथ में कणाद ने अपने तर्कानुसार अणु का आकार कितना होता है यह बतलाया है। घर की खिडकी से आनेवाली सूर्य किरणों में जो कण दृष्टिगोचर होते हैं वे यानी 'त्र्यणुक" और एक त्र्यणुक का छठा भाग यानी अणु! सत्य तो यह है कि अणु इससे कई गुना छोटा होता है। प्रत्येक सूक्ष्म कण यानी पदार्थ को विभाजित करते चले जाएं तो मिलनेवाला अंतिम कण अथवा अणु। इससे आगे और छोटा कण मिल नहीं सकता, ऐसी समझ उस काल में ही नहीं तो 20वीं शताब्दी के आरंभ तक थी। (वैसे अब अणु से भी सूक्ष्म कण होता है यह सिद्ध हो चूका है) परंतु, उस काल में भी कणाद को अणु की सूक्ष्मता के विषय में ज्ञान था, उसकी कल्पना थी यह बात विशेष है।

आज के रसायन और भौतिक शास्त्र का आधार सिद्ध होनेवाली अनेक बातें कणाद ने बतलाई हुई हैं। उदाहरणार्थ अलग-अलग पदार्थों के अणुओं के स्वरुप भिन्न-भिन्न होते हैं, अणुओं में उस पदार्थ के सभी गुणधर्म मौजूद रहते हैं और अणुओं के संयोग से ही पदार्थों की निर्मिती होती है। उन्होंने अणुओं के आकार के बारे में भी बतलाया हुआ है। विशेष बात यह है कि कणाद का अणु सिद्धांत और 19वीं शताब्दी के ब्रिटिश वैज्ञानिक जॉन डॉल्टन द्वारा प्रस्तुत अणु सिद्धांत में बहुत समानता है। 
विश्व निर्माण से संबंधित अनेक सिद्धांत आधुनिक शास्त्रज्ञों ने प्रतिपादित किए हैं। कणाद ने भी इस संबंध में अपना सिद्धांत प्रस्तुत किया हुआ है। कणाद के अनुसार चार त्र्यणुकों से एक बडा कण तैयार होता है इस कण को 'चतुत्र्यणुक" कहते हैं और इसके बाद सृष्टि का निर्माण हुआ होना चाहिए। 

पूर्व के विद्वानों की यह उक्ति प्रसिद्ध है - काणादं पाणि नीयंच सर्वशास्त्रोपकारम्‌ अर्थात्‌ कणाद दर्शन और पाणिनी ऋषि का व्याकरण सभी शास्त्रों में उपकारक है। उनका यह कहना कितना सार्थ है यह इस पर से ही पता चलता है कि आज से 2500 वर्ष पूर्व कणाद का अणुवाद भारत विज्ञान के क्षेत्र में कितना आगे था इसका गवाह है।

Thursday, February 20, 2014

भ्रष्टाचार के मायने

भ्रष्टाचार शब्द सुनते या पढ़ते ही साधारणतया सभी के दिमाग में सबसे पहले रिश्वत, आर्थिक अनियमितता की बात ही कौंधती है, इसमें गलत कुछ भी नहीं है। क्योंकि, हमारे जीवन में अर्थ को ही सबसे बडा स्थान प्राप्त हो गया है। इस कारण हमारे मनोमस्तिष्क में उपर्युक्त अर्थ का उभर कर सामने आना स्वाभाविक ही है। परंतु, क्या भ्रष्टाचार का अर्थ इतना सीमित है।

भ्रष्टाचार का संधि-विच्छेद हुआ - भ्रष्ट+आचार = भ्रष्टाचार और जिसका आचार भ्रष्ट हो वह भ्रष्टाचारी। आचार के संबंध मंें यह वचन प्रसिद्ध है - 'आचारः प्रथमो धर्मः।" विचारों की अपेक्षा कृति-सदाचार का व्यवहार ही श्रेष्ठ और मुख्य है। अब इसको दृष्टिगत रख हम विचार करें और हमारे आस-पास क्या घटित हो रहा है इस पर दृष्टि डालें तो हमें क्या दृष्टिगोचर होता है। चारों ओर कदाचार ही कदाचार है और रही बात विचार एवं कृति की तो हम अपने आस-पास के दूषित वातावरण के प्रभाव से ऐसे हो गए हैं कि हम न तो सकारात्मक विचार कर पा रहे हैं ना ही कृति। या ऐसा भी कह सकते हैं कि, इसके लिए लगनेवाली इच्छाशक्ति ही हम  खो चूके हैं। हम दिन-ब-दिन विचारहीन और कृतिशून्य होते चले जा रहे हैं। हमारी कथनी और करनी में जमीन-आसमान का फर्क आ गया है। बस रात-दिन भ्रष्टाचार का रोना रोते रहते हैं। 

हम सभी यह भी कह रहते हैं कि भारत एक धर्मप्रधान देश है, हमारे देश के लोग बडे ही धार्मिक हैं। इसलिए मैंने भ्रष्टाचार क्या है को समझाने के लिए धर्म का आधार लेना उचित समझ महाभारत के एक श्लोक का संदर्भ दे रहा हूं। महाभारत में भीष्म पितामह युधिष्ठिर से कहते हैं - 'आगमानां हि सर्वेषां आचारः श्रेष्ठः उच्यते। आचारप्रभवो धर्मः, धर्मात्‌ आयुः विवर्धते। अर्थात्‌ सब शास्त्रों में आचार श्रेष्ठ है, ऐसा कहा जाता है। आचार ही धर्म का मूल, उत्पत्ति स्थान है। धर्म के आचरण से जीवन में बढ़ौत्री होती है।" अब  प्रश्न यह उठता है कि 'धर्म" क्या है? क्योंकि, धर्म शब्द का प्रयोग एवं उसकी व्याख्या अनेकों ने अनेकानेक प्रकार से की हुई है। महामहोपाध्याय श्री काणेजी के 'धर्मशास्त्र का इतिहास" में धर्म यानी 'निश्चित नियम" (व्यवस्था या सिद्धांत) या 'आचरण-नियम" है। (पृ. 5)

उपर्युक्त को दृष्टि में रख हम किस प्रकार का आचरण करते हैं इस पर यदि हम हमारी दैनंदिनी पर दृष्टि दौडाएं तो क्या दिख पडता है। हम में से अधिकांश यातायात के नियमों का पालन नहीं करते। चौराहों पर की लालबत्ती-पीलीबत्ती को नजरअंदाज करते हैं। एकांगी मार्गों का उल्लंघन करते हैं। अंधाधुंध गति से भीडभरी सडकों पर वाहन दौडाना अपनी शान समझते हैं। 'नो हॉर्न प्लीज" लिखा हो तो वहीं हम हॉर्न बजाते हैं। चौराहों पर लाल सिग्नल हरा हुआ ही नहीं पीले पर ही हम चल पडते हैं, जल्दी इतनी कि लाल बत्ती में ही जरा जगह मिली नहीं कि हम चल पडते हैं, जोर-जोर से हॉर्न बजाना, आवाजें कसना शुरु कर देते हैं। मानो आगेवाले  मूर्ख है कि जो समझते ही नहीं कि हरी बत्ती जलने पर उन्हें आगे बढ़ना है। चौडी सडकें इसलिए बनाई जाती हैं कि यातायात का दबाव कम हो, सुविधाजनक ढ़ंग से वाहन चलाए जा सकें, इसलिए तीन लेन में यातायात चलाया जाता है। परंतु, कई लोग चाहे जिस लेन में गाडी चलाते हैं, मुडना है दांई ओर और गाडी चला रहे हैं बांई लेन में। यदि सडक पर कोई दुर्घटना हो जाए तो मजमा लगा लेते हैं। परंतु, पीडित की सहायता करने कोई आगे नहीं आता, हां लड-झगडकर, भीड एकत्रित कर यातायात को अवश्य ही बाधित कर देते हैं।

स्वच्छता के संबंध में हमारा आचरण देखें तो, ऐसा लगता है मानोे सर्वत्र अस्वच्छता-गंदगी फैलाना हम हमारा जन्मसिद्ध अधिकार समझते हैं। चाहे जहां थूकना, कचरा फैंकना, मल-मूत्र विसर्जित करना, फुटपाथ और सडकों पर खडे होकर या सडक पर चलते-चलते खाना तथा छिलके, दोने वहीं या सडक पर फैंक देना, यह तो हमारी आदतों में शुमार है। सरकारें शौचालयों को बनाने को प्रोत्साहन दे रही हैं, लोग शौचालय बना भी रहे हैं। परंतु, उनको अन्यान्य कामों में उपयोग में लाकर अभी भी गांवों के आस-पास गंदगी फैला रहे हैं।

फुटपाथ पैदल चलनेवालों के लिए होते हैं परंतु, उनका निर्माण चलनेवालों के लिए न होकर, दुकानदारों, ठेलेवालों के लिए किया गया है, ऐसा लगता है। सडकें वाहनों के चलने के लिए होती हैं। परंतु, सडकों पर बिना अनुमति विभिन्न कार्यक्रम बडी शान से संपादित कर लिए जाते हैं। बिजली की आपूर्ति तारों पर आंकडें फंसाकर कर ली जाती है। भले ही कितनी भी अव्यवस्था फैले, लोग परेशान हों, ट्रैफिक जाम हों। कोई विचार ही नहीं करता। नई की नई बनी सडकों पर गड्ढे खोदकर शामियाने लगा दिए जाते हैं। क्या ये या अन्य इसी प्रकार के सार्वजनिक सेवाओं को बाधित करनेवाले उपक्रम जिनसे लोग बेवजह परेशान होते हैं, कदाचरण या भ्रष्ट आचरण यानी कि भ्रष्टाचार की श्रेणी में नहीं आते!
यदि इस प्रकार के कदाचरण या भ्रष्ट आचरण हम ढूंढने बैठें तो थोक  में मिल जाएंगे। और अधिकांश में किसी ना किसी प्रकार से हम भी या हमारे निकटस्थ, अपनेवाले भी संलग्न मिल जाएंगे। इसलिए हम इस प्रकार के आचरणों पर चुप्पी साधे रहते हैं, इन्हें भ्रष्टाचार मानने को तैयार ही नहीं होते। कडवा सच तो यह है कि हम स्वयं ही भ्रष्टाचार चाहते हैं, अपरोक्ष रुप से हमने भ्रष्टाचार को मान्यता दे रखी है। तभी तो हम यह जानते हुए भी यह व्यक्ति महाभ्रष्ट है उसका बहिष्कार करने की हिम्मत नहीं जुटा पाते। बल्कि उससे संबंध बनाने को लालायित रहते हैं जिससे कि हमें भी कभी आवश्यकता पडे अपना काम उससे निकलवा सकें। और यह कहकर इतिश्री कर लेते हैं, अपना दामन बचा लेते हैं कि क्या करें आजकल तो भ्रष्टाचार ही शिष्टाचार हो गया है। खुद रिश्वत देकर काम करवाते हैं और दूसरों को भ्रष्टाचारी कहते फिरते हैं। जबकि रिश्वत लेना और देना दोनो ही अपराध हैं। 

यदि भ्रष्टाचार को 'कम" करना है, नियंत्रण में रखना है तो हर एक को अपना स्वयं का आचरण सुधारना होगा। जब तक यह नहीं होता तब तक कुछ हो नहीं सकता। इसीलिए मैंने 'कम" शब्द का प्रयोग किया है समाप्त का नहीं। 

लेख का समापन मैं संस्कृत के इस सुभाषित से करता हूं, शायद हम सब भ्रष्टाचार से दुखी लोगों को यह मार्गदर्शन दे सके-श्रूयतां धर्म सर्वस्वं श्रुत्वाचैवार्व धार्रयतम्‌। आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्‌।। अर्थात्‌ संपूर्ण धर्म का सार सुनो और सुनकर उसको भली-भांति धारण करो। वह यह कि जिस व्यवहार को तुम स्वयं अपने साथ उचित नहीं समझते, वैसा व्यवहार कभी दूसरों के साथ भी न करो। और धर्म का सार इस श्लोक से जानिए - "धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायां महाजनो येन गतः स पन्थाः।' अर्थात्‌  वास्तव में धर्म का तत्त्व अत्यंत रहस्मय और गुप्त है। इसलिए महापुरुष जिस मार्ग पर चलते आए हैं उसीको धर्म का मार्ग समझना चाहिए है। 

धर्म कोई आकाश से अवतरित नहीं हुआ है। पृथ्वी पर बसनेवाले मनुष्यों ने ही आपस के व्यवहार सुखद हों, परस्पर के स्नेह के लिए और तत्त्वज्ञानानुसार अनुमानित अंतिम कल्याण के लिए कुछ नियम बनाएऔर उनके अनुसार मनुष्य व्यवहार करने लगा। वही आचरण। उन्हीं से धर्म के नियम बने और इस प्रकार से धर्म की चौखट खडी हुई। सनातन वैदिक धर्म की विशेषता यह है कि यह कोई एक व्यक्ति ने बतलाया हुआ धर्म नहीं है। ईश्वरी प्रतिभा से स्फुरित वेदों के अनुसार वह व्यक्त हुआ है। श्रिुतस्मृति ने उसकी राह बनाई। इसीलिए वह देवप्रणित धर्म और जगत्‌पालक विष्णु उसका प्रभु। परमेश्वर सभी सद्‌गुणों से सम्पन्न है। उसके धर्म का पालन करनेवाला मनुष्य भी वैसाही हो, सदाचारसम्पन्न हो ऐसी उचित अपेक्षा। सदाचार से शुद्ध होते-होते मनुष्य सच्चा धार्मिक होता है, यह धारणा इसके पीछे है। आचरण से ही मनुष्य की धार्मिकता के औचित्य को पहचानना चाहिए।''

Friday, February 14, 2014


ईसाई धर्मप्रचारकों ने संस्कृत क्यों सीखी? 2

...... विलियम केरी (1767-1837) ने 19वी शताब्दी के आरंभ में पाया कि पूरे भारत में पढ़े लिखे हिंदू संस्कृत समझते हैं जबकि स्थानीय भाषा में तो एक ही प्रांत में विभिन्नता है। केरी ने यह भी पाया कि स्थानीय लोगों पर संस्कृत का अच्छा प्रभाव है अतः ईसाई धर्म के प्रचार के लिए संस्कृत का उपयोग किया जाना चाहिए। आम लोगों में प्रतिष्ठा पाने के लिए यह बतलाना आवश्यक था कि ईसाई प्रचारक संस्कृत और हिंदू धर्म का अच्छा ज्ञान रखते हैं इसके लिए केरी ने बंगाल में 1818 में सेरामपुर कालेज की स्थापना की। उसका विचार था कि यहां से तैयार हुए ईसाई पंडित संस्कृत साहित्य के प्रवाह को ईसाइयत के लाभ के लिए मोड सकेंगे।  उसका सपना इस कालेज को ईसाइयत की काशी बनाने का था। केरी का कहना था 'मंदिर तोडने के स्थान पर उसमें रखी मूर्ति को ही बदल देना चाहिए। जिससे वहां उपस्थित उपासकों को पूजा के लिए एक नया और वैध ध्येय मिल सके।"

सन्‌ 1839 में जान म्यूर जिसमें ईसाई धर्मप्रचार का बडा उत्साह था ने मत परीक्षा नामक पुस्तक में संस्कृत के माध्यम से हिंदू धर्म के खंडन व ईसाईधर्म के मंडन का प्रयास किया। जिसके उत्तर में सोमनाथ नामक पंडित ने मतपरीक्षा-शिक्षा, हरचंद्र तर्कपंचानन ने मतपरीक्षोत्तरम्‌ और नीलकंठ गोरे ने शास्त्रत्व-विनिर्णय में म्यूर की स्थापनाओं का खंडन किया। इन पंडितों का उद्देश्य हिंदुओं को ईसाइयत में दीक्षित होने से रोकना था। अपने धर्म के बचाव एवं श्रेष्ठता को सिद्ध करने के लिए ईसाइयत पर आक्षेप भी किए। नीलकंठ गोरे का कहना था कि ईसाईधर्म में मोक्ष को विषयभोगस्वरुप माना गया है, पशुओं की सद्‌गति की कोई चर्चा नहीं है, एक ही जन्म की बात कही गई है। हरचंद्र ने तो चर्चा के दौरान अत्यंत कटु होकर यह लिखा कि इन प्रचारकों से मुक्ति नहीं है जो लगातार एक ही वाक्य दोहराते रहते हैं कि ः हमारे धर्म में आओ और सदा सुखी रहो। 'इनके मायाजाल में केवल वही फंसता है जो मद्य-मांस आदि के लोभ से अथवा इनकी कन्याओं के रुप से आकृष्ट होकर अपने धर्म के तत्व का या ईसाइयत के दोषों का विचार किए बिना ईसाई हो जाता है।"

नीलकंठ गोरे के गं्रथ का सारांश ः ईसाई कहते हैं दैवी पुस्तक (यानी बाइबल) में वर्णित जीसस के चमत्कार सच्चे हैं तो वे सिद्ध करके बतलाएं। अगर ईसा प्रभु का सच्चा अवतार है और उन्होंने अंधों को ठीक किया तो उस पर श्रद्धा रखनेवाले अंधे को अब दृष्टि क्यों नहीं आती। मानवी आत्माओं सहित सभी वस्तुएं प्रभु ने स्वयंभू उत्पन्न की हैं इस ईसाई तत्व में गंभीर बाधाएं हैं। जो प्रभु पापियों को जन्म देता है वही उन्हें मुक्ति देने के लिए आगे आता है, यह ईसाई तत्व बडा ही विचित्र है। स्वयं ने ही उत्पन्न किए हुए पापियों को चिरंतन नरकवास देनेवाला प्रभु अपराधी ठहरता है। आद्य पाप का ईसाई तत्व निरर्थक है। जीवशास्त्र की दृष्टि से भी भ्रामक है। मनुष्य जाति के पापों के लिए ईसा ने यंत्रणाएं भुगती यह ईसाई तत्व पागलपन है। मात्र ईसा पर विश्वास रखने से पाप धुलने लगे तो  पापी लोग मनमाने तरीके से पाप करने लगेंगे। इसके उलट पापक्षालन के लिए पश्चाताप आवश्यक होने पर जीसस पर का विश्वास अनावश्यक ठहरता है। स्वर्ग सुख के लिए मुक्ति ईसाइयत की यह कल्पना निकृष्ट है। इसमें आंतरिक शांति, ध्यान, समत्व बुद्धि के लिए स्थान ही नहीं। सुखों की मर्यादा ना होने के कारण स्वर्ग में भी ईसाई सदैव असंतुष्ट ही रहेंगे। इस चर्चा का परिणाम यह हुआ कि हीदन्स के मतों की परीक्षा लेने निकले म्यूर का ही अखिल मत परिवर्तन हो गया। 

परंपरागत संस्कृत पंडित हिंदू या ईसाई किसी भी ओर से धर्मपरिवर्तन के विरुद्ध थे। सोमनाथ ने ईसाइयों से प्रार्थना की कि वे अपने धर्म में रहें और दूसरों को अपने धर्म का पालन करने दें। परधर्म की निंदा उचित नहीं है। इससे धर्म हानि, ईश्वर का क्रोध, क्रूरता, राज्य नाश और जन असंतोष उत्पन्न होते हैं। प्रत्येक व्यक्ति के लिए अपना धर्म ही सर्वश्रेष्ठ है।

म्यूर का आक्षेप था कि हिंदुओं में अनेक संप्रदाय हैं। कुछ शास्त्र मूर्तिपूजा का समर्थन करते हैं तो कुछ निषेध। पुराणों और दर्शनों में भी अंतर्विरोध है। विष्णु की उपासना वेदों में नहीं मिलती। पार्वती, लक्ष्मी आदि की पूजा बात बहुत बाद में शुरु हुई। इस पर हरचंद्र का उत्तर बडी आक्रमक था। उन्होंने बतलाया कि ईसाई धर्म में भी कैथलिक, प्रोटेस्टंट, प्रेसबीटेरियन आदि हैं। गिब्बन जैसे तर्क करनेवाले को ईसाई पादरी उत्तर देने के स्थान पर नास्तिक कहते हैं।

भारतीय पंडितों का मानना था कि उनका धर्म सृष्टि के प्रारंभ से ही पृथ्वी पर विद्यमान है। अतः सृष्टि के प्रारंभ से प्रचलित धर्म को छोडकर विद्वान लोग बहुत समय बाद प्रचलित हुए धर्म को क्योंकर स्वीकारेंगे, विश्वास करेंगे। 19वी शताब्दी के जानेमाने विद्वान रामकृष्ण गोपाल भंडारकर ने अपना यह अनुभव व्यक्त किया था कि 'यूरोपीय संस्कृत विद्वानों में हमारी किसी भी पुस्तक, चिंतन या संस्था की अतिपुरातनता को नकारने और हमारे साहित्य में सर्वत्र ग्रीक प्रभाव खोजने की एक सहज प्रवृत्ति है जबकि उनके तर्क में मुख्य बात अकसर यह होती है कि भारत के लोग अपने इतिहास में अनेक बार विदेशियों से पराजित हुए हैं और इसलिए उनमें कुछ अच्छी बात हो ही नहीं सकती।" भंडारकर ने यह भी पाया कि यूरोपीय विद्वानों ने अकसर सर्वथा अपर्याप्त साक्ष्य के आधार पर बडे व्यापक निष्कर्ष निकाले हैं। (कलेक्टेड वर्क्स, प्रथम खंड पृ.349)  
इस प्रकार से यूरोपीय विद्वानों ने ईसाई धर्म की श्रेष्ठता सिद्ध करने और उसके प्रचार के लिए अनेक प्रकार के पूर्वाग्रह गढ़े थे परंतु, हमारे भारतीय पंडितों ने उनका यथासमय खंडन किया, तर्कपूर्ण उत्तर दिया इस कारण ईसाई धर्म यहां बढ़ नहीं पाया। उनके उद्देश्य में बाधक होने के कारण उन्होंने विशेषकर ब्राह्मणों पर अपना निशाना साधा। ब्राह्मणों ने पीढ़ी दर पीढ़ी स्मरण में रखने के कारण वेदों के प्राचीनतम ग्रंथों की रक्षा हुई यह मॅक्स मूल्लर के ध्यान में आ गया था। हिंदूधर्म को यदि नष्ट करना है तो पहले ब्राह्मणों को नष्ट करना चाहिए यह उसका निश्चित मत था। मॅक्स मूल्लर के ब्राह्मण द्वेष का उत्तराधिकार किस प्रकार चलाया गया इसके कई उदाहरण ब्रह्मदत्त भारती ने अपने अभ्यासपूर्ण सत्यान्वेषी विवेचन 'मॅक्स मूल्लर ए लाइफलांग मॅस्करेड" इस ग्रंथ में दिए हुए हैं।

मॅक्स मूल्लर ईसाई के रुप में जन्मा और ईसाई के रुप में ही जीया। परंतु, ईसाई के रुप में नहीं मरा। 'स्व" की सततता है और मृत्यु के बाद भी 'स्व" बना रहता है, इस विषय में मेरे मन में कोई आशंका रही नहीं है, यह मत उसने मृत्यु के तीन वर्ष व्यक्त किया था। नया करार (न्यू टेस्टामेंट बाइबल) में वर्णित चमत्कारों पर उसका विश्वास रहा नहीं था। 'पाखंडी" के रुप में ऑक्सफोर्ड में उसकी आलोचना होती थी। परंतु, खेद की बात है कि उपर्युक्त पूर्वाग्रह हमारे कुछ अंगे्रजीदां लोगों में अंधमान्यताओं के रुप में घर कर गए हैं और उनके दूर होने के लक्षण भी नजर नहीं आते। जबकि अब यूरोप, अमेरिका, आफ्रिका के लोगों को अपने मूल 'पेगन" धर्म का भान होने लगा है।   (समाप्त)
ईसाई धर्मप्रचारकों ने संस्कृत क्यों सीखी? 1

साधारणतया यह माना जाता है कि अंगे्रजी शासनकाल में भारतीय संस्कृति, साहित्य, ज्ञान-विज्ञान से सर्वथा अपरिचित विदेशी विद्वानों ने संस्कृत का अध्ययन कर उसे सारे विश्व के सामने 'आलोचनात्मक, तुलनात्मक और ऐतिहासिक पद्धति" से रखा और नए रुप में वेद जैसे गंभीर ग्रंथों पर भाष्य लिखा। परंतु यह सारा कार्य सभी नेे निस्वार्थ होकर नहीं किया। अंग्रेजों के संस्कृत अध्ययन के पीछे दो कारण थे। पहला, प्रशासनिक। ईस्टइंडिया कंपनी और भारत के पहले गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स ने समझ लिया था कि जब तक भारत के हिंदू नियमों, आचार-विचार, व्यवहार की वास्तविक जानकारी अंगे्रजों को हो नहीं जाती, तब तक शासन की स्थापना असंभव है। दूसरा, यदि हिंदुस्थान में अपनी अंगरेज सरकार का आधार दृढ़ करना है तो कुछ भी करके यहां के हिंदुओं को ईसाई बनाना आवश्यक है। 

अतः वारेन हेस्टिंग्स ने भारत में रहनेवाले अंगे्रजों को आदेश दिया कि वे अधिकाधिक भारतीयों के रहन-सहन, आचार व व्यवहार की बातें सीखें और उनसे संपर्क बढ़ाएं। हिंदू धर्म, दर्शन, ज्योतिष, अध्यात्म की सारी बातें संस्कृत भाषा में लिपिबद्ध थी। अतः विशेषकर उन अंगे्रज शासकों के लिए संस्कृत की जानकारी आवश्यक हो गई, जो  न्याय, शिक्षा और समाज की व्यवस्था के प्रति उत्तरदायी थे। परंतु, यह इतना आसान न था इसका प्रमुख कारण संस्कृत ग्रंथों का अंगे्रजी सहित अन्य विदेशी भाषाओं में  अनुवाद उपलब्ध न था और कोई संस्कृत विद्वान उनको संस्कृत सीखाने के लिए तैयार न था। भले ही वे आज की अपेक्षा निर्धन थे परंतु उनको विदेशियों को संस्कृत सीखाना अभीष्ट न था। बंगाल के न्यायाधीश सर विलियम जोन्स (सर्वप्रथम संस्कृत भाषा, आलोचना एवं स्मृति गं्रथों का अनुवाद अंगे्रजी में करके 'रॉयल एशियाटिक सोसायटी" की स्थापना कर उसके माध्यम से पश्चिमी जगत के सामने लानेवाले) ने स्पष्ट निर्देश दिए कि चाहे जो हो जाए एक संस्कृत विद्वान हमें संस्कृत सीखाने के लिए नियुक्त कर दो, धन की चिंता ना करो। अंततः एक वृद्ध वैद्य सशर्त सम्मत हुए।

सर विलियम जोन्स का संस्कृत सीखने का प्रारंभिक प्रयोजन 1787 में लिखे पत्र में प्रकट हुआ है - 'मैं अब संस्कृत और अरबी इतनी सरलता से पढ़ सकता हूं कि देसी वकील कभी उन कचहरियों को धोखा नहीं दे सकते जहां मैं बैठता हूं।" (एस. एन. मुखर्जी कृत सर विलियम जोन्स पृ. 128,9) ईसाइयत के प्रचार में रुचि रखनेवाले विद्वान यह दिखला देना चाहते थे कि ईसाई धर्म हिंदू धर्म से तार्किक दृष्टि से श्रेष्ठ है व संस्कृत सहित हिंदू शास्त्रों का ज्ञान उन्हें संस्कृत के विद्वानों से अधिक है। उनका मानना था कि 'ब्राह्मणों का एकाधिकार" संस्कृत पर से समाप्त करने से हिंदुओं को ईसाई बनाना सरल होगा। इंडोलाजी के विद्वान मोनियन विलियम्स ने 1861 में कहा था कि जब संस्कृत का ईसाईकरण हो जाएगा तो यह हिब्रू और ग्रीक के बाद सत्य यानी ईसाइयत के वाहक के रुप में सबसे उपयुक्त सिद्ध होगी। इस प्रकार के अभिप्राय क्या प्रकट करते हैं यह निश्चय ही विचारणीय हैं।

हिंदुस्थान में प्रोटेस्टंट मिशनरी भेजने की कल्पना डेन्मार्क के राजा फ्रेडरिक चतुर्थ को सूझी। उसने बार्थोलोम्यू जिगेनबाल्ग और हेन्री प्लुटश्चाव्ह इन दो जर्मन युवकों को दीक्षा देकर भारत भेजा। 18वीं शताब्दी के प्रारंभ में जिगेनबाल्ग की ब्राह्मणों से चर्चा हुई। एक ब्राह्मण ने तो उससे पांच घंटे तक सतत चर्चा की। 1830 से 34 के बीच एच विल्सन की कुछ महाराष्ट्रीय ब्राह्मणों से इसी प्रकार की चर्चाएं हुई। जिगेनबाल्ग के कुल हुए 54 संभाषणों में से 34 संभाषण 1719 में प्रकाशित हुए। इसके अनुवाद की प्रस्तावना में ब्राह्मणों द्वारा बतलाए हुए 8 'दैवी नियम" सारांश रुप में दिए थे। ये नियम 'ईशावास्यमिदम्‌ सर्वम्‌" इस उपनिषद के वचनों पर आधारित होकर उसमें आक्षपार्ह कुुछ भी नहीं था। वे इस प्रकार से हैं -

 1. जीव हत्या मत करो। जीव कोईसा भी हो तो भी उसमें का जीवन एक ही है। जो आत्मा तुझमें है वही उसमें भी है। 2. आंख, कान, जिह्वा, मुख, हाथ इन पंचेंद्रियों से करार कर उनके द्वारा दुष्टता के साथ का संपर्क टालो। 3. शुद्ध और प्रामाणिक मन से तुम नियम पूर्वक पूजा करो। 4. असत्य मत बोलो। 5. तुम गरीबों के प्रति उदार रहो। उनकी आवश्यकताएं और तुम्हारे सामर्थ्यानुसार उनकी सहायता करो। 6. गरीबों को पीडा मत दो, उन पर अत्याचार मत करो। तुम्हारे बंधू की अन्याय द्वारा हानि मत करो। 7.  तुम कुछ त्यौहार, उत्सव मनाओ परंतु अतिरेक कर शरीर के चोचले पूरे मत करो। कुछ कालावधि में उपवास करो और भक्ति एवं पवित्रता साधो। 8. कितनी भी छोटी हो तो भी तुम्हारे बंधू की वस्तु का अपहार मत करो। जो दूसरे का है उस पर तुम्हारा अधिकार नहीं। फिर भी प्रस्तावना में लिखा गया प्रभु की पृथ्वी पर ब्राह्मणों से अधिक कोई दुष्ट जाति नहीं, ब्राह्मण विश्व के सबसे बडे कपटी हैं, प्रतिदिन नई कथाएं रचकर अनाकलनीय गूढ़ कहकर अज्ञानी लोगों में प्रचारित करने में कुशल हैं। 

 रिचर्ड फॉक्स यंग के एक विवरणानुसार भारतीय पंडितों का मानना था कि व्यक्ति अपने अनुसार अपने धर्म का पालन करता है। 'आप ईसा के माध्यम से मुक्ति की आशा रखते हैं और हम विष्णु के माध्यम से।" भारतीय पंडितों की शिकायत थी कि ईसाई प्रचारक दूसरे के धर्म की निंदा करते हैं, दूसरों के शास्त्रों को मिथ्या बतलाते हैं, उनके धर्मग्रंथों में वर्णित चमत्कारों पर अविश्वास करते हैं जबकि अपने गं्रथों में वर्णित चमत्कारों का प्रचार करते हैं, स्वयं अनेक प्रकार के कर्मकांड का पालन करते हैं और हिंदुओं में प्रचलित संस्कारों और कर्मकांडों का उपहास करते हैं। ..... क्रमशः 

Friday, February 7, 2014

पाकिस्तानी आक्रमकता के प्रेरणा पुरुष - 3

...... भारत ने जब अपना मिसाइल कार्यक्रम बनाया तो उसने अपनी मिसाइलों का नाम पंच महाभूतों पर से पृथ्वी, अग्नि, आकाश रखा। परंतु धर्मांध पाकिस्तान ने अपनी मिसाइलों के नाम रखे गोरी, गजनी, बाबर आदि। ये माना कि पाकिस्तान ने रखे इन नामों में एक समानता जरुर थी कि ये सबके सब भारत पर आक्रमण करनेवाले क्रूर मूर्तिभंजक योद्धा थे। परंतु, बाबर को इनके साथ रखना समझ के परे है। बाबर एक आक्रमणकारी होेने के साथ-साथ उस जमाने के आक्रमणकारियों से एकदम अलग था। यह हमें उसके 'बाबरनामा" जो उसके स्वरचित संस्मरणों के संग्रह से पता चलता है। जो मूलरुप से तुर्की में लिखे गए हैं। अंग्रेजी में अनुवादित संस्करण का हिंदी अनुवाद युगलजीत नवलपुरी ने किया होकर प्रकाशन साहित्य अकादमी, नई दिल्ली ने किया हुआ है। भूमिका में लिखा हुआ है ः ''ये संस्मरण अपनी कहानी स्वयं कहते हैं। विद्वानों ने इन्हें संत अगस्टीन और रुसो की स्वीकृतियों और गिबन और न्यूटन के संस्मरणों के समकक्ष स्थान दिया है। एशिया में तो ये अद्वितीय हैं।""


बाबरनामा पढ़ते समय हमें यह पता चलता है कि बाबर कितना खुले दिलो-दिमाग का व्यक्ति और स्पष्टवक्ता था इसका परिचय ग्रंथ के प्रास्ताविक से ही पता चलने लगता है। वह अपने शिष्टाचार शिक्षक के बारे में लिखता है ''अमीर शेख मजीद के कायदे करीने बहुत ही अच्छे थे। मेरे पिता की सरकार में उनकी सी इज्जत किसी और की न थी। लेकिन थे वह बडे लंपट और इसलिए गुलाम बहुत रखा करते थे।"" (पृ.11) बाबर आगे लिखता है ''मुल्कगीरी और मुल्कदारी में (देशविजय और अधिशासन) कुछेक काम ऐसे भी होते हैं जो ऊपर से उचित और सकारण जान पडने पर भी करने लायक नहीं होते। हर काम के लिए लाख तरह की ऊंच-नीच देखनी होती है।""(79) मुगलों के बारे में वह लिखता है ''मुगलों की जाति ने हमेशा बुराइयां और बगावतें की हैं। आज तक पांच बार तो मुझी से उखड चूकी हैं। यह नहीं कि मुझे पराया जानकर मुझसे ऐसा किया हो और बिगड खडी हुई हो। मुगल तो अपने खानों, सरदारों के साथ भी बार-बार ऐसा ही करते रहे हैं।"" (80) ग्रंथ में इस कथन पर टिप्पणी है ''इतिहास का कैसा व्यंग्य है! जिन मुगलों के प्रति बाबर के ऐसे कटु भाव थे, उन्हीं के नाम पर बाबर का स्थापित किया हुआ भारतीय साम्राज्य 'मुगल साम्राज्य" और खुद बाबर का वंश 'मुगल राजवंश" कहलाया और दोनो इतिहास में इसी नाम से रह गए।"" (82)


अपने प्रेमाकर्षण के बारे में वह बडी ही संजीदगी और ईमानदारी से लिखता है ''अभी नई-नई शादी हुई थी, आयशा सुलतान बेगम से (पत्नी) बहुत लगाव था। जी चाहता था कि हर घडी उसीके पास रहूं। मगर लाज के मारे दसवें, पंदरहवें या बीसवें ही कहीं उसके पास जा पाता था। बाद को जी में वह लगाव ही न रहा। न जाने कैसे वह जी से उतरने लगी। इधर लजीलापन भी और बढ़ चला। बात यहां तक आ पहुंची कि महीने-डेढ़ महीने पर मेरी मॉं मुझे बहुत ही धमका-धमकाकर और डॉंट-फटकार कर बडी कठिनाई से उसके पास भेजा करती थी।


उस समय उर्दू-बाजार में एक लडका था। उसका नाम था 'बाबरी"। हमनामी का यह लगाव भी क्या लगाव निकला! ....इससे पहले मैं किसी पर मुग्ध या आसक्त न हुआ था।... अब हाल यह हुआ कि फारसी में प्यार के एकाध शेर तक कहने लगा। उनमें से एक शेर यह है .... (हिंदी में) कोई आशिक, नंगे खुद, बरबाद मुझ जैसा न हो, और तुझ-सा बुत कोई बेरहम बेपरवा न हो।


लेकिन हाल यह था कि अगर कभी बाबरी मेरे सामने आ जाता था तो लाज और सकुचाहट के मारे मैं उसकी ओर आंख भर देख भी नहीं सकता था। .... आशिकी और दीवानगी के उन्हीं दिनों में एक बार ऐसा हुआ कि ... अचानक बाबरी से मेरा आमना-सामना हो गया। मेरी अजब हालत हो गई थी। ... बहुत झेंप और घबराहट के साथ मैं आगे बढ़ पाया। उस समय मुहम्मद सालिह की यह फारसी बैत बरबस याद आ गई ... गडा जाता हूं जब-जब यार का रु देखता हूं मैं। मुझे सब देखते हैं, और ही सू देखता हूं मैं।।


यह बैत मेरे हाल पर सोलहों आने सच थी। ... न अपने या पराये की ओर कोई शिष्टता रह गई थी और न अपनी या दूसरे की कोई परवा। इस तुरकी शेर के शब्दों में ... न था मालूम, यह गत आशिकी में मैं बना बैठा-सपरी चेहरों का आशिक बेखुदो-दीवाना होता है। कभी तो मैं पागलों की तरह जंगलों-पहाडों में मारा-मारा फिरता था और कभी बागों और महल्लों में गली-गली भटकता रहता था। न तो भटकते फिरने पर अपना बस था और न ही मन मारे बैठे रहने पर। न चलने में चैन मिलती थी न ठहरने में। ... जाऊं न वह कूवत रही, ठहरूँ नहीं वह ताब। क्या और तू ऐ दिल मुझे बेहाल करेगा।"" (87,88)


बाबर अंधश्रद्ध नहीं था यह इस वाकिये से पता चलता है - ''काबुल लेने के बाद मैं गजनी भी गया था। बताया गया कि यहां के एक गांव में एक ऐसा मजार है जो दुरुद (प्रार्थना) पढ़ने पर हिलता है। मैंने जाकर देखा। सचमुच हिलता जान पडा। पर भेद छिपा न रहा। मुजाविरों (दरगाह के पंडे) की चालाकी थी। एक चिलपा (मचानी जाफरी का फर्श जिस पर खडे होकर दर्शन करते हैं) बना था, जो चढ़ते ही हिलने लगता था। इससे कब्र भी हिलती लगती थी, जैसे नाव से किनारा चलता लगता है। मैंने चिलपा उखडवा दिया, गुंबद बनवा दिया और मुजाविरों को धमका दिया कि यह सब मत किया करो।"" (152)


'सन्‌ 925 हिजरी की घटनाएं" वाला अध्याय बाबर के पीने-पिलाने के किस्सों से भरा पडा है। 'अपने बेटे हिंदाल (हिंद विजय) का जन्मोत्सव में पीने का दौर चला अरक (ताडी) से जी भर गया तो माजनू (भांग) खाई। फिर माजूनी और शराबी उलझ पडे। जलसा मिट्टी हो गया। सब तीन तेरह हो गया। मकान पर आते ही मैंने कई बार कै की।" (281,2)


ऐसे बाबर के नाम पर मिसाईल या आतंकवादी टुकडी का नाम रखना नितांत हास्यास्पद ही है, पाकिस्तान के अपने ही मूल चरित्र व्यवहार के विपरीत है।


....... सलाहुद्दीन अय्यूबी - को इस्लाम का महानतम कर्णधार कहा जाता है। सामान्यतः धर्मयुद्धों (क्रूसेड वर्सेस जिहाद) की संख्या 7 से 9 बतलाई जाती है। इन युद्धों को दो भागों में विभाजित किया गया है। पहला काल विजय काल कहलाता है, दूसरा मुस्लिम प्रतिक्रिया का काल है ः यह सुल्तान सलाहुद्दीन की शानदार विजय से समाप्त होता है। सलाहुद्दीन कुर्द परिवार में जन्मा होकर सीरियाई था। इसने मिस्त्र से शिया मत को निकालने और फ्रैंकों के विरुद्ध जिहाद करने के लिए खुद को अर्पित कर दिया था। इसीने 2 अक्टूबर 1187 को जेरुसलम को जीतकर अल्‌अक्सा की मस्जिद में गिरजे के घंटे का स्थान अजान को दे दिया था और पहाडी गुम्बद पर सोने के क्रॉस को टुकडे-टुकडे करवा दिया था।


अबू जुंदाल - को हुदैबिया के समझौते जो मक्का के मूर्तिपूजक कुरैशों और पैगंबर के बीच हुआ था। जिसे कुरान में महान विजय करार दिया गया है की शर्त नं 5 ः ''काफिरों का मुसलमानों में से अगर कोई शख्स मदीना चला जाए तो उसे वापस कर दिया जाए, लेकिन अगर कोई मुसलमान मक्का में जाए तो वह वापस नहीं किया जाएगा।"" यह समझौता हुआ ही था कि, सुहैल बिन अम्र (जो मक्का की ओर से समझौता कर रहा था) के सामने अबू जुंदाल (सुहैल बिन अम्र का बेटा - वह मक्का में ही मुसलमान बन चुका था) मक्के से भागकर वहां पहुंच गया। शर्त के अनुसार पैगंबर ने उसे कुरैशों के सुपुर्द कर दिया। कुरैशों ने मुसलमानों के कैम्प में जुंदाल की मुश्कें बांधी , पांवों में जंजीर डाली और खींचकर ले गए। अबू जुंदल की जिल्लत को मुसलमान गुस्से और अपमान के साथ देखते रहे किंतु कुछ कर न सके। पैगंबर ने फरमाया कि, 'मैं खुदा का पैगंबर हूं और उसके हुक्म की नाफरमानी नहीं कर सकता। खुदा मेरी मदद करेगा।"


अल्‌ फारुक (यानी सत्य और असत्य को अलग करनेवाला) - यह उपाधि है दूसरे खलीफा उमर की जो उन्हें पैगंबर ने बहाल की थी। पैगंबर उनकी सलाह पर गंभीरता से विचार करते थे। उनकी कुछ सलाहों को उन्होंने मान्य भी किया था। उनकी कुछ सलाहें संक्षेप में इस प्रकार से हैं - 1). इतिहास प्रसिद्ध बद्र युद्ध (सन्‌ 624) के दौरान मुसलमानों ने 70 लोगों को कैद किया था। मक्का के इन कैदियों का क्या किया जाए रिहाई के बदले कुछ लेकर छोड दिया जाए कि, कत्ल कर दिया जाए यह प्रश्न उपस्थित हुआ। पहले खलीफा अबूबकर ने कहा ः ''वे अपने रिश्तेदार हैं। उनमें मुस्लिमों के माता-पिता, भाई-बहन आदि हैं। उनकी रिहाई के बदले कुछ लेकर उन्हें छोड दिया जाए। शायद इससे अल्लाह उनके ह्रदय इस्लाम के लिए अनुकूल बनाएगा और श्रद्धाहीनों (गैरमुस्लिमों) के विरोध में अपनी ताकद बढ़ाएगा।"" इस संबंध में उमर ने अपना मत दिया ः ''हे पैगंबर! वे लोग अल्लाह के दुश्मन हैं। उनका सिर कलम करना चाहिए ... वे श्रद्धाहीन/मूर्तिपूजकों के नेता हैं ... ऐसा करने पर अल्लाह इस्लाम को मजबूत करेगा और मूर्तिपूजकों को नीचे लाएगा।"" इस पर विचार कर पैगंबर ने अबूबकर की सूचना को मान्य किया।


दूसरे दिन उमर पैगंबर से मिलने गए तब वहां पैगंबर और अबूबकर दुखी होकर बैठे हुए थे। इसका कारण पूछने पर पैगंबर ने कहा- ''हे उमर, अल्लाह ने तुम्हारी कैदियों संबंधी सूचना को मान्य किया है।"" इसके बाद पैगंबर ने हाल ही में अवतरित हुई आयत (8ः67) पढ़कर सुनाई। (इस संबंध में हदीस भी हैं) इस प्रकार से उमर की सूचना पर अल्लाह ने पुष्टि की मुहर लगाई। यह आयत इस प्रकार से है ः ''किसी नबी के लिए उचित नहीं कि उसके पास बंदी हों जब तक कि वह गलबा (प्रभुत्व) हासिल ना करले। तुम लोग दुनिया के फायदे चाहते हो और अल्लाह (तुम्हारे लिए) आखिरत चाहता है। अल्लाह प्रभुत्वशाली है, तत्त्वदर्शी है।""


इस आयत पर कुरान भाष्य कहता है ः ''इस घटना का जो पहलू अनुचित था वह यह कि दुश्मन का अच्छी तरह सफाया करने के बजाए उन्होंने बंधक बनाना शुरु किया जिसमें यह मनोवृत्ति काम कर रही थी कि इनसे फिदयः (प्राणमूल्य) में अच्छी खासी रकम वसूल हो जाएगी। अल्लाह ने मुसलमानों की इसी मानसिकता पर और उनकी इसी कार्यशैली पर पकड की है। आयत का मतलब यह है कि एक नबी के नेतृत्व में लडी जानेवाली जंग में निगाहें उस उच्चतम उद्देश्य पर केंद्रित रहनी चाहिए जिसके लिए एक नबी जंग के मैदान में उतरता है न कि उन आर्थिक और भौतिक लाभों पर जो जंग के उपलाभ के तौर पर प्राप्त होते हैं। उद्देश्य का तकाजा यह था कि बद्र में जब दुश्मन पराजय का मजा चख रहा था तो उसको बिल्कूल से तोड दिया जाता। खास तौर से दुश्मन के किसी लीडर को तो जिन्दा ना रहने दिया जाता कि फिर उसे सिर उठाने का मौका मिले। मगर तुमने जल्दबाजी में समय से पहले गिरफ्तारी का सिलसिला शुरु किया मात्र इस कारण से कि तुमको फिदयः लेने का मौका मिलेगा। खूब सुन लो कि नबी इसलिए जंग करता है कि जमीन पर हक (सत्य) का गलबा (प्रभुत्व) हो न इसलिए कि दुश्मनों को बंधक बनाकर फिदयः (प्राणमूल्य) हासिल करे।"" (दअ्‌वतुल कुरान खंड 1 पृ. 602)


2). पैगंबर की पत्नियों का परदे में रहने और बुरका उपयोग में लाने का कुरान का आदेश (33ः53,9) उमर की सूचना से सुसंगत था।


3). दांभिक (मुनाफिक) मुस्लिमों का नेता अब्दुल्ला बिन उबय के अंतिम संस्कार के बाद उसके लिए प्रार्थना करने के लिए पैगंबर तैयार हो गए, तब उमर ने इसका विरोध दर्शाकर दांभिकों के लिए उनकी मृत्यु के बाद प्रार्थना ना की जाए का आग्रह किया। तथापि, पैगंबर ने उनकी ना सुनते प्रार्थना की। मगर बाद में अल्लाह का आदेश (9ः84) अवतरित हुआ। पैगंबर ने यह नया ईशसंदेश उमर को सुनाया। अल्लाह ने अपने मत की पुष्टि की इस पर उमर को अत्यानंद हुआ। मुस्लिम परंपरा के अनुसार उमर का स्थान पैगंबर के बाद पहले स्थान पर है। उमर इस्लामी साम्राज्य के संस्थापक थे। उन्होंने पैगंबर की प्रेरणा एवं इच्छाएं ही अमल में लाई थी। उपर्युक्त आयत (9ः84) इस प्रकार से है -


''और उनमें से जो मरे उसकी नमाज (जनाजा) तुम हरगिज ना पढ़ना और न कभी उसकी कब्र पर खडे होना। क्योंकि उन्होंने अल्लाह के साथ कुफ्र (इंकार करना) किया और इस हाल में मरे कि वे फासिक (अवज्ञाकारी) थे।"" कुरान भाष्य कहता है ः ''कब्र पर खडे होने का मतलब कब्र पर जाकर क्षमा की प्रार्थना करना और दया की भावना को प्रकट करना है। यह मनाही जिस प्रकार मुनाफिकों (दांभिक मुसलमान) के लिए है उसी प्रकार काफिरों, मुश्रिकों (अनेकेश्वरवादी, मूर्तिपूजक), मुलहिदों (नास्तिक) के लिए भी है। क्योंकि, जो लोग मरते दम तक काफिर रहे वे अल्लाह के दुश्मन हैं और अल्लाह के दुश्मनों के लिए एक मोमिन के दिल में दयाभाव नहीं हो सकता है।"" (द.कु.खंड 1 पृ.657) दया भाव ना होने का प्रदर्शन करते हुए ही पाकिस्तानी सेना ने भारतीय कप्तान हुतात्मा सौरभ कालिया के शव को क्षत-विक्षत कर अपमानित किया था। भारतीय सैनिक हेमराज का सिर काटकर ले गए और बाद में उसके कटे सिर के विडियो क्लीप्स तक प्रदर्शित किए। ......

पाकिस्तानी आक्रमकता के प्रेरणा पुरुष 1


पाकिस्तान का जन्म ही हिंदुओं से द्वेष, अलगत्व, विरोध, अविश्वास, असुरक्षा की भावना के चलते, ब्रिटिशों के राज्य से स्वतंत्र हो जाने के पश्चात आनेवाली नई राज्य व्यवस्था के कारण बहुसंख्य हिंदुओं द्वारा शासित हो जाने के भय से हुआ है। जन्म के पश्चात उसका एक मात्र कार्यक्रम भारत द्वेष, भारत का विरोध, रात-दिन उसे हानि पहुंचाने के प्रयत्न करते रहना, भारत से हजार साल तक लडते रहने का दम भरना रहा है। भारत से युद्ध करने की नीति में मुंह की खाने के पश्चात वर्तमान में उसकी नीति भारत को अस्थिर अवस्था में रखने, हानि पहुंचाने, असुरक्षा की भावना बढ़ाने के उद्देश्य से आतंकवाद को प्रोत्साहित करना है।


1965 के युद्ध के पूर्व भारत में पहले से ही घुसाए हुए गुरिल्लों की सहायता से तोडफोड मचाने और उनकी सहायता के लिए दस टुकडियां (प्रत्येक में 500 सैनिक) कश्मीर से लगे हुए क्षेत्र मूरी में तैनात की गई थी। उनके नाम खालिद (बिन वलीद), तारीक (बिन जायेद), मुहम्मद बिन कासिम, सलाहुद्दीन (अय्यूबी), महमूद (गजनवी), (अल्लाउद्दीन) खिलजी, और बाबर तथा अरब-तुर्क वीरों के नाम पर रखे गए थे। इस ऑपरेशन का सांकेतिक नाम था 'जिब्राल्टर"।


कश्मीर को भारत के कब्जे से छुडाने के लिए जनरल जिया के काल में कुछ कश्मीरी युवाओं को पाकिस्तान में सैनिक प्रशिक्षण जिन शिविरों में दिया गया था उनके नाम थे ः खालिद बिन वलिद, अल्‌ फारुक, और अबू जुंदाल। 1998 में ओसामा बिन लादेन ने अबू जुंदाल शिविर में एक पत्रकार परिषद को संबोधित भी किया था।


पाकिस्तान के इन प्रेरणा पुरुषों का परिचय संक्षेप में प्रस्तुत है जिससे हम जान सकेंगे कि पाकिस्तान इनसे किस प्रकार की प्रेरणा ग्रहण करता है और क्यों उसने इन नामों को अपने आक्रमणकारी, विध्वंसक कार्यों के लिए अपनाया। उपर्युक्त में से मुहम्मद बिन कासिम (सिंध विजेता), महमूद गजनवी, अलाउद्दीन खिलजी, मुहम्मद गोरी के बारे में लगभग सभी लोग जानते हैं इसलिए उन पर कोई भाष्य की आवश्यकता महसूस नहीं होती। आक्रमणकारी बाबर के संबंध में बहुतकर लोगों को केवल यही जानकारी होती है कि वह भारत में मुगलवंश का संस्थापक था। परंतु, अधिकांश लोगों को उसके 'बाबरनामा" के नाम संबंध में कोई जानकारी नहीं है। अतः 'बाबरनामा" के कुछ अंश जरुर यहां दिए हैं जिससे पाठक पाकिस्तान की असली मंशा को समझ सकें।


1. खलीद बिन वलीद - पैगंबर की पत्नी मैमूना की बहन का लडका होकर जब पैगंबर मक्का की यात्रा मुहीम पर आए थे तब वह, पैगंबर द्वारा मैमूना के साथ विवाह, जो मक्का के साथ नए संबंध प्रस्थापित करने की दृष्टि से किया गया था, के पश्चात अपनी मौसी व अपने मित्र अमर जो आगे चलकर महान सेनानी और इजिप्त का विजेता बना के साथ इस्लाम स्वीकार कर मदीना आ गया। पैगंबर की मृत्यु के पश्चात उनकी अंतिम इच्छा 'अरब भूमि में दो धर्म ना रहें" की पूर्ति के लिए पहले खलीफा अबू बकर ने जो 11 टुकडियां बनाई थी उनमें से एक का प्रमुख यह खलीद भी था। फिलीप हिट्टी की भाषा में कहें तो, ''अबू बकर के नेतृत्व में और खलीद की तलवार तले अरबभूमि में एकता साधी गई। सारी दुनिया को जीतने के पहले अरबभूमि को जीतना आवश्यक था।"" अब पैगंबर द्वारा 'अल्लाह की तलवार" की उपाधि प्राप्त पाकिस्तान के इस वीर प्रेरणा पुरुष की वीरता के कार्यों की झलक देखें-


इस्लाम त्याग और इस्लाम के विरुद्ध विद्रोह* करनेवाली टोलियों में से एक बनी तमीम के बंदोबस्त के दौरान उसके एक प्रमुख नेता मलिक बिन नुवैरा के पकडे जाने पर खलीद ने उसका सिर उडाने का दंड दे उसके सिर को बाद में अग्नि में डाल दिया था। उसके साथियों को भी मार डाला था और उसी रात खलीद ने मलिक की सुंदर पत्नी लैला से विवाह कर लिया। बचे हुए विद्रोहियों से इस्लाम स्वीकार करवाया। नकली पैगंबर मुसैलमा के साथ हुई लडाई में मुसैलमा मारा गया और उसके 20 से 21 हजार सैनिक मारे गए। तो, खलीद के कुल 1200। डॉ. इकबाल के अनुसार यह अनुपात 1ः20 था। इस्लाम के इतिहास में इस लडाई को 'बगीचे की लडाई" और बगीचे को 'मौत का बगीचा" कहते हैं।


*(पैगंबर की मृत्यु के बाद थोडे से ही समय में इस्लाम केवल मदीना शहर तक ही सीमित होकर रह गया था। पैगंबर की पत्नी आयशा के शब्दों में वहां की परिस्थिति बतलाएं तो, ''पैगंबर की मृत्यु हुई और अरबों ने इस्लाम धर्म को नकार दिया, यहूदी व ईसाइयों ने सिर उठा लिया, दांभिकों ने अपना दांभिकता का बुरका उतार दिया और मुस्लिमों की अवस्था ठंड से जम जानेवाली रात में असहाय रुप में भटकनेवाली बिना गडरियेवाले भेड-बकरियों के झुंड जैसी हो गई।"" इसका कारण बतलाते हुए विल ड्युरंट कहते हैं ः ''अरब टोलियों ने केवल अनिच्छा और ऊपरी तौर पर इस्लाम का स्वीकार किया था।"" असगर अली इंजीनिअर के अनुसार बहुसंख्य अरब टोलियों ने इस्लाम का स्वीकार उस पर गहरी श्रद्धा के कारण नहीं बल्कि उस क्षेत्र की बढ़ती हुई शक्ति के रुप में किया था।"")


कजिम की लडाई (मार्च 633) जो 'जंजीर की लडाई" की लडाई भी कहलाती है पर्शियन सेना के हजारों मारे गए और हजारों कैद किए गए। मजर की लडाई (अप्रैल 633) जो युफ्रातीस और तिग्रीस नदी के नहर के किनारे हुई थी। खलीद ने पर्शियन सेना को बुरी तरह पराजीत किया उनके तीनों सेनापति खेत रहे और 30000 पर्शियन सैनिक मारे गए। मुस्लिमों को भरपूर लूट मिली और स्त्रियों को बंदी बनाया गया। वलजा (अप्रैल 633) पर्शियनों को घांस की माफिक काट डाला। प्रचंड कत्लेआम हुआ। इस विजय के बाद खलीद ने अपने सैनिकों को कहा - ''...अल्लाह के कार्य* के लिए लडते समय इस उपजाऊ भूमि के लिए और अपनी दरिद्रता और चिंता हमेशा के लिए दूर करने के लिए अपन जिहाद करने के लिए बाध्य हैं। (*अल्लाह के कार्य के लिए यानी अल्लाह की इच्छा, ध्येय, संदेश, आज्ञा, योजना कार्यवाहीत करने के लिए किया जानेवाला कार्य। अल्लाह की इच्छा और ध्येय सभी मानव श्रद्धावान यानी मुसलमान बनें और अपनी कृपा के पात्र बनें यह है। इस कार्य के लिए ही अल्लाह ने देवदूत, पैगंबर, कुरान, ईशभय, कृपा, अवकृपा, बदला, दंड की योजना बनाई है। इस 'अल्लाह के कार्य" के लिए उपर्युक्त साधनों सहित यथासंभव, यथाशक्ति संघर्ष ही इस्लामप्रणीत 'जिहाद" है।)


उल्लैस की लडाई (मई 633) के दूसरे दिन खलीद ने प्रार्थना की थी - ''हे अल्लाह, अगर मुझे विजयी किया तो यह नदी रक्त से लाल होने तक मैं एक भी शत्रु को जीवित नहीं छोडूंगा।"" तीन दिन तक कत्लेआम चला, 70000 सैनिकों को कत्ल किया गया। नदी रक्त से लाल हो गई। खलीद की शपथ पूरी हुई बाद में उस नदी का नाम 'खून की नदी" पडा। डॉ. इकबाल कहते हैं ः ''इतनी बडी संख्या में प्राणहानि होना अटल था ... सुसंस्कृत देश भी दुश्मन को जिंदा नहीं छोडते ... पर्शियनों को सबक सीखाने में खलीद सफल रहा।""


सन्‌ 634 में दमास्कस को जीतने के लिए हुई लडाई में खलीद के सारे सैनिक 'अल्लाहो अकबर" की गर्जना करते हुए शहर में घुसे। खलीद ने गर्जना की ''अल्लाह के दुश्मनों को अब क्षमा नहीं।"" उन्होंने तत्काल दुश्मनों को कत्ल करना शुरु कर दिया। दमास्कस की सडकों पर खून के परनाले बह निकले। यह प्रचंड कत्लेआम देखकर खलीद की आंखों में भी आंसू भर आए। परंतु, इसकी अपेक्षा कर्तव्य श्रेष्ठ था। लोग 'दया करो, दया करो" चिल्लाने लगे परंतु, खलीद ने गर्जना की ''अल्लाह के दुश्मनों को माफी नहीं।""


इराक में मार्च 633 से जनवरी 634 इस ग्यारह महीने की अवधि में खलीद ने 16 लडाइयां जीतकर दिखलाई। जिनके वर्णन इतिहास में विस्तार से मिलते हैं। उनमें से चार लडाइयों में कुल 2 लाख 2 हजार शत्रु सैनिक मारे गए। पांच लडाइयों में दुश्मनों की मृत्यु का निश्चित आंकडा दिया हुआ नहीं है; परंतु, 'हजारों" या 'प्रचंड संख्या" में ऐसे शब्दों का प्रयोग हुआ है। बची हुई सात लडाइयों में मौतों की संख्या ग्रंथों में दी हुई मिलती नहीं है। इनके अलावा छोटी-मोटी मुठभेटें अलग हैं। लूट का तो कोई हिसाब ही नहीं है। सिवाय, कैदियों की संख्या, मिली हुई स्त्रियां अलग ही हैं। इतिहासकार इल्मसिन कहते हैं ः खलीद ने अनेक लडाइयां लडी, असंख्य श्रद्धाहीनों (यानी गैरमुस्लिमों) को कत्ल किया, और विजेता मुसलमानों ने अमर्यादित व अकूत युद्धलूट प्राप्त की।""


इस्लाम स्वीकार के बाद खलीद ने अल्लाह के कार्य के लिए 100 से अधिक लडाइयां लडी थी। उनमें 40 से अधिक लडाइयां महत्वपूर्ण थी। लडाई न हो तो वह बेचैन हो जाता था। लडाई न करते घर बैठना उसे समय का दुरुपयोग लगता था। उसका कहना था ''मेरी जबान को खून का स्वाद आनंददायी लगता है।"" पैगंबरकाल में उसने छः बार सेना का नेतृत्व किया था।


तारिक बिन जायेद - सन्‌ 711 ई. में अफ्रीका के गवर्नर मूसा ने अपने आजाद किए हुए बर्बर गुलाम तारिक के साथ सात हजार बर्बर सैनिकों के एक दल को स्पेन में घुसने का आदेश दिया। तारिक जबल तारिक (जिब्राल्टर-यह चट्टानी प्रायद्वीप है जो स्पेन के मूल स्थल से दक्षिण की ओर समुद्र में निकला हुआ है। इसका नाम इसी तारिक के नाम पर रखा गया है।) नामका एक कठिन पर्वत के पास उतरे जिसने उनके नाम को अमर कर दिया है। इसीने इस्लाम के लिए स्पेन को जीता था और विजीगाथ साम्राज्य को पूरा नष्ट कर दिया था।


लेकिन इन दोनो ही सेनापतियों का अंत बडा बुरा हुआ। पहले खलीफा अबूबकर की मृत्यु हुई, उमर दूसरा खलीफा बना और उसने खलीद को सेनापति पद से हटा दिया और कुछ समय बाद बरखास्त कर सार्वजनिक रुप से अपमानित व दंडित किया। उसकी सारी संपत्ति जब्त कर ली गई। इसके बाद उसके बडे बुरे दिन गुजरे। वह लोगों को सडकों पर भीख मांगते हुए दिखता था। इसी प्रकार से तारिक को भी अपने से वरिष्ठ सेनानी मूसा के हाथों जलील होना पडा। मूसा ने तारिक को कोडे लगवाए और जंजीरों से बंधवा दिया। उसकी गलती यह थी कि उसने प्रारंभिककाल में मूसा की आज्ञा से आगे बढ़ना बंद नहीं किया था। परंतु, इसी वर्ष खलीफा वलीद ने मूसा को दमिश्क बुला लिया। गलती वही थी जो मूसा ने बर्बर सहायक (तारिक) पर लगा कर उन्हें दंडित किया था। शायद इसीलिए इन चरित्रों को आदर्श माननेवाले पाकिस्तान में जिन्ना से लेकर आगे जो भी उनके नेता, सत्ताधारी हुए उन्हें भी इसी प्रकार से सार्वजनिक रुप से अपमानित होना पडा तो कुछ को दंड तक भुगतना पडा। ......

Monday, February 3, 2014

वसंत पंचमी विशेष 
जापान में देवी सरस्वती
shirishsapre.com

जापान में देवी सरस्वती की उपासना चीन होते हुए 6ठी या 8वीं शताब्दी में पहुंची है। जापान में देवी सरस्वती 'बेनजाइतेन" के नाम से जानी और पूजी जाती है। जापानी चित्रलिपी में बेनजाइतेन तीन प्रतीकों में लिखा जाता है। बेन यानी वाणी, साइ-प्रतिभा, तेन-स्वर्ग। देवताबोधक शब्द संधि में 'साइ" का उच्चारण 'जाइ" हो जाता है। जाइ का अर्थ धन-संपत्ति भी होता है। इसी प्रतीक के कारण जापान में देवी सरस्वती को धन-संपत्ति की देवी भी माना जाता है। बेनजाइतेन के दो अर्थ इस प्रकार से भी निकलते हैं। पहला ः वाणी और प्रतिभा की देवी। दूसरा, वाणी और संपत्ति की देवी। परंतु, जापान में सरस्वती का धन एवं सौभाग्यदात्री वाला रुप ही अधिक मान्य है। 

चीनीयों ने सरस्वती के बहने के गुण विशेष को चुना तो जापानीयों ने वाक्‌चातुर्य को व इसको जलदेवता के रुप में संगीत, साहित्य तथा ज्ञान की देवता के रुप में जापान में मान्यता मिली। इस प्रकार यह एक शिंटो देवता के रुप में और बुद्ध के बोधिसत्व के गुणों के रुप में भी जानी जाती है। बेनजाइतेन को सर्प और ड्रेगन से भी जोडा जाता है। जो पूर्व व दक्षिण एशिया में जल जीव माने जाते हैं। बेनजाइतेन शक्ति एवं नियंत्रणकर्ता का मूर्त रुप है और उसका विवाह ड्रेगन से हुआ है यह भी मान्यता है। सरस्वती और उसके विभिन्न रुप जापान में पूजे जाते हैं। 

जापान में सर्प सौभाग्यमूलक माना जाता है। अतः सरस्वती के वाहन हंस का स्थान यहां सर्प ने ले लिया है और वह उसके मुकुट पर विराजमान है। भारत में सरस्वती के हाथ में वीणा है जबकि जापान में वीणा का स्थान बीवा नामके वाद्ययंत्र ने ले लिया है। 

जापान में एनोशिमा नामका एक द्वीप है जिसका कुल घेरा 4 चार कि.मी. है। जो 600 मीटर लंबे पुल द्वारा मुख्य भूमि से जुडा हुआ है। यहां प्राकृतिक रुप से बनी हुई गुफाओं की श्रंखला बनी हुई है जो आपस में एक दूसरे से जुडी हुई हैं। अंतिम गुफा की छत सिर को छुने जितनी ऊंची होकर वहां गहन अंधकार छाया रहता है। इसी गुफा में अवस्थित है जापान की प्रसिद्ध 'बेनजाइतेन" अर्थात्‌ सरस्वती। सरस्वती का वास यहीं माना जाता है। परंतु, साधारण यात्री यहां तक आ नहीं पाता। मंदिर द्वीप के प्रवेशमार्ग पर स्थित मंदिर मेंं मूल प्रतिमा प्रतिष्ठित है व अनुकृति कंदरा में है।

मंदिर के तोरणद्वार के सम्मुख एक बोर्ड पर अंकित है - नग्न बेनजाइतेन (अथवा सरस्वती) ''इस द्वीप में अधिष्ठित सौंदर्य और सौभाग्य की भारतीय देवी सरस्वती अथवा नग्न बेनजाइतेन (परंतु एनोशिमा में जाकर सरस्वती निर्वसना कैसे हो गई यह अनुत्तरित है) के नाम से विख्यात है। क्योंकि वह बीवा बजाने की मुद्रा में एक चट्टान पर नग्नावस्था में अवस्थित है। यह बेनजाइतेन इस देश की तीन सर्वप्रतिष्ठित सरस्वती प्रतिमाओं में से एक मानी जाती है।""  फुजिसावा नगर कार्यपालिका

सरस्वती की लोकप्रियता इस पर से ही पता चलती है कि 1832 की जनगणना के अनुसार अकेले टोकियो में सरस्वती के 131 मंदिर हैं। लगभग इतने ही मंदिर क्योटो, ओसाका और नारा शहरों में भी हैं।

जापानी कलेंडर के अनुसार बारह वर्षों का एक वर्ष चक्र माना जाता है। इन बारह वर्षों के बारह प्रतीक इस प्रकार से हैं। चूहा, बैल, शेर, खरगोश, ड्रेगन, सर्प, घोडा, भेड, बंदर, चिडिया, कुत्ता और वराह। हरएक वर्ष इन्हीं प्रतीकों पर से जाना जाता है। चूंकि  सर्प को सरस्वती का संदेशवाहक भी माना जाता है।अतः प्रत्येक सर्प वर्ष के आगमन पर सरस्वती पूजा का विशेष महत्व रहता है और एनोशिमा में तो प्रत्येक सर्प वर्ष पर एक बहुत बडे महोत्सव का आयोजन किया जाता है। देशभर से सरस्वती के उपासक व  कृपा के आकांक्षी एनोशिमा में आकर धन-संपत्ति एवं ऐहिक समृद्धि की कामना करते हैं।  

श्रद्धालुओं में अधिकतर व्यापारी, सट्टेबाज और जुआरी ही होते हैं। एनोशिमा के निकट ही कामाकुरा में एक सरस्वती मंदिर है जिसमें एक जलकुंड भी है। जिसके बारे में यह विश्वास है कि उस जलकुंड के स्पर्श से धन-संपत्ति में वृद्धि होती है। इसलिए श्रद्धालु अपने सिक्कों, नोटों का स्पर्श उस जल से कराते हैं। सरस्वती से संबंधित अनेक रोचक कथाएं भी जापान के जनसामान्य में प्रचलित हैं तो, कुछ अंधविश्वास भी।