Thursday, December 25, 2014

पाबंदी हो धर्मांतरण पर

धर्मांतरण का मुद्दा इस समय छाया हुआ है। कहीं ईसाइयों को हिंदू बनाकर उनकी 'घर वापसी" करवाई जा रही है तो, कहीं हिंदुओं को धर्मांतरित कर ईसाई बनाया जा रहा है के समाचार प्रतिदिन समाचार पत्रों में छप रहे हैं। देश की संसद इस मुद्दे पर बार-बार स्थगित की जा रही है। इस कारण बीमा, कोयला जैसे अन्य कई महत्वपूर्ण विधेयक अटके पडे हैं। इस तरह का वातावरण बनाया जा रहा है मानो अन्य सभी मुद्दे गौण हैं और धर्मांतरण का मुद्दा ही जीवन-मरण का प्रश्न हो। पहले भी धर्मांतरण होते रहे हैं जो चुप चुपके ही हुआ करते थे। परंतु, इस बार सामूहिक रुप से खुले आम हो रहा है। वास्तव में धर्मांतरण के मुद्दे पर सार्थक बहस होने की बजाए केवल वातावरण को बिगाडने के प्रयास ही अधिक हो रहे हैं।

इस मुद्दे पर एक लंबी बहस स्वतंत्रता प्राप्ति के समय हो चूकी है। वस्तुतः जब देश स्वतंत्र हुआ तब मिशनरियों में यह भय पैदा हुआ कि उनके धर्मांतरण के कार्यक्रमों पर नियंत्रण आएगा। कई मिशनरियों को तो यह भी लगता था कि अब अपना बाड-बिस्तरा समेटने का समय आ गया है। इसलिए इस संबंध में भारत के भावी राज्यकर्ताओं का मानस समझने की दृष्टि से उन्होंने गांधीजी को छोड अन्य नेताओं से संपर्क स्थापित किया। गांधीजी के विचार धर्मांतरण के संबंध में उन्हें मालूम ही थे इसलिए उन्हें टाला गया। (जो मैं एक लेख 'विशुद्ध धार्मिकता एवं धर्मांतरण" (स्पूतनिक 7 से 13 अक्टूबर 2013) के द्वारा पहले ही दे चूका हूं) 

लंदन के 'द कॅथलिक हेरल्ड" ने पंडित जवाहरलाल नेहरु से पूछा 'अपने धर्म के आचरण और प्रचार की स्वतंत्रता हो, हिंदी  ईसाइयों के प्रतिनिधि मंडल द्वारा कॅबिनेट मिशन को की गई सूचनाओं के विषय में आपका मत क्या है?" पंडितजी ने जवाब दिया- 'जिसकी जडें मजबूत और निरोगी हों, ऐसा कोई सा भी धर्म फैले, यह विवेक सम्मत है और उसके फैलने के अधिकार में हस्तक्षेप  उसकी जडों पर आघात है। अगर विशिष्ट धर्म सार्वजनिक सुव्यवस्था को तकलीफ नहीं दे रहा हो अथवा उसके उपदेशक अनुत्सुक अन्य धर्मींयों के गले अपना धर्म नहीं उतार रहे हों तो।" 

रेव्हरंड स्टॅन्ले जोन्स सरदार वल्लभभाई पटेल, चक्रवर्ती राजगोपालाचारी, मौलाना आजाद और नेहरुजी से मिले। वल्लभभाई पटेल को मिशनरियों के स्वास्थ्य और शिक्षा कार्यों पर एतराज नहीं था। उनका मत था ः परंतु, मिशनरी राजनैतिक उद्देश्यों के लिए सामूहिक धर्मांतरण ना करें, देश से एकरुप हों। राजगोपालाचारी मिशनरियों के धर्मांतरण के अधिकार के संबंध में सहमत थे। उनकी सूचना थी ः परंतु, धर्म के कारण निर्मित हुए देशविभाजन के वर्तमान संकट के कारण धर्मांतरण बंद करें और परिस्थिति सुधरने तक विभिन्न मार्गों से जनसेवा करें। यह मान्य हो तो, 'प्रोफेस", 'प्रेक्टिस" और 'प्रोपगेट" के स्थान पर 'बिलीफ", 'वर्शिप" और 'प्रीच" हो। मौलाना आजाद मिशनरियों का इस्तिकबाल करते थे। परंतु, उनका आक्षेप मिशनरियों द्वारा किए जानेवाले सामूहिक धर्मांतरण पर था। नेहरुजी का प्रतिपादन था जो देश को अपना घर माने उसका स्वागत है। कांग्रेस ने अपने निर्वाचन प्रकटन में, प्रत्येक नागरिक को सार्वजनिक सुव्यवस्था और नीति की मर्यादा में सद्‌विवेकबुद्धि से स्वतंत्रता और स्वधर्म प्रकटन एवं आचरण का अधिकार घोषित किया था।

भारतीय संविधान में 'मूलभूत स्वतंत्रता" में धार्मिक स्वतंत्रता का समावेश होना अपेक्षित था। धार्मिक स्वतंत्रता में धर्मप्रकटन (प्रोफेस), आचरण (प्रेक्टिस) अंतर्भूत होंगे इस विषय में मतभेद नहीं थे। परंतु, निम्न बातों में मतभेद एवं तीव्र भावनाएं थी ः धर्मप्रसार (प्रोपगेट) और उसकी मर्यादा। उदा. सख्ती, धोखाधडी, प्रलोभन द्वारा किए हुए धर्मांतरण, अज्ञानियों का धर्मांतरण, धर्मांतरित पालकों की संतति का धर्म।

भारतीय संविधान का अंतिम प्रारुप तय करने के पूर्व, 'मूलभूत अधिकार" जैसे विषयों के संबंध में समादेशक समितियां और उपसमितियां स्थापित की गई। अनेक बार चर्चा करके इन समितियों और उपसमितियों ने बनाए हुए प्रतिवृत्त संविधान परिषद के सम्मुख चर्चा के लिए रखे गए। सुझाई हुई धाराओं, वाक्यांशों, उनके क्रमांक और उनके स्पष्टीकरणों में अनेक बार बदलाव हुए।

'मूलभूत अधिकार" इस संबंध में क. मा. मुन्शी ने उपसमिति को 17 मार्च 1947 को प्रस्तुत की हुई सूची ः 1. सार्वजनिक सुव्यवस्था, नीति और स्वास्थ्य से सुसंगत रहनेवाली प्रत्येक नागरिक को सद्‌विवेकबुद्धि, स्वतंत्रता और स्वधर्म आचरण एवं प्रकटन का अधिकार, इनमें उपासना में की आर्थिक, वित्तीय, राजनैतिक कामों का समावेश नहीं। 2. माता-पिता या पालक की सहमति के बिना 18 वर्ष।

देश स्वतंत्र होनेवाला है इसकी कल्पना चर्च नेताओं को 1937 से थी। संयुक्त राष्ट्रसंघ से विभिन्न ईसाई संगठनों के निकट संबंध थे। भारत के चर्च नेताओं को वैश्विक स्तर पर होनेवाली ईसाई हलचलों की कल्पना थी। भारतीय संविधान के संबंध में उन्होंने विस्तृत विचार किया था। उनके उद्देश्य स्पष्ट थे। नेशनल ईसाई कौंसिल ने एक शिष्ट मंडल भेजकर संविधान परिषद के सारे ईसाई सदस्यों को इस संबंध में तैयार किया था। 'नेशनल ईसाई कौंसिल रिव्यू" में इस संबंध में सतत लेख आ रहे थे। ईसाई नेताओं ने संविधान समिति के अपने उद्देश्यों का सतत पीछा किया।
संविधान परिषद के सदस्यों ने जो प्रतिपादन किए थे उनका सारांश संक्षेप में इस प्रकार है -

रत्नस्वामी - ईसाइयत और इस्लाम में धर्मांतरण अति आवश्यक भाग होने के कारण उन धर्मीयों के स्वधर्मानुसार अधिकारों की व्यवस्था होना चाहिए। माता-पिता द्वारा धर्म अथवा राष्ट्रीयत्व बदलने पर बच्चे ने माता-पिता का अनुसरण करना चाहिए। 
एच. सी. मुकर्जी (यह ईसाई थे) - धर्म प्रसार के समान स्वतंत्रता का भी अंतर्भाव हो।

रत्नस्वामी - 'प्रसार" में उपदेशों के साथ-साथ चित्रपट, आकाशवाणी आदि आधुनिक प्रचार साधनों का भी समावेश होना चाहिए।

क. मा. मुन्शी - भाषण की स्वतंत्रता में किसी भी प्रकार के उपदेशों का समावेश होता है। प्रचार में उपदेशों से अलग भी कुछ हो तो वह क्या है यह मालूम होना चाहिए। मेरा इस संबंध में विरोध है।

अल्लादी कृष्णस्वामी अय्यर - अमेरिका में भी यह विशेषाधिकार नहीं। अपने यहां भाषण की स्वतंत्रता है। 'प्रसार" का अधिकार मुझे मान्य नहीं।

एच. सी. मुकर्जी - संतती के धर्मांतरण के विषय का वाक्यांश हटाया जाए। उचित जांच के बाद मजिस्ट्रेट द्वारा प्रमाणित किए बगैर धर्मांतरण मान्य नहीं होगा, यह (22वां) वाक्यांश हटाया जाए।

फ्रॅन्क ऍन्थनी (अँग्लो इंडियन नेता) - ईसाइयों को इन दोनों बातों से आत्मीयता, घनिष्ठता है।

डॉ. श्यामाप्रसाद मुकर्जी - 22 वां वाक्यांश हटाया ना जाए।

चर्चा के बाद मूल सूची में 'प्रकटन", 'आचरण" के साथ 'प्रसार" डाला गया।
फॅ्रन्क ऍन्थनी - ईसाइयों को 'आचरण" और 'प्रसार" का मूलभूत अधिकार देने के बाद संतती के धर्मांतरण के विषय में मर्यादा डालकर वह अधिकार वापिस ना लिया जाए।

आर. पी. ठाकुर (दलित वर्ग) - साधारणतया दलित वर्ग के लोग धर्मांतरण के बलि होते हैं। उनके अज्ञान का लाभ उठाकर धर्मप्रचारक उन्हें लालच में डालकर उनका धर्मांतरण करते हैं। यह 'धोखाधडी" में आता है क्या? वैसा ना होने पर मुन्शी अपने वाक्यांश में सुधार करें।

रेव्ह. जे. जे. एम. निकल्स रॉय - अच्छी आध्यात्मिक शक्ति के विरुद्ध कानून ना बनाए जाएं। 12 अथवा 18 वर्ष की आयु के नीचे के युवाओं को प्रभु का बुलावा आया तो उन्हें धर्मांतरण से परावृत्त ना किया जाए।

पुरुषोत्तमदास टंडन - 18 वर्ष की आयु के लडके ने 100 रुपये की झोपडी बेची तो वह व्यवहार अवैध ठहरता है। परंतु, इसी लडके द्वारा अपना धर्म बदलने इतना वह समझदार है, ऐसा हमारे बंधु कह रहे हैं। धर्म का मूल्य 100 रुपये से कम है क्या? अज्ञानों का धर्मांतरण हमेशा सेे ही दबाव और अयोग्य प्रभाव के कारण हुआ होता है। अधिकांश कांग्रेसजन 'प्रसार" के विरुद्ध हैं फिर भी हमारे ईसाई मित्रों का आदर रख हमने 'प्रसार" शब्द रखने की मान्यता दी है। परंतु, अब अज्ञानों का धर्मांतरण मान्य करने के लिए हमें कहा जा रहा है, यह तो अति हो रही है।

डी. एन. दत्ता - बहुसंख्य कांग्रेसजन 'प्रसार" शब्द रखने के पक्ष में हैं।
रेव्ह. जेरोम डि"सूझा - इसमें परिवार के अधिकार का तत्त्व है। सभी वाक्यांश ध्यानपूर्वक शब्दरचना के लिए समादेशक समिति के पास वापिस भेजें।

अल्गु राय शास्त्री - लोभवश धर्मांतरण करनेवालों के बच्चों को भी धर्मांतरण के लिए बाध्य ना किया जाए। छत्तीसगढ़ जैसे 'एक्स्ल्यूडेड एरिआज" में केवल मिशनरियों का प्रवेश है। यह रोका जाना चाहिए। असम में ईसाइयों की संख्या तीनसौ गुना बढ़ गई है।

जगतनारायण लाल - अल्पसंख्यकों के मामले में यह सभागृह अधिकतम की मर्यादा तक गया है। विश्व के किसी भी देश के संविधान में धर्म 'प्रसार" करने का अधिकार मान्य नहीं किया गया है। इससे अधिक अल्पसंख्यकों ने मांगा तो बहुसंख्यकों की उदारता का अनुचित लाभ ठहरेगा।

अनंतशयनम अय्यंगार - आत्माएं बचाने के लिए नहीं बल्कि समाज का विघटन करने के लिए धर्म का उपयोग किया जा रहा है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है। संख्या बढ़ाकर विधिमंडल में अधिक स्थान प्राप्त का अवसर तुम्हें चाहिए क्या? धर्मांतरण ना चलने दें। वह करना हो तो संंबंधित व्यक्ति न्यायाधीश के सामने प्रतिज्ञा पर वैसी उसकी इच्छा है कहे। विषय पुनर्विचार के लिए वापिस भेजें।

आर. व्ही. धुलेकर - देश का पुनः विभाजन करने के लिए अपने गुट की संख्या बढ़ाने के प्रयत्न चल रहे हैं। देश का पुनः विभाजन हो, ऐसा विभाजन के लिए कारण रहनेवालों की इच्छा है। हमारी इच्छा है और दस साल बाद कोई ऐसा ना कहे, हमारा भी राष्ट्र है।

हुसैन इमाम - धोखाधडी और सख्ती से हुई कोई सी भी बात अवैध है, ऐसे कई निर्णय हैं। परंतु, यह बात मूलभूत अधिकारों की सूची में ना डाली जाए।

हुसैन इमाम की सूचना, मत संग्रह के पश्चात सम्मत हुई। दबाव और अयोग्य प्रभाव द्वारा किया हुआ धर्मांतरण अवैध है, यह वाक्यांश मूलभूत अधिकारों में से हटाए जाने पर 'नेशनल ख्रिश्चन्स रिव्ह्यू" (अक्टूबर 1947) में एक ईसाई पत्र लेखक ने आनंद व्यक्त किया।

प्रा. के. टी. शाह - प्रचार की स्वतंत्रता का दुरुपयोग ना हो। अबोध बच्चे और शारीरिक-मानसिक दृष्टि से दुर्बल व्यक्तियों का धर्मांतरण करने के उद्देश्य से स्कूल, महाविद्यालय, रुग्णालय, आश्रम आदि संस्थाओं का अपवाद किया जाए, ऐसी सूचना मैं प्रस्तुत करता हूं।

लोकनाथ मिश्रा - अपनने निधर्मी राज्य घोषित किया है। देश में अनेक धर्म हैं। तुम धर्म स्वीकारनेवाले ही वाले हो तो देश में प्रचंड बहुसंख्यकों का हिंदूधर्म ही रहना चाहिए। धर्मनिरपेक्ष राज्य हिंदुबहुल देश द्वारा अल्पसंख्यकों को दिखाया हुआ सर्वाधिक औदार्य है। अपने देश की प्राचीन संस्कृति को नजरअंदाज करने के लिए धर्मनिरपेक्ष राज्य यह पिच्छल शब्द प्रयोग में लाया गया है। लोगों को धर्म प्रसार करना हो तो करने दो। परंतु, उसका समावेश मूलभूत अधिकारों में ना करें। इसके कारण वैमनस्य बढ़ेगा। 'प्रसार" शब्द मूलभूत अधिकारों में से हटाया जाए।

पंडित जवाहरलाल नेहरु - विषय क्या है यह मुझे मालूम पडेगा क्या? 

लक्ष्मीकांत मैत्रा - अपनी विरासत संपन्न है। सभी को धर्मप्रकटन, आचरण, प्रसार के समान मूलभूत अधिकार मिलना चाहिए। ईसाइयों ने उत्साह और उन्मादपूर्वक धर्मांतरण नहीं किए हैं।

रोहिणीकुमार चौधरी - धर्मप्रचार में अन्य धर्मियों पर किचड उछालने उदा. भगवान श्रीकृष्ण और मूर्तिपूजा की निंदा पर कठोर दंड की व्यवस्था संविधान में होना चाहिए। 

टी. टी. कृष्णमाचारी - 'प्रसार" और 'धर्मांतरण" का अधिकार सभी को दिया गया है।

क. मा.मुन्शी - अल्पसंख्यक समिति ने प्रशंसनीय ढ़ंग से घटित करवाई गई सुलह ना बिगडे इसलिए प्रसार इस धारा का शब्द रखा गया है।

इतनी चर्चा के उपरांत ईसाइयों के धर्मप्रसार का अधिकार , वस्तुतः (अज्ञान व्यक्ति सहित) धर्मांतरण का अधिकार मान्य हुआ।

संविधान का गठन होते समय गांधीजी जीवित थे। इस विषय पर उनके विचार 'ख्रिश्चन मिशन्सः देअर प्लेस इन इंडिया" (1941) इस पुस्तक में संकलित हुए हैं। परंतु, आश्चर्य यह है कि उनके विचारों की दखल किसी ने भी नहीं ली। यहां तक कि कांग्रेसियों तक ने।

 वस्तुतः यदि धर्मपरिवर्तन बुद्धिपूर्वक किया गया है तो कोई हर्ज नहीं, परंतु ऐसे धर्मांतरण कुछ ही लोग करते हैं अधिकतर धर्मांतरण धन आदि का लोभ अथवा जोरजबरस्दती से ही किए जाते हैं यह वस्तुस्थिति है। जो भी हो इस तरह के धर्मांतरण वैमनस्य बढ़ाने का ही काम करते हैं। यह वैमनस्य असंतोष ही फैलाता है जो देश के विकास व प्रगति लिए घातक ही है। वर्तमान में लगभग जितने भी धर्मांतरण हो रहे हैं उनमें बहुलता किसी लालच या स्वार्थ की ही है। देश में शांति बने रहे बेवजह के विवाद ना खडे हों इसके लिए अब आवश्यक हो गया है कि उपर्युक्त प्रकार के धर्मांतरणों पर पाबंदी ही लगा दी जाए। 

हां, जो लोग बुद्धिपूर्वक धर्मांतरण करना चाहें वे चाहें तो धर्मांतरण कर एक धर्म से दूसरे धर्म में खुशी-खुशी जाएं कोई एतराज नहीं। वर्ना इसी तरह से सामूहिक धर्मांतरणों के आयोजन प्रतिस्पर्धात्मक ढ़ंग से होते ही रहेंगे और धर्म का मजाक बनता रहेगा।

Saturday, December 20, 2014

विश्व मानवता में उम्मा की दीवार 2

सर्व साधारण यह समझ नहीं पाते कि इस तरह के अपराधिक, आतंकवादी कृत्यों का जिनमें बेगुनाह लोग मारे जाते  हैं का समर्थन धर्म के आधार पर कैसे किया जा सकता है, किया जा रहा है। यह जानने के लिए हमें कुरान क्या कहती है यह समझना पड़ेगा। समझने में आसानी  रहे इसलिए हम रेडियंस में दि. 19,20 नवम्बर 2000 में अब्दुल रहमान हमद अल ओमर द्वारा एक लेख में किए गए प्रतिपादन को प्रस्तुत कर रहे हैं, "" इस्लाम भौगोलिक सीमाएं, राष्ट्रीय रिश्ते, लोकप्रिय संबंधों और  राष्ट्रीयत्व को नहीं जानता; क्योंकि उनके कारण लोगों में विभक्तता और दुजाभाव निर्मित होता है। मुसलमानों के लिए इस्लाम के सिवाय अन्य कोई राष्ट्रीयत्व नहीं।'' अर्थात इस्लाम राष्ट्रवाद को मान्यता नहीं देता और मौ. मौैदूदी तो इस राष्ट्रवाद पर आरोप ही जड़ते हैं कि "" मुस्लिमों की दृढ़ एकता (यानी उम्मा) के भंग करने के उद्देश्य से ही मुसलमानों के दुश्मन राष्ट्रवाद का प्रचार कर रहे हैं।'' (Who is maududi?- Maryam Jameelah) ़ 

कुरान के अनुसार-"" तुम (मुसलमान) खैर-उम्मत (बेहतरीन गिरोह) हो।'' (3ः110) ""अल्लाह ने तुमको जमीन का खलीफा (शासक) बनाया है।'' (6ः165) इस तरह की आयतों के कारण स्वयं को अन्यों की अपेक्षा सर्वश्रेष्ठ समझने की  ओर वे ही राज्य करने लायक हैं यह भावना पैदा हो जाती है। उनका श्रेष्ठत्व इसलिए है, क्योंकि वे एकमेव अल्लाह की ही इबादत करते हैं। और जो नहीं करते हैं वे काफीर हैं। शिर्क (बहुदेव वाद) का गुनाह करते हैं। इसलिए गुनाहगार हैं। कुरान और हदीस के अनुसार सबसे बड़ा गुनाह शिर्क है। "" अल्लाह का शरीक (साझी) न ठहरा निस्संदेह  शिर्क बहुत बड़ा जुल्म है।'' (31ः13), (बुखारीः 32, 3428) और जो ऐसा करते हैं वे "" कुफ्र (इस्लाम से इनकार) करने वाले गुनाहगार है।'' (2ः276) उन्हें अल्लाह  पसंद नहीं करता। और यदि ऐसे काफीरों को इस्लाम के बंदे बतौर सजा बम से उड़ा दें तो वे गलत कहां हैं !  क्योंकि कुरान के अनुसार- ""तबाही है उसके लिए जो शिर्क (बहुदेव पूजन) करते हैं।'' (41ः6) "" और इनका  (काफीरों का) आखिरी ठीकाना दोजख (नरक) है।'' (13ः18)  जहां उनको पहुंचाने का नेक कार्य बम विस्फोट जैसी कारगुजारियों से इन अल्लाह के बंदों द्वारा बखूबी अंजाम दिया जा रहा है।
तो यह है कुरान की सीख और अल्लाह के वचन जो कि अपरिवर्तनीय हैं। हमेशा के लिए हैं जो पूरे होकर ही रहेंगे, इस बात पर हर मुसलमान की दृढ़ श्रद्धा रहती है। इस श्रद्धा को पै. मुहम्मद के अंतिम विदाई यात्रा के भाषण से और भी बल मिलता है। पै. मुहम्मद ने अपनी मक्का की अंतिम बिदाई यात्रा में कहा था-"" ऐ लोगों, मेरे शब्द ध्यान से सुनो और समझ लो। ध्यान में  रखो, प्रत्येक मुसलमान दूसरे मुसलमान का भाई है। तुम सब (मुसलमान) समान हो। तुम सब मिलकर एक (मुस्लिम) बंधुसंघ) (उम्मा) हो। तुम एक दूसरे पर अन्याय मत करो, परस्पर गले काटकर काफिर मत बनो।''

""मैंने अपना जीवन कार्य पूर्ण कर लिया है। मैं मेरे पीछे अल्लाह का (कुरान) ग्रंथ और उसके पैगंबर की सुन्नाह (हदीस) तुम्हारे लिए छोड़े जा रहा हूं। अगर उसे (श्रद्धा से और कृति सेे) दृढ़ता से पकड़े रहोगे तो तुम सीधी राह छोड़कर कभी भी मार्ग भ्रष्ट नहीं होओगे'' (The Spirit of  Islam- Saiyad Amir Ali पृ. 114) उसी समय अल्लाह की ओर से आगे का संदेश अवतरित हुआ-""मैंने तुम्हारे लिए दीन को मुकम्मल (परिपूर्ण)  कर दिया तुम्हारे लिए इस्लाम को दीन (धर्म) की हैसियत से पसंद कर लिया।'' (5ः3) इस आयत पर दअ्‌वतुल कुर्आन का  भाष्य है- "" दीन के मुकम्मल (परिपूर्ण) करने का मतलब यह है कि दीन की इमारत का निर्माण परिपूर्ण हो गया। इसमें न तो कोई रिक्ति रह गई और न किसी वृद्धि एवं संशोधन की गुंजाइश है। मानव जाति के लिए अल्लाह तआला को जो हिदायत देनी थी वह दे चुका और.... अब इस दीन को इसी रूप में कियामत तक बाकी रहना  है और सम्पूर्ण जगत की सारी कौमों के लिए यही हिदायत का स्तंभ है।'' भाष्य आगे कहता है- "" दीन या  यह व्यवस्था मानव जीवन के तमाम विभागों पर हावी है। जन्म से लेकर मृत्यु तक जिन मार्ग निर्देशों की आवश्यकता थी और व्यक्तिगत जीवन के साथ-साथ सामाजिक जीवन के लिए जो आसमानी हिदायत दरकार थी उन सबका आयोजन इस व्यवस्था में है और उन सबका समावेश इस व्यवस्था में है।'' भाष्य आगे यह भी कहता है कि-"" जब दीन परिपूर्ण हो गया तो रिसालत (पैगंबरी) का सिलसिला भी खत्म हो गया। किसी नए नबी के आने की  जरूरत बाकी नहीं रहती।'' (द.कु. खंड1 पृ.340) अर्थात अब जो कुछ करना है वह अनुयायियोें को ही करना है, और वे कर भी रहे हैं तथा वे जो कुछ कर रहे हैं यह ऊपर पहले ही बतलाया जा चुका है। कुरान की इस शिक्षा का मुस्लिमों के मन-मस्तिष्क पर इतना गहरा प्रभाव है कि अशिक्षित, अल्पशिक्षित या उच्चशिक्षित इनमें से कोई भी हो वे अल्लाह एक है मुहम्मद उसका अंतिम पैगंबर है, और कुरान उसकोे अल्लाह ने दी है तथा जो कुछ कुरान में है वही अंतिम सत्य है। जो कुछ है वह कुरान में  ही है। उसमें हर चीज का समाधान मौजूद है के दायरे से बाहर ही नहीं निकल पाते और इसी कारण स्वयं को सुधारवादी, आधुनिक समझने वाले, कहे जाने वाले मुस्लिम विद्वान, चिंतक, विचारक भी, इस्लाम की कई चीजें कालबाह्य हो चुकी हैं और कुरान का पुनर्वाचन कर नए अन्वयार्थ लगाए जाकर उस अनुसार मुस्लिम समाज के सामने प्रस्तुत किए जाना चाहिए, करना चाहिए, यह कहने का साहस नहीं जुटा पाते जिसकी आवश्यकता है। 
सम्पूर्ण आलेख का निष्कर्ष यह निकलता है कि इस्लाम धर्म की "उम्मा' की संकल्पना केवल भयंकर ही नहीं तो अति संकुचित भी है, क्योंकि वह तो केवल ईमानवालों यानी इस्लाम पर श्रद्धा रखने वाले मुसलमानों तक ही सीमित है। उसमें गैर मुस्लिमों (काफिरों) को कोई स्थान प्राप्त नहीं। अर्थात्‌ इस्लाम की सदाचार, भाईचारा आदि की नैतिक शिक्षाओं, श्रद्धावानों ;"उम्मा' के सदस्यों द्वारा आपस में एक दूसरे के साथ पालन करने के लिए है, गैर-उम्मा या काफिरों के साथ इन सदवर्तनों के पालन की आवश्यकता नहीं। क्योंकि वे काफिर तो हैं ही-""नजिस (अपवित्र)''। (9ः22) अर्थात्‌ उनके साथ किए जाने वाले कदाचार, दुराचार, हिंसा सब जायज हैं। इसमें कोई गुनाह नहीं। बल्कि सर्वत्र-"" दीन अल्लाह ही का हो'' अर्थात सभी ओर इस्लाम गालिब (प्रबल) हो। इसके लिए तो ऐसे कृत्य करना ही पड़ते हैं, पड़ेंगे। क्योंकि "" इस्लाम के प्रति समस्त मुस्लिमें की केवल परिपूर्ण भावनात्मक निष्ठा ही पर्याप्त नहीं वरन गैर- मुस्लिमों के विचार- सिद्धांत, इनके विषय में भी चरम की घृणा होना अत्यावश्यक है।'' (सय्यद कुल्ब अंतरराष्ट्रीय विद्वान, विवेक 20-8-06 पृ. 84 ) जब इतनी घृणा होगी तो  बम विस्फोट जैसे कृत्य तो होंगे ही ना। शांति, सहिष्णूता, भाईचारे के कृत्य तो होने से रहे।

धर्म तो सम्पूर्ण विश्व के कल्याणार्थ होता है, विश्व के सम्पूर्ण मानव जगत के तारण के लिए होता है। जबकि इस्लाम धर्म के उम्मा के कारण तो सम्पूर्ण मानव जगत दो भागों में बंटकर रह जाता है। एक तो, उम्मा के सदस्य जो ""अल्लाह की पार्टी के हैं।'' (58ः22) दूसरे वे जो उम्मा के सदस्य नहीं वे ""शैतान की पार्टी के हैं।'' (58ः19) दअ्‌वतुल कुर्आन भाष्य भी कहता हैः ""कुफ्र (इस्लाम से इनकार) और इस्लाम की जंग में ईमान वालों को काफिरों से निर्भिकता पूर्वक और निःसंकोच लड़ना चाहिए। '' (द.कु. खंड 3, पृष्ठ 1993) और निःसंदेह वे बेझिझक लड़ भी रहे हैं।

 स्पष्ट है कि उम्मा की भयानक और संकुचित संकल्पना के कारण विश्वमानवता में उम्मा की जो दीवार खडी है, उसकी वजह से सम्पूर्ण विश्व समुदाय एक ही परिवार के समान, एक ही तरह के सभी को प्राप्त समान अधिकारों  और कर्त्तव्यों के साथ, शांत और सहिष्णू वातावरण में  सुख के साथ रह ही नहीं सकता।  "वसुधैव कुटुम्बकम '  और  "सर्वे भंतु सुखिनः, सर्वे संतु निरामयः' की आदर्श एवं श्रेष्ठ भावनाएं साकार रूप ले ही नहीं सकती। मुस्लिम विद्वानों, िंचंतकों, विचारकों को सोचना चाहिए कि जब विश्व समुदाय की दूरियां कम हो रही हैं, वैश्वीकरण और उदारीकरण का दौर चल रहा है, ऐसे दौर में इस तरह की भयंकर संकुचित संकल्पना से जनित दूषित विचारों के  साथ मुस्लिम समुदाय रहा तो  उसके दुष्परिणाम कितने घातक होंगे। इससे तो इस्लाम मतलब शांति नहीं, वरन अशांति या कब्रस्तान की शांति कहा जाएगा। और धर्म का अर्थ यह तो कदापि नहीं। संक्षेप में, हम इस बात से कतई इनकार नहीं कर रहे हैं कि इस्लाम में इंसानियत नहीं, लेकिन यह किसी विशेष घटना की प्रतिक्रिया स्वरूप उपजी सहज भावना हो सकती है; व्यक्तिगत तौर पर हो सकती है। लेकिन, जहां सवाल इस्लाम का आता है तो सभी इंसानों के लिए नहीं वरन्‌ वहां वह उम्मा का रूप धरकर ही सामने आती है। जिस प्रकार कोई मां ममता की मूर्ति, वात्सल्य से परिपूर्ण होती है, परंतु जितना वात्सल्य वह अपनी स्वयं की संतान पर उंडैलती है उतनी ममता वह दूसरे बच्चों पर प्रकट नहीं करती। उसी प्रकार इस्लाम में जो इंसानियत है वह इतनी सीमित है जितनी की रेगिस्तान की तपती भर दोपहरी में की इंसान की छाया। जो उस तक ही सीमित रहती है। वह छाया क्षितिज तक जा पहुंचे इतनी लंबी नहीं हो पाती। जैसी की संध्याकाल की होती है। जो कि मानव धर्म में होती है।
विश्व मानवता में उम्मा की दीवार 1

प्राचीन अरबस्तान में कबीलाई संस्कृति व्याप्त थी। "" कबीलों के अलग-अलग  रहने तथा सभी आदमियों के एक दूसरे पर निर्भर होने के कारण इन लोगों में एक प्रकार का प्रेम भाव पैदा हो जाता था, जिसकी वजह से कबीलों तथा कौमों के संगठन में अत्याधिक सहायता मिलती थी। यह भावना " असबियह' अर्थात "असबियत' के नाम से प्रसिद्ध है। इसी के कारण एक कबीला अपनी मर्यादा की रक्षा हेतु दूसरे कबीले से युद्ध करते समय अपने प्राणों की बलि देना ब़ड़ी साधारण बात समझता था। बदवी (अरबस्तान के लोग) भाट का यह गीत सर्वदा उसके कबीले में गूंजता रहता था कि " अपने कबीले के प्रति निष्ठावान रहो। कबीले का हक इतना अधिक है कि पति अपनी पत्नी का त्याग कर सकता है।  '' (इब्ने खल्दून का मुकदमा पृ.6) संक्षेप में, "असबियत' मतलब  "कबीले के अंतर्गत लोगों का आपसी प्रेम, भाईचारा अथवा संगठन।' मुहम्मद साहेब और उनके द्वारा स्थापित इस्लाम पर यह संस्कार स्वाभाविक ही था। इसलिए कहा जा सकता है कि इस्लाम ने इन भावनाओं से लाभ उठाया और यह संकल्पना इस्लाम में "उम्मा' के रूप में दृढ़ मूल हुई।

 "उम्मा' यह वह संकल्पना है जो अपने अलावा और किसी के सम्मान से जीने के अधिकार को अन्य किसी सभ्यता, संस्कृति, जीवन शैली या परंपरा के हक को नकारती है। कलमा "ला इलाहइल्लल्लाह मुहम्मद रसूल्लल्लाह' अर्थात अल्लाह एक है और मुहम्मद उसका पैगंबर है, के बाद मुस्लिमों की सबसे अधिक श्रद्धा "उम्मा' में ही होती है। उम्मा यानी मुस्लिम बंधु संघ। उम्मा की संकल्पना का आधार है कुरान की यह आयत ""ईमान वाले (मुसलमान)(सब) आपस में भाई हैं। ''(49ः10, 9ः71, 8ः72) । यह भावना बलवती हो इसलिए कुरान में आगे यह हृदय स्पर्शी प्रश्न पूछा गया है- "" क्या तुममेें से कोई अपने भाई का गोश्त खाना पसंद करता है़?'' (49ः12)। इस "उम्मा' की सर्वश्रेष्ठता बनी रहे इस संबंध में पैगंबर मुहम्मद के वचन (हदीस) हैं। "हदीस' कथन के पूर्व हम यह जान लें कि हदीस के मायने क्या हैं़? मुस्लिमों में कुरान के अनंतर हदीस का महत्व है। हदीस को  "सुन्नाह' भी  कहते हैं। सुन्नाह का अर्थ मार्ग, नियम, कार्यपद्धति अथवा जीवन पद्धति होता है। कुरान की शिक्षाओं का योग्य स्पष्टीकरण और उसके अन्वयार्थों के विवाद मिटाने का एकमेव साधन हदीस ही है। अर्थात कुरान और हदीस मिलकर "दीन' (धर्म) की शिक्षा को पूर्णत्व तक पहुंचाते हैं। संक्षेप में हदीस मतलब मुहम्मद साहेब की कृतियां, उक्तियां एवं यादें, जो उनके निकटस्थ एवं विश्वसनीय अनुयायियों द्वारा आस्थापूर्वक संभालकर रखी थी, जिन्हें बाद में संग्रहीत कर संशोधकों ने ग्रंथ का रूप दिया। तो, हदीस कथन हैः-" कियामत के दिन सभी को फैसले के लिए अल्लाह के सामने लाया जाएगा। उसके द्वारा सभी प्रकार के धर्म विधि किए जाने के उपरांत भी जब उसको धिक्कारा जाएगा तब उसे आश्चर्य होगा कि यह दंड मुझे क्यों? तब उसे बताया जाएगा कि उसने उसके शब्दों द्वारा "उम्मा' (मुस्लिम समाज) में फूट डाली थी। उसका यह फल है।' (Tabligh movement मौ. वहीदुद्दीन खान- पृ. 48) एक और हदीस कथन है- "मुस्लिम समाज के (उम्मा के) परस्पर संबंधों में भेद पैदा करने वाले का तलवार से कत्ल करो, फिर वह कोई भी क्यों ंन हो।' (मुस्लिम 4565 से 66) एक और पैगंबर कथन- पैगंबर ने कहा-  "जो एकजुट (मुस्लिम) समाज से दूर जाता है वह नरक में जाता है।'  (रेडियंस 16-1-2000 पृ.5)पै. मुहम्मद द्वारा मक्का से हिजरत कर मदीना आगमन के बाद उम्मा की स्थापना उन्हें अनिवार्य प्रतीत हुई। इस प्रकार यह उम्मा मदीनावासियों (जिन्हें कुरान में अनसार (मददगार) कहा गया है) और मक्का से हिजरत (देशत्याग) कर आए हुए शरणार्थी (मुहाजिर) मक्कावासियों के बीच एक ही धर्म के अनुयायियों के रूप में स्थापित किया गया था। इस संबंध में कुरान की आयत 8ः72 में कहा हुआ है-"" जो लोग ईमान (श्रद्धा) लाए और उन्होंने हिजरत (यानी देशत्याग) किया और अल्लाह के रास्ते में अपनी जान माल से ल़ड़े और जिन  लोगों(यानी अनसारों) ने देश त्याग करने वालों को जगह दी और मदद की यह लोग (आपस में) एक दूसरे के वारिस हैं।' '  यह"उम्मा' कितना दृढ़ था उसका एक उदाहरण इस हदीस में मिलता है! एक मददगार ने एक शरणार्थी जो उसका भाई बना था से कहा- मैं अपनी सारी सम्पत्ति हम दोनों में बांटता हूं। वैसे ही मेरी दो पत्नियां है उनमें से जो तुझे पसंद हो वह बता तो मैं उससे तलाक ले कर उसकी शादी तेरे साथ करा देता हूं। (बुखारी3680, 81, 3937)
 "उम्मा'  को इस ऐतिहासिक वाकिये से और भी अच्छी तरह से समझा जा सकता है कि सिकंदर जब विश्व विजय के लिए निकला तब उसके पास केवल 30,000 सैनिक थे, लेकिन तक्षशिला तक पहुंचते-पहुंचते उन सैनिकों  की संख्या 1,20,000 तक जा पहुंची। हारे हुए देशों की सेनाओं को सिकंदर अपनी सेना में शामिल कर लिया करता था, परंतु इस प्रकार के बहुद्देशीय सैनिक उसके वफादार कभी भी नहीं हुए और अंत में मात्र कुछ ही सैनिक उसके साथ बचे रहे। वहीं हारे हुओं को अपनी सेना में शामिल करने की नीति मुहम्मद साहेब ने भी अपनाई थी, परंतु वे सिकंदर के समान असफल न रहे। यही तो थी मुहम्मद साहेब की दूर-दृष्टि भरी चतुराई कि वे जिन्हें भी पराजित करते थे उन्हें सर्वप्रथम धर्मांतरित कर अपने "उम्मा' का सदस्य बना डालते थे। (इनकार की तो गुंजाइश रहती ही नहीं थी) और वादा रहता था कि यदि लड़ते हुए जीते तो युद्ध लूट के रूप में उपभोग के लिए धन सम्पत्ति और सुंदर औरतें और यदि खुदा न खास्ता शहादत को प्राप्त हुए तो मिलेगा परलोक का सुखी जीवन और मिलेगी जन्नत की हुरें (स्वर्ग की अप्सराएं), जहां उन्हें सदा के लिए रहना है।  सिकंदर यहीं मात खा गया। यदि सिकंदर ने भी मुहम्मद साहेब की भांति धर्म का जोड़ लगाया होता तो वह दुर्दशा को प्राप्त न हुआ होता। उदाहरणार्थः- मक्का विजय के पश्चात हुनैन के युद्ध के लिए निकलते समय उन्होेंने मक्का के 2000 नव मुस्लिमों को अपनी सेना में लिया था और उन्हें युद्ध लूट में से निश्चित हिस्सा भी दिया था, जिससे कि वे इस्लाम की ओर आकर्षित हों। इसका वर्णन कुरान की (9ः58-60) आयतों में आया हुआ है। तो बनी कुरैजा के साथ हुए युद्ध के पश्चात स्वयं को (यानी मुहम्मद साहेब को) लूट के प्राप्त पांचवे हिस्से में से कुछ लड़कियां और स्त्रियां अपने मित्रों को भेंट के रूप में दी और बची हुई बेचकर उससे राज्य के लिए घोड़े और शस्त्र खरीदे तथा शेष लूट 3000 सैनिकों में नियमानुसार बांट दी। (मुस्लिम 4370) इस कारण धर्मांतरित लोग और उनकी सेनाएँ अपना बहुदेेशीयत्व खोकर एक संघ मुस्लिम समुदाय का भाग बनकर रह गए और मुहम्मद साहेब विजेता कहलाए। जबकि सिकंदर यहीं मात खा गया। यदि सिकंदर ने भी मुहम्मद साहेब की भांति ही धर्म का जोड़ लगाया होता तो वह दुर्दशा को प्राप्त न होता।

"उम्मा' के संबंध में एक इस्लामिक विद्वान सय्यद हुसैन कहते हैं-"" पै. मुहम्मद द्वारा पुरस्कृत (बंधुभाव) का मूलभूत सिद्धांत यह था कि "बंधुसंघ' यह रक्त संबंधों पर आधारित न होकर (समान) धर्म श्रद्धा पर आधारित है और इसीलिए मुस्लिमों के साथ गैर-मुस्लिमों के रिश्तों को उन्होंने नकारा था। उन्होंने मक्का से आए हुए मुहाजिर और मदीना के अनसारों के बीच व्यक्तिगत स्तर पर बंधुसंघ निर्मित किया था।'' ( The Early History of Islam-Saiyad safdar Husain  पृ. 95) उम्मा का घटक बनने के लिए जिस कलमातैयबा ""ला इलाह इल्लल्लाह मुहम्मद रसूल्लुल्लाह'' का उच्चारण करना प़ड़ता है उस पर मौ. मौदूदी का भाष्य गौर करने लायक है-"" इसी कलमें की वजह से आदमी और आदमी में भी  बड़ा फर्क हो जाता है जो इस कलमें के पढ़ने वालेे हैं  वे एक (समुदाय) उम्मत होते हैं। बाप अगर कलमा पढ़ने वाला है और बेटा इससे इनकार करता है तो गोया बाप बाप न रहा और बेटा बेटा न रहा।  पराया, आदमी अगर कलमा पढ़ने वाला है.. गोया यह कलमा ऐसी चीज है कि गैरों को एक दूसरे से मिला देती है और अपनों को एक दूसरे से काट देती है, यहां तक कि इस कलमें का जोर इतना है कि खून और जन्म के रिश्ते इसके मुकाबले में कुछ नहीं।'' (खुतबात सय्यद अबुल आला मौदूदी मर्कजी मकतबा इस्लामी देहली- पृ.26,27)

मौै. मौदूदी आगे यह भी कहते हैं- "" अतः तुमने इकरार कर लिया कि जो कानून और जो तरीका हुजूर (यानी मुहम्मद साहेब) ने बताया है तुम उसी पर  चलोगे और जो कानून इसके खिलाफ है उस पर लानत भेजोगे'' यह इकरार करने के बाद अगर तुमने हुजूर के लाए हुए कानून को छोड़ दिया और दुनिया के कानून को मानते रहे तो तुमसे बढ़कर झूठा और बेईमान कोई न होगा, क्योंकि तुम यही इकरार करके तो इस्लाम में दाखिल हुए थे कि मुहम्मद साहेब का लाया हुआ कानून हक है और इसी की तुम पैरवी करोगे। इसी इकरार की बदौलत तो तुम मुसलमानों के भाई बने। '' (पृ.31)
यही "पॅन इस्लामिझम' वैश्विक मुस्लिम भाईचारे का भी आधार है। इस संबंध में दअवतुल कुर्आन भाष्य कहता है- "" दीनी (धार्मिक) रिश्ते के हिसाब से मुसलमान एक दूसरे के भाई हैं। रंग और वंश, जाति और देश का अंतर इस विश्वव्यापी भाईचारे में कोई अवरोध उत्पन्न नहीं कर सकता। वे जहां कहीं भी होंगे एक दूसरे से जुड़े रहेंगे और एक के दर्द की चोट दूसरा अपने अंदर महसूस करेगा चाहे उनके बीच हजारों मील का फासला हो।'' इस भाईचारे के रिश्ते को मजबूत करने की ताकीद (चेतावनी) हदीस में दी गई है, मुसलमान मुसलमान का भाई है, न उस पर जुल्म करें और न उसे जालिम के हवाले करें। जो व्यक्ति अपने भाई की हाजत (इच्छा) पूरी करने में लगा रहता है और जो व्यक्ति किसी मुसलमान की तकलीफ दूर करेगा और जोे किसी मुसलमान की परदापोशी करेगा (दोषों को छुपाएगा) अल्लाह कियामत के दिन उसकी परदापोशी करेगा।'' (दअ्‌वतुल कुर्आन खंड 3 पृ.1848) यही कारण है कि 11 सितम्बर का वर्ल्ड ट्रेड सेंटर और पेंटागन पर हवाई हमला हो या लंदन हवाई अड्डे की साजिश या लंदन के 2005 के बम विस्फोट या मुम्बई के बम विस्फोट इन मुस्लिम विस्फोटकर्ता, हमलावर आतंकवादियों के कृत्यों के समर्थन में मुस्लिम समाज का एक बहुत बड़ा वर्ग विभिन्न रूप धरकर सामने आ जाता है। जुलाई 2005 में लंदन में हुए बम विस्फोट जिसमें 56 लोग मारे गए थे के संदर्भ में  हाल ही में हुए एक सर्वेक्षण में 25 से 28 प्रतिशत तक ब्रिटिश मुस्लिमों ने इस हमले का समर्थन किया है। समर्थन का कारण यह बतलाया गया है कि अमेरिका ने आतंकवाद से युद्ध के नाम पर मुस्लिमों के विरुद्ध लड़ाई छेड़ दी है और ब्रिटिश सरकार उसको समर्थन दे रही है। इसी "उम्मा' की संकल्पना के कारण "अक्षरधाम मंदिर' पर हमले के आरोपी फांसी की सजा प्राप्त तीनों अपराधियों का गुजरात से किसी भी तरह का कोई संबंध न होने पर भी उन्होंने यह कुकृत्य किया। ठीक इसी तरह लंदन हवाई अड्डे से उड़ान भरने वाले विमानों को उड़ाने की साजिश और वर्ल्ड ट्रेड सेंटर तथा पेंटागन पर हवाई हमले करने वाले स्वतंत्र पॅलिस्टन समर्थक हैं, परंतु इनमें से कोई भी पॅलेस्टिनी नहीं। और तो और इस तरह के अपराधिक कृत्यों का जिनमें निर्दोष बलि चढ़ते हैं, जिहाद के नाम पर, कैरो (इजिप्त) के 1000 वर्ष पूर्व स्थापित "अल अजहर' विश्वविद्यालय के कुछ शिक्षक भी समर्थन करते हैं। ....

Friday, December 12, 2014

हैरान ना होइए विश्व भर में फैले हुए है अंधविश्वास

कर्नाटक के मंत्री जरकिहोली जिन्होंने राज्य विधान सभा में अंधविश्वास विरोधी विधेयक लाने में मुख्य भूमिका निभाई थी ने श्मशान में रात बीता एवं रात्री-भोज कर श्मशान में भूत-प्रेत रहते हैं, वह अपवित्र स्थान है, आदि मिथ तोडने एवं अंधविश्वास के खिलाफ जागरुकता लाने की दृष्टि से यह कार्य कर एक सराहनीय पहल की है। उनका यह कहना कि जब तक लोगों के मन से अंधविश्वास समाप्त नहीं होगा तब तक पिछडे तबके के लोगों को न्याय नहीं मिलेगा एकदम सत्य है। परंतु, पिछडे ही नहीं तो अगडे समझे जानेवाले समाज के लोग भी अंधविश्वास में मुझे नहीं लगता कि कहीं किसी से कमतर पडते हैं। जो भी फरक होगा उन्नीस बीस का ही होगा। मंत्रीजी ने उठाया हुआ कदम कितना कठिन है इसका अंदाजा भी उन्हें होगा ही तभी उन्होंने यह कहा कि भले ही वह सत्ता में रहें या ना रहें अंधविश्वास के विरुद्ध उनकी लडाई चलती रहेगी। क्योंकि, जिस प्रकार से नकली बाबाओं-महाराजों की महामारी से पूरा विश्व ग्रस्त है उसी प्रकार से अंधविश्वासों की मारी यह पूरी की पूरी दुनिया ही है और अंधश्रद्धा तथा अंधविश्वासों के विरुद्ध आवाज उठानेवालों को हमेशा से ही तिरस्कार, अपमान व विरोध सहना पडा है। यहां तक कि जान का धोखा तक उठाना पडा है। 

 विश्व में कितने अंधविश्वास प्रचलित हैं इनके बारे में एक जर्मन ज्ञानकोश के 10 बडे खंड प्रकाशित हो चूके हैं। वास्तव में अंधविश्वासों का अस्तित्व तो मनुष्य के आरंभिक काल से ही है। इस बात के साक्षी हैं आदिवासियों में प्रचलित कई तरह के रीतिरिवाज एवं अजीबोगरीब क्रियाएं। सभ्य विश्व में भी अंधविश्वास व विचित्र मान्यताओं की भरमार है। जैसे कि कई बडे-बडे लोग यह मानते हैं कि फलां दिन सोचा हुआ कार्य नहीं होता या फलां-फलां दिन शुभ होता है या विशिष्ट दिवस पर खट्टा नहीं खाना चाहिए, फलां व्यक्ति को यात्रा प्रारंभ करते समय देख लें तो यात्रा स्थगित कर दें, आदि।

पश्चिमी लोग जो हमें अंधविश्वासी, डरपोक जाहिल कहते रहे हैं, हमारी श्रद्धाओं, मान्यताओं, देवी-देवताओं का मजाक उडाना  जिनका शगल है, जो हमें सुधारने का दावा करते रहते हैं। वे स्वयं कितने जाहिल हैं यह जानना भी बडा ही रोचक सिद्ध होगा। कैथोलिक सम्प्रदाय के अनुयायी इस्टर के पूर्ववाले गुरुवार को अशुभ मानते हैं। उस दिन चर्च की सारी घंटियां बंद कर दी जाती हैं। 13 का अंक अशुभ है यह एक पागलपन भरी समझ है परंतु, दुनिया भर में इस बात को लोग प्रमुखता से मानते हैं। अमेरिका के चंद्र अभियान अपोलो के दौरान अपोलो 13 के समक्ष आई विपत्तियों के लिए भी इसी अंक को दोषी माना गया था। 13 के अंक से संबद्ध अंधविश्वास संभवतः उस समय से प्रारंभ हुआ जब 12 देवताओं के एक भोज में 'मोकी" नामक देवता धोखे से शामिल हो गया फलस्वरुप बल्दूर  नामक लोकप्रिय देवता की मौत हो गई। ईसाई धर्म में 13 का अंक अपशकुनी है के सबूत के रुप में लास्ट सपर (ईसामसीह को क्रॉस पर चढ़ाने के एक दिन पूर्व की रात को ईसा और उसके शिष्यों को मिलाकर 13 लोगों ने एकत्रित रुप से किया हुआ अंतिम भोजन) के चित्र को पहचाना जाता है। इसी प्रकार से 3 के अंक को भी लेकर विश्वव्यापी अंधविश्वास है। ईसाई धर्म में 3 के अंक को उस समय से बुरा माना जाता है जब पीटर ने मुर्गे की बांग से पूर्व को 3 बार इंकार किया था।

स्काटलैंड में रोगी के बाल और नाखुन काटकर मुर्गे के साथ जमीन में गाढ़ दिया जाता है। स्काटिश लोगों की धारणा है कि कपडे की गेंद को कुंवारी लडकी ही फेंकेगी और वह दिन सेंट व्हैटीन माना जाता है। इस गेंद को फेंकने का उद्देश्य यह है कि जो भी पुरुष उसे उठाने के लिए 'हां" करेगा वह उसका भावी पति होगा। स्काटलैंड में नववर्ष की सुबह काले आदमी या काली वस्तु को देखना शुभ माना जाता है और जब काला आदमी दिखाई देने की संभावना ना हो तो लोग सिरहाने कोयला रखकर सो जाते हैं ताकि नववर्ष की सुबह सबसे पहले उसे ही देख लें। स्वीट्‌जरलैंड के शिकारी अगर यात्रा के समय सियार देख लें तो घर वापस आ जाते हैं। उन्हें इस बात का डर लगने लगता है कि कहीं गलती से वे मानवहत्या न कर बैठें।

इंग्लैंड और अमेरिका में शनिवार को कोई काम नहीं किया जाता है। वर एवं वधू या प्रेमी जोडों का साथ में फोटो खींचना भी अशुभ माना जाता है। पति-पत्नी या प्रेमियों को दर्पण में एक साथ देखना भी अपशकुन समझा जाता है। स्वीडन और डेनमार्क में प्रसूती के घर में आग जलाकर रखी जाती है कारण भूत-प्रेत। ग्रीस में बच्चे को पालने में लिटाकर आग के चारों ओर तीन बार परिक्रमा करने की प्रथा है। डेनमार्क में दरवाजे पर स्टील का एक टुकडा गाड देते हैं। पश्चिम के भूत हैं भी बडे अजीबोगरीब वे घडी के होते हैं, कुर्सियों के होते हैं, मकानों के हैं और तो और पानी के जहाजों के भी भूत वहां मौजूद हैं, लंदन में तो लोगों ने बसों के तक भूत सडक पर दौडते देखे हैं। वहां के भूतों ने तो मरने के बाद भी उपन्यास लिखे हैं।

छींक को लेकर पूरे विश्व में कई धारणाएं प्रचलित हैं। अमेरिका में यदि लडकी को छींक आती है तो माना जाता है कि उनका मित्र उन्हें याद कर रहा है। शिशु के जन्म के वक्त छींक आती है तो समझा जाता है कि वह बडा होकर नेता बनेगा। आस्ट्रेलिया के लोग छींक आने पर ईश्वर का आभार मानते हैं। जर्मनी में जूते पहनते समय छींकना अत्यंत अशुभ माना जाता है। यूनानी छींक को दैवी कृपा मानते हैं। अत्यंत आश्चर्यजनक अंधविश्वास है एस्टोनिया के निवासियों के संदर्भ में वहां यदि दो गर्भवती महिलाएं एक साथ छींके तो कन्या का जन्म होगा, दो पति एक साथ छींके तो पुत्र का जन्म होगा ऐसा माना जाता है।

खेल जगत भी अंधविश्वासों से भरा पडा है। क्रिकेट के कई खिलाडी किसी विशेष बल्ले, टोपी अथवा जूतों की जोडी को अपने लिए भाग्यशाली मानते हैं। कई अंतरराष्ट्रीय स्तर के खिलाडी गले में ताबीज धारण किए रहते हैं अथवा मुकाबले के पूर्व अपनी किसी विशिष्ट आदत को दोहराते नजर आते हैं। अर्जेंटीना के राष्ट्रपति मेनिम ने भी स्वीकार किया है कि वे भी अंधविश्वासी हैं। इटली पर विजय पाने के बाद खेलप्रेमी मेनिम ने कहा कि वे सभी मैचों को एक ही टाई और कपडे पहनकर देखते हैं। अर्जेंटीना के निवासियों की मान्यता है कि 'भगवान अंर्जेंटीनी है।" कई लोग तो प्रेतबाधाओं से बचाव के पारंपरिक तरीके की लहसुन की माला बनाकर मैच के दौरान हाथ में दबाए बैठते हैं। 

अब इन प्रगत कहे जानेवाले देशों में फैले अंधविश्वासों को देखते यह टिप्पणी देने से मैं अपने आपको रोक नहीं पा रहा कि बताइए क्या खाकर हम भारतीय अंधविश्वासों में इनसे आगे निकल सकते हैं। हम तो ठहरे इन गोरों के आगे निपट गंवार, अनपढ़, अज्ञानी। वैसे इन प्रगतिशील गोरों के कैथोलिक चर्च के अंतर्गत योरोप में मध्यकाल में किस प्रकार से अंधविश्वासों का साम्राज्य फैला हुआ था यह और किसी लेख का विषय हो सकता है अतः यहीं विराम।

Tuesday, December 9, 2014

गाली पुराण

गालियां क्या है आक्रोश की अभिव्यक्ति का माध्यम। जब कोई किसी पर क्रुद्ध होता है तो उसका यह क्रोध अपशब्द के रुप में प्रकट होता है जो अश्लील होता है यही गाली है। संस्कृत-हिंदी शब्दकोश (आपटे) के अनुसार अश्लीलम्‌ यानी गाली - रचना का एक दोष जिसमें ऐसे शब्द प्रयोग किए जाएं जिनसे श्रोता के मन में शर्म, जुगुप्सा और अमंगल की भावना पैदा हो। उदाहरण के लिए 'साधनं सुमहद्यस्य, मुग्धा कुड्‌मलिताननेन दधती वायुं स्थितिकासा", तथा 'मृदुपवनाविभिन्नो मत्प्रियाया विनाशात्‌" - में साधन, वायु और विनाश शब्द अश्लील हैं और क्रमशः शर्म, जुगुप्सा और अमंगल की भावना पैदा करते हैं- 'साधन" शब्द तो लिंग (पुरुष की जननेन्द्रिय), 'वायु" शब्द अपान (गुदा से निकलनेवाली दुर्गंधयुक्त वायु) तथा 'विनाश" मृत्यु को प्रकट करता है। 

हमारे यहां षड़रिपु (काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह) दमन का उपदेश है क्योंकि, ये वृत्तियां समाज के लिए हानिकारक हैं। इस दृष्टि से भी गाली बकना, अपशब्दों का प्रयोग, दुर्वचन कहना वर्जित है। गालियां सामनेवाले व्यक्ति के मन पर चोट करती है और कभी-कभी अत्याधिक अपमान की अनुभूति होने पर हत्याएं तक हो जाती हैं। गालियां भी दो प्रकार की होती हैं ः सुसंस्कृत लोगों की गालियां जो थोडी शिष्ट होती हैं। दूसरे में उन लोगों की गालियां होती हैं जिन्हें सुसंस्कृत होने का मौका नहीं मिला। उनकी गालियां ठेठ होती हैं एवं इन लोगों का गालियों का कोष भी बहुत समृद्ध होता है व नई-नई गालियों का ईजाद करने में भी इन लोगों को महारत हासिल होती है।

गालियां बकने को भा.दं.वि. की धारा 294 में दंडनीय माना गया है। मनुसंहिता में नियम बतलाया गया है कि, कोई भी किसी को भी देश, जाति या वृत्ती (कामकाज) पर से गाली देता है तो उसे राजा दो सौ पण से दंडित करे। भाष्यकार मेधातिथि ने उसके उदाहरण भी दिए हुए हैं।

साहित्य संस्कृति का सबसे पुष्ट अंग है तथा संस्कृति संस्कार शब्द से उपजा है, संस्कार अनगढ़ को गढ़ता है, परिष्कृत करता है अर्थात्‌ साहित्य हमें परिष्कृत करने के लिए होता है। जिस प्रकार से साहित्य में भूषण होते हैं उसी प्रकार से दूषण भी होते हैं। गालियों का अक्षरशः वाड्‌मय है परंतु, लगभग लिखित रुप में उपलब्ध न होने के कारण उपेक्षित है। फिर भी संसार में अनेक भाषा वैज्ञानिक संस्थाएं उनका संग्रह करती हैं और इस संबंध में ऊहापोह करनेवाले सामयिक पत्र-पत्रिकाएं भी प्रकाशित करती हैं। लगभग 35-40 वर्ष पूर्व गालियों का अध्ययन करने के लिए दो रशियन भाषाशास्त्री भारत आए भी थे और उन्होंने अध्ययन कर निष्कर्ष निकाला था कि पंजाब गालियों में सबसे समृद्ध प्रदेश है। उडीसा के गोपालचंद्र प्रहराज का 'पूर्णचंद्र उडीया भाषाकोश" संकलित करने में महत्वपूर्ण हाथ है। उन्होंने गांव-गांव घूमकर पनघटों पर महिलाओं के बीच होनेवाली कहासुनी को ध्यानपूर्वक सुनकर नए-नए अपशब्दों को दर्ज किया था।

प्राचीनकाल से ही गाली बकना प्रचलित रहा होना चाहिए। सांसारिक कलह ही इनकी जन्मदाता है। भगवत पुराण में तो कलियुग को कलहयुग कहा गया है। पुराण बतलाते हैं कि जुए का अड्डा, मदिरालय, संसार और पशुहत्या का स्थान। यहीं पर सबसे अधिक गालियां पैदा होती हैं। जैसे कविता भावनाओं का उत्कट सहज आविष्कार है वैसे ही गालियों की भावना (अच्छी-बुरी) भी श्रुतीगोचर सहज आविष्कार है। सुवचन व दुर्वचन मनुष्य के मुख में एक ही समय विद्यमान रहते हैं। संतज्ञानेश्वर से लेकर समर्थ रामदास तक की रचनाओं में अपशब्द सहज रुप से आए हुए हैं। संस्कृत के गालीगलौज के उदाहरण भी संस्कृत को शोभा दें उसी स्तर के हैं। संस्कृत भाषा का महासागर उसमें लिखित ग्रंथों के कारण ही उफन रहा है और उसमें आई हुई अशिष्टता जंगल की खुशबू की तरह ही है। 

वर्तमान में हमारे जीवन का ऐसा कौनसा क्षेत्र है जहां अपशब्दों का प्रयोग धडल्ले से जारी ना हो। क्रिकेट के क्षेत्र में आस्ट्रेलिया के खिलाडियों में अपशब्दों के प्रयोग की प्रवृत्ति आम बात है। मुक्केबाजी में तो लंबे समय से गालियां बकना खेल का मानो हिस्सा सा ही रहा है। मुक्केबाजी के दौरान गालियां बकने के लिए विश्वप्रसिद्ध मुक्केबाज मुहम्मदअली (केसियस क्ले) मशहूर थे। टीम अन्ना के आंदोलन में भी अपशब्दों का प्रयोग हो चूका है। आजकल की फिल्मों में गालियां बेछूट दी जा रही हैं। यहां तक की फिल्मों के नाम तक अपशब्दों पर रखे जा रहे हैं, गानों में भी गालियों का प्रयोग धडल्ले से किया जा रहा है। 

उ.प्र. और म.प्र के कुछ क्षेत्रों में विवाह के अवसर पर औरतें अश्लील गीत गाती हैं जिसमें दुल्हा-दुल्हन को या उनके नाते-रिश्तेदारों को बेहद अश्लील उपमाओं से नवाजा जाता है। महाराष्ट्र के सांगली जिले की खंडाला तहसील के सुखेड और बोरी गांव में हर साल गाली देने का त्यौहार मनाया जाता है जिसमें दोनो गांवों की औरतें नागपंचमी के दूसरे दिन एक दूसरे को गालियां बकती हैं। जिसे ब्रिटिश शासन काल में 1940 में बलपूर्वक बंद करवा दिया गया था। बाद में यह प्रथा फिर से प्रारंभ हो गई थी और शायद वर्तमान में यह बंद है। जयपुर के गालीबाज तो मशहूर रहे हैं जिन्होंने गालियों को समाज सुधार का माध्यम बनाया था।

आजकल साहित्य में भी गालियों का प्रवेश यथार्थवाद के नाम पर हो गया है जो विवाद्य है। परंतु, राजनीति में गालियों के रुप में नई शब्दावली जरुर प्रविष्ट हो गई है। म.प्र. विधानसभा में भी इनका प्रयोग हो चूका है। इस संबंध में समाचार पत्रों के कुछ शीर्षक देखिए- 'हरामजादे" व 'साले" शब्द चुनाव संहिता के नजरिए से गलत नहीं", 'चोर, उचक्का, धूर्त, कमीना, गुंडी, गुंडों का सरदार, आदि। 

यह सब देख, पढ़-सुनकर ऐसा लगता है कि गांधीजी ने सौ वर्ष पूर्व (1909) संसदीय लोकतंत्र को वेश्या कहा था जिस पर बहुत हंगामा मचा था, ब्रिटिश महिलाओं ने इस पर बहुत हाय-तौबा मचाई, गांधीजी ने तीव्र प्रतिक्रिया को देखकर अंत में बांझ कहना अधिक उचित समझा, आज संसद की नाकारा बहस, संसद में होनेवाले हंगामे और अंततः या तो संसद का स्थगन या बहिष्कार देखकर लगता है कि गांधीजी ने कहीं सच ही तो नहीं कहा था।

Friday, November 28, 2014

हिंदुस्थान ही नहीं सारा विश्व ही परेशान है ढ़ोंगी गुरुओं की महामारी से
रामपाल की भयानक करतूतों का पर्दाफाश होने के बाद समाज में तीव्र प्रतिक्रिया हुई जो कि स्वाभाविक भी थी। कई लोग यह प्रतिक्रिया देते नजर आए कि ऐसे पाखंडी साधु-महाराज, पीर-फकीर अपने घिनौने कारनामे केवल इस देश में ही अंजाम दे सकते हैं। मानो विदेशों में ऐसे पाखंड फैलानेवाले संप्रदाय, धर्मगुरु हैं ही नहीं या ऐसा वहां कुछ होता ही नहीं है। यह एक बहुत बडी गलतफहमी है। अंधविश्वास, अंधश्रद्धा हर देश में व्याप्त है जो केवल कम या अधिक हो सकती है। दूर क्यों जाएं? हमारे पडौसी देश पाकिस्तान में ही पीरों ने गजब की उधम मचा रखी है। जो क्रूर, अमानवीय, अत्याचारी कुकर्मों द्वारा भयानक अंधेरगर्दी उन्होंने मचा रखी है वह जानना हो तो, तहमीना दुर्रानी की 'ब्लॉस्फेमी" पढ़ लें, रोंगटे खडे हो जाएंगे। 

तहमीना दुर्रानी पाकिस्तानी पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री मुस्तफा खर की आठवीं पत्नी थी और एक सुंदरी से विवाह करने के लिए तहमीना को खर ने तलाक दे दिया था। इन पीरों की करतूतों का विवरण तहमीना ने 'ब्लॉस्फेमी" में किया है। तहमीना की लेखनी के माध्यम से पीर की पत्नी बार-बार कहती है कि पीर अल्लाह का नाम लेकर खतरनाक शैतानों का जीवन जीता है। हालांकि यह सब एक उपन्यास की तरह लिखा गया है लेकिन तहमीना पाकिस्तान की ऐसी पहली लेखिका है जिसने इन पीरों का कच्चा चिट्ठा खोला है। ये पीर किस प्रकार राजनीति-सत्ताकेंद्रों को प्रभावित करते हैं और किस प्रकार पाकिस्तान के प्रधानमंत्री तक इन पीरों का आशीर्वाद लेने के लिए इनके डेरों पर जाते हैं यह सब हमें पता चलता है। यह पूरी पुस्तक पढ़कर जुगुप्सा ही पैदा हो जाती है कि  आखिर ये पीर इंसान हैं या शैतान। जो अपने विरोधियों को इस्लाम का दुश्मन बडी आसानी से करार देते हैं। अब तो कई पाकिस्तानी लेखक इन पीरों को बेनकाब करने के लिए आगे आ रहे हैं। परंतु, इन पीरों की दुकानें बदस्तूर जारी ही हैं। पाकिस्तान के कई अमीर, उद्योगपति, व्यापारी, जमींदार और मंत्री तक इन पीरों के अनुयायी हैं।

संप्रदायों के गुरुओं के इंफेक्शन से उन्नत, विज्ञान-बुद्धिवाद से लैस कहे जानेवाले पाश्चात्य देश तक पीडित हैं। स्वीटजरलैंड के आल्प्स पर्वतीय क्षेत्र के चेरी नामक गांव में अक्टूबर 1994 में चर्च जैसे दिखनेवाले एक फार्म हाउस से पुलिस ने जली हुई लाशें निकाली थी। कुछ के चेहरे प्लास्टिक की थैली में लपेटे हुए थे एवं कुछ को गोली मारी गई थी। 1994 से 1997 तक स्वीटजरलैंड के अलावा कनाडा के एक शहर में भी 74 लोगों ने अपनी जान दी। ये सभी 'ऑर्डर ऑफ सोलर टेंपल" नामक पंथ के सदस्य थे। इनमें कुछ आत्महत्याएं भी थी तो कुछ हत्याएं।

अमेरिका के केलिफोर्निया के 'हैवन्स गेट" इस संप्रदाय के 40 अनुयायियों ने इस शरीर से मुक्ति पाने के लिए अपनी जान दे दी जिससे कि वे आत्मा को एक अमर यात्रा पर ले जा सकें। कुछ पुरुषों ने तो वंध्याकरण तक करवा लिया था जिससे मृत्यु पश्चात उन्हें लिंगभेद से मुक्ति मिल जाए। टेक्सास राज्य के वाको शहर के समीप एक पशु पालन केंद्र को अमेरिकी सेना ने इस जानकारी पर कि यहां ईसाई धर्म के 'सेवन्थडे एडवेंस्टिस" पंथ से अलग होकर नया पंथ बनानेवाले और स्वंय को पापी परमेश्वर करार देनेवाले डेविड कोरेश और उनके शिष्य छुपे हुए हैं। डेविड का कहना था कि उसके संप्रदाय में शामिल होने के लिए कुंआरी युवतियों को शरीर संबंध स्थापित करना अनिवार्य है। वास्तव में ऐसे धर्मवादी नेता अपनी सम्मोहक सेक्स अपील से अनुयायियों को करीब-करीब ज्यों का त्यों वश में कर लेते हैं और वे असहाय हो उनके बताए रास्ते पर चल पडते हैं। सरकार को उसकी अश्लीलता पर पहले से ही संदेह था इसलिए सेना ने उसकी घेराबंदी कर दी। उसने अपने शिष्यों को बतलाया कि गोली और बम से मारे जाने पर वे सीधे 'स्वर्ग" जाएंगे। अंततः सारे के सारे 84 लोग गोलाबारी और बमबारी में मारे गए।

इसी प्रकार का एक और वाक्या गुआना में भी हुआ था जहां जिम जोन्स नामक व्यक्ति ने स्‌न 1955 में स्थापित 'पीपल्स टेंपल" में 18 नवंबर 1978 को उसने अपने समस्त शिष्यों को आत्मघात का क्रांतिकारी निर्देश दिया था। जिसका टेप मिला था। इस टेप में वह वार्तालाप था जिसमें उस सामूहिक आत्महत्या का जिक्र था जिसके द्वारा उन लोगों ने जहर पीकर या अन्य तरीके से आत्महत्याएं की थी। उनको प्रेरित करनेवाला व्यक्ति था जिम जोन्स जिसने उनसे कहा था कि हमें गरिमा के साथ मरना है। अनुयायियों के रोने पर उसने कहा ऐसे रोकर मरेंगे तो हमें सामाजिक कार्यकर्ता या साम्यवादी के तौर पर कभी भी याद नहीं किया जाएगा। इन वीभत्स लाशों के पाए जाने पर पूरी दुनिया में खलबली मच गई थी।

क्रिश्चनिटी में भी अनेक पंथ-संप्रदाय हैं। रेवरंड सून म्यूंग मून को उनके अनुयाय साक्षात ईश्वर मानते हैं। यह कोरियन ईसाई गुरु एक धार्मिक नेता होने के साथ मीडिया मोगल (प्रभावशाली व्यक्ति) भी है। इसके अनुयायियों को 'मूनीज" कहते हैं। अमेरिका के राष्ट्रपति जॉर्ज बुश की जीत का श्रेय भी इसने लिया है। यह संप्रदाय गुप्त रुप से काम करता है और खतरनाक रुप से दिमाग को नियंत्रित करनेवाले संप्रदाय के रुप में जाना जाकर इसके लाखों अनुयायी और इसके पास करोडों डालर हैं। इसी तरह का एक और चर्च है 'यूनिवर्सल एंड ट्रायफंट" (कट) (2जुलाई 1973) इस चर्च की संस्थापक है एलिजाबेथ क्लेअर प्रोफेट (पैगंबर) के प्रोफेट पति मार्क ने 'समीट लाइटहाउस" की स्थापना की थी जो अब 'कट" का ही अंग है। यह संप्रदाय चर्चा में तब आया था जब इसने  80 के दशक में परमाणु युद्ध की भविष्यवाणी की थी।

इस पंथ के बारे मेें प्रसिद्ध विज्ञान लेखक रान हबर्ड ने 1950 में एक पुस्तक लिखी थी जिसकी लाखों प्रतियां बिकी थी। उनका कहना है लाखों डालर्स कमाने का सबसे बढ़िया तरीका है नए धर्म की स्थापना करना। जिस प्रकार से पत्रकार, राजनेता, समाजसेवक बनने के लिए कोई योग्यता निर्धारित नहीं है, उसी प्रकार से 'गुरु" बनने के लिए भी किसी निर्धारित योग्यता की आवश्यकता नहीं है। धन कमाने का यह 'इंस्टंट" माध्यम है। अच्छा व्यक्तित्व, वाक्‌चातुर्य और थोडा सामान्य ज्ञान का होना गुरु बनने के लिए पर्याप्त है। अशिक्षित, अज्ञानियों के अलावा आज की इस भागमभाग भरी दुनिया में तनावों, मानसिक चिंताओं से त्रस्त लोग भी बहुत हैं और जिन्हें जहां कहीं भी थोडी शांति मिलने की संभावना नजर आती है वहां वे खींचे चले जाते हैं। बस इन गुरुओं को और इन चेलों को भी ऐसों की ही तो तलाश रहती है बस इस चक्कर में सभी मालोमाल हैं। 

उपर्युक्त कथित घटनाक्रमों पर से ऐसा नहीं कहा जा सकता कि सभी धर्मों में ऐसे ही शैतानी गुरु होते हैं। जो अपने शिष्यों-अनुयायियों का अवांछित शोषण विभिन्न तरीकों से करते हैं। अच्छे-बुरे लोग, धर्मगुरु और उनके अच्छे-बुरे कार्य भी हर धर्म में करनेवाले होते ही हैं। लेकिन इन राक्षस गुरुओं व इनके इन अवांछित क्रियाकलापों के कारण अच्छे जनहितैषी कार्य करनेवाले धर्मगुरुओं के कार्यों में जरुर बाधाएं उत्पन्न हो जाती हैं और शक्की मिजाज लोग इनके अच्छे कार्यों को भी गलत नजरों से देखने से बाज नहीं आते।
समाज को इन तथाकथित अवतारी और चमत्कारी गुरुओं से सावधान करने के लिए सन्‌ 1995 में दिल्ली में अंतरराष्ट्रीय रेशनलिस्ट कांफ्रेस भी हो चूकी है। जो जनता में जागरुकता लाने का कार्य कर रही है। वैसे भारत में वैदिककाल से ही वेद-उपनिषदों को माननेवाले तो लोकायतिक (चार्वाकवादी) दोनो ही रहे हैं। फिर भी हम अंधश्रद्धाओं में डूबे हुए हैं। समाज को हिला देनेवाले खुलासों द्वारा जो अवैज्ञानिक क्रियाकलाप और अंधश्रद्धाओं का उदात्तीकरण पूरे विश्व में चल रहा है की जानकारी देने के लिए हैरी एडवर्डस्‌ जो ब्रिटिश सिक्रेट एजेंसी में थे ने सन्‌ 2006 में एक पुस्तक 'स्केप्टिक्स गाईड" में 107 अध्यायों के द्वारा अंधश्रद्धाओं की अच्छी खबर ली है। इस पुस्तक के अंतिम अध्याय में लेखक के अंधश्रद्धा और वैज्ञानिकता के परिणाम इस विषय में प्रस्तुत विचार चिंतनीय होकर गहरी तंद्रा में लीन समाज की आंखे खोल देने के लिए पर्याप्त हैं। 

Saturday, November 22, 2014

बढ़ता ही जा रहा है ढ़ोंगी गुरुओं का तिलिस्म

लगभग दो सप्ताह चले अभियान और करोंडों रुपये खर्च होने के बाद तथाकथित गुरु रामपाल महाराज ने पुलिस के सामने आत्मसमर्पण कर दिया और उसे राष्ट्रद्रोह, हत्या आदि सहित कई धाराओं के तहत गिरफ्तार कर न्यायालय में पेश करने के पश्चात जेल भेज दिया गया है। इसी के साथ फिर से ढ़ोंगी साधुओं, बाबाओं, महाराजाओं, गुरुओं के कारनामे चर्चा में आ गए। आश्चर्य है कि 21वीं सदी में जहां विज्ञान चरम की ओर बढ़ रहा है वहीं इन नकली गुरुओं की देश में बाढ़ सी आ गई है।

किसी समय जिनके बडे जलवे हुआ करते थे लेकिन बाद में जिनको जेल यात्राएं करना पडी, कुछ तो अभी भी जेल में ही हैं, ऐसे तथाकथित धर्मगुरुओं के चित्रों सहित उनके कारनामों का स्मरण भी मीडिया नेे मौके का फायदा उठाकर लगे हाथ हमें करवा दिया। जैसेकि आसाराम, चंद्रास्वामी, बाबा रामरहीम आदि। अब समाचार पत्रों में रामपाल के कुकर्मों, उसकी संपत्ति, उसके आश्रम में पाई गई अय्याशी की सामग्रियों के बारे में जमकर छापा जा रहा है। सवाल यह उठता है कि इन गुरुओं, बाबाओं ने जो स्वंय परमेश्वर होने का दावा करते हैं ने अपना साम्राज्य एक रात में तो फैला नहीं लिया! अब रामपाल सहित जिन बाबाओं के समाचार  छापने की होड सी मची है। जब अपने पाखंड का जाल फैलाकर अपनी ताकत बढ़ा रहे थे उस समय तो सभी चुप्पी साधे बैठे रहे।

वास्तव में इन ढ़ोंगी महाराजाओं के पीछे होता है दादा (माफिया), पूंजीपति, स्वार्थी-सत्तालोलुप राजनेताओं का समर्थन और जब अति हो जाती है तथा इन गुरुओं का बचाना असंभव सा हो जाता है या इस चौकडी में फूट पड जाती है तभी वास्तविकता सामने आने लगती है। यह सोच पूरे समाज में पूरी तरह से व्याप्त है अन्यथा तो क्या मीडिया और क्या बुद्धिजीवी एवं जनता के समझदार लोग सब डर, स्वार्थ और हमें क्या की मानसिकता के चलते जानकर भी अनजान बने रहते हैं। कई बार तो मीडिया के बहुत बडे वर्ग का हित भी इस गठजोड से सधते रहता है यह भी एक कारण है।

भारत की धर्मभीरु जनता (शिक्षित-अशिक्षित दोनो ही) अज्ञान, अंधविश्वास, अंधश्रद्धा के जाल में बुरी तरह फंसी हुई है। गांव-गांव में भूतबाधा, असाध्य बीमारियों के इलाज, गुप्तधन प्राप्ति, मनचाही संतान की चाह एवं कई कुरीतियों के नाम पर अनेकानेक ढ़ोंगी साधु-बाबा-तांत्रिक अमानवीय क्रूरकर्म, नरबलि सहित इनके साथ करते रहते हैं। जिनके कारनामे पकड में आने पर समय-समय पर छपते ही रहते हैं। लोगों को फुसलाने के लिए अधिकांशतः ये ढ़ोंगी चमत्कार दिखलाने के साथ ही मुफ्त रहवास, उनके संप्रदाय में रोजगार के नाम पर सेवा-चाकरी और प्रचार का काम करवाते हैं एवं मुफ्त भोजन-भंडारे का भी सहारा लेते हैं।  दकियानूसी विचारों के पीलिया से अनेक वर्षों से ग्रस्त हमारे समाज में हो चूके अनेक समाज सुधारकों के डोज हजम नहीं हुए तभी तो आज परमाणु युग में भी जनता का झुकाव विध्वंसक, घातक अंधश्रद्धाओं की ओर ही है।

इन अंधश्रद्धाओं और ढ़ोंगी बाबाओं के तिलिस्म में फंसे लोगों का मजाक उडाने, उन पर तरस खाने की अपेक्षा सामाजिक दृष्टि से घातक अंधश्रद्धाओं के संहार के लिए विज्ञानवादी, तार्किक-बुद्धिनिष्ठ, विवेकशील दृष्टिकोण की जडें समाज में जमाना आवश्यक है। इसके लिए जनशिक्षा और सामाजिक प्रबोधन पर बल देना होगा। शैक्षणिक पाठ्यक्रम में शास्त्रीय विश्लेषण सीखानेवाली चिकित्सक प्रवृत्ति निर्मित करने, उसको बढ़ावा देने पर बल देना पडेगा(उदाहरण के लिए प्रेमचंद की कहानियां)। देश के विकास एवं प्रगति के लिए अंधश्रद्धा निर्मूलन आवश्यक है चाहें तो इसके लिए कानून बनाएं और समाज को इन ढ़ोंगी गुरुओं, बाबाओं से बचाना समय की मांग है। इस संबंध में यह कहावत बहुत सटीक है जो नारु उन्मूलन के दौर में सरकार ने प्रचारित की थी - 

'पानी पीयो छान के, गुरु करो जान के।""

Tuesday, November 18, 2014

विश्व शौचालय दिवस विशेष 19 नवंबर
जीवन के अभिन्न अंग हैं ः शौचालय एवं स्वच्छता 
 
शौचालय के महत्व, उसकी आवश्यकता, कमी एवं इसके प्रति उपेक्षा को देखते हुए इस समस्या के प्रति लोगों का ध्यान आकर्षित हो इसके लिए 19 नवंबर को विश्व-शौचालय दिवस मनाने का निर्णय संयुक्त राष्ट्र संघ ने लिया है। भारत में तो यह विषय सर्वाधिक उपेक्षित था लेकिन पिछले कुछ वर्षों में इस गंभीर समस्या की ओर सरकारों का ध्यान गया है और पहले जयराम रमेश और फिर प्रधानमंत्री बनने के बाद मोदी ने स्वच्छता एवं शौचालय इस विषय को 15 अगस्त को लाल किले से भाषण देते समय उठाकर सर्वाधिक चर्चित कर दिया है। 

फिर मोदी ने 2 अक्टूबर गांधी जयंती पर स्वच्छ भारत का अभियान छेड इस मुद्दे को जन चर्चा का विषय बना लोगों को जागरुक बनाने का अभियान 9 लोगों को जोडो कर कर दिया और इसका अच्छा प्रतिसाद सेलेब्रिटिज की ओर से भी आया है। वैश्विक हस्ती बिल गैट्‌स ने भी मोदी की शौचालयों की प्रतिबद्धता के लिए अपने ब्लॉग पर भूरी-भूरी प्रशंसा की है। वैसे इसके परिणाम आने में समय लगेगा अभी हाल फिलहाल तो कोई विशेष फरक नजर आया नहीं है। क्योंकि इस विषय में सर्वाधिक बडी बाधा स्वयं जनता ही है और जब तक उसकी मानसिकता नहीं बदलेगी तब तक भरपूर सफलता मिलना असंभव सा ही है। 

इसके उदाहरण स्वरुप पंजाब के सामुदायिक शौचालयों का उल्लेख किया जा सकता है जिनका निर्माण तो कर लिया गया परंतु, उपयोगकर्ता ही गायब हैं। महाराष्ट्र में भी लाखों शौचालय बने हैं और इतने ही गायब भी हैं, क्योंकि कइयों का उपयोग तो ग्रामीण जन भूसा रखने के लिए कर रहे हैं। कई सार्वजनिक शौचालयों की दुर्दशा, दुरुपयोग, टूटफूट तो साधारण बात है। परंतु, हद तो तब हो जाती है जब कार्यालयों में मालिकों या अधिकारियों को उनके वाश रुम के दुरुपयोग, दुर्दशा की शिकायतें मिलती है और सफाई कर्मी आकर शिकायत करते हैं कि अपने कर्मचारियों को शौचालयों का उपयोग करना तो सीखाइए। इस मामले में तो शिक्षित-अशिक्षित दोनो ही एक समान हैं। एक परामर्शदाता अभियंता के कार्यालय में जो स्वयं अपने शौचालयों की स्वच्छता का मुआयना करते हैं के अनुसार उन्होंने उनके कार्यालय में स्वयं एक इंजीनिअर को वाशबेसिन में तम्बाखू-सुपारी थूकते रंगे हाथों पकडा उनका कथन है कि जो सफाईकर्मी इस गंदगी को हाथ से साफ करता है क्या वह इंसान नहीं है? हालात यह हैं कि लोग डस्टबीन और पीकदान में फर्क ही नहीं समझते और डस्टबीन में ही थूक देते हैं यह भी एक कार्यालय और दुकानदार की शिकायत मैंने सुनी है। 

इसी समय यह बतला देना उचित होगा कि किसी भी व्यक्ति को घिन जो आती है वह गीली गंदगी की किंतु, कई लोग जो बडे जोर-शोर से सडकों पर कचरा उठाते, सफाई करते फोटो छपवा रहे हैं वे केवल सूखा कचरा उठाते ही नजर आते हैं, गीला नहीं। जबकि मोदी ने दिल्ली के पुलिस स्टेशन पर स्वच्छता की थी उसमें गिली गंदगी भी थी। कचरे की ही जब बात चली है तो इंदौर के एमटीएच कंपाउंड में सेंट्रल कोतवाली के पीछे स्थित सरकारी मकानो की हालत यह है कि उनकी खुली नाली में मल तैरते हुए मिल जाएगा और कचरे का ढ़ेर अलग ही है। जबकि सामने ही स्वास्थ्य विभाग का कार्यालय भी है, निकट ही प्रेस क्लब भी है।

लोगों की मानसिकता बयान करने के लिए एक और उदाहरण है स्कीम 78 नं का। वहां स्थित एक प्लाट खाली पडा है जहां लोग कचरा फैंक जाते हैं वहां का जागरुक पार्षद अवश्य समय-समय पर कचरा गाडी भेजकर कचरा उठवाता रहता है लेकिन लोग ऐसे हैं कि कचरा उठते समय कचरा न तो कचरा गाडी में डालते हैं न ही उस स्थान पर जहां कचरा उठाया जा रहा है। वे कचरा उस स्थान पर डालते हैं जो साफ हो चूका है वह भी निगम कर्मियों के सामने ही और इसी प्रकार के लोग नगर निगम को आगे बढ़कर कोसते नजर आ जाएंगे। इस प्रकार के दृश्य कहीं भी देखे जा सकते हैं।

कुछ लोगों का कथन है कि यदि स्वतंत्रता प्राप्ति के समय से ही स्वच्छता अभियान चलाया जाता तो शायद स्थिति वह ना होती जो आज नजर आ रही है। कहने को तो यह कथन बडा आकर्षक लगता है परंतु, इस संबंध में मेरा कहना यह है कि उस काल की परिस्थितियों पर तो गौर करें। उस समय जातिवाद चरम पर था, लोगों की शिक्षा दर मात्र 18 प्रतिशत थी और लोगों की मानसिकता यह थी कि सफाई कार्य करना सफाई कर्मियों का ही काम है। आज भी इस संबंध में मानसिकता कुछ विशेष बदली नहीं है भले ही शिक्षा का प्रतिशत बढ़कर 74 हो गया है। इस कारण इस तरह की बातें करना व्यर्थ सा ही लगता है। (गांधीजी और उनके शिष्यों ने जरुर इस संबंध में उल्लेखनीय कार्य किया जो एक अलग लेख का विषय है) हां एक प्रगति अवश्य हो गई है वह है विभिन्न शब्दों के प्रयोग की- संडास, लेट्रिन से होते हुए टॉयलेट और अब वॉशरुम कहलाने लगे हैं बस। शौचालय शब्द का प्रयोग तो आमजनता कम ही करती है और यह तो समाचार पत्रों में प्रयुक्त किए जानेवाला शब्द है एवं स्वच्छता गृह शब्द तो लगभग चलन में ही नहीं है। 

हमारी नगरपालिकाओ की नीति शौचालयों-मूत्रालयों के संबंध में कुछ ऐसी है कि वे स्वयं होकर इनका निर्माण करने में अग्रणी नहीं होते जब समस्या गंभीर हो जाती है, जनता त्रस्त हो जाती है, समाचार पत्रों में समाचार छपने लगते हैं या किसी क्षेत्र विशेष के रहवासी अश्लीलता, गंदगी एवं दुर्गंध से बेजार हो जाते हैं और जनता आंदोलन पर उतारु हो जाती है तब जाकर कहीं इनके निर्माण की ओर इनका ध्यान जाता है। वास्तव में शौचालयों का निर्माण आबादी के मान से किया न जाकर इसमें भी तुष्टीकरण की नीति अपनाई जाती है। जहां 10 की आवश्यकता है वहां दो का ही निर्माण कर तुष्ट करने की कोशिश की जाती है। बरसों से यही सिलसिला चला आ रहा है। शहरों की आबादी बढ़ती ही चली जा रही है, मूत्रालयों की आवश्यकता भी उसी अनुपात में बढ़ रही है परंतु, कई वर्षों से उनके विस्तार की ओर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया है (अक्सर बडे शहरों एवं घनी आबादीवाले क्षेत्रों जैसकि बस, रेल्वे स्थानकों आदि पर लोग कतारों में खडे दिख पड जाते हैं) बल्कि जो हैं उनमें से भी कई को गायब कर दिया गया है। निर्माण भी अव्यवस्थित ढ़ंग से होता है कहीं-कहीं तो ढ़ाल उल्टा ही दे दिया जाता है, पार्टीशन की ऊंचाई रखते समय सामान्य बुद्धि तक का प्रयोग नहीं किया जाता। कहीं ड्रेनेज ही नहीं है फिर भी निर्माण और उपयोग भी प्रारंभ कर दिया जाता है, कहीं व्यापारी अपने लाभ के लिए उन्हें तोड देते हैं, उन पर अतिक्रमण कर लेते हैं। लगता है मूत्रालयों के निर्माण का कोई मानकीकरण ही नहीं किया गया है। यह भी देखने में आ रहा कि रेल्वे जो अपने निर्माण में गुणवत्ता का ध्यान रखता है वहां भी अब शौचालयों के निर्माण में गुणवत्ता उपेक्षित हो गई है जबकि बातें बॉयो टॉयलेट की की जा रही हैं।

शौचालयों से जुडी और भी कई समस्याएं जिनका निराकण भी आवश्यक है जैसेकि 2019 तक लक्ष्य पूर्ति कैसे होगी? हम इतनी सीवरेज और सीवर शोधन यंत्र व्यवस्था किस प्रकार से कर सकेंगे, फ्लश के लिए पानी कहां से आएगा, आदि? कई स्थानों पर तो ढूंढ़े से भी शौचालय मिलते ही नहीं। जो बने भी हैं वे टूटे-फूटे पडे हैं उनकी सुध लेनेवाला कोई नहीं। सबसे बडी बात यह है कि इस संपूर्ण चर्चा में केवल उपयोगकर्ता और निर्माण की ही बात की जा रही है परंतु, सफाईकर्मियों का पक्ष तो उपेक्षित, अनुल्लेखित ही है कि इतने प्रशिक्षित सफाईकर्मी आएंगे कहां से? वैसे सुलभ इंटरनेशल के बिंदेश्वर पाठक ने इस संबंध में सहायता का प्रस्ताव रखा है। फिर भी यह प्रश्न बचा ही रहता है कि इन सफाईकर्मियों को पर्याप्त सुरक्षा साधन भी तो लगेंगे, जो फिलहाल कार्यरत सफाईकर्मियों को ही उपलब्ध नहीं हैं तो, भविष्य के लाखों लगनेवाले सफाईकर्मियों को कहां से उपलब्ध हो पाएंगे और क्या यह काम जो लोग जन्मजात कर रहे हैं क्या वे ऐसे ही आजीवन करते रहेंगे?

 इस संबंध में उल्लेखनीय कार्य किया था अप्पा पटवर्धन ने जिन्हें कोंकण (महाराष्ट्र) का गांधी कहा जाता है जिन्होंने 'ब्राह्मण भंगी प्रभु संतान; सफाई पूजा एक समान" की घोषणा देते हुए मालवण में सफाई काम किया था। अप्पा के आत्मचरित्र 'माझी (मेरी) जीवन यात्रा" (कुल पृ. 740) की प्रस्तावना में काका कालेलकर लिखते हैं ः ''अस्पृश्यता-निवारण में भी अंत्योदय का तत्त्व स्वीकारना चाहिए, ऐसा कहनेवाला हमारा एक पक्ष है। और इसके लिए कम से कम मैला उठानेवाली जाति से पाखाने का काम छुडवाना ही चाहिए ऐसा कार्यक्रम भी सुझाया गया है। इस मामले में अप्पा ने अपने प्रयत्नों का चरम गांठा है।"" इसके लिए अप्पा ने स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात 'संडास-मूत्रालयों के नए-नए प्रयोग किए थे।" विनोबा भावे के शब्दों में 'हम दोनो महात्मा गांधी के आश्रम में थे। वे सफाई का काम करते थे और शिक्षक भी थे।" चूंकि उनके कार्य का जो महत्व है वह अलग से देना ही योग्य होगा इसलिए लेख को यहीं विराम देता हूं।

Saturday, November 15, 2014

इस्लाम एक बाह्याचारी धर्म ! !

मुसलमानी धर्म के पांच बाह्यांग हैं - नमाज, संगठन (उम्मा), धार्मिक दृष्टि से निषिद्ध वस्तुओं का त्याग, कुरान पठन और मक्का की यात्रा (हज)। बदलते समय के साथ मुसलमान इस संबंध में शिथिल होते चले गए हैं किंतु, बाह्याचार को आवश्यकता से अधिक महत्व देना कम नहीं हो सका है और अब वे इन उपर्युक्त बाह्यांगों पर अधिक बल देने के स्थान पर दाढ़ी, टोपी, बुरका, टखनों के ऊपर तक का पायजामा और घुटनों के नीचे तक का कुर्ता पहनने पर जोर देने लगे हैं फिर भले ही वे कितने भी अजीब क्यों ना दिखाई दें। 

यहां तक तो ठीक है परंतु, समस्या तब पैदा होती है जब वे अपना यह बाह्याचार दूसरों पर थोपने की कोशिश करते हैं जैसेकि  कुछ माह पूर्व एक मौलाना द्वारा सार्वजनिक रुप से मोदी को टोपी पहनाने का प्रयास करना। इसी प्रकार से सन्‌ 1992 में केरल के त्रिचूर जिले के थ्रिसूर कस्बे में कैथलिक ईसाइयों द्वारा संचालित एक स्कूल में जिसमें 1700 से अधिक छात्र थे। जो मुस्लिम छात्र परीक्षा परिणाम संतोषजनक दे नहीं सके थे टोपी पहनकर स्कूल आ गए। इसे गणवेश के नियमों का उल्लंघन मान स्कूल प्रशासन द्वारा टोपी पहन कक्षा में ना बैठें या कक्षा से बाहर चले जाएं कहा। छात्रों द्वारा ना मानने के कारण स्कूल बंद कर दिया गया। स्कूल के हेडमास्टर और मैनेजर को सिर काटने की धमकी वाले पत्र भी भेजे गए। इन मुस्लिम छात्रों को टोपी पहनकर कक्षा में बैठने की अनुमति देने पर शेष छात्रों ने बहिष्कार कर दिया था और एक लंबे समय तक स्कूल बंद रहा था।

इसी से मिलते जुलते विवाद भारत ही नहीं अन्य देशों में भी मुस्लिमों द्वारा शैक्षणिक या अन्य संस्थानों या कामकाजी एवं सार्वजनिक स्थानों पर कभी बुरके तो कभी दाढ़ी पर से खडे किए जाते हैं। बुरके से इस्लाम की पहचान को जोडना या उसे शरीअत का स्तंभ मानना, फोटोयुक्त पहचान पत्र पर बेजा बहस करना, शर्तें डालना दकियानूसीपन है, कट्टरता है। यहीं नहीं इस दकियानूसीपन, कट्टरता के चरम का प्रदर्शन पश्चिमी देशों में भी किया जा रहा है। जो ब्रिटिश मुस्लिम सांसद के संस्थापक अध्यक्ष डॉ. कलाम सिद्दीकी के हिजाब पर के कथन से पता चलता है वे कहते हैं ''जब हम पुरुष सडक पर चलते हैं तो हम भीड का हिस्सा मात्र होते हैं। जब हमारी महिलाएं हिजाब पहनकर सडक पर चलती हैं तो अपने साथ इस्लाम का झंडा लिए चलती हैं। वे एक राजनीतिक उदघोष करती हैं कि यूरोपीय सभ्यता हमें अस्वीकार्य है, कि यह एक रोग है, मानवता के लिए महामारी है। वे एक प्रकार से जेहाद का उदघोष करते चलती हैं।""(हिंदू वॉइस जुलाई 2007 पृ.13)  आखिर यह सब क्या दर्शाता है यही ना कि इस्लाम एक दिखावे का, बाह्याचारी धर्म है। 

यह बाह्याचार पर जोर मात्र अपनेआपको दूसरे धर्मावलंबियों से अलग दिखाने के लिए है। उदाहरण के लिए इस हदीस को देखें - मूंछ और दाढ़ी के बारे में पैगंबर कहते हैं ''बहुदेववादियों से उल्टा काम करो - मूंछे बारीक छांटों और दाढ़ी बढ़ाओ।"" इस हदीस का मंडन करते हुए हदीस के अनुवादक कहते है ः ''इस्लाम ने आस्था और सदाचार के आधार पर एक नया भाईचारा रचा। ... चेहरों की पहचान के लिए मुसलमानों को हुक्म दिया गया है कि वे मूंछे छांटें तथा दाढ़ी बढ़ाएं, जिससे कि वे उन गैर-मुस्लिमों से अलग दिखें जो दाढ़ी साफ रखते हैं और मूंछें बढ़ाते हैं। बालों को रंगने के बारे में पैगंबर कहते हैं ः यहूदी एवं ईसाई अपने बाल नहीं रंगते, इसलिए इसका उल्टा करो।" यहां तक कि नमाज के लिए अजान यानी नमाज के लिए बुलावा का तरीका भी यहूदियों, ईसाइयों एवं अग्निपूजकों से मुसलमानी व्यवहार को अलग बनाने के लिए पुकारने की व्यवस्था प्रचलित की गई।  

इस सब के संबंध में 'हदीस के माध्यम से इस्लाम का अध्ययन" इस पुस्तक में पृ. 200,1 पर 'अंर्तमुखी भावना का अभाव" शीर्षक तले रामस्वरुप लिखते हैं - ''पैगंबर मुहम्मद की आचार संहिता में अंर्तमुखी भावना का भी अभाव है। उस संहिता में इस सत्य का संकेत तक नहीं मिलता कि मनुष्य का बाह्याचार उसके विचारों तथा उसकी आकांक्षाओं से उद्‌भूत होता है, और उसके विचार तथा उसकी आकांक्षाएं उसके अहंभाव तथा उसकी अविद्या में जड जमाए हुए हैं। यह माना कि पैगंबर से कई सौ साल पूर्व ही मध्य एशिया में बौद्ध धर्म का प्रसार हो चूकने पर भी पैगंबर मुहम्मद भारतीय योग पद्धति से अपरिचित रहे। किंतु जिस सामी परंपरा से उनका परिचय था और जिसको अनेक अंशों में उन्होंने अपनाया था, वह परंपरा अंर्तमुखी भावना से अपरिचित नहीं थी। उस परंपरा के ईसा मसीह ने उपदेश दिया था कि 'दुष्ट विचार, हत्या, व्यभिचार, झूठी गवाही और देवनिंदा का उदय 'ह्रदय में होता है।" किंतु पैगंबर मुहम्मद ने ईसा मसीह से कुछ नहीं सीखा। यह कहना पडेगा कि पैगंबर ने एक बाह्याचारी मजहब की स्थापना की। 
अंतर को शुद्ध किए बिना किसी श्रेष्ठ सदाचार की सृष्टि नहीं हो सकती। मजहबी निष्ठा कभी भी अंतर की शुद्धि, आत्मबोध और अंतर के सुसंस्कार का स्थान नहीं ले सकती। अशुद्ध ह्रदय तो मनुष्य की तृष्णा, हिंसा वृत्ति तथा कामुकता को ही आवृत कर पाती है। अशुद्ध ह्रदय निष्ठा का बाना ओढ़कर एक अल्लाह नामधारी ऐसे पिशाच की पंथमीमांसा ही प्रस्तुत कर सकता है जो काफिरों के खून का प्यासा रहता है। अशुद्ध ह्रदय में जिहाद, लूटखसोट और कर संग्रह की भूख ही भरी रहती है।

जहां दार्शनिक चिंतन का अभाव है और अंतर को सुसंस्कृत बनाने का अभ्यास नहीं किया जाता, वहां उदात्त भावों का उदय हो ही नहीं पाता। ऐसा मजहब हमारे ऊपर एक बाह्याचार ही लाद सकता है, और बाह्याचार के विरुद्ध हमारे अंतर में अनास्था और विद्रोह रहते हुए भी हमें उसका पालन करने के लिए विवश करता है।""  

यह कथन इसी बात को पुष्ट करता है कि इस्लाम एक बाह्याचारी धर्म बनकर रह गया है और जब तक मुसलमान अंतर्मुखी हो इस बात पर गौर नहीं करते और आचरण में नहीं लाते कि, पैगंबर ने मक्काकाल में हीरामठ (गुफा) में बैठकर जो चिंतन मनन किया था वह शांति और ज्ञान प्राप्ति के लिए ही किया था और जो कुरान की पहली पांच आयतें उन्हें प्राप्त हुई थी उसका पहला वाक्य ही है 'इकरा" अर्थात्‌ पढ़, पैगंबर की एक हदीस है 'ज्ञान प्राप्ति के लिए चीन भी जाना पडे तो जाओ", इस्लाम एक बाह्याचार पर जोर देनेवाला धर्म ही बना रहेगा। 

Thursday, October 30, 2014

छोडें मोदी का अंधविरोध और अंधश्रद्धा भी

नरेंद्र मोदी इस समय भारतीय राजनीति का ऐसा चर्चित चेहरा हैं जिसका डंका ने केवल देश में अपितु विदेशों में भी बज रहा है।  जिन्होंने अपने तौर-तरीकों, सूझबूझ और कार्यपद्धति से स्थापित राजनीति की मान्यताओं को ही बदल दिया है। लोकसभा चुनाव की अभूतपूर्व विजय के बाद जब उन्होंने सत्ता संभाली तब कुछ समय तक वे और उनके मंत्रीमंडल के सदस्यों ने चुप्पी सी साध ली थी। तब उनका मजाक उडाया जाने लगा कि मनमोहन तो अकेले ही मौनी बाबा थे लेकिन अब तो मोदी से लेकर उनके सारे मंत्री भी मौनी बाबा बन गए हैं। और अब जब मोदी मुखर हो गए हैं तो आलोचना की जा रही है कि पहलेवाला प्रधानमंत्री तो बोलता ही नहीं था और यह प्रधानमंत्री है कि बोलता ही चला जा रहा है। एक चर्चा यह भी की जा रही है कि इस प्रधानमंत्री ने तो एक नया ही धंधा चालू कर दिया है पहले खुद विदेश जाना फिर विदेशी मेहमानों को देश में बुलाना और रोज भाषण ठोकते फिरना। मतलब यह कि मोदी कुछ भी करें या ना करें वे चर्चा में बने ही रहते हैं। वैसे यह भी एक बडी उपलब्धी ही है कि एक लंबे समय तक बिना कोई पत्रकार वार्ता किए ही वे हमेशा हॉट टॉपिक बने रहे हैं।

कुछ लोग उनके हर कार्य को ही शक की नजर से देखने के आदि हैं। वे कुछ भी करें वे आलोचना करने में ही लगे रहते हैं। तो, कुछ लोग इतना भी करने की जहमत उठाना नहीं चाहते। वे तो सिर्फ आलोचना करने में ही व्यस्त रहते हैं। कुछ लोग उन्हें मुस्लिम विरोधी बताने में ही अपनी सारी ऊर्जा खर्च करते रहते हैं इसके लिए उनके पास सबसे बडा आधार होता है गोधरा कांड का। अब उन्हें एक नया आधार और मिल गया है कश्मीर का कि वे वहां दीपावली पर ही क्यों गए? ईद पर क्यों नहीं? यह लोग इस बात को समझ ही नहीं रहे हैं कि इस समय कश्मीर के बाढ़ पीडितों को आवश्यकता है उसकी जो उनकी पीडा को समझें, उन्हें सांत्वना दे और यही तो प्रधानमंत्री मोदी ने किया है। ये शकी, रात-दिन आलोचना करने में लगे लोग यह समझ ही नहीं रहे हैं कि इन हरकतों से वे अपरोक्ष रुप से मोदी ही की सहायता कर रहे हैं, उन्हें लाभान्वित कर रहे हैं और स्वयं को हार के मार्ग पर ले जा रहे हैं।

यदि उन्हें मोदी से इतनी ही खुन्नस है तो उन्हें चाहिए कि वे निरी आलोचना करते बैठे रहने की बजाए मोदी के भाषणों-वक्तव्यों-कार्यों का तथ्यात्मक विश्लेषण करें। उसमें की कमजोरियों को उजागर करें। यदि उन्हें लगता है कि उनके भाषणों-वक्तव्यों में अतिरेक है, कोई असत्य है तो उन्हें जनता के सामने लाएं साथ ही योग्य विकल्प भी प्रस्तुत करें अन्यथा मोदी तो इसी प्रकार से बडी-बडी घोषणाएं, कार्ययोजनाएं बडे-बडे मेगा शो के माध्यम से करते ही रहेंगे और जनता में अपनी पैठ मजबूत करते ही रहेंगे और ये आलोचक अगली हार के लिए फिर से शापित रहेंगे।

इन उपर्युक्त के अलावा एक बहुत बडा वर्ग मोदी के अंधश्रद्धों का भी है जिनका एक सूत्री कार्यक्रम यही चलता रहता है कि मोदी के भाषणों की कैसेट इधर-उधर बजाते फिरना। इसके बाद जो समय बच जाता है उसका सदुपयोग ये लोग कांगे्रस की आलोचना में लगा देते हैं। उनकी आलोचना का रुख कुछ इस प्रकार का रहता है कि मानो कांग्रेस ने पूरे देश का सत्यानाश ही फेर दिया है और जो कुछ अच्छा दिख रहा है उसकी शुरुआत मानो मोदी के आने के बाद ही हुई है और जो कुछ भी कमीपेशी नजर आ रही है उसकी जिम्मेदार कांग्रेस ही है। इन दोनो ही पक्षों का हाल यह है कि ये दोनो ही आपको अपने पक्ष में ही देखना चाहते हैं, तटस्थता की कोई गुंजाईश ही नहीं छोडी जाती वर्ना .... यह सब देख सुनकर माथा पीट लेने का जी करता है। 

मेरा इन अंधश्रद्धों से कहना है कि अपनी सारी ऊर्जा उपर्युक्त कार्य में नष्ट करने की बजाए वे अपनी कुछ ऊर्जा मोदी के स्वच्छ भारत के अभियान में लगाएं। गांधीजी के तो कई अनुयायी आजीवन सार्वजनिक स्वच्छता के काम में जुडे रहे थे। मुझे तो अभी तक  केवल एक ही मोदी भक्त (जिनसे मैं परिचित भी हूं) नजर आया है जो टीव्ही पर आनेवाले विज्ञापन एकला चालो एकला चालो एकला चालो रे की तर्ज पर अपने घर के अंदर ही नहीं तो बाहर अपने घर के आसपास भी स्वच्छता करते नजर आता है। वह भी बिना किसी प्रचार या स्वार्थ के। 

वैसे भी इस बात से कोई भी इंकार नहीं कर रहा है कि मोदी ने देशवासियों के मन में आशा की किरण जगाई है, वे देश से निराशा का वातावरण दूर करने में भी कुछ हद तक सफल रहे हैं। परंतु, यह भी सच है कि कृषि क्षेत्र के हालात बदतर हैं, बाजारों में सन्नाटा छाया हुआ है, आर्थिक हालात अभी भी गंभीर बने हुए हैं के समाचार छप रहे हैं, आगे की राह कठिन है। बेहतर होगा कि शांत रहकर संतुलित प्रतिक्रियाएं जाहिर करें, मोदी के कार्यों का मूल्यांकन करने का अभी समय आया नहीं है, कुछ राह देखिए, जो कुछ वे कर रहे हैं उनका परिणाम तो आने दीजिए - जिसमें समय लगना स्वाभाविक है।  

Monday, October 27, 2014

आइएस द्वारा इराक में इस्लाम का इतिहास ही दोहराया जा रहा है

भारत, यूरोप से लेकर अमेरिका तक के युवा इनमें कई युवतियां भी शामिल हैं जिस रफ्तार से अल बगदादी और उसके आतंकी  संगठन आइएसआइएस की ओर आकर्षित हो रहे हैं उससे इस समय सारा विश्व आतंकित और भयभीत है। बगदादी के आइएस (इस्लामिक स्टेट) ने जिस बर्बरता से इराक के तिरकित शहर में 1700 लोगों को सामूहिक रुप से मौत के घाट उतार दिया उसके दिल दहला देनेवाले वीडियो इंटरनेट पर लोड किए गए हैं। इसके अलावा इस संगठन द्वारा ब्रिटिश नागरिक एलन हैनिंग, राहतकर्मी डेविड हेंस, अमेरिकी पत्रकार जिम फोली, अमेरिकी इजराईली पत्रकार स्टीवन स्कॉटलाफ के सिर कलम करने के भी वीडियो, चित्र प्रकाशित हो चूके हैं। जिन्हें सर कलम करते समय केशरिया (भगवा) कपडे पहनाए गए हैं। भले ही इस इस्लामी स्टेट के विरुद्ध सब लोग एकजुट हों इसका आवाहन किया जा रहा है, अमेरिका निर्णायक कारवाई की बात कर रहा हो परंतु, यह सब जो कुछ भी आइएस द्वारा किया जा रहा है इसके पूर्व भी अरब भूमि में दोहराया जा चूका है। इसका गवाह इस्लाम का इतिहास है जिसे सारी दुनिया शायद विस्मृत कर चूकी हो। परंतु भारत के लोगों को तो इसका ज्ञान भी होगा क्या इस संबंध में शंका ही है। अतः लोगों को इस इतिहास का ज्ञान हो इसके लिए वह इतिहास यहां लिखना पड रहा है।

हजरत मुहम्मद ने अपने अपने जीवन के मदीनाकाल खंड के दस वर्ष के दौरान कुल 82 लड़ाइयां लड़ीं, उन्हीं में से एक महत्वपूर्ण लड़ाई ''खंदक युद्ध'' के नाम से प्रसिद्ध है, जिसका 1400 वां (हिजरी) स्मृति दिन सन्‌ 1985 में धूमधाम से मनाया गया था। इस लड़ाई में मूर्तिपूजकों पर विजय संपादन के बाद ''जिब्रैल के जरिये अल्लाह का हुक्म पाकर पैगंबर मुहम्मद कुरैजा (मदीना का यहूदी कबीला) के किले के पास जा पहुंचे, जहां कबीले के सब लोगों ने पनाह ली थी। वे उनसे बोले 'ऐ बंदरों और सूअरों के भाईबंदों! हम आ गए हैं। अल्लाह ने तुमको जलील किया है और अपना कहर तुम पर नाजिल किया है।" रसूल ने पच्चीस रातों तक उनको घेरे रखा, जब तक कि वे टूट ना गए और अल्लाह ने उनके दिलों में दहशत पैदा न कर दी।" उन्होंने बिना शर्त समर्पण कर दिया और वे बंदी बना लिए गए। ('हदीस के माध्यम से इस्लाम का अध्ययन" पृ. 120) हदीसों और पैगंबर के प्रामाणिक जीवन चरित्रों में इन कैदियों के भाग्य का बखान उल्लासपूर्वक किया गया है। हम यहां विलियम म्यूर की किताब 'लाइफ ऑफ महोमेट" में जिल्द 3 पृ. 276-279 पर संक्षिप्त में की गई कहानी प्रस्तुत कर रहे हैं - 

'मर्दों और औरतों को रातभर अलग-अलग बाडों में बंद रखा गया... (उन्होंने) पूरी रात प्रार्थना करते हुए, अपने शास्त्रों के अंश दोहराते हुए और एकदूसरे को अविचलित रहने का प्रबोधन देते हुए गुजारी। उधर रातभर कब्रें या खाइयां ... बाजार में खोदी जाती रहीं ... सबेरे जब ये तैयार हो गईं तो पैगंबर ने जो स्वयं इस क्रूर घटनाक्रम की देखरेख कर रहे थे, हुक्म दिया कि बंदियों को पांच-पांच या छह छह की टोलियों में बारी बारी से लाया जाए। हर टोली को उस खाई के किनारे बिठा दिया गया जो उसकी कब्र के लिए नियत थी। वहां टोली में से हरेक का सिर काट डाला गया। एक टोली के बाद दूसरी इस तरह वे लोग लाए जाते रहे और उनकी निर्मम हत्या होती रही, जब तक वे सब खत्म ना कर डाले गए ...... 

'बदले की प्यास बूझा लेने के बाद और बाजार को आठ सौ लोगों के खून से रंग लेने के बाद और उनके अवशेषों पर तेजी से मिट्टी डाल देने का हुक्म दे देने के बाद, लूट के माल को चार श्रेणियों में बांटा गया - जमीन, बरतन-भाण्डे ढ़ोर-डांगर और गुलाम।  पैगंबर ने हर श्रेणी में से अपना पांचवा हिस्सा ले लिया(छोटे बच्चों को छोडकर जिनको उनकी माताओं के साथ गिना गया) एक हजार कैदी थे। इनमें से अपने हिस्से में आए कैदियों में से पैगंबर ने कुछ गुलाम औरतों और नौकरों को उपहार के रुप में अपने दोस्तों को दे दिया और बाकी औरतों और बच्चों को नजद के बद्द कबीलों में बेचने के लिए भेज दिया। उनके बदले में घोडे और हथियार ले लिए। 

इस पूरे किस्से को पैगंबर मुहम्मद के जीवनीकारों इब्न इसहाक, तबरी और मीरखोंद ने वर्णित किया है। तबरी पहले के एक जीवनीकार वाकिदी के हवाले से बतलाते हैं कि पैगंबर ने खुद 'गहरी खाइयां खुदवाई, खुद वहां बैठे रहे और उनकी मौजूदगी में अली और जुबैर ने कत्ल किए।" एक अन्य जीवनीकार इब्न हिशाम कुछ ऐसी सामग्री प्रस्तुत करते हैं जो दूसरे विवरणों में छूट गई दिखती हैं। उनके किस्सों में से एक से यह पता चलता है कि मुहम्मद ने स्थानीय संघर्षों का अपने स्वार्थ के लिए कैसे इस्तेमाल किया। मदिना के दो सर्वाधिक महत्वपूर्ण और गैर-यहूदी कबीले थे बनू औस और बनू खजरज। बनू कुरैजा के यहूदी बनू औस के साथ संधिबद्ध थे और इसलिए बनू खजरज उन्हें पसंद नहीं करते थे। इसलिए पैगंबर ने जब यहूदियों के सिर काटने का हुक्म दिया तो 'खजरज बडे शौक से सिर काटने लगे। रसूल ने देखा कि खजरज लोगों के चेहरों पर खुशी थे किंतु औस लोगों के चेहरों पर ऐसा कोई भाव नहीं था। रसूल को शक हुआ कि औस और बनू कुरैजा में पहले मैत्री थी इसीलिए औस के लोग हत्या करते हुए हिचकिचा रहे थे। जब सिर्फ बारह कुरैज बच गए तो पैगंबर ने उन सबको औस लोगों को सौंप दिया। हर दो औस के हिस्से में एक यहूदी आया। पैगंबर ने कहा ः तुम में से अमुक उसे मारेगा और अमुक उसे खत्म करेगा।""

इस पूरे घटनाक्रम पर भाष्य करते हुए 'हदीस के माध्यम से इस्लाम का अध्ययन" के लेखक रामस्वरुप कहते हैं - जो लोग पैगंबर का अनुसरण करते हैं, उन्हें नई चेतना और नई निष्ठा के साथ नया आदमी बनना होगा। उन्हें इस्लाम की प्रखर पाठशाला में अपने मानस को कठोर करना पडेगा, इस्लाम की रक्तरंजित रस्मों में हिस्सा लेना होगा। उन्हें ऐसे कामों में सहभागी बनना होगा, जो उसी मात्रा में पूरे माने जाएंगे जिस मात्रा में कि उनकी चरित्र हानि हो सकेगी। कोई व्यक्ति जिसमें अपनी कोई निष्ठा बची हो, निर्भर करने योग्य नहीं रहता। किसी भी स्थिति में इस्लाम के अनुयायियों को यह मौका नहीं मिलना चाहिए कि वे अपनेआपको श्रेष्ठ समझें और किसी काम से सिर्फ इसलिए परहेज करें कि उनकी नजर में वह काम अन्यायपूर्ण अथवा क्रूर है। उन्हें जो भूमिका निभानी है इसीके हिसाब से अपनी चेतना को संवारना चाहिए और जो नए काम उन्हें सौंपे जाएं उनको करने लायक बनना चाहिए।

कुरान की सूर अल अहजाब की आयतें 26 और 27 में लड़ाई और न्याय का वर्णन इस प्रकार से आया हुआ है: ""और अहले किताब (यहूदी) में से जिन लोगों ने उन (हमलावर) गिरोहों की सहायता की थी अल्लाह ने उनके दिलों में ऐसा रोब डाल दिया कि एक गिरोह (पुरूषों) को तुम कत्ल करते रहे और दूसरे गिरोह (स्त्रियों व बच्चों) को तुमने कैद कर लिया और (अल्लाह ने) तुमकों उनकी जमीन, उनके घरों और उनके माल का वारिस बना दिया, और ऐसी(उपजाऊ) जमीन का भी जिस पर अभी तुमने कदम नहीं रखे। अल्लाह हर चीज पर सामर्थ्यवान है।"" अर्थात्‌ यह सब कुछ अल्लाह की मदद से और उसके मार्गदर्शनानुसार तथा इच्छानुसार ही हुआ है।

इस दंड के संबंध में न्यायाधीश सैयद अमीर अली ने 'The Spirit of Islam' में लिखा है : ""थोड़ा सोचिए अगर अरबों की तलवार ने अपना काम अधिक दयालुता से किया होता तो हमारा (मुस्लिमों का) और आकाश तले के अन्य प्रत्येक देश का भविष्य आज क्या होता ? अरबों की तलवार ने, उनके रक्तांकित कृत्यों से संसार के हर कोने के पृथ्वी पर के सभी देशों के लिए दया लाने का काम (Work of Mercy) किया है।'' (पृ. 81,82) उनका अंतिम निष्कर्ष यह है कि: ''किसी भी भूमिका में से हो पूर्वाग्रह रहित मानस को ऐसा ही लगेगा कि, बनी कुरैजा को कत्ल किया था इसलिए पै. मुहम्मद को किसी भी तरह से दोषी ठहराना सम्मत नहीं।'' (पृ.82)

एक बात बची रहती है वह यह कि जिन पत्रकारों को बगदादी की फौज ने मौत के घाट उतारा उन्हें केशरिया कपडे क्यों पहनाए गए? तो, उसका आधार हमें हदीसों (पैगंबर की उक्तियां और कृतियां) में मिलता है। वह इस प्रकार से है ः पैगंबर ने 'भगवा रंग के कपडे पहनने के लिए अनुयायियों को प्रतिबंधित किया था। इस संबंध में उनका कहना था ः 'ये कपडे (हमेशा) श्रद्धाहीन (गैरमुस्लिम) उपयोग में लाते हैं, (इसलिए) तुम उन्हें उपयोग में मत लाओ।" (मुस्लिम 5173) एक व्यक्ति केशर में रंगे कपडे पहने हुए था। यह देखकर कि पैगंबर ने वे कपडे पसंद नहीं किए उसने उनको धो डालने का वायदा किया। लेकिन पैगंबर बोले ''इनको जला दो।"" (मु. 5175) न केवल कपडे बल्कि केशों को भी केशर द्वारा नहीं रंगना चाहिए। (5241) 

स्पष्ट है कि बगदादी अपने इस्लामी स्टेट में जो कुछ भी कर रहा है उसकी प्रेरणा वह इस्लाम के 1400 से अधिक वर्षपूर्व के  इतिहास से ग्रहण कर रहा है। वह भी यह बिना सोचे कि अब वो जमाना बीत चूका है। आजके इस आधुनिक युग में ऐसी बातों के लिए कोई स्थान ही नहीं है। लेकिन वह तो उसी इतिहास, उन्हीं बाबाआदम के जमाने की बातों को सर्वकालिक सत्य मानकर बतलाकर युवाओं को बरगला रहा है और उसके भडकाऊ प्रचार के चक्कर में पडकर कई मुस्लिम युवा अपना जीवन बर्बाद करने पर उतारु हैं और अपने निर्दोष साधारण जीवन जीनेवाले परिवारजनों को कष्ट और असहनीय पीडा भोगने के लिए पीछे छोड बगदादी की सेना में भर्ती होने जा रहे हैं। यह निश्चय ही बहुत बडी चिंता का विषय है।

Tuesday, October 21, 2014

चरमराती डाक-व्यवस्था की सुध कौन लेगा !

ब्रिटिश राज की भारत को तीन अच्छी देन हैं ः भारतीय रेल, भारतीय सेना और भारतीय डाक। भारतीय डाक व्यवस्था दुनिया की सबसे उन्नत व्यवस्थाओं में से एक है, जो एक लंबा सफर तय कर चूकी है। आज की इस भागमभाग भरी, गलाकाट प्रतिस्पर्धा के दौर में भी उसने अपना महत्व बनाए रखा है इसकी पुष्टि बढ़ती स्पीड-पोस्ट सेवा के ग्राहकों की सूची से मिलती है। यह विशेष स्पीड-पोस्ट सेवा कुछ अधिक मूल्य लेकर उच्च सेवा, तीव्र गति से देने के उद्देश्य से शुरु की गई थी। इस सेवा के बढ़ते ग्राहकों की संख्या डाक विभाग की विश्वसनीयता और बेहतरी को ही दर्शाती है। वैसे उसमें भी कुछ त्रुटियां हैं जैसेकि संवादहीनता एवं समन्वय की कमी जिन्हें दूर किए जाने की तत्काल आवश्यकता है। 

परंतु, जब साधारण डाक वितरण की ओर दृष्टि डालते हैं तो बिल्कूल विपरीतता ही दृष्टिगोचर होती है। डाक देर से मिलने की शिकायत करना तो लोग भूल ही गए हैं। क्योंकि, अब डाक मिल जाना ही बहुत बडी बात हो गई है। पहले मुहल्ले या कालोनी में डाकिये (पोस्टमेन) का दिख पडना आम बात थी, परंतु अब उसके दर्शन ही दुर्लभ हो गए हैं। जबकि पहले दिन में दो बार डाक बांटी जाती थी और तीसरी डाक के रुप में रजिस्ट्री, मनिऑर्डर आदि तो, चौथी डाक के रुप में कभी-कभी आनेवाले टेलिग्राम जो अब बंद हो गए हैं; होती थी। इस समय डाक वितरण की जो बदहाल स्थिति है उसके पीछे सबसे बडा कारण एक लंबे समय से डाकियों की भर्ती न होना भी है। जबकि समय के साथ कई डाकिये सेवानिवृत्त होते चले गए, जनसंख्या वृद्धि और नगरों के फैलाव के कारण ग्राहक एवं मकानों की संख्या तो बढ़ गई लेकिन डाकियों की संख्या बढ़ने के स्थान पर कम हो गई और कार्यक्षेत्र एवं कार्यभार अवश्य बढ़ गया है जिसकी भरपाई आउटसाइडर (ओएस) से काम कर करवाई जा रही है, इनकी अपनी अलग ही पीडा है शोषण की। दस पंद्रह वर्षों तक काम करने के बाद भी उनका नियमितीकरण नहीं हुआ है। स्टाफ की इस कमी के कारण डाक विभाग का काम बुरी तरह प्रभावित हो रहा है।

कुछ वर्षो पूर्व तक लगभग हर चौराहे या महत्वपूर्ण स्थानों पर पोस्ट ऑफिस का लाल डिब्बा हुआ करता था। कई स्थानों पर लाल डिब्बे के अलावा लोकल डाक के लिए हरा डिब्बा तो, सफेद डिब्बा राजधानी या महत्वपूर्ण शहरों के लिए हुआ करता था। जिनसे दिन में कितनी बार कितने-कितने बजे डाक निकाली जाएगी लिखा रहता था। इन डिब्बों से डाक निकालकर छंटाई कर सीधे गंतव्य की ओर रवाना की जाती थी। लेकिन धीरे-धीरे ये डिब्बे गायब होते चले गए और अब तो लाल डिब्बे ही बडी मुश्किल से नजर आते हैं जिसमें सारी डाक पहले एकत्रित की जाती है फिर छंटाई कर उसको गंतव्य स्थान की ओर जिलों के माध्यम से रवाना किया जाता है। उदाहरण के लिए पहले खरगोन जिले के गोगांवा डाक पहुंचाना हो तो सीधे गोगांवा ही भेज दी जाती थी लेकिन अब बदली हुई व्यवस्था के अंतर्गत डाक पहले जिला स्थान यानी खरगोन जाएगी फिर गोगांवा इसमें समय अधिक लगता है और डाक देरी से पहुंचती है। यह सब स्टाफ की कमी की वजह से हो रहा है और डाक वितरण की व्यवस्था गडबड हो रही है। 
  
एक जमाना था जब शहर के पोस्टमास्टर जनरल का सम्मान कलेक्टर से अधिक हुआ करता था लोग उसे अतिथि के रुप में आमंत्रित किया करते थे। समाचार पत्रों में समाचार छपा करते थे कि किस तरह बिना ठीक पते या आधे-अधूरे पते के, गलत पता लिखा होने के बावजूद पत्र गंतव्य तक सही सलामत पहुंचा। डाकिये से लोग आत्मीयता रखते थे। यह सारा सम्मान, आत्मीयता का कारण था डाक विभाग की उत्कृष्ट सेवा। परंतु, कुछ भ्रष्ट एवं कामचोर कर्मचारियों एवं डाकियों के कारण इस सम्मान-आत्मीयता एवं विश्वसनीयता में कमी अवश्य आई है, परंतु डाक विभाग का महत्व आज भी बरकरार है इससे कोई भी इंकार नहीं कर सकता।

स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात जब रफी अहमद किदवई संचार मंत्री बने तब उन्होंने डाक तंत्र को मजबूत बनाने के प्रयत्न किए थे। यह समर्थन आगे भी जारी रहा। परंतु, धीरे-धीरे ढ़र्रा बिगडने लगा। यूपीए सरकार के समय जब ज्योतिरादित्य सिंधिया संचार मंत्री थे तब उनके कार्यकाल में अवश्य कुछ सुधार नजर आने लगा था। सिंधिया ने कई ई.डी. या ओएस यानी आउटसाइडर को संभागों, प्रदेशों एवं ग्रामीण क्षेत्रों में जूते, चप्पल, झोलों का वितरण समय पर किया था, डाकियों को तीन साल में वर्दी विभाग द्वारा दी गई। डाक विभाग के आधुनिकीकरण के तहत कमप्यूटराजेशन आरंभ किया, छोटे-छोटे पोस्ट-ऑफिसों में तक कर्मचारियों को ट्रेनिंग दी गई। पूरे विभाग में एक उत्साह का वातावरण बनाने में वे सफल रहे उसके फलस्वरुप कार्यपद्धति में सुधार आना प्रारंभ हुआ। परंतु, उनके बाद फिर से डाक विभाग की गाडी पुराने बदहाल ढ़र्रे पर लौट आई। अब हालात यह हैं कि पोस्टमेन के पास वर्दी ही नहीं है तो वाशिंग अलाउंस मिलने का सवाल ही नहीं उठता। उसके पास उसका पहचान पत्र तक नहीं, नाम पट्टिका नहीं, मोनो जो उसके कंधों की शोभा बढ़ाता था वह भी नहीं। अब उसमें और किसी अनजान से कोरियर कर्मचारी में कोई फर्क नहीं बच रहता।

राजे रजवाडों की सरकारों के समय में संदेशों का आदान-प्रदान हरकारों के द्वारा होता था। वर्तमान समय में पोस्टमेन द्वारा होता है। कुछ वर्ष पूर्व पोस्टकार्ड की लागत बहुत कम थी मात्र पंद्रह पैसे जो अब पचास पैसे है। वर्तमान में अंतरदेशीय पत्र दो रुपये पचास पैसे और लिफाफा पांच रुपये का है। जो महंगाई और लागत को देखते हुए जनता के लिए बहुत ही सस्ता और विभाग के लिए महंगा सौदा। सरकार को चाहिए कि आधुनिक टेक्नालॉजी का उपयोग कर अपनी सेवाओं की उत्कृष्टता-गुणवत्ता को बढ़ाए; कार्यपद्धति को अधिक सुगम और कार्यकुशलता बढ़ाए। ईमानदार, कार्यकुशल एवं दक्ष पोस्टमेन, कर्मचारी, अधिकारियों को पुरस्कृत करे और मक्कार, कामचोर बेईमानों को डाक विभाग से निकाल बाहर करे। डाक सामग्री की कीमतें बढ़ाने के साथ ही साथ उन्हें पर्याप्त मात्रा में पोस्ट आफिसों पर उपलब्ध भी कराए। जब सभी चीजों और सेवाओं की कीमतें सभी क्षेत्रों में बढ़ाई जा रही हैं चाहे वे बैंकिंग सेवाएं हो, इंश्योरंस हो या रेल सेवा तब पोस्ट आफिस द्वारा घाटा खाकर सेवा देने में कोई तुक नजर नहीं आती बनिस्बत इसके की सेवाओं को ही बंद कर दे। जैसाकि सुनने में आ रहा है कि पोस्टकार्ड का प्रकाशन जो कि नासिक से होता है विभाग बंद करने जा रहा है। इसके लिए तर्क दिया जा रहा है कि लागत बहुत अधिक है और आजकल वाट्‌स एप, मोबाईल, फेसबुक के जमाने में लोग पोस्टकार्ड को उपयोग में ही नहीं लाते और जो स्टॉक है वही अनबिका पडा है। कुछ हद तक तो यह ठीक है परंतु एक बहुउपयोगी सेवा को इस तरह के तर्क देकर बंद कर देना कुछ गले नहीं उतरता। 

आज भी शहरों में ही एक बहुत बडा वर्ग है जो इन साधनों का ऐसा उपयोग धडल्ले से नहीं करता जैसाकि बतलाया जा रहा है। सभी जगह इंटरनेट सुविधाएं नहीं हैं। कई लोग तो जिस एसेमेस की दुहाई दी जा रही है को पढ़ना तो दूर की बात रही आते से ही डिलीट कर देते हैं। आज भी भारत का ग्रामीण भाग 70 प्रतिशत है जो 2036 तक 60 प्रतिशत रहने की संभावना है। 80 प्रतिशत पोस्ट आफिस भी तो ग्रामीण क्षेत्र में ही हैं। कुछ इसी प्रकार के तर्क मोबाईल के बढ़ते प्रयोग को देखकर लैंडलाइन के बारे में भी व्यक्त किए गए थे। परंतु, आज भी लैंडलाइन का महत्व बरकरार है उपयोग करनेवाले आज भी लैंडलाइन का ही उपयोग कर रहे हैं। पत्र पढ़ने से आत्मीयता का भाव जगता है। साने गुरुजी का कहना था 'पत्र आधी भेंट होती है" इसलिए भेंट भले ही ना हो परंतु, पत्र भेजना चाहिए। आदतें तो बनाने से बनती हैं। 

पोस्ट कार्ड के माध्यम से कई समाज जागरण के और समाजोपयोगी अभियान भी तो संचालित किए जा रहे हैं। उदाहरणार्थ महाराष्ट्र के सातारा के वाई के प्रदीप लोखंडे ने सन्‌ 2000 में पुणे में 'रुरल रिलेशन्स" नामकी संस्था ग्रामीण क्षेत्र की भावी पीढ़ि को शैक्षणिक दृष्टि से दृढ़ करने और ग्रामीण क्षेत्र के विकास के लिए स्थापित की है। इसके द्वारा 'ग्यान की" यह ग्रंथालय उपक्रम प्रारंभ किया गया है जिसके तहत अभी तक 1255 ग्रंथालय दान किए गए हैं। इस उपक्रम द्वारा प्रभावित हुए विद्यार्थियों ने प्रदीप लोखंडे को 94000 पत्र लिखकर अपना अभिप्राय सूचित किया है। हर रोज उन्हें 200 से 400 पत्र प्राप्त होते हैं। एक और उदाहरण लें ः 'गोरखपुर मांगे एम्स" अभियान के तहत 139139 पोस्टकार्ड भेजे गए थे। इस प्रकार से पोस्ट कार्ड द्वारा अभिव्यक्ति व जनजागरण एवं रचनात्मकता के और भी कई अभियान पूरे देश में संचालित किए जा रहे हैं। 

इसलिए इस बहुउपयोगी पोस्टकार्ड को बंद करने की बजाए इसकी कीमतें बढ़ाई जाए। जब रिजर्व्ह बैंक ने ही पचास और पच्चीस पैसे के सिक्कों को बंद कर दिया है तो पोस्ट कार्ड की कीमत पचास पैसे और अंतरदेशीय की कीमत ढ़ाई रुपये रखने की तुक ही समझ से परे है। आखिर डाक विभाग का एक बहुत बडा योगदान देश में साक्षरता बढ़ाने और आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक विकास में रहा है यह कैसे भुलाया जा सकता है। इसी पोस्ट कार्ड के माध्यम से सरकार ने कई नारों द्वारा जनजागरण अभियान चलाए हैं। घाटा पूर्ति के लिए पोस्ट कार्ड पर विज्ञापन भी तो छापे जा सकते हैं। चाहें तो क्या नहीं हो सकता, कहते हैं इंदिरा गांधी ने 1980 में ही पोस्ट कार्ड बंद करने का निर्णय लिया था। उनका कहना था कि वसूली गई रकम की तुलना में छपाई और वितरण सेवा नहीं पुसाती। उस समय के पोस्टमास्टर जनरल जे. एल. पठान ने संतोषी माता को 16 पत्र भेजने के शगूफे को उपयोग में ला डाक विभाग को लाभ में लाया था। आज भी यदि कोई  अभियान जिससे लोग पोस्ट कार्ड लिखने की ओर प्रेरित हों, उसका उपयोग फिर से बढ़े, प्रारंभ करें का चलाया जाए तो सफलता क्यों नहीं हासिल की जा सकती। 

उदाहरण के लिए त्यौहारों के मौसम में यदि जनता कोे उच्च गुणवत्तावाली सेवाएं डाक विभाग प्रेम-स्नेह पत्र समय पर डिलीवर करे तो डाक विभाग घाटे से तो उभरेगा ही साथ ही लोग उसकी ओर फिर से आकर्षित भी होंगे। दशहरा-दीवाली जैसे त्यौहारों पर एक साधारण सा दस रुपये का ग्रीटिंग भेजने के लिए पांच रुपये का टिकिट लगाए जाने के स्थान पर यदि तीन रुपये का शुल्क लिया जाए और समय पर डिलीवर किया जाए तो जनता को पोस्टमेन त्यौहारों पर दिखेगा और लोगों का ध्यान भी उसकी समय पर दी गई सेवाओं की ओर आकर्षित होकर वह फिर से पोस्ट आफिस का रुख करेगा जो कि अब कम हो गया है। समय पर डाक पहुंचाने के लिए इंडियन एयरलाइंस के विमानों का भी प्रयोग बढ़ाया जाए जिससे कि डाक समय पर पहुंच सके आखिर वह एयर लाइंस डाक विभाग को छूट भी तो देती है।

डाक विभाग एवं उसकी सेवाएं फिर से एक बार बहुत लोकप्रिय हों, वह बदहाली से उभरे इसके लिए एक अभियान सा चलाया जाना चाहिए जिसके द्वारा लोगों में फिर से पोस्टमेन और डाक व्यवस्था में पुराना विश्वास, आत्मीयता बहाल हो, उनको भारतीय डाक विभाग का उज्जवल इतिहास बताया जाए। लोग जानते ही नहीं हैं कि भारतीय डाक विभाग से कई बडे नामचीन लोग जुडे रहे हैं। जैसेकि, नोबल पुरस्कार प्राप्त वैज्ञानिक सी. व्ही. रमन, फिल्म अभिनेता देवानंद, साहित्यकार मुंशी प्रेमचंद, महाश्वेता देवी, राजिंदर बेदी आदि। भारत में वायसराय रहे लॉर्ड रीडिंग भी डाक विभाग से जुडे रहे हैं, अमेरिका के राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन पोस्टमेन थे। महात्मा गांधी पोस्ट कार्ड के अच्छे प्रशंसक एवं उपयोगकर्ता थे। लोगों ने पोस्टकार्ड पर क्या-क्या न उकेरा है। उसका उपयोग किस प्रकार से बडे पैमाने पर जन जागरण एवं समाज के उपयोग के लिए किया है। डाक विभाग ने इस लंबे सफर में कितने कष्ट सहकर, समय आने पर जान की बाजी लगाकर भी लोगों को सेवाएं दी हैं। इन सबसे बढ़कर बात यह है कि भारत सरकार का एक कर्मचारी अपने कार्यक्षेत्र में आनेवाले हर घर तक पहुंच रखता है यह बहुत महत्वपूर्ण बात है।