Friday, November 15, 2013

क्या भारत में परदा प्रथा सदा से रही है !


'परदा है परदा है" या 'परदे में रहने दो परदा ना हटाओ" जैसे फिल्मी गीत हो या फारसी शब्द परदा का हिंदी अर्थ घुंघट पर आधारित गीत 'अरे यार मेरी तुम भी हो गजब घुंघट तो जरा ओढ़ो" जैसा लोकप्रिय गीत जिनका आधार महिलाओं से संबंधित शब्द 'परदा" है या कबीर की रचना 'घुंघट का पट खोल रे, तोको पीव मिलेंगे। घट घट में वह सांई रमता, कटुक वचन मत बोल रे।" सुनकर (1960 में घुंघट नामकी एक फिल्म भी बनी है) और उत्तर एवं पूर्वी भारत में फैली पर्दा प्रथा को देखकर लगता है क्या यह प्रथा भारतीय संस्कृति की अविभाज्य परंपरा का भाग है? इसकी सार्थकता क्या है? क्या विश्व में अन्य स्थानों पर भी यह प्रथा थी? यदि थी तो किस प्रकार की थी?



भारत के बाहर के जगत पर दृष्टि दौडाएं तो दिखता है कि ईसा के जन्म से 500 वर्ष पूर्व यूनानी स्त्रियां किसी संरक्षक के बिना घर से बाहर अकेले जा नहीं सकती थी। पति के द्वारा बुलाए अतिथियों से मिलने की अनुमति उन्हें नहीं होती थी। मिनिएंदर ने अपने नाटकों में एक पात्र के द्वारा यह कहलवाया हुआ है  स्वतंत्रता पूर्वक घूमनेवाली स्त्री के लिए गली का द्वार बंद कर देना चाहिए। स्पार्टा में स्त्रियां सार्वजनिक कार्यक्रमों में भाग नहीं ले सकती थी। ईसा से 300 वर्ष पूर्व कुलीन-अभिजात वर्ग की असीरियन महिलाओं में परदा प्रथा थी। साधारण महिलाओं और वेश्याओं को परदे की अनुमति नहीं थी। सीरिया में विवाहित स्त्रियां अपने चेहरे को एक विशेष प्रकार के आवरण से ढ़के रहती थी।



भारत के संदर्भ में ईसा से 500 वर्ष पूर्व रचित निरुक्त में इस तरह की प्रथा का वर्णन कहीं नहीं मिलता। निरुक्तों में संपत्ति संबंधी मामले निपटाने के लिए न्यायालयों में स्त्रियों के आने-जाने का उल्लेख मिलता है। न्यायालयों में उनकी उपस्थिति के लिए किसी पर्दा व्यवस्था का विवरण ईसा से 200 वर्ष पूर्व तक नहीं मिलता।



इस काल के पूर्व के प्राचीन वेदों तथा संहिताओं में पर्दा प्रथा का विवरण नहीं मिलता। ''ऋगवेद (10/85/33) ने लोगों को विवाह के समय कन्या की ओर देखने को कहा है ः 'यह कन्या मंगलमय है, एकत्र होओ और इसे देखो, इसे आशीष देकर ही तुम लोग अपने घर जा सकते हो।" आश्वलायनगृह्यसूत्र (1/8/7) के अनुसार दुलहिन को अपने घर ले आते समय दूलह को चाहिए कि वह प्रत्येक निवेश स्थान (रुकने के स्थान) पर दर्शकों को ऋगवेद (10/85/33) के उपर्युक्त मंत्र के साथ दिखाए। इससे स्पष्ट है कि उन दिनों वधुओं द्वारा अवगुण्ठन (परदा या घुंघट) नहीं धारण किया जाता था, प्रत्युत वे सबके सामने निरवगुण्ठन आती थी।"" (धर्मशास्त्र का इतिहास पृ.336) परदा प्रथा का उल्लेख उल्लेख सबसे पहलेे महाकाव्यों में हुआ है पर उस समय यह केवल कुछ राजपरिवारों तक ही सीमित था। (देखें उक्त पृ. 336,7)



कुछ विद्वानों के मतानुसार रामायण और महाभारतकालीन स्त्रियां किसी भी स्थान पर परदा अथवा घूंघट का प्रयोग नहीं करती थी। जातक कथाओं, भास के नाटकों तथा भवभूति की रचनाओं मेंं कहीं-कहीं स्त्रियों के परदे में रहने का उल्लेख मिलता है। अजंता और सांची की कलाकृतियों में भी स्त्रियों को बिना घूंघट दिखाया गया है। मनु और याज्ञवल्क्य ने स्त्रियों की जीवनशैली के संबंध में कई नियम बनाए हुए हैं परंतु कहीं भी यह नहीं कहा है कि स्त्रियों को परदे में रहना चाहिए। ज्यादातर संस्कृत नाटकों में भी परदे का उल्लेख नहीं है। यहां तक कि 10वी शताब्दी के प्रारंभ में तक भारतीय राजपरिवारों की स्त्रियां बिना परदे के सभा में तथा घर से बाहर  भ्रमण करती थी जैसाकि एक अरब यात्री अबू जैद ने वर्णन किया है। स्पष्ट है कि उस समय तक परदा प्रथा प्रचलित नहीं थी जैसीकि अभी नजर आती है।



अब हम मध्यकाल में देखते हैं 16वी शताब्दी के रुस में पिता एवं भाई भी अपनी पुत्री और बहिन का मुख देख नहीं सकते थे। 17वी शताब्दी तक इंग्लैंड में भी स्त्रियां न तो अकेले यात्रा कर सकती थी न ही अपने किसी पुरुष साथी कर्मचारी को घर आमंत्रित कर सकती थी। अगर कोई स्त्री सार्वजनिक सभा में कोई वक्तव्य दे देती तो वह उसके लिए अत्यंत अपमानजनक माना जाता था।



इतिहासकारों के अनुसार भारत में मुस्लिम साम्राज्य विस्तार के साथ-साथ परदा प्रथा ने भी हमारी सामाजिक व्यवस्था में अपने पैर जमा लिए। 'धर्मशास्त्र का इतिहास" के अनुसार ''उच्च कुल की नारियां बिना अवगुण्ठन के बाहर नहीं आती थी, किंतु साधारण स्त्रियों के साथ ऐसी बात नहीं थी। उत्तरी एवं पूर्वी भारत में परदा की प्रथा जो सर्वसाधारण में पाई जाती है उसका आरंभ मुसलमानों के आगमन से हुआ।"" ( पृ. 337) इसके तीन कारण थे 1. हिंदू स्त्रियों को सुरक्षा प्रदान करने की दृष्टि से। 2. विजेता शासकों की शैली का चाहे-अनचाहे तरीके से अनुसरण। 3. विपरीत परिस्थितियों के कारण स्त्रियों में बढ़ती अशिक्षा और मुस्लिम शासकों के राज में गिरता स्तर। सर्वप्रथम हिंदू सरदारों और उच्चवर्ग ने शासकों का अनुसरण कर अपने अंतःपुरों में इस प्रथा को लागू किया फिर उनका अनुसरण कर समाज के अन्य वर्गों ने भी उसे अपना लिया।



स्त्री शिक्षा समाप्त होने कम आयु में विवाह होने के कारण अनुभवहीन स्त्रियों का परिवार में सम्मानजनक स्थान नहीं रहा। 15वी 16वी शताब्दी के आते-आते परदा उत्तर भारत की स्त्रियों की सामान्य जीवनशैली बन गई, सम्मान और कुलीनता का हिस्सा बन गया। यहां तक कि खेती मजदूरी करनेवाले वर्ग की महिलाएं तक परदा करने लगी। इससे पुरुषों का वर्चस्व बढ़ता चला गया स्त्रियों का सामाजिक व राजनैतिक गतिविधियों में योगदान समाप्त होता चला गया। यह कैसी विडंबना है कि जो परदा स्त्रियों की कुलीनता, सम्मान का प्रतीक था वही स्त्रियों के लिए दुर्भाग्यशाली बन गया। स्त्रिया दीन हीन जीवन बीताने को बाध्य हो गई। इस दृष्टि से मध्यकाल स्त्रियों के जीवन का काला पन्ना साबित हुआ।



भारत के स्वतंत्रता के आंदोलन के दौरान कई महिलाओं ने परदे का त्याग कर आंदोलन में बढ़चढ़कर हिस्सा लिया था और इसका अनुकरणीय प्रभाव भी पडा था। यह शिक्षा का परिणाम है। परंतु, आश्चर्य इस बात का है कि मध्यकाल की परिस्थितियों में पैदा हुआ, मुस्लिम एवं ब्रिटिश काल में पला-बढ़ा परदा आज भी आधुनिक भारत में पांव जमाए हुए। आधुनिक भारत की स्त्री आज भी इस सडी-गली, अमानवीय, महिलाओं की प्रगति में बाधक  कुप्रथा का अभिशाप क्यों झेल रही है? जो एक प्रकार से भारतीय स्त्री को दोयम दर्जा प्रदान कर रही है।

Sunday, October 27, 2013

स्वदेशी का अंगीकार करें - बहिष्कार करें चीनी सामान का


20 जुलाई 1905 को ब्रिटिश शासन ने बंग-भंग की घोषणा की और उनके इस आव्हान को भरपूर साहस से स्वीकारते हुए लो. तिलक ने साम्राज्यवादी शक्तियों का मुंहतोड उत्तर देने के लिए विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार और स्वदेशी वस्तुओं का स्वीकार ये दो सूत्र प्रमुख रुप से दिए। वस्तुतः 'स्वदेशी" और 'बहिष्कार" एक ही सिक्के के दो पहलू हैं और इसीलिए 7 अगस्त 1905 से विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार और स्वदेशी वस्तुओं का स्वीकार आंदोलन तीव्रता से प्रारंभ हुआ। अरविंद घोष, रविंद्रनाथ ठाकुर, लालालाजपत राय इस आंदोलन के मुख्य उद्‌घोषकों में से थे। आगे चलकर गांधीजी ने इस स्वदेशी आंदोलन को स्वतंत्रता आंदोलन का केंद्रबिंदु बनाया। इस आंदोलन के प्रभाव के कारण ही लो. तिलक ने 'हिंद केसरी" की शुरुआत कर हिंदी के प्रचार-प्रसार का अभियान चलाया। पं. मदनमोहन मालवीयजी ने काशी हिंदूविश्वविद्यालय की स्थापना के पश्चात हिंदी एक विषय के रुप में सम्मिलित करके 'अभ्युदय", 'मर्यादा", 'हिंदुस्थान" आदि पत्रों का प्रारंभ एवं सम्पादन कर हिंदी का प्रचार प्रसार शुरु किया।



लो. तिलक के आवाहन पर देश में स्वदेशी और बहिष्कार का आंदोलन चलानेवालों में क्रांतिकारी सावरकर बंधुओं का विशेष स्थान रहा है। 1 अक्टूबर 1905 को पुणे की एक सभा में वीर सावरकर ने छात्रों के सम्मुख विदेशी वस्त्रों की होली जलाने का एक आश्चर्यमयी प्रस्ताव रखा। इस प्रस्ताव की स्वीकृति हेतु जब सावरकर तिलक से मिले तो उन्होंने एक शर्त लगा दी कि, दस-बीस वस्त्र जलाने से काम नहीं चलेगा यदि विदेशी वस्त्रों की होली जलानी ही है तो ढ़ेरों कपडे जलाने होंगे। इस शर्त के अनुसार ही सावरकर ने 7 अक्टूबर 1905 को दस बीस नहीं तो ढ़ेरों विदेशी वस्त्रों से लदी एक गाडी की होली जलाई। सावरकर की यह परिकल्पना इतनी अनूठी थी कि पूरे 16 वर्षों के अनंतर क्यों ना हो गांधीजी ने 9 अक्टूबर 1921 को मुंबई में इसी प्रकार विदेशी वस्त्रों की होली जलाई।



गांधीजी में स्वदेशी ललक इतनी जगी हुई थी कि दक्षिण अफ्रीका से प्रकाशित अपनी पत्रिका 'इंडियन ओपीनियन" (गुजराती संस्करण 28 दिसंबर 1907) में गांधीजी ने पाठकों से 'पैसिव रेजिस्टेंट", 'सिविल डिसओबिडिएन्स" और ऐसे ही कतिपय शब्दों के लिए समानार्थक गुजराती शब्द सुझाने का कहते हुए इसके लिए पुरस्कार भी रखा था। गांधीजी के इस आवाहन के प्रत्युत्तर में उन्हें 'प्रत्युपाय, कष्टाधीन प्रतिवर्तन, कष्टाधीन वर्तन, दृढ़प्रतिपक्ष, सत्यनादर, सदाग्रह आदि शब्द जब प्राप्त हुए तो तब उन्होंने उन सब शब्दों के अर्थों का अलग-अलग विश्लेषण करने के तत्पश्चात सदाग्रह शब्द का चयन किया और उसे बदलकर 'सत्याग्रह" कर दिया। इस विषय में तब गांधीजी ने लिखा था ''सिविल डिसओबिडिएन्स" तो असत्य का अनादर है और जब वह अनादर सत्य रीति से हो तो "सिविल" कहा जाएगा। उसमें भी 'पेसिव" का अर्थ समाया हुआ है। इसलिए फिलहाल तो एक ही शब्द का प्रयोग किया जा सकता है और वह है - 'सत्याग्रह"। गांधीजी ने आगे यह भी लिखा था कि ः जल्दी-जल्दी करके चाहे जो शब्द दे डालने से अपनी भाषा का अपमान होता है और अपना अनादर होता है। इसलिए ऐसा करना, और वह भी 'पेसिव रेजिस्टेंस" जैसे शब्द अर्थ देने के सिलसिले में, एक तरह से 'सत्याग्रही" के संघर्ष का ही खंडन हुआ।



सावरकर ने तो 1893 में 10 वर्ष की आयु में ही 'स्वदेशी" का उपयोग करो का विचार प्रस्तुत करनेवाली कविता लिखी थी। यह निर्विवाद है कि लोकमान्य तिलक का बहुत प्रभाव सावरकर पर था और कदाचित्‌ तिलक के ही कहीं किसी भाषण में सावरकर ने वह सुना हो इससे इंकार नहीं किया जा सकता। लोकमान्य तिलक ने तो 1998 में ही पुणे में स्वदेशी वस्तुओं के विक्रय के लिए एक दुकान प्रारंभ की थी। इनके भी पूर्व बंगाल के भोलाचंद्र ने 1874 में शंभुचंद्र मुखोपाध्याय द्वारा प्रवर्तित 'मुखर्जीज मेगजीन" में स्वदेशी का नारा दिया था। 1870 में 'वंदेमातरम्‌" का महामंत्र देनेवाले बंकिमचंद्र चटोपाध्याय ने 1872 में 'बंगदर्शन" में स्वदेशी का नारा दिया था। वंदेमातरम्‌ के उद्‌घोष ने इसी आंदोलन के दौरान महामंत्र का रुप धर प्रत्येक भारतीय को आंदोलित कर दिया।

उपर्युक्त उदाहरण इसलिए दिए हुए हैं कि स्वदेशी का विचार कितना पुराना है यह पाठक जान सकें। आपको आश्चर्य होगा कि  यह विचार सबसे पहले महाराष्ट्र के निष्ठावान सामाजिक कार्यकर्ता गणेश वासुदेव जोशी (9-4-1828 से 25-7-1880) जिनके द्वारा किए गए सार्वजनिक कार्यों के कारण उनको 'सार्वजनिक काका" ही कहा जाने लगा था, ने दिया था। समाजसुधारक न्यायमूर्ति रानडे के साथ मंत्रणा कर सार्वजनिक काका ने 1872 में स्वदेशी आंदोलन का श्रीगणेश किया था। उन्होंने 'देशी व्यापारोत्तेजक मंडल" की स्थापना कर स्याही, साबुन, मोमबत्ती, छाते आदि स्वदेशी वस्तुओं का उत्पादन करने को प्रोत्साहन दिया था। इसके लिए स्वयं आर्थिक हानि भी सही थी। इस स्वदेशी माल की बिक्री के लिए सहकारिता के सिद्धांत पर आधारित पुणे, सातारा, नागपूर, मुंबई, सुरत आदि स्थानों पर दुकाने प्रारंभ करने के लिए प्रोत्साहित किया था। स्वदेशी वस्तुओं की प्रदर्शनियां भी आयोजित की। उन्हींके प्रयत्नों से आगरा में कॉटन मिल शुरु की गई थी। यही कार्य सावरकर ने 1924 से 1937 तक रत्नागिरी में नजरबंदी की अवस्था में बहुत बडे पैमाने पर किया था।


12-1-1872 को उन्होंने खादी उपयोग में लाने की शपथ ली थी और उसे आजीवन निभाया। खादी का उपयोग कर उसका प्रचार-प्रसार करनेवाले वे पहले द्रष्टा देशभक्त थे। इतना ही नहीं तो खादी का पोशाक कर 1872 में दिल्ली दरबार में भी सार्वजनिक सभा की ओर से गए थे। (जिसकी स्थापना उन्होंने उस काल में पुणे के 95 प्रतिष्ठित लोगों को लेकर कानूनी पद्धति से राजनीतिक कार्य किए जा सकें। जनता की शिकायतें सरकार के सामने प्रस्तुत की जा सके, उसे सार्वजनिक किया जा सके इसके लिए 1970 में की थी। इस प्रकार इस सार्वजनिक सभा को राजनीति का आद्यपीठ या कांग्रेस की जननी भी कहा जा सकता है।)



यह इतिहास कथन इसलिए कि इससे प्रेरणा ले आज फिर से इस स्वदेशी के विचार को अपनाने, इसके प्रचार-प्रसार, आंदोलन की आवश्यकता तीव्रता से महसूस की जा रही है। विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार, स्वदेशी वस्तुओं का प्रयोग कांग्रेस या किसी विशिष्ट विचार के लोगों का नहीं तो समूचे राष्ट्र का संकल्प था और होना चाहिए। आज वैश्वीकरण के इस दौर में मुक्त द्वार की नीतियों का लाभ उठा चीन अपने सस्ते उत्पादों से पूरे भारत के बाजारों को पाटता चला जा रहा है। हमारे उद्योग-धंधे चौपट हुए जा रहे हैं। चीन का इतिहास विश्वासघात का रहा है वह न केवल हमारी भूमि को दबाए बैठा है, सीमाओं पर समस्याएं खडी कर रहा है वरन्‌ अपने सस्ते सामान का हमारे बाजारों में ढ़ेर लगाकर हमें अन्यान्य तरीकों से हानि भी पहुंचा रहा है, हमारे सामने नई-नई समस्याओं को खडी करने के साथ ही साथ चुनौती भी दे रहा है।



आज बाजार में जिस ओर नजर घूमाइए उस ओर चीनी सामान दिख पडेगा। घरेलू सामान,बच्चों के खिलौने, इलेक्ट्रॉनिक्स सामान, मोबाईल से लेकर हमारे देवी-देवताओं की मूर्तियां तक आखिर क्या नहीं है। यह सारा चीनी सामान हमारे घरेलू उद्योगों द्वारा निर्मित उत्पादों से सस्ता है। बाजार के लिए उत्पादन से सस्ता आायत पड रहा है लेकिन इससे हमारे लघु, मध्यम, कुटिर उद्योग चौपट हुए जा रहे हैं। लाखों लोग बेरोजगारी की गर्त में जा रहे हैं। इस पर चिंतन आवश्यक है। यह एक कुटिल चाल है। आज सस्ता लगनेवाला माल कल बहुत महंगा पडेगा। अंग्रेजों ने भी इसी तरह सस्ता माल उपलब्ध करवा पहले व्यापार फिर देश की दुर्दशा की। आर्थिक गुलामी का अगला पडाव राजनैतिक गुलामी ही है।



सस्ते चीनी सामान के हम आदि होते जा रहे हैं। चीनी उद्योगों ने हमारे उद्योगों को निगलना प्रारंभ कर दिया है इसका ज्वलंत उदाहरण है लुधियाना का साइकल उद्योग। जो पुर्जे पहले देश में बनते थे वे अब चीन से मंगाए जा रहे हैं। हमारे ही पैसों से चीनी मालामाल हो रहे हैं तो हम कंगाल। विश्वासघाती और दादागिरी करनेवाला चीन हमारा हितचिंतक कभी भी नहीं हो सकता। सस्ता मिल रहा है इसलिए चीनी माल खरीदकर हम चीन को दृढ़ कर स्वयं के साथ छल कर रहे हैं। आज कंपनियां, उद्योग गुहार लगा रहे हैं लेकिन कोई सुन नहीं रहा। यह वही चीन है जिसके माओत्सेतुंग ने अनेक बार कहा था - तिब्बत चीन की हथेली है तो नेफा, भूटान, नेपाल, लद्दाख, सिक्किम इसकी उंगलियां हैं। जिन्हें हम हासिल करके ही रहेंगे।

चीन के साथ हमारा निर्यात कम और आयात अधिक है। परिणामतः हमारा धन उनके पास चला जाता है जो हमारे ही खिलाफ उपयोग में लाया जाता है। सर्वेक्षणों के अनुसार बिजली के सीएफएल का प्रमुख कच्चा माल फास्फोरस के लिए हम चीन पर निर्भर हैं। अभी हाल ही में चीन ने फास्फोरस की कीमतें बढ़ाकर हमारी चूलें हिला दीं। दवा उद्योग बल्क ड्रग के लिए पूरी तरह चीन पर निर्भर है। दूरसंचार क्षेत्र का 50% आयात पर निर्भर है उसके 62% पर चीन का अधिकार है। बिजली परियोजनाओं के 1/3 बॉयलर, टरबाईन चीन से आए हुए हैं। देशभर में चल रही विभिन्न परियोजनाओं में चीन कम दरों में ठेके लेकर धीरे-धीरे अपनी गतिविधियां बढ़ा रहा है जो आगे जाकर घातक सिद्ध होंगी। उसकी घटिया मशीनरी, पुरानी पडती जा रही टेक्नालॉजी सस्ते के चक्कर में हम अपनाते जा रहे हैं जो कल को निश्चय ही दुखदायी साबित होगा। चीन हमसे कच्चे माल के रुप में लोह अयस्क, रबर यहां तक कि कपास तक आयात कर रहा है और बाद में निर्मित वस्तुओं के रुप में हमें ही निर्यात के रुप में लौटा रहा है। क्या ईस्ट इंडिया कंपनी के इतिहास को दोहराया नहीं जा रहा है।

हमें एक बार फिर से स्वदेशी का अंगीकार और विदेशी (यानी चीनी) का बहिष्कार के सूत्र को अपनाना होगा। हमें चीनी माल का बहिष्कार कर अपने राष्ट्रधर्म का पालन करना चाहिए। भारतीय उत्पादों की विश्वसनीयता भारत ही नहीं तो पूरे विश्व में चीन की अपेक्षा अधिक है। हमारी प्राथमिकता 'सस्ता" नहीं वरन्‌ 'सुरक्षा, सम्मान, स्वाभिमान" की होना चाहिए।

आज भी प्रासंगिक होने के कारण इस लेख का समापन मैं बंकिमचंद्र चटोपाध्याय व भोलाचंद्र के इन कथनों के साथ करता हूं - ''जो विज्ञान स्वदेशी होने पर हमारा दास होता, वह विदेशी होने के कारण हमारा प्रभु बन बैठा है, हम लोग दिन ब दिन साधनहीन होते जा रहे हैं। अतिथिशाला में रहनेवाले अतिथि की तरह हम लोग प्रभु के आश्रम में पडे हैं, यह भारतभूमि भारतीयों के लिए एक विराट अतिथिशाला बन गई है।"" ''आइए हम सब लोग यह संकल्प करें कि विदेशी वस्तु नहीं खरीदेंगे। हमें हर समय यह स्मरण रखना चाहिए कि भारत की उन्नति भारतीयों द्वारा ही सम्भव है।""

Saturday, October 19, 2013

पहली मुस्लिम नारीवादी महिला - रुकय्या सखावत हुसैन


'सुल्तानाज ड्रीम्स" एक काल्पनिक विज्ञानकथा है रुकय्या सखावत हुसैन की। जो एक विलक्षण स्वप्नकथा के रुप में है। जिसमें रुकय्या ने कल्पना की जो उडान भरी है वह किसी को भी आश्चर्यचकित कर सकती है। इस कथा को पढ़ने पर ऐसा लगता है मानो रुकय्या पूरे पुरुषसमाज से बदला सा ले रही है। इस कथा को पढ़ने के पूर्व यह रुकय्या कौन थी यह जान लें।



19वी शताब्दी के जिस काल में महाराष्ट्र में ज्योतिबा फुले शिक्षा की अलख जगा रहे थे, बंगाल में ब्राम्हो समाज का जन्म हो चूका था, उत्तर भारत में आर्यसमाज का आंदोलन परवान चढ़ रहा था। अंग्रेजी शिक्षा का प्रारंभ हुए अधिक समय नहीं बीता था। शिक्षा उच्च वर्ग तक ही सीमित थी। महिला शिक्षा और वह भी मुस्लिम महिलाओं के संबंध में तो और भी दुर्लभ थी। ऐसे काल में 1880 में रुकय्या का जन्म तत्कालीन ब्रिटिश इंडिया और वर्तमान बांग्लादेश के रंगपुर में एक उच्च कुलीन जमीनदार परिवार में हुआ। रुकय्या के पिता सनातनी रुढ़िप्रिय थे, जिनकी दृष्टि में लडकियों की शिक्षा यानी कुरानपठन तक ही सीमित थी। भाषा के मामले में अरबी, फारसी, उर्दू और अंगे्रजी में व्यवहार एवं बांग्ला भाषा विरोध। क्योंकि उनकी दृष्टि में बांग्ला गुलामों और गैर मुस्लिमों की भाषा इसलिए तुच्छ। परंतु इस रुकय्या ने अपने भाई इब्राहीम से बांग्ला पढ़ना लिखना सीखा और वह भी दिल से। उसका विवाह 16 वर्ष की अवस्था में 30 वर्षीय विधुर खानबहादुर सय्यद सखावत हुसैन से  1896 में हुआ। जो अंगे्रजी भाषा में उच्चविद्याविभूषित होकर बिहार में जिला मजिस्ट्रेट थे। उन्होंने भी उसे बांग्ला व अंग्रेजी सीखने व लिखने के लिए प्रोत्साहित किया। उसने कई लघुकथाएं व उपन्यास लिखे। उनकी ही प्रेरणा से रुकय्या ने कोलकाता में मुस्लिम लडकियों के लिए एक स्कूल की स्थापना की जो अब शासन द्वारा संचालित किया जा रहा है। उसकी मृत्यु 1932 में हुई।



रुकय्या स्त्री पुरुष समानता एवं मुस्लिम स्त्रियों की शिक्षा के लिए किए गए कार्यो के लिए जानी जाती हैं। बांग्लादेश में 9 दिसंबर रुकय्या दिवस के रुप में मनाया जाता है। 1926 में उसने बांग्ला महिला शिक्षा सम्मेलन में कहा था ः 'महिला शिक्षा विरोधी कहते हैं महिलाएं उच्छृंखल हो जाएंगी .... यद्यपि वे स्वयं को मुस्लिम कहते हैं उसके बावजूद वे इस्लाम की मूल शिक्षाओं के विरुद्ध जाते हैं जो स्त्रियों को समानता और शिक्षा का अधिकार देती है। यदि शिक्षित होने के बाद पुरुष राह से नहीं भटकते तो, स्त्रियां ही क्यों?



रुकय्या ने 'सुल्तानाज ड्रीम" नामकी स्वप्नकथा लिखी जिसमें नारीवाद की कल्पना थी। यह स्वप्नकथा सन्‌ 1905 में मद्रास से प्रकाशित होनेवाले 'इंडियन लेडीज जनरल" में प्रकाशित हुई। रुकय्या कल्पना करती है कि आधी रात को उसे एक सपना आता है जिसमें एक स्त्री उसके पास आती है जिसे वह अपनी बहन सारा समझती है। जो उसे चारदीवारी से निकालकर एक दूसरे देश ले जाती है जहां का कामकाज बिल्कुल ही भिन्न है। इस देश की स्त्रियां परदा नहीं करती। यहां चारों ओर स्त्रियां ही स्त्रिया हैं। पुरुष कहीं नजर नहीं आते। पूछने पर पता चलता है कि इस देश में पुरुष घर में बंदिश यानी मर्दानखाने में रहते हैं। घर का सारा कामकाज खाना बनाना, बच्चे संभालना आदि पुरुष ही करते हैं। वे पराई स्त्रियों के सामने आ नहीं सकते। उनकी दुनिया घर की चारदीवारी तक ही सीमित रहती है।



जिन्हें पुरुषों का कार्यक्षेत्र माना जाता है ऐसे सभी कार्य स्त्रियां ही संपन्न करती हैं। कहीं कोई अपराध, अत्याचार, शोषण, हिंसा नहीं क्योंकि ये सारे कार्य पुरुष करते हैं वे घर की बंदिश में हैं। चकित रुकय्या पूछती है हम स्त्रियों को तो प्रकृति ने ही कमजोर बनाया है ऐसी अवस्था में स्त्रियों को इतनी स्वतंत्रता कितनी योग्य है? क्या यहां की स्त्रियों को सुरक्षा की आवश्यकता महसूस नहीं होती? इस पर उसे उत्तर मिलता है जब पुरुष घर में हैं तो स्त्रियों को भय किस बात का? पागल और हिंसक लोगों को जिस प्रकार से पागलखाने में बंद रखा जाता है उसी प्रकार से इन पुरुषों को घर में बंद करके रखना आवश्यक है। रुकय्या कहती है हमारे देश में यह संभव नहीं। इस पर उसे उत्तर मिलता है तुम्हारे देश में पुरुष स्त्रियों के साथ दुर्व्यवहार करता है, कर सकता है परंतु उसे खुला छोड स्त्रियों को ही घर में कैद कर रखा जाता है।



यहां रुकय्या द्वारा यह कहने पर की हम भारतीय स्त्रियां क्या करें? पुरुष तो बहुत शक्तिशाली होता है। इस पर वह स्त्री उसे अद्वितीय उत्तर देती है ः शेर मनुष्य से शक्तिशाली होता है क्या इसलिए वह मनुष्य पर वर्चस्व स्थापित करने का, उसे गुलाम बनाने का प्रयत्न करता है ? तुम भारतीय स्त्रियों को यह मालूम ही नहीं है कि स्वयं का कल्याण किसमें है, ऐसी अवस्था में मैं भला क्या कर सकती हूं? तुमने स्वयं होकर अपने प्राकृतिक अधिकार खोए हैं।



इस विलक्षण स्वप्नकथा में सौर उर्जा की कल्पना का भी रोमांचित कर देनेवाला वर्णन है, स्वतंत्र महिला विश्वविद्यालय की कल्पना भी की गई है। वर्षा पर पूर्ण नियंत्रण का वर्णन है। लडकियों को निशुल्क शिक्षा मिलती है। कानूनन 21 वर्ष की आयु से कम की लडकी का विवाह हो नहीं सकता। धर्म के संबंध में भी इस देश की जो संकल्पना है वह यदि साकार हो जाए तो वास्तव में सारे झगडे ही मिट जाएं यहां का धर्म है 'प्रेम और सत्य"। यहां प्रत्येक का धार्मिक कर्तव्य है कि परस्पर प्रेम का व्यवहार करें और सच बोलें। यहां तक कि इस देश का कामकाज एक महिला ही देखती है और सभी शोधकार्य स्त्रियों द्वारा ही किए जाते हैं।



इस प्रकार की एक से बढ़कर एक विचित्र कल्पनाओं से यह स्वप्न कथा भरी हुई है जो स्त्री स्वतंत्रता, उस पर होनेवाले अन्याय, अत्याचार, उसे घर में कैद रखने, शिक्षा से वंचित रखने आदि की पुरुष मानसिकता के प्रति आक्रोश सा प्रकट करती महसूस होती है। इस कथा के माध्यम से रुकय्या का आत्मविश्वास, उसकी बुद्धिमानी, प्रतिभा के हमें दर्शन होते हैं। यह कथा इसलिए भी महत्वपूर्ण नजर आती है क्योंकि जिन कल्पनाओं को आज हम कुछ अंशों में साकार होते देख रहे हैं वे कल्पनाएं रुकय्या ने आज से 100 से अधिक वर्ष पूर्व ही कर ली थी। एक बात और एक उच्चकुलीन महिला होते हुए भी उसकी कल्पना की उडान आम महिलाओं की भावनाओं से जुडी नजर आती हैं। एक रुढ़िग्रस्त धर्मांध मुस्लिम समाज के स्त्रीविषयक दृष्टिकोण के विरुद्ध खडी हो स्त्री मुक्ति का उद्‌घोष करनेवाली वे पहली नारीवादी पुरोगामी लेखिका हैं। उसकी इस स्वप्नकथा का जब बांग्ला अनुवाद प्रकाशित हुआ तब भी कट्टरपंथी लोग उसे कोई विशेष कष्ट ना दे सके क्योंकि उसका पति ब्रिटिशों का एक बडा अधिकारी मजिस्ट्रेट, मायका भी सक्षम व शासन अंग्रेजों का था। परंतु, फिर भी उसकी इस स्वप्नकथा को धर्मविरोधी, राष्ट्रद्रोही जरुर घोषित किया गया।



 रुकय्या के पूर्व महाराष्ट्र की ताराबाई शिंदे जो एक जमीनदार परिवार की होकर उसे हिंदी, अंग्रेजी, मराठी और संस्कृत भाषा का भी ज्ञान था। उस जमाने में घोडे पर बैठकर अपने खेतों पर जाती थी। उसने भी स्त्री-पुरुष संबंधों पर एक लेख 'स्त्री पुरुष तुलना" पुरुष वर्चस्व के विरुद्ध सन्‌ 1882 में लिखा था परंतु उसे वह चर्चा व प्रसिद्धि ना मिल सकी जो रुकय्या को मिली। एक विशेषता और सन्‌ 1950-60 तक यूरोप, अमेरिका तक में नारीवाद की संकल्पना रुढ़ ना हो सकी थी उससे पूर्व ही ताराबाई शिंदे और रुकय्या जैसी महिलाओं ने स्त्री मुक्तिवादी भूमिका ली थी। आज की नारीवादी महिलाओं के लिए ये महिलाएं निश्चय ही आदर्श सिद्ध हो सकती हैं। क्योंकि नारी समान अधिकारवाद की संकल्पना किसी भी विशिष्ट देश या धर्म के लिए अवतरित हुई ना होकर यह आत्मविश्वास संपन्न स्वतंत्रता की चाह रखनेवाली संवेदनशील स्त्री का एक सुंदर स्वप्न है।

Sunday, October 13, 2013

पहले शौचालय फिर देवालय - मोदी


देर आइद दुरुस्त आइद



आज से कुछ माह पूर्व केंद्रिय मंत्री श्रीजयराम रमेश ने कथन किया था कि देश में मंदिरों से अधिक आवश्यकता शौचालयों की है तो देशभर में अच्छा-खासा विवाद खडा हो गया था और विशेषकर हिंदुत्वादियों ने उन्हें अपने निशाने पर ले लिया था। लेकिन अब श्रीमोदी ने 'पहले शौचालय फिर देवालय" का नारा देकर इस बात की पुष्टि कर दी है कि श्रीजयराम रमेश का दृष्टिकोण ही उचित है, समयानुकूल है।



पूरे देश में लाखों मंदिर-मंदिरी बने हुए हैं। कई सुंदर मंदिर वीरान, जीर्ण-शीर्ण अवस्था में उपेक्षित पडे हुए हैं। उनकी ओर देखनेवाला तक कोई नहीं है। फिर भी नए-नए मंदिरों का निर्माण बेरोकटोक बदस्तूर जारी है। इन मंदिरों के नाम पर धंधेबाजी जमकर चल रही है। भगवान के नाम पर बने ओटलों, चबूतरों के अतिरिक्त किसी बडे भारी पत्थर को गेरु या सिंदूर से पोतकर और वह भी अक्सर सरकारी जमीनों पर तरह-तरह के देवता स्थापित किए जा रहे हैं। यहां तक कि पहले से ही किसी गांव-नगर में अत्याधिक कम शौचालयों की उपलब्धता के बावजूद जो हैं उन शौचालयों के पास नालियों आदि पर कब्जा जमा मूर्तियां स्थापित कर, तस्वीरें टांग सुनियोजित ढ़ंग से शौचलयों को ही गायब कर दिया जाता है और यह हरकतें विशेष रुप से महिला शौचालयों के साथ ही अधिकतर घटित होती हैं। जबकि सार्वजनिक स्वच्छतागृहों की आवश्यकता सबसे अधिक महिलाओं को ही होती है।



इन धंधेबाजों के मंदिर कई स्थानों पर तो बीच सडक मुंह निकाले खडे हैं तो कहीं बीच चौराहों पर ही मंदिर निर्मित कर लिए गए हैं। यह प्रवृति इतनी अधिक बढ़ती जा रही है कि अतिक्रमणकर्ता यह जानकारी होने के बावजूद फलां मार्ग का चौडीकरण प्रस्तावित है अपनी स्वार्थ सिद्धि व वर्चस्व जमाने, दिखाने के लिए तुरंत बडी भारी मूर्तियां स्थापित कर प्रसाद वितरण भी शुरु कर देते हैं। यहीं स्मरण करा दें कि मंदिरों का उल्लेख प्रतीक रुप में किया गया है। जो हाल मंदिरों का है वही हाल अन्य धर्मियों के धर्मस्थलों का भी है। हालात यह हैं कि आगामी कई वर्षों तक यदि धर्मस्थलों के निर्माण को ही रोक दिया जाए तो भी उनकी उपलब्धता में कमी नहीं होगी। निश्चय ही यह असंभव सा ही है लेकिन धंधेबाजों की धंधेबाजी पर तो रोक लगाई ही जा सकती है।



शौचालयों की उपलब्धता, उनकी दुर्दशा, उनकी आवश्यकता वह भी विशेषकर महिलाओं के संबंध में का बयान इसके पूर्व के तीन लेखों में जो 'साप्ताहिक स्पूतनिक" में ही प्रकाशित हुए हैं में मैं कर चूका हूं। अतः शौचालयों की आवश्यकता का प्रतिपादन का कोई औचित्य नजर नहीं आता। फिर भी प्रसंगवशात्‌ गुजरात के संबंध में उल्लेख कर देना उचित होगा कि सन्‌ 2011 के आंकडों के अनुसार शौचालयवाले घरों का प्रतिशत 57.4, सार्वजनिक शौचालय 2.3 और खुले में शौच जानेवाले 40.3 प्रतिशत हैं। इस संबंध में कांग्रेस-वामपंथियों द्वारा शासित रहा केरल अवश्य ही सौभाग्यशाली है जहां का प्रतिशत क्रमशः 95.1, 1.1 एवं 3.8 है।



सन्‌ 2005-6 के आंकडों के अनुसार टॉयलेट सुविधा गुजरात में 43.5 प्रतिशत के पास थी तो केरल में 96.7। यदि बिहार के आंकडे देखें तो सन्‌ 2005-6 में टॉयलेट सुविधा मात्र 17 प्रतिशत थी जो बढ़कर 2011 में 23.1 हो गई। यदि गुजरात से तुलना की जाए तो बिहार इस दौड में निश्चय ही पीछे है। सरकारी स्कूलों में स्थिति सन्‌ 2009-10 के आंकडों के अनुसार गुजरात में लडकियों के लिए पृथक शौचालयों का प्रतिशत 54.6, कॉमन 38.9। बिहार क्रमशः 37.7 व 48.3। पंजाब 98.5 व  92.9 प्रतिशत है।



मोदी द्वारा 'पहले शौचालय फिर देवालय" का नारा देना इसलिए भी महत्वपूर्ण नजर आता है क्योंकि, यह नारा एक हिंदुत्ववादी नेता ने दिया है जिसकी छबि कई लोगों के मन में कारपोरेट के आदमी की है। आज की तारीख में अधिकांश कारपोरेट उनकी तारीफ के कसीदे बांच चूके हैं। परंतु, शौचालयों का महत्व जतलाकर मोदी ने यह संदेश दिया हुआ सा लगता है कि उन्हें 'सोशल इंडिकेटर्स" की भी परवाह है। वे भी सोशल जस्टिस, सोशल रिफॉर्म को महत्व देते हैं। उन्हें आम जनता को शौचालयों की कमी तथा उससे उपजनेवाली समस्याओं का भान है। शायद उनके ध्यान में  यह बात भी आ गई लगता है कि पिछले 20 वर्षों में हम सोशल रिफॉर्म के मामले में बहुत पिछडे गए हैं भले ही प्रति व्यक्ति आय बढ़ी हो।



इसी भाषण में मोदी ने जो एक एनजीओ 'सिटीजन्स फॉर अकांउटेबल गवर्नेस" द्वारा आयोजित युवा छात्रों के सम्मेलन दिल्ली में ता. 2 अक्टूबर 2013 को सवाल-जवाब में दिया था कि पर्यटन उद्योग को बढ़ावा देने एवं इससे रोजगार का उल्लेख भी किया है। परंतु, इसके लिए भी सबसे पहली आवश्यकता स्वच्छता की है। जिसके मामले में निश्चय ही हम कुख्यात हैं। स्वच्छता बरतने के लिए अन्य कई आदतों को बदलने के साथ-साथ स्वच्छतागृहों की बहुतायत आवश्यक है।



मोदी जो अपने दृढ़निश्चय व काम करके दिखानेवाला के रुप में प्रसिद्ध हैं यदि उन्होंने वास्तव में ठान लिया कि 'पहले शौचालय फिर देवालय" तो वह दिन दूर नहीं जब गुजरात खुले में शौच करनेवालों से मुक्त प्रदेश होगा। यदि ऐसा होता है तो निश्चय ही यह एक बहुत बडी क्रांति होगी। अब देखना यह है कि मोदी अपने इस नारे को कितना अमलीजामा पहनाते हैं।

Friday, September 20, 2013

गणतंत्र को आच्छादित करता तंत्र-मंत्र


देश में अज्ञानियों की कोई कमी नहीं है और कम से कम धर्म के मामले में तो अपने भारत में लोग अपने महाअज्ञानी होने का प्रमाण-पत्र हाथ में लिए ही घूमते रहते हैं। आज तक तंत्र-मंत्र के विरोध में न जाने कितनी पुस्तकें लिखी जा चूकी है कि तंत्र-मंत्र, जादू-टोना और कुछ नहीं अंधविश्वास मात्र है। परंतु हमारे लोग हैं कि मानते नहीं और देश बुरी तरह से तंत्र-मंत्र की चपेट में है। कई लोग तो बाकायदा भारत की तंत्र और तांत्रिक उपलब्धियों पर गर्व करते हैं और उनका तो यहां तक कहना है कि साधक यदि प्रयास करे तो सिद्धियों को भी प्राप्त कर सकता है। इसी अंधश्रद्धा का चमत्कार है कि लाखों लोग प्रतिवर्ष कपोलकल्पित बातों पर विश्वास कर अंधश्रद्धा के अधीन हो जादू-टोने, भूत बाधा दूर करने, रोगमुक्त होने, संतान प्राप्ति, गुप्त धन प्राप्ति के चक्कर में पडकर अपनी धनसंपत्ति, प्रतिष्ठा गंवाने, शारीरिक हानि उठाने से लेकर, नरबलि देने तक के जघन्य अपराधों के शिकार हो रहे हैं। इस अंधविश्वास की बेडियों में अशिक्षित, अनपढ़, गवांर से लेकर विद्वान तक बुरी तरह से जकडे हुए हैं। इसीका फल है कि तथाकथित महाराज, बाबा, पीर-फकीर हलुआ पुडी खाने में लगे हुए हैं।



आखिर यह जादू-टोना है किस चीज का नाम! वस्तुतः जादू-टोना और कुछ नहीं केवल बुद्धि का भटकाव है। जब मनुष्य में आत्मविश्वास कम हो जाता है तब वह अपना विवेक, संयम तथा धैर्य खो बैठता है, उसकी सोचने की क्षमता कम हो जाती है। भटक कर हीन भावना के अधीन हो अंधश्रद्ध हो जाता है और इन तथाकथित महाराजों के चंगुल में फंस जाता है। बाबाओं की दुकानें चल निकलती हैं। जो समाज में भिन्न-भिन्न प्रकार के रुप धर कभी प्रवचनकार, तो कभी तांत्रिक, या सिद्ध पुरुष बन या तो ताबीज बांटते फिरते हैं, भूत उतारने की नौटंकी करते हैं, तो कभी कुछ चमत्कार दिखा अपने भक्तों को मूर्ख बनाते रहते हैं, शोषण करते रहते हैं। कुछ बाबा तो अपनी शक्ति द्वारा बांझ औरतों को गर्भवती औरत में परिवर्तित कर देने का चमत्कार भी दिखला चूके हैं और पर्दाफाश होने पर जेल की चक्की पीसने जा पहुंचते हैं। ऐसे ढ़ोंगी महाराजों के चक्कर में पडकर लोग अपना बंटाधार करवा बैठते हैं।



लेकिन कई मामलों में राजनीतिज्ञ ही इन जैसे बाबाओं को शरण देते नजर आते हैं क्योंकि सत्ता प्राप्ति हेतु वे भी तो इन तथाकथित महाराजों से यज्ञ, तंत्र-मंत्र आदि अनुष्ठान करवाते रहते हैं। तंत्र-मंत्र करनेवाले गुरुओं का इन राजनेताओं पर इतना प्रभाव है कि यदि वे कहें तो ये चुनाव लडने तक से इंकार कर देते हैं। मंत्री पद हासिल करने के लिए नेतागण इनके कहने पर तरह-तरह के अनुष्ठान करने के लिए तत्पर रहते हैं, भले ही इसके लिए इनको हास्यापस्द कृत्य भी क्यों ना करने पडें। इस मामले में उद्योगपति भी कुछ कम नहीं वे भी इनके चक्कर काटते नजर आ जाते हैं। काले धन को सफेद करना यह बाबाओं की बाबागिरी के व्यवसाय का एक हिस्सा जो है। आज इन बाबाओं की दुकानें जमकर चल रही हैं। चढ़ावे में आई रकम इनके चेले उद्योगपतियों-राजनेताओं-सत्ता के दलालों के माध्यम से बाजार में 'इनवेस्ट" की जा रही है और फिर इस इनवेस्टमेंट की रक्षा के लिए इन तथाकथित भ्रष्ट बाबाओं, तांत्रिकों, महाराजों को प्रश्रय दिया जाता है, इनके कुकर्मों को छुपाया जाता है। बांका समय आने पर इनकी रक्षा के लिए ये राजनेता-उद्योगपति ढ़ाल बनकर शासन-प्रशासन पर दबाव बनाने के लिए आ धमकते हैं। यह नजारा भी लोग समय-समय पर देखते ही रहते हैं।



इन तथाकथित बाबाओं का एक और गोरखधंधा है और वह है अपनी आध्यात्मिक शक्ति के बलबूते कैंसर से लेकर कई असाध्य बीमारियों से पीडित लोगों को ठीक करने का दावा करना। महानगरों के धनी लोगों की अपनी मनोवैज्ञानिक व व्यक्तिगत समस्याएं होती हैं जिनके कारण वे अशांत व दुखी रहते हैं। उनकी मनोदशा का लाभ उठाने के लिए इस प्रकार के महाराज सदैव तत्पर रहते हैं। ऐसे स्वयंभू महात्माओं का गरीबों से और पीडितों से कोई लेना देना नहीं रहता वे तो सदैव पांच सितारा होटलों में विराजमान रह कर संभ्रात, कुलीन वर्ग के दुख-दर्द दूर करने में व्यस्त रहते हैं।



इसके लिए इनके अपने तौर तरीके हैं जिसके तहत अखबारों-पत्रिकाओं में विज्ञापन दिए जाते हैं, दावे किए जाते हैं, फिर पहले से ही तैयार कुछ लोग बयान देेने लगते हैं कि हमें लाभ हुआ। ऐसे समय ये धनी व राजनेता काम आते हैं जो स्वयं आगे होकर अपने लाभान्वित होने का कथन करते नजर आते हैं। बस अब क्या कहने इन तथाकथित अध्यात्मिक पुरुषों के वारे-न्यारे होते समय नहीं लगता और जनता की सेवा करने का दावा करनेवाले ये महाराज विमानों में घूमते नजर आने लगते हैं। पत्र-पत्रिकाएं भी इन जैसों की सहायता करने में पीछे नहीं रहती किसी अखबार में इनके चर्चे होने की देर कि इन बाबाओं के दरबार में कतारें लग जाती हैं।



कहते हैं कि जगद्‌गुरु शंकराचार्य की मृत्यु भगंदर रोग से हुई थी और स्वामी विवेकानंद दमे से पीडित थे। अब जब इन जैसे महान अध्यात्मिक पुरुष अपनी व्याधि ठीक ना कर सके तो ये महाराज क्या चीज हैं? मेरा कहना सिर्फ यही है कि इस प्रकार के साधुओं-बाबाओं के प्रचार तंत्र के जाल में फंस अपना समय व धन व्यर्थ ना गवांए। सावधान रहें अपने महान भारत के विशाल गणतंत्र को इन तंत्र-मंत्र वालों की चपेट में ना आने दें। भूत लगना, प्रेत बाधा आदि कुछ नहीं होता, सब बकवास है। यदि आध्यात्मिक तरीकों से बीमारियां ठीक होने लगती तो आध्यात्मिक पुरुषों से भरे इस देश में कोई बीमार ही नहीं पडता, मरीज तो ढूंढ़े से भी नहीं मिलते।



याद रखें संतों की श्रेष्ठता उनके चमत्कारों में ना होकर उनके परउपकारी और महान चरित्र में निहित होती है। महान साधक कभी सिद्धियों के चक्कर में नहीं पडते। भगवान बुद्ध ने तो इस प्रकार के चमत्कारों के प्रदर्शन से दूर ही रहने को कहा था। उनका कहना था यदि कल्याण चाहते हो तो इन चमत्कारों से बचकर केवल सदाचार का अभ्यास करो। महात्मा बुद्ध की यह शिक्षा सर्वोत्तम है।     

Sunday, September 15, 2013

हिंदी दिवस 14 सितंबर


 अंग्रेजी की अंतरराष्ट्रीयता का मिथक



कई लोग कहते हुए मिल जाएंगे कि अंग्रेजी विश्वभाषा है, उसे सीखे बगैर प्रगति कर नहीं सकते। यह पूरी तरह सत्य नहीं है। यह बात वे लोग करते हैं जो अंग्रेजी के सिवाय कुछ नहीं पढ़ते, जिन्हें दूसरी भाषाओं का रत्तीभर ज्ञान नहीं। अंग्रेजी अच्छी तरह से जाननेवाले आखिर इस देश में हैं ही कितने? किंतु इन लोगों ने राजकाज पर अपना वर्चस्व बना रखा है और इन्हीं लोगों ने अंग्रेजी की अंतरराष्ट्रीयता के मिथक का हौआ खडा कर रखा है।

यदि संपूर्ण विश्व परिदृश्य का इस संबंध में निरीक्षण किया जाए तो दिख यह पडेगा कि दर्शन हो या साहित्य, राजनीति का क्षेत्र हो या कला का यहां तक कि विज्ञान का भी तो अंग्रेजी का कहीं भी एकाधिकार नहीं है। विश्व के महान दार्शनिकों में गिने जानेवाले सुकरात, अरस्तू, अफलातून, हीगल, मार्क्स, गौतमबुद्ध, कणाद, कपिल आदि में से ना तो कोई अंग्रेज है ना ही अंग्रेजीभाषी। धर्म के क्षेत्र पर विचार करें तो जितने भी विश्वव्यापी धर्म हैं उनके धर्मग्रंथ मूलरुप से अंग्रेजी में नहीं लिखे गए हैं। अंग्रेजी तो बडी कठिनाई से आधा दर्जन देशों में राजकाज या घर-बाजार की भाषा है। इसका होहल्ला क्या केवल इसलिए है कि कभी विश्व में अंग्रेजों के राज में सूरज डूबता नहीं था!


यदि अकेली अंग्रेजी अंतरराष्ट्रीय भाषा होती तो संयुक्तराष्ट्र में अंग्रेजी के व्यतिरिक्त चीनी, फ्रेंच, स्पेनिश, रुसी यहां तक कि अरबी  भाषा को मान्यता ना होती। अमेरिका में भी अंग्रेजी का एकाधिकार नहीं है। कहीं स्पेनिश तो, कहीं फ्रेंच, डच भाषा का वर्चस्व है। यहां तक कि कई क्षेत्रों में अरबी, उर्दू, हिंदी, पंजाबी बहुतायत से बोली जाती है। अंतरराष्ट्रीय डाक भाषा भी अंगे्रजी ना होकर फ्रेंच है। विश्व में बहुतायत से बोली जानेवाली भाषा स्पेनिश है। एक समय था जब ब्रिटेन में अंग्रेजी को हीन समझा जाता था और प्रभुत्व फे्रंच का था। जितने भी कानून बनते थे वे फे्रंच में बनते थे और ऊँची शिक्षा की भाषा लैटिन थी। जो तर्क आज अंग्रेजी के लिए दिए जाते हैं वही तर्क किसी समय फ्रेंच और लैटिन को बनाएं रखने के लिए दिए जाते थे। अंग्रेजी को लाने के लिए संघर्ष करना पडा, अंग्रेजों का स्वाभिमान अंततः रंग लाया और इंग्लैंड में अंग्रेजी राजकाज की भाषा बनी।



अंग्रेजों ने आयरलैंड की भाषा गेलिक को एक शताब्दी में समाप्त कर अंग्रेजी को थोप दिया था। 1929 में आयरलैंड में गेलिक भाषा के लिए विद्रोह हो गया और अंत में समझौता होकर आयरिश गेलिक भाषा को आयरलैंड में राजकीय भाषा बनने का अधिकार प्राप्त हुआ। इसी प्रकार का विरोध मलेशिया, इंडोनेशिया, फिलीपीन, सिंगापुर आदि में भी हो चूका है और अंगे्रजी के वर्चवस्व को वहां नकार दिया गया है। मध्य पूर्व के अरब देशों ने भी अपने निशाने पर अंग्रेजी को ही लिया था। चीन, कोरिया, जापान, वियतनाम ने अपनी भाषा को इतना उन्नत कर रखा है कि सारी प्रौद्योगिकी, आर्थिक, रक्षा, विज्ञान और राजनय के क्षेत्र में सारा काम उनकी अपनी भाषा में ही होता है। उनके यहां एक मोर्चा सतत अंगे्रजी के विरोध में डटा रहता है। वे अपनी प्रौद्यिगिकी भी अपनी भाषा में ही उपलब्ध कराते हैं, आपको उनकी भाषा आती हो या नहीं।



अब यदि हम हमारे देश के संबंध में विचार करें तो क्या देखते हैं कि हिंदी दिवस ने एक प्राणहीन, नीरस परंपरा का रुप धर लिया है। अंग्रेजी स्कूल कुकुरमुत्तों के रुप में उगते चले जा रहे हैं जहां अंग्रेजी के नाम पर अधकचरी पीढ़ी जिन्हें न तो ढ़ंग से हिंदी आती है और ना ही अंगे्रजी समझने-बोलने योग्य हो पाते हैं, तैयार की जा रही है। जबकि हिंदी इतनी प्रभावी है कि वोट मांगना हो तो हिंदी में ही मांगना पडता है, विज्ञापन हिंदी के ही लोकप्रिय हो पाते हैं, हिंदी बिना उनका काम चल नहीं सकता। इन बहुराष्ट्रीय व्यापारिक संस्थाओं को अपना सामान जो बेचना है। हां, इससे एक भय यह अवश्य पैदा हो गया है कि जिस भाषा को राष्ट्रभाषा बनना चाहिए कहीं वह बाजार की भाषा ना बनकर रह जाए! वैसे यह होना असंभव सा ही है, बस आवश्यकता है तो इच्छाशक्ति की जिसके आधार पर ही हम हिंदी को उसका स्थान दिला सकते हैं।



ऊपर वर्णित आंदोलन, उनकी सफलता, उनके स्वाभिमान से हमें प्रेरणा, मार्गदर्शन लेना होगा। वैश्वीकरण से उपजी प्रतिस्पर्धात्मक परिस्थिति का लाभ उठाकर हम हिंदी को और अधिक प्रभावी कर सकते हैं। जब कमाल अतातुर्क ने तुर्की को आधुनिक रुप देना प्रारंभ किया था तब उसने अपने अधिकारियों से पूछा- 'क्या देश का सारा कारोबार तुर्की भाषा में चलाना संभव है?" तब तक सारा कारोबार अंग्रेजी में ही चलता था। अधिकारियों ने कहा, 'सर ! इसके लिए कम से कम छः महीने आवश्यक हैं।" इस पर कमाल ने उत्तर दिया, 'समझो कि वे छः महीने आज रात को ही समाप्त हो रहे हैं और कल सुबह से पूरी तरह तुर्की भाषा में कारोबार करना शुरु करो।" बस तब से आजतक तुर्की का सारा कामकाज तुर्की भाषा में चला आ रहा है। और आज हम जिस विकास-विकास की रट लगाए रहते हैं उस दौड में वह हमसे कहीं आगे है एवं तुर्की भी हमारी तरह एक धर्मनिरपेक्ष प्रजातांत्रिक देश है। वैश्विक राजनीति में वह कहीं से भी कमतर नहीं है।



वास्तव में आज हमें एक ऐसे क्रांतिकारी नेतृत्व को तलाशना होगा जो वर्तमान में व्याप्त निराशा के वातावरण से देश को उभारने के साथ ही साथ सत्ता में आने के पूर्व भी और आने के बाद भी हिंदी के मुद्दे को ना भूले इसके लिए वातावरण बनाना पडेगा तभी हिंदी दिवस मनाना सार्थक सिद्ध होगा। 

Saturday, August 31, 2013

मलिका - ए - अफगाणिस्तान ः सुरय्या

20व्या शतकाच्या उत्तरार्धात तालिबानाने देशाला महंमद घोरी व महंमद गझनीच्या काळात पोहोचविले आणि इस्लामच्या नावावर अफगाण महिलांना पिंजऱ्यासारख्या बुरख्या मध्ये कैद केल्यामुळे अफगाणिस्तान चर्चेचा विषय झाला, तर 20व्या शतकाच्या पूर्वार्धात अफगाणिस्तान दोन कारणांनी प्रसिद्धिस आला एक म्हणजे इंग्रजांच्या तावडीतून सुटून स्वातंत्र्य मिळवू शकलेला तो एक देश ठरला व दूसरे कारण म्हणजे अफगाणिस्तानची राणी सुरय्या जिला पाश्चात्य देशांमध्ये मिळालेल्या प्रसिद्धि व कीर्ति मुळे.

अफगाण स्त्रियांना सर्वप्रथम मुक्तिचा मार्ग दाखवला तो अमीर अमानुल्ला व राणी सुरय्याने. अमानुल्लाचे राज्य फक्त दहा वर्षे (1919-29) चालले आणि शेवटी त्याच्या सुधारणेला एवढ़ा विरोध झाला की त्यांना देश सोडून जावे लागले. त्याची प्रतिभा आणि हिंमत लोकोत्तर होती. त्याने अमीरचे पद संपवून स्वतःला बादशाह जाहिर करुन इंग्रजांच्या विरुद्ध युद्ध आरंभिले. त्याला दडपू न शकल्यामुळे इंग्रजांना त्याच्याशी संधि करावी लागली. अफगाणिस्तान एक स्वतंत्र राष्ट्राच्या रुपात समोर आला. अमानुल्ला युरोपात शिकलेला असून उदारवादी व आपल्या देशाला रुढ़िंपासून मुक्त करुन इस्लामच्या अंधारातून काढून उन्नत व सभ्य देशांच्या श्रेणीत आणण्याकरिता कृतसंकल्प होता. त्याने युरोप व आशियाच्या प्रमुख देशांबरोबर व्यापारी व मुत्सद्दीपणाचे संबंध जोडले. 1920 मध्येच त्याने नवा क्रिमिनल व सिविल कोड तय्यार केला होता.

1913 साली अमानुल्लाने सुरय्याशी विवाह केला या विवाहपूर्वी त्याने आपल्या पहिल्या पत्नी परिगूलशी फारकत घेतली. सुरय्याचा जन्म 24 नोव्हेंबर 1899 रोजी सिरियात दमास्कस येथे झाला. सुरय्याचे शिक्षण दमास्कस येथेच झाले, तिथे तिने आधुनिक व पाश्चात्य कल्पनांचा अंगीकार केला. सुरय्याचे वडील महमूद तर्झी अफगाण असून एक विचारवंत व प्रसिद्ध नेते होते. अमानुल्लाचे वडील हबीबुल्लानेच त्यांना अफगाणिस्तान बोलावून घेतले. अफगाणिस्तानला आधुनिक बनवण्यात याच महमूद तर्झीचा सिंहाचा वाटा समजला जातो. सुरय्याचे वडील महमूद तर्झी हे बहुपत्नीकत्व परंपरे विरुद्ध होते व अफगाण स्त्रियांचे शिक्षण व रोजगार या विषयी आग्रही होते. सुरय्याही याच विचारसरणीची मूर्तिमंत प्रतीक होती. अमानुल्लानी याच विचारांचा अंगीकारकरुन काबूलव्यतिरिक्त लहान खेड्यापाड्यापासून स्त्री चळवळ सुरु केली. सुरय्याही असे सामाजिक बदल घडवून आणण्याबाबत आग्रही असल्याने अनेक अफगाण मुलींनी उच्चशिणक्षण घेतले, परदेसी जाऊन देखील. पुढ़े जाऊन याच स्त्रियां सरकारी खात्यातून अधिकारी म्हणून कार्यरत झाल्यात.

सुरय्याच्या प्रोत्साहनामुळे अनेक स्त्रिया शिक्षण घेऊ लागल्या. 1928 मध्ये तुर्कस्तानातील बदल पाहून सुरय्याने 15 होतकरु मुलींना तुर्कस्तानला पाठवले. अफगाणिस्तानात नवी मानसिकता तय्यार करण्याकरिता महमूद तर्झीने 'सिराजुल अखबार" नावचे पत्र सुरु केले होते तर सुरय्या ने स्त्रियांसाठी 'इरशाद-ए-निस्वान" हे मासिक सुरु केले होते. सुरय्या आपल्या भाषणांमधून स्त्रियांदेखील पुरुषांच्या बरोबरीने स्वातंत्र्य मिळाले पाहिजेचा प्रचार करित असे. सुरय्याने देशाच्या उत्क्रांति मध्ये मोलाची कामगिरी बजावली. त्यामुळेच अमानुल्ला अफगाण जनतेला उद्देशून मी तुमचा राजा असलो तरी तुमची शिक्षणमंत्री ही तुमची राणी सुरय्याच आहे, असे उद्गार काढ़ित असे. सुरय्या जनतेला शिक्षण व ज्ञान प्राप्ती करिता म्हणीत असे. सुरय्या अमानुल्ला बरोबर अनेक सार्वजनिक कार्यक्रमात सहभागी होत असे. अश्वारोहण व शिकारीचा छंद तिने जोपासला होता. अफगाणिस्तानच्या स्वातंत्र्याच्या लढ्यात जख्मी सैनिकांशी ती भेटत असे. त्यांच्याशी संवाद साधून त्यांना भेटवस्तू देत, बंडाळीच्या स्थानी जाऊन लोकांशी चर्चा करित असे.

अमानुल्लाच्या आधुनिकीकरणाचा व समाज सुधारणांचा प्रचंड विरोध झाला. इस्लामच्या नावाने चालणाऱ्या ढ़ोंगाला त्याने शीर्षासन करावयास लावले. बुरखा प्रथेवर बंदी आणली. अफगाण स्त्रियां पाश्चात्या पद्धतीचा पोशाख करु लागल्या, केस कापू लागल्या. पुरुषांदेखील कोट-पॅंट घालणे अनिवार्य केले. बालविवाहवर बंदी आणली. शुक्रवारच्या जागी गुरुवारी सुट्टी जाहिर केली गेली. देवबंदी  उलेमांना देशातून हाकलून टाकले.

1928-29 मध्ये अमानुल्ला व सुरय्या यांनी युरोपला भेट दिली. ऑक्सफोर्ड विद्यापीठाने त्यांना सम्मानीय पदवी दिली. सुरय्याने तेथील विद्यार्थ्यांसमोर व्याख्यान दिले. अमानुल्ला पाश्चात्य तंत्रज्ञानाने फार प्रभावित होता. त्यानेच सगळ्यात आधी फोटोग्राफीची साधने अफगाणिस्तानात आणलीत. त्या दोघांची जीवनप्रणाली पाश्चात्य पद्धतीची असून त्यांच्या दिनचर्येत शूटिंग, हंटिंग व फिशिंगचा समावेश होता. सुरय्या नेहमी चायपानाचा कार्यक्रम करत. इंग्लंडच्या उच्चभ्रू महिलांप्रमाणे पोशाख करणारी अशी प्रतिमा सुरय्याची होती. अशा प्रकारच्या दिनचर्येशी अफगाण लोक अनभिज्ञ होते. 10 डिसेंबर 1927त अमानुल्ला व सुरय्या भारतात चमन येथे आले होते. चमनहून ते कराचीला गेले येथे एका समारंभात सुरय्यास अनेक महिला भेटल्या. त्यावेळेस सुरय्यानी सांगितलेल्या कथा व तिच्या सौंदर्याचे वर्णने त्यावेळी लोकांत चर्चिली गेली.

1919 मध्ये इंग्रजांशी युद्ध केल्याने अमानुल्ला व इंग्रजांचे संबंध चांगले नव्हते. त्याने अफगाणिस्तानाची घटना तैयार केली होती. सरकारचे स्वरुप व राजाची भूमिका या सगळ्या गोष्टी जनतेच्या समोर स्पष्ट केल्या. जगात अमानुल्ला व सुरय्या ने केलेल्या सुधारणा  चर्चेचा विषय झाले. किंतु, इंग्रजांनी सुरय्याच्या स्त्री मुक्तीच्या आंदोलनाचा विरोध केला, अफगाणिस्तानाला आधुनिक बनविण्याच्या उपक्रम कट्टरपंथियांना पसंत नाही पडला. 1929 मध्ये जेव्हा ते परतले तो पर्यंत त्यांच्या विरोधात जोरदार मत अफगाणिस्तानात तयार झाले होते. त्यामुळे अंतर्गत यादवी टाळण्यासाठी अमानुल्ला व सुरय्या यांनी देश सोडण्याचे ठरवले व उर्वरित आयुष्य परदेशात व्यतीत केले. अफगाणिस्तान परत मागे गेला. तुर्कस्तान तर कमाल अता तुर्क सुधारणा करण्यात यशस्वी ठरला पण अफगाणिस्तानात मात्र अमानुल्ला अपयशी ठरला. परंतु, अमानुल्ला व सुरय्याने रोपलेले बी पुन्हा प्रस्फुटित झाले.


  1977 मध्ये काही पुरोगामी विचारांच्या महिला एकत्र आल्या आणि त्यांनी 'रिव्होल्यूशनरी अफगाण विमेन्स असोसिएशन" (रावा) या संस्थेची स्थापना केली. सामाजिक न्याय आणि मानवी अधिकारांचे जतन हे 'रावा"चे ध्येय आहे. 'रावा" मुस्लिम कट्टरपंथियांच्या विरोधात तर आहेच, परंतु 1979 साली अफगाणिस्तानात झालेल्या रशियन आक्रमणालाही 'रावा"ने विरोध केला होता. जेव्हा तालिबानाने सत्तेत आल्या नंतर अफगाण स्त्रियांचे जगणे पूर्णपणे अंधकारमय करुन टाकले होते तेव्हा अशा भयानक परिस्थितित देखील काही अफगाण महिला फार मोठा धोखा पत्करुनही मुलींसाठी गुप्त शाळा चालवित होत्या. 'रावा"ने भूमिगत कार्य चालूच ठेवले. अशक्य झाले तेव्हा 'रावा"ला अफगाणिस्तान सोडून पाकिस्तानला जावे लागले. तिथेही त्यांनी निर्वासित अफगाण स्त्रिया-मुलींसाठी, छोट्या मुलांसाठी शाळा चालवल्या. उपजीवेकेच साधन म्हणून शिवणकाम, विणकामचे शिक्षण दिले. महिलांसाठी दवाखाने चालवले. यूनो जगभरची सरकारे यांच्यापुढ़े अफगाण स्त्रियांची दुर्दशा मांडली. त्यांच्याकडून प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष मदतीची अपेक्षा ठेवली. परंतु, त्यावेळी जगाने अफगाण स्त्रियांवर होणाऱ्या अत्याचारांकडे दुर्लक्षच केले. अकरा सप्टेंबर रोजी अमेरिकेवलर दहशतवाद्यांनी हल्ले केले, तेव्हा कुठे अमेरिकेला आणि पाठोपाठ जगाला जाग आली. तो पर्यंत अफगाण स्त्रियांनी हिंमतीने, धैर्याने, अनंत अन्याय-अत्याचार सोसूनही कुटुंबाचा कणा ही आपली भूमिका पार पाडली.

Saturday, August 24, 2013

शरई शासन का मशविरा मिस्त्र पर लागू हो पाएगा?

एक वर्षपूर्व जब इजिप्त में अरब वसंत चरम पर था तभी कुछ विचारकों ने मत व्यक्त किया था कि कहीं ऐसा ना हो कि इस क्रांति पर इस्लामिक कट्टरपंथी हावी हो सत्ता में आ जाएं और हुआ भी ऐसा ही। शीघ्र ही इस्लामी कट्टरपंथी लू के थपेडों की आंच मिस्त्री अवाम को महसूस होने लगी। उन्हें अपनी स्वतंत्रता खतरे में नजर आने लगी। और अब अलकायदा प्रमुख अयमान जवाहिरी का मुस्लिम ब्रदरहुड और उसके समर्थकों को दिया हुआ यह मशविरा कि 'वे लोकतंत्र को समर्थन देना छोड शरई कानून का शासन स्थापित करने का प्रयास करें" द्वारा उनका भय सत्य भी साबित होने लगा है।

यह अलकायदा प्रमुख अयमान अल जवाहिरी एक नेत्र विशेषज्ञ होकर मुस्लिम ब्रदरहुड के नेता सय्यद कुत्ब जिसे तख्तापलट कर इस्लामिक शासन लाने के प्रयत्नों के कारण 1966 में फांसी पर चढ़ा दिया गया था का शिष्य होकर कट्टर मुस्लिम ब्रदर है। यह भी मिस्त्र के राष्ट्रपति अनवर सादात की हत्या का षडयंत्र रचने के आरोप में तीन वर्ष जेल में रह चूका है। 1984 में अयमान सऊदी अरब गया फिर वहां से पेशावर वहीं इसकी मुलाकात ओसमा बिन लादेन से हुई। इसीने ओसामा को हिंसा की दीक्षा दी। 'अलकायदा" के  कार्यकर्ताओं को खूनखराबे की शिक्षा देने का दायित्व अयमान पर ही था। ओसमा पूरी तरह से अयमान के कहने में था। ओसामा के गुरु अब्दुल्लाह अजम से अयमान के मतभेद हो गए। अयमान का कहना था कि सऊदी अरब, इजिप्त आदि स्थानों पर की सरकारें गैरइस्लामिक होने के कारण उन्हें गिरा देना चाहिए, उनके सत्ताधारियों को मार डालना चाहिए। जबकि अजम का कहना था कि अपने मुस्लिम भाईबंदों को मारना योग्य नहीं। झगडा बढ़ गया। अजम की हत्या हो गई। कहते हैं कि उसकी हत्या में अयमान का हाथ था। 11 सितंबर को अमेरिका पर हुए हमले की कल्पना और योजना अयमान की ही थी तब से लेकर वह ओसामा के साथ ही रहा और ओसामा के बाद अब अयकालयदा प्रमुख है।

अयमान अल जवाहिरी जिस शरई यानी शरीअत पर आधारित यानी इस्लाम के पहले चार आदर्श खलिफाओं के काल जैसा इस्लामी राज्य स्थापित करने की सलाह दे रहे हैं वह शरीअत क्या होती है, उसके स्त्रोत कौनसे है, उसकी न्यायप्रणाली कैसी होगी, उसमें गैरमुस्लिमों को किस प्रकार व्यवह्रत किया जाएगा, उस इस्लामी राज्य का स्वरुप कैसा होगा के बारे में अधिकांश लोग जानते ही नहीं हैं। इसलिए संक्षेप में उसे जान लेना उचित ही होगा इससे यह भी पता चलेगा कि क्यों सेना व आम मिस्त्री जनता मुस्लिम ब्रदर के नेता मुर्सी के विरुद्ध हुई।

इस्लामी राज्य यानी खिलाफत एक अनन्य संस्था है। खिलाफत का आधार कुरान की (24ः55) आयत में है। इस विषय में मौ. अबू मुहम्मद इमामुद्दिन का कहना है ः ''आजकल जिस राज्य के राष्ट्रपति और मुख्य प्रशासक मुसलमान हैं उस राज्य को इस्लामी राज्य कहा जाने लगा है ... वस्तुतः 'इस्लामी राज्य" वही है, जिसका संविधान कुरान व हदीस पर आधारित है और जिसके राष्ट्रपति और प्रधान अधिकारी इस्लाम के सिद्धांतानुसार जीवनयापन कर रहे हैं।"" इसीलिए पैगंबर और पहले चार खलिफाओं के राज्यों को 'आदर्श इस्लामी राज्य" कहा जाता है।

इस्लामी राज्य का ध्येय, उद्देश्य और खलिफा का कर्तव्य वही है जो पैगंबर ने आदर्श के रुप में सामने रखा है। वह राज्य अल्लाह के कार्य के लिए स्थापित किया हुआ होने के कारण अल्लाह का कार्य यानी इस्लाम का प्रसार करना; वह सभी मानवों तक पहुंचाना; इस्लामी राज्य का विस्तार करना; सर्वत्र अल्लाह के कानून की प्रस्थापना करना; अल्लाह का धर्म अन्य धर्मों पर प्रभावी एवं विजयी करना; संसार में प्रेम, सत्य, न्याय, समता, बंधुता, सहिष्णुता, शांति, नैतिकता, मानवता आदि इस्लामी नीतिमूल्यों की प्रतिष्ठापना करना; राज्य की प्रजा के इहलोक और परलोक के कल्याण की चिंता करना; गुनाहगारों को दंडित करना ये सब खलिफा के कानूनसम्मत कर्तव्य ठहरते हैं। इन कर्तव्यों का निर्वाह कर आदर्श निर्मित किया इसलिए पहले चार खलिफाओं को 'आदर्श खलिफा" कहा जाता है। इन चार खलिफाओं का इस्लाम, इस्लाम के इतिहास व मुस्लिमों के जीवन में महत्वपूर्ण एवं अमूल्य स्थान है। वर्तमान में जो विश्वव्यापी जिहाद इस्लामी आतंकवादियों ने छेडा हुआ है वह इसी आदर्श खिलाफत की स्थापना के लिए है।

'शरीअत" का मूल अर्थ है 'जलाशय की ओर यानी जीवन के स्त्रोत की ओर जाने का मार्ग"। इसका गर्भितार्थ है ः जो महत्व रेगिस्तान में पानी का है वही जीवन में शरीअत का है। शरीअत का शब्दशः अर्थ 'मार्ग" अथवा 'पथ" (इस्लामी धर्मसत्ता का मार्ग। अल्लाह इस सत्ता का प्रमुख और प्रेरणास्थान है) और इसीलिए इस्लामी 'कानून" है। इस्लाम का सर्वार्थता से अनुसरण करना हो तो एकाध मुस्लिम द्वारा पालने योग्य सभी कानूनों एवं नियमों को एकत्रित रुप से 'शरीअत" कहते हैं।

इस्लाम की धारणा है कि ये नियम और कानून प्रत्यक्ष अल्लाह ने ही पैगंबर मुहम्मद द्वारा प्रकट किए हुए हैं। अन्य धर्मियों के व्यक्तिगत कानूनों के समान शरीअत में परिवार, विवाह, तलाक, दत्तकविधान, संपत्ति और उत्तराधिकार इनसे संबंधित कानूनों का समावेश होता है। सिवाय इसमें फौजदारी कानून भी आते हैं। नमाज, जकात, रोजा, हज, जिहाद इस्लाम के इन मूलभूत स्तंभों का पालन किस प्रकार किया जाए इसके भी निर्देश शरीअत में हैं। इतना ही नहीं तो व्यक्तिगत स्वच्छता, वेशभूषा, मनोरंजन, आहार,यौन व्यवहार, बच्चों की परवरिश ये अत्यंत व्यक्तिगत समझे जानेवाले विषयों के संबंध में भी आदेश हैं। वैवाहिक निमंत्रण, दात  कुरेदना जैसे विषयों के संबंध में भी पवित्र कानून हो सकता है के विषय में तो हिंदू सोच भी नहीं सकते। परंतु, यह वस्तुस्थिति है ंकि शरीअत में इनके संबंध में भी मार्गदर्शन है।

संक्षेप में शरीअत सभी सार्वजनिक और व्यक्तिगत व्यवहारों का नियमन एवं नियंत्रण करती है। व्यक्ति-व्यक्ति ही नहीं अपितु गुटों के बीच के संबंध भी कैसे होना चाहिए यह भी शरीअत ही तय करती है। केवल व्यक्ति  का ही नहीं बल्कि समग्र समाज का व्यवहार कैसा होना चाहिए का दिग्दर्शन भी शरीअत ही करती है। शरीअत की यह विशिष्टता इस्लाम के स्वरुप के कारण है जिसमें व्यक्तिगत और सार्वजनिक, लौकिक और पारलौकिक का कोई भेद नहीं। इस्लाम में राज्यसंस्था और धर्मसंस्था अलग-अलग होते हैं को मान्यता ही नहीं है इसी कारण से धर्मनिरपेक्ष अथवा इहवादी शासन यह कल्पना ही मूलतः इस्लाम विरोधी है।

इस्लाम को समझना हो तो शरीअत (इस्लामी कानून) और फिकह (इस्लामी न्याय शास्त्र) का अध्ययन करना पडता है। एकाध मुस्लिम देश में शरीअत तीन प्रकार से लागू हो सकती है - 1). न्यायशास्त्र में शरीअत का स्थान गौण हो, 2). न्यायशास्त्र पर शरीअत का प्रभाव हो, 3). न्यायशास्त्र शरीअत से स्वतंत्र हो- उदा. तुर्कीस्तान, ट्यूनिश, अल्जेरिया।

शरीअत के चार स्त्रोत अथवा मूलतत्त्व हैं। अरबी में उन्हें 'उसूल" कहते हैं। 1). कुरान, 2). अलहदीसः पैगंबर की उक्तियां एवं कृतियां, 3). इज्मा ः यानी सहमति, किसी एक बात पर बहुमत होना। 4). कियास ः सबसे कम महत्व का स्त्रोत है। 'साम्य देखकर निकाला हुआ निष्कर्ष"। सुन्नी इस्लाम में न्यायशास्त्र की चार प्रणालियां मान्य हैं। प्रत्येक प्रणाली को 'मदहब" कहते हैं। यह चार प्रणालियां हैं - हनाफी, शाफई (शफी), हनबाली और मालिकी। यह न्याय प्रणाली अध्ययन का एक बहुत बडा विषय है।

आदर्श खिलाफत काल में गैरमुस्लिमों के साथ करार किए गए थे और उन करारों की शर्तों के अनुसार उनके संबंध तय होते थे। किस पद्धति से उस क्षेत्र को जीता गया इस पर से वहां के लोगों के साथ किए गए करारों में फर्क पडता था। लडाई कर जीते गए क्षेत्रों पर कठोर शर्तें लादी जाती थी। लडाई न करते शरणागत होनेवाले लोगों को कुछ विशेष सुविधाएं दी जाती थी। इस प्रकार के करार की शर्तें एवं धाराएं तय करने का सर्वाधिकार विजेता इस्लामी राज्य के पास था; पराजितों को तो केवल मान्य करना था। प्रसंगानुरुप कितनी भी सुविधाएं दी जाएं तो भी गैरमुस्लिमों का दर्जा मांडलिक का ही रहनेवाला था। जिजिया मांडलिकत्व का प्रतीक था। उन्हें सेना में जाने से छूट प्राप्त होने के कारण उन्हें अनायास ही संरक्षण प्राप्त हो जाने के कारण उनसे लिया जानेवाला जिजिया संरक्षण कर था यह कहना सत्य नहीं। क्योंकि, उनका सेना में जाना प्रतिबंधित था। वे तो राज्य के दूसरे दर्जे के नागरिक थे। मुस्लिम प्रजा के लिए कानून तो गैरमुस्लिमों के लिए करार थे। खलिफा उमर की एक सनद या करार के अनुसार गैरमुस्लिम मुस्लिमों जैसा पोशाक न करें; घोडे या ऊंट पर बैठते समय जीन ना कसें; चर्च का निर्माण न करें; क्रॉस ना पहने जैसी अनेक धाराएं उसमें हैं।

गैरमुस्लिमों को धार्मिक स्वतंत्रता प्राप्त थी, परंतु वह स्वतंत्रता पारलौकिक अर्थ के धर्म के लिए थी, धर्म एक जीवन पद्धति है ऐसा मानकर उस अनुसार सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक आदि इहलौकिक क्षेत्र में अपने धर्मानुसार आचरण करने की स्वतंत्रता नहीं थी, जैसीकि मुस्लिमों की थी। पारलौकिक अर्थ के धर्मपालन के संबंध में भी कुछ निर्बंध थे। एक विशेष बात और, जिजिया लेकर उन्हें धार्मिक स्वतंत्रता और सुरक्षा प्रदान करने के लिए इस्लामी राज्य स्थापित नहीं किया था। कुरान के अनुसार (9ः29) जिजिया की सहूलियत केवल ग्रंथधारकों के लिए है, बहुदेववादियों या मूर्तिपूजकों के लिए नहीं। तथापि, यह आयत अवतरित होने के पूर्व पैगंबर की एक हदीस का आधार लेकर खलिफा उमर ने अग्निपूजक पारसियों को जिजिया की सुविधा लागू की थी। अनेकेश्वरवाद इस्लामानुसार सबसे बडा अपराध और अन्याय है। जिजिया लेकर उसके बदले में ऐसा अपराध करने की सुविधा देना यह स्पष्ट रुप से विशिष्ट परिस्थिति का व्यवहारिक समझौता था। अल्पावधि में सभीको श्रद्धावान (इस्लाम पर श्रद्धा रखनेवाला) बनाना संभव ना होने के कारण इसके लिए एक समझौता था। अपने ध्येयमार्ग का एक चरण था।



अब अंत में मिस्त्र की जनता के विरोध पर विचार करेंगे जिन पर की यह शरीअत का कानून लागू किया जाने के प्रयास करने का अयमान मशविरा दे रहे है। इजिप्शियन समाज में तीन गुट हैं, इस्लामिक विचार करनेवाले, कोई विशेष ऐसा विचार न करनेवाले और तीसरा गुट है सुधारवादियों का। सुधारवादी विचार करनेवाले लोगों को इंडोनेशिया, मलेशिया, तुर्की जैसे स्थानों का उदारवादी इस्लाम मंजूर है। यह टीव्ही, समाचारपत्रों से आनेवाली सूचनाओं का प्रभाव है। तुर्कस्तान, मलेशिया उदारमतवादी होकर प्रगति कर रहे हैं यह लोगों को पता चल गया है इस कारण यहां के लोगों का मतपरिवर्तन हो रहा है। आर्थिक विचारधारा प्रभावी तय हो रही है। कामकाजी स्त्रियों का प्रमाण बढ़ रहा है। परिवार नियोजन अपनाया जा रहा है भले ही मुल्ला विरोध करें। स्त्रियां नियोजन कर रही हैं। लडका ही चाहिए, लडकी नहीं इस प्रकार का विचार अब लोग नहीं करते। लडके-लडकियां हाथों में हाथ डाले, कमर में हाथ डाले घूमते नजर आते हैं। बिकनी पहनकर बीच पर लडकियां नजर आ जाती हैं। कई लडकियां हिजाब वापरती हैं परंतु अंदर से बदल गई हैं। बाहरी दबाववश केवल दिखावे के लिए वे िहजाब वापरती हैं। काहिरा में नाईट लाइफ भी है उनमें विदेशी पर्यटक ही अधिक हैं, परंतु इजिप्शियन भी हैं। अच्छा व्यवहार करना चाहिए, शांति से रहना चाहिए, जरुरतमंदों की सहायता करना चाहिए यही धर्म है। उसका पालन करें यही बहुत है का विचार जोर पकड रहा है। अल अजहर विश्वविद्यालय के शेख तंतावी के अनुसार जिहाद यानी शस्त्र लेकर लडना नहीं। जिहाद यानी शब्दों से, कल्पनाओं द्वारा किया हुआ संघर्ष। लोगों को अपने विचारों से सहमत करना जिहाद है। बल प्रयोग न करते प्रेम से सहमत करवाना जिहाद है। अब इस प्रकार की विचारधारा जहां विकसित हो चूकी हो वहां पर शरई कानून का शासन स्थापित करना निश्चय ही आसान नहीं यह बात जरुर पक्की है।

Wednesday, August 14, 2013

अखंड भारत 
अखंड भारत कुछ लोगों का प्राणप्रिय ध्येय है और वह पुनः अखंड करने के लिए सभी विचारों के हिंदू एक पैर पर तैयार रहते हैं। भारत विभाजन बुरा था इसी दृष्टि से देखा जाता है और यह किन कारणों से व किनके कारण हुआयह हमेशा की चर्चा का एक विवादाग्रस्त विषय रहा है। वस्तुतः विभाजन अंग्रेजों ने, कांग्रेस या लीग ने नहीं किया; उन्होंने तो उसे केवल मान्यता दी है। जिस दिन वह भाग मुस्लिम बहुसंख्यक हुआ उसी दिन वह विभाजन हो गया था, उनकी दृष्टि से दार-उल-इस्लाम हो गया था। उस भाग पर और दिल्ली पर भी उन्हीं का शासन होने की वजह से विभाजन की मांग करने की आवश्यकता ही नहीं थी। बाद में मराठों द्वारा दिल्ली पर वर्चस्व जमा लेने के बावजूद अपन पुनः एकबार भारत के सत्ताधीश बनेंगे की आशा 1857 तक उन्होंने छोडी नहीं थी। परंतु, ब्रिटिशों का राज्य और उसीके साथ पाश्चात्य पद्धति का प्रजातंत्र आ गया और उनकी यह आशा भी समाप्त हो गई। ब्रिटिशों के जाने के बाद भारत में प्रजातंत्र के माध्यम से आनेवाले 'हिंदूराज्य" से 'दार-उल-इस्लाम" को मुक्त करने के लिए विभाजन की मांग सामने आई। जो अनेक सदियों से वास्तविकता थी वह एक प्रकार से संसार के सामने कानूनसम्मत करने की मांग थी।

जिन्ना ने अनेक बार दृढ़ता से कहा था कि, उस भाग में अनेक सदियों से पाकिस्तान अस्तित्व में है। 8मार्च 1944 को अलीगढ़ विश्वविद्यालय में उन्होंने कहा था ः''भारत पर मुसलमानों का राज्य स्थापित होने के पूर्व से ही यानी भारत में पहले गैरमुस्लिम ने   इस्लाम स्वीकार किया उसी क्षण से पाकिस्तान का आरंभ हो गया है...""। अनेक मुस्लिम अभ्यासकों ने भी विभाजन या पाकिस्तान का उद्गम कब व कहां से हुआ के संबंध में निष्कर्ष निकाल रखे हैं। उनमें से एक एम. आर. बेग के अनुसार ''उसने (पैगंबर मुहम्मद ने) उनमें गैरमुस्लिमों के विषय में इस प्रकार की भावना निर्मित की कि, मुस्लिम समाज विशेषाधिकार प्राप्त है ... अपन दूसरों से अलग उच्च प्रति के लोग हैं। सैंकडों वर्षों बाद इस मनोवृत्ति ने भारत के मुसलमानों को हिंदुओं से अलग किया ... उसकी परिणति अंत में पाकिस्तान के रुप में हुई।"" खलीद बि. वलीदः ''यह दृढ़तापूर्वक कहा जाना चाहिए कि, मुस्लिम अलगता की भावना कुरान का एक प्रभावशाली घटक होने के कारण (भारत में) संयुक्त राष्ट्रवाद की बढ़ौत्री हो ना सकी।""
 
अखंड भारत के संबंध में भावनिक विचार करते समय जिन प्रश्नों की अनदेखी की जाती है उन पर गौर करने के पूर्व यह समझ लें कि अखंड भारत भी दो प्रकार के हैं पहला, भावनिक जो 13 अगस्त 1947 के पूर्व था और दूसरा वास्तविक जो आज है। सरदार पटेल जिनको भारत अखंड चाहिए था ने कहा था ः ''भारत अखंड रखने के लिए ही (हमें) विभाजन करना पडा।"" पहला प्रश्न है, विभाजन के विकल्प के रुप में आनेवाले अखंड भारत का संविधान कैसा रहनेवाला था? उसमें हिंदू-मुस्लिमों के परस्पर संबंध कैसे रहनेवाले थे? यानी मुसलमानों का व उनके बहुसंख्यावाले प्रांतों का दर्जा और अधिकार क्या रहनेवाले थे? दूसरा प्रश्न है, वह योजना या संविधान विशेषतः मुस्लिम बहुसंख्यावाले प्रांतों के लोगों को मान्य ना हुई तो, उस पर क्या उपाय होगा?

इस संदर्भ में प्रथमतः यह ध्यान में लें कि, आज भारत का है वैसे संविधान की कल्पना सपने में भी उस काल में किसीने की ना थी। इसकी मूलभूत व सारपूर्ण दो बातें केंद्र को कितना अधिकार होगा और मुसलमानों को केंद्रिय सत्ता में कितना हिस्सा होना चाहिए यह था।

मुस्लिम लीग की मांग थी कि, केंद्र के पास केवल तीन रक्षा, संचार-परिवहन और विदेश व्यवहार के अधिकार रहेंगे और बाकी बचे सभी विषय और अधिकार प्रांतों को रहेंगे। केंद्रिय सत्ता में मुस्लिमों और गैरमुस्लिमों (हिंदुओं सहित अन्य सभी) के बीच समान (यानी 50प्रतिशत) हिस्सा रहेगा। (1946 में केबिनेट मिशन के समक्ष लीग के मांग प्रस्ताव के अनुसार) कांग्रेस को प्रांतों की स्वायत्ता मंजूर थी परंतु, उसे केंद्र के उक्त तीन के अलावा करेंसी, मूलभूत अधिकार, कस्टम, नियोजन, खर्च के लिए राजस्व इकट्ठा करने का अधिकार और आपातकाल के लिए विशेषाधिकार। परंतु, केबिनेट मिशन ने कांग्रेस का तीन विषयों तक का सीमित अधिकार मान्य किया था। इस अनुसार केंद्र दुर्बल रहकर नामधारी रहता और बहुसंख्य मुस्लिम प्रांतों को संपूर्ण स्वायत्ता मिलनेवाली थी। आज कश्मीर के संबंध में भी हम ऐसा कर नहीं सकते। 1947 के विलयनामे के अनुसार कश्मीर के संबंध में केंद्र के पास केवल तीन विषयों का ही अधिकार था। बाद में आगे चलकर कई विषयों का अधिकार केंद्र ने स्वयं की ओर लिया। आज कश्मीर की मांग स्वायत्ता की ही है वे यह सब रद्द कर मूल स्थिति लाई जाए कि मांग कर रहे हैं।

इसी प्रकार से अखंड भारत के सभी प्रांतों एवं छःसौ संस्थानों को भी इसीप्रकार की स्वायत्ता देनी पडती। इस प्रकार का अखंड भारत कितने समय तक टिकता? इसीलिए केबिनेट मिशन ने प्रत्येक घटक को दस वर्ष पश्चात फूटकर निकलने का अधिकार मान्य किया था। निश्चय ही इस प्रकार का यह अखंड भारत हिंदुओं के लिए घातक सिद्ध होता।

कांग्रेस ने मुसलमानों को 1916 के लखनऊ समझौते में केंद्र में 33 प्रतिशत हिस्सा देना मंजूर किया था और वह अमल में भी आया गया था। अब वह मुसलमानों व सवर्ण हिंदुओं को 40-40 एवं अन्यों को 20 प्रतिशत हिस्सा देने के लिए तैयार थी। इसी सूत्र के अनुसार 1945 व 1946 में अंतरिम शासन स्थापित करने के प्रयास हुए थे तब 24प्रतिशत मुसलमानों को 40प्रतिशत हिस्सा देने के लिए कांग्रेस ही तैयार हो गई थी। अर्थात् मुसलमानों की बढ़ती जनसंख्या के प्रमाण में वह हिस्सा बढ़ते ही जानेवाला था। 50 प्रतिशत की मांग और उसका विरोध तो सर सय्यद (1884) के जमाने से ही चला आ रहा था। 1896 में उनके पुत्र सय्यद महमूद ने एक योजना तैयार की थी उसमें केंद्रिय व प्रांतिक विधिमंडलों में मुसलमानों को हिंदुओं के बराबरी से समान प्रतिनिधित्व की मांग की गई थी। वे तो जिला व शहर स्तर पर भी 50 प्रतिशत की मांग कर रहे थे। आगरकर ने (1893) दमदारी से कहा था- हिंदुस्थान में 24 करोड हिंदू और 6 करोड मुसलमान होते उनकी मंत्रीमंडल में 'समान संख्या होना योग्य नहीं"।

इस संबंध में राष्ट्रवादी मुसलमानों का क्या कहना था? जो मुस्लिम लीग का कहना था वही इनका भी था। तीन विषयों के अलावा करेंसी का विषय भी वे केंद्र को देने के लिए तैयार नहीं थे। स्वयं मौ. आजाद जो उस समय कांग्रेस के अध्यक्ष थे का कहना था ''करेंसी अथवा वित्त विषय केंद्र के पास होने की आवश्यकता नहीं।"" इन राष्ट्रवादी मुसलमानों का मुस्लिम लीग के साथ 50प्रतिशत हिस्से के संबंध में मतभेद केवल इतना ही था कि, वह हिस्सा केवल लीग द्वारा न भरा जाकर कांग्रेस को भी मुसलमानों को हिस्सा देने का अधिकार होना चाहिए। अन्य मुस्लिम विचारकों द्वारा प्रस्तुत अखंड भारत की योजनाएं भी इससे अलग नहीं थी।

तत्कालीन पक्षों एवं तटस्थ राजनैतिक विचारकों का क्या कहना था तो, उदारमतवादी, प्रजातांत्रिक और निष्पक्ष के रुप में पहचाने जानेवाली सप्रू समिति ने 1945 में नए संविधान की रुपरेखा प्रकाशित की थी। जिसमें विविध पक्षों से चर्चा कर तैयार किए हुए संविधान प्रस्तावानुसार प्रांतों को स्वायत्ता और केंद्र के पास तीन के अलावा कांग्रेस द्वारा सुझाए हुए 5-6 विषय रहनेवाले थे। सवर्ण हिंदू और मुसलमानों का संविधान समिति, लोकसभा और केंद्रिय समिति में समसमान हिस्सा रहनेवाला था। मुस्लिम सदस्यों में से न्यूनतम 25 प्रतिशत का यानी कुल सभागृह का 75 प्रतिशत का समर्थन मिले बगैर संविधान में कोई भी व्यवस्था की जा नहीं सकती थी। जिन्ना द्वारा नकारी हुई यह योजना इसलिए उल्लेखनीय है कि, पक्षरहित, प्रसिद्ध, धर्मनिरपेक्ष और निष्पक्ष विचारक भी अखंड भारत की कौनसी योजना प्रस्तुत कर रहे थे और विभाजन टालने के विकल्प हिंदुओं के लिए कितने घातक रहनेवाले थे, यह इस पर से समझा जा सकता है। सरदार पटेल ने कहा था यदि विभाजन नहीं होता तो सारा हिंदुस्थान पाकिस्तान के मार्ग पर चला गया होता ... हिंदुस्थान के कई टुकडे हो गए होते। यह देश ध्वस्त हो गया होता।

हिंदुत्वनिष्ठ अखंड भारतवादियों की अखंड भारत की योजना कौनसी थी- वीर सावरकर के हिंदूमहासभा के अध्यक्षीय भाषणों एवं वक्तव्यों में इस योजना के कुछ तत्त्व बारंबार आए हुए दिखते हैं ः 1. प्रतिव्यक्ति एक मत और धर्मनिरपेक्षतापूर्वक सभी नागरिकों को समान अधिकार एवं अधिकार रहनेवाला एक संयुक्त हिंदी राज्य रहेगा। 2. अल्पसंख्यकों के धर्म, भाषा व संस्कृति को संविधानात्मक संरक्षण दिया जाएगा। 3. उन्हें जनसंख्या के अनुपात में आरक्षित प्रतिनिधित्व मिलेगा। 4. शासकीय सेवा निपुणतानुसार मिलेगी। केंद्र शासन मजबूत होना चाहिए। राष्ट्रसंघ (लीग ऑफ नेशन्स) द्वारा मान्य किए हुए अल्पसंख्यकों के अधिकार देने के लिए वे हमेशा तैयार थे। हिंदू-मुस्लिम प्रश्न निर्णय के लिए राष्ट्रसंघ को सौंपा जाए ऐसी हिंदूसभा की मांग थी। इस संबंध में अंतरराष्ट्रीय न्यायाधिकरण का निर्णय बंधनकारक माना जाए इस प्रकार का प्रस्ताव 1942 में पारित किया था। सावरकर जनसंख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व देने के लिए तो तैयार थे परंतु 22 व 75 प्रतिशतवालों को समान 50 प्रतिशत हिस्सा देना उन्हें अराष्ट्रीय, प्रजातंत्र के विरुद्ध एवं अन्यायकारक लगता था। इसी दृष्टिकोण से वे कहा करते थे कि हमारी भूमिका ही सच्ची राष्ट्रीय, धर्मनिरपेक्ष एवं प्रजातांत्रिक है।

सावरकर के इस अखंड भारत की योजना में मुसलमानों को जनसंख्या के अनुपात में लोकसभा में प्रतिनिधित्व मिलनेवाला था यदि इस बात पर गौर करें तो यह ध्यान में आएगा कि, यदि आज वह अखंड भारत अस्तित्व में होता तो उस अनुसार लोकसभा में लगभग 38 प्रतिशत मुसलमान सांसद होते स्पष्ट है कि सावरकर का अखंड भारत भी हिंदुओं के लिए अघातक न होता साथ ही यह भी पता चलता है कि आज के जैसे संविधान के आने की कल्पना उस जमाने में हिंदुत्वनिष्ठ कर ना सके थे। आज के संविधान में मुसलमानों के लिए कोई भी आरक्षित स्थान नहीं।

अब भी यह प्रश्न बचा ही रहता है कि अपने को योग्य लगनेवाली अखंड भारत की योजना या संविधान मुस्लिम बहुसंख्यावाले राज्यों के मुसलमानों को मान्य ना हुआ तो इस पर क्या उपाय है? हम उन पर यह संविधान किस पर से लादनेवाले थे? कइयों ने अब्राहम लिंकन की ओर इशारा कर कहा है कि गृहयुद्ध लडकर भारत को अखंड रखना था परंतु, कांग्रेस डर गई।

गृहयुद्ध के संबंध में भावनाओं की ऊंचाई से वास्तविकता के धरातल पर उतरकर विचार करें तो क्या नजर आएगा? गृहयुद्ध होता मुसलमानों और हिंदुओं के बीच। अगर-मगर को छोडकर क्षणभर को मान लें कि गृहयुद्ध हो ही गया होता तो इसका विभाजन पर क्या असर पडनेवाला था। बहुसंख्यक हिंदू भाग के मुसलमान और मुस्लिम बहुसंख्यक भाग के हिंदू समाप्त हो जाते यानी इन दोनो ही भागों का विभाजन और भी मजबूत हो जाता, टल नहीं जाता। और अब वह टालने के लिए जिस प्रकार से मराठे अटक पार गए थे उसी प्रकार हिंदुस्थान के सारे हिंदुओं को जो मिले वह हथियार लेकर कराची, पेशावर आदि पर चढ़ दौडना पडता। वह सारा भाग जीतकर वहीं रहना था, मराठों की तरह लौटकर आने से विभाजन टलनेवाला नहीं था। जीतने के बाद भी अनेक सदियों से पाकिस्तान रहता आया वह भाग वैसा ही रहने के कारण वे विभाजन के लिए पुनः विद्रोह कर ही सकते थे। आज यदि भारतीय सेना भेजकर पाकिस्तान को जीत भी लिया जाए तो भी पाकिस्तान नष्ट होनेवाला नहीं विभाजन मिटनेवाला नहीं।

और गृहयुद्ध छिड ही जाता तो पुलिस और सेना हाथ जोडकर बैठनेवाले नहीं थे। वे किस की ओर होते? अनेक अध्ययनकर्ताओं  और तत्कालीन ब्रिटिश अधिकारियों ने स्पष्ट रुप से दर्ज कर रखा है कि, जनता के समान ही पुलिस और सैन्यदलों में सांप्रदायिकता प्रभावी हो गई थी। हिंदू बहुसंख्यांक उत्तरप्रदेश में भी पुलिस दल में 50 से 60 प्रतिशत मुस्लिम और 50 प्रतिशत उपजिलाधिकारी मुस्लिम ही थे। दिल्ली में 75 प्रतिशत पुुलिसवाले मुस्लिम थे। प्रमुख सेनापति ने1945 में शासन को रिपोर्ट भेजी थी कि, मुसलमान स्वयं को पहले मुसलमान फिर हिंदी मानने लगे हैं। केंद्रिय मंत्री काकासाहेब गाडगील ने कहा कि, ''मुस्लिम प्रशासकीय अधिकारी मुस्लिम लीग के नेताओं से मिलकर गुप्त सूचनाएं देते हैं।"" सांप्रदायिक आधार पर सेना में फूट पड सकती है का भय व्हायसराय ने दिसंबर 1946 में व्यक्त किया था। विभाजनकाल के दंगों में पुलिस ने अपने धर्मियों की ओर से सहभाग लिया था। पुलिस अपने धर्मियों के विरुद्ध जाने के लिए तैयार नहीं थे। विभाजन पश्चात पंजाब में पहले तीन सप्ताहों के हत्याकांडों में 70 प्रतिशत हत्याएं सेना या पुलिस ने की थी।

सेना में मुसलमानों की संख्या कितनी थी? जिन्ना ने तो 13 सितंबर 1942 को अपने घर पर ली पत्रकार वार्ता में 1942 में भारत छोडो आंदोलन के संदर्भ में स्पष्ट रुप से कहा था ''....(ब्रिटिश शासन ध्यान में रखे) वर्तमान में (इस आंदोलन में कांग्रेस द्वारा)  निर्मित किए जानेवाले उपद्रव की अपेक्षा कम से कम 500 गुना अधिक उपद्रव लीग निर्मित कर सकती है ... मुसलमानों के पास 500 गुना बंदूकें हैं। मुझे लगता है कि सेना में 65 प्रतिशत मुस्लिम हैं।...."" वी.पी. मेनन ने यह संख्या 60%। सावरकर ने महायुद्ध पूर्व सेना में यह संख्या 60 से 62% बतलाई है। (इसीलिए वे सेना में प्रवेश करो का प्रचार करते थे) ध्यान में रखने लायक एक बात और है ये अधिकांश मुस्लिम सैनिक 'पाकिस्तानी" क्षेत्र से ही आए थे। लीग के विचारों का प्रभाव उन पर पड चूका था। सेनापति लाकहर्त ने अधिकृत रुप से कहा था कि, 1941 में यह अनुमान 37 तो 1942 में 35% था। इनमें से कोई सी भी संख्या मान लें तो भी गृहयुद्ध हिंदुओं को महंगा ही पडता इसमें कोई शक नहीं।

1946 में कांग्रेस अध्यक्ष आचार्य कृपलानी ने लिख रखा है ः ''(दिल्ली में) मुसलमानों के घरों पर जब छापा मारा गया तो वहां बम, शस्त्रास्त्र, बारुद, स्टेनगन्स, ब्रेनगन्स, छोटी तोफें, बेतार संदेशवाहक यंत्रों का ढ़ेर मिला। यह यंत्र तैयार करने के गुप्त कारखाने मिले। अनेक स्थानों पर यह शस्त्र उन्होंने पूर्व नियोजित हमलों के लिए उपयोग में लाए भी थे।"" अतः जिन्ना की धमकियों में अर्थ था और वह टालने का विचार हिंदुओं द्वारा करने में कोई मतलब नहीं निकलता। विभाजन टालने के लिए तो बिल्कूल भी नहीं। इस प्रकार से अखंड भारत की कोई सी भी योजना का हिंदूघातक स्वरुप और विभाजन की अटलता ध्यान में आने के बाद अनेक लोग पूछने लगते हैं कि, 'फिर संपूर्ण जनसंख्या की अदलाबदली क्यों नहीं की गई? सारे मुसलमानों को यहां से पाकिस्तान भेज देना था झंझट ही खत्म हो जाता। अब यहां दो ही विकल्प नजर आते हैं एक तो पाकिस्तानी भाग सहित (उस समय24 और अब 38% मुस्लिम संख्यावाला) अखंड भारत, नहीं तो मुस्लिम विहीन हिंदुस्थान। यह योजना दिखने में तो अच्छी लगती है परंतु, व्यवहार्य है क्या? डॉ. आंबेडकर ने सख्ती से जनसंख्या स्थानांतरण का उपाय सुझाया था यह सच नहीं। इस संबंध में उन्होंने ऍडम स्मिथ का यह मत उद. किया था-''सब सामानों में यातायात के लिए (अनिच्छुक) मनुष्य ही सर्वाधिक कठिन बोझा है।"" उनका मत था ''जनसंख्या स्थानांतरण स्वेच्छा से होना चाहिए।""

थोडा विचार करें बचे हुए पूरे विशाल भारत के कोने-कोने में फैले हुए मुसलमानों को किस प्रकार से सुरक्षित पाकिस्तान पहुंचाया जाता। यदि स्वेच्छा से भी जाना चाहते यात्रा कैसे करते? उस जमाने में वाहन ही कितने अल्प थे, फिर गांव-गांव में फैले हुए मुसलमान, 50-60कि.मी. तक रास्ते ही नहीं थे। औरतें-बच्चे, बीमार, अपंग, बूढ़े जाते कैसे? रास्ते में चोर-लूटेरे-डाकूओं से रक्षा कौन करता? रास्ते में वे खाते क्या? फिर स्वेच्छा से कोई निर्वासन कुबूल करता है क्या? यदि वे तो जंगलों में जा छिपते तो, उन्हें पकडकर कैसे ले जाते, इतनी पुलिस कहां से लाते? उसमें से भी आधे तो मुसलमान ही थे। सबसे बडी बात तो हिंदुओं की मानसिकता समझने की है क्या वे इसके लिए तैयार हो जाते। हैदराबाद पुलिस एक्शन में मुसलमानों को बचानेवाले 'कत्लेआम" में से बचे हिंदू ही थे। यह इतिहास कोई पुराना नहीं उसी जमाने का है। जनसंख्या का इतना बडा स्थानांतरण शांति से संभव भी नहीं था यह कानून से नहीं जनता द्वारा निर्मित मृत्यु के भय से ही संभव था। स्पष्ट है कि यह इच्छा व्यवहारिक ना होकर पाकिस्तान बनने से उत्पन्न रोष की स्वाभाविक हिंदू अभिव्यक्ति है। विभाजन के बाद दस लाख लोगों का हत्याकांड हुआ यह एक भयंकर शोकांतिका थी परंतु, यह भी उसी प्रकार से अटल थी जिस प्रकार से की विभाजन। केवल विभाजन आगे ढ़केलना संभव था, परंतु वह होने के लिए या होने तक, विभाजन के पूर्व होनेवाला हिंसाचार होता ही रहता और पुनः विभाजन और शोकांतिका अटल ही थी।

विभाजन हिंदू-मुस्लिम समस्या के कारण हुआ था वह समस्या पूरी तरह से हल हो इसलिए न तो मांगा गया था ना ही मान्य किया गया था। इसका प्रयोजन मुस्लिम बहुसंख्यक भाग को हिंदुओं से मुक्ति और मुस्लिम इच्छानुसार राज्य करने की और शेष भारत में एकसंघ और प्रबल केंद्र स्थापित कर हिंदू स्वयं की 'हिंदू" सेक्यूलर विचारानुसार राज्य कर सकें इसके लिए था। भले ही भौगोलिक दृष्टि से यह विभाजन नजर आता हो परंतु वस्तुतः यह मुस्लिम समाज का विभाजन था। और यह विभाजन मुस्लिमों के लिए किस प्रकार आघातक ठहरा इसकी बानगी देखिए - प्रा. मुशिरुल हसन ः ''भारत में रह गए मुसलमानों के लिए विभाजन दुःस्वप्न ठहरा ... वे 'विभाजित" हो गए, 'दुर्बल" और दाहिने हिंदुओं के भीषण हमलों के बलि ठहरे।"" ''... उलेमाओं को लगा कि, विभाजन के कारण उपखंड के इस्लामी समाज का विभाजन होकर वह दुर्बल हो गया और शाह वलीउल्लाह से लेकर मौ. मौदूदी तक के विचारकों ने रखे हुए ध्येय का सपना चकनाचूर हो गया। उनकी एकजुटता, आत्मबल और चैतन्य खो गया है ... इस्लाम के इतिहास में इस जैसी दूसरी कोई 'भयंकर भूल" नहीं हुई उन्होंने कहा ... '(मुस्लिम) समाज का नाश और विनाश किया इसलिए लीग नेतृत्व के विरुद्ध इतिहास निर्णय देगा" (ऐसा भी घोषित किया)"" ''समाज पीट गया, उसे गुप्त मार पडी और वह (तीन) टुकडों में विभाजित हो गया।""


विभाजन के कारण समस्या पूरी तरह हल होनेवाली नहीं थी बल्कि वह सौम्य और नगण्य बननेवाली थी। पहले के साढ़े 9 करोड के मुकाबले साढ़े 3 करोड मुसलमान रह जाने थे और मुख्य बात यह कि वे कहीं भी बहुसंख्यक रहनेवाले नहीं थे। सबक यह है कि अब यह वास्तविक अखंड भारत अखंड बना रहे फिर से विभाजन की परिस्थितियां निर्मित ना हों इसलिए जो गलतियां पहले हो चूकी वे दोहराई ना जाएं इस बाबत सावधान रहें।

Thursday, August 8, 2013

क्या भारत इजराईल से कुछ सीखेगा !!

भारत और इजराईल में साधर्म्य है। भारत की स्वतंत्रता के ठीक तीन महिने पश्चात 29 नवंबर 1947 को इजराईल की स्वतंत्रता का प्रस्ताव पारित हुआ और 15 मई 1948 को उसका जन्म हुआ। स्वातंत्र्योत्सव मना रहे इजराईल पर दूसरे सप्ताह में ही अरबलीग के सातों राज्यों (सीरिया, लेबनान, जार्डन, मिस्त्र, सऊदी अरब, इराक और यमन) ने आक्रमण कर दिया। 5000 यहूदियों की बलि चढ़ाकर इजराईल ने विजय प्राप्त की। इस आश्चर्यजनक सफलता का आधार था उसका अपना आत्मविश्वास, धर्म और प्रखर राष्ट्रवाद। भारत पर भी स्वतंत्रता प्राप्ति के कुछ महिनों पश्चात पाकिस्तान ने कश्मीरी टोलियों के रुप में आक्रमण किया उस समय  सेना द्वारा शत्रुओं का पूरा नाश संभव होते हुए भी भारतीय राज्यकर्ता आक्रमण का प्रश्न यूनो में ले गए और उसका फल यह मिला कि, आधा कश्मीर स्वाहा होने के पश्चात आज भी पाकिस्तान आक्रोश व्यक्त कर रहा है कि 'हमारा आधा भाग तुमने दबा रखा है"। और हमें सतत युद्धमान स्थिति में खडा रहना पड रहा है। यह बात अलग है कि हम चाहे जो हो जाए जैसे कि पिछले 6 माह में 57 बार युद्धविराम का उल्लंघन, 3 साल में 270 आतंकी नियंत्रण रेखा पारकर घुसे, सन् 2010-12 के बीच 1000 आंतकी घुसपैठ की कोशिशें हुई हमारे जवानों को हौतात्म्य स्वीकारना पड रहा है और हम असहाय व किंकर्तव्यविमूढ़ आत्मसम्मानविहीन अवस्था में खडे-खडे देख रहे हैं।

उधर इजराईल के आत्मसम्मान की बानगी देखिए कि वह अपने देश की रक्षा के लिए किस सीमा तक कटिबद्ध है, यह इजराईल के वायुसेना के अधिकारी येरुकम अमिताई से सुुनिए -''यदि कभी इजराईल अपनी या अपनों की रक्षा करने में असमर्थ पाया जाए तो उसके अस्तित्व का कोई तात्पर्य ही नहीं रहता। हम आक्रमणकारी रक्षात्मक उपायों का प्रयोग करने के लिए बाध्य किए गए हैं और दांव दिन ब दिन ऊंचा होता जा रहा है। वह समय भी आ सकता है कि जब अपने यहूदी परिवार के एक सदस्य की रक्षा के लिए ऐसा कदम उठाना पड जाए जिससे मनुष्य जाति ही नष्ट हो जाए। इसके बिना जीवित रहना, जीवित रहना कहा ही नहीं जा सकता और हम सबकी कीमत, चाहे हम किसी भी देश में क्यों ना हों, कौडी के बराबर भी न होगी, यदि हम अपने आत्म- सम्मान को बेचकर अपने जीवन की कीमत अदा करें।""

सचमुच इजराईल ने अपने जन्म से लेकर अब तक इस भीष्म-प्रतिज्ञा का अक्षरशः पालन किया है। विकट परिस्थितियों को देखते हुए उसके कार्यकलापों ने संसार को आश्चर्य में डाल दिया है। द्वितीय विश्वयुद्ध के समय के जर्मनों के विषाक्त गैस-चैम्बर जहां यहूदियों को सामूहिक रुप से मौत के घाट उतारा जाता था के सबसे बदनाम शिविर (आश्विटज नगर) के संचालक आइकमैन  को अर्जेन्टीना के एक नगर से कई वर्षों बाद पकडकर इजराईल ला मृत्युदंड दिया। यूरोप के ओलंपिक में गए हुए इजराईल के खिलाडियों की उनके होटलों में फिलिस्तीनी छापामारों द्वारा हत्या के बारह आरोपियों में से ग्यारह को ढूंढ़कर मार डाला। युगांडा जाकर कसाई ईदीअमीन के घर में घुसकर फिलिस्तीनी मुक्ति मोर्चे के लोगों द्वारा अपह्रत विमान को मय यात्रियों के मात्र 90मिनिट में छुडा लाया। 1981में इराक के बगदाद के निकट स्थित परमाणु रिएक्टर 'ओसिराक" को अचानक हवाई हमला कर नष्ट कर डाला। 1 अक्टूबर 1985 को पी.एल.ओ. के अध्यक्ष यासर अराफात के निजी रक्षकों के संगठन फोर्स-17 को कुचलने के लिए जिन्होंने तीन इजराईली नागरिकों को मार डाला था पर ट्यूनीसिया स्थित फिलीस्तीनी मुक्ति मोर्चे के मुख्यालय पर लडाकू विमानों से हमला कर दिया था। यह मुख्यालय इजराईली सेना के धुआंधार हमलों के कारण ही बेरुत से हटाकर पांच हजार कि.मी. दूर ट्यूनीसिया की राजधानी ट्यूनीस स्थानांतरित किया गया था।

एक हम हैं कि हरसमय हुतात्मा हो रहे हमारे जवानों के हौतात्म्य का बदला लेना छोड पाकिस्तान से चर्चा में ही रत हैं उस पर कोई कारवाई किए जाने के स्थान पर आपस में ही उलझते फिर रहे हैं। हमारी सेना में भी अत्यंत विकट परिस्थितियों में शत्रु से सामना करने की क्षमता है जो कि वह कारगिल-सियाचीन के मोर्चों पर दे भी चूकी है। मुंबई के हमले 9/11 के समय हमारे कमांडों अपनी वीरता, सक्षमता का परिचय दे चूके हैं। परंतु, हमारे नाकारा नेतृत्व उस सफलता को भी असफलता में बदल देते हैं। हम यही सोचकर प्रसन्न होते रहते हैं कि कसाब के बहाने हम पाकिस्तान के सत्य को विश्व के सामने ले आए। यदि इस सत्य को विश्व जनमत के सामने लाने से कोई लाभ होता तो कुछ समझ में भी आता, परंतु पाकिस्तान तो अपनी कारगुजारियों में आज भी उसी तरह से लगा हुआ है। आज भी पाकअधिकृत कश्मीर में आंतकवादियों के प्रशिक्षण स्थल चल रहे हैं। आतंकी दाऊद इब्राहीम पाकिस्तान में मजे से रह रहा है और वहां बैठे यहां आतंकी कार्यवाहियों को अंजाम दे रहा है। यदि अमेरिका पाकिस्तान में घुसकर ओसामा बिन लादेन को मार सकता है, इजराईल दूसरे देशों में घुसकर अपने देश के शत्रुओं का नाश कर सकता है, तो महाशक्ति का सपना संझोनेवाले हम क्यों नहीं कर सकते? वास्तव में सत्य तो यह है कि हमारे नेतृत्व में दम नहीं शायद इसीलिए हम डी - डे जैसी पिक्चर बनाकर ही खुश हो जाते हैं। वरना हमारी सेना तो पूरी तरह से सक्षम है। जो अपनी सक्षमता कई बार कई विभिन्न मोर्चों पर सिद्ध भी कर चूकी है।

पहले अरब-इजराईल युद्ध के बाद ठंडे पड चूके अरबों ने मिस्त्री राष्ट्रपति नासिर के नेतृत्व में 1954 में खुरापातें आरंभ की आज जिस प्रकार से पाकिस्तान कर रहा है उसी प्रकार की हरकते सीमा पर की, सुवेज नहर तक इजराईल के लिए बंद कर दी। नतीजा इजराईल ने मिस्त्र के सिनाई रेगिस्तान पर कब्जा जमा लिया और युद्ध के सारे उद्देश्य पूर्ण होने पर 6नवंबर 1956 को युद्धबंदी की। जनवरी 1967 में सीरिया की सीमा पर टैंकयुद्ध शुरु होकर इजराईल की बडी हानि हुई। परंतु, तत्काल इजराईल ने पलटवार कर इजिप्त के 300, सीरिया के 60, जॉर्डन के 35 और इराक के 15 हवाईजहाजों को विमानतलों पर ही नष्ट कर दिया। उडने तक का मौका ना दिया। फिलीस्तीनियों की गाजापट्टी, जॉर्डन का पश्चिमी तटप्रदेश, सीरिया की गोलान पहाडियों और मिस्त्र के सिनाई रेगिस्तान पर कब्जा जमा लिया। अरब-इजराईल के बीच चार बडे तो 25-30 छोटी-मोटी लडाइयां हो चूकी हैं। परंतु, हरबार दीन-दीन करनेवाले अरबों की शक्ति क्षीण ही हुई।

इस दमदारी का नतीजा सबसे पहले मिस्त्र ने इजराईल से समझौते का मार्ग अपनाया, जॉर्डन ने भी यही मार्ग अपनाया, लेबनान को तो जबरदस्त मुंह की खानी पडी और तो और फिलीस्तीन को भी इजराईल को मान्यता देनी पडी। यह इजराईल की शक्ति का ही चमत्कार है कि मिस्त्र जो इजराईल को समुद्र में डूबो देने की बात करता था जो अरब अनंतकाल तक लडने का दम भरते थे नमस्कार की मुद्रा में आ गए। आखिर शक्ति की ही भक्ति होती है इसीलिए पाकिस्तान के जनरल जिया जो इस्लामिक परमाणुबम बनाने का दावा करते थे ने अरबी समाचार पत्र 'अखबार अल खलीज" को एक साक्षात्कार में कहा 'इजराईल से लडाई हमेशा के लिए जारी नहीं रखी जा सकती", 'अरब देश इजराईल को मान्यता दे दें।"


वास्तव में हम जिस दिन पाकिस्तान को ईंट का जवाब पत्थर से देंगे उसी दिन वह सीधा होगा, उसकी कमर तोडना ही होगी वरना तब तक तो बस यही चलता रहेगा जो वर्षों से जारी है पाकिस्तान हरकतें रहेगा हम विरोध प्रकट करते रहेंगे, आपस में बहस करते रहेंगे नतीजा ढ़ाक के तीन पात की कहावत सिद्ध होती रहेगी। हम अपमानित होते रहेंगे, हमारे जवान सीमा पर हुतात्मा होते रहेंगे। विश्व में सबसे बडे हथियारों के खरीददार होने के बावजूद भी हम क्या हमेशा मिमियाते ही रहेंगे? यदि यह करना है तो इतने हथियारों को खरीदने की आवश्यकता ही क्या है?