Thursday, July 17, 2014

सबके लिए बने समान नागरिक संहिता - भाग 2

भारत एक देश है, यहां कहने के लिए समान नागरिक अधिकार और कर्तव्य हैं परंतु, व्यवहार में हम पाते हैं कि विभिन्न जाति धर्मावलम्बियों के लिए विभिन्न विधान बनाए गए हैं। 1954 में विशेष विवाह अधिनियम बनाया गया जो अन्तरजातिय विवाहों को वैधता प्रदान करता है। 18 मई 1955 से देश में 'हिंदू विवाह अधिनियम" लागू है। जिसके अनुसार हिंदू पुरुष को एक समय में एक स्त्री से वैवाहिक संबंध बनाए रखने का अधिकार है। इस अधिनियम की यह भी विशेषता है कि, अनुसूचित जातियों को इसके प्रभाव से परे रखा गया है। भारत के ईसाइयों के लिए सन 1872 में 'भारतीय ईसाई विवाह अधिनियम" बनाया गया था जो सौ वर्षों के उपरांत भी प्रभावशील है। जहां तक देश के मुस्लिमों के विवाह का प्रश्न है उसे हमारे राजनेता आज तक किसी विधान के द्वारा नियमित करने का साहस दिखा नहीं सके हैं। अंगे्रजों ने एक मोहमडन ला अवश्य बनाया था। 1400 वर्ष पूर्व अरबस्थान की सामाजिक रीतियों के अनुसार जो विवाह पद्धतियां निकाह और मुताह वहां प्रचलित थी उस आदिम अवस्थावाली पद्धतियों की और वह भी वहां की परिस्थिति से सर्वथा भिन्न परिस्थिति वाले इस भारत में मुसलमानों में आज भी प्रचलित है। वस्तुतः कुरान में चार विवाह करने का कोई धर्मादेश नहीं है। वह मात्र परामर्श भर है। आज संसार के विभिन्न देशों में भी मुस्लिमों में एक पत्नी पद्धति के विधान बनाए जा रहे हैं। तथापि, भारत के मुल्ला-मौलवी इस बात पर हाय-तौबा मचाते हैं।
विवाह विधान के संबंध में दो उल्लेख महत्वपूर्ण होंगे। 1). पूर्व में गोवा पुर्तगालियों के अधीन था। वहां पर पूर्व का पुर्तगाली विवाह अधिनियम आज भी प्रभावशाली है। जिसके अनुसार हिंदू, सिक्ख, ईसाई, मुसलमान सभी धर्मों के अनुयायियों के लिए एक से अधिक विवाह प्रतिबंधित हैं। 2). दूसरा आश्चर्य है जम्मू-काश्मीर राज्य का। 21 सितंबर 1981 को जम्मू-कश्मीर विधान सभा ने एक विधेयक पारित कर मुसलमानों के लिए अनिवार्य किया है कि धार्मिक पद्धति से निकाह होने के उपरांत भी एक माह की समयावधि में रजिस्ट्रार के न्यायालय में जाकर उसका पंजीयन करवा लें। हमारे देश के दो छोरों की यह वैधानिक स्थिति क्या समूचे भारत के लिए आवश्यक नहीं। हमारे देश में विवाह विधानों की भिन्नता के कारण क्या हिंदू क्या इस्लाम 'धर्म" मानो एक मजाक बन चूका है।

18 मई 1955 को देश के हिंदुओं के लिए 'हिंदू विवाह-विच्छेद अधिनियम" अनिवार्य किया गया। विवाह विधान संशोधन अधिनियम 1970 के द्वारा इसमें धारा 13 को समाविष्ट किया गया है। फलस्वरुप पूर्व की अपेक्षा अब विवाह विच्छेद कुछ सुलभ हुआ है। भारत के ईसाइयों के लिए 'भारतीय विवाह विच्छेद अधिनियम 1869" बनाया गया था। जिसके अनुसार इस अधिनियम का लाभ प्राप्त करने के लिए एक पक्ष का ईसाई होना आवश्यक है। मुसलमानों के विवाह विच्छेद (तलाक) के संबंध में पूर्व में हमारे देश में कोई विधान नहीं था। 1939 में 'मुस्लिम विवाह विच्छेद अधिनियम" अवश्य बनाया गया और मुस्लिम महिलाओं को इस विषय में कुछ शक्ति प्रदान करने की चेष्टा की गई। तथापि, इससे स्थिति में कुछ विशेष परिवर्तन नहीं आया है। इस्लाम के अनुसार  मुसलमान पुरुष को यह अधिकार है कि वह बिना कोई कारण बताए मात्र दो साक्षियों के सन्मुख 'तलाक", 'तलाक", 'तलाक" इस प्रकार मात्र तीन बार 'तलाक" शब्द का जाप कर पत्नी को तलाक दे सकता है। मुस्लिम पत्नी को भी तलाक जिसे 'खुला" कहते हैं का अधिकार अवश्य है परंतु वह पुरुष की तुलना में अत्यंत ही संकुचित तथा अप्रयोगनीय स्वरुप का है। इस्लाम में 'मेहर" की व्यवस्था कर स्त्रियों को आर्थिक सुरक्षा प्रदान करने तथा स्त्री-पुरुषों में समानता की बात की जाती है। परंतु, तलाक का अधिकार  और प्रक्रिया महिलाओं की आर्थिक सुरक्षा और समान अधिकार की पोल खोलकर रख देता है। 'तलाक" के संबंध में इस्लामियों का दुराग्रह मात्र भारत में ही चल सकता है अन्य अनेक देशों में नहीं।

विवाह और विच्छेद के अतिरिक्त उत्तराधिकार, दहेज आदि में भी धार्मिक आधार पर विभिन्नता को हमारे देश में वैधानिकता मान्यता है। हिंदुओं के लिए 'हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956" बना हुआ है। ईसाइयों और मुसलमानों के लिए उनके पारम्परिक अधिकार हैं। मुसलमानों में 'दत्तक विधान" पद्धति न होने से कुल चलाने तथा उत्तराधिकार हेतु चार-चार विवाह किए जाते हैं। हमें यह निःसंकोच स्वीकारना होगा कि, दहेज हमारे समाज के लिए भयंकर अभिशाप है। इसकी गंभीरता को दृष्टिगत रख 1 जुलाई 1961 को हिंदुओं के लिए दहेज निषेध अधिनियम लागू हो गया। आर्थिक प्रलोभन के कारण मुसलमानों में भी दहेज का प्रचलन बढ़ता जा रहा है। पर 1961 का अधिनियम मात्र हिंदुओं के लिए ही होने के कारण मुस्लिम वधुओं के माता-पिता असहाय हैं।

किसी भी समाज में सुधार करने हेतु उस समाज के नेतृत्व में ही चिंतन तथा क्रियाशीलता आवश्यक है इसके अभाव में शासकीय विधान ही एक मात्र उपाय शेष रहता है। जहां तक मुसलमानों का प्रश्न है। उनके नेतृत्व को तीन वर्गों में वर्गीकृत किया जा सकता है। 1). धार्मिक नेतृत्व- मुसलमानों का धार्मिक नेतृत्व 1400 वर्ष पूर्व की अरबस्तान की परिस्थितियों के लिए बनाए गए  नियमों को कठोरता से बनाए रखना चाहता है। 2). राजनेता तो मुस्लिम वोटों के भूखे हैं और मुस्लिम राजनेता तो यहीं से शुरु करते हैं कि देश में मुस्लिन पर्सनल ला को लेकर निहायत नासमझी की बातें की जाती हैं। अव्वल तो वह दूसरों के रास्ते में क्या रुकावट डालता है कि उसे बदलने की पेशकश हो? दूसरे यह कैसे कहा जा सकता है कि मुसलमान चार-चार शादियां कर सकता है? मुस्लिम पर्सनल ला कहीं पर नहीं कहता कि तुम चार शादियां करो। दूसरी शादी करने पर नियम के अनुसार दूसरी पत्नी को उतना ही प्यार करना होगा जितना कि पहली को। क्या ऐसा मुमकिन है? अब ऐसों को यह कौन समझाए कि चार-चार पत्नियां रखनेवाले  और मात्र तीन बार तलाक-तलाक-तलाक कहकर पत्नी को सडक की परायी औरत बनानेवालों का प्यार से क्या वास्ता हो सकता है? तो कोई फरमाता है कि पर्सनल ला का संबंध सीधा धर्म से है अतः ऐसी चीज को छेडना उचित नहीं होगा। कुछ इसी प्रकार के विचार पढ़े-लिखे भी प्रकट करते नजर आते हैं। 3). मुसलमानों में सामाजिक नेतृत्व अत्यंत ही क्षीण है और जो कोई समाज सुधार की बात करता है उसे समाज से न तो कोई सहयोग मिलता है ना ही कोई मान-सम्मान बल्कि वह पीडित रहता है।

देश में विद्यमान पृथक-पृथक संहिता के राष्ट्रजीवन के विभिन्न क्षेत्रों पर अनेकानेक दुष्परिणाम हुए हैं, हो रहे हैं और भविष्य में भी होंगे। अतः उन पर विचार अत्यावश्यक है। राजनीति पर प्रभाव ः भारत एक प्रजातांत्रिक देश है और प्रजातंत्र में संख्याबल का अपना एक महत्व है। संख्याबल के महत्व को लेबनान और इजराईल के उदाहरणों से समझा जा सकता है। कुछ वर्षों पूर्व लेबनान में ईसाई बहुसंख्या में थे परंतु, आज लेबनान मुस्लिम बहुल है। पिछली शताब्दी के प्रारंभ में यहूदी इजराईल में अल्पसंख्या में थे  पर आरंभ में रुस से और फिर आगे जर्मनी एवं संसार के अन्य राष्ट्रों से यहूदी पेलेस्टाईन पहुंचे और आज वह भाग इजराईल बन चूका है। जनसंख्या के प्रभाव को हम 1947 में विभाजन के रुप में देख चूके हैं। आर्थिक प्रभाव ः बहुविवाह और अधिक बच्चे पैदा होने से देश की सीमित अर्थशक्ति और आर्थिक विकास पर दबाव बढ़ता चला जा रहा है। हमारी आर्थिक उन्नति को जनसंख्या विस्फोट लील लेता है। धार्मिक ः हमारा देश धर्मनिरपेक्ष है और सभी को अपने धर्म के आचरण की मुक्ततता है तथापि, धार्मिक स्वतंत्रता की आड में मुस्लिमों की संख्यावृद्धि भारत में इस्लाम के प्रभाव में वृद्धि करेगी जो देश को संकटग्रस्त बना देगा। 

मुसलमानों में विद्यमान अशिक्षा, मुस्लिम महिलाओं की पर्दाप्रथा, तलाक का संकट तथा बहुविवाह, मुसलमानों विशेषकर मुस्लिम महिलाओं को सदा पिछडी हालत में ही रखेगा। मुसलमान देश के नागरिक हैं और इतनी बडी संख्या में नागरिकों का पिछडा रह जाना देश की सामाजिक अवस्था के लिए संकटकारी है। राष्ट्र और समाज का एक हिस्सा भी यदि पिछडा हुआ रहता है तो उससे समूचे राष्ट्र और समाज की प्रगति कुप्रभावित होगी।

उपर्युक्त संकटों से मुक्त होने का एक ही उपाय है - समान नागरिक संहिता। निश्चय ही सामाजिक सुधारों के लिए समाज में जागरण और उन समाज सुधारों के प्रति समाज में लालसा उत्पन्न करना आदर्श पद्धति है। तथापि, यदि कोई समाज इस आदर्श पद्धति के अवलंबन हेतु तैयार न हो तो आज के युग में शासनशक्ति का प्रयोग अनिवार्य ही होगा। इसीलिए मुस्लिमों को समाज सुधारों से दूर रखने की इच्छा रखनेवाले एवं समान सामाजिक संहिता के विरोधी प्रच्छन्न विरोधी मुसलमान तथा हिंदू राजनेता जो समाज सुधार का आग्रह रखते हैं के तर्कों के विपरीत यह समयोचित प्रतीत होता है कि मुस्लिमों के सामाजिक सुधार हेतु समाज सुधार की मंथर गति पद्धति का नहीं तो कानून का सहारा लेना ही उचित होगा इस प्रकार, देश के नागरिकों को बहुसंख्यक आदि वर्गों में न बांटते हुए सभी के लिए एक समान नागरिक संहिता का निर्माण राष्ट्र के लिए लाभकारी तथा न्यायोचित होगा।  
सबके लिए बने समान नागरिक संहिता - भाग 1

सन्‌ 1947 में स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात स्वतंत्र भारत ने विश्व के संभवतः सबसे वृहद्‌ संविधान को अपनाकर जो स्वनिर्मित था, एक गणतंत्रात्मक अवस्था को प्राप्त किया। परंतु इतिहास का यह एक दुर्भाग्यपूर्ण पहलू है कि हमारी संविधान सभा देश को एक समान नागरिक संहिता ना दे सकी साथ ही उसने भविष्य में उसके निर्माण के मार्ग को भी निष्कंटक ना रखा। संविधान सभा में समान नागरिक संहिता पर बनी सात सदस्यीय समिति की यह सर्वानुमति राय थी कि समान नागरिक संहिता बने। तथापि मतभेद इस बात पर था कि इसे मौलिक अधिकारों की सूची में रखा जाए या मार्गनिर्देशक सूची में। मीनू मसानी, अमृतकौर, और हंसाबेन मेहता मौलिक अधिकारों की सूची में रखने के पक्षधर थे। पर तीन के विरोध में चार के कारण इसे 'मार्ग निर्देशक सूची" में रखा गया।

समान नागरिक संहिता संविधान की धारा 44 से संबंधित है जिसमें कहा गया है कि - राज्य भारत के समस्त राज्यक्षेत्र में नागरिकों के लिए एक समान सिविल संहिता प्राप्त कराने का प्रयास करेगा। सन्‌ 1955 में विधिमंत्री पाटसकर ने संसद के समक्ष जब हिंदू कोड बिल प्रस्तुत किया, तब कुछ सांसदों ने समान नागरिक संहिता की मांग की तो विधिमंत्री ने चतुराईपूर्वक यह बतलाने की चेष्टा की कि इस बिल के रुप में देश की 85 प्रतिशत जनसंख्या के सुधार का प्रबल चरण उठाया जा रहा है। जो समान नागरिक संहिता की ओर बढ़ाया गया एक कदम है। पंडित नेहरु ने इससे सहमति जताते हुए कहा था कि वे भी इसके पक्षधर हैं परंतु, यह समय उपयुक्त नहीं है और जब इस बिल के कारण अनुकूल वातावरण बन जाएगा तो समान नागरिक संहिता के निर्माण में सुविधा होगी। आज हिंदू कोड बिल बने 60 वर्ष होने जा रहे हैं परंतु हमारे नेता और शासक आज भी अनुकूल वातावरण बनाने में सफल नहीं हो सके हैं और यदाकदा इसकी मांग होती रहती है इस पर चर्चा होती रहती है। परंतु, अब मोदी सरकार ने संसद में साफ कर दिया है कि वह समान नागरिक संहिता लागू करने की दिशा में सोच रही है इससे राजनीति में एकदम से उबाल आ गया है।

1977 में जनता शासन के दौरान श्रीमति सुशीला अडीबरेकर ने राज्यसभा में समान विवाह विधान की मांग की थी पर विधिमंत्री शांतिभूषण के उत्तर परंपरागत कांग्रेसी नीति और मुस्लिम तुष्टीकरण नीति के थे। वर्तमान भाजपा सांसद और तत्कालीन राज्यसभा सदस्य नजमा हेपतुल्ला ने 1981 में इंका के श्री एन. सी. भंडारे के एक गैर सरकारी प्रस्ताव जो बहुपत्नीवाद प्रथा पर था की बहस में भाग लेते हुए यह सुझाव दिया था कि एक से अधिक पत्नियां रखनेवालों का समाज में बहिष्कार हो। तथापि, समान नागरिक संहिता लागू करने के प्रश्न को टाल गई। विधेयक इंका सदस्य ने रखा अवश्य था परंतु उसे दल का समर्थन न मिल सका। अन्ना द्रमुक की श्रीमति नूरजहां रज्जाक ने स्पष्ट रुप से समान नागरिक संहिता की जरुरत पर बल दिया। इस्लाम की आड लेनेवालों को निशाने पे लेते हुए आपने कहा कि तुर्की, पाकिस्तान, मिश्र एवं अन्य इस्लामी राष्ट्रों में भी समान नागरिक संहिता एवं परिवार नियोजन लागू है।

अमेरिका और यूरोप के ईसाई राष्ट्रों ने देश के समस्त नागरिकों के लिए एक ही विधिप्रणाली अपनाई है। इजराईल में भी 1951 से महिलाओं के समान अधिकार तथा एकपत्नीत्व का विधान बनाया गया था। रुस और चीन जैसे साम्यवादी देशों के संविधान में धार्मिक स्वतंत्रता को अक्षरबद्ध किया गया है। यह बात अलग है वह व्यवहार में दिखाई नहीं पडती। साम्यवाद के अनुसार तो धर्म सर्वथा अनावश्यक है। सूडान, अल्जेरिया आदि अफ्रीका के दर्जनों मुस्लिम देशों ने तथा मलेशिया और बांग्लादेश जैसे कट्टर इस्लामी राष्ट्रों तक ने शरीअत को अनदेखा कर समान नागरिक संहिता को अपनाया है। केवल खाडी देशों ने गैर मुस्लिमों पर इस्लामी कानून थोपने के रुप में समान सामाजिक संहिता को अपनाया है।

विश्व के ईसाई और मुस्लिम राष्ट्रों ने भले ही समान नागरिक संहिता, परिवार नियोजन आदि देश हितकारी विधानों को अपनाया हो पर भारत के ईसाई और मुसलमान मजहब की आड लेकर उसे दूर रखने में प्रयत्नशील हैं। संंविधान के अनुच्छेद 14 के अनुसार 'राज्य, भारत के राज्यक्षेत्र में किसी व्यक्ति को विधि के समक्ष समता से या विधियों के समान संरक्षण से वंचित नहीं करेगा।" अनुच्छेद 15 (1) के अनुसार 'राज्य किसी नागरिक के विरुद्ध केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्मस्थान या इनमें से किसी के आधार पर कोई विभेद नहीं करेगा।" अनुच्छेद 15 (2) के अनुसार 'धर्म, वंश, जाति, लिंग, जन्मस्थान ऐसे किसी भी कारण से सार्वजनिक संस्था और जगहों के उपयोग के संबंध में नागरिकों पर कोई प्रतिबंध नहीं होंगे।" अनुच्छेद 25 धार्मिक स्वतंत्रता का निर्देश देता है परंतु, उसके दूसरे उपविभाग में यह स्पष्ट किया गया है कि, समाज के आर्थिक, राजनीतिक तथा सांसारिक जीवन को नियंत्रित करनेवाले प्रचलित विधानों को धर्म के नाम पर विरोध करने का तथा ऐसे नवीन विधानों में बाधा उत्पन्न करने का अधिकार नहीं होगा। संविधान का अनुच्छेद 29 (1) स्पष्ट रुप से कहता है कि स्वतंत्र भाषा, लिपि या संस्कृति को बनाए रखने की स्वतंत्रता अवश्य है, तथापि, उसमें 'धर्म" का उल्लेख सहेतुक रुप में ही नहीं किया गया है। अनुच्छेद 30 (1) धार्मिक तथा भाषिक अल्पसंख्यकों को अपनी स्वतंत्र शिक्षा संस्थाएं स्थापित करने और चलाने का अधिकार देता है। परंतु, इसके द्वारा भी धार्मिक रुढ़ियां तथा कर्मकांडों को किसी भी प्रकार का संरक्षण नहीं दिया गया है। निश्चित ही संविधान के उपर्युक्त अनुच्छेद समान सामाजिकता को पर्याप्त बल पहुंचाते हैं। तथापि, अनुच्छेद 25 (2) संविधान के पूर्व आदेशों को एक प्रकार से निष्क्रिय बना देता है। यह अनुच्छेद राज्य को हिंदू समाज के लिए सुधारवादी विधान बनाने की छूट देता है और इसके अंतर्गत सिक्ख, जैन और बौद्ध  को उचित रुप से हिंदूसमाज में सम्मलित किया गया है। परंतु, ईसाइयों और मुसलामानों को इससे मुक्त रखा गया है। इस व्यवस्था के कारण सामाजिक संहिता बनाना टेढ़ी खीर हो गया है। इस बाधा की जडें बडी गहरी हैं। 1931 में कांग्रेस कार्यसमिति ने मुसलमानों के मजहबी कानूनों को संवैधानिक संरक्षण देने की घोषणा कर दी थी। स्वतंत्रता के बाद वोटों के लालच में कांग्रेस और अन्य दलों के नेताओं ने संविधान के 25 (2) के माध्यम से पच्चर मारकर रख दी। इस कारण बगैर संविधान संशोधन के समान नागरिक संहिता अस्तित्व में आना संभव नहीं। 

Friday, July 11, 2014

THE CALIPH & ISLAMIC STATE


खलीफा  और इस्लामी राज्य

अलकायदा के सहयोगी रह चूके आतंकवादी संगठन आईएसआईएल के प्रमुख अबू बक्र अल बगदादी ने कुछ दिनों पूर्व अपने आपको खलीफा घोषित कर मुसलमानोें को पवित्र जिहाद में तब तक लडने के लिए शामिल होने को कहा है जब तक रोम को फतह नहीं कर लेते। बगदादी ने उसके द्वारा कब्जाए हुए इराक-सीरिया के क्षेत्र में इस्लामी राज्य घोषित कर उसमें आ बसने का आमंत्रण भी दे दिया है। इस प्रकार से उसकी यह घोषणा सन्‌ 1924 में तुर्कीस्तान के कमाल अतातुर्क द्वारा खलीफा और खिलाफत इस संस्था को ही रद्द कर तुर्की को सेक्यूलर राज्य घोषित कर देने के बाद एक प्रकार से खलीफा और खिलाफत को पुनर्जीवित करने के समान ही है।

खलीफा का राज्य ही इस्लामी राज्य (खिलाफत) होता है। इस्लाम प्रणीत खिलाफत एक अनन्य संस्था है जिसका आधार कुरान की (24ः55) आयत है। इस्लामी राज्य को ही 'अल्लाह का राज्य" भी कहते हैं। लेकिन सर्वसाधारणजन इस संकल्पना के बारे में कुछ भी नहीं जानते इसलिए इस्लामी राज्य क्या है यह समझ सकें इसलिए यहां उसका संक्षिप्त सार प्रस्तुत है। 

खिलाफत यानी उत्तराधिकारी अथवा प्रतिनिधि। पैगंबर की मृत्यु के बाद जो मुस्लिम समाज का नेता बना उसे ही 'खलीफा" कहते हैं। वही उस समाज का एकमेव राजप्रमुख और धर्मप्रमुख होता है। उस समय यह अपेक्षा थी कि संसार का संपूर्ण मुस्लिम समाज बंधुसमाज के रुप में एकत्र रहेगा और उन सबका मिलकर एक ही खलीफा होगा। परंतु, आगे जाकर उस समाज के राजनैतिक दृष्टि से अनेक गुट बन गए और प्रत्येक गुट के स्वतंत्र खलीफा बन गए। सारे गुटों के मिलाकर कुल 176 खलीफाओं के नाम इतिहास में दर्ज हो चूके हैं और अब बगदादी नए खलीफा के रुप में सामने आया है। 

यह इस्लामी राज्य कैसा होना चाहिए को मुस्लिम विद्वान मौ. अबू मुहम्मद इमामुद्दीन के इस भाष्य से समझा जा सकता है ः 'आजकल जिस राज्य का राष्ट्रपति और मुख्य प्रशासक मुसलमान है उस राज्य को इस्लामी राज्य कहा जाने लगा है ... वस्तुतः इस्लामी राज्य वह है जिसका संविधान कुरान और हदीस पर आधारित है एवं जिसका राष्ट्रपति और प्रधान अधिकारी इस्लाम के सिद्धांतानुसार जीवन जीता है।"" इसीलिए पैगंबर और उनके उत्तराधिकारी पहले चार खलीफाओं के राज्य को 'आदर्श इस्लामी राज्य" कहा जाता है।

इस्लामी राज्य के कानूनी स्वरुप के बारे में बतलाते हुए पाकिस्तान के सर्वोच्च न्यायालय के कानूनी विद्वान द्वारा लिखी हुई और विधि पाठ्यक्रम में समाविष्ट ग्रंथ में कहा गया है ः ''इस्लामी कानूनों का मूलाधार (कुरान और हदीस के) ईश्वरीय संदेश हैं ... इस्लाम के अनुसार (राज्य का) कानूनसम्मत सार्वभौमत्व अल्लाह का होता है .... जो व्यक्ति या संस्था स्वयं को सार्वभौम समझती है या कानूनीतौर पर वैसी मानी जाती है, वह अनेकेश्वरवाद का भयंकर अपराध करती है।"" ''इस्लाम की आज्ञा है कि, नैतिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक क्षेत्र में केवल अल्लाह को ही सार्वभौम मानना चाहिए ... समाज में उसीकी आज्ञा प्रस्थापित होना चाहिए और पाली जानी चाहिए ... उसकी इच्छा ही सर्वोच्च कानून होना चाहिए।""

अब्दुल रहमान बि. हमद अल उमर ने सऊदी अरेबिया शासन की पूर्वानुमति से प्रकाशित ग्रंथ में लिखा है कि, ''सार्वभौमत्व और कानून बनाना केवल अल्लाह का विशेषाधिकार है। यह एकेश्वरवाद से अपनेआप निष्पन्न होनेवाला निष्कर्ष है। अल्लाह के कानून के विरोध में कानून बनाने का कोई सा भी अधिकार मनुष्य को नहीं है।"" (समान नागरिक संहिता का किस आधार पर विरोध किया जाता है यह इस पर से समझा जा सकता है)

संक्षेप में, इस्लामी राज्य में शासन को अल्लाह के कानून के अनुसार राज्य करना होता है, उसे उसके विरोधी कानून बनाने का  अधिकार नहीं होता है, उन कानूनों को कार्रवाई में लाने के लिए आवश्यक ऐसे पूरक उपविधि या नियम बनाने तक का ही उन्हें अधिकार होता है। 

पाश्चात्य पद्धति में जिस प्रकार से 'धर्म" और 'राज्य" अलग होते हैं, वैसा इस्लाम में नहीं। मानव जीवन का धर्म, अर्थ, समाज, राजनीति में विभाजन इस्लाम को मान्य नहीं। मानव जीवन के सभी घटक इस्लाम में अभिन्नता से समाविष्ट होते हैं। इस्लाम एक जीवन पद्धति है। अल्लाह ने समय-समय पर जो संदेश पैगंबर को दिए उनमें इस प्रकार का विभाजन नहीं। आज धर्म, कल समाज, परसों राजनीति इस प्रकार से जीवन के खाने बनाकर अल्लाह ने मार्गदर्शन किया हुआ नहीं है। इस कारण से इस्लाम में ये सारी बातें अविभाज्य और एकरुप हैं। 

धर्म और राजनीति में फर्क करो की पाश्चात्य कल्पना इस्लाम को मान्य नहीं। इस कारण जिस प्रकार से पैगंबर एक ही समय में धर्मप्रमुख, राजप्रमुख, सेनापति, न्यायाधीश, समाज सुधारक आदि सबकुछ थे उसी प्रकार से आदर्श खलीफा भी सबकुछ थे। उन्होंने दी हुई वही आज्ञा एक ओर धार्मिक तो, दूसरी ओर से राजनैतिक होती। राजादेश और धर्मादेश में कोई अंतर ना था। एम. एन. रॉय के शब्दों में 'इस्लाम मूलतः धर्म नहीं अपितु राजनैतिक आंदोलन के रुप में उदित हुआ था।"   

इस्लामी राज्य का ध्येय, मकसद, उद्देश्य और खलीफा के कर्तव्य वही थे जो पैगंबर ने आदर्श के रुप में सामने रखे थे। वह राज्य अल्लाह के कार्य के लिए स्थापित हुआ होने के कारण अल्लाह के कार्य के रुप में इस्लाम का प्रसार करना, उसे सभी मानवों तक पहुंचाना, इस्लामी राज्य का विस्तार करना, सर्वत्र अल्लाह के कानून को प्रस्थापित करना, अल्लाह का धर्म अन्य धर्मों पर प्रभावी और विजयी बनाना, संसार में प्रेम, सत्य, न्याय, समता, बंधुता, सहिष्णुता, शांति, नैतिकता, मानवता आदि इस्लामी नीतिमूल्यों की प्रतिष्ठापना करना, राज्य की प्रजा के इहलोक और परलोक के कल्याण की चिंता करना, इस्लाम की सीख के अनुसार प्रजा को व्यवहार करने के लिए बाध्य करना, कानून और सुव्यवस्था प्रस्थापित करना, गुनहगारों को दंडित करना ये सारे काम खलीफा के  कानूनसम्मत कर्तव्य तय होते थे। इन्हीं सब कर्तव्यों का निर्वाह कर आदर्श निर्मित किया इसलिए पहले चार खलीफाओं को आदर्श कहा जाता है। इन चार आदर्श खलीफाओं को इस्लाम, इस्लाम के इतिहास और मुस्लिमों के जीवन में अत्यंत महत्वपूर्ण एवं बहुमूल्य स्थान प्राप्त है।  

आज अलकायदा, तालिबानी, हिज्ब उत तहरीर आदि अनेकानेक कट्टरपंथी मुस्लिम संगठनों के धर्मयोद्धा जिस विशुद्ध इस्लामी राज्य की स्थापना के लिए संघर्षरत हैं उन सबमें आईएसआईएल के बगदादी ने स्वयं को खलीफा घोषित कर और अपने कब्जेवाले प्रदेश में इस्लामी राज्य (खिलाफत) स्थापित कर सबसे बाजी मार ली है।  

Friday, July 4, 2014

कथा शौचालयों की 

पूरे देश में हम कहीं भी घूमकर देख लें एक बात हमारे ध्यान में सहज ही आ जाएगी कि कहीं भी सरलता से सुलभ हो सके ऐसा साफ-स्वच्छ शौचालय मिलना अत्यंत ही दुर्लभ है। कोई विचार करे ना करे किंतु मैं अवश्य शौचालय के बारे में रोज विचार करता ही हूं क्योंकि, मनुष्य के लिए जितनी भोजन एवं नींद की आवश्यकता है उतनी ही शौचालय की भी। और इस संबंध में मेरा वर्षों का अनुभव यही कहता है कि सार्वजनिक स्थानों पर के शौचालय ऐसे होते ही नहीं हैं कि वहां जाकर कोई आनंद का अनुभव कर सके। जबकि कोई भी व्यक्ति जब तक मल-मूत्र विसर्जन व्यवस्थित ढ़ंग से ना कर ले वह आराम महसूस कर ही नहीं सकता। फिर भी शौचालय यह शब्द हमारे लिए इतना उपेक्षित है कि उस बारे में सोचना या बोलना भी मानो वर्ज्य है। क्योंकि, शौचालय यानी कोई घिनौनी बात है एवं वह अस्वच्छ ही होना चाहिए तथा वहां जाने की बात करना या उस संबंध में चर्चा यानी कोई पापकर्म है।

लेकिन मैं इस विषय पर इसलिए चर्चा करता हूं क्योंकि यह मनुष्य की एक मूलभूत आवश्यकता है और इस संबंध में मुझे आए हुए अनुभव बडे ही विचित्र हैं और इस संबंध में विशेषता यह है कि बीते चालीस वर्षों के अनुभवों में विशेष ऐसा कोई बदलाव आज भी आया हुआ दिखता नहीं है। हां, फर्क केवल इतना आया है कि अब वे देसी शौचालय नजर नहीं आते जिनका उल्लेख करने मात्र से वे लोग जिन्होंने उन्हें देखा है उनका उपयोग किया है वे घिन से भर उठेंगे और चूंकि मैं किसी के भी मन में जुगुप्सा फैलाना नहीं चाहता इसलिए उनका उल्लेख करुंगा भी नहीं और आजकल के लोग तो उन शौचालयों की कल्पना भी नहीं कर सकते। तो, मैं मेरे अनुभवों पर आता हूं -

एक समय में मैं विभिन्न कारणों से बहुत घूमा भी हूं और कई स्थानों पर रहा भी हूं। सन्‌ 1978 के आसपास की बात है मेरे पिता सरकारी नौकरी में होने के कारण धार जिले के एक छोटे से गांव में पदस्थ थे और मैं उनके पास गर्मी की छुट्टियों में रहने के लिए गया। वहां हमारे निवास का शौचालय घर के पिछवाडे में था और वहां जाने के लिए पहले एक छोटा सा चौक जहां कपडे आदि धोने की व्यवस्था थी के बाद गाय-भैंस बांधने की गोठ थी को पार करके जाना पडता था। वहां अंधेरा और बदबू का साम्राज्य छाया रहता था। आज जब मैं उस अनुभव के बारे में सोचता हूं तो मेरे रोंगटे खडे हो जाते हैं कि कैसे मैं उस शौचालय में जाता था। अब भी मानसिकता कैसे बदली नहीं है मैं उस पर आता हूं। सन्‌ 2006 में इंदौर से पचास एक कि.मी. दूर खरगोन जिले के एक गांव में स्थित धार्मिक मठ में किसी कारणवश जाना पडा। वहां पर भी शौचालय की स्थिति बहुत कुछ वैसी ही थी जैसीकि मैंने ऊपर वर्णित की है।

अब उज्जैन के धार्मिक स्थल पर सन्‌ 2013 में जो अनुभव आया वह बतलाता हूं। वहां निर्मित हॉल में कर्मकांड और भोजन आदि की व्यवस्था बडी अच्छी थी परंतु, जब बारी शौचालय जाने की आई तो वहां की स्थिति भयावह थी। हॉल के पिछवाडे में कतार से शौचालय बने हुए थे। जिन तक पहुंचने के लिए एक छोटी सी पगडंडी से होकर गुजरना पडा दोनो तरफ घास उगी हुई थी शौचालयों की छत गर्डर-फर्शी की थी उस पर भी और आसपास भी ऊंची-ऊंची घास और खरपतवार उगी हुई थी। ऐसे शौचालयों का उपयोग करने की कल्पना करना तक कितना भयोत्पादक है तो उपयोग में लाना कितना मुश्किल होगा, जरा सोचिए। शौचालयों की यह अवस्था देखकर हॉल के निकट स्थित सार्वजनिक मूत्रालय में गया तो वहां की गंदगी देखकर लौट आया। पूछताछ करने पर सलाह मिली की कहीं भी खडे हो जाओ। लेकिन महिलाएं क्या करें?  

यह हाल उज्जैन ही क्यों इंदौर में भी है। इंदौर के एक मंदिर में एक कार्यक्रम में लगभग चार वर्ष पूर्व गया था तब इससे भी अधिक भयानक अनुभव आया। पेशाब करने गया तो कीचड-पानी में से होकर एक पगडंडी से गुजरना पडा वहीं एक गाय बंधी हुई थी। जिसने सिंग मारने की कोशिश की, कूदकर वह बाधा पार करना पडी, तब कहीं जाकर निवृत हो पाया, आते समय भी वही क्रिया दोहराना पडी। अभी कुछ ही माह पूर्व उसी स्थान पर जाने का अवसर आया। अब परिस्थिति थोडी बदली हुई नजर आई वह मरखनी गाय तो नहीं थी किंतु शौचालयों की हालत उज्जैनवाले हालात से मिलती-जुलती ही थी।

विभिन्न स्थानों के सार्वजनिक शौचालयों एवं बस स्थानकों, रेल्वे स्टेशनों के शौचालय या रेल के डिब्बों के शौचालयों के हालात कैसे होते हैं इस संबंध में सभी जानते हैं और उनका वर्णन पिछले शौचालयों से संबंधित लेखों में मैं कर ही चूका हूं। लेकिन पराकाष्ठा तब हो गई जब विमान यात्रा के दौरान भी विमान की लैवट्‌री में कमोड को पेशाब से लबालब भरा पाया। वास्तव में यात्रा से पूर्व एअर होस्टेस यात्रियों को सीट बेल्ट बांधने आदि के बारे में अभिनय सहित बतलाती है। परंतु, लैवट्‌री के संबंध में कुछ भी नहीं बतलाती। जबकि कई यात्री वायुयान में पहली बार ही यात्रा कर रहे होते हैं और उन्हें इस संबंध में कोई जानकारी ही नहीं होती। यह सब यही दर्शाता है कि शौचालय कहीं के भी हों उन्हें हम उपेक्षित ही रखते हैं।

दूसरी बात आजकल विमान यात्रा कोई बडी बात नहीं रही और उसमें ऐसे भी कई यात्री होते हैं जिन्हें छोटी-छोटी बातें तक मालूम नहीं होती, ना ही उन्हें अंग्रेजी आती है ना ही वे विशेष पढ़े-लिखे होते हैं। वो तो विमान में इस कारण यात्रा कर रहे होते हैं क्योंकि उनके बच्चे जो उच्चशिक्षा ग्रहण कर संपन्न हो चूके हैं वे ही उन्हें हवाई यात्रा करवा रहे होते हैं। 

लेकिन अब हालात देर से ही सही किंतु, कुछ बदलेंगे ऐसा लगने लगा है। सरकारें निर्मल भारत योजना के तहत शौचालयों को प्रोत्साहन दे रही हैं, शौचालयों के संबंध में लोग जागृत हों इसके लिए विशेष अभियान भी चलाए जा रहे हैं। भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी शौचालयों के महत्व को प्रतिपादित करने के लिए कह चूके हैं कि 'पहले शौचालय फिर देवालय"। वे तो यह भी कह चूके हैं कि देवालयों के निकट स्वच्छता बनी रहे इसलिए शौचालय भी बनवाए जाने चाहिएं। वरिष्ठ राजनेता लालकृष्ण आडवाणी भी अपने ब्लॉग में लिख चूके हैं कि 'आईए सारे सांसद सम्पूर्ण सैनिटेशन का अभियान चलाएं"। अब सवाल यह बच रहता है कि क्या हम सैनिटेशन के संबंध में जागरुक होंगे या चाहे जहां, हर जगह गंदगी फैलाने का यह ढ़र्रा ऐसे ही हम नहीं सुधरेंगे की तर्ज पर बदस्तूर जारी रहेगा।