Friday, January 31, 2014

""सब प्राणियों को मित्र की दृष्टि से देखो ।- यजुर्वेद''

हिन्दू धर्म वेद आधारित है। जो यह सीखाता है कि मनुष्य तो मनुष्य, प्राणी मात्र को भी मित्र की दृष्टि से देखो अर्थात प्राणियों के साथ अच्छा प्रेम भरा व्यवहार करो। दूसरी ओर प्रेम, दया और (तथाकथित) सेवा का उद्‌घोष करने वाला ईसाई धर्म है। जिसके धर्मगुरू पोप जॉन पॉल।। का यह वक्तव्य ध्यान देने योग्य है ''My Religion Takes You to Heaven, Yours to Hell (Oraganiser-9-1-2005).  सोचने योग्य बात यह है कि क्या ईश्वर इतना पक्षपाती है ? निश्यच ही नहीं। नैतिकता की दृष्टि से यह कथन असहिष्णु और तिरस्करणीय है जो ईसाइयत के असली दर्शन को दर्शाता है। तो इससे भी बढकर इसी सेमेटीक परंपरा का धर्म "इस्लाम' है जो अपने आपको "दीन-ए-कामिल' (संपूर्ण धर्म) बतलाता है। अर्थात्‌ संसार के अंत तक इसमें किसी भी तरह का बदलाव संभव नहीं। कुरान का अधिकृत भाष्य कहता है कि ""अब इस दीन (धर्म) को इसी रूप में कियामत (प्रलय) तक बाकि रहना है और संपूर्ण जगत की सारी की सारी कौमों के लिए यही हिदायत का स्तंभ है।''(दअ्‌वतुल कुर्आन खंड। पृ. 339) यह इस्लाम तो सीधे-सीधे मनुष्य जगत को ही ईमानवाले (यानी मुसलमान) और काफिर (गैर-मुस्लिम) इन दो भागों में बांटकर रख देता है। कुरान की सूर "मुजादलति' में स्पष्ट रूप से इंसानों को दो समूहों में बांटकर काफिरों को ""शैतानों का लश्कर'' (शैतानों की पार्टी ) (Hisb-Ush-Shaitan) (आयत 19) तो मुसलमानों को ""खुदाई लश्कर (अल्लाह की पार्टी) (Hizbulla)'' (आयत 22) कहा गया है। ईमानवालों (मुसलमानों) को हमेशा के लिए जन्नत (स्वर्ग) का वादा, तो काफिरों को हमेशा के लिए दोजख की आग (नरकाग्नि) में रहने का फरमाना सुनाता है। जिसे कुरान में बारम्बार दोहराया गया है और यह फरमान इसलिए है कि "अल्लाह ने संपूर्ण जगत की सारी कौमों के लिए इस्लाम को हिदायत (शिक्षा, निर्देश) का स्तंभ' कह दिया है फिर भी काफिर इस्लाम कुबूल करने के लिए तैयार नहीं हैं।

कुरान का अवलोकन करने पर ज्ञात होता है कि कुरान की कुल 114 सूरहों (अध्यायों) में से 101 सूरहों में जन्नत (स्वर्ग) और दोजख (नर्क) मिलने के संदर्भ का उल्लेख है ।  कुरान की कुल 6239 आयतों में से 1590 आयतों (श्लोकों) में इस प्रकार के वर्णन हैं। विश्वास नहीं होता ना ?  तो देखिए कुर्आन-शरीफ की ये चंद आयतें जिनमें काफिरों को मिलने वाले अजाब (पापों का वह दंड जो यमलोक में मिलता है) का वर्णन है, ""उसके लिए दोजख है और उसको पीप का पानी पिलाया जाएगा। वह उसको घूंट-घूंट पियेगा और उसको गले से उतारना कठिन होगा और मौत उसको हर तरफ से आती हुई दिखाई देगी  और वह मरेगा नहीं (कि चैन पा जाए) और उसके पीछे दुखदाई सजा होगी।''(इब्राहीम 16,17) वह दुखदाई सजा किस प्रकार की होगी उसका वर्णन आगे इस प्रकार से है, ""(ऐ पैगंबर !) मैं उसको जल्दी ही सकर (दोजख की आग) में झोंक दूंगा.. वह न बाकी रखती है न छोड़ती है, शरीर को झुलसाती छायी रहती है ।'' (मुद्‌दस्सरि 26-29) (ये उपर्युक्त आयतें प्रकट रूप से सार्वजनिक स्थानों पर धर्म प्रचार करने के लिए पैगंबर को संदेश देने के लिए जो पहली सूरह अवतरित हुई थी उसमें कही गई थी।) ""जब उनकी खालें जल (कर पक) जावेंगी, हम उनको दूसरी खाल बदल देंगे ताकि (वह बराबर) अजाब का मजा चखते रहें।'' (सूर निसा आयत 56) "" उनके लिए आग (दोजख) का बिछौना होगा और उनके सिरों पर खौलता पानी डाला जाएगा। जिससे जो कुछ उनके पेट में है और (उनकी) खालें गल जाएंगी और उनके (मारने के) लिए लोहे के गुर्ज होंगे। (इस दोजख के दु:ख और) घुटन से जब निकलना चाहेंगे तो उसी में फिर ढकेल दिए जावेंगे। और (कहा जाएगा कि बस हमेशा) जलने की सजा का अजाब चखते रहो।'' (हज्जि19-22) कुरान में कहा गया है काफिरों को खाने के लिए सेहुंड का पेड दिया जाएगा। जो ""दोजख (नरक) की जड में (से) उगता है उसके गाभे जैसे शैतानों के सिर सो (दोजखी) उसी में से खाएंगे और उसी से पेट भरेंगे। फिर उस पर उनका खौलता हुआ पानी दिया जाएगा। फिर इनको (नरक की) तरफ लौटना होगा।'' (सूर तुस्साफ्फाति 62-68 ) इस स्वरूप की आयतों से कुरान भरपूर है।

काफिरों के नरक में जाने का नियम इतना अचूक है कि इसमें से पैगंबर मुहम्मद के पूर्वज, माता-पिता तथा पिता समान चाचा अबू तालिब जिऩ्होंने मुहम्मद साहेब की 40 साल तक साज-सम्हाल की थी भी अपवाद स्वरूप बच नहीं सके। इससे संबधित हदीसेें भी उपलब्ध हैं। और कुरान की सूर तौबा की आयात 113 में स्पष्ट रूप से ही कहा गया है कि: ""पैगंबर के लिए और मुसलमानों के लिए यह जेब (शोभा) नहीं देता कि वे मुशरिकों (मूर्तिपूजक) के लिए माफी चाहें, गो वह रिश्तेदार (संबंधी ही क्यों न) हों, जबकि उन्हें मालूम हो चुका है कि वे मुशरिक (मूर्तिपूजक) दोजख की भड़कती आग वाले हैं।'' कुरान का तो यह भी कहना है कि : ""और उनमें से जो मरे उसकी नमाज (जनाजा) तुम हरगिज न पढ़ना और न कभी उसकी कब्र पर खड़े होना। क्योंकि उन्होंने अल्लाह के साथ कुफ्र किया और इस हाल में मरे कि वे फासिक (अवज्ञाकारी) थे।'' (सूर तौबा आयत 84) इस आयात पर दअवतुल कुर्आन खंड 1 के अधिकृत भाष्य मेें कहा गया है : ''कब्र पर खड़े होने का मतलब कब्र पर जाकर क्षमा की प्रार्थना करना और दया की भावना को प्रकट करना है। यह मनाही जिस प्रकार मुनाफिकों (दांभिक मुसलमान) के लिए है उसी प्रकार काफिरों (गैर-मुस्लिम), मुश्रिकों (मूर्तिपूजक, अनेकेश्वरवादी), मुहफिदों (नास्तिकों) के लिए भी है क्योंकि जो लोग मरते दम तक काफिर रहे वे अल्लाह के दुश्मन हैं और अल्लाह के दुश्मनों के लिए एक मोमिन के दिल में दया भाव नहीं हो सकता।'' (पृ.657) और हो भी क्यों जब कुरान ही सीखाती है कि काफिर अल्लाह की नजर में ''जियादती करने वाले'' (बकर 190) ""फसादी'' (बकर 205) ''कृतघ्नी (नाशुके)'' (हाज्जि38) ""दगाबाज'' (अंफालि 58) ""कसूरवार'' (निसा 107) ""जालिम (अन्यायी)'' (इमरान 57) ""इतराने वालेे'' (निसा 36) ""गुनहगार'' (बकर 276) ''नापाक (गंदे) ""(तौबा 28)'' अल्लाह का हुक्म न मानने वाले (अवज्ञाकारी) है ""(इमरान 32) अर्थात इस्लाम न कुबूल करने वाले है, इसलिए पसंद नहीं करता।

यही अल्लाह उसके दीन-इस्लाम को मानने वाले उसके बंदो यानी मुसलमानों पर अपने सद्‌गुणों रहमान और रहीम के कारण इतना मेहरबान है कि बेझिझक, बिना किसी विशेष रोक टोक के उन्हें सीधे जन्नत की नेमतें प्रदान करता है। ये नेमतें कौन सी हैं यह जानना भी बड़ा दिलचस्प होगा जिनका वर्णन कुरान में बहुतायात से मौजूद है। जन्नत की खुशखबरी सुनानेवाली कुछ आयतें अवलोकनार्थ प्रस्तुत है: ""उसको (ईमानवाले को) (बिहिश्त के) दो बाग मिलेंगे ......जिसमें बहुत सी टहनिया हैं इनमें दो चश्में बहते होंगे....उनमें हर मेवे की दो किस्में होंगी ......यह (जन्नत वाले) बिछौनों पर तकिए लगाए (बैठे) होंगे जिनके अस्तर ताफते के होंगे और दोनों बागों के मेवे (बहुतायत से) झुक  रहे होंगे..... उनमें (लजाती) नीचे निगाहवाली (पाक हूरें) होंगी, उनसे और पहले न तो किसी मनुष्य ने उन पर हाथ डाला होगा और न किसी जिन्न ने ।'' (तुर्रहमानि 46 से 56) आगे और वर्णन सुनिए: ""निअमतों के बागों में जडाऊ तख्तों के ऊपर आमने-सामने तकिए लगाए (बैठे होंगे) उनके पास लड़के जो हमेशा नौजवान बनें रहेंगे। उनके पास आबखोंरें गडुए और साफ शराब से भरे प्याले लाते और ले जाते होंगे। (वह शराब) जिससे न तो उनके सिर दुखेंगे और न बकवाद लगेगी और जिस किस्म के पक्षी का मांस उनकी इच्छा हो और हूरें बड़ी-बड़ी आँखो वाली जैसे जतन से सजाए आबदार मोती........ हमने हूरों की एक खास सृष्टि बनाई है फिर इनको कंवारी बनाया है (कि किसी जिन्न या इन्सान नें उन्हें हाथ नहीं लगाया) प्यारी और समान अवस्था वाली।'' (वाकिअति 12 से 36)  ""बड़ी-बड़ी आँखों वाली (गोरी) हूरों से हम उनका ब्याह कर देंगे।'' (सूरतुद्‌दुखानि 54) सूर बकर की आयात 25 में कहा  गया है "" वे जन्नत में अपनी पाक साफ बीवियों के साथ सदैव रहेंगे।'' 

संक्षेप में इस्लाम की संकल्पना मानव जगत को दो भागोंं ""काफिर और ईमानवाले'' (गैर मुस्लिमों और मुस्लिमों) में बांटकर हमेशा के लिए प्रदान किए जाने वाले नरक तथा स्वर्ग के इर्द-गिर्द घूमती रहती है। जिसमें काफिर की भूमिका संसार के निकृष्टतम प्राणी की है जैसा कि कुरान की सूर अंफालि की आयत 55 में कहा है ''निश्चय ही अल्लाह के निकट बदतरीन जानवर वे लोग हैं जिन्होंने कुफ्र  (इस्लाम से इंकार) किया और वे ईमान (श्रद्धा) नहीं लाते।'' द.कु.खंड। के अधिकृत भाष्य में पृ.595 पर ऐसे काफिरों को ""बहरा, गूंगा और अंधा तथा बेसमझ'' (बकर 171) ""अज्ञानी, हृदय हीन (बिना सिंग-पूछ के) पशुओं की तरह है बल्कि उनसे भी जियाद: भटका हुआ'' (अरफि 179) कहा गया है। कुर्आन इतने पर ही बस नहीं करते हुए काफिरों को चेतावनी देती है'' जो शख्स अल्लाह के दीन (इस्लाम) के सिवा किसी ओर दीन (धर्म) को तलाश करेगा तो (अल्लाह के यहां) उसका वह दीन हरगिज कबूल नहीं और वह आखिरत (अंतिम निर्णय दिन) में नुकसान उठाने वालों में से होगा।'' (इमरान 85) कुरान कियामत का वर्णन करते हुए आगे कहती है: ''यह बदले का दिन है यह वही फैसले का दिन है जिसे तुम झूठलाते थे जमा करो जालिमों (काफिरों) को और उनके साथियों को और उनको साथियोंें को और उनको भी जिनकी ये पूजा करते थे। अल्लाह को छोड़कर (जिनकी ये पूजा किया करते थे) फिर इन सबको जहन्नम (नर्क) का रास्ता दिखाओं।'' (तुस्साफ्फति 19-23)

धर्म तो सभी के लिए यानी विश्व के परमार्थ के लिए, विश्व कल्याण के लिए होता है लेकिन यह दीन-ए-इस्लाम तो ऐसा निराला धर्म है कि जो कहने को तो अपने आपको "भाईचारे' का धर्म बतलाता है लेकिन उसका भाईचारा केवल इस्लाम के अनुयायियों तक ही सीमित है। क्योंकि वह केवल अपने ही अनुयायियों को ""खैर-उम्मत'' (बेहतरीन गिरोह) ""(इमरान 110)'' उम्मते वसत (उत्तर समुदाय) बकर 143) इस आधार पर कहता है कि ""यही उम्मत (समाज) सत्यधर्म (इस्लाम) पर चल रही है।'' (द.कु.खंड1पृ.211पर का भाष्य) खुद को दीन-ए-अकिब यानी अंतिम सत्यधर्म और अपने पैगंबर को अकिब यानी आखरी पैगंबर मानता है। जिसके बाद अब न तो कोई नया धर्म आने वाला है न ही कोई पैगंबर जैसा कि कुरान की सूर अल-अहजाब की आयत 40 में कहा गया है ""मुहम्मद अल्लाह के रसूल और नबियों के समापक है।'' अर्थात दीन अब पूर्णत्व को पहुंच चुका है, और अब किसी भी तरह के सुधार या बदलाव की गुंजाईश ही नहीं है। इसीलिए कुर्आन भाष्य में कहा गया है ""इस्लाम के सिवा जो शुद्ध रूप से एकेश्वरवादी जीवन प्रणाली है किसी भी धर्म की ओर मामूली सा झुकाव भी ईमान को प्रभावित कर देता है और सभी धर्मो के सही होने की बात तो सरासर गुमराही की बात है। '' (द.कु.खंड 3 पृ. 1413) या जो यह कहता है कि ""समस्त धर्म उसके (यानी अल्लाह के) नजदीक पंसदीदा हैं बड़े ही दुस्साहस की बात है और ऐसा व्यक्ति बड़ा ही गलतकार, दुष्कर्मी और सबसे बड़ा जालिम है।'' (पृ.1647) ""अत: जीवन को धर्म और संसार के खानों में विभक्त कर अल्लाह और उसके रसूल के कितने ही फैसलों को जो पारिवारीक, आर्थिक एवं राजनीतिक जीवन से संबंधित हैं रद्द कर देना और  तथाकथित धर्म निरपेक्ष जीवन पद्धति को अपनाना इस्लाम से खुली विमुखता है।'' (पृ.1457) अंत में भाष्य चेतावनी देता है कि ""सारे धर्म समान है उनमें सत्य और असत्य का कोई फर्क नहीं'' के सिद्धांत को जो लोग तैयार करना चाहते है वह हरगिज यह आशा न रखें कि उन्हें कुर्आन का समर्थन प्राप्त हो सकेगा।'' (पृ.2368) अब पाठक स्वयं ही सोचें कि "सब धर्म समान' का कथन कितना थोथा और हास्यास्पद है।

Thursday, January 30, 2014

तनाव


आज की इस भागभागभरी जिदंगी में तनाव यानी टेंशन ने सर्वत्र एक बडी गंभीर समस्या का रुप धारण कर लिया है। जिससे सभी को दो - चार होना पड रहा है। यह शब्द इतना अधिक सामान्य हो गया है कि साधारण से लेकर असाधारण, साक्षर-उच्चशिक्षित से लेकर निरक्षर-अशिक्षित तक सभी इस शब्द को एक जुमले के रुप में उपयोग में लाने लगे हैं। छोटे से लेकर बडे तक शालेय विद्यार्थी से लेकर वृद्धजनों तक सभी इस तनाव की समस्या से पीडित हैं। हर कोई अपनी - अपनी समस्याओं के कारण तनावग्रस्त है जैसेकि किसीको अत्याधिक काम का तनाव है, तो किसी को पढ़ाई का, किसीको बच्चों का, किसीको बीमारी का आदि। तनाव की समस्या के कारण कई लोग अवसाद के शिकार होकर रोगी हो रहे हैं तो, कुछ लोग आत्महत्या तक के प्रयास कर लेते हैं। कभी कुछ इसमें सफल भी हो जाते हैं।



तनाव कई समस्याओं एवं रोगों उदा. मधुमेह, रक्तदाब आदि की जड है। तनाव का एक सबसे बडा कारण तेज रफ्तार जिंदगी है। इसके अलावा आर्थिक व सामाजिक कारक भी बहुत हद तक जिम्मेदार हैं। बढ़ती कीमतें घटती सीमित आय। आम तकलीफों के रुप में वायु एवं ध्वनि प्रदूषण, विकराल रुप धारण करता यातायात और यातायात नियमों का उल्लंघन भी तथा समय - समय पर जगह - जगह पर होनेवाली चक्काजाम की स्थितियां भी जो व्यक्ति पर पडनेवाले विपरीत प्रभावों के कारण तनाव में बढ़ौत्री करती हैं। ऐसे इस घातक प्रभावों वाले तनाव से मुक्त होने या कुछ हद तक उसे नियंत्रण में लाने के लिए निम्न कुछ उपायों को कुछ हद तक सिद्धांतों के रुप में आजमाकर जीवन का अंग बनाकर इस कठीन समस्या का निदान कुछ सीमा तक तो निश्चय ही किया जा सकता है।


1). जीवन में घटित होनेवाली प्रत्येक घटना हमारे लाभ के लिए ही घटित हो रही है यह मानकर हर घटना को निरपेक्ष भाव से लें।


2). अपने जीवन की तुलना दूसरे के साथ करके चिंता में न पडें। क्योंकि, संसार एक रंगमंच है और हम एक पात्र मात्र हैं। हमारे हिस्से में आए हुए पात्र का हमें अभिनय करना है। यह न भूलें कि हर व्यक्ति की एक विशिष्टता होती है। हर व्यक्ति हर काम में तज्ञ नहीं हो सकता। हर काम हर कोई कर भी नहीं सकता। इसलिए हर किसी मामले में दूसरे की बराबरी करना और तनावग्रस्त होना व्यर्थ है।


3). तनाव मुक्त होने का अर्थ जिम्मेदारी से मुंह मोडना या कर्तव्य विमुख होना नहीं अपितु सामान्य रहकर आत्मविश्वासपूर्वक मुकाबला करना होता है।


4). व्यवहारिकता के धरातल पर जीएं, इसके लिए ध्यान में रखें कि निंदा करनेवाला मित्र ही सच्चा हितेषी है। जो आपको वास्तविकता का भान करता रहता है जैसाकि रहीम ने कहा है 'निंदक नियरे राखिए"।


5). यदि कभी एक साथ कई समस्याओं का सामना करना पडे तो बारी - बारी शांति से स्वयं पर नियंत्रण रखकर एक - एक समस्या को हल करने की कोशिश करें। विश्वास रखें समस्याएं जरुर हल होंगी।


6). दूसरों के साथ सहयोग की भावना रखें स्वयं की समस्याओं को भूलने में व हल करने में सहायता मिलेगी, सामाजिक बनें।


7). जीवन की समस्याओं की ओर सकारात्मक दृष्टिकोण से देखें मनःस्थिति बदलने में आसानी होगी। जिन परिस्थितियों को हम बदल नहीं सकते उन पर विचार करके दुःखी होना व्यर्थ है। ध्यान में रखें समय सबसे अच्छा मरहम है, अच्छे समय की प्रतीक्षा करें।


8). बदले की भावना से काम न लें, स्वयं को ही बदलने की कोशिश करें, जीवन में प्रगति होगी।


9). ईर्ष्या न करेें, ईश चिंतन करें। ईर्ष्या से मन जलता है (स्वास्थ्य की हानि होती है), ईश चिंतन से शांति मिलती है (मनोबल बढ़ता है), ईर्ष्या से दुःख उत्पन्न होता है, ईश चिंतन से प्रसन्नता मिलती है। हमेशा याद रखें दुःख का कारण यह है कि 'हम अपने दुःखों से इतना दुःखी नहीं हैं जितना कि दूसरों के सुखों से"। हमेशा प्रसन्न रहने का और स्वयं को व्यस्त रखने का प्रयत्न करें।


10). जब भी समस्याग्रस्त हों तो ऐसा विचार करें कि भूतकाल की गलतियों का हिसाब चुकता हो रहा है।


11). अहंकार का त्याग करें। अहंकार से मानसिक संतुलन बिगडता है।


12). भगवान की कृपा में विश्वास रखें निश्चय ही तनाव की समस्या से निजात पाएंगे।


13). किसी बात या घटना पर अधिक विचार न करें। अधिक विचार चिंता का जनक है। चिंता तनाव का सबसे बडा कारण है। चिंता से बचें, चिंता को दूर रखें। चिंता शरीर को खोखला करती है।


14). प्रतिदिन थोडा सा तो भी समय ईश्वर की आराधना में बिताएं व योगासन करें । इस कारण शारीरिक व मानसिक परिवर्तन होकर तनाव दूर होगा व स्वास्थ्य लाभ होगा।


15). सात्विक जीवन बिताएं, सादा, कम एवं सात्विक आहार लें। आवश्यकताएं सीमित रखें, फिजूलखर्ची से बचें। समय का सदुपयोग करें। व्यसन से बचें। अच्छी रुची विकसित करें जैसेकि पुस्तकें पढ़ना।

Friday, January 24, 2014

तिरंगे ध्वज के तीन रंग

तिरंगा ध्वज के तीन रंगों का अर्थ सांकेतिक है। वे योग्य हैं। धार्मिक दृष्टि से हरा रंग मुसलमानों को अपना लगनेवाला है। तो, हिंदुओं के हाथ की फूलों की डलिया - लाल सुर्ख पुष्प, हरी दूब या दूर्वा, तुलसी, बेल और शुभ्र जूही के फूलों से भरी हुई होती है। अतः उसे कोईसा भी रंग पराया नहीं लगता. शुभ्र रंग तो समता का द्योतक है। अतः रंग के विषय में मतभेद नहीं। 
- (1928 हिंदूसमाज संरक्षक स्वातंत्र्यवीर सावरकर) (रत्नागिरी पर्व) - सावरकर बालाराव 

वर्तमान में अनायास जो राष्ट्रीय ध्वज बनने जा रहा है, उसमें व्यत्यय ना लाएं इस बुद्धि से और वर्तमान के रंगों का समुच्चय यह राष्ट्रीय ध्येय उत्तम प्रकार से व्यक्त करने में समर्थ होने के कारण हम इन रंगों को सहमति दे रहे हैं। अंत में यह भी ध्यान में रखना चाहिए कोई से भी रंग लिए तो भी उसमें इस तिंरगे के समान यह नहीं तो वह ऐसी कुछ न्यूनता रहेगी ही. वह न्यूनता इस तिरंगे में कुलमिलाकर बहुत ही अल्प है। यही उसका विशिष्ट समर्थ है। - (1928 श्रद्धानंद 2 अगस्त)
तिरंगी ध्वजातील तीन रंग

तिरंगी ध्वजातील तीन रंगांचे अर्थ हे सांकेतिक आहेत. ते योग्य आहेत. धार्मिक दृष्टीने हिरवा मुसलमानांना आपला वाटणारा आहे. तर हिंदुंच्या हातातील फुलांची परडी - तांबडी लाल पुष्पे, हिरव्यागार दुर्वा, तुळशी, बेळ आणि पांढ़ऱ्या जाई जुई यांनी भरलेली असते. तेव्हा त्याला कोणताच रंग परका वाटत नाही. पांढ़रा रंग हा समतेचा द्योतक आहे. तेव्हा रंगा विषयी मतभेद नाही. 
- (1928 हिंदूसमाज संरक्षक स्वातंत्र्यवीर सावरकर) (रत्नागिरी पर्व) - सावरकर बाळाराव 

सध्या अनायासे जो राष्ट्रीय ध्वज होऊ पाहत आहे, त्यात शक्यतो व्यत्यय आणू नये या बुद्धीने आणि, सध्याच्या रंगाचा समुच्चय हे राष्ट्रीय ध्येय उत्तम प्रकारे व्यक्त करण्यास समर्थ असल्याने आम्हीं या रंगास संमती देत आहोत. शेवटी हे ही ध्यानात ठेविले पाहिजे की कोणते ही रंग घेतले तरी त्यात या तिरंगाप्रमाणे ही नाही ती अशी काही न्यूनता ही राहणारच. ती न्यूनता या तिरंगात एकंदरीने फारच अल्प आहे. हेच त्याचे विशिष्ट समर्थन होय. - (1928 श्रद्धानंद 2 ऑगस्ट)

गुलामी की जड में हम हैं - महात्मा गांधी

करोडों लोगों को अंगरेजी की शिक्षा देना उन्हें गुलामी में डालने जैसा है। मैकाले ने शिक्षा की जो बुनियाद डाली, वह सचमुच गुलामी की बुनियाद थी। उसने इसी इरादे से अपनी योजना बनाई थी, ऐसा मैं नहीं सुझाना चाहता, लेकिन उसके काम का नतीजा यही निकला है। कितने दुख की बात है कि हम स्वराज्य की बात परायी भाषा में करते हैं।


और हमारी दशा कैसी है? हम एक दूसरे को पत्र लिखते हैं, तब गलत अंगरेजी में लिखते हैं। एक एम. ए. पास आदमी भी ऐसी गलत अंगरेजी से बचा नहीं होता। हमारे अच्छे से अच्छे विचार प्रकट करने का जरिया है अंगरेजी। हमारी कांगे्रस का कारोबार भी अंगरेजी में चलता है। अगर ऐसा लंबे अरसे तक चला तो मेरा मानना है कि आनेवाली पीढ़ी हमारा तिरस्कार करेगी और उसका शाप हमारी आत्मा को लगेगा।


आपको समझना चाहिए कि अंगरेजी शिक्षा लेकर हमने अपने राष्ट्र को गुलाम बनाया है। अंगरेजी शिक्षा से दंभ, राग, जुल्म वगैरह बढ़े हैं। अंगरेजी शिक्षा पाए हुए लोगों ने प्रजा को ठगने में, उसे परेशान करने में कुछ भी उठा नहीं रखा है। अब अगर हम अंगरेजी शिक्षा पाए हुए लोग उसके लिए कुछ करते हैं तो उसका हम पर जो कर्ज चढ़ा हुआ है, उसका कुछ हिस्सा ही हम अदा करते हैं।


यह क्या कुछ कम जुल्म की बात है कि अपने देश में अगर मुझे इंसाफ पाना हो तो मुझे अंगरेजी भाषा का उपयोग करना चाहिए। बैरिस्टर होने पर मैं स्वभाषा में बोल ही नहीं सकता। दूसरे आदमी को मेरे लिए तरजुमा कर देना चाहिए, यह कुछ कम दंभ है? यह गुलामी की हद नहीं तो और क्या है? इसमें अंगरेजों का दोष निकालूं या अपना? हिंदुस्तान को गुलाम बनानेवाले तो हम अंगरेजी जाननेवाले लोग ही हैं। राष्ट्र की हाय अंगरेजों पर नहीं पडेगी, बल्कि हम पर पडेगी।


मुझे तो लगता है कि हमें अपनी सभी भाषाओं को उज्जवल, शानदार बनाना चाहिए। हमें अपनी भाषा में ही शिक्षा लेनी चाहिए। इसके क्या माने हैं, इसे ज्यादा समझाने का यह स्थान नहीं है। जो अंगरेजी पुस्तकें काम की हैं, उनका हमें अपनी भाषा में अनुवाद करना होगा। बहुत से शास्त्र सीखने का दंभ और वहम छोडना होगा। सबसे पहले तो धर्म की शिक्षा या नीति की शिक्षा दी जाना चाहिए। हर एक पढ़े लिखे हिंदुस्तानी को अपनी भाषा का, हिंदू को संस्कृत का, मुसलमानों को अरबी का, पारसी को फारसी का और सबको हिंदी का ज्ञान होना चाहिए। कुछ हिंदुओं को अरबी और कुछ मुसलमानों और पारसियों को संस्कृत सीखनी चाहिए। उत्तर और पश्चिमी हिंदुस्तान के लोगों को तमिल सीखनी चाहिए। सारे हिंदुस्तान के लिए जो भाषा चाहिए वह तो हिंदी ही होनी चाहिए .... और यह सब किसके लिए जरुरी है? हम जो गुलाम बन गए हैं उनके लिए। हमारी गुलामी की वजह से देश की प्रजा गुलाम बनी ैहै। अगर हम गुलामी से छूट जाएं तो प्रजा तो छूट ही जाएगी। ('हिंद स्वराज्य" से साभार)

Thursday, January 23, 2014

कथा हैदराबादच्या निजामाची 

आजकाल भाजप-कांग्रेस मध्यें चाललेल्या पटेल-नेहरु विवादामुळे हैदराबाद व त्याचा निजाम चर्चेत आहेत. देशाला स्वतंत्र होऊन 66 वर्षे व निजामाला मरुन कित्येक वर्षे झाली आहेत. परंतु आज देखील निजामासंबंधी आकर्षण कमी झालेले नाही. कोणत्या ना कोणत्या कारणांवरुन निजाम चर्चेत येतच राहतो. काही वर्षांपूर्वी लंडनच्या वेस्टमिनिस्टर बॅंके मध्यें गोठवलेल्या कित्येक लक्ष रुपयांची संपत्ती व त्यावर दावा करणाऱ्या चारशे पेक्षा जास्त वारसदारांमुळे हा निजाम चर्चेत आला होता. त्यापूर्वी 2002 मध्यें हैदराबादेत रत्नालंकारांच्या प्रदर्शनामुळे तो मीडियात चर्चित झाला होता.

ज्या निजाम मीर उस्मानअली खानवरुन चर्चा चालली आहे तो निजाम असफजाही खानदानाचा असून त्याच्या खानदानाने दख्खनवर सव्वादोनशे वर्षे राज्य केले आहे. शेवटचा निजाम उस्मानअली जे सोडून गेला आहे त्यात अफाट धन-संपत्ती, भव्य महाल, संग्रहणीय रत्नालंकार व बहुमूल्य पैंटिंग्स तर आहेतच त्याशिवाय 2700 पेक्षा जास्त औरस-अनौरस वारसदार देखील आहेत जे या स्थावर मत्तेच्या वाटणी साठी न्यायालयाची दारे ठोठाऊन राहिले आहेत. आणि या सगळ्याला कंटाळून अधिकृत वारस नातू प्रिंस मुकर्रमजाह तुर्कीत दोन रुमच्या फ्लॅट मध्ये राहत आहे. जेव्हां हैदराबाद संस्थान खालसा केले गेले तेव्हां सरकारने निजामाला सन्मानाची वागणूक देत करमुक्त सालाना 50लाख रुपयांचा तनखा मंजूर केला होता. त्या बरोबरच 25लाख जहागिरीच्या उत्पन्नाच्या बदल्यात व 25लाख राजप्रासादाच्या देखरेखीसाठी व 25लाख दोन राजपुत्रांकरिता अशाप्रकारे कुल 75लाख त्यांना मिळते ते वेगळे. 1950-56 ते राजप्रमुख होते.

पण आता निजामाचे 150पेक्षा जास्त नातवंड जे कधी रुबाबात राहत असत आज हैदराबादच्या विभिन्न भागातून विखुरलेले असून गरीबीत निर्वाह करित आहेत. त्यांची आर्थिक परिस्थिती इतकी लाजिरवाणी आहे की त्यांना स्वतःस निजामाचे वंशज म्हणविण्याची देखील लाज वाटते. तुटक्या-फुटक्या घरांमधून राहत असलेल्या या निजामांच्या वंशजांपैकी कांही सायकली दुरुस्त करुन तर काही फळ विकून पोट भरित आहेत.

या उध्वस्त झालेल्या निजामाच्या वंशजांचे पूर्वज जे एकेकाळी आपल्या संपन्नतेकरिता ओळखले जात असत तसेच ते आपल्या कद्रूपणाकरिता पण प्रसिद्ध होते. शेवटचा निजाम उस्मानअली 185 कॅरेटचा जेकब डायमंड पेपरवेट सारखा उपयोगात आणित असे.  उत्तम मोटारींचा ताफा बाळगूनही तो स्वतः मात्र एक खटारा गाडीतून फिरे. चिक्कू तर इतका होता की 'किंग कोठी" पॅलेस मध्यें फाटके व फडतूस कपडे घालून स्वस्त चारमीनार सिगारेटी ओढ़त वावरत असे. आपल्या शेवटच्या काळात स्वतः जवळच्या सोन्याच्या प्रचंड साठ्याला विशेष पेट्यांमध्यें लादून हैदराबादहून मुंबईस नेऊन 150 रुपये तोळ्याला विकले होते व त्यावेळेस निर्देश केला होता की रिकाम्या पेट्या व त्यांचे कुलुप परत आणले जावे.
सन्‌ 2002 मध्यें हैदराबादेत जेव्हां त्याच्या रत्नालंकारेचे प्रदर्शन भरविले गेले होते तेव्हां त्याच्या अफाट दौलतीचे व कंजूषीचे कैक कहाण्या-किस्से यांची रसभरीत वर्णनं वृत्तपत्रातून झळकली की जणू 54 (आजपासून 65) वर्षांपूर्वी मुस्लिम राज्याची दिवास्वप्ने पाहणारा निजाम ही कोणी दुसरीच आसामी होती की काय असा भास व्हावा! ज्यांने पंडित नेहरु व सरदार पटेलांसारख्या श्रेष्ठ राजकीयां वाटाघाटीच्या गुऱ्हाळात वर्षभर गुंगवत ठेवले होते. ज्या लोकांना ऐतिहासिक घटनांच फारस भान नसेल त्यांना तर आश्चर्यच वाटेल की हा निजाम संपूर्ण इस्लामी जगताचा खलिफा होण्यास उत्सुक होता. त्याचा जगभरच्या मुसलमान जनतेवर चांगला प्रभाव होता. ब्रिटिशांनी आपल्याला खलिफा म्हणून मान्यता द्यावी असा त्याचा प्रयत्न होता. ब्रिटिशांनी यास मान्यता दिली नाही. शेवटी भारतीय मुस्लिम नेत्यांनी निजामला भारताचे 'शेख उल इस्लाम" हे पद धारण करण्याची विनंती केली. ब्रिटिशांच्या विरोधामुळे निजामाने हे पद स्वीकारण्यास नाकारले. पण 1933 मध्यें निजामाने आपल्या एका मुलाचे लग्न पदच्युत खलिफाच्या मुलीशी, तर दुसऱ्या मुलाचा विवाह खलिफाच्या नातीशी घडवून आणला.

निजामनी खलिफा पद स्वीकारावेचे प्रयत्न तेव्हां केले गेले होते जेव्हां कमाल अतातुर्कने 1924त खिलाफतच नष्ट करुन टाकली. तत्पश्चात भारतीय मुस्लिम नेते आगाखान, अमीरअली हे कमालपाशांना भेटले व अब्दुल मझिदची खिलाफत कायम ठेवावीची विनंती केली. 
कमालपाशानी ही विनंती फेटाळून लावल्यावर त्यांनी विनंती केली की त्यांनी स्वतः खलिफा व्हावे. कमालपाशानी त्यांना विचारले, 'तुम्ही ब्रिटिशांचे गुलाम नागरिक आहात. मी जगाचा खलिफा झाल्यावर तुम्ही माझ्या आज्ञा पाळणार आहात काय?  जर पाळणार नसाल तर मग मी खलिफा बनून काय अर्थ आहे?" आता इस्लाम व भारतीय मुसलमानांचे काय होईल या चिंतेेने व भीतीने ते बैचेन झाले व लगेच जगात नवी खिलाफत स्थापन करण्याच्या प्रयत्नास भारतीय मुस्लिम नेते लागले. अब्दुल मझिदने नकार दिल्यावर ते इराणच्या शाह रझापहलेवी यांच्याकडे गेले व त्यांनाही हीच विनंती केली. पण शाह यांनी खलिफा होण्यास नकार दिला. तेव्हां भारतातच खिलाफत स्थापन करण्याच्या दृष्टीने ते निजामास भेटले होते.

हा निजाम इतका धूर्त होता की 1947-48 हैदराबादला मुस्लिम संघराज्य बनविण्याकरिता त्याने जे कट केले होते ते उघडकीस आल्यावर सगळ खापर रझाकारांवर फोडून स्वतः मोकळा झाला होता. 26 मार्च 1948त निजामाच्या पंतप्रधानाने जाहिर केले होते की, 'निजाम हे हुतात्मा होण्यास तयार आहेत. निजाम व लक्षावधि मुसलमान हे मरण्यास सिद्ध झाले आहेत." परंतु भारताचे सैन्य 13 सप्टेंबर 48ला हैदराबादला गेले व निजामाच्या जुल्मी शासनाचा अंत झाला.

Thursday, January 16, 2014

बीट - चुकंदर - वानस्पतिक नाम बीटा वल्गेरिस


प्राचीन रोमन और ग्रीक इसका प्रचुर मात्रा में प्रयोग करते थे। यह एक रसीली कंदमूल वनस्पति है। भारत में इसकी दो प्रजातियां पाई जाती हैं,लाल जामुनी और सफेद। इसका आहार में उपयोग पिछले 2000 सालों से हो रहा है। यह मध्य यूरोप और पश्चिमी एशिया मूल की वनस्पति है। भारत में इसकी खेती पौष्टिक खाद्य पदार्थ के रुप में की जाती है। इसमें शकर के रुप में कार्बोहायड्रेट्‌स (कार्बोदक), अल्प मात्रा में प्रोटीन (प्रथिन) और फेट्‌स (चिकनाई) रहते हैं। इसका उपयोग ज्यादतर सलाद, अचार और चटनी के रुप में किया जाता है। इसकी पत्तियों की सब्जी भी बनती है। यह प्राकृतिक शकर का अच्छा स्त्रोत है। इसमें सोडियम, पोटेशियम, फास्फोरस, केल्शियम, सल्फर, क्लोरिन, आयोडिन, आयरन, कॉपर, विटामिन बी1, बी2, नायसिन, बी6, सी और पी। इसका रस पाचक कार्बोहायड्रेट्‌स से युक्त परंतु, कम केलोरी वाला होता है। इसमें अच्छी गुणवत्ता और मात्रा में अमीनो एसिड होता है। विदेशों में इसके रस का व्यापक उपयोग होता है। यह रक्त को शीतलता प्रदान करता है।


तत्त्वों का पृथक्करण


खाद्य मूल्य खनिज और विटामिन
पानी 87.7% केल्शियम 18 मि. ग्रा.
प्रोटिन 1.7% फास्फेट 55 मि. ग्रा.
चिकनाई 0.1% आयरन 1 मि. ग्रा.
खनिज 0.8% विटामिन सी 10 मि. ग्रा. अच्छी मात्रा में विटामिन ए, बी और अल्प मात्रा में बी कॉम्पलेक्स और ऊर्जा मूल्य 43
रेशा 0.9%
कार्बोहायड्रेट्‌स 8.8%


प्राकृतिक लाभ और औषधीय गुणधर्म


चुकुंदर गुरु, स्निग्ध, शीतल, पौष्टिक, पित्तनाशक, रक्तवर्धक शरीर को लाली प्रदान करनेवाला और शक्तिप्रद है। चुकंदर में बेटिन नामका एक तत्त्व है जो किडनी, गाल ब्लेडर, जठर और आंतों को स्वच्छ रखने में सहायता करता है।


1). रक्ताल्पता - इसमें आयरन प्रचुर मात्रा में रहता है जिसके कारण लाल रक्त कणों की वृद्धि होती है। बच्चों की रक्ताल्पता और जहां अन्य उपाय काम न आए हों वहां बीट का रस शरीर की मजबूती एवं रक्ताल्पता को दूर करता है।


2). पाचन के विकार - बीट का रस पीलिया - जॉंडिस, जी मिचलाना, उल्टी - दस्त आदि में लाभदायक रहता है। बीट के रस में एक चम्मच नींबू का रस मिलाने से इसके औषधी गुणों में वृद्धि होती है। सुबह नाश्ते के पूर्व बीट रस के साथ शहद का उपयोग गैस्ट्रीक अल्सर में फायदा पहुंचाता है। 'बीट का रस दिन में केवल एक बार लेना चाहिए।"


3). कब्ज और बवासीर - पुराने कब्ज और बवासीर में यह बहुमूल्य लाभ पहुंचाता है। इसका रेशा कब्ज दूर कर शौच के मार्ग को आसान बनाकर बवासीर में लाभदायक रहता है।


4). रक्त संचार प्रणाली के दोष - बीट का ज्यूस अकार्बनिक केल्शियम जमाव को रोकने के लिए एक अच्छे घोल का कार्य करता है। यह हायपर टेंशन, धमनियों के कडा होने, ह्रदय रोग आंतों के फूलने के रोगों के लिए एक महत्वपूर्ण उपचार है।


5). किडनी और पित्ताशय के विकार - ककडी, बीट और गाजर के रस का मिश्रण किडनी और पित्ताशय की सफाई के काम आता है। यह इन दोनो ही अंगों के विकारों के लिए बहुउपयोगी है।


6). चर्मरोग - बीट का कंद पत्तियों का उबला हुआ जल चर्मरोगों - फोडों - फुंसियों और मुंहासों पर लगाने से लाभ होता है।


7). फरास - जुंएं - बीट के पत्तों को पानी में उबालकर सिर धोने से फरास दूर होती है और जुंएं मर जाती हैं।


8). बालों का गिरना - चुकंदर के पत्तों को मेहंदी के पत्तों के साथ पीसकर सिर पर लेप करने से बाल गिरना बंद होकर और तेजी से बढ़ते हैं।


9). जोडों का दर्द - इसके खाने से जोडों के दर्द में लाभ होता है।


10). ट्यूमर - बीट और गाजर का रस लाभदायी है।


11). मासिकधर्म, श्वेत प्रदर आदि स्त्री रोग - गाजर और बीट का रस लाभकारी।


12). केंसर - बीट के रस में केंसर निवारक गुण हैं।


बीट का रस निर्दोष और गुणकारी है, पौष्टिक होने के साथ ही यह रक्तशोधन करके शरीर को लाल सुर्ख बनाने में सहायता करता है। बीट रस के रोग निवारक गुणों के लाभ के लिए किसी रस चिकित्सा तज्ञ से सलाह और मार्गदर्शन से अधिक लाभ होगा।

कथा हैदराबाद के निजाम की

 

वर्तमान में भाजपा-कांग्रेस के मध्य चल रहे पटेल-नेहरु संबंधी विवाद के कारण हैदराबाद तथा उसका निजाम चर्चा में है। देश को आजाद हुए 66 वर्ष बीत चूके हैं और निजाम को मरे भी एक लंबा अरसा बीत चूका है। परंतु, निजाम संबंधी आकर्षण कम नहीं हुआ है व किसी ना किसी बहाने निजाम चर्चा में आ ही जाता है। आज से कुछ वर्ष पूर्व लंदन के वेस्ट मिनिस्टर बैंक में जमा करोडों रुपये की संपत्ति और उस पर दावा करनेवाले उसके चारसौ से अधिक वारिसों के कारण यही निजाम चर्चा में आ गया था। तो, उसके पूर्व सन्‌ 2002 में उसके रत्नालंकारों के भंडार की हैदराबाद में प्रदर्शनी के कारण वह मीडिया में चर्चित हो गया था। 


जिस निजाम मीर उस्मान अली खान पर से चर्चा चल रही है वह आसफजहां खानदान का होकर उस खानदान ने दख्खन पर सवा दो सौ वर्षों तक राज किया था। अंतिम निजाम उस्मान अली खान जो छोड गए उसमें अपार संपदा, भव्य महल, संग्रहणीय आभूषण और बहुमूल्य पैंटिंग्स तो हैं ही 2700 से अधिक जायज और नाजायज वारिस भी हैं जो इस अचल संपत्ति के बंटवारे के लिए न्यायालय के दरवाजे खटखटा रहे हैं। और इन सबसे उकताकर अधिकृत वारिस प्रिंस मुकर्रमजहां तुर्की में दो कमरे के फ्लॅट में रह रहे हैं। जब हैदराबाद संस्थान को खालसा किया गया था तब सरकार ने निजाम के साथ सम्मानजनक व्यवहार करते हुए करमुक्त सालाना 50 लाख रुपये वेतन मंजूर किया था। इसीके साथ राजप्रासाद की देखरेख के लिए 25लाख, जागीर की कमाई के बदले 25लाख और दो राजपुत्रों के लिए 25लाख इस प्रकार से कुल 75लाख निजाम को मिलते थे और 1950 से 56 तक वे बतौर राजप्रमुख भी थे।  

 

लेकिन अब हैदराबाद के निजाम की विरासत के 150 से अधिक नाती-पोते जो कभी शान से रहा करते थे आज हैदराबाद के विभिन्न इलाकों में बिखरे हुए होकर गरीबी में जीवन निर्वाह कर रहे हैं। उनकी आर्थिक स्थिति इतनी दयनीय है कि उन्हें खुदको निजाम का वंशज कहने में भी शरम आती है। टूटेफूटे मकानों में निवास करते इन वंशजों में से कोई सायकल की मरम्मत कर रहा है तो कोई फलफ्रूट बेचकर गुजारा कर रहा है। 

 

इन उजडे निजाम वंशजों के पूर्वज जहां अपनी रईसी के लिए जाने जाते थे वहीं वे अपनी कंजूसी के लिए भी विख्यात थे। अंतिम निजाम उस्मानअली 185 कॅरेट का जेकब डायमंड पेपरवेट की तरह उपयोग में लाया करता था। अपनी मोटरगाडियों के शौक के लिए भी वह प्रसिद्ध था। लेकिन कंजूस इतना था कि 'किंग कोठी" पॅलेस में वह अत्यंत गंदे व फटीचर पहनावे में घूमता था। सस्ती चारमीनार सिगरेटें फूंकता था। अपने अंतिम समय में अपने पासके सोने के प्रचंड संग्रह को उसने विशेष संदूकों में लादकर हैदराबाद से मुंबई ले जाकर 150 रुपये तोले में बेचा जिससे उसे 6 करोड रुपये प्राप्त हुए। परंतु, जिन संदूकों में सोना ले जाया गया था उन संदूकों और तालों को वापिस लाने के निर्देश उसने दिए थे।

 

सन्‌ 2002 में हैदराबाद में जब इस निजाम के रत्नालंकारों की प्रदर्शनी लगाई गई थी तब उसकी रईसी व कंजूसी के इतने चर्चे हुए कि ऐसा आभास होने लगा कि मानो 54 (आज से 65) वर्ष पूर्व स्वतंत्र मुस्लिम राज्य का दिवास्वप्न देखनेवाला निजाम उस्मानअली खान कोई और ही हो। जिसने पंडित नेहरु और सरदार पटेल जैसे राजनैतिक धुरंधरों को भी बातचीत के जाल में वर्ष भर तक उलझाए रखा था। जिन लोगों को ऐतिहासिक घटनाओं का भान न हो उन लोगों के लिए तो यह आश्चर्यजनक ही है कि यह निजाम स्वयं इस्लामी जगत का खलीफा बनने की ख्वाहिश भी रखता था। उसका विश्वभर की मुस्लिम जनता पर अच्छा प्रभाव  था। ब्रिटिश उसे खलीफा के रुप में मान्यता दें इस दिशा में उसने प्रयत्न भी किए थे। परंतु, ब्रिटिशों ने मान्यता नहीं दी। अंततः भारतीय मुस्लिम नेताओं ने निजाम को भारत का 'शेख उल इस्लाम" पद धारण करने की विनती की। ब्रिटिशों के विरोध के कारण निजाम ने यह पद स्वीकारने से मना कर दिया। निजाम ने अपने एक लडके का विवाह पदच्युत खलीफा की बेटी से तो अपने दूसरे बेटे का विवाह खलीफा की पोती से करवाया था।

 

निजाम को खलीफा बनाने के प्रयत्न तब किए गए थे जब कमाल अतातुर्क ने 1924 में खिलाफत समाप्त कर दी थी। खिलाफत समाप्त होने के पश्चात भारतीय मुस्लिम नेता आगाखान, अमीरअली कमालपाशा से मिले व अब्दुल अजीज की खिलाफत कायम रखने की विनती की। इंकार करने पर उन्होंने कमालपाश स्वयं ही खलीफा पद स्वीकारें की विनती की। कमालपाशा ने उनसे पूछा 'तुम ब्रिटिशों के गुलाम नागरिक हो। मेरे दुनिया का खलीफा बनने पर तुम मेरी आज्ञाओं का पालन करोगे क्या? अगर पालन नहीं करनेवाले हो तो मेरे खलीफा बनने का क्या फायदा?" अब इस्लाम और भारतीय मुस्लिमों का क्या होगा की चिंता से ग्रस्त हो नई खिलाफत की स्थापना के लिए भारतीय मुस्लिम नेता लग गए। इसी सिलसिले में अलीबंधुओं के नेतृत्व में वे ईरान के शाह रजापहेलवी से भी मिले। परंतु, उसने इंकार कर दिया तब भारत में ही खिलाफत स्थापित करने की दृष्टि से वे निजाम से मिले थे।  

 

यह निजाम इतना शातिर था कि 1947-48 में हैदराबाद को मुस्लिम संघराज्य बनाने के लिए उसने जो षडयंत्र किए थे वे उजागर होने पर सारा ठिकरा रजाकारों के आंदोलन पर फोडकर स्वयं को पाकसाफ बताने की कोशिश की थी। 26 मार्च 1948 को निजाम के प्रधानमंत्री लायकअली ने घोषित किया था कि, 'निजाम हुतात्मा होने के लिए तैयार हैं। निजाम और लाखों मुसलमान मरने के लिए तैयार हैं।" परंतु भारत की सेना 13 सितंबर 48 को हैदराबाद गई और जुल्मी शासन का अंत हो गया। 

पैगम्बर की दयालुता !!


"No Civilized people of The world is so ignorant of Islamic History......as Hindus'' - M.N.Roy.


यह एक दु:खद कटु सत्य है। वह भी तब, जबकि इस्लाम का मुस्लिम समाज एक हजार से भी अधिक वर्षों से हमारे साथ रह रहा है। आज इस्लाम एक विश्वव्यापी समस्या का रूप धारण कर चुका है और उसका संत्रास तो हम हिंदुस्तान में उसके आगमन के समय से ही भुगत रहे हैं। दु:ख तो तब अधिक होता है जब अपने आपको बुद्धिजीवी, चिंतक, विचारक कहे जाने वाले, समझने वाले समाज के नेतृत्वकर्ता और स्वयं को प्रजातंत्र का चौथा स्तंभ कहे जाने वाले मीडीया और उसके पत्रकार व्यवसायिकता की रौं मे ंबहकर अपने राजनैतिक और व्यवसायिक लाभ के लिए बिना किसी अध्ययन के जिनको विषय का कौडी का भी ज्ञान नहीं हो ऐसे विषयों में भी नि:संकोच विद्घता झाडने का दु:साहस करते हैं या बिना किसी जानकारी के या गंभीरता के उलजुलूल कथन करते हैं, प्रकाशित करते हैं, कर रहे हैं। यह अत्यंत पीडादायक है। इसी तरह के कुछ कथनों की बानगी प्रस्तुत है:


""जिसमें दया नहीं है, उसमें कोई सद्‌गुण नहीं है-हजरत मुहम्मद'' लीजिए पेश है हजरत मुहम्मद के दया वाले सद्‌गुण का एक नमूना:-

हजरत मुहम्मद ने अपने अपने जीवन के मदीनाकाल खंड के दस वर्ष के दौरान कुल 82 लड़ाइयां लड़ी, उन्हीं में से एक महत्वपूर्ण लड़ाई ''खंदक युद्ध'' के नाम से प्रसिद्ध है, जिसका 1400 वां (हिजरी) स्मृति दिन सन्‌ 1985 में धूमधाम से मनाया गया था। इस लड़ाई में मूर्तिपूजकों पर विजय संपादन के बाद पैगम्बर मुहम्मद ने अपनी 3000 की सेना के साथ यहूदियों की बनी कुरैजा टोली की बस्ती को घेर लिया। पैगम्बर मुहम्मद ने यहूदियों पर शत्रु पक्ष का साथ देने का आरोप लगाया। यहूदियों ने इससे इंकार किया। घेरा पच्चीस दिन चला। उस बस्ती के रहने वाले 2000 यहूदियों ने अंतत: शरणागति स्वीकार की। उन्होंने मदीना छोड़कर चले जाने की अनुमति मांगी परन्तु पैगम्बर मुहम्मद ने इस मांग को ठुकरा दिया और विकल्प सुझाया कि यहूदियों को दंड दिया जाए कि माफी इसका फैसला औस टोली का कोई व्यक्ति करेगा। ( औस टोली और बनी कुरैजा मित्र टोलियां थी, लेकिन अब औस टोली इस्लाम को स्वीकार कर मुस्लिम बन चुकी टोली थी।) बनी कुरैजा को यह विकल्प स्वीकारना पड़ा।


पैगम्बर मुहम्मद ने औस टोली के अपने कट्टर अनुयायी सद्‌ बिन मआज को न्यायाधीश नियुक्त किया। वे हाल ही में हुए खंदक युद्ध में तीर लगने से गंभीर रूप से जख्मी अवस्था में थे और उनका इलाज चल रहा था। सद ने अल्लाह से प्रार्थना की कि, सजा सुनाने तक उन्हें जीवित रहने दिया जाए। सद्‌ ने फैसला सुनाया ""इनके जो पुरूष लड़ने योग्य है, उन सबको कत्ल कर दिया जाए, इनकी औरतों और बच्चों को कैद कर लिया जाए और इनके माल बांट लिए जाएँ।"" इस पर पैगम्बर मुहम्मद ने फरमाया ''तुमने अल्लाह के आदेशानुकूल निर्णय लिया।'' (दअ्‌वतुल कुर्आन खंड 3 का भाष्य पृ. 1464) डॉ. रफीक जकरिया ने अपनी पुस्तक Mohammad and The Quran के पृ.36 पर मार डाले गए यहूदियों की संख्या 900 बताई है। सर विलयम मूर ने अपनी पुस्तक The Life of Mohammad के पृ. 318 पर इस घटना का वर्णन इस प्रकार किया है। ""इन सभी शवों को दफन किया जा सके इसके लिए बड़े गड्‌ढे पहले से ही रात में शहर से लगे हुए एक स्थान पर खोदे गए, दूसरे दिन सजा को अमल में लाया गया। उन्हें इन गड्‌ढों के किनारे पंक्तिबद्ध बैठाया गया। उसके बाद उनके सिर कलम कर शवों को गड्‌ढों में डालकर गड्‌ढों को भर दिया गया, मुहम्मद की देखरेख में ही यह कार्य चला दिन भर में भी कार्य समाप्त न होने के कारण प्रकाश की व्यवस्था कर रात भर यह कार्य चला।''


'' बदले की प्यास बुझा लेने के बाद (दयालु !) पैगंबर मुहम्मद ने इस वीभत्स कांड को भुलाने के लिए रेहाना के हुस्न की शरण ली। रेहाना के पति और अन्य रिश्तेदार अभी अभी नृशंस हत्याकांड में मर मिटे थे। उन्होंने रेहाना के सामने विवाह का प्रस्ताव रखा। उसने मना कर दिया। उसने बांदी अथवा रखैल बनना पंसद किया। (वस्तुत: शादी के लिए मना करने पर उसके लिए और कोई चारा भी नहीं था।) अपना धर्म बदलने से भी उसने इंकार कर दिया और अंत तक यहूदी बनी रही।'' (हदीस के माध्यम से इस्लाम का अध्ययन-रामस्वरूप पृष्ठ 121)


सर मूर ने पृ. 320 पर यह भी लिखा है कि ""घेरा डालने के पूर्व ही चार यहूदियों ने समझदारी दिखाते हुए इस्लाम को स्वीकार कर लिया और उन्हें क्षमा कर दिया गया।'' यदि बाकी के यहूदी भी इसी तरह की समझदारी दिखाते तो वे मारे न जाते निश्चय ही कोई चाहे तो इसे पैगम्बर मुहम्मद की दयालुता कह सकता है।
प्रसिद्ध मुस्लिम इतिहासकार इब्न हिशाम (पृ.834) के अलावा अन्य कई इतिहासकारों ने भी इस प्रसंग से संबंधित और भी कई घटनाओं का उल्लेख अपनी पुस्तकों में किया हुआ है। हदीस (पै. मुहम्मद की उक्तियां और कृतिया) वर्णन के अनुसार: ''युद्ध लूट का पांचवा हिस्सा पै. मुहम्मद ने रख लिया। उनके हिस्से में आई कुछ लड़कियों और औरतों को उन्होंने अपने मित्रों को भेंट के रूप में दिया और बची हुई नज्द क्षेत्र के लोगों को बेचकर उससे राज्य के लिए घोड़े और शस्त्र खरीद लिए। बची हुई लूट तीन हजार सैनिकों में नियमानुसार बांट दी गई।'' (मुस्लिम: 4370)
कुरान की सूर अल अहजाब की आयतें 26 और 27 में लड़ाई और न्याय का वर्णन इस प्रकार से आया हुआ है: ""और अहले किताब (यहूदी) में से जिन लोगों ने उन (हमलावर) गिरोहों की सहायता की थी अल्लाह ने उनके दिलों में ऐसा रोब डाल दिया कि एक गिरोह (पुरूषों) को तुम कत्ल करते रहे और दूसरे गिरोह (स्त्रियों व बच्चों) को तुमने कैद कर लिया और (अल्लाह ने) तुमकों उनकी जमीन, उनके घरों और उनके माल का वारिस बना दिया, और ऐसी(उपजाऊ) जमीन का भी जिस पर अभी तुमने कदम नहीं रखे। अल्लाह हर चीज पर सामर्थ्यवान है।"" अर्थात्‌ यह सब कुछ अल्लाह की मदद से और उसके मार्गदर्शनानुसार तथा इच्छानुसार ही हुआ है।


इस दंड के संबंध में न्यायाधीश सैयद अमीर अली ने 'The Spirit of Islam'  में लिखा है : ""थोड़ा सोचिए अगर अरबों की तलवार ने अपना काम अधिक दयालुता से किया होता तो हमारा (मुस्लिमों का) और आकाश तले के अन्य प्रत्येक देश का भविष्य आज क्या होता ? अरबों की तलवार ने, उनके रक्तांकित कृत्यों से संसार के हर कोने के पृथ्वी पर के सभी देशों के लिए दया लाने का काम (Work of Mercy) किया है।'' (पृ. 81,82) उनका अंतिम निष्कर्ष यह है कि: ''किसी भी भूमिका में से हो पूर्वाग्रह रहित मानस को ऐसा ही लगेगा कि, बनी कुरैजा को कत्ल किया था इसलिए पै. मुहम्मद को किसी भी तरह से दोषी ठहराना सम्मत नहीं।'' (पृ.82) हमें लगता है कि इसी दृष्टिकोण को नजर में रखते हुए पै. मुहम्मद और उनके अल्लाह की इसी दया से प्रभावित होकर यह कथन किया गया है कि ""जिसमें दया नहीं है उसमें कोई सदगुण नहीं है।''


इस कथन पर भी गौर कीजिए: "" हर मजहब में जितने संत हुए है उन सबका हृदय एक सा है, उनमें आपस में जो भेद दिखाई देते हैं, वे अन्य लोगों ने पैदा किए हैं, संतों ने नहीं।''- कुरान शरीफ।


यह कथन पूरी तरह मनगढ़ंत, झूठा और समाज को भ्रमित करने वाला है। इस तरह के झूठे, मनगढ़ंत भ्रम फैलाने वाले कथनों से शायद पत्रकारिता के तो नए आयाम स्थापित किए जा सकते हैं, परंतु इससे समाज का अहित ही होता हैं। यह भी शायद कम है इसीलिए तो इस्लाम के सत्य को उजागर करने वाले बुद्धिजीवियों, पत्रकारों को हेय दृष्टि से देखा जाता है, उनके लेखन का, कथनों का मजाक उड़ाया जाता है। परंतु ये तथाकथित बुद्धिजीवी स्वार्थवश इस बात को समझ ही नहीं पा रहे हैं कि वास्तविकता को छुपा कर और गलत बयानी के द्बारा वे समग्र समाज और राष्ट्र का कितना अहित कर रहे हैं।

Saturday, January 11, 2014

जनचेतना व मानवधर्म के व्याख्याकार - स्वामी विवेकानंद

जिन दिनों स्वामी विवेकानंद अमरीका के प्रवास पर थे उन दिनों एक अमरीकी पत्रिका 'अपील एग्लांश" ने स्वामीजी की प्रशंसा में लिखा- 'इस समय के सबसे बडे संसार के प्रसिद्ध विचारक विद्वान हैं (वे)।" इस पत्रिका ने जनता से आग्रह किया 'आप लोग स्वामीजी को अवश्य देखने-सुनने जाएं, कारण उनमें पूर्व (भारत) की आत्मिक-मानसिक, आध्यात्मिक संस्कृति का आलोक और तेज संप्राप्त होता है। वस्तुतः स्वामी विवेकानंद, बीच में जो लंबा अंतराल था, उसके पूरक हैं? 

अपनी व्याख्यानमाला में विवेकानंद उस दुखी भारत को कभी नहीं भूले जो अन्नाभाव से पीडित, पराधीन था और भूलावे में लाकर विदेशी पादरियों द्वारा ईसाई बनाया जा रहा था। भारत की इस क्षत-विक्षत स्थिति पर जब वे बोलते थे तो आवेश में आ जाते थे और अंग्रेज जो अन्याय भारत की जनता से प्रतिदिन कर रहे थे उसका मर्मांतक चित्रण प्रस्तुत करने से कभी भी नहीं चूकते थे। वे बडी निर्भयता से बोलते थे कि 'अंग्रेज पादरी आज जो बाइबल की पोथियां बांटकर उन्हें जो धर्मशिक्षा देने का प्रयत्न कर रहे हैं, वास्तव में भारत को इस समय उसकी कतई आवश्यकता नहीं है। भारतवासियों को आज चाहिए रोटी और कपडा। इसलिए इंग्लैंड भारत को अपने पादरी भेजने की बजाए राशन भेजे। भारत कृतघ्न नहीं है वह इंग्लैंड को उसके बदले में अपना जीवन दर्शन, योगविद्या, अध्यात्मिक ज्ञान देकर उसे लाभान्वित करेगा।" और स्वामीजी अमरीका को भारत के इस ज्ञान-सम्मुज्वल रुप से परिचित कराने में यशस्वी भी रहे।

उनका दर्शन था ''परोपदेशे पांडित्य कभी नहीं होने दो। हम जग के गुरु नहीं, शिष्य तथा सेवक हैं।"" यह थी उस त्यागनिष्ठ संत की लोकभावना जो मानवधर्म का पक्ष निरंतर प्रकट करती है। 1902 में जब वे बेलूर मठ में ही रहा करा करते थे तथा मठ के घरेलू कार्यों की देखरेख करते हुए कभी-कभी कोई कार्य स्वयं के हाथों से करते हुए समय बीताते थे तब वहां मठ की भूमि की स्वच्छता तथा मिट्टी खोदने प्रतिवर्ष ही कुछ संथाल कुली आया करते थे। उन संथालों में एक व्यक्ति का नाम था केष्टा जो स्वामीजी को बडा प्रिय था। एक दिन स्वामीजी ने केष्टा से कहा ''अरे तुम लोग हमारे यहां खाना खाओगे?"" केष्टा बोला, ''हम अब और तुम लोगों का छुआ नहीं खाते हैं, अब ब्याह जो हो गया है। तुम्हारा छुआ नमक खाने से जात जाएगी रे बाप।"" स्वामीजी बोले, ''नमक क्यों खाएगा रे? बिना नमक डाले तरकारी पका देंगे, तब तो खाएगा ना?"" केष्टा उस बात पर राजी हो गया। इसके बाद स्वामीजी के आदेश पर सब संथालों के लिए पूरी, तरकारी, मिठाई, दही आदि का प्रबंध किया गया और वे उन्हें बिठाकर खिलाने लगे। खाते-खाते केष्टा बोला, ''हां रे स्वामी बाप, तुमने ऐसी चीजें कहां से पाई हैं-हम लोगों ने कभी ऐसा नहीं खाया।"" स्वामीजी ने उन्हें संतोषपूर्वक भोजन कराकर कहा, ''तुम तो नारायण हो-आज मैंने नारायण को भोग दिया।"" 

स्वामीजी जो दरिद्रनारायण की सेवा की बात कहा करते थे, उसे उन्होंने इसप्रकार से स्वयं करके दिखाया है । वे विदेश में धर्मप्रचारार्थ गए ही इसलिए थे कि, इस देश के लिए अन्न का प्रबंध कर सकें।

मद्रास प्रांत में जो हजारों पेरिया ईसाई बने जा रहे थे उनके संबंध में उनका कहना था कि ऐसा न समझना कि वे केवल पेट के लिए ईसाई बनते हैं। वास्तव में हमारी सहानुभूति न पाने के कारण वे ईसाई बनते हैं। हम दिन-रात उन्हें यही कहते रहे हैं कि, ''छुओ मत छुओ मत।" देश में अब क्या दया-धर्म है भाई? केवल छुआछूतपंथियों का दल रह गया है। ऐसे आधार के मुख पर मार झाडू, मार लात। इच्छा होती है तेरे छुआछूत पंथ की सीमा को तोडकर अभी चला जाऊं-जहां कहीं भी पतित-गरीब, दीन-दरिद्र हों, आ जाओ, यह कहकर उन सभी को श्रीरामकृष्ण के नाम पर बुला लाऊं। इन लोगों के बिना उठे मां नहीं जागेगी। हम यदि इनके लिए अन्न-वस्त्र की सुविधा न कर सके तो फिर हमने क्या किया? हाय! ये लोग दुनियादारी कुछ भी नहीं जानते हैं। इसलिए तो दिनरात परिश्रम कर के भी अन्न-वस्त्र का प्रबंध नहीं कर पाते। आओ हम सब मिलकर इनकी आंखे खोल दें- मैं दिव्य दृष्टि से देख रहा हूं, इनके और मेरे भीतर एक ही ब्रह्म-एक ही शक्ति विद्यमान है, केवल विकास की न्यूनाधिकता है। सभी अंगों में रक्त का संचार हुए बिना किसी भी देश को कभी उठते देखा है? एक अंग के दुर्बल हो जाने पर दूसरे अंग के सबल होने से भी उस देह से कोई बडा काम फिर नहीं होता इस बात को निश्चित जान लेना।"" 

एक प्रार्थना सभा में उन्होंने कहा था- ''भाइयों! कहो कि नंगा भारतीय, अशिक्षित भारतीय, हरिजन भारतीय मेरा भाई है। बहनों! अपनी आवाज और ऊंची उठाकर कहो कि भारत में सिर्फ मानव ही आराध्य है। भारत के लिए मानव संस्कृति का विकास बहुत जरुरी है। और दिनरात प्रार्थना करो कि हे गौरीपति! हे महाशक्ति! मेरी निर्बलता को दूर करो और मुझमें संघर्ष करते रहने की निरंतर शक्ति दो।"" इन पंक्तियों मे स्वामीजी की मानवधर्म की सच्ची व्याख्या स्पष्ट है। और इसमें से यह भी दृष्टिगोचर होता है कि, स्वामीजी के मन में सामान्यजनों के लिए कितना अनुराग, समादर था।

एक बार उनसे पूछा गया आपका राष्ट्रीय उद्देश्य क्या है? मुक्ति की व्यापक परिभाषा आप किसे कहते हैं? स्वामीजी का उत्तर था- मुक्ति वही है जिसने अपना सब कुछ दूसरों के लिए त्याग दिया। अंतःकरण की निर्मलता ही सबसे बडी शुद्धि है। सबसे पहले उस विराट पुरुष की पूजा करो, जो हमारे चारों ओर विराजमान है। ये सब मनुष्य और पशु ही हमारे देवता हैं। इनमें भी सबसे पहले पूजा करो, अपने देशवासियों की और यही हमारा सच्चा राष्ट्रीय उद्देश्य है।

स्वामीजी के उक्त विचारों को दृष्टि में रख यदि वर्तमान पर नजर डालें तो परिस्थितियां आज भी कुछ विशेष बदली नहीं हैं। हम अंतर्बाह्य अंतर्द्वंद से ग्रस्त हैं, स्वामीजी के बताए लक्ष्यप्राप्ति से कोसो दूर होकर कुंठित हुए जा रहे हैं और समस्याएं जस की तस बनी हुई हैं ऐसी परिस्थिति में हमें स्वामीजी के यह वचन मार्गदर्शन कर सकते हैं- ''मैंने जो कुछ कहा है उन बातों को मन में गूंथकर रखना। कहीं भूल न जाना।""
गंभीरतेने विचार करा राज साहेब !

गेल्या बरेच दिवसांपासून राज ठाकरे आणि त्यांच्या मनसे ने हिंदी आणि हिंदीभाषी उत्तरप्रदेश-बिहारच्या लोकांचा विरोध आणि छळवाद मांडला आहे. त्यांच्या मुंबई मध्ये उपजीवेके करीता येण्यावर त्यांचा आक्षेप असून त्यांना प्रताडित केले जात आहे. याला योग्य कसे म्हटता येईल. हे देशाच्या घटनेकडून प्रत्येक नागरिकाला मिळालेल्या शिक्षा, व्यवसाय, उपजीवेके करीता पूर्ण देशात कुठेही येण्या-जाण्याच्या अधिकाराचा हनन आहे. आम्ही मुंबईकरांच्या या दृष्टीकोणाशी सहमत आहोत की जर हे असेच येत राहिले तर आम्ही आणि आमची मुले कुठे जाणार. मुंबईत जागा मर्यादित आहे; तीनही बाजूने समुद्र आहे; इतकी लोक इथे कशी सामावतील याचा पण काही विचार केला गेला पाहिजे. इथली नागरी-व्यवस्था कोलमडत आहे.

उ.प्र. बिहार या प्रदेशांनी उन्नती केली नाही म्हणून त्या लोकांना इतक्या दूर आपले घर-दार सोडून परक्या ठिकाणी कष्ट उपसायला यावे लागत आहे. जिथे पोट-पाण्याची व्यवस्था होऊ शकते तिथेच जाऊन लोक वसतात. त्यांना वाटते की ही सोय मुंबईला होऊ शकते म्हणून ते तिथे येतात आणि त्यांची सोय होते ही. सकृत दर्शनी यात मुंबईकरांचाच हलगर्जीपणा दिसून येत आहे. कां बरे? एक शतकापूर्वी युती म्हणजे भाजप-शिवसेनेच सरकार होत आणि त्या वेळेस राज ठाकरे त्या युतीच्या शिवसेनेचे एक प्रमुख घटक होते. त्या वेळेस कोंकण (मुंबई पण कोंकणाचाच एक भाग आहे) शिवसेनेचा गढ़ होता. तिथे गरीबी; बेकारी पण भयंकर आहे, च्या लोकांना जर एखाद्य मोहिम सारखे चालवून, जसकी वीर सावरकरांनी, ज्यांना हिंदुत्ववादी असल्या कारणाने युतीचे नेते मोठ्या सन्मानाच्या दृष्टीने बघतात, दुसऱ्या विश्वयुद्धाच्या वेळेस सैनिकीकरणाची मोहिम राबवून त्यांत यश पण मिळविले होते, आपल्या लोकांना व्यवसायिक शिक्षण देऊन त्यांना मुंबईत आणून कामास लावून व्यवस्थितशीर वसवले असते तर त्यांचे पण भले झाले असते आणि ज्यांना ते समस्या समजून राहिले आहेत, ज्यांच्या मुळे त्यांची भाषायी आणि प्रादेशिक अस्मिता त्यांना धोक्यात दिसून राहिली आहे, उभी राहिली नसती. ते तर आपण केले नाही आणि आता जेव्हा ते उ.प्र.-बिहारचे भैया त्या (सेवाक्षेत्राच्या) जागेला भरण्याकरीता येऊन राहिले आहेत, कां की पोकळी कुठेच राहू शकत नाही. तर, आपल्याला अडचण होत आहे आणि आपण देशतोडक-घातक कामें आपल्या व्होट बॅंक बनविण्या, राखण्यासाठी मराठी अस्मितेच्या नावावर करीत आहात. 

कदाचित्‌ राज साहेब आपण वरील कार्य संगतीच्या प्रभावामुळे करु शकला नसाल. आपली युती भाजप बरोबर होती. भाजप जेव्हा विपक्षात असते तेव्हा 370चे कलम, समान नागरिक संहिता, राममंदिर सारखे मुद्दे उचलते, आपल्या घोषणा-पत्रात ठेवते आणि जेव्हा सत्तेत येते तेव्हा सगळे विसरुन जाते आणि आड घेते एनडीएच्या घोषणा-पत्राची. की काय करणार? आमच 'ऍलायन्स" आहे  जेव्हा पूर्णपणे भाजपच सरकार येईल तेव्हा करु! मानले की आपण (म्हणजे भाजप) असहाय होता. पण आपण बांग्लादेशींची घुसखोरी तर थांबवू शकत होता. पण नाही! आपण गोहत्या बंदी तर करु शकता होता. परंतु, ते ही आपण केले नाही. निष्क्रीय राहिलात. आणि आता गो-यात्रा काढ़ल्या जाऊन राहिल्या आहेत. याचाच अर्थ की तडजोड केवळ आणि केवळ सत्ते करीताच होती. 
आता संघ पण उ.प्र. बिहारच्या लोकांच्या रक्षकाची भूमीका घेऊन पुढ़े आला आहे आणि त्यानी आपल्या स्वयंसेवकांना त्यांचे रक्षण करण्याची आज्ञा दिली आहेे. तथा भाजपचे अध्यक्ष श्री नीतिन गडकरींनी सुद्धा आम्ही संघाशी सहमत आहोत असे म्हटले आहे. संघपरिवाराची ही भूमीका एकात्मतेच्या दृष्टीने निश्चितच वाखाखण्या सारखी आहे आणि या प्रकारे त्यांनी आपला हिंदू व्होट बॅंक राखून घेतला आहे. पण शिवसेनेची 'आमची मुंबई"ची भूमीका, मराठी प्रेम आणि स्वतःला मराठी भाषिकांच्या रक्षणकर्त्याच्या भूमीकेत उपस्थित करणे हे काही नवीन नाही. यापूर्वी पण ते दक्षिण भारतीयांच्या विरुद्ध अशीच मोहिम राबवून चूकले आहेत. पण त्यावेळेस मात्र संघ चुप्प राहिला. याच प्रकारे 'गुरुजी जन्म शताब्दी वर्ष"च्या दरम्यान पूर्ण वर्षभर 'संघ परिवार" एकाच गोष्टीची पुनरावृत्ती करीत राहिला की शीखधर्म धर्म नाही; जैनधर्म धर्म नाही; बौद्धधर्म धर्म नाही. हे सगळे सम्प्रदाय आहेत. धर्म केवळ हिंदूधर्म आहे. आता हे ठरवण्याचा-सांगण्याचा अधिकार संघ परिवाराला कोणी दिला की शीखधर्म धर्म आहे की सम्प्रदाय? संघाकडून वारंवार या अशा प्रकाराची वक्तव्ये दिल्या जात राहिल्यामुळे शीखांनी म्हटले की संघ प्रमुख सुदर्शनांनी पंजाबच्या भूमीवर येऊन असे भाष्य करण्याची हिंमत करु नये, नाही तर परिणाम भोगावे लागतील. तरी पण हा आलाप चालूच राहिला. परंतु, जशा पंजाबच्या निवडणूका समोर दिसू लागल्या तसेच भाजप-अकाली गठबंधनाच्या आवश्यकतेला बघून तत्काल शताब्दी समारंभाच्या समारोपाच्या वेळेस श्री सुदर्शन यांनी मंचावरुन सूर बदलून शीखधर्माला सम्प्रदायाच्या स्थानावर धर्म म्हटले. अशा प्रकारची स्वार्थी, व्होट बॅंकेची भूमीका योग्य कशी म्हणता येईल! योग्य तर हे राहील की संघानी केवळ आणि केवळ राष्ट्रहिताच्या एकात्मते वरच स्थिर राहवे. त्यास स्वार्थ आणि व्होट बॅंकेच्या राजकारणा करीता दूषित करु नये.

आम्ही राज ठाकरे बरोबरच मुंबईकरांवरही बोट उचलले आहे. ते या करीता की जेव्हा हे उ.प्र. बिहारवाले सुरवातीला 'आमची मुंबई" मध्ये उपजीविकेच्या शोधात आले तेव्हा ते कुठे आपल्या मराठीचा विरोध करीत होते, टिंगल करीत होते. जर का तेव्हाच आपण त्यांना मराठी शिकविली असती, त्यांच्याशी मराठीतच बोलला असता तर त्यांनी पण विचार केला असता की जर आपल्याला येथे राहवयाचे असेल तर ज्या प्रकारे आपण वडा-पावास स्वीकारले; त्याप्रमाणेच मराठीस पण स्वीकारावे लागेल, आपल्याला मराठी शिकावेच लागेल. या शिवाय काही पर्याय नाही. तर, ते मराठी शिकले असते. त्यांच्या आणि तुमच्या मध्ये समरसता निर्माण झाली असती. मुंबई मध्ये जी समस्या आहे ती पुण्याला किंवा नागपूरला तर दिसत नाही. पण तुम्ही तर 'बम्बईया भाषेलाच" जन्म देऊन दिला आणि आता मराठीच्या नावाने रडत आहात. आणि आता फालतूचे चाळे तुम्हा लोकांस सूचत आहेत. जसे की टेक्सी चालविण्या करीता मराठीचे बंधन. अगदी साधी सरळ गोष्ट आहे जर का एखाद्या पंजाबी भाषिकाला बंगाल मध्ये टेक्सी चालवायची असेल तर त्याला बंगालीतच बोलाव लागेल, पंजाबीनी काम चालणार नाही. कारण बंगालचे लोक आग्रहपूर्वक बंगालीतच बोलतील. पण आज एवढ्याशा छोट्याशा गोष्टी करीता आपण कायदा बनवू इच्छिता आणि टीकेचा शिकार बनित आहात.

आणि आता तर हद्द झाली की एक उच्चस्तरीय कमेटी आपल्यास सल्ला देत आहे की 'राज्याच्या मंत्री-अधिकाऱ्यांनी राज्याच्या बाहेरून येणाऱ्या गैर-मराठी किंवा परदेशी पाहुण्यांशी पण मराठीतच बोलावे". तर्क हा दिला जात आहे की 'मराठीचा उपयोग केल्याने मराठी भाषा वाढ़ेल, त्या बरोबरच दुभाषिकांच्या रुपात कित्येक लोकांस काम पण मिळेल." हा तर्क निश्चितच चांगला आहे. पण राष्ट्र-राज्याचे हित सर्वोपरी आहेत. जर आपण परदेशी पाहुण्यांशी राष्ट्र-राज्याच्याहिता करीता इंग्रजीत बोलू शकतो, परदेशात जाऊन इंग्रजीत भाषण देऊ शकतो, त्याकरीता इंग्रजी शिकू शकतो तर हिंदी कां म्हणून शिकू शकत नाही, बोलू शकत नाही? कां की हिंदी ही संपूर्ण राष्ट्राकरीता समन्वयाची भाषा म्हणून मानावीच लागेल. या बाबतीत आपण श्रीमती सोनिया गांधीचा ज्या एक परदेशी मूळाच्या आहेत, आदर्श समोर ठेऊ शकतो. ज्यांनी या देशाची सून बनण्याकरीता या देशाची संस्कृती स्वीकारली, हिंदी शिकल्या. तसेच ज्यांना हिंदी येते ते तर निश्चितच बोलू शकतात. त्यांच्या करीता हा अट्टहास कां की त्यांनी पण दुभाषियाच्याच माध्यमाने बोलावे. हं जे ग्रामीण भागातील असल्या कारणांमुळे हिंदी चांगल्या तऱ्हेने समजू-बोलू शकत नाहीत त्यांनी जर दुभाषियांची मदत घेतली तर त्यात काहीच गैर नाही. आमच्या दृष्टीने तर वरील प्रकारचा मराठी प्रेम कुचकाम्या आणि राजकारणा शिवाय आणखिन काहीही नाही.

या प्रकारेच राज ठाकरेच्या मनसे ने पण '40 दिवसात मराठी शिका किंवा मुंबई सोडा"चा एक नवीन फरमान काढ़ला आहे. उ.प्र. बिहारची लोक परदेशी आहेत कां? जे त्यांना बाहेर काढ़ण्याच्या गोष्टी केल्या जात आहेत, आम्ही याचा विरोध करतो आणि म्हटतो की हिंमत असेल तर बांग्लादेशी घुसखोऱ्यांना जे मुंबईत ठाण मांडून बसले आहेत त्यांना हाकलून दाखवा. वस्तुतः झाले हे पाहिजे की आपण तेथल्या आपल्या मराठी भाषिकांना सांगावे की त्यांनी केवळ मराठीतच संभाषण करावे. जर उ.प्र.च्या भैया आपल्या लंगडा किंवा दशहरी आंब्याची किंमत शंभर रुपये सांगतो तर आपण मराठीत बोलावे की मी शंभर नाही पन्नासच देईन. त्याला समजो ना समजो तो आपला व्यापार चालविण्याकरीता 'पचहत्तर" म्हणेल आपण म्हणावे की चल 'साठ" देईन. 'साठ" तर हिंदी-मराठी दोन्ही भाषेत म्हटल जात. जर उ.प्र.च्या भैयाला तिथे राहून आपली उपजीविका चालवायची असेल, दोन पैशे कमवायचे असतील तर तो झक्कत मराठी शिकेल, बोलेल. त्याकरीता मारा-कूटी करायची काय गरज आहे?

राज ठाकरेच मराठी प्रेम आणि हिंदी विरोध जेव्हा विधानसभेच्या निवडणूकीत थोड्याशा यशानंतर विधानसभेच्या शपथविधि समारंभापर्यंत जाऊन पोहोचले तेव्हा त्यांना आपल्या मराठी प्रेमाचे प्रदर्शन करण्याच माध्यम एक 'सभासद विशेष"च हिंदी मध्ये शपथ घेण्याचे दिसले, इंग्रजीत शपथ घेण्याचा विरोध करण्याची हिंमत मात्र त्यांना एकटविता आली नाही. पण ते हे विसरुन गेले की हिंदी देशाची राष्ट्रभाषा झाली पाहिजे ही बाब सगळ्यात आधी उचलणारे लोकमान्य टिळक होते. आणि त्यांचेच शिष्य वीर सावरकरांचा तर महान मंत्रच होता 'हिंदी हिंदू हिंदुस्थान" वा त्यांनी ना केवळ हिंदी ही राष्ट्रभाषा झाली पाहिजेची मोहिम राबविली तर भाषा-शुद्धिची मोहिम सुद्धा राबविली होती. सर्वमान्य आणि सर्वज्ञात शब्द 'महापौर"चे सृजन करणारे या शिवाय आपरेशनला 'शल्यक्रिया", फिल्मला 'चित्रपट" सारखे नव-नवे शब्द हिंदीला देणारे-रचणारे वीर सावरकरच होते. हिंदीत सगळ्यात पहिली कथा लिहणारे मराठी भाषी माधवराव सप्रे होते. ज्यांच्या नावावर भोपाळ मध्ये एक संग्रहालय आहे ज्याची स्वर्णजयंती आता काही वर्षापूर्वीच साजरी केली गेली. तसेच त्या काळातील हिंदीचे मान्यवर पत्रकार श्री ग. वा. पराडकर होते हे लक्षात घ्यायला हवे. 

जर का राज ठाकरे यांचे मराठी प्रेम खरे असेल तर त्यांनी हिंदीचा उगीचचा विरोध करणे सोडून सगळ्यात आधी मराठी-हिंदीचा शब्दकोश उचलून बघावा की त्यांच्या मराठीत किती परदेशी शब्द घुसून बसले आहेत. त्या शब्दांची घुसखोरी इतकी व्यापक आहे की ते धार्मिक कर्मकांडांमधून पण उच्चारले जात आहेत. उदा. छबीना-(फा. शबीनः)-रात्री निघणारी मूर्तिची देवाची यात्रा. या प्रमाणेच महाराष्ट्रीय लोकांत आपल्यापेक्षा मोठ्या, आदरणीय लोकांकरीता सगळ्यात जास्त वापरले जाणारे शब्द आहेत आबासाहेब, बाबासाहेब. आबा आणि बाबा हे वडिल किंवा आजोबांंकरीता अरबीत वापरले जातात. या प्रमाणेच बायको (धर्मपत्नी) हा तुर्की शब्द आहे जो सगळेचजण सर्रास आपल्या सौभाग्यवतींकरीता वापरतात. 

ज्या छत्रपतींचा उत्तराधिकार आपण चालवित आहात, जे आपले आदर्श आहेत. त्यांनी हे जाणूनच की ''संस्कृत आणि मराठीचे नाते माय-लेकीचे आहे. त्यामुळे श्री रघुनाथ पंडितांकडून लिहवून घेतलेला राज्यव्यवहारकोश स्वराज्याच्या दैनंदिन व्यवहाराशी चटकन एकरुप झाला. फार्सी व अरबी शब्द जाऊन सहज सामान्य जनतेलाही समजणारे संस्कृत प्रचुर शब्द जीवनात मिसळून गेले. पेशवा, सुरनीस, सरनौबत, मुजुमदार असे असंख्य परकीय शब्द विरघळून त्या एवजी पंतप्रधान, सचिव, सेनापती, अमात्य असे आपले शब्द रुढ़ होत गेले. भाषा-शुद्धिचे मूळ व वर्म महाराजांना अचूक उमगले होते. एकदा संज्ञा बदलल्या की संवेदनाही बदलतात. स्वत्वाचा आविष्कार आपोआपच होतो. त्याचा परिणाम मन राष्ट्रीय आणि जागृत होण्यात होत असतो. महाराजांनी महाराष्ट्राच्या संवेदना जाग्या केल्या. मातृभाषा हा राष्ट्राचा प्राण असतो. भाषा म्हणजे संजीवनीच.""

पण राज ठाकरे यांनी तर आता अतिरेकाचा कळसच गाठला आहे. त्यांचे म्हटणे आहे की 'फक्त मराठी बोलण्या, लिहण्या आणि वाचण्यानी चालणार नाही. नौकऱ्या त्यांनाच मिळाल्या पाहिजेत ज्यांचा जन्म महाराष्ट्रात झाला असेल. ही तर एका प्रकारे वेगळ्या राष्ट्रीयतेची सुरवातच म्हणावी लागेल. आता त्यांचा आक्षेप त्यांच्याच मनसेचा 40 दिवसात मराठी शिकाच्या फरमानावर पण आहे. हा या देशाच्या मातीशी द्रोह आहे. महाराष्ट्रातच जन्मलेल्या वीर सावरकरांनी तर आयुष्यभर या देशाला-राष्ट्रालाच आपले देव मानले आणि राष्ट्राकरीताच जगले. राज ठाकरे यांनी हे विसरु नये की आधी राष्ट्र मग महाराष्ट्र. 

मराठी प्रमाणेच हिंदीचा जन्म पण संस्कृत मधूनच झाला आहे. ही हिंदी शुद्ध अवस्थेत संस्कृत प्रचुर राहवी या करीता उत्तरेतील पंडितांनी पण अविरतपणे प्रयत्न केले होते. म्हणूनच तर हिंदी हिंदी राहिली. हिंदुस्तानी होऊ शकली नाही. राजर्षि पुरषोत्तमदास टण्डन यांनी म्हटले होते - ''मला संस्कृतनिष्ठ हिंदीच्या चळवळीची प्रेरणा वीर सावरकरांकडूनच प्राप्त झाली होती."" आपण पण असच काही तरी महान कार्य आपल्या माय बोली प्रिय मराठीकरीता करावे. आणि आपण करु पण शकता. म्हणूनच आमच आपल्यास असे म्हटणे आहे की 'गंभीरतेने विचार करा राज साहेब". का की आमच्या विचारा प्रमाणे हीच आपल्याकडून आपल्या आराध्य वीर शिवाजी, लोकमान्य टिळक आणि वीर सावरकरांना खरी आदरांजली राहील. आता इतके मात्र खरे की सापेक्षतया उन्नत राज्यांवर बाहेरच्यांचा हा जो भार वाढ़त आहे त्या विषयी केंद्रशासनानी विचार करण्याची आवश्यकता आहे. 
 गंभीरता से विचार करें राज साहब !

एक लम्बे समय से राज ठाकरे और उनकी मनसे द्वारा हिंदी और हिंदीभाषी उ.प्र., बिहारवासियों का विरोध, उत्पीडन किया जा रहा है, उनके मुंबई में उपजीविका के लिए आने पर उन्हें प्रताडित किया जा रहा है। निश्चित ही यह अनुचित है। पूरे देश के नागरिकों को संविधान द्वारा प्रदत्त शिक्षा, व्यवसाय, उपजीविका के लिए पूरे देश में कहीं भी आ-जा सकने, बसने के अधिकारों का हनन है। मुंबईवासियों के इस दृष्टिकोण से हम सहमत हैं कि यदि ये इसी प्रकार आते रहे तो, हम और हमारे बच्चे कहां जाएंगे। मुंबई में स्थान सीमित है; तीनों ओर समुद्र है; इतने लोग इसमें कैसे समाएंगे। यहां की नागरिक व्यवस्था चरमरा रही है।

उ.प्र., बिहार इन प्रदेशों ने उन्नति नहीं की इसलिए उन लोगों को इतनी दूर अपना घर-बार छोडकर पराए स्थान पर कष्ट उठाने के लिए आना पड रहा है। जहां दो वक्त की रोजी-रोटी की व्यवस्था हो वहीं जा कर लोग बसते हैं। उन्हें लगता है कि यह व्यवस्था मुंबई में हो सकती है इसलिए वे वहां आते हैं और पाते भी हैं। हमारा कहना तो यह है कि इस संबंध में सबसे बडी गलती मुंबईवासियों और उनके राज जैसे नेताओं की ही है। कैसे? आज से एक दशक पूर्व युती यानी भाजपा-शिवसेना की सरकार थी और उस समय राज ठाकरे उस युती की शिवसेना के एक प्रमुख घटक थे। उस समय कोंकण (मुंबई भी उसीका हिस्सा है) जो शिवसेना का गढ़ था, वहां गरीबी, बेरोजगारी भी बहुत है, के लोगों को यदि एक मुहिम जैसा चलाकर, जैसाकि वीर सावरकर ने, जिन्हें हिंदुत्ववादी होने के कारण युती के बडे नेता बडे सम्मान की दृष्टि से देखते हैं, द्वितीय विश्व युद्ध के समय सैनिकीकरण का अभियान चलाया था और अपना लक्ष्य प्राप्त करने में सफलता भी पाई थी, अपने लोगों को रोजगारमूलक शिक्षा देकर उन्हें मुंबई में लाकर काम-धंदे से लगाकर व्यवस्थित ढ़ंग से बसाया होता तो, उनका भी भला होता और जिन्हें वे समस्या मान रहे हैं, जिनके कारण उनकी भाषायी, प्रादेशिक अस्मिता उन्हें खतरे में नजर आ रही है, खडी न होती। परंतु, यह तो उन्होंने किया नहीं किया। और आज जब वे उ.प्र., बिहार के लोग उस (सेवाक्षेत्र) जगह को भरने के लिए आ रहे हैं क्योंकि, निर्वात कहीं भी रह नहीं सकता। तो, आपको अडचन हो रही है। और आप देशतोडक-घातक  कार्यवाही केवल अपना वोट बैंक बनाए रखने-बढ़ाने के लिए कर रहे हैं। शायद आप उपर्युक्त कार्य संगत के असर के कारण न कर पाए हों। आपकी युती भाजपा के साथ थी, जो विपक्ष में रहती है तो धारा 370, समान नागरिक संहिता, राम मंदिर जैसे मुद्दे उठाती है अपने घोषणा-पत्र में रखती है। और जब सत्ता में आती है तो सब भूल जाती है तथा आड लेती है एनडीए के घोषणा-पत्र की कि क्या करें गठबंधन सरकार है जब पूरी तरह से हमारी सरकार आएगी तब करेंगे। मानाकि आप (भाजपा) असहाय थे। परंतु, आप बांग्लादेशी घुसपैठियों को तो रोक सकते थे। परंतु, नहीं! आप गोहत्या बंदी तो कर सकते थे। परंतु, वह भी आपने नहीं किया. निष्क्रिय रहे। और आज गो-यात्राएं निकाली जा रही हैं। इसका अर्थ यह है कि समझौता केवल और केवल सत्ता के लिए ही था।

अब संघ भी मैदान में रक्षक की भूमिका में कूद पडा है और अपने स्वयंसेवकों को महाराष्ट्र में उत्तर भारतीयों की रक्षा का निर्देश दिया है। तथा भाजपा के अध्यक्ष नीतिन गडकरी ने भी हम संघ से सहमत हैं ऐसा कहा है। संघ परिवार की यह भूमिका एकात्मता की दृष्टि से निश्चिय ही प्रशंसनीय है और इस प्रकार से उन्होंने अपना हिंदू वोट बैंक सुरक्षित कर लिया है। परंतु, शिवसेना की 'आमची मुंबई" की भूमिका, मराठी प्रेम और स्वयं को मराठी भाषीयों के रक्षक के रुप में प्रस्तुत करना भी कोई नया नहीं है। इसके पूर्व वे दक्षिण भारतीयों के खिलाफ अभियान चला चूके हैं। लेकिन तब संघ चुप्पी साधे रहा। इसी प्रकार से 'गुरुजी जन्म शताब्दी वर्ष" के दौरान पूरे वर्ष भर संघ परिवार एक ही बात बार-बार दोहराता रहा कि सिक्खधर्म नहीं है, जैनधर्म नहीं है, बौद्धधर्म नहीं है। ये सब सम्प्रदाय हैं। धर्म केवल हिंदूधर्म है। अब यह अधिकार संघ को किसने दिया कि वह यह तय करे कि सिक्खधर्म धर्म नहीं सम्प्रदाय है? संघ द्वारा इस प्रकार के वक्तव्य बार-बार दिए जाने पर सिक्खों द्वारा यहां तक कहा गया कि संघ प्रमुख सुदर्शन पंजाब की भूमि पर इस प्रकार के वक्तव्य देने की जुर्रत न करें वरना ठीक नहीं होगा। तब भी यह आलाप चलता ही रहा। परंतु, जैसे ही पंजाब के विधानसभा चुनावों को निकट आते देखा तो भाजपा-अकाली गठबंधन की आवश्यकता को देख तत्काल शताब्दी समारोह के समारोप के समय सुदर्शनजी ने मंच से सूर बदलते हुए सिक्खधर्म को सम्प्रदाय के स्थान पर धर्म करार दिया। क्या इस प्रकार की वोट बैंकवाली स्वार्थी एकात्मता उचित है। उचित तो यह होगा कि संघ केवल और केवल राष्ट्रहित वाली एकात्मता पर ही अडिग रहे। उसे स्वार्थ और वोट बैंक की राजनीति से दूषित न करे।

हमने राज ठाकरे के साथ-साथ मुंबईवासियों पर भी जो ऊंगली उठाई है वह इसलिए कि जब ये उ.प्र. बिहारवाले शुरुवात में 'आमची मुंबई" में काम-धंदे की तलाश में आए तब कहां वे आपकी मराठी का विरोध कर रहे थे, मजाक उडा रहे थे। अगर उसी समय आपने उन्हें मराठी सीखाई होती, उनसे मराठी में ही बोले होते तो वे भी सोचते कि यहां रहना है तो, जिस प्रकार से हमने वडा-पाव को अपनाया है वैसे ही मराठी को भी अपनाना होगा; मराठी सीखना पडेगी; वे सीखते और आपमें समरसता पैदा हो जाती। आपके मुंबई में जो समस्या है वह पूणे-नागपूर में तो नजर नहीं आती। लेकिन आपने तो 'बंबईया भाषा" को ही जन्म दे दिया और आज मराठी का रोना रो रहे हैं। और टेक्सी चलाने के लिए मराठी का बंधन डालने का प्रयत्न कर रहे हैं। सीधी सी बात है यदि कोई पंजाबी भाषी को बंगाल में टेक्सी चलाना हो तो उसे बंगाली में ही बोलना पडेगा, पंजाबी से काम नहीं चलेगा। क्योंकि, बंगाल के लोग आग्रहपूर्वक बंगाली में ही बोलेंगे। परंतु, आज इतनी छोटी सी बात के लिए आप कानून बनाने की इच्छा रखते हैं और आलोचना का शिकार हो रहे हैं। 

अब तो हद हो गई कि आपको एक उच्चस्तरीय समिति सलाह दे रही है कि 'राज्य के मंत्रियों, अधिकारियों को राज्य के बाहर से आनेवाले गैर-मराठियों व विदेशी मेहमानों से भी मराठी में ही बात करना चाहिए।" तर्क यह दिया जा रहा है कि, 'मराठी का उपयोग करने से इस भाषा को विस्तार मिलेगा, साथ ही इसी बहाने दुभाषियों के रुप में कई लोगों को रोजगार भी प्राप्त होगा। यह तर्क निश्चय ही अच्छा है। परंतु, राष्ट्र-राज्य का हित सर्वोपरी है। यदि आप विदेशी मेहमानों से राष्ट्र-राज्य के हित के लिए अंग्रेजी में बात कर सकते हैं, विदेशों में जाकर अंग्रेजी में भाषण दे सकते हैं, उसके लिए आप बाकायदा अंग्रेजी सीखते भी हैं। तो, हिंदी क्यों नहीं सीख, बोल सकते? क्योंकि, हिंदी को संपूर्ण राष्ट्र के लिए समन्वय की भाषा के रुप में मानना ही पडेगा। इस मामले हम श्रीमती सोनिया गांधी जो एक विदेशी मूल की हैं का आदर्श सामने रख सकते हैं। जिन्होंने इस देश की बहू बनने के लिए इस देश की संस्कृति को स्वीकारा, हिंदी सीखी। उसी प्रकार से जिन्हें हिंदी आती है वे तो निश्चय ही हिंदी बोल सकते हैं उनके लिए भी यह अट्टहास क्यों कि हम तो दुभाषिये के माध्यम से ही बात करेंगे, मराठी में ही बोलेंगे! हां, जो ग्रामीण परिवेश से होने के कारण हिंदी अच्छी तरह से समझ-बोल नहीं पाते वे यदि दुभाषिये की सहायता लें तो कुछ समझ में भी आता है। हमारी दृष्टि में तो उपर्यक्त प्रकार का थोथा मराठी प्रेम सिवाय राजनीति के और कुछ नहीं है। 

इसी प्रकार से राज ठाकरे की मनसे ने '40 दिन में मराठी सीखें या मुंबई छोडे" का एक नया फरमान जारी कर दिया है। क्या उ.प्र., बिहारवाले विदेशी हैं जो उन्हें वहां से निकाल बाहर करने की बात की जा रही है, हम इसका विरोध करते हैं। हिम्मत हो तो बांग्लादेशी घुसपैठियों को जो थोक में वहां रह रहे हैं, उन्हें निकाल बाहर कर दिखाएं। वस्तुतः होना यह चाहिए आप वहां के मराठी भाषीयों से कहें कि वे केवल मराठी में ही बात करें। यदि उ.प्र. का भैया अपने लंगडा या दशहरी आम की कीमत सौ रुपये बतलाता है तो आप मराठी में कहिए ना कि 'पन्नासच देईन"। सौदा पटाने के लिए वह पचहत्तर कहेगा तो आप टूटी-फूटी हिंदी में कहें 'मी तो साठच दूंगा।" 'साठ" तो हिंदी-मराठी दोनो ही भाषाओं में कहा जाता है। यदि उ.प्र. के भैया को वहां रहकर काम-धंदा करना है , दो पैसे कमाना है तो, वह अपने आप मराठी सीखेगा, बोलेगा। उसके लिए मारपीट करने, मुंबई छोडो का फरमान जारी करने की जरुरत क्या है? यह नितांत अनुचित है।

राज ठाकरे का मराठी प्रेम और हिंदी विरोध जब विधानसभा के चुनावों में थोडीसी सफलता के बाद विधानसभा की शपथ विधि समारोह तक जा पहुंचा तो उन्हें अपने मराठी प्रेम के प्रदर्शन का माध्यम एक 'सदस्य विशेष" का हिंदी में शपथ लेना ही नजर आया, अंग्रेजी में शपथ लेने का विरोध करने की हिम्मत वे न जुटा पाए। लेकिन वे भूल गए कि हिंदी राष्ट्रभाषा होना चाहिए की सबसे पहले आवाज उठानेवाले लोकमान्य तिलक थे। उन्हीं के शिष्य वीर सावरकर का तो महान मंत्र ही था 'हिंदी-हिंदू-हिंदुस्थान" तथा उन्होंने न केवल हिंदी राष्ट्रभाषा होना चाहिए का अभियान चलाया था बल्कि भाषा शुद्धि का अभियान भी चलाया था। सर्वमान्य और सर्वज्ञात शब्द 'महापौर" का सृजन के अलावा आपरेशन को 'शल्यक्रिया", फिल्म को 'चित्रपट" जैसे नए-नए शब्द हिंदी को देनेवाले-रचनेवाले भी वीर सावरकर ही थे। हिंदी में सबसे पहली कहानी लिखनेवाले मराठी भाषी श्री माधवराव सप्रे थे। जिनके नाम से भोपाल में एक संग्रहालय है जिसकी स्वर्णजयंती अभी हाल ही में कुछ वर्षों पूर्व मनाई गई। वैसेही उस काल के हिंदी के मान्यवर पत्रकार श्री ग. वा. पराडकर थे, यह भी उन्होंने ध्यान में लेना चाहिए। 

अगर राज ठाकरे का मराठी प्रेम सच्चा है तो वे हिंदी का बेजा विरोध छोडकर सबसे पहले मराठी-हिंदी का शब्दकोश उठाकर देखें कि उनकी प्रिय मराठी में कितने विदेशी भाषा के शब्द घुसकर बैठे हैं। उनकी घुसपैठ इतनी व्यापक है कि उनका उच्चारण धार्मिक कर्मकांडों में भी किया जा रहा है। उदा. छबीना-(फा. शबीनः)- रात्री में निकलनेवाली मूर्ति की या देवता की यात्रा। इसी प्रकार से महाराष्ट्रीय लोगों में अपने से बडे, आदरणीय लोगों के लिए सबसे अधिक प्रयोग में लाए जानेवाले शब्द हैं आबासाहेब-बाबासाहेब। आबा और बाबा ये शब्द पिता या नाना-दादा के लिए अरबी में उपयोग में लाए जाते हैं। इसी प्रकार से बायको (धर्मपत्नी) यह तुर्की शब्द है जो सभी लोग धडल्ले से अपनी श्रीमतीयों के लिए उपयोग में लाते हैं।

जिन छत्रपति शिवाजी के उत्तराधिकारी बनते हैं, जो आपके आदर्श हैं। उन्होंने यह जानकर ही कि, ''संस्कृत और मराठी का संबंध मॉं-बेटी का है के कारण श्री रघुनाथ पंडित से लिखवाया हुआ राज्यव्यवहारकोश स्वराज्य के दैनंदिन व्यवहार से तुरत एकरुप हो गया। फारसी और अरबी के शब्द जाकर सहज सामान्य जनता को समझ में आनेवाले संस्कृत प्रचुर शब्द जीवन में घुलमिल गए। पेशवा, सुरनीस, सरनौबत, मुजुमदार ऐसे अनगिनत विदेशी शब्द जाकर उनके स्थान पर पंतप्रधान (प्रधानमंत्री), सचिव, अमात्य, सेनापति जैसे अपने शब्द रुढ़ हो गए। भाषा शुद्धि का मूल और मर्म महाराज अचूक समझे थे। एक बार संज्ञाएं बदली कि संवेदनाएं भी बदल जाती हैं। स्वत्व का आविष्कार अपनेआप हो जाता है। उसका परिणाम मन राष्ट्रीय और जागृत होने में होता है। महाराज ने महाराष्ट्र की संवेदनाएं जगाई। मातृभाषा राष्ट्र का प्राण हैं। भाषा मतलब संजीवनी।""

 परंतु, राज ठाकरे का अतिरेक तो अब चरम तक पहुंच चूका है। उनका कहना है कि 'केवल मराठी बोलने, लिखने और पढ़ने से काम नहीं चलेगा। नौकरियां उन्हींको मिलेंगी जिनका जन्म महाराष्ट्र में हुआ हो। यह तो एक प्रकार से अलग राष्ट्रीयता की शुरुआत ही कही जाएगी। अब उनका आक्षेप उन्हींकी मनसे के 40 दिन में मराठी सीखो के फरमान पर भी है। यह इस देश की मिट्टी से द्रोह  है। महाराष्ट्र में जन्मे वीर सावरकर तो आजीवन इस देश-राष्ट्र को ही अपना देवता मानते रहे और राष्ट्र के लिए ही जीए। राज ठाकरे यह न भूलें कि पहले राष्ट्र फिर महाराष्ट्र है।

मराठी के समान ही हिंदी का जन्म भी संस्कृत में से ही हुआ है। यह हिंदी शुद्ध अवस्था में संस्कृत प्रचुर बनी रहे इसके लिए उत्तरभारत के पंडितों ने भी अथक प्रयत्न किए थे। इसीलिए तो हिंदी हिंदी रही हिंदुस्तानी ना बन सकी। राजर्षि पुरुषोत्तमदास टण्डन ने कहा है - ''मुझे संस्कृतनिष्ठ हिंदी के आंदोलन की प्रेरणा वीर सावरकर से ही प्राप्त हुई थी।"" आप भी ऐसा ही कुछ महान कार्य अपनी माय-बोली मराठी के लिए करें। और आप यह कर भी सकते हैं। इसीलिए हम आपसे कह रहे है कि 'गंभीरता से विचार करें राज साहब!"  क्योंकि, हमारे विचार से तो यही आपकी ओर से आपके आराध्य वीर शिवाजी, लोकमान्य तिलक और वीर सावरकर को सच्ची आदरांजली होगी। हॉं, इतना जरुर सच है कि सापेक्षतया उन्नत राज्यों पर बाहर के लोगों का जो भार बढ़ रहा है उस विषय में केंद्रशासन को विचार करने की आवश्यकता है। 

Friday, January 10, 2014

आखिर हिंदू गर्व किस बात पर करें ? 2

आखिर हिंदू गर्व किस बात पर करें ? 2

9. विवेकानंद के पश्चात राष्ट्रवादी सुधारक के रुप में वीर सावरकर के सामाजिक कार्यों की दो विशेषताएं थी अस्पृश्योद्धार और विज्ञाननिष्ठ रुढ़िभंजकता। अस्पृश्यता यानी कई वर्षों से दृढ़ हो चूकी विषवल्ली। अस्पृश्यता का निमूर्लन करने के लिए रत्नागिरी की स्थानबद्धता के काल में सावरकर ने पराकाष्ठा के प्रयत्न किए। दिनभर महारों और चमारों की बस्तियों में घूमे। उनमें साक्षरता निर्मित की। स्वच्छता की परिपाटी दी। उनसे गीतापठन, गायत्रीपठन, कीर्तन, सहभोजन के कार्यक्रम गणेशोत्सव में करवाए। पतितपावन मंदिर की स्थापना की और सभी को मंदिर प्रवेश की अनुमतिवाले भारत के पहले मंदिर के रुप में प्रसिद्ध हुआ। उन्होंने समाज को अंतर्मुख किया और उनमें अभिवृद्धि के लिए ज्ञानामृत का प्रसाद दिया। स्पर्शबंदी, रोटीबंदी, शुद्धिबंदी, आदि नासमझ रुढ़ियों पर प्रखर आक्रमण कर इन बेडियों से मुक्त करने के लिए 'समाजचित्र" पुस्तक की रचना की। निरर्थक रुढ़ियों को तोडने के लिए केवल प्रबोधन ही नहीं किया अपितु स्वयं के आचरण से इन कार्यों में आदर्श निर्मित किया। इस कार्य में वे लीन हो गए थे और कहा था ''मेरी मृत्यु के बाद मेरे शव को ब्राह्मण, महार, मराठा, डोंब आदि सभी जातियों के लोग कंधा दें, ऐसा होने पर ही मेरी आत्मा को शांति मिलेगी।""


स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात पंचवर्षीय योजनाएं आयोजित की गई। जब इंदिरागांधी प्रधानमंत्री थी उन्होंने 20 सूत्रीय कार्यक्रम द्वारा आर्थिक कार्यक्रम दिया था। परंतु, बहुत थोडे ही लोगों को मालूम होगा कि, इन दोनो ही कार्यक्रमों के मूल आधार के रुप में जंचे ऐसा 10 सूत्रीय कार्यक्रम 'वर्गहितों का राष्ट्रीय समन्वय" इस नाम से लगभग 75 वर्ष पूर्व ही सावरकर ने देश को दिया था।


तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरु की इच्छा थी कि धर्म के नाम पर स्त्रियों और दलितों पर होने वाला अन्याय थमे, इसलिए उन्होंने हिंदू कोड बिल पारित करवाया, बहुत जूझने के बाद ही वह पारित हो सका था। समान नागरिकता कानून को मूलभूत अधिकारों में गिना जाए और इस बाबत न्यायालय में न्याय मांगा जा सके की व्यवस्था की जाए की मांग मीनूमसानी ने की थी। इस मांग को डॉ. आंबेडकर, श्रीमति अमृतकौर और हंसा मेहता आदि का जोरदार समर्थन था। सावरकर भी इसी मांग के समर्थक थे। इस कानून के बिना समान नागरिकत्व भ्रम सिद्ध होगा, ऐसा इन लोगों का प्रतिपादन था। बिल्कूल अल्पमत से यह मांग उस समय नामंजूर हो गई, परंतु सूचकों की नैतिक विजय हुई। क्योंकि, राज्य के निर्देशक तत्त्वों में 44वी धारा सर्वसम्मती से स्वीकृत की गई । यह धारा कहती है 'भारतीय नागरिकों के लिए एक समान सिविल संहिता प्राप्त कराने का प्रयास करेगा।" नेहरुजी को लगता था कि यह समान नागरिकता की दिशा में उठाया हुआ पहला कदम है। परंतु, इस कदम के बाद आगे आज तक कोई कदम नहीं उठाया गया।


उस एक हिंदूकोड बिल से समाज में क्रांतिकारी परिवर्तन आया। वास्तव में हमें इन और इन जैसे हो चूके अनेकानेक समाजसुधारकों पर ही गर्व करना चाहिए जिनके कारण हमारा समाज आधुनिकता के दौर में पहुंचा, हम इतने प्रगत हो सके। परंतु, यह प्रयास तब अधूरे से जान पडते हैं जब हम देखते हैं कि आज भी समाज में भेदभाव, ऊंच-नीच की भावना जीवित है, कट्टरता बढ़ रही है, सहिष्णुता कम हो रही है। स्वामी दयानंद सरस्वती ने तो 'पाखंड खंडिनी पताका" फहराई थी पर हमारा पाखंड कम होने का नाम नहीं ले रहा। उदाहरणार्थ ः पंढ़रपूर की यात्रा जो पिछले सात सौ वर्षों से चल रही है के दौरान वारकरी संप्रदाय के अनुयायी एक दूसरे के प्रति सम्मान दर्शाने के लिए एक दूसरे के पांव छूते हैं। उधर यात्रा से लौटते ही ऊंच-नीच, जातीय असहिष्णुता पर उतारु हो जाते हैं। आज भी दलित को घोडी चढ़ने से रोकने की घटनाएं होती हैं। 'गर्व से कहो हम हिंदू हैं" कहना हमारा तभी सार्थक सिद्ध होगा जब हम यह पाखंड छोड उपर्युक्त समाजसुधारकों के बताए मार्ग पर बढ़ेंगे, उनके समाज सुधार के कार्यों को अनवरत आगे बढ़ाते रहेंगे।


यह लेख अधूरा ही रह जाएगा मुस्लिम समाज, जो भारत का एक अविभाज्य भाग है, की चर्चा के बगैर । यदि हम उस 19वी शताब्दी पर दृष्टि डालते हैं तो हमें ज्ञात होगा कि उस शताब्दी के सबसे बडे मुस्लिम नेता सर सय्यद अहमद थे। वे मुसलमानों में सुधार चाहते थे। उन्हें आधुनिक शिक्षा देना उनका ध्येय था। इसके लिए उन्होंने अलीगढ़ कालेज की स्थापना की थी। इस कारण उनकी प्रशंसा शिक्षा महर्षी के रुप में की जाती है। परंतु उनके इस कार्य का परिणाम देशविभाजन के रुप में सामने आया।
मुस्लिम समाज के साथ शोकांतिका यह है कि उनके समाज में समाज सुधार की वह परंपरा ही नहीं है जो हिंदुओं में है जिसके कारण कि वे आधुनिकता के दौर में पहुंच सके। ऐसी बात नहीं है कि उनके यहां आधुनिक बनो, शिक्षाग्रहण करो, स्त्री स्वतंत्रता और उनके अधिकारों की बात करनेवाले, कुरीतियों का त्याग करो का उपदेश देनेवाले है ही नहीं, ऐसे समाज सुधारक हुए भी हैं और हैं भी लेकिन अल्प। जैसेकि, हमीद दलवाई, असगरअली इंजीनिअर, अब्दुल कादर मुकादम, शाहिर अमरशेख (मेहबूब हसन शेख 1916-1969) आदि। परंतु उनका समाज इतना दकियानूसी है कि वह कुरीतियों का त्याग करना ही नहीं चाहता और इन समाज सुधारकों की उपेक्षा एवं एक प्रकार से बहिष्कार ही करता है। और उनके विचार अरण्यरुदन बनकर रह जाते हैं।


असगरअली इंजीनिअर, आदि जैसे सेक्यूलर, उदारवादी, पुरोगामी, समाजवादी, सुधारवादी, राष्ट्रवादी, मानवतावादी विचारों के लोगों को प्रामाणिकतापूर्वक लगता है कि मुस्लिम परिवर्तनशील बनें, आधुनिक मूल्यों का स्वीकार करें, आधुनिक बनें इसके लिए वे कुरान के नए अर्थ निकालकर उनमें आधुनिक मूल्य हैं दिखाने का प्रयत्न करते रहते हैं। परंतु, उनका समाज ही उनके इन नए विचारों को स्वीकारने को तैयार नहीं। वे अंग्रेजी अखबारों में आजीवन लिखते रहे और पुरोगामी के रुप में हिंदुओं से प्रशंसा प्राप्त करते रहे। उनके समाज ने तो उन पर यहां ही नहीं बल्कि विदेशों में तक प्राणघातक हमले किए। जब वे एक परिषद में काहिरा गए थे तब वहां उनके साथ जबरदस्त मारपीट की गई थी और वे मरते-मरते बचे थे।


हमीद दलवाई जो समाजवादी विचारों के थे। उनके और उनके जैसेही कुछ स्वतंत्र विचारों के मुसलमानों का मत है कि सर्वसामान्य मुस्लिम समाज जिस विचारसरणी का आचरण करता है उससे उनका हित होनेवाला न होकर उनका सच्चा हित इसीमें है कि उन्हें हिंदूसमाज से एकरुप हो जाना चाहिए। दलवाई का कहना था ''हमारे धर्म में हस्तक्षेप मत करो, हमें विशेषाधिकार दो, इन मांगों को मुसलमानों ने छोड देना चाहिए।"" ''इस्लाम की फालतू घोषणाओं के पीछे न लगते मुस्लिम युवाओं को इस्लाम का अर्थ व्यक्तिगत धर्माचरण करने की छूट मानकर व्यवहार करना चाहिए। अधिक लडोगे तो अधिक बिगडेगा और मुस्लिम समाज के साथ सहानुभूति रखनेवाले समाज का विश्वास भी गमा बैठोगे। बहुसंख्यकों का विश्वास संपादन करना यही अल्पसंख्यकों का कर्तव्य है।"" हमीद दलवाई के इन विचारों को सुननेवाला मुस्लिम समाज ना होकर हिंदू समाज हुआ करता था। इसका अर्थ हमीद दलवाई के विचारों से मुस्लिम समाज और उनके नेता कितने दूर थे यह पता चलता है।


गांधीजी की पुनर्जन्म सिद्धांत, कर्म सिद्धांत में आस्था थी और यही जाति व्यवस्था का आधार थी। यह आधार वर्णाश्रम व्यवस्था को खींचता था। हालांकि जीवन के अंतिम दिनों में गांधीजी यह मानने लगे थे कि जाति व्यवस्था से जुडी वर्णाश्रम व्यवस्था, अस्पृश्यता का भाव गलत है और इस विषवृक्ष को हर कीमत पर काट देना चाहिए।


सावरकरजी का कहना था धर्म की पोथी में क्या सत्य है और क्या असत्य, इसका निश्चय हम विवेक की कसौटी पर करें। वर्तमान जातिभेद जन्मजात न होकर पोथी की उपज मात्र है। हमारे धर्मबंधुओं को बिनाकारण पशु से भी अधिक 'अस्पृश्य" मानना यह मनुष्य जाति का ही नहीं अपितु हमारी स्वयं की आत्मा का भी घोर अपमान है। दर्शन मात्र से जो अपवित्र हो जाता है वह ईश्वर ही नहीं। जिस रुढ़ि के कारण तनिक भी सामाजिक लाभ न होते हुए मानवमात्र कष्ट का भागी बनता है वह तो अधर्म है। जिस समाज की जहां होना चाहिए वहां तो आस्था नहीं होती और जहां नहीं होना चाहिए वहां होती है, वह समाज मटियामेट हो जाता है।


डॉ. अंबेडकर जिन्होंने अपने अंतिम समय में बौद्ध धर्म को स्वीकार लिया था, जो हिंदू धर्म का ही संस्कारित संपादित रुप है। बौद्ध चिंतन का मूल बीज भाव है कि बैर बैर का अंत नहीं होता, हो नहीं सकता। अबैर से ही बैर का अंत हो सकता है यही सनातन धर्म है। उनका कहना था हमें भारतीय होने की व्यापक मानववादी भूमि पर सोचने की हर कीमत पर आदत डालनी चाहिए। उनके शब्द हैं 'मुझे अच्छा नहीं लगता जब कुछ लोग कहते हैं कि हम पहले भारतीय हैं और बाद में हिंदू अथवा मुसलमान। मुझे यह स्वीकार नहीं है। धर्म, संस्कृति, भाषा आदि की प्रतिस्पर्धा, निष्ठा के रहते हुए भारतीयता के प्रति निष्ठा नहीं पनप सकती। मैं चाहता हूं कि लोग पहले भी भारतीय हों और अंत तक भारतीय रहें, भारतीय के अलावा कुछ नहीं।"