Friday, October 5, 2012


यह गतिरोध कौन तोडेगा?

पूरी दुनिया में सबसे अधिक धार्मिक समाज के रुप में मुस्लिम समाज जाना जाता है। भारत में भी यही स्थिति है जितना आग्रही अपने धर्म के संबंध में मुस्लिम समाज है उतना अन्य कोई नहीं। पूरे रमजान माह में चलनेवाली गतिविधियां इसकी परिचायक हैं, ऐसा लगता है कि, इस समाज ने मानों जीवन का अर्थ ही स्वर्ग प्राप्ति ले लिया है। इसी कारण से धार्मिक उर्स, इज्तिमा, आदि में यह समाज उमड पडता है। क्योंकि, वहां सामूहिक नमाजें अदा की जाती हैं जिनका स्वर्ग प्राप्ति के लिए अपना एक अलग ही महत्व है। इस मरणोपरांत स्वर्ग प्राप्ति की लालसा के कारण मुस्लिम समाज इहलोक के अपने कर्तव्यों के प्रति तो उदासीन है लेकिन भारतीय संविधान द्वारा प्राप्त अधिक अधिकारों का उपभोग, भलीभांति करता है।

इसका कारण यह है कि, इस्लामिक मान्यता के अनुसार इस इहलोक के बाद दूसरा एक चिरंतन जीवन मनुष्य को मिलनेवाला है। यह इहलौकिक जीवन क्षणिक और तात्कालिक होकर वह आगे के शाश्वत जीवन की पूर्वतैयारी के रुप में प्राप्त हुआ है। कुरान में इस संबंध में कहा गया है ः ''यह दुनिया की जिंदगी (चंदरोज:) फायदे की चीज है। और जो आखिरत का घर है सो वही हमेशा रहने का घर है।"" (40:39, 42:36, 87:17) ''दुनिया की जिंदगी तो खेल-तमाशा है ।"" (47:36, 29:64, 3:185) ''औैर तेरी पहले वाली (इस जिंदगी) से आखिरत अच्छी होगी।"" (93:4) (तथा 43:35) ''तुम्हारा धन और संतान तुम्हारी जांच के लिए है। और बड़ी कामयाबी तो अल्लाह ही के यहां है ।""(64:15, 18:46, 28:60) ''तुम तो संसार के माल-असबाब चाहने वाले हो और अल्लाह (तुम्हारे हाथों) आखिरत (की चीजे ंदेना) चाहता है ।""(8:67, 4:109) ''जो लोग आखिरत के बजाय दुनिया के जीवन पर रीझते हैं...  यही लोग परले सिरे की भूल (गुमराही) में हैं ।""(14:3) ''जो कुछ जमीन पर है हमने उसको (जमीन की) शोभा बनाई है ताकि लोगों को जांचें।""(18:7) ''और (आखिरकार एक दिन) हम इन सब चीजों को जो जमीन पर हैं चटियल मैदान बना देंगे ।""(18:8, 47) ''तो दुनिया की जिंदगी तुमको धोखे में न डाल दे।""(31:33, 35:5)

मनुष्य की मृत्यु के उपरांत जीवन है इस बात पर श्रद्धा रखना इस्लाम का मूलभूत दर्शन है। इस श्रद्धा की अनिवार्यता के संबंध में मुस्लिम विद्धानों का कहना है कि :''इस मृत्यु-उपरांत जीवन के संबंध में थोड़ा सा भी शक जाहिर करना यानी अल्लाह को नकारना और शेष सारी श्रद्धाओं को अर्थहीन ठहराना है... अगर मृत्यु-उपरांत जीवन पर श्रद्धा नहीं है तो अल्लाह पर श्रद्धा भी शून्यवत हो जाती है। अगर उनकी अल्लाह पर श्रद्धा हो तो भी वह (उनका) अल्लाह अन्यायी और तटस्थ (या शून्य) बन जाता है, कि जो मनुष्य को एक बार निर्मित करता है परंतु बाद में उसके भविष्य से संबंध नहीं रखता।"" कुरान का ही वचन है कि :''जो लोग आखिरत (के दिन) का यकीन नहीं रखते उनके लिए हमने सख्त अजाब तैयार कर रखा है ।""(17:10, 18)

मरणोपरांत जीवन असंभव है ऐसा श्रद्धाहीन (इस्लाम पर श्रद्धा न रखनेवाले) लोग मानते हैं। और इन'श्रद्धाहीनों को अंतिम निर्णय के दिन अल्लाह नरकाग्नि का दंड देगा'  ऐसा कुरान में बारम्बार घोषित किया गया है। कुरान की कुल 114 सूरहों में से 101 सूरहों में स्वर्ग और नरक मिलने के संदर्भ का उल्लेख आया हुआ दिखाई देता है। जिन बची हुई सूरहों में इस संदर्भ का उल्लेख नहीं है, वे सूरहें एक तो अत्यंत छोटी हैं, अथवा उनमें श्रद्धाहीनों का संदर्भ ही नहीं आता, अथवा मुसलमान मुसलमानों के साथ कैसा व्यवहार करें इस संबंध में वे सूरहें हैं। कुरान की कुल 6239 आयतों में से लगभग 1590 आयतें परलोक के संदर्भ में हैं। इनमें श्रद्धावानों को स्वर्ग और श्रद्धाहीनों को नरक इस उल्लेख के अलावा अंतिम निर्णय दिन के और परलोक के वर्णन वाली आयतें हैं। एक हदीस के अनुसार ः  पैगंबर ने कहा : 'स्वर्ग के लोग (यानी श्रद्धावान) स्वर्ग में जाएंगे और नरक के लोग (यानी श्रद्धाहीन) नरक में जाएंगे। जिनकी राई के बीज के वजन जितनी भी श्रद्धा होगी उन्हें नरक के बाहर आने की अल्लाह आज्ञा देगा।' (बु : 22, 7439, मु : 265) (इसमें की 'राई' की बजाए 'जौ', 'गेहूँ' और 'कण' शब्द उपयोग में लाकर यही हदीस (बु : 44)  में तीन बार पुनरावृत हुई है।)

पैगंबर की हदीस हैं -1). 'जो  इहलोक पर प्रेम करता है, वह अपनी आखिरत को (परलोक के सुख को) नुकसान पहुंचाता है; और जो अपनी आखिरत पर प्रेम करता है, वह इहलौलिक सुख को नुकसान पहुंचाता है। इसलिए, जो (सुख) चिरंतन होता है उसे क्षणभंगुर (इहलौकिक सुख) की अपेक्षा अधिक पसंद करो।' 2). 'परलोक का जीवन मुस्लिम का ध्येय रहता है। वह इहलोक की बातों की ओर ध्यान नहीं देता। फिर भी संपूर्ण संसार उसके चरणों में आया हुआ रहता है।" स्वयं पैगंबर पर इस परलोक का प्रभाव कितना था इस विषय में मौ. वहीदुद्दीन कहते हैं - ''जब पैगंबर मुहम्मद को परलोक की वस्तुस्थिति के दर्शन हुए, तब उस विचार ने उनके सारे जीवन पर प्रभुत्व निर्मित किया। वे स्वयं स्वर्ग के लिए अत्यंत उत्सुक थे ... और उन्हें नरक का बहुत भय लगता था... उनका संपूर्ण जीवन ही परलोक के विचार से नियंत्रित हो गया था।"" वे और आगे लिखते हैं : ''अगर कोई कुरान और पैगंबर के हदीस (उक्ति और कृति संग्रह) खुले मन से पढ़े तो उसे दिखाई देगा कि, उसमें सबसे ज्यादा ध्यान परलोक के जीवन की ओर है। अन्य बातों का उसमें उल्लेख आया हुआ है, परंतु वह केवल प्रसंगवश है। पैगंबर के कार्य का मूलभूत उद्देश्य लोगों का ध्यान परलोक की ओर केन्द्रित करना था।""
श्रद्धाहीनों के नरक में जाने का नियम इतना अचूक है कि, उसमें से उनके माता-पिता, बाल-बच्चे, रिश्तेदार कोई भी अपवाद नहीं होते। इसीलिए पैगंबर कहते थे कि, उनके बड़े बुजुर्ग, पूर्वज, चाचा आदि जो-जो मूर्तिपूजक अथवा श्रद्धाहीन अवस्था में मृत्यु को प्राप्त हुए वे सारे नरक में गए हैं। उनके अनुयायियों की भी यही प्रामाणिक श्रद्धा थी। 1400 वर्षों बाद भी यही श्रद्धा संसार के श्रद्धावानों में आज भी इतनी ही दृढ़ता से कायम है। उनमें से हर एक को सच्चाईपूर्वक ऐसा लगता रहता है कि, जो श्रद्धावान नहीं वह नरक में जाएगा ही। कोई भी मनुष्य नरक में न जाए, प्रत्येक को स्वर्ग ही मिले, प्रत्येक का परलोक का शाश्वत जीवन सुख का और शांति का हो ऐसी उनकी दिल से इच्छा रहती है। अल्लाह की भी यही इच्छा है। श्रद्धावानों के हृदय में यह प्रेरणा अल्लाह ने ही निर्मित की हुई है। इसलिए मरते समय कोई भी श्रद्धाहीन न रहे इसके लिए वे उन्हें इस्लाम स्वीकारने का निमंत्रण देते रहते हैं, चेतावनी देते रहते हैं,नरकाग्नि के दण्ड का स्मरण दिलाते रहते हैं।

समस्त मानव जाति को नरक से परावृत करके उनके स्वर्ग प्राप्ति की व्यवस्था करवा देना यह ईश्वरीय कर्त्तव्य ही है, अल्लाह ने उन पर सौंपाया हुआ मानव के कल्याण का धर्म कार्य ही है ऐसा उन्हें सचमुच लगता रहता है।
स्वयं पैगंबर ने रोमन और पर्शियन सम्राटों को इस्लाम स्वीकारने के निमंत्रण भिजवाए थे। उनको 40 वर्ष से अधिक समय तक संभालने वाले पितृतुल्य चाचा अबू तालिब, जब मृत्यु शय्या पर थे तब इस्लाम स्वीकारने की विनती पैगंबर ने उन्हें की थी। नरकाग्नि का दंड न हो इसके लिए प्रत्येक श्रद्धाहीन को श्रद्धा रखने का निमंत्रण देना इस्लाम के अनुसार मुसलमानों का मौलिक अधिकार है। भारत के संविधान में व्यक्त धार्मिक स्वतंत्रता में यह हक भी शामिल है। इस अधिकार का उपभोग तो मुस्लिम समाज पूरी तरह से करता है। परंतु, इसके बावजूद संविधान की धारा 25 को न्यायालय में चुनौती देता है। जिसमें कहा गया है ''लोक व्यवस्था, सदाचार और स्वास्थ्य तथा इस भाग के अन्य उपबंधों के अधीन रहते हुए, सभी व्यक्तियों को अंतःकरण की स्वतंत्रता का और धर्म के अबाध रुप से मानने, आचरण करने और प्रचार करने का समान हक होगा।"" जो हिंदूधर्मानुसार है क्योंकि, हिंदू ही मान्यता रखते हैं कि संसार में अनेक धर्म हो सकते हैं, सभी धर्म सत्य ही हैं और सभी को अपने-अपने धर्म के पालन की स्वतंत्रता है।

जब हिंदू उनकी भावनाओं, मान्यताओं का सम्मान करते हैं तो क्या उनका भी यह कर्तव्य नहीं बनता है कि, वे भी हिंदुओं की मान्यताओं का सम्मान करें। परंतु, ऐसा कहीं नजर आता नहीं उलटे उनके (धार्मिक) नेता उन्हें अपने सांसारिक कर्तव्यों का भान कराने की बजाए परदा, समान नागरिक संहिता का विरोध, दुनियावी तालीम की बजाए धार्मिक शिक्षा हासिल करो, तब्लीगी काम में जुट जाओ, स्वर्ग की व्यवस्था में जुटे रहो का पाठ पढ़ाते रहते हैं (उदा. 29 अगस्त 2012 के 'दैनिक सामना" में छपे एक समाचार के अनुसार असम और कर्नाटक के कुछ मुस्लिम सांसद और विधायकों ने असम के बेघर घुसपैठिये 'बांग्लादेशी मुस्लिमों" को पक्के मकान बनाने के लिए आर्थिक सहायता का आवाहन मुंबई के मुस्लिमों से यह कहकर किया है कि इससे उन्हें "स्वर्ग में स्थान" मिलेगा। इसके लिए उन्होंने पिछले हफ्ते दक्षिण मुंबई के मुल्ला-मौलवियों के साथ एक बैठक भी की थी।) जिसके कारण मुस्लिम समाज का जीवन नर्क हुआ जा रहा है और जब तक यह गतिरोध टुटेगा नहीं, मुस्लिम समाज आधुनिकता की ओर पग बढ़ा सकेगा नहीं, प्रगति कर सकेगा नहीं चाहे लाख आरक्षण उन्हें मिल जाए।