Wednesday, August 26, 2015

18 अगस्त पतेती - पारसी नूतनवर्ष
पारसीयों का भारत से संबंध 

ईरान या पर्शिया के निवासी पारसी और उनका साम्राज्य जोराष्ट्रियन और उनके पैगंबर का नाम जरतुष्ट्र। 651 में अरबों ने पर्शियन साम्राज्य को परास्त कर दिया। अरबों द्वारा अपने राज में ईरानियों का जबरदस्ती धर्मांतरण किया गया तब कुछ ईरानी निर्वासित होकर गुजरात में आए। आज के पारसी उन्हीं ईरानी निर्वासितों के वंशज हैं पर भारत में आए हुए ये पहले ईरानी नहीं। ईरान के सासानी घराने के कार्यकाल (ई. स. 226 से 651) में भी भारत और ईरान में व्यापारिक और सांस्कृतिक संबंध थे। इसके अलावा महाभारत, पुराणों, कालीदास के रघुवंश इन ग्रंथों में भी पारसिकों (पार्स. पारसा, सिका-शक) का उल्लेख आता है।  कालीदास ने लिखा है अपरांत (कोंकण, पश्चिमी समुद्रतट) जीतने के बाद रघु पारसिकों को जीतने निकला था। कुषाण साम्राज्य की पराजय के बाद यानी 4थी और 7वीं शताब्दी में इन गोरे पारसिक योद्धाओं ने सासानी घराने के सार्वभौमत्वतले राजस्थान से काश्मीर के दरम्यान एक साम्राज्य स्थापित किया था। गिरनार, कार्ला और नाशिक में मिले शिलालेखों में (पार्थव, पार्थियन) उल्लेख मिलता है। ई. पू. 126 पार्थियन सम्राट मिनिएंदर (ई. पू. 155-130) सौराष्ट्र पर राज्य किया था तो, पल्लव राजा बाद में कांजीपुरम के सम्राट बने थे। उन्होंने दक्षिण के तीन बडे राज घरानों में से एक की स्थापना की थी।

ईरान से निकला दूसरा गुट मागी पुरोहितों का जो सिस्तान (सकद्वीप) से निकले थे। दक्षिण मारवाड के माघ या भोजक ब्राह्मणों में वे घुल मिल गए। इन्हीं माघी या भोजक ब्राह्मणों ने हिंदुओं में सूर्योपासना आरंभ की। मुस्लिम इतिहासकार भी गवाही देते हैं कि, प्राचीन मध्य युग में भारत में ईरानी जोराष्ट्रीयन थे।

पारसियों के आरंभिक (भारत में बसने के) इतिहास के बारे में एकमात्र लिखित साक्ष्य है 'किस्सा-इ-संजान"। ''पारसी जब संजान के राजा जादी राणा के पास संजान में रहने की अनुमति लेने गए तब उसने पांच शर्तें डाली- 'राजा को जोराष्ट्रियन धर्म समझाकर बतलाएं, पारसी मातृभाषा के रुप में गुजराती को स्वीकारें, पारसी स्त्रियां साडी पहनें, पारसी अपने पास के सारे हथियार सरकार के पास जमा करें और अपने विवाह की बारातें रात के अंधेरे में निकालें। यह अंतिम शर्त, बहुधा निर्वासितों ने स्वयं द्वारा की हुई विनती पर डाली गई थी। इस परायी जमात की ओर अन्य जमातों का ध्यान आकृष्ट न हो यह इसके पीछे का उद्देश्य होना चाहिए। इस किस्से के अलावा गुजराती गर्बों, समूह गीतों, नृत्यों, आदि में ईरानी निर्वासित और राजा जाधव राणा की भेंट के बारे में विस्तृत विवरण मिलता है। इस प्रकार पारसी समुदाय दूध में घुली हुई शक्कर की भांति यहां रहने लगा।

सन्‌ 1200 में "नेरीओसांग धवल' नामके एक पारसी पुरोहित ने संपूर्ण 'अवेस्ता" (पारसियों का धर्मग्रंथ) का संस्कृत में रुपांतर किया। तत्कालीन हिंदू विद्वानों के सुविधा के लिए उसने यह उपक्रम किया होना चाहिए। नेरीओसांग द्वारा किया हुआ भाषांतर आज भी उपलब्ध है। पारसियों ने गुजराती भाषा के अध्ययन को भी बढ़ावा दिया। गुजराती भाषा में प्रकाशित पहला वृत्तपत्र था 'द बॉम्बे समाचार" (1822) फर्दुनजी मर्जबान उसके पहले संपादक थे। 

पारसियों ने भारत को तीन प्राचीन कारीगिरी-नक्काशी की देन दी है। वे हैं सुरतीघाट, गारो और तनचोई। गारो और तनचोई मूलतः चीनी हुनर है। तीन पारसी भाई अनेक वर्षों तक चीन में रहे और वहां यह कला उन्होंने सीखी फिर सूरत में आकर यहां बुनाई का व्यवसाय आरंभ किया। स्थानीय लोग उन्हें तनचोई कहने लगे। तन यानी तीन और चोई यानी चीनी। उनका मूलनाम था जोशी।  उनकी ख्याती देशभर में फैली हुई थी। जब यह प्रसिद्धि गांधीजी के कानों पर गई तो वे पैदल ही उनसे मिलने पहुंचे। वहां जोशी के कार्य को देख वे बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने कहा कि 'जब भारत स्वतंत्र होगा तब भारत सरकार 'तनचोई कसीदा केंद्र" देशभर में शुरु करने की जिम्मेदारी आप पर सौंपेगी।" गांधीजी ने अपने वचन का पालन किया।    
भारत के अर्वाचीन इतिहासकाल में पारसियों ने भारत के निर्माण में बहुत सक्रिय भाग लिया है। इस देश की स्वतंत्रता की लडाई में महर्षि दादाभाई नौरोजी (1825 से 1917) के नेतृत्व को भारतीय नेताओं ने माना था। इनके अलावा अन्य दो पारसी जिनका राष्ट्रीय आंदोलन से संबंध था वे थे सिर फिरोजशाह मेहता (1845 से 1915) और सर दिनशा वाच्छा (1844 से 1936)।  राष्ट्रीय आंदोलन में स्वयं का ऐसा खास स्थान निर्मित करनेवाली पहली पारसी महिला थी भिकाजी कामा। लाला हरदयाल, विनायक दामोदर सावरकर, आदि जैसे राष्ट्रवादीयों का उन्हें समर्थन प्राप्त था। 18 अगस्त 1907 को जर्मनों के सामने उनकी मातृभाषा में दिए भाषण में एक ध्वज फहराया था जिसमें थोडा फेरफार कर आज का राष्ट्रध्वज बना। उन्होंने देवनागरी लिपि का भी प्रसार किया। उनका प्रतिपादन था हिंदी ही भारत की सर्वमान्य भाषा रहेगी। 

भारत के औद्योगिक क्षेत्र का नेतृत्व जमशेदजी टाटा ने किया और उन्हीं के कदमों पर चलकर भारतीय उद्योगीयों ने भारत की कारखानेदारी को आज का यह विशाल रुप दिया है। रॉयल सोसायटी की फेलोशिप का सम्मान सबसे पहले एक पारसी अर्देसी कर्सेजटी वाडिया को मिला था। वे सबसे पहले मुंबई में गैस के दीए लाए थे। दिनशॉ पेरिट, कावसी जहांगीर, गोदरेज आदि अन्य प्रसिद्ध नाम हैं। बैंक क्षेत्र के प्रवर्तक भी पारसी ही थे। शापुरजी पालनजी मिस्त्री आधुनिक मुंबई के शिल्पकार हैं तो, एम. एन. दस्तुर की कंपनी अंतरराष्ट्रीय कन्सल्टिंग इंजीनिअर्स के रुप में काम करनेवाली पहली भारतीय कंपनी है। भारत की पहली वास्तुशास्त्रज्ञ एक पारसी महिला है पेरीन जे. मिस्त्री। इतिहास बतलाता है कि टाटा ने हमेशा से ही स्त्रियों को प्रोत्साहन दिया।

पारसियों ने जिस प्रकार से भारत के व्यापार-उद्योग का विकास किया वैसे ही व्यवसाय के क्षेत्र में भी नाम कमाया। पारसियों ने दो प्रमुख शास्त्रज्ञ-वैज्ञानिक भी दिए अणु-ऊर्जा संशोधन के क्षेत्र में होमी जहांगीर भाभा और भूगर्भशास्त्र में दाराशॉ नोशेरवान वाडिया। चिकित्सा शास्त्र में भी पारसियों ने महत्वपूर्ण काम किया है और विज्ञान और चिकित्सा के क्षेत्र में पारसियों ने अंतरराष्ट्रीय ख्याती प्राप्त की। सर जमशेटजी जीजीभॉय ने 3 जनवरी 1843 को जे. जे. हॉस्पिटल की नींव डाली। उस समय मुंबई में सामान्य लोगों के लिए एक भी अस्पताल नहीं था। आंखों का पहला अस्पताल मुंबई भायखला में सर कावसजी जहांगीर ने खोला था। इन्होंने ही सूरत में पहला प्रसूतीगृह खोला था। लेडी साकरबाई ने 1874 में पहला पशु चिकित्सालय खोलने के साथ ही प्राणियों को क्रूरता से बचानेवाली संस्था द सोसायटी फॉर द प्रिव्हेन्शन ऑफ क्रुएल्टी टु द एनिमल्स स्थापित की थी।  

पारसियों के रीति-रिवाज हिंदुओं से मिलते-जुलते हैं - कमर में ऊन के पट्टे की कश्ती (जनेऊ) बांधते हैं। पंच महाभूतों की पूजा करते हैं। सूर्य की उपासना करते हैं। विवाहादि मुहूर्त के समय मंगलाष्टक का उच्चारण करते हैं उस समय वधू को चंदन का उबटन लगाते हैं। गोमूत्र, गोमय को पवित्र मानते हैं और प्रायश्चित के समय उनको उपयोग में लाते हैं। नवजोत (उपनयन संस्कार) (प्रत्येक पारसी के जीवन की सबसे महत्वपूर्ण घटना) संस्कार करते समय दरवाजे के बाहर रंगोली निकालते हैं। स्त्री-पुरुष के  कपाल पर कुंकुम तिलक लगाते हैं। विवाह के समय वर-वधू आमने-सामने बैठते हैं और पुरोहित उनके बीच अंतःपाट पकडकर रखते हैं। पुरोहित अग्नि को चंदन और धूप की आहुती देते हैं। अवेस्ता के कुछ सुंदर उपदेश और आशीर्वाद का प्रारंभ होता है। सारी विधि में संस्कृत कही जाती है। विवाह में अक्षताओं का प्रयोग करते हैं। केले के पत्ते पर भोजन करते हैं।
अपने धर्म के आचरण की स्वतंत्रता और खुशहाली मिले इस हेतु पारसी भारत में आए। जो उन्हें मिली भी इसीलिए उनके पैगंबर जरतुष्ट्र (जरतुष्ट्र एक खिताब है- इसका अर्थ सुवर्ण प्रकाश) की सीख हम जाने यह आवश्यक लगता है। लेकिन विस्तारभयावश वह दे नहीं रहा हूं फिर भी अत्यंत संक्षिप्त सार यह है- संसार में एक ही ईश्वर है और वह है आहुरमाजदा। (मानवी इतिहास में ऐसा कहनेवाला बहुधा वह पहला ही पैगंबर होना चाहिए) आहुरमाजदा को वह जीवन और ज्ञान, तेज और सत्य, सद्‌गुण और न्याय, प्रेम और दया का देवता मानता है। उसकी सीख का मूलभूत तत्त्व है - रुचि-अरुचि की स्वतंत्रता। सुख और दुख मानव के अच्छे या बुरे कृत्यों के फल हैं। ईशभीरुओं को शुभ फल मिलता है तो, दुष्टों को दीर्घकाल पीडा होती है। जरतुष्ट्र की सीख का सार है अपने साथ के लोगों के साथ अच्छा व्यवहार करो। उसका ध्येय वाक्य है - अच्छे विचार, उत्तम शब्द और सत्कृत्य।  

Monday, August 17, 2015

18 अगस्त बाजीराव पेशवा (प्रथम) जयंति
विराट व्यक्तित्व का स्वामी - बाजीराव पेशवा प्रथम

पेशवा बाजीराव के नाम से सुविख्यात व्यक्ति का बरही के दिन रखा गया जन्म नक्षत्र से पडनेवाला नाम 'विश्वनाथ" (विसाजी) था, यह नाम इनके दादा का भी था। इन्हें 'विश्वासराव" भी कहा जाता रहा। बताया जाता है कि जिस समय बालाजी विश्वनाथ उनके द्वारा पूर्व में लिखी गई वह बखर (मराठी में लिखा गद्यमय इतिहास) पढ़ रहे थे, जिसमें 'बाजी" नाम के वीर पुरुषों की पूरी सूची ही थी, तो संयोग मात्र से उसी समय पर उन्हें जब पुत्र प्राप्ति का सुसमाचार मिला तो सहसा उन्होंने उसका नामकरण 'बाजीराव" कर दिया। वैसे 'बाजी" शब्द फारसी भाषा का है। इतिहास को अज्ञात किसी प्रसंग या प्रकरण से मराठी में 'बाजीराव" यह सम्मानजनक नामकरण बडे संपन्न, अकडैल, ठाट-बाट से रहनेवाले किसी व्यक्ति के लिए प्रयुक्त हुआ और फिर आगे यह इसी अर्थ में सगर्व प्रयोग में लाया जाने लगा। माता राधाबाई लाड-प्यार से अपने पुत्र बाजीराव को 'राऊ" (राव अर्थात्‌ बाजीराव नाम का संक्षिप्तिकरण)  नाम से पुकारती तो स्वयं बाजीराव की संतान और कनिष्ठ पीढ़ी के लोग उन्हें सम्मानजनक 'बाबासाहेब" नाम से संबोधित करते थे।

बाजीराव जन्मतः ही एक वर्धिष्णु प्रशासक के पुत्र रहे। जन्मना वे ब्राह्मण थे तथापि मूलरुप से वे क्षात्र-प्रवृत्ति रहे हों, अतः एक संपन्न प्रशासक के घर में प्राप्त शिक्षा-दीक्षा से उनके क्षात्र-भाव में विलक्षण निखार आया। पेशवा बाजीराव की अपने सनातन हिंदू-धर्म में नितांत श्रद्धा थी। परंतु, धर्म के प्रति वे सश्रद्ध थे, अंधश्रद्ध नहीं। उन्हें अपने ब्राह्मण होने में किसी संकोच के होने का कोई प्रश्न ही नहीं था। परंतु, उन्होंने अपनी इच्छा से क्षात्रकर्म का वरण किया था। अतः वे इसे ही अपना धर्म मानते थे। वे सतत्‌ राजनय एवं युद्धकर्म में व्यस्त रहते, इतने कि अपने पारिवारिक शुभ कर्मों-विवाह-यज्ञोपवीतादि में भी उपस्थित रह नहीं पाते। यहां तक कि शोक एवं सूतकादि के पालन का धार्मिक दायित्व उन्होंने अपने काका के परिवार राजमाचीकर-भट को सौंप रखा था।

बाजीराव के मन में अपनी माता के प्रति नितांत श्रद्धाभाव था। परिवार तथा संबंधियों पर उनकी एक आदरयुक्त धाक सी थी। इसीलिए सन्‌ 1729 तक तो सब सुखपूर्वक चलता रहा। परंतु, जब पेशवा बाजीराव बुंदेलखंड में अपना रणकौशल दिखाकर वापस लौटे तो साथ में महाराज छत्रसाल की पुत्री मस्तानी से विवाहबद्ध हो उसे द्वितीय पत्नी के रुप में अपने साथ ले आए थे। वैसे उस काल में, एक पत्नीव्रत के लिए भगवान श्रीराम की प्रशंसा तो होती ही थी, परंतु आचरण का आदर्श माना नहीं जाता था। संपन्न,  विद्वान, वीर और सामान्यतः सभी प्रकार के लोगों में एक से अधिक स्त्री को अपने घर-परिवार में विवाहित पत्नी, उपपत्नी या अविवाहित रुप में रखने का मानो रिवाज था। माता राधाबाई की कोई विवाहित सौत नहीं थी पर अविवाहित अवश्य थी। बाजीराव की पत्नी काशीबाई की सगी मॉं के साथ एक सौतेली मॉं भी थी। इस प्रकार पेशवा बाजीराव की दो पत्नियां होने की कोई समस्या किसी को नहीं थी। 

समस्या यदि थी तो दूसरी पत्नी मस्तानी के पिता महाराज छत्रसाल तो हिंदू थे, परंतु उनकी मॉं यावनी यानी मुसलमान थी। ऐसे में मजहबे इस्लाम के अनुसार उसकी मॉं इस्लामधर्मी मानी ही नहीं जा सकती थी। परंतु, हिंदू समाज की प्रचलित मान्यता के अनुसार वह इस्लामधर्मी थी और उसके गर्भ में पली पुत्री मस्तानी भी मुस्लिम हुई, जबकि उसके पिता महाराजा छत्रसाल हिंदू थे। स्पष्ट है कि सामाजिक मान्यता का कोई व्यवस्थित निश्चित आधार नहीं होता।

पेशवा की माताजी राधाबाई की दृष्टि में मस्तानी का यावनी यानी मुस्लिम होना ही आपत्ति का एकमेव और प्रबल कारण था। पुणे के सनातनी पंडित-पुरोहित ही नहीं तो तमाम उच्चवर्णीय भी इसी कारण से पेशवा बाजीराव के संदर्भ में सतत्‌ विवाद की स्थिति उत्पन्न करते रहे। निश्चय ही आश्चर्य कहना होगा कि बाजीराव की पत्नी काशीबाई इस विषय में अत्यंत उदारमना थी और मस्तानी को वह अपनी छोटी बहन मानती थी। परंतु उसके अतिरिक्त पेशवा परिवार एकजुट हो मस्तानी के विरुद्ध था। मॉं राधाबाई, अनुज चिमाजी अप्पा, पुत्र नाना मस्तानी को समस्या मान येनकेन प्रकारेण उससे मुक्ति के विचार और आचार में संलग्न रहते। दूसरी ओर पेशवा बाजीराव पूर्ण प्रामाणिकता एवं प्रेमभाव से मस्तानी को अपनी अर्धांगिनी मानते थे और बिछुडाव की कल्पना तक उनके लिए असहनीय थी। इस एक मुद्दे के कारण पेशवा का परिवार मानो कलह की आग में धधक रहा था। अन्य किसी भी कारण से विचलित नहीं होनेवाले पेशवा बाजीराव मस्तानी के साथ हो रहे अन्याय, उसका हो रहा अपमान, उसे बाजीराव के जीवन से हटाने के लिए रचे जा रहे षड्‌यंत्र, यहां तक कि अंतिम उपाय के स्वरुप ही क्यों ना हो मस्तानी के जीवन को ही संकट में डालने की चालों की भनक से बाजीराव विचलित होने लगे थे और शनैः-शनै उनकी मानस की विचलित अवस्था बढ़ती ही चली जा रही थी।

सामाजिक मान्यताओं का यह कितना विरोधाभास है कि एक ओर जोधाबाई और अन्य अनेक राजपूत राजकुल की हिंदू कन्याएं इस्लामी मुगल बादशाह अकबर के हरम में पत्नियां बनकर रहती हैं और मुगलशाही खानदान को बढ़ाती हैं। दूसरी ओर एक मस्तानी को ब्याह कर लाने से पुणे के सनातनी समाज में मानो भूचाल आ जाता है और पेशवा परिवार में कलह मच जाती है। ऐसी विपरीत सामाजिक मान्यताओं से उत्पन्न होनेवाली भयंकर स्थितियों को काल की महिमा के अतिरिक्त क्या कहा जा सकता है। भावना के आवेग में आज हम मॉं राधाबाई, अनुज चिमाजी अप्पा, पुत्र नाना को दोषी बता सकते हैं पर, जब हम तत्कालीन समाज में उन्हें खडा करें तो वे ठीक उस समाज जैसे प्रतीत होते हैं। अपवाद थे तो पेशवा बाजीराव और उनकी पत्नी काशीबाई जिनका आचरण व्यवहार तत्कालीन समाज के अनुसार नहीं तो उससे सैंकडों वर्ष आगे का था। एक ओर उनकी यह विलक्षण असाधारणता थी तो दूसरी ओर दकियानूसी परंपरावाला समाज। ऐसे में विवाद, कलह नहीं तो और क्या होता! इसी को विद्वत भाषा में 'माया" कहा जाता है! पेशवा बाजीराव के जीवन के संदर्भ में इस माया के प्रभाव को स्वीकारते हुए भी एक विलक्षण, अद्‌भुत तथ्य को अस्वीकार किया ही नहीं जा सकता कि इस गृहकलह रुपी अग्नि की आँच किसी भी सदस्य के माध्यम से उनके राजनैतिक दायित्व को नहीं लग पाई और वह सर्वथा अबाधित रहा। मॉं राधाबाई जैसी अनुभवी एवं निश्चयी महिला से राजकाज में हस्तक्षेप नहीं किया, नवयुवक पुत्र नाना ने भी कोई दुःसाहस नहीं किया। 

Sunday, August 16, 2015

सावन विशेष
शिव महिमा एवं वृहत्तर भारत की एकता के प्रतीक हैं द्वादश ज्योतिर्लिंग
पूरे विश्व में लिंग पूजा अत्यंत प्राचीन है। इस संबंध में वैदिक साहित्य में अनेकों प्रमाण मिलते हैं। चीन और जापान में भी लिंग पूजन के साक्ष्य मिलते हैं। अजरबैजान में भी एक पुराना शिव मंदिर है। इस मंदिर का निर्माण कब हुआ यह ठीक ठाक ढ़ंग से कहना संभव नहीं है। इजिप्त, यूनान, रोम आदि देशों में भी शिवलिंग पूजन होता रहा है। पश्चिम के कई देशों की कई जातियों में किसी ना किसी रुप में लिंग पूजा होती रही है। अमेरिका के प्राचीन निवासी भी लिंग पूजा किया करते थे। कंबोडिया और थाईलैंड की सीमा पर एक शिव मंदिर स्थित है। 

वृहत्तर भारत में द्वादश ज्योतिर्लिंग का अपना एक विशेष स्थान है। द्वादश ज्योतिर्लिंग का विवरण शिव पुराण में दिया हुआ है। इस विवरण के अनुसार द्वादश ज्योतिर्लिंग इस प्रकार हैं - सौराष्ट्र गुजरात में सोमनाथ, श्रीशैल पर्वत (आंध्रप्रदेश) पर मल्लिकार्जुन, उज्जैन (म.प्र.) महाकाल, नर्मदा के तट पर ओंकारेश्वर, हिमालय पर्वत पर केदारेश्वर, सह्याद्रि पर्वत पर डाकिनी नामक स्थान पर भीमशंकर, वाराणसी (उ.प्र.) में विश्वनाथ, गोदावरी (महाराष्ट्र) के तट पर त्र्यम्बकेश्वर, बिहार में वैद्यनाथ, दारुक वन (आंध्रप्रदेश) में नागेश्वर, सेतुबंध पर रामेश्वर, शिवायल में घुमेश्वर। भारत में पूर्व से पश्चिम, उत्तर से दक्षिण में ये द्वादश ज्योतिर्लिंग अपना विशिष्ट इतिहास संजोए हुए हैं। 

सोमनाथ - शिव का पहला अवतार सोमनाथ के रुप में हुआ। इस मंदिर और ज्योतिर्लिंग की महत्ता पौराणिक एवं ऐतिहासिक दोनो ही है। चंद्रमा ने इसकी स्थापना की थी। महमूद गजनवी ने पहली बार इस मंदिर को लूटा। इस मंदिर को अनेक बार लूटा गया और यह अनेक बार फिर से स्थापित हुआ। सन्‌ 1413 में अंतिम बार मुस्लिम शासक सुलतान अहमद शाह ने इसे तोडा था। अंततोगत्वा सरदार पटेल के सत्प्रयास से इस मंदिर की पुनर्निमिति हुई।

मल्लिकार्जुन-मल्लिका अर्थ पार्वती है और अर्जुन शिव का वाचक है इस प्रकार से यहां शिव-पार्वती दोनो स्थापित हैं। पुत्र प्राप्ति के लिए इस लिंगपूजन को विशेष मान्यता है। पुराणों के कथनानुसार शैल पर्वत के दर्शन मात्र से मानव पुनर्जन्म से मुक्त हो जाता है।

महाकालेश्वर - इस ज्योतिर्लिंग के संबंध में अनेक कथाएं हैं। महाकालेश्वर सज्जनों का आश्रयदाता एवं दुष्टों का विनाशक है। महाकाल की गरिमा बढ़ाने में क्षिप्रा नदी सहायक है। हर 12वें वर्ष यहां सिंहस्थ का आयोजन होता है।

ओंकारेश्वर - प्राकृतिक एवं भव्य दृश्यों के मध्य मांधाता पर्वत पर ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग का भव्य मंदिर है। यह शिला रुप में  है। राजा मांधाता के नाम पर ही यह पर्वत प्रसिद्ध हुआ। पौराणिक कथा के अनुसार विंध्य पर्वत ने मानव रुप धारण कर शिवलिंगार्चन किया। उसी शिवलिंग के दो भाग हो गए एक को, ओंकारेश्वर तो दूसरे को ममलेश्वर (इच्छा पूर्ण करनेवाला ईश्वर कहा गया) 

केदारनाथ - केदारेश्वर ज्योतिर्लिंग की स्थापना नर नारायण नामक देवों ने की। ऐसे तो नर नारायण अर्जुन और श्रीकृष्ण ही माने जाते हैं। इस मंदिर के निर्माण में भी छैनी हथौडी का प्रयोग नहीं हुआ है। यह केदार शिखर पर मंदाकिनी के तट पर स्थित है।

भीमशंकर - इस ज्योतिर्लिंग के संबंध में विद्वानों में कुछ मतभेद हैं। सामान्यतः तो यही माना जाता है कि मुंबई से पूर्व और पुणे के उत्तर में भीमा नदी के उद्‌गम स्थान सह्याद्रि पर्वत के डाकिनी नामक स्थान पर यह स्थित है। एक अन्य कथा के अनुसार यह असम के कामरुप जिले के ब्रह्मपुत्र पहाडी पर स्थित शिवलिंग है।

विश्वेश्वर - शिव का सांतवा ज्योतिर्लिंग काशी विश्वेश्वर या विश्वनाथ है। पौराणिंक मान्यता के अनुसार यहां शिव सदा विद्यमान रहते हैं। इस ज्योतिर्लिंग की स्थापना-संस्थापक आदि का इतिहास नहीं मिलता। हां, आद्यशंकराचार्य ने इस विश्वेश्वर लिंग की स्थापना की थी। चीनी यात्री ह्वेनसांग ने 100 फुट ऊंची मानवाकार विश्ववेश्वर की मूर्ती का उल्लेख किया है। सबसे पहले कुतुबुद्दीन ऐबक ने इसे तोडा था। उसीने सारनाथ के चक्र को भी तोडा था। 1494 में सिकंदर लोधी ने इसे तोडा। 1669 में औरंगजेब ने तोडा और इसे विश्वनाथ मस्जिद का रुप दे दिया। 1790 में देवी अहिल्या ने इसी मस्जिद के पास नया विश्वनाथ मंदिर बनवाया।

त्र्यम्बकेश्वर - कहा जाता है कि गौतम ऋषि और दक्षिण की गंगा गोदावरी की प्रार्थना पर शिवजी यहां ज्योतिर्लिंग के रुप में प्रकट हुए थे। मंदिर के भीतर तीन शिवलिंग हैं वे क्रमशः ब्रह्मा, विष्णु और शिव के प्रतीक हैं। इसी कारण त्र्यम्बकेश्वर नाम पडा।

वैद्यनाथेश्वर - शिवभक्त राक्षस राज रावण ने कैलाश पर्वत पर घोर तपस्या की और अपने ही हाथों से अपना सिर काटकर चढ़ाने लगा, नवां सिर चढ़ाने के पश्चात जब वह दसवां सिर चढ़ाने को उद्यत हुआ तो भगवान शंकर प्रकट हो गए। शिवशंकर को प्रसन्न जान रावण ने कैलाश पर स्थापित शिवलिंग को लंका में स्थापित करने का विचार किया। शिवजी ने कहा तुम इसे बीच में कहीं ना रखना। भगवान शंकर की आज्ञा ले रावण चल पडा परंतु, मार्ग में लघुशंका के लिए रुकने के कारण यह ज्योतिर्लिंग इसी स्थान पर स्थापित हो गया और वैद्यनाथ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। 

नागेश्वर - सुप्रिय नामक एक वैश्य शिवजी का अनन्य भक्त था। उस भक्त को दारुक नामके एक राक्षस ने पकड लिया और कारागार में बंद कर दिया। सुप्रिय कारागार में भी शिवभक्ति कर रहा है यह अवगत होेने पर राक्षस उसकी हत्या करने पहुंचा। शिवजी  अपने भक्त की रक्षा के लिए कारागार में प्रकट हुए और वहीं उस दारुक दैत्य को मार डाला। नागेश्वर ज्योतिर्लिंग सभी कामनाओं को पूर्ण करनेवाला माना जाता है। यह ज्योतिर्लिंग पूर्णा-हिंगोली लाइन पर चौडी स्टेशन से 12 मील दूर औढ़ा नामक गांव में है। 

सेतुबंध रामेश्वरम्‌ - तमिलनाडु के रामनाथम या रामनद जिले में स्थित है। रामचरित मानस के आधार पर समुद्र पर पुल बांधने  के पूर्व ही रामेश्वरम्‌ की स्थापना श्रीरामचंद्रजी ने की थी। रामकथा के अनुसार श्रीराम ने शिवजी से सदैव वहां रहने का आग्रह किया था तद्‌नुसार शिवजी वहां रामेश्वर ज्योतिर्लिंग के रुप में स्थापित हुए। दाक्षिणात्य कथा के अनुसार लंका पर विजय प्राप्त करने के पश्चात अयोध्या वापसी के समय रामेश्वर शिवलिंग की स्थापना की। इस ज्योतिर्लिंग को गंगा स्नान करवाना विशेष पुण्य का माना जाता है। रामेश्वरम शिवलिंग के बगल में ही हनुमदीश्वर शिवलिंग स्थापित है। हनुमानजी द्वारा कैलाश पर्वत से शिवलिंग लाने में देर हो जाने के कारण दूसरे मुहुर्त पर इस लिंग की स्थापना की गई थी।

घूमेश्वर - शिव पुराण की कथा के अनुसार प्राचीन युग में देवगिरी नामक पर्वत के निकट सुधर्मा नाम का एक ब्राह्मण रहता था। उसकी पत्नी घुश्मा अत्यंत शिवभक्त थी। वह नित्य एक सौ एक पार्थिव शिवलिंगों की पूजा करती और उन्हें निकट के सरोवर में विसर्जित कर देती। एक दिन शिवजी ने प्रसन्न होकर उसे दर्शन दिए और घुश्मा के आग्रह पर जनहितार्थ वहीं ज्योतिर्लिंग के रुप में  रहे। इस शिवलिंग को घुसणेश्वर या घृष्णेश्वर शिवलिंग भी कहा जाता है। यह ज्योतिर्लिंग दक्षिण के हैदराबाद के अंतर्गत दौलताबाद स्टेशन से बारह कि.मी. दूर स्थित है।