Friday, November 28, 2014

हिंदुस्थान ही नहीं सारा विश्व ही परेशान है ढ़ोंगी गुरुओं की महामारी से
रामपाल की भयानक करतूतों का पर्दाफाश होने के बाद समाज में तीव्र प्रतिक्रिया हुई जो कि स्वाभाविक भी थी। कई लोग यह प्रतिक्रिया देते नजर आए कि ऐसे पाखंडी साधु-महाराज, पीर-फकीर अपने घिनौने कारनामे केवल इस देश में ही अंजाम दे सकते हैं। मानो विदेशों में ऐसे पाखंड फैलानेवाले संप्रदाय, धर्मगुरु हैं ही नहीं या ऐसा वहां कुछ होता ही नहीं है। यह एक बहुत बडी गलतफहमी है। अंधविश्वास, अंधश्रद्धा हर देश में व्याप्त है जो केवल कम या अधिक हो सकती है। दूर क्यों जाएं? हमारे पडौसी देश पाकिस्तान में ही पीरों ने गजब की उधम मचा रखी है। जो क्रूर, अमानवीय, अत्याचारी कुकर्मों द्वारा भयानक अंधेरगर्दी उन्होंने मचा रखी है वह जानना हो तो, तहमीना दुर्रानी की 'ब्लॉस्फेमी" पढ़ लें, रोंगटे खडे हो जाएंगे। 

तहमीना दुर्रानी पाकिस्तानी पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री मुस्तफा खर की आठवीं पत्नी थी और एक सुंदरी से विवाह करने के लिए तहमीना को खर ने तलाक दे दिया था। इन पीरों की करतूतों का विवरण तहमीना ने 'ब्लॉस्फेमी" में किया है। तहमीना की लेखनी के माध्यम से पीर की पत्नी बार-बार कहती है कि पीर अल्लाह का नाम लेकर खतरनाक शैतानों का जीवन जीता है। हालांकि यह सब एक उपन्यास की तरह लिखा गया है लेकिन तहमीना पाकिस्तान की ऐसी पहली लेखिका है जिसने इन पीरों का कच्चा चिट्ठा खोला है। ये पीर किस प्रकार राजनीति-सत्ताकेंद्रों को प्रभावित करते हैं और किस प्रकार पाकिस्तान के प्रधानमंत्री तक इन पीरों का आशीर्वाद लेने के लिए इनके डेरों पर जाते हैं यह सब हमें पता चलता है। यह पूरी पुस्तक पढ़कर जुगुप्सा ही पैदा हो जाती है कि  आखिर ये पीर इंसान हैं या शैतान। जो अपने विरोधियों को इस्लाम का दुश्मन बडी आसानी से करार देते हैं। अब तो कई पाकिस्तानी लेखक इन पीरों को बेनकाब करने के लिए आगे आ रहे हैं। परंतु, इन पीरों की दुकानें बदस्तूर जारी ही हैं। पाकिस्तान के कई अमीर, उद्योगपति, व्यापारी, जमींदार और मंत्री तक इन पीरों के अनुयायी हैं।

संप्रदायों के गुरुओं के इंफेक्शन से उन्नत, विज्ञान-बुद्धिवाद से लैस कहे जानेवाले पाश्चात्य देश तक पीडित हैं। स्वीटजरलैंड के आल्प्स पर्वतीय क्षेत्र के चेरी नामक गांव में अक्टूबर 1994 में चर्च जैसे दिखनेवाले एक फार्म हाउस से पुलिस ने जली हुई लाशें निकाली थी। कुछ के चेहरे प्लास्टिक की थैली में लपेटे हुए थे एवं कुछ को गोली मारी गई थी। 1994 से 1997 तक स्वीटजरलैंड के अलावा कनाडा के एक शहर में भी 74 लोगों ने अपनी जान दी। ये सभी 'ऑर्डर ऑफ सोलर टेंपल" नामक पंथ के सदस्य थे। इनमें कुछ आत्महत्याएं भी थी तो कुछ हत्याएं।

अमेरिका के केलिफोर्निया के 'हैवन्स गेट" इस संप्रदाय के 40 अनुयायियों ने इस शरीर से मुक्ति पाने के लिए अपनी जान दे दी जिससे कि वे आत्मा को एक अमर यात्रा पर ले जा सकें। कुछ पुरुषों ने तो वंध्याकरण तक करवा लिया था जिससे मृत्यु पश्चात उन्हें लिंगभेद से मुक्ति मिल जाए। टेक्सास राज्य के वाको शहर के समीप एक पशु पालन केंद्र को अमेरिकी सेना ने इस जानकारी पर कि यहां ईसाई धर्म के 'सेवन्थडे एडवेंस्टिस" पंथ से अलग होकर नया पंथ बनानेवाले और स्वंय को पापी परमेश्वर करार देनेवाले डेविड कोरेश और उनके शिष्य छुपे हुए हैं। डेविड का कहना था कि उसके संप्रदाय में शामिल होने के लिए कुंआरी युवतियों को शरीर संबंध स्थापित करना अनिवार्य है। वास्तव में ऐसे धर्मवादी नेता अपनी सम्मोहक सेक्स अपील से अनुयायियों को करीब-करीब ज्यों का त्यों वश में कर लेते हैं और वे असहाय हो उनके बताए रास्ते पर चल पडते हैं। सरकार को उसकी अश्लीलता पर पहले से ही संदेह था इसलिए सेना ने उसकी घेराबंदी कर दी। उसने अपने शिष्यों को बतलाया कि गोली और बम से मारे जाने पर वे सीधे 'स्वर्ग" जाएंगे। अंततः सारे के सारे 84 लोग गोलाबारी और बमबारी में मारे गए।

इसी प्रकार का एक और वाक्या गुआना में भी हुआ था जहां जिम जोन्स नामक व्यक्ति ने स्‌न 1955 में स्थापित 'पीपल्स टेंपल" में 18 नवंबर 1978 को उसने अपने समस्त शिष्यों को आत्मघात का क्रांतिकारी निर्देश दिया था। जिसका टेप मिला था। इस टेप में वह वार्तालाप था जिसमें उस सामूहिक आत्महत्या का जिक्र था जिसके द्वारा उन लोगों ने जहर पीकर या अन्य तरीके से आत्महत्याएं की थी। उनको प्रेरित करनेवाला व्यक्ति था जिम जोन्स जिसने उनसे कहा था कि हमें गरिमा के साथ मरना है। अनुयायियों के रोने पर उसने कहा ऐसे रोकर मरेंगे तो हमें सामाजिक कार्यकर्ता या साम्यवादी के तौर पर कभी भी याद नहीं किया जाएगा। इन वीभत्स लाशों के पाए जाने पर पूरी दुनिया में खलबली मच गई थी।

क्रिश्चनिटी में भी अनेक पंथ-संप्रदाय हैं। रेवरंड सून म्यूंग मून को उनके अनुयाय साक्षात ईश्वर मानते हैं। यह कोरियन ईसाई गुरु एक धार्मिक नेता होने के साथ मीडिया मोगल (प्रभावशाली व्यक्ति) भी है। इसके अनुयायियों को 'मूनीज" कहते हैं। अमेरिका के राष्ट्रपति जॉर्ज बुश की जीत का श्रेय भी इसने लिया है। यह संप्रदाय गुप्त रुप से काम करता है और खतरनाक रुप से दिमाग को नियंत्रित करनेवाले संप्रदाय के रुप में जाना जाकर इसके लाखों अनुयायी और इसके पास करोडों डालर हैं। इसी तरह का एक और चर्च है 'यूनिवर्सल एंड ट्रायफंट" (कट) (2जुलाई 1973) इस चर्च की संस्थापक है एलिजाबेथ क्लेअर प्रोफेट (पैगंबर) के प्रोफेट पति मार्क ने 'समीट लाइटहाउस" की स्थापना की थी जो अब 'कट" का ही अंग है। यह संप्रदाय चर्चा में तब आया था जब इसने  80 के दशक में परमाणु युद्ध की भविष्यवाणी की थी।

इस पंथ के बारे मेें प्रसिद्ध विज्ञान लेखक रान हबर्ड ने 1950 में एक पुस्तक लिखी थी जिसकी लाखों प्रतियां बिकी थी। उनका कहना है लाखों डालर्स कमाने का सबसे बढ़िया तरीका है नए धर्म की स्थापना करना। जिस प्रकार से पत्रकार, राजनेता, समाजसेवक बनने के लिए कोई योग्यता निर्धारित नहीं है, उसी प्रकार से 'गुरु" बनने के लिए भी किसी निर्धारित योग्यता की आवश्यकता नहीं है। धन कमाने का यह 'इंस्टंट" माध्यम है। अच्छा व्यक्तित्व, वाक्‌चातुर्य और थोडा सामान्य ज्ञान का होना गुरु बनने के लिए पर्याप्त है। अशिक्षित, अज्ञानियों के अलावा आज की इस भागमभाग भरी दुनिया में तनावों, मानसिक चिंताओं से त्रस्त लोग भी बहुत हैं और जिन्हें जहां कहीं भी थोडी शांति मिलने की संभावना नजर आती है वहां वे खींचे चले जाते हैं। बस इन गुरुओं को और इन चेलों को भी ऐसों की ही तो तलाश रहती है बस इस चक्कर में सभी मालोमाल हैं। 

उपर्युक्त कथित घटनाक्रमों पर से ऐसा नहीं कहा जा सकता कि सभी धर्मों में ऐसे ही शैतानी गुरु होते हैं। जो अपने शिष्यों-अनुयायियों का अवांछित शोषण विभिन्न तरीकों से करते हैं। अच्छे-बुरे लोग, धर्मगुरु और उनके अच्छे-बुरे कार्य भी हर धर्म में करनेवाले होते ही हैं। लेकिन इन राक्षस गुरुओं व इनके इन अवांछित क्रियाकलापों के कारण अच्छे जनहितैषी कार्य करनेवाले धर्मगुरुओं के कार्यों में जरुर बाधाएं उत्पन्न हो जाती हैं और शक्की मिजाज लोग इनके अच्छे कार्यों को भी गलत नजरों से देखने से बाज नहीं आते।
समाज को इन तथाकथित अवतारी और चमत्कारी गुरुओं से सावधान करने के लिए सन्‌ 1995 में दिल्ली में अंतरराष्ट्रीय रेशनलिस्ट कांफ्रेस भी हो चूकी है। जो जनता में जागरुकता लाने का कार्य कर रही है। वैसे भारत में वैदिककाल से ही वेद-उपनिषदों को माननेवाले तो लोकायतिक (चार्वाकवादी) दोनो ही रहे हैं। फिर भी हम अंधश्रद्धाओं में डूबे हुए हैं। समाज को हिला देनेवाले खुलासों द्वारा जो अवैज्ञानिक क्रियाकलाप और अंधश्रद्धाओं का उदात्तीकरण पूरे विश्व में चल रहा है की जानकारी देने के लिए हैरी एडवर्डस्‌ जो ब्रिटिश सिक्रेट एजेंसी में थे ने सन्‌ 2006 में एक पुस्तक 'स्केप्टिक्स गाईड" में 107 अध्यायों के द्वारा अंधश्रद्धाओं की अच्छी खबर ली है। इस पुस्तक के अंतिम अध्याय में लेखक के अंधश्रद्धा और वैज्ञानिकता के परिणाम इस विषय में प्रस्तुत विचार चिंतनीय होकर गहरी तंद्रा में लीन समाज की आंखे खोल देने के लिए पर्याप्त हैं। 

Saturday, November 22, 2014

बढ़ता ही जा रहा है ढ़ोंगी गुरुओं का तिलिस्म

लगभग दो सप्ताह चले अभियान और करोंडों रुपये खर्च होने के बाद तथाकथित गुरु रामपाल महाराज ने पुलिस के सामने आत्मसमर्पण कर दिया और उसे राष्ट्रद्रोह, हत्या आदि सहित कई धाराओं के तहत गिरफ्तार कर न्यायालय में पेश करने के पश्चात जेल भेज दिया गया है। इसी के साथ फिर से ढ़ोंगी साधुओं, बाबाओं, महाराजाओं, गुरुओं के कारनामे चर्चा में आ गए। आश्चर्य है कि 21वीं सदी में जहां विज्ञान चरम की ओर बढ़ रहा है वहीं इन नकली गुरुओं की देश में बाढ़ सी आ गई है।

किसी समय जिनके बडे जलवे हुआ करते थे लेकिन बाद में जिनको जेल यात्राएं करना पडी, कुछ तो अभी भी जेल में ही हैं, ऐसे तथाकथित धर्मगुरुओं के चित्रों सहित उनके कारनामों का स्मरण भी मीडिया नेे मौके का फायदा उठाकर लगे हाथ हमें करवा दिया। जैसेकि आसाराम, चंद्रास्वामी, बाबा रामरहीम आदि। अब समाचार पत्रों में रामपाल के कुकर्मों, उसकी संपत्ति, उसके आश्रम में पाई गई अय्याशी की सामग्रियों के बारे में जमकर छापा जा रहा है। सवाल यह उठता है कि इन गुरुओं, बाबाओं ने जो स्वंय परमेश्वर होने का दावा करते हैं ने अपना साम्राज्य एक रात में तो फैला नहीं लिया! अब रामपाल सहित जिन बाबाओं के समाचार  छापने की होड सी मची है। जब अपने पाखंड का जाल फैलाकर अपनी ताकत बढ़ा रहे थे उस समय तो सभी चुप्पी साधे बैठे रहे।

वास्तव में इन ढ़ोंगी महाराजाओं के पीछे होता है दादा (माफिया), पूंजीपति, स्वार्थी-सत्तालोलुप राजनेताओं का समर्थन और जब अति हो जाती है तथा इन गुरुओं का बचाना असंभव सा हो जाता है या इस चौकडी में फूट पड जाती है तभी वास्तविकता सामने आने लगती है। यह सोच पूरे समाज में पूरी तरह से व्याप्त है अन्यथा तो क्या मीडिया और क्या बुद्धिजीवी एवं जनता के समझदार लोग सब डर, स्वार्थ और हमें क्या की मानसिकता के चलते जानकर भी अनजान बने रहते हैं। कई बार तो मीडिया के बहुत बडे वर्ग का हित भी इस गठजोड से सधते रहता है यह भी एक कारण है।

भारत की धर्मभीरु जनता (शिक्षित-अशिक्षित दोनो ही) अज्ञान, अंधविश्वास, अंधश्रद्धा के जाल में बुरी तरह फंसी हुई है। गांव-गांव में भूतबाधा, असाध्य बीमारियों के इलाज, गुप्तधन प्राप्ति, मनचाही संतान की चाह एवं कई कुरीतियों के नाम पर अनेकानेक ढ़ोंगी साधु-बाबा-तांत्रिक अमानवीय क्रूरकर्म, नरबलि सहित इनके साथ करते रहते हैं। जिनके कारनामे पकड में आने पर समय-समय पर छपते ही रहते हैं। लोगों को फुसलाने के लिए अधिकांशतः ये ढ़ोंगी चमत्कार दिखलाने के साथ ही मुफ्त रहवास, उनके संप्रदाय में रोजगार के नाम पर सेवा-चाकरी और प्रचार का काम करवाते हैं एवं मुफ्त भोजन-भंडारे का भी सहारा लेते हैं।  दकियानूसी विचारों के पीलिया से अनेक वर्षों से ग्रस्त हमारे समाज में हो चूके अनेक समाज सुधारकों के डोज हजम नहीं हुए तभी तो आज परमाणु युग में भी जनता का झुकाव विध्वंसक, घातक अंधश्रद्धाओं की ओर ही है।

इन अंधश्रद्धाओं और ढ़ोंगी बाबाओं के तिलिस्म में फंसे लोगों का मजाक उडाने, उन पर तरस खाने की अपेक्षा सामाजिक दृष्टि से घातक अंधश्रद्धाओं के संहार के लिए विज्ञानवादी, तार्किक-बुद्धिनिष्ठ, विवेकशील दृष्टिकोण की जडें समाज में जमाना आवश्यक है। इसके लिए जनशिक्षा और सामाजिक प्रबोधन पर बल देना होगा। शैक्षणिक पाठ्यक्रम में शास्त्रीय विश्लेषण सीखानेवाली चिकित्सक प्रवृत्ति निर्मित करने, उसको बढ़ावा देने पर बल देना पडेगा(उदाहरण के लिए प्रेमचंद की कहानियां)। देश के विकास एवं प्रगति के लिए अंधश्रद्धा निर्मूलन आवश्यक है चाहें तो इसके लिए कानून बनाएं और समाज को इन ढ़ोंगी गुरुओं, बाबाओं से बचाना समय की मांग है। इस संबंध में यह कहावत बहुत सटीक है जो नारु उन्मूलन के दौर में सरकार ने प्रचारित की थी - 

'पानी पीयो छान के, गुरु करो जान के।""

Tuesday, November 18, 2014

विश्व शौचालय दिवस विशेष 19 नवंबर
जीवन के अभिन्न अंग हैं ः शौचालय एवं स्वच्छता 
 
शौचालय के महत्व, उसकी आवश्यकता, कमी एवं इसके प्रति उपेक्षा को देखते हुए इस समस्या के प्रति लोगों का ध्यान आकर्षित हो इसके लिए 19 नवंबर को विश्व-शौचालय दिवस मनाने का निर्णय संयुक्त राष्ट्र संघ ने लिया है। भारत में तो यह विषय सर्वाधिक उपेक्षित था लेकिन पिछले कुछ वर्षों में इस गंभीर समस्या की ओर सरकारों का ध्यान गया है और पहले जयराम रमेश और फिर प्रधानमंत्री बनने के बाद मोदी ने स्वच्छता एवं शौचालय इस विषय को 15 अगस्त को लाल किले से भाषण देते समय उठाकर सर्वाधिक चर्चित कर दिया है। 

फिर मोदी ने 2 अक्टूबर गांधी जयंती पर स्वच्छ भारत का अभियान छेड इस मुद्दे को जन चर्चा का विषय बना लोगों को जागरुक बनाने का अभियान 9 लोगों को जोडो कर कर दिया और इसका अच्छा प्रतिसाद सेलेब्रिटिज की ओर से भी आया है। वैश्विक हस्ती बिल गैट्‌स ने भी मोदी की शौचालयों की प्रतिबद्धता के लिए अपने ब्लॉग पर भूरी-भूरी प्रशंसा की है। वैसे इसके परिणाम आने में समय लगेगा अभी हाल फिलहाल तो कोई विशेष फरक नजर आया नहीं है। क्योंकि इस विषय में सर्वाधिक बडी बाधा स्वयं जनता ही है और जब तक उसकी मानसिकता नहीं बदलेगी तब तक भरपूर सफलता मिलना असंभव सा ही है। 

इसके उदाहरण स्वरुप पंजाब के सामुदायिक शौचालयों का उल्लेख किया जा सकता है जिनका निर्माण तो कर लिया गया परंतु, उपयोगकर्ता ही गायब हैं। महाराष्ट्र में भी लाखों शौचालय बने हैं और इतने ही गायब भी हैं, क्योंकि कइयों का उपयोग तो ग्रामीण जन भूसा रखने के लिए कर रहे हैं। कई सार्वजनिक शौचालयों की दुर्दशा, दुरुपयोग, टूटफूट तो साधारण बात है। परंतु, हद तो तब हो जाती है जब कार्यालयों में मालिकों या अधिकारियों को उनके वाश रुम के दुरुपयोग, दुर्दशा की शिकायतें मिलती है और सफाई कर्मी आकर शिकायत करते हैं कि अपने कर्मचारियों को शौचालयों का उपयोग करना तो सीखाइए। इस मामले में तो शिक्षित-अशिक्षित दोनो ही एक समान हैं। एक परामर्शदाता अभियंता के कार्यालय में जो स्वयं अपने शौचालयों की स्वच्छता का मुआयना करते हैं के अनुसार उन्होंने उनके कार्यालय में स्वयं एक इंजीनिअर को वाशबेसिन में तम्बाखू-सुपारी थूकते रंगे हाथों पकडा उनका कथन है कि जो सफाईकर्मी इस गंदगी को हाथ से साफ करता है क्या वह इंसान नहीं है? हालात यह हैं कि लोग डस्टबीन और पीकदान में फर्क ही नहीं समझते और डस्टबीन में ही थूक देते हैं यह भी एक कार्यालय और दुकानदार की शिकायत मैंने सुनी है। 

इसी समय यह बतला देना उचित होगा कि किसी भी व्यक्ति को घिन जो आती है वह गीली गंदगी की किंतु, कई लोग जो बडे जोर-शोर से सडकों पर कचरा उठाते, सफाई करते फोटो छपवा रहे हैं वे केवल सूखा कचरा उठाते ही नजर आते हैं, गीला नहीं। जबकि मोदी ने दिल्ली के पुलिस स्टेशन पर स्वच्छता की थी उसमें गिली गंदगी भी थी। कचरे की ही जब बात चली है तो इंदौर के एमटीएच कंपाउंड में सेंट्रल कोतवाली के पीछे स्थित सरकारी मकानो की हालत यह है कि उनकी खुली नाली में मल तैरते हुए मिल जाएगा और कचरे का ढ़ेर अलग ही है। जबकि सामने ही स्वास्थ्य विभाग का कार्यालय भी है, निकट ही प्रेस क्लब भी है।

लोगों की मानसिकता बयान करने के लिए एक और उदाहरण है स्कीम 78 नं का। वहां स्थित एक प्लाट खाली पडा है जहां लोग कचरा फैंक जाते हैं वहां का जागरुक पार्षद अवश्य समय-समय पर कचरा गाडी भेजकर कचरा उठवाता रहता है लेकिन लोग ऐसे हैं कि कचरा उठते समय कचरा न तो कचरा गाडी में डालते हैं न ही उस स्थान पर जहां कचरा उठाया जा रहा है। वे कचरा उस स्थान पर डालते हैं जो साफ हो चूका है वह भी निगम कर्मियों के सामने ही और इसी प्रकार के लोग नगर निगम को आगे बढ़कर कोसते नजर आ जाएंगे। इस प्रकार के दृश्य कहीं भी देखे जा सकते हैं।

कुछ लोगों का कथन है कि यदि स्वतंत्रता प्राप्ति के समय से ही स्वच्छता अभियान चलाया जाता तो शायद स्थिति वह ना होती जो आज नजर आ रही है। कहने को तो यह कथन बडा आकर्षक लगता है परंतु, इस संबंध में मेरा कहना यह है कि उस काल की परिस्थितियों पर तो गौर करें। उस समय जातिवाद चरम पर था, लोगों की शिक्षा दर मात्र 18 प्रतिशत थी और लोगों की मानसिकता यह थी कि सफाई कार्य करना सफाई कर्मियों का ही काम है। आज भी इस संबंध में मानसिकता कुछ विशेष बदली नहीं है भले ही शिक्षा का प्रतिशत बढ़कर 74 हो गया है। इस कारण इस तरह की बातें करना व्यर्थ सा ही लगता है। (गांधीजी और उनके शिष्यों ने जरुर इस संबंध में उल्लेखनीय कार्य किया जो एक अलग लेख का विषय है) हां एक प्रगति अवश्य हो गई है वह है विभिन्न शब्दों के प्रयोग की- संडास, लेट्रिन से होते हुए टॉयलेट और अब वॉशरुम कहलाने लगे हैं बस। शौचालय शब्द का प्रयोग तो आमजनता कम ही करती है और यह तो समाचार पत्रों में प्रयुक्त किए जानेवाला शब्द है एवं स्वच्छता गृह शब्द तो लगभग चलन में ही नहीं है। 

हमारी नगरपालिकाओ की नीति शौचालयों-मूत्रालयों के संबंध में कुछ ऐसी है कि वे स्वयं होकर इनका निर्माण करने में अग्रणी नहीं होते जब समस्या गंभीर हो जाती है, जनता त्रस्त हो जाती है, समाचार पत्रों में समाचार छपने लगते हैं या किसी क्षेत्र विशेष के रहवासी अश्लीलता, गंदगी एवं दुर्गंध से बेजार हो जाते हैं और जनता आंदोलन पर उतारु हो जाती है तब जाकर कहीं इनके निर्माण की ओर इनका ध्यान जाता है। वास्तव में शौचालयों का निर्माण आबादी के मान से किया न जाकर इसमें भी तुष्टीकरण की नीति अपनाई जाती है। जहां 10 की आवश्यकता है वहां दो का ही निर्माण कर तुष्ट करने की कोशिश की जाती है। बरसों से यही सिलसिला चला आ रहा है। शहरों की आबादी बढ़ती ही चली जा रही है, मूत्रालयों की आवश्यकता भी उसी अनुपात में बढ़ रही है परंतु, कई वर्षों से उनके विस्तार की ओर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया है (अक्सर बडे शहरों एवं घनी आबादीवाले क्षेत्रों जैसकि बस, रेल्वे स्थानकों आदि पर लोग कतारों में खडे दिख पड जाते हैं) बल्कि जो हैं उनमें से भी कई को गायब कर दिया गया है। निर्माण भी अव्यवस्थित ढ़ंग से होता है कहीं-कहीं तो ढ़ाल उल्टा ही दे दिया जाता है, पार्टीशन की ऊंचाई रखते समय सामान्य बुद्धि तक का प्रयोग नहीं किया जाता। कहीं ड्रेनेज ही नहीं है फिर भी निर्माण और उपयोग भी प्रारंभ कर दिया जाता है, कहीं व्यापारी अपने लाभ के लिए उन्हें तोड देते हैं, उन पर अतिक्रमण कर लेते हैं। लगता है मूत्रालयों के निर्माण का कोई मानकीकरण ही नहीं किया गया है। यह भी देखने में आ रहा कि रेल्वे जो अपने निर्माण में गुणवत्ता का ध्यान रखता है वहां भी अब शौचालयों के निर्माण में गुणवत्ता उपेक्षित हो गई है जबकि बातें बॉयो टॉयलेट की की जा रही हैं।

शौचालयों से जुडी और भी कई समस्याएं जिनका निराकण भी आवश्यक है जैसेकि 2019 तक लक्ष्य पूर्ति कैसे होगी? हम इतनी सीवरेज और सीवर शोधन यंत्र व्यवस्था किस प्रकार से कर सकेंगे, फ्लश के लिए पानी कहां से आएगा, आदि? कई स्थानों पर तो ढूंढ़े से भी शौचालय मिलते ही नहीं। जो बने भी हैं वे टूटे-फूटे पडे हैं उनकी सुध लेनेवाला कोई नहीं। सबसे बडी बात यह है कि इस संपूर्ण चर्चा में केवल उपयोगकर्ता और निर्माण की ही बात की जा रही है परंतु, सफाईकर्मियों का पक्ष तो उपेक्षित, अनुल्लेखित ही है कि इतने प्रशिक्षित सफाईकर्मी आएंगे कहां से? वैसे सुलभ इंटरनेशल के बिंदेश्वर पाठक ने इस संबंध में सहायता का प्रस्ताव रखा है। फिर भी यह प्रश्न बचा ही रहता है कि इन सफाईकर्मियों को पर्याप्त सुरक्षा साधन भी तो लगेंगे, जो फिलहाल कार्यरत सफाईकर्मियों को ही उपलब्ध नहीं हैं तो, भविष्य के लाखों लगनेवाले सफाईकर्मियों को कहां से उपलब्ध हो पाएंगे और क्या यह काम जो लोग जन्मजात कर रहे हैं क्या वे ऐसे ही आजीवन करते रहेंगे?

 इस संबंध में उल्लेखनीय कार्य किया था अप्पा पटवर्धन ने जिन्हें कोंकण (महाराष्ट्र) का गांधी कहा जाता है जिन्होंने 'ब्राह्मण भंगी प्रभु संतान; सफाई पूजा एक समान" की घोषणा देते हुए मालवण में सफाई काम किया था। अप्पा के आत्मचरित्र 'माझी (मेरी) जीवन यात्रा" (कुल पृ. 740) की प्रस्तावना में काका कालेलकर लिखते हैं ः ''अस्पृश्यता-निवारण में भी अंत्योदय का तत्त्व स्वीकारना चाहिए, ऐसा कहनेवाला हमारा एक पक्ष है। और इसके लिए कम से कम मैला उठानेवाली जाति से पाखाने का काम छुडवाना ही चाहिए ऐसा कार्यक्रम भी सुझाया गया है। इस मामले में अप्पा ने अपने प्रयत्नों का चरम गांठा है।"" इसके लिए अप्पा ने स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात 'संडास-मूत्रालयों के नए-नए प्रयोग किए थे।" विनोबा भावे के शब्दों में 'हम दोनो महात्मा गांधी के आश्रम में थे। वे सफाई का काम करते थे और शिक्षक भी थे।" चूंकि उनके कार्य का जो महत्व है वह अलग से देना ही योग्य होगा इसलिए लेख को यहीं विराम देता हूं।

Saturday, November 15, 2014

इस्लाम एक बाह्याचारी धर्म ! !

मुसलमानी धर्म के पांच बाह्यांग हैं - नमाज, संगठन (उम्मा), धार्मिक दृष्टि से निषिद्ध वस्तुओं का त्याग, कुरान पठन और मक्का की यात्रा (हज)। बदलते समय के साथ मुसलमान इस संबंध में शिथिल होते चले गए हैं किंतु, बाह्याचार को आवश्यकता से अधिक महत्व देना कम नहीं हो सका है और अब वे इन उपर्युक्त बाह्यांगों पर अधिक बल देने के स्थान पर दाढ़ी, टोपी, बुरका, टखनों के ऊपर तक का पायजामा और घुटनों के नीचे तक का कुर्ता पहनने पर जोर देने लगे हैं फिर भले ही वे कितने भी अजीब क्यों ना दिखाई दें। 

यहां तक तो ठीक है परंतु, समस्या तब पैदा होती है जब वे अपना यह बाह्याचार दूसरों पर थोपने की कोशिश करते हैं जैसेकि  कुछ माह पूर्व एक मौलाना द्वारा सार्वजनिक रुप से मोदी को टोपी पहनाने का प्रयास करना। इसी प्रकार से सन्‌ 1992 में केरल के त्रिचूर जिले के थ्रिसूर कस्बे में कैथलिक ईसाइयों द्वारा संचालित एक स्कूल में जिसमें 1700 से अधिक छात्र थे। जो मुस्लिम छात्र परीक्षा परिणाम संतोषजनक दे नहीं सके थे टोपी पहनकर स्कूल आ गए। इसे गणवेश के नियमों का उल्लंघन मान स्कूल प्रशासन द्वारा टोपी पहन कक्षा में ना बैठें या कक्षा से बाहर चले जाएं कहा। छात्रों द्वारा ना मानने के कारण स्कूल बंद कर दिया गया। स्कूल के हेडमास्टर और मैनेजर को सिर काटने की धमकी वाले पत्र भी भेजे गए। इन मुस्लिम छात्रों को टोपी पहनकर कक्षा में बैठने की अनुमति देने पर शेष छात्रों ने बहिष्कार कर दिया था और एक लंबे समय तक स्कूल बंद रहा था।

इसी से मिलते जुलते विवाद भारत ही नहीं अन्य देशों में भी मुस्लिमों द्वारा शैक्षणिक या अन्य संस्थानों या कामकाजी एवं सार्वजनिक स्थानों पर कभी बुरके तो कभी दाढ़ी पर से खडे किए जाते हैं। बुरके से इस्लाम की पहचान को जोडना या उसे शरीअत का स्तंभ मानना, फोटोयुक्त पहचान पत्र पर बेजा बहस करना, शर्तें डालना दकियानूसीपन है, कट्टरता है। यहीं नहीं इस दकियानूसीपन, कट्टरता के चरम का प्रदर्शन पश्चिमी देशों में भी किया जा रहा है। जो ब्रिटिश मुस्लिम सांसद के संस्थापक अध्यक्ष डॉ. कलाम सिद्दीकी के हिजाब पर के कथन से पता चलता है वे कहते हैं ''जब हम पुरुष सडक पर चलते हैं तो हम भीड का हिस्सा मात्र होते हैं। जब हमारी महिलाएं हिजाब पहनकर सडक पर चलती हैं तो अपने साथ इस्लाम का झंडा लिए चलती हैं। वे एक राजनीतिक उदघोष करती हैं कि यूरोपीय सभ्यता हमें अस्वीकार्य है, कि यह एक रोग है, मानवता के लिए महामारी है। वे एक प्रकार से जेहाद का उदघोष करते चलती हैं।""(हिंदू वॉइस जुलाई 2007 पृ.13)  आखिर यह सब क्या दर्शाता है यही ना कि इस्लाम एक दिखावे का, बाह्याचारी धर्म है। 

यह बाह्याचार पर जोर मात्र अपनेआपको दूसरे धर्मावलंबियों से अलग दिखाने के लिए है। उदाहरण के लिए इस हदीस को देखें - मूंछ और दाढ़ी के बारे में पैगंबर कहते हैं ''बहुदेववादियों से उल्टा काम करो - मूंछे बारीक छांटों और दाढ़ी बढ़ाओ।"" इस हदीस का मंडन करते हुए हदीस के अनुवादक कहते है ः ''इस्लाम ने आस्था और सदाचार के आधार पर एक नया भाईचारा रचा। ... चेहरों की पहचान के लिए मुसलमानों को हुक्म दिया गया है कि वे मूंछे छांटें तथा दाढ़ी बढ़ाएं, जिससे कि वे उन गैर-मुस्लिमों से अलग दिखें जो दाढ़ी साफ रखते हैं और मूंछें बढ़ाते हैं। बालों को रंगने के बारे में पैगंबर कहते हैं ः यहूदी एवं ईसाई अपने बाल नहीं रंगते, इसलिए इसका उल्टा करो।" यहां तक कि नमाज के लिए अजान यानी नमाज के लिए बुलावा का तरीका भी यहूदियों, ईसाइयों एवं अग्निपूजकों से मुसलमानी व्यवहार को अलग बनाने के लिए पुकारने की व्यवस्था प्रचलित की गई।  

इस सब के संबंध में 'हदीस के माध्यम से इस्लाम का अध्ययन" इस पुस्तक में पृ. 200,1 पर 'अंर्तमुखी भावना का अभाव" शीर्षक तले रामस्वरुप लिखते हैं - ''पैगंबर मुहम्मद की आचार संहिता में अंर्तमुखी भावना का भी अभाव है। उस संहिता में इस सत्य का संकेत तक नहीं मिलता कि मनुष्य का बाह्याचार उसके विचारों तथा उसकी आकांक्षाओं से उद्‌भूत होता है, और उसके विचार तथा उसकी आकांक्षाएं उसके अहंभाव तथा उसकी अविद्या में जड जमाए हुए हैं। यह माना कि पैगंबर से कई सौ साल पूर्व ही मध्य एशिया में बौद्ध धर्म का प्रसार हो चूकने पर भी पैगंबर मुहम्मद भारतीय योग पद्धति से अपरिचित रहे। किंतु जिस सामी परंपरा से उनका परिचय था और जिसको अनेक अंशों में उन्होंने अपनाया था, वह परंपरा अंर्तमुखी भावना से अपरिचित नहीं थी। उस परंपरा के ईसा मसीह ने उपदेश दिया था कि 'दुष्ट विचार, हत्या, व्यभिचार, झूठी गवाही और देवनिंदा का उदय 'ह्रदय में होता है।" किंतु पैगंबर मुहम्मद ने ईसा मसीह से कुछ नहीं सीखा। यह कहना पडेगा कि पैगंबर ने एक बाह्याचारी मजहब की स्थापना की। 
अंतर को शुद्ध किए बिना किसी श्रेष्ठ सदाचार की सृष्टि नहीं हो सकती। मजहबी निष्ठा कभी भी अंतर की शुद्धि, आत्मबोध और अंतर के सुसंस्कार का स्थान नहीं ले सकती। अशुद्ध ह्रदय तो मनुष्य की तृष्णा, हिंसा वृत्ति तथा कामुकता को ही आवृत कर पाती है। अशुद्ध ह्रदय निष्ठा का बाना ओढ़कर एक अल्लाह नामधारी ऐसे पिशाच की पंथमीमांसा ही प्रस्तुत कर सकता है जो काफिरों के खून का प्यासा रहता है। अशुद्ध ह्रदय में जिहाद, लूटखसोट और कर संग्रह की भूख ही भरी रहती है।

जहां दार्शनिक चिंतन का अभाव है और अंतर को सुसंस्कृत बनाने का अभ्यास नहीं किया जाता, वहां उदात्त भावों का उदय हो ही नहीं पाता। ऐसा मजहब हमारे ऊपर एक बाह्याचार ही लाद सकता है, और बाह्याचार के विरुद्ध हमारे अंतर में अनास्था और विद्रोह रहते हुए भी हमें उसका पालन करने के लिए विवश करता है।""  

यह कथन इसी बात को पुष्ट करता है कि इस्लाम एक बाह्याचारी धर्म बनकर रह गया है और जब तक मुसलमान अंतर्मुखी हो इस बात पर गौर नहीं करते और आचरण में नहीं लाते कि, पैगंबर ने मक्काकाल में हीरामठ (गुफा) में बैठकर जो चिंतन मनन किया था वह शांति और ज्ञान प्राप्ति के लिए ही किया था और जो कुरान की पहली पांच आयतें उन्हें प्राप्त हुई थी उसका पहला वाक्य ही है 'इकरा" अर्थात्‌ पढ़, पैगंबर की एक हदीस है 'ज्ञान प्राप्ति के लिए चीन भी जाना पडे तो जाओ", इस्लाम एक बाह्याचार पर जोर देनेवाला धर्म ही बना रहेगा।