Friday, May 30, 2014

क्या मध्यपूर्व ईसाई विहीन हो जाएगा 

मध्यपूर्व सेमेटिक धर्मों (यहूदी, ईसाई और मुस्लिम) की जन्मभूमि है। सन्‌ 1914 में मध्यपूर्व की आबादी का लगभग 25 प्रतिशत ईसाई था। परंतु, अब वह केवल पांच प्रतिशत रह गया है। नवंबर 2013 में क्रिश्चियन पादरियों की बैठक में इस पर चिंता प्रकट करते हुए पोप फ्रांसिस ने कहा था, हम चुपचाप बैठकर ईसाईविहीन मध्यपूर्व की कल्पना कर नहीं सकते। आज जब वैश्विकरण के कारण दूरियां घट रही हैं विभिन्न देशों में भिन्न-भिन्न धर्म, वंश, मूल, रंग, महाद्वीपों के लोग रह रहे हैं। प्रजातंत्र, समानता, व्यक्तिगत स्वतंत्रता, धार्मिक सहिष्णुता-अधिकारों के सिद्धांतों को सर्वव्यापी मान्यता मिलती जा रही है। ऐसे में मिस्त्र, सीरिया, इराक से ईसाइयों के पलायन, उनके उत्पीडन और उनके पूजास्थलों के जलाए जाने, उनसे असहनीय संरक्षण कर की मांग की घटनाओं के कारण वे वहां से पलायन के लिए बाध्य हो रहे हैं। इस कारण पोप को इस प्रकार का बयान देना पड रहा है।

पोप की चिंता निश्चय ही जायज है। क्योंकि, वे इस्लाम के इतिहास से वाफिक हैं कि किस प्रकार से पूर्व में खलिफाओं के काल में ईसाइयों को इसी प्रकार की परिस्थितियों का सामना करना पडा था और ईरान को तो देखते-देखते अग्निपूजक पारसी विहीन ही कर दिया गया था। दअवतुल कुरान भाष्य खंड 2, पृ. 1125 से हमें ज्ञात होता है कि, जब इस्लाम अवतरित हुआ तब अरबस्थान में छः धर्म थे ः ''मुसलमान, यहूदी, साबिई, ईसाई, मजूसी (अग्निपूजक पारसी) और बहुदेववादी (मूर्तिपूजक)।"" लेकिन ये सब समय के साथ गायब होते चले गए यह कैसे हुआ? 

सन्‌ 639 में दूसरे खलीफा उमर ने सेनापति अमर बिन अल-आस को येरुशलेम जीतने का आदेश दिया जो कि सेमेटिक धर्मों की पुण्यभूमि है और इसे 'पैगंबरों का शहर" भी कहा जाता है। पैगंबर मुहम्मद की 'मेराज" (स्वर्गारोहण) यात्रा के समय उनको ले जानेवाला घोडा कुछ समय के लिए यहां रुका था उस समय यहां की एक चट्टान पर उनके पद चिन्ह अंकित हुए थे और तभी से यह भूमि मुस्लिमों के लिए पवित्र है। पैगंबरत्व के आरंभिक चौदह वर्षों तक मुहम्मद साहेब और मुसलमान यरुशलेम की ओर ही मुंह करके नमाज पढ़ा करते थे। मक्का-मदीना के बाद यही स्थान मुसलमानों के लिए पवित्र है।

दस दिनों के घेरे के बाद भी विजय हासिल नहीं हुई। इसके बाद सेनापति उबैदा सहायता के लिए आया। उबैदा ने वहां के गव्हर्नर और जनता को लिखित सूचना भेजी कि, ''हमारी मांग है कि, तुम प्रतिज्ञापूर्वक जाहिर करो कि, अल्लाह एकमात्र है और मुहम्मद उसके पैगंबर हैं। अगर तुम्हें यह मान्य न हो तो जिजिया दो और हमारे मांडलिक बनो। अगर तुमने इसे नकार दिया तो मैं ऐसे लोग लेकर आया हूं कि, तुम लोग जितना सुअर के मांस और शराब पर प्रेम करते हो उससे अधिक वे मृत्यु पर प्रेम करते हैं। मैं तुममें से लडनेवाले मनुष्यों का कत्लेआम किए और तुम्हारे बच्चों को गुलाम बनाए बगैर यहां से हिलनेवाला नहीं।"" इस समय मुस्लिम सैनिक प्रार्थना करते समय कुरान की ''ऐ मेरी कौम के लोगों! इस पवित्र धरती में प्रवेश करो जो अल्लाह ने तुम्हारे लिए सुनिश्चित कर दी है। और पीछे न हटो वरना नामुराद हो जाओगे।"" (5ः21) इस आयत का जोर-जोर से पाठ करते थे। 

उबैदा ने घेराबंदी में चार महिनों तक किसी प्रकार की ढ़ील नहीं दी। अंत में बिशप ने संवाद साधा कि, ''क्या तुम्हें यह मालूम नहीं है कि यह पवित्र शहर है और इस पुण्यभूमि में जो हिंसा करता है वह ईश्वर के कोप को निमंत्रित करता है।""

उबैदा ने उत्तर दिया ''हां, हमें मालूम है कि, यह पैगंबरों की भूमि है। यहां वे चिरविश्राम कर रहे हैं। यहीं से पैगंबर मुहम्मद ने स्वर्गारोहण किया था। हमें मालूम है कि, तुम से अधिक इस भूमि के योग्य हकदार हम हैं। अल्लाह जब तक यह शहर हमारे कब्जे में दे नहीं देगा, तब तक हम यह घेराबंदी नहीं उठाएंगे।""

बिशप ने शहर की शरणागति का निर्णय लेते हुए उबैदा को कहलवाया कि, शरणागति स्वीकारने और करार करने के लिए खलीफा स्वयं यहां आएं। सेनानियों ने विचार किया कि 'जब बिना शस्त्र काम हो रहा है तो व्यर्थ खून क्यों बहाया जाए?" खलीफा उमर ने अपने सहयोगियों से विचार-विमर्श किया। अली (पैगंबर मुहम्मद के दामाद और चौथे खलीफा) ने कहा कि, यरुशलेम यहूदी और ईसाइयों का पवित्र शहर होने के कारण खलीफा को स्वयं वहां जाना चाहिए।

इस अनुसार खलीफा यरुशलेम के लिए रवाना हुए। सर्वप्रथम वे मौके के स्थान जबिया जहां से दमास्कस, जॉर्डन, यरुशलेम  आदि सभी दिशाओं की ओर रास्ते निकलते थे पहुंचे। वहां के बिशप खलीफा से मिलकर करार करने के उद्देश्य से पहुंचे। करार के अनुसार वहां के ईसाइयों की जान-माल की रक्षा प्रदान की गई। इसके लिए वहां के लोगों को विशिष्ट दर से जजिया देना था। उन्हें धार्मिक स्वतंत्रता दी गई। परंतु, यहूदियों को शहर में रहने से प्रतिबंधित किया गया। शर्त के अनुसार उन्हें रोमनों से लडते समय   मुसलमानों की सहायता करना होगी। जिन्हें यह करार मान्य न हो वे वहां से निकल जाने की स्वतंत्रता प्रदान की गई।

करार की शर्तें इस प्रकार से थी- 1. ईसाई वहां नए चर्च ना बनाएं। 2. वर्तमान में स्थित चर्चों के दरवाजे मुस्लिम यात्रियों के लिए खुले रखे जाएं और उनमें मुस्लिमों को तीन दिन और रात रुकने की अनुमति हो। 3. चर्च के घंटे की आवाज एक ही बार आना चाहिए। 4. चर्च पर क्रॉस ना लगाया जाए ना ही किसी सार्वजनिक स्थान पर लगाया जाए। 5. ईसाई स्वयं के बच्चों को कुरान ना पढ़ाएं। 6. अपने धर्म के संबंध में खुले तौर पर कुछ ना बोलें। 7. अन्य लोगों का धर्मांतरण करने के प्रयत्न ना करें। 8. अपने रिश्तेदारों को इस्लाम स्वीकारने से ना रोकें। 9. वे मुस्लिमों जैसा पोशाक न करें, उनकी जैसी टोपी, पगडी या चप्पलें ना पहनें। उनके जैसे बाल ना बनाएं। 10. वे अलग दिखें इसलिए कमर पट्टा उपयोग में लाएं। 11. सिक्कों पर अरबी भाषा का प्रयोग ना करें। 12. वे मुस्लिमों जैसा सलाम ना करें। 13. मुस्लिमों जैसे उपनाम ना रखें। 14. कोई मुसलमान सामने आए तो खडे रहें और उसके बैठने के बाद ही बैठें। 15. वे प्रत्येक मुस्लिम यात्री का अपने घर पर तीन दिन आतिथ्य करें। 16. वे शराब ना बेचें। 17. शस्त्र धारण ना करें। 18. घोडे या ऊंट पर सवारी करते समय जीन का उपयोग ना करें। 19. जो पहले किसी मुसलमान के यहां नौकरी में हो उसे अपने यहां नौकरी ना रखें। इन शर्तों को स्वीकारने और इनकी मर्यादा में ही खलीफा उमर ने उन्हें जान-माल की सुरक्षा, चर्च उपयोग में लाने की छूट और धार्मिक स्वतंत्रता का आश्वासन दिया। इस करार पर इतिहासकार इरविंग का अभिप्राय बडा ही उल्लेखनीय है परंतु, लेख की सीमा को देखते हुए यहां नहीं दे रहे हैं। 

इसके बाद खलीफा उमर यरुशलेम पहुंचे वहां बिशप और शहरवासियों ने उनका स्वागत किया और शहर की चाबियां खलीफा को सौंप दी। अल्लाह ने यह पवित्र भूमि अपने को प्रदान की है इस बाबत अब उमर और मुसलमानों को कोई आशंका ना रही। इस समय उमर ने कुरान की (44ः25 से 28) आयतें कहीं। जो हरे-भरे खेतों, फलबागों और समृद्धी के संबंध में हैं। बिशप ने उन्हें वहां के सबसे बडे चर्च में प्रार्थना करने की विनती की। परंतु, उमर ने नकारते हुए कहा ः ''अगर मैंने यहां प्रार्थना पढ़ ली तो उसके आधार पर मुसलमान एक दिन इस चर्च को कब्जे में ले लेंगे और चर्च को मस्जिद बना देंगे।"" इसके बाद उन्होंने चर्च की सीढ़ियों पर नमाज पढ़ी उसी समय उस सीढ़ी पर एक समय में एक से अधिक मुसलमानों को नमाज पढ़ने से उन्होंने प्रतिबंधित किया था। परंतु, आगे चलकर उसकी बगल में ही मुस्लिमों ने मस्जिद का निर्माण किया और उन सीढ़ियों का आधा भाग और चबूतरा उसमें समाविष्ट कर डाला। पॅलेस्टाईन के अन्य भागों को जीतने के निर्देश दिए। बाद में अनेक शहरों के लोगों ने यरुशलेम के माफिक करार कर शरणागति स्वीकार की और इस प्रकार मुसलमान पॅलेस्टाईन के राजा बने।

इसी प्रकार इजिप्त की राजधानी अलेक्जांड्रिया को मुस्लिम सेनापति अमर ने निर्णायक लडाई लडकर जीत लिया और उस पर इस्लाम का ध्वज फहरा दिया। अलेक्जांड्रिया की संपत्ति लूटने के लिए मुस्लिम सैनिक अधीर हो रहे थे। उनके लिए लडाई का इहलोक का सच्चा बदला वही था। तलवार के बल पर विजय प्राप्त हुई होने के कारण वह उनका अधिकार ही था। सेनापति अमर ने खलीफा उमर से इस संबंध में मार्गदर्शन मांगा। उमर ने आदेश दिया कि, शहर में लूटमार न करने दी जाए, वहां की संपत्ति जनसेवा और धर्मप्रसार के लिए सुरक्षित रखी जाए। इसकी बजाए उन्हें देने के लिए इस्लाम का स्वीकार न करनेवाली जनता पर जजिया लगाने का आदेश दिया। इस संबंध में उमर का कहना था, ''जजिया युद्धलूट से अधिक लाभकारी है। युद्धलूट (कुछ लोगों के लिए ही होती है) शीघ्र समाप्त हो जाती है, तो जजिया (सभी लोगों के लिए और आगे भी) चलता रहता है।"" यहां उमर ने राज्य को मिली हुई संपत्ति बांटने के प्रस्ताव को ठुकरा कर मिलनेवाले जजिया से सैनिकों को पारिश्रमिक देने की योजना थी।

आदेशानुसार जजिया देनेवालों की गणना की गई। उनकी संख्या छः लाख निकली। प्रतिव्यक्ति दो दीनार जजिया लगाया गया। एक प्रमुख ने आकर विनती की कि, एकमुश्त रकम जजिया के रुप में ले ली जाए। तब अमर ने चर्च की ओर ऊंगली उठाकर उत्तर दिया ''अगर तुम मुझे इस जमीन से छत तक भर जाए इतना (धन) दिया तो भी मैं इंकार नहीं करुंगा। तुम हमारे लिए कमाई का साधन हो।""

आज वही परिस्थिति मध्यपूर्व के कुछ देशों में निर्मित हो गई है। एक समाचार के अनुसार जिस प्रकार से 'सातवीं सदी में ईसाइयों को खलीफा के संरक्षण में रहने के लिए आधा औंस सोना देना पडता था। सोना नहीं देने की स्थिति में दो विकल्प थे। या तो धर्मपरिवर्तन करो या फिर मरने के लिए तैयार रहो। फरवरी में उत्तर सीरियाई शहर रक्का में रहनेवाले 20 ईसाइयों को भी यह विकल्प दिया गया था। इस बार संरक्षण की कीमत 650 सीरियाई पौंड थी। युद्धग्रस्त क्षेत्र में दो वक्त की रोटी के लिए जूझ रहे लोगों के लिए यह धनराशी बहुत अधिक थी। ... रक्का के 3000 में से अधिकतर भाग चुके हैं। युद्ध और क्रांति से आक्रांत मध्यपूर्व के कुछ देशों में पिछले दस वर्षों से ईसाइयों की स्थिति कमोबेश रक्का के बचे हुए ईसाइयों के समान है। ... मिस्त्र में सत्ता परिवर्तन के  बाद ईसाइयों को साम्प्रदायिक हिंसा का कहर झेलना पडा था। मुसलमानों की भीड ने 63 चर्च जला दिए थे। 2003 से अब तक दस लाख ईसाई सीरिया से पलायन कर चूके हैं।"(दैनिक भास्कर 4मई 2014, पृ.10) ऐसी भीषण परिस्थितियों में पोप और वेटिकन की चिंता को अनुचित कदापि नहीं कहा जा सकता। क्योंकि, समाचार के अनुसार ''वर्तमान परिस्थितियों में 2020 तक मध्यपूर्व में ईसाइयों की आबादी एक करोड 20 लाख से घटकर आधी रह जाएगी।"" 

Wednesday, May 28, 2014

28 मई वीर सावरकर जयंती

Rate this Content 0 Votes

यात्रा वृतांत - आधुनिक तीर्थक्षेत्र ः 'अंदमान की सेल्यूलर जेल"


'वनवास" शब्द का उच्चारण करते ही जिस प्रकार से हर हिंदू के मानस में भगवान श्रीरामचंद्रजी का स्मरण हो आता है, ठीक उसी प्रकार से 'अंदमान" शब्द सुनते ही स्वातंत्र्यवीर सावरकरजी का स्मरण हो आता है। ऐसे इस अंदमान की यात्रा करने का सौभाग्य अचानक मुझे मिला इसका श्रेय माननीय राज्यसभा सदस्य (सांसद) श्री अनिल माधव दवेजी को जाता है। जिन्होंने बीते कुछ वर्षों से यह नियम सा बना रखा है कि प्रतिवर्ष कुछ लोगों को अंदमान की यात्रा पर ले जाकर वे वहां क्रांतिकारियों का महातीर्थ सेल्यूलर जेल की 'सावरकर कोठरी" (सावरकरजी ने अपने काव्य 'सप्तर्षी" में इस कोठरी का उल्लेख 'एकलकोंडी" (एकांतवासी) के रुप में किया है) के दर्शन उन्हें कराते हैं। जिससे कि यात्रीगण उन कष्टों, भीषण यंत्रणाओं के ताप की कल्पना कर सकें, जो उन्होंने वहां सहे, भोगे। उनके त्याग को महसूस कर सकें जो उन्होंने देश की स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए किए। देश को स्वतंत्रता ऐसे ही नहीं मिल गई। इसके पीछे क्रांतिकारियों का त्याग, बलिदान भी अहम्‌ था। इस सेल्यूलर जेल में अनेक क्रांतिकारियों ने अंग्रेजों की यंत्रणाएं सहते हुए, उनका विरोध करते हुए हौतात्म्य स्वीकारा। सावरकर ठीक ही कहते थे - क्रांतिकारियों की हड्डियों पर बसा है अंदमान।


हमारी यात्रा 26 अप्रैल को प्रातः प्रारम्भ हुई। हम कुल 9 लोग थे। 9 बजे दिल्ली विमानतल से हमने जेट एयरवेज द्वारा अंदमान के लिए प्रस्थान किया और लगभग 2 बजे दोपहर को अंदमान की राजधानी पोर्टब्लेयर के 'वीर सावरकर विमानपत्तन" पर पहुंचे। वहां से हम होटल सरोवर पोर्टिको पहुंचे जो शहर से दूर स्थित होकर सामने ही 'सी बीच" है। जहां हम हर रात को भोजनोपरांत जाकर कुछ समय तक समुद्री लहरों के उतार-चढ़ाव, उनकी गर्जनाओं को सुनते बैठे रहते। कहते हैं व्यक्ति हर चीज से कुछ समय के पश्चात ऊब जाता है, परंतु समुद्र तट पर बैठकर समुद्री लहरों की ओर देखते यदि हम घंटों बैठे रहें तो भी ऊबते नहीं। हर बार एक नएपन की अनुभूति होती रहती है।


भोजनादि से निपटने में हमें लगभग चार बज गए। चूंकि, इतनी देर बाद हम कहीं जा नहीं सकते थे अतः उस दिन शाम को समुद्र स्नान और बाद में रात्रि-भोजन के पश्चात समुद्र तट पर लहरों का आनंद लेने जा पहुंचे। उसी समय मुझे यह स्मरण हुआ कि इसी प्रकार से इंग्लैंड में एक शाम जब वीर सावरकर अपने मित्र के साथ समुद्र तट पर उदास एवं विमनस्क अवस्था में बैठे हुए थे तभी अचानक उनके मुख से 'सागरा प्राण तळमळला" इस अजरामर गीत की पंक्तियां फूट पडी। यह मान्यता है कि यदि वीर सावरकर ने अपने जीवन में इस गीत की रचना के अलावा और अन्य कोई महत्वपूर्ण कार्य ना भी किया होता तो भी इस रचना के कारण वे अमर हो गए होते। उनके विषाद का कारण था उनके अनुयायी मदनलाल धींगरा को फांसी की सजा और छोटे बंधु डॉ. नारायण सावरकर के कारावास की सूचना।


दूसरे दिन यानी दिनांक 27 को प्रातः 9 बजे हमने सेल्यूलर जेल के लिए प्रस्थान किया। जिसके लिए हम विशेष रुप से आए थे। आगे बढ़ने से पूर्व यह बता दूं कि 1947 में सरदार पटेल ने बडी दूरदर्शिता से इन द्वीपों को पाकिस्तान के अधिकार में जाने से बचाया था। उन्होंने एक जहाज को तिरंगा झंडा फहराने के लिए भेजा जिससे यह प्रमाणित हो सके कि यह भारत का क्षेत्र है। कुछ घंटों बाद वहां पाकिस्तान के जहाज देखे गए। उनकी आशंका सच निकली। भूगर्भ शास्त्रियों का कहना है कि, कभी ये द्वीप भारत की मुख्य भूमि से जुडे थे। इनका सबसे पहला उल्लेख दूसरी सदी के टोलमी ने किया है। मार्कोपोलो के यात्रा वर्णनों में भी इनका उल्लेख है। डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल ने 'मत्स्य पुराण" और 'वायुपुराण" संदर्भ से इन्हें 'इंद्र द्वीप" और 'नाग द्वीप" नाम दिया था।


अंडमान निकोबार को सच्चे अर्थों में 'लघु भारत" कहा जा सकता है। (यह एक अन्य लेख का विषय है) यहां प्रायः सभी राज्यों, धार्मिक परंपराओं, रीतिरिवाजों और भाषाओं के लोग बडे सौहार्द से रहते हैं। यहां न तो सांप्रदायिकता है ना ही धार्मिक संकीर्णता। इसका कारण है देश के विभिन्न अंचलों के लोग जो जेलों में बंद थे बाद में कैदी बस्तियों में रहने लगे उनके बीच विवाह संबंध हो गए। एक नए समाज का जन्म हुआ जिन्हें अंगे्रजों ने लोकल (भूमिपुत्र) नाम दिया। यहां की संपर्क भाषा हिंदी है। यहां की हिंदी का स्वाभाविक प्रचलन भले ही टूटा-फूटा हो परंतु, भारत की मुख्य भूमि के लिए एक आदर्श प्रस्तुत करता है जहां आज भी हिंदी को स्वीकारने में न नुच की जाती है।


भारत प्रायद्वीप के पूर्व में गंगा-सागर (बंगाल की खाडी) में कोलकाता से 1255 कि.मी. और चेन्नई से 1190 कि.मी. की दूरी पर छोेटे-बडे 554 द्वीपों का पन्ने सा चमचमाता द्वीप-पुंज है 'अंदमान-निकोबार"। मुख्य भूमि से अतिदूर, निर्जन, उपेक्षित इस प्रदेश से आधुनिक विश्व तब परिचिय हुआ, जब ब्रिटिश शासकों ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के सेनानियों के लिए एक सुरक्षित कारागार के रुप में सेल्यूलर जेल की स्थापना 10 मार्च 1858 को जब आगरा (उत्तरप्रदेश) का कुख्यात कारा अधीक्षक डॉ. जेम्स पेटीशन वाकर 500 भारतीय स्वाधीनता सेनानियों (बंदियों) को लेकर इस बीयाबान पर उतरा। बंदियों को दहशत में रखने तथा किसी प्रकार पलायन के अवसर शून्य होने के कारण साम्राज्यवादी ब्रिटिश शासकों ने सेल्यूलर जेल के फैलाव की सतत कोशिशें की। वीर बलिदानियों के जत्थे यहां सतत आते रहे। इसी क्रम में लंदन में बेरिस्टरी को निमित्त बनाकर परंतु स्वाधीनता संघर्ष के मंतव्य से पहुंचनेवाले इस वीर को अंग्रेजों ने 4 जुलाई 1911 को अंदमान के कारावास में पहुंचा दिया। यहीं पर अंदमान का राष्ट्रीय दृष्टि में एक उज्जवल रुप सावरकरजी के मनमस्तिष्क में उभर कर मानो साकार हुआ उसका वर्णन सावरकरजी की आत्मकथा 'आजन्म कारावास" में शब्दबद्ध है।


इस कारागार का निर्माण कार्य 1896 से 1906 तक चला। इस कारागार में सौ-सौ कोठरियों की तीन मंजिला इमारतों की सात पंक्तियों का समूह है। इसका आकार एक तारे के समान है। इसका निर्माण बडी ही होशियारी से किया गया है। सारी इमारतें एक मध्यवर्ती टॉवर से जोडी हुई हैं। इनमें से एक इमारत का आगे का भाग और दूसरी इमारत का पीछे का भाग एकदूसरे के सामने हैं। इस कारण कैदी एक दूसरे को देख नहीं पाते थे। इसी कारण पहले सावरकरजी को पता ही नहीं चला कि उनके बडे भाई गणेश दामोदर सावरकर (बाबाराव सावरकर) भी यहां सजा काट रहे हैं। एक दिन अचानक वे उनके सामने आ गए और वे अवाक्‌ रह गए। सबसे छोटा भाई भी एक बमकांड में गिरफ्तार होकर जेल में था। इस प्रकार तीनों भाई कारावास में थे ऐसा उदाहरण दूसरा कोई नहीं मिलता। वर्तमान में मात्र तीन इमारतें ही शेष बची हैं। बाकी की चार इमारतें 1942 के जापानी हमले में ध्वस्त हो गई। वर्तमान में वहां एक हॉस्पिटल है।


स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के बलिदान की स्मृति और सम्मान में 1979 में तत्कालीन प्रधानमंत्री स्व. मोरारजी देसाई ने सेल्यूलर जेल को राष्ट्रीय स्मारक घोषित किया। ऐसे इस जेल के परिसर में हम एक भव्य प्रवेश द्वार से प्रविष्ट हुए। अंदर दीवारों पर जेल की ऐतिहासिक जानकारी दी गई है। हमें गाईड की कोई आवश्यकता ही नहीं थी क्योंकि, हमारे साथ श्रीअनिलजी जो थे जो प्रतिवर्ष यहां आते ही हैं। यहां एक छोटासा संग्रहालय है जो बलिदानियों की स्मृतियों को आनेवालों के मस्तिष्क में ताजा कर देता है।

संग्रहालय से बाहर आने पर एक खुले परिसर में हम आते हैं जहां सामने ही एक बडा पीपल का पेड है जो सेल्यूलर जेल के निर्माण के पूर्व से ही है। कुछ समय पूर्व यह गिर गया था, परंतु सरकार ने दस लाख रुपये खर्च कर इसे पुनर्जीवित कर दिया। वीर सावरकर सहित कई स्वतंत्रता के सेनानियों के हौतात्म्य का यह साक्षी है। बांई ओर एक बडे चबूतरे पर हुतात्माओं की स्मृतियों को जागृत रखनेवाला एक स्मारक स्तंभ है। उसके निकट ही पवित्र क्रांतिज्वाला स्थापित है से वीर सावरकर के उद्‌गारों को दुराग्रहपूर्वक तत्कालीन मंत्री मणिशंकर अय्यर ने कुछ वर्ष पूर्व मिटा दिया था। उन पंक्तियों का भावार्थ इस प्रकार से है -

'हमने (देशभक्ति का) यह व्रत नासमझी से नहीं, तो हमारे स्वभावानुसार इतिहास के प्रकाश में सोच समझ कर लिया है। जो निश्चय ही दिव्य दाहक है, ऐसा यह असिधाराव्रत हमने परस्पर अपनाया है।" इन पंक्तियों में अनुचित कुछ भी नहीं परंतु राजनीति की माया देखिए कि इन्हें भी मिटा दिया गया।


हम आगे बढ़े और पहले जेल के मध्य स्थित टॉवर जिससे सातों इमारतों में जाने का मार्ग था में आए। इस टॉवर में बैठकर एक ही कर्मचारी सभी इमारतों के कैदियों पर नजर रख सकता था। क्योंकि, कैदी आखिर भागकर जाता भी तो कहां? चारों ओर घना जंगल और समुद्र के सिवा कुछ ना था। (वैसे यहां भी एक अपवाद है और वह एक कैदी था दूधनाथ तिवारी जिसके बारे में जानकारी किसी ओर लेख द्वारा दूंगा) इस टॉवर की दीवारों पर प्रमुख स्वतंत्रता सेनानियों के नाम उकेरे हुए हैं। हम सब लोग एक असीम इच्छा से उस कोठरी क्रमांक 123 जो तीसरी मंजिल पर स्थित है की ओर दर्शन की अभिलाषा से बढ़े जहां वीर सावरकर को दोहरा आजन्म कारावास (50 वर्ष) भुगतने के लिए रखा गया था। जब देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्रप्रसाद यहां आए थे तो प्रतिकात्मक स्मारक कोठरी न. 42 में बनाया गया था। मन में यह जानने की उत्सुकता थी कि, कैसी होगी वह कोठरी? उस कोठरी की दीवारों पर 'कमला काव्य" की पंक्तियां क्या अद्याप भी हैं? दिल की धडकनें बढ़ने लगी। कोठरी को दो दरवाजे और दो ताले थे जिनकी रचना एकदम अलग थी। सावरकर डेंजरस कैदी जो थे, उनके गले में 'डी-डेंजरस" का बिल्ला भी लटका रहता था।


उस स्वातंत्र्य वीर के मंदिर रुपी गर्भगृह की दीवार पर सावरकरजी का कैदी के रुप में छायाचित्र लगा है। उस पर अमर काव्य 'कमला" की दो पंक्तियां उद्‌धृत हैं। लेकिन दीवारों पर कोई पंक्ति अब नजर नहीं आती, दीवारें बिल्कूल सामान्य दीवारों की तरह ही हैं। कमरे में दो तसले रखे हुए थे जिनमें से एक सावरकरजी भोजन के लिए और दूसरा शौच के लिए उपयोग में लाते थे। जब उन्हें आंव हुई थी तब उन्होंने दोनो ही तसलों का उपयोग शौच के लिए किया था, परंतु उन्हें कोई अन्य सुविधा नहीं दी गई। अमानवीय घोर यंत्रणाओं की यह पराकाष्ठा है। सन्‌ 1943 में नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने इस जेल को भेंट दी थी। यहां हम कुछ देर स्तब्ध से खडे रहे फिर कुछ समय तक हम शांत बैठे रहे। कुछ ही देर में हम पसीने से भीग गए।


नीचे उतरकर हम फांसीघर की ओर बढ़े जो वीर सावरकर की कोठरी के सामने होकर सहज ही नजर आती है। यहां एक साथ तीन लोगों को फांसी पर चढ़ाया जाता था। निकट ही फांसी पूर्व स्नान और अंतिम क्रिया की व्यवस्था थी । वीर सावरकर का नैतिक बल और धैर्य को समाप्त करने तथा कैदियों का आक्रोश उनके कानों पर पडे इस उद्देश्य से उनकी कोठरी जानबूझकर फांसीघर के निकट रखी गई थी। परंतु, वे दृढ़ इच्छा शक्ति के स्वामी थे उन्होंने इन अत्याचारों को भी सह लिया और अपनी काव्य प्रतिभा को मरने नहीं दिया उसीका फल था उनका महाकाव्य 'कमला" जिसकी दस हजार पंक्तियां जो उन्होंने नाखुनों और खिलों से दीवारों पर उकेरी थी। जेल की भव्यता देख कोई भी चकित हो सकता है। जेल परिसर में ही एक पत्रे का शेड है। इस कार्यशाला में तेल की घानी घूमाकर कैदियों से तेल निकलवाया जाता था। नारियल के रेशों को कूटकर रस्सी गूंथवाई जाती थी। शेड में पुराना 'कोल्हू" रखा हुआ है इसी प्रकार से नारियल के रेशों से रस्सी बनाने का यंत्र भी यहां है।


शाम को हम फिर यहां 'लाइट एंड साउंड" कार्यक्रम देखने के लिए आए। उसमें क्रुर जेलर बारी द्वारा कैदियों को दी गई भयानक यातनाओं का वर्णन सुना। यह पूरा कार्यक्रम उसी पीपल के पेड और सर्वसाक्षी सूर्य को रखकर बनाया गया है जिसका उल्लेख हम पूर्व में ही कर चूके हैं। लेकिन इस कार्यक्रम में खलनेवाली बात यह है कि वीर सावरकर को उतना महत्व जिनके कारण ही अंदमान को पहचाना जाता है नहीं दिया गया है जितना की दिया जाना चाहिए था। इसमें संशोधन की आवश्यकता है। हमारा अंदमान आने का उद्देश्य पूर्ण हो चूका था। इसके बाद हम एक दिन और रुके हमारे साथ के कुछ ने नार्थ बे द्वीप पर जाकर स्कूबा डायविंग का आनंद उठाया और 29 तारीख को हमने वापसी की यात्रा प्रारंभ की। हम भले ही अधिक नहीं घूमे परंतु पर्यटकों के लिए यहां बहुत कुछ है परंतु लेख की भी सीमा है इसलिए मैं यहीं विराम देता हूं। 

Friday, May 23, 2014

अनोखा व्हिजन्‌ नरेंद्र मोदी का


नरेंद्र मोदी कुछ बातों को बार-बार दोहरा रहे हैं, उन पर जोर दे रहे हैं जो उनकी सोच, कार्यपद्धति और व्हिजन को दर्शातेे हैं। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के लंबे समय तक प्रचारक रहने के कारण उनकी सोच है - सर्वे भवन्तु सुखीनः सर्वे सन्तु निरामयः। मोदी की कार्यपद्धति है planning in advance,and planning in detail और व्हिजन है देश के लिए जीना। वे लोगों की भावनाओं को उभारने में माहिर हैं। लोगों की भावनाओं को उभारकर, उन्हें वोटों में तब्दील कर उन्होंने आश्चर्यचकित कर देनेवाली सफलता हासिल कर ली है। अब वे इन जनभावनाओं को चुनाव में जीतने के बाद अपने साथ जोडकर देश के लिए जीना है की ओर मोड रहे हैं।
वे कह रहे हैं हमें देश की आजादी के लिए लडने, जेल जाने, यातनाएं भोगने को नहीं मिला तो क्या हमें देश के लिए जीना है। इसे सर्वांगीण विकास के रास्ते पर ले जाना है। यह संघ की ही तो विचारधारा है। संघ की प्रार्थना में यह पंक्ति आती है 'परम्‌वैभवम्‌ नेतुमेत स्वराष्ट्रं" अर्थात्‌ हमें अपने देश को परम वैभव की ओर ले जाना है। इसीके लिए हम संघ के स्वयंसेवक बने हैं। गुजरात में उन्होंने इसी प्रकार से गुजराती अस्मिता को जगाकर पूरे गुजरात को अपने साथ जोड लिया और अब बारी है पूरे देश की।


उदाहरणार्थः काशी में चुनावी विजय के पश्चात काशी की जनता के साथ सीधे संवाद साधते हुए उन्होंने कहा काशी के विकास के लिए सफाई आवश्यक है। गांधीजी का उदाहरण देते हुए सब सफाई में जुट जाएं का संदेश दिया। बात सही भी है हम स्वयं ही देख लें कि हमारे मुहल्ले, गलियां, शहर, रास्ते, बस स्थानक, रेल्वे स्टेशन, बसें-रेलें यहां तक कि मंदिर और तीर्थस्थल तक कितनी गंदगी से पटे पडे हैं। कोई भी नाक भौं सिकोडने के लिए मजबूर हो जाएगा। यदि हम सफाई पसंद हो जाएं तो निश्चय ही पर्यटन बढ़ेगा। पर्यटन को बढ़ावा यह मोदी की विकास की नीतियों का एक अंग है। किसी भी नीति की सफलता के लिए जनता का उसमें सहभाग आवश्यक है और इसके लिए जनता को अपने साथ भावनिक और वास्तविकता के धरातल पर जोडना, उनके साथ सीधे संवाद कायम कर उन्हें विश्वास दिलाना कि वे उनके साथ हैं, आवश्यक है और इसमें मोदी माहिर हैं जो गुजरात को देखकर जाहिर होता है। यदि यह भावनाएं कायम रही, मोदी अपने कार्यों द्वारा यह कायम रखने में सफल रहे तो, मोदी की राह निश्चय ही सरल हो जाएगी।


दूसरी बात जिस पर मोदी जोर दे रहे हैं वह है 'सबका साथ सबका विकास" गुजरात में यही बात 'सौनो साथ-सौनो विकास" कहकर प्रचारित की गई और उसमें उनको सफलता भी मिली। उदाहरण के लिए वहां जून माह में शाला प्रवेशोत्सव मनाया जाता है जिसके तहत मंत्री से लेकर विभिन्न स्तर के अधिकारी उन गांवों को चिन्हित करते हैं जहां सरकारी स्कूलों में 'इनपुट' कम है। वे वहां दौरा कर वहां के लोगों-बच्चों की मानसिकता को समझ उन्हें स्कूल में आने के लिए प्रेरित करते हैं, प्रोत्साहन देते हैं। जिसमें सरकार को आशातीत सफलता भी मिली है। लेकिन विरोधी उन पर आरोप लगाते हैं कि वे उत्सवप्रिय हैं और हर बात को उत्सव में बदल देते हैं जैसे गुजरात का 'पतंग महोत्सव"। जो पूरे गुजरात में बहुत बडे पैमाने पर मनाया जाता है। इस उत्सव में सहभागी होने के लिए लोग बडी दूर-दूर से आते हैं, विदेशी भी बहुत बडी संख्या में आते हैं। इससे बडे पैमाने पर राजस्व की प्राप्ति होती है, पर्यटन को बढ़ावा मिलता है। पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए वे किस प्रकार से सक्रिय भूमिका निभाहते हैं यह अमिताभ बच्चन को गुजरात का ब्रांड एम्बेसेडर बनाने से पता चलता है। अमिताभ के रेडियो-टीव्ही पर आनेवाले विज्ञापनों के संवाद कितने आकर्षित करते हैं यह 'खुशबू है गुजरात की" से पता चलता है।


मोदी की नीति लोगों को जोडना उन तक अपना संदेश पहुंचाना उनके साथ सीधा संवाद स्थापित करना का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण है। चुनाव के समय उनकी चुनावी रणनीति के एक भाग के रुप में पूरे देश में आयोजित की गई 'चाय पे चर्चा"। जिसने उन्हें अपार लोकप्रियता दीलाई। जो जगह-जगह पर 'मोदी चाय", 'मोदी ज्यूस सेंटर" आदि के रुप में नजर आई। बाजार में मोदी कुर्ते नजर आने लगे, मोदी अपने आप में एक ब्रांड बन गए। मोदी ही देश के वे पहले राजनेता हैं जिन्होंने पांच रुपये का टिकिट उनकी सभा में प्रवेश के लिए रखा था। उस समय उनकी आलोचना हुई, मजाक उडाया गया लेकिन समय ने यह सिद्ध कर दिया कि लोग उन्हें सुनने आए, उनसे जुडे और स्थान ही कम पड गया। यह संघ की ही नीति है कि लोगों को जोडो। संघ का कहना है हम जोडने का काम करते हैं तोडने का नहीं यही तो मोदी ने साकार कर दिखाया।


संघ 'सर्वे संतु सुखीनः सर्वे संतु निरामयः" में विश्वास करता है जैसाकि पूर्व में ही कहा जा चूका है और यही हमारे प्राचीन ऋषियों का उद्‌घोष रहा है। यही हर हिंदू चाहता है, इसमें विश्वास करता है। इसी उद्‌घोष के कारण भले ही एक हिंदू व्यक्तिगत रुप से बुरा हो सकता है, परंतु समाज रुप में वह अच्छा ही होता है। इसी सोच को मोदी ने गुजरात में सख्त कानून व्यवस्था लागू कर गुजरात को दंगा-अराजकता विहीन राज्य बनाकर विकास के पथ पर ले जाकर दिखला दिया है। देश की जनता ने इस पर विश्वास किया और उन्हें सफलता मिली।


मोदी ने संसदीय दल की बैठक में अपनी सरकार को गरीबों, करोडों युवाओं और मान-सम्मान के लिए तरसती मां-बहनों के लिए समर्पित सरकार बतलाया। इस सबके लिए सुरक्षा अत्यावश्यक है। सुरक्षा के बिना विकास किसी काम का हो नहीं सकता। यदि आपसमृद्ध हैं, विकसित हैं लेकिन सुरक्षित नहीं, आपको सुरक्षा हासिल नहीं तो कोई भी आपको लूट ले जाएगा। उदाहरण के लिए आप-आपका राज्य समृद्ध है, उन्नत रास्ते हैं उन पर तेज गति से दौडनेवाली गाडियां (जैसेकि एसयूव्ही) हैं, लेकिन आपकी सुरक्षा व्यवस्था लचर है तो, चोर-उचक्के-डकैत आपको लूटकर एसयूव्ही में बैठकर अच्छे रास्तों से सैंकडों मील दूर भाग जाएंगे, ऐसा हुआ है और हो भी रहा है। नेहरुजी कहा करते थे मैं देश के विकास के लिए नए मार्गों का निर्माण कर रहा हूं इस पर सावरकरजी कहा करते थे मार्गों के निर्माण में कैसा विकास यदि सीमाएं सुरक्षित नहीं तो शत्रु इन्हीं रास्तों का उपयोग कर हम पर कब्जा जमा लेगा।


मोदी ने गुजरात की सुरक्षा के लिए शहरों को सीसीटीव्ही कैमरों से लैस कर रखा है इसलिए वहां अपराध कम हैं। सन्‌ 2006 में अहमदाबाद शहर में बम विस्फोट हुए थे गुजरात की मोदी सरकार सभी आतंकवादियों को 21 दिन में पूरे देश में वे जहां कहीं थे वहां से ढूंढ़-पकड लाई। मोदी का कहना है - आतंकवादी के पैर नहीं गला पकडो। सीधी सी बात है समृद्धि के साथ सुरक्षा जरुरी है। ईरान भी किसी जमाने अत्यंत समृद्ध था परंतु सुरक्षा व्यवस्था कमजोर होने और देश के लिए जीना है की भावना ना होने के कारण उसकी समृद्धि, उसके अग्निपूजक धर्म और संस्कृति का देखते-देखते नाश हो गया।


अब यहां सवाल यह उठता है कि जब गुजरात इतना सुरक्षित है तो वहां आयटी इंडस्ट्री क्यों नहीं? आयटी इंडस्ट्री वाले तो सबसे अधिक सुरक्षा पर ही बल देते हैं। तो, इसका उत्तर जानने की कोशिश करने पर यह मिला कि हां, यहा सच है कि गुजरात में आयटी इंडस्ट्री भले ही ना हो परंतु जितना 'इ-गव्हर्नंस" पर जोर गुजरात ने दिया है, अपनाया है उतना किसीने नहीं। वहां पेपर प्रोसीजर ना के बराबर है। गुजरात सबसे अधिक टेक्नोसेवी है। 'चाय पे चर्चा" भी इसका एक अच्छा उदाहरण है। जरा सोचिए इतने सारे टीव्ही सेट्‌स की व्यवस्था करना एकसाथ पूरे देश में लाखों लोगों के साथ संवाद स्थापित करना क्या कोई साधारण बात है। आखिर मोदी का यह नारा जो है 'मिनिमम गव्हर्नमेंट मेक्सिमम गव्हर्नंस"। 

Saturday, May 17, 2014

मोदी की ऐतिहासिक जीत का शिल्पकार संघ ही है !!

मोदी मोदी की जय जयकार आज पूरे देश में सुनाई पड रही है। मोदी के नेतृत्व में सन्‌ 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने जिसकी कल्पना भी की ना जा सके ऐसी विलक्षण और अविस्मरणीय विजय प्राप्त कर एक इतिहास रच दिया है । जो लोगों को असंभव सी ही लग रही थी। लेकिन यह संभव हो गया, एक नया इतिहास बन गया। इसका श्रेय लगभग सभी लोगों ने एक मुख से नरेंद्र मोदी को ही दिया जिन्होंने इस विजय प्राप्ति के लिए अनथक प्रयास किए। इसके लिए ऐतिहासिक रैलियां-सभाएं की और जनमानस को आंदोलित कर देनेवाले धाराप्रवाह भाषणों की झडी लगा दी। इस संबंध में बहुत कुछ लिखा जा रहा है, लिखा जाता रहेगा। परंतु, इस महानायक की अभूतपूर्व विजय का असली शिल्पकार है संघ।

श्री मोहन भागवत ने सरसंघचालक पद का दायित्व सम्भालने के कुछ समय पश्चात कहा था भाजपा फिनिक्स पक्षी की तरह राख के ढ़ेर से उठ खडी होगी। तब उनका यह वाक्य बहुत चर्चा में आया था। उस समय भाजपा बुरी तरह अंतर-कलह से ग्रस्त थी। कोई किसीकी नहीं सुन रहा था। भाजपा नेताओं ने अपना संतुलन खो दिया था और विसंगत भाषण कर रहे थे, प्रलाप कर रहे थे। मुझे अच्छी तरह याद है उस समय एक पत्रकार ने अपने एक लेख में लिखा था हिंदुत्ववादी वह है जो असभ्य हो, अभद्र भाषा का प्रयोग करनेवाला, बडबोला हो। ऐसी विपरीत परिस्थिति में मोहन भागवत ने भाजपा को पटरी पर लाना तय कर कदम उठाने प्रारंभ किए। 

नितिन गडकरी जो कि नागपूर के स्वयंसेवक हैं को संघ की इच्छा पर भाजपा का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया गया। विरोधी कसमसाकर रह गए। कुछ लोगों ने भाजपा के महाराष्ट्रीकरण का आरोप लगाना शुरु किया। एक समाचार पत्र ने तो यहां तक लिखा कि यदि भाजपा को बचाना है तो उसे कोंकणस्थ ब्राह्मणों से मुक्त करो। तो, एक समाचार पत्र ने भाजपा में संगठन मंत्री और पदाधिकारियों रुप में संघ के उन प्रचारकों की सूची छापी जो ब्राह्मण हैं इस प्रकार से भाजपा किस प्रकार से ब्राह्मणवादी है यह बताने का प्रयत्न किया गया। जबकि सत्य तो यह है कि आज भाजपा में चुने हुए जनप्रतिनिधियों में सर्वाधिक पिछडे, अनुसूचित जाति, जनजाति के लोग हैं और इस मोदी लहर (जिसे अभी भी कुछ लोग नकारने का दुस्साहस कर अपनी ईर्ष्या को ही प्रकट कर रहे हैं) ने जात-पात, धर्म, स्थानीयता, अगडा-पिछडा, प्रादेशिकता आदि सभी संकुचितताओं को उडाकर भाजपा जात-पात विरहित राजनीति करती है, संघ में इन भावनाओं को कोई स्थान नहीं है पर अपना ठप्पा लगा दिया है।

नितिन गडकरी अपना स्थान मजबूत कर कुछ कर दिखाते उसके पूर्व ही षडयंत्रकारियों ने अपने षडयंत्र को अंजाम दे दिया। नितिन गडकरी अपना इस्तीफा दे नागपूर वापिस लौट गए। संघ ने राजनाथ के रुप में अपने स्वयंसेवक की भाजपा के अध्यक्ष पद  पर ताजपोशी कर दी। श्री मोहन भागवत इस बात को भूले नहीं कि किस प्रकार संघ के चुने हुए अध्यक्ष की भाजपा के अंदरुनी षडयंत्रों के चलते विदाई हुई। उन्होंने अपनी पकड को और भी बढ़ाते हुए नरेंद्र मोदी को जो सन्‌ 1972 से संघ के प्रचारक थे और जिन्होंने गुजरात में भाजपा के कार्यविस्तार में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया था एवं अपनी गुड गव्हर्नन्स की योग्यता को गुजरात के सफलतम मुख्यमंत्री रहते सिद्ध कर चूके थे को आगे बढ़ाया, राजनाथ को उनका अनन्य सहयोगी बनाया।

पार्टी के नेताओं की महत्वाकांक्षाओं पर लगाम कसकर, अंदरुनी असंतोष, असहयोग, विरोध को कुचलते हुए भाजपा से नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रुप में प्रोजेक्ट करवाया और यह संघ की दूरदर्शिता थी कि उसने मोदी को गुजरात से बाहर निकाल कर इस मुकाम तक पहुंचाया। संघ ने मोदी एवं भाजपा को ऐतिहासिक जीत दिलवाने के लिए अपनी पूरी ताकत झोंक दी। यह संघशक्ति का ही कमाल था कि पूरे चुनाव में किसीकी भी हिम्मत भीतरघात करने की नहीं हुई। थोडी बहुत जानेअनजाने जो बयानबाजी हुई उसका भी समय रहते पार्टी और मोदी से खंडन करवा कर कोई विवाद उभरने के पूर्व ही शांत कर दिया गया। श्री भागवत ने यहां तक घोषणा कर दी कि प्रधानमंत्री बनेंगे तो मोदी ही बनेंगे वरना विपक्ष में बैठेंगे।

संघ के कार्यकर्ता संघ की कार्यपद्धति के अनुसार चुपचाप जुट गए, घर-घर पीले चावल लेकर गए बिना किसी दल का नाम लिए हिंदूजनजागरण के लिए पत्रक बांटे। जनता से अनिवार्य रुप से जाकर मतदान करने का आग्रह किया। इसीका परिणाम है कि मतदान का प्रतिशत बढ़ा और वह मोदी के ही पक्ष में गया। कई कार्यकर्ता सोशल साइट्‌स के प्रभाव को जानते थे इसलिए वे भी लंबे समय से भाजपा फिर मोदी के पक्ष वातावरण बनाने में जुटे गए थे। जिस प्रकार से गांधीजी ने आजादी की लडाई को जनआंदोलन में तब्दील कर दिया था उसी तर्ज पर संघ ने जनता को सुशासन, भ्रष्टाचार और कांग्रेस मुक्त भारत के मुद्दे पर आंदोलित कर दिया। पूरा देश मोदी-मोदी करने लगा और अंततः अद्‌भुत, अभूतपूर्व ऐतिहासिक विजय भाजपा को हासिल हुई। और पहली बार संघ का एक प्रचारक-स्वयंसेवक संघ के बलबूते स्वयं के पूर्ण बहुमत के साथ प्रधानमंत्री के पद पर आसीन होने जा रहा है।



Friday, May 16, 2014

मराठी माणसाची कर्तबगारी - भाऊचा धक्का

मुंबई कर्माला प्राधान्यदेणाऱ्या लोकांची महानगरी आहे. अशापैकींच एक होते लक्ष्मण हरिश्चन्द्र अजिंक्य ऊर्फ भाऊ (1789-1858). ते समकालीन होते इतिहासप्रसिद्ध नानाशंकरशेट, कावसजी फ्रामजी, कावसजी जहांगीर, बैरामजी जीजीभाईंचे. ज्यांचा मुंबईच्या जडण-घडणीत मोठा हात आहे. पण भाऊंची कर्तबगारी सगळ्यांवर मात करते. आता आपण त्याच कर्तबगारीचा एक आढ़ावा घेणार आहोत. 

भाऊंच्या कर्तबगारीचा काळ आहे 19व्या शतकातला. महाराष्ट्राला एक मोठा समुद्र किनारा लाभला आहे त्यामुळे अठराव्या शतकात मुंबईला एक व्यापारी बंदर म्हणून प्रसिद्धी लाभली. तसेतर त्याआधी पासूनच जलमार्गाने वाहतूक होते असे पण 1836 पर्यन्त माल किंवा उतारुंसाठी एक ही धक्का नव्हता विशेषकरुन कोंकण आणि गोव्याकडील जनतेचे यामुळे अतिशय हाल होत असत. त्यांचे हे कष्ट दूर करण्याकरिता पुढ़ाकार घेतला तो या भाऊ ऊर्फ भाऊरसेल यांनी. 

इंग्रजांची मूळ संस्कृति ती व्यापाराची. समुद्र हटवून धक्का बांधावा तर पैसा त्यांच्या हाताशी नाही. 'साहसे वसती लक्ष्मी" ही म्हण सार्थ करित भाऊंनी इंग्रजांकडून परवानगी मिळवली व हा धक्का स्वखर्चाने बांधला. म्हणून इंग्रजांच्या ईस्ट इंडिया कंपनीने धक्क्याचा वापर व माल चढ़-उतरविण्याचा ठेका कित्येक वर्षे भाऊला दिला त्यामुळे 'भाऊचा धक्का" हे वाक्य लोकांमध्यें प्रचारात आले. पण इंग्रज मंडळी मात्र त्याचा उल्लेख 'फेरी व्हार्फ" असा करित.   

सन्‌ 1835च्या दरम्यान भाऊ ईस्ट इंडिया कंपनीच्या गन कॅरिएज फेक्टरी (तोपखाना) मध्यें कारकून म्हणून काम करित होते. हुशार, हुन्नरी व इंग्रजी भाषेत निपुण भाऊंचे कर्तृत्व बघून तोपखान्याच्या अधिकारी कॅप्टन रसेलने त्यांना मजूरांकरिता उपहारगृह सुरु करण्यास सांगितले व भाऊंच्या उद्योगाची मुहुर्तमेढ़ रोवली गेली. त्या आधी त्यांनी एका मजूराला कठोर शिक्षेपासून वाचविल्यामुळे ते मजूरांमध्ये लोकप्रिय झालेच होते. मग त्यांनी क्लार्कीसोडून बिल्डर बनण्याचे ठरवून चिंचबंदर ते मस्जिदबंदरहून क्रॉफर्डमार्केट पर्यन्तची समुद्रसपाटीच्या पूर्वे पर्यन्त 10 ते 15 फूट खोल पाण्याखालची जमीन भरणीसाठी व रस्ता बांधणीसाठी कंपनी सरकारकडून मागितली व सर्वखर्च स्वतः करण्याचे मान्य केले. या मुळे प्रवाशांना तर हे सोयीचे ठरेलच पण शहराचा व्यापार देखील सुधारेल. 
सरकारकरिता हा प्रस्ताव नक्कीच फायदाचा होता. कंपनी सरकारने उदात्त हेतूने नव्हे तर स्वतःची अडचण ओळखून लक्ष्मण हरिश्चन्द्रला परवानगी मोठ्या आनंदाने दिली होती. याबाबतीत कलेक्टरने गव्हर्नरला केलेली शिफारस अत्यंत बोलकी आहे. 'लक्ष्मण हरिश्चन्द्रनी सुचविलेल्या सुधारणा सार्वजनिक हिताच्या खऱ्याच. शिवाय सध्याच्या समुद्रपट्टीवर चिकटलेली घरे व दाट वस्तीमुळे कस्टम खात्याला दाद न देता आखाती देशांबरोबर एतद्देशीयांचे जे तस्करी (स्मगलिंग) चालते त्याला ह्या भरणीमुळे आळा बसेल." यावरुन कळते की त्याकाळात देखील आखाती देशांबरोबर स्मगलिंग सारखे गुन्हे एतद्देशीय करित असत. कंपनी सरकारने स्वतःचे हित बघता ताबडतोब भाऊंना भरणी व रस्ता बांधणीच्या कामाची परवानगी दिली. सर्व खर्च भाऊ करणार असल्यामुळे मोबदल्यात नवीन जागेचा उपयोग माल चढ़-उतरविण्याचा मक्ता 50 वर्षे मोफत उपभोगात आणण्याकरिता त्यांना दिला.

भाऊ मोठे धूर्त, हुशार आणि धाडसी असे मराठी माणूस असून त्यांनी आधी भरती-ओहोटीचा अभ्यास केला आणि सोयिस्कर जागा निवडली. याच्या कित्येक वर्षानंतर पोर्ट ट्रस्टच्या अभियंत्यांना या कल्पना सूचल्या. भाऊंनी कॅप्टन रसेलच्या साह्याने आरखडा सादर केला. परवानगी मिळताच सपाट्याने काम सुरु केले. व्यापारी मनोवृत्तीच्या भाऊंना एक अफाट कल्पना सूचली की  जर कचरा भरणीकरिता उपयोगात आणला तर त्याचा लगदा जमीनीस चिकटेल व भरणी स्वस्त व सोयिस्कर देखील होईल. त्यांनी नगरपालिकेचा कचरापट्टीचा मक्ता घेऊन सर्व समुद्रखाडी भरुन काढ़ली व लाखोंनी खर्च वाचविला. पण झोपडपट्टीतील मुसलमान विरोधात उभे राहिले. आणि काझी शहाबुद्दीन आदि रहिवाशांनी नवीन होणाऱ्या मोकळ्या जागेमुळे स्मगलिंगला आळा बसेल म्हणून भाऊंचे हे काम सरकारकडून थांबविण्याचा प्रयत्न केला. पण सरकारने मात्र साह्य केले.

त्या काळात मोटारी नव्हत्या, मशीनी नव्हत्या, वीज देखील नव्हती अशाकाळात अशी अफाट कल्पना सूचणे व त्याकरिता अर्ज करणे अत्यंत धाडसीच म्हणावे लागेल ते धाडस भाऊंनी करुन दाखविले. लोकांनी त्यांना अशा अफाट धाडसाकरिता वेड्यात काढ़ले पण त्यांनी यशस्वी होऊन दाखविले. चार-पांच वर्षात बंदर पूर्ण तयार झाले. त्यांनी वखारी बांधल्या व हिंदुस्थानाचे वखारीयुक्त पहिले बंदर अस्तित्वात आले.

या भाऊच्या धक्क्याशी कोंकणी लोकांच्या भावना निगडित झाल्या. त्यात काही गोड तर काही कडू. रस्ते वाहतूकीच्या एस.टी. चा विस्तार झालेला नव्हता, तेव्हा कोकणाच्या लोकांना जलवाहतूकी शिवाय पर्याय नव्हता. स्वातंत्र्यपूर्व काळात तुकाराम, रामदास, रोहिदास अशी संतांची नावे असलेल्या बोटी चालत असत. सेंट झेविअर, सेंट अंथनी अशी ख्रिस्ती संतांची नावे असणाऱ्या, तर हिरावती, चंपावती, पद्मावती अशी सुंदर स्त्रीयांची नावे धारण करणाऱ्या बोटी खासगी कंपन्यांच्या चालत असत. 

तात्कालिक गव्हर्नर सर रॉबर्ट ग्रान्टने ब्रिटेनला जाण्यापूर्वी नव्या जागेची पाहणी केली होती. त्यावेळेस त्याने प्रसन्न होऊन टिपणामध्ये लिहले होते - 'ळ ुरी र्ीीीिीळूशव रीं ींहश िीेसीशीी ुहळलह हरी लशशप ारवश ळप ारसपळषळलळशपीं र्ीीशर्षीश्र ुेीज्ञ, ींहश ुहेश्रश ेष ींहश ीशींरळपळपस ुरश्रश्र हरी लशशप लेाश्रिशींशव, ींहश लरीळप षेी ीशलशर्ळींळपस ींहश लेरींी हरी लशशप िीशरिीशव, ळ लरपपेीं ींेे हळसहश्रू िीरळीश ींहश शपशीसू । र्िीलश्रळल ीळिीळीं ेष 'ङरुारप' ळप र्ीपवशीींरज्ञळपस र ुेीज्ञ ेष ींहळी ारसपर्ळींीवश.' 

लक्ष्मण हरिश्चन्द्र अजिंक्यनी मशीद बंदर ते मीटमार्केट (फुले मंडई) मधील जागेला नव्या येणाऱ्या गव्हर्नर सर जेम्स कॉरनक याचे नाव सुचविले ते सर ग्रांटने मान्य केले आणि तेव्हा पासूनच ती जागा कॉरनाक बंदर म्हणून प्रसिद्धिस आली. नवीन लीज कराराने भाऊंचे काम अवाढ़व्य वाढ़ले. मर्यादित गंगाजळीमुळे सरकार कडून कर्ज घ्यावे लागले. सरकारच्या चक्रवाढ़ी व्याजाने ते सरकारच्या जाळ्यात पुरते अडकले पण कसेबसे कायद्याच्या कचाट्यातून सुटले तरी देखील त्यांचे पूर्वीचे बॉस आणि आता मित्र कॅप्टन रसेल मात्र नौकरीतून बडतर्फ केले गेले. हीच जोडगोळी भाऊरसेल ऊर्फ भाऊरसूल म्हणून प्रसिद्ध होती. 19 ऑक्टोबर 1858 मध्यें त्यांचे निधन झाले.

आकुरली (कांदीवली पूर्व), चिंचवली (मलाड पश्चिम) आणि दिंडोशी (गोरेगांव पूर्व) या तीन गावांची खोती हक्क ईस्ट इंडिया कंपनीकडून भाऊंनी घेतले होते. पण आज ह्या घराण्याच्या मालकीची अशी टीचभर जागा देखील ह्या विस्तीर्ण मुंबईत नाही. मुंबई महानगरपालिकेने अवश्य कॉरनक बंदराकडे जाणाऱ्या रस्त्यामधील चौकाला भाऊ लक्ष्मण अजिंक्य चौक असे नाव देऊन त्यांची स्मृति जागी ठेवली आहे. आता हेच मुंबईच्या मराठी-कोंकणी लोकांच्या पुढ़ील अनेक पिढ्यांना स्फूर्ति देणारे भाऊंचे स्मारक आहे. भाऊच्या धक्क्याची ऐतिहासिक कागदपत्रे महाराष्ट्र शासनाच्या पुराभिलेखाविभागात उपलब्ध आहेत.

Tuesday, May 13, 2014

14 मई 2014 बुद्ध पूर्णिमा


बौद्ध धर्म में हिंदू देवी - देवता


बौद्ध दर्शन को नास्तिक कहा गया है इसका कारण यह है कि वह वेदों को प्रमाण नहीं मानता था साथ ही बुद्ध ने नास्तिक के सामान्य अर्थ को भी प्रतिपादित किया कि वह ईश्वर को नहीं मानता, निरीश्वरवादी है। इसके पीछे उनका तर्क था कि यदि वह भला और सर्वशक्तिमान है तो फिर संसार में दुःख ही दुःख क्यों है? मनुष्य के जीवन में अनुकूल कम प्रतिकूल परिस्थितियां ही अधिक क्यों है? भलाई चाहने के बावजूद बुराइयों का अन्त करने में वह समर्थ क्यों नहीं? तो ऐसे ईश्वर की उपासना क्यों की जाए?


फिर भी बौद्ध धर्म के अनुयायी हिंदुओं के समान ही अनेकानेक देवी देवताओं की पूजा करते हैं। राजा हर्षवर्धन बुद्धोपासक था, शिवोपासक और सूर्योपासक भी था। बौद्ध धर्म में शिव, वरुण और कुबेर समान रुप से पूजनीय हैं। अन्य देवता यानी सूर्य, आदित्य, रवि, दिनकर (सूर्य के नाम) स्कंद, सरस्वती, उपेन्द्र, मरुत्‌, श्री, सोम, चन्द्रमा, वायु, हरिशंकर, पृथ्वी के अलावा नारायण भी है ही। वास्तव में जिस प्रकार से सामान्य हिंदू को ब्रह्म, आत्मा, मोक्ष, द्वैत-अद्वैत-द्वैताद्वैत इस प्रकार की झंझटों का अर्थ नहीं समझता उसी प्रकार से बौद्ध उपासकों को भी शून्यता, निर्वाण आदि बातों का अर्थ नहीं समझता। परंतु, अपने से श्रेष्ठ ऐसी कोई तो भी शक्ति है और उसके किसी ना किसी स्वरुप कल्पना की जाए जिसके आगे अपन नम्र हो सकें और हो सके तो उसकी कृपा का प्रसाद अपन पा सकें। यह जो सामान्य आकांक्षा है वह हिंदू-बौद्ध का भेद नहीं मानती। मूलतः ही हिंदू-बौद्ध में कोई भेद नहीं।


गौतम को कोई अलग धर्म की स्थापना नहीं करना थी। इसीलिए अपने धर्म को उन्होंने 'शाश्वत" और 'सनातन" ऐसे विशेषण लगाए हैं। बुद्ध की मृत्यु के बाद उनके अनुयायियों ने बुद्ध के बुद्धत्व, उनकी शक्ति, गरिमा आदि को लेकर उन्हें भगवान ही बना दिया। भले ही भगवान बुद्ध ने कहा था कि मनुष्य अपने कर्मों के द्वारा निर्वाण प्राप्त कर सकता है परंतु, शिष्यों ने इस प्रकार की शिक्षा देना और प्रचार करना प्रारम्भ कर दिया कि तथागत के प्रति भक्ति व प्रार्थना के माध्यम से निर्वाण प्राप्त किया जा सकता है। बुद्ध के ये अनुयायी वैष्णव धर्म से प्रभावित थे और उन्होंने महायान सम्प्रदाय की स्थापना की और इसीके साथ बौद्ध धर्म में बुद्ध को अवतार माना जाने लगा और उनकी मूर्ति की पूजा की जाने लगी और विशिष्ट शक्ति व योग्यता वाले देवी-देवताओं का भी उदय हो गया।


महायान पंथ में तो देवीयों की भरमार ही है। आदिबुद्ध की पत्नी प्रज्ञापारमिता। आदिबुद्ध की विभूति यानी ध्यानीबुद्ध। और प्रत्येक ध्यानीबुद्ध की पत्नी एक-एक देवी। हीनयान मत के अनुसार पहले चौबीस बुद्ध हो चूके हैं। महायानियों द्वारा दी हुई विभिन्न सूचियों में उनकी संख्या 32 है। अंतिम सात की सात पत्नियां हैं। ध्यानी और मनुष्य बुद्ध के अलावा बोधिसत्त्व हैं और प्रत्येक की पत्नी रुप शक्ति यानी देवी भी। ध्यानी बुद्ध अमिताभ से निकली हुई तीन देवियां हैं। अक्षोभ्य बुद्ध से निकली चौदा देवियां हैं। वैरोचन बुद्ध से उपजी आठ, अमोघसिद्धी की आठ, रत्नसंभव बुद्ध की छः।


आगे चलकर महायान में तंत्र-मंत्र भी समाविष्ट हो गए। इस प्रकार से बौद्धधर्म का जो स्वरुप सामने आया उसे तांत्रिक बौद्ध-धर्म या वज्रयान कहा जाने लगा। यह धर्म भारत के उत्तर में तिब्बत और चीन आदि में प्रचलित हुआ। तंत्र साधना में शक्ति का बहुत महत्व है अतः स्वाभाविक रुप से इस तांत्रिक बौद्धधर्म में विविध शक्तियों वाली देवियों की प्रतिष्ठापना हुई।


बौद्धधर्म के विकासकाल में कला और साहित्य के विविध रुपों में देवियों का उल्लेख मिलता है। जातक कथाओं में दिक्‌पाल, देवियों, देवकन्याओं, अप्सरा-किन्नरियों, नाग कन्याओं, यक्षणियों और प्रेतनियों के वर्णन भी मिलते हैं। बौद्धों ने भौतिक वस्तुओं, वैश्विक तत्त्वों, वर्णमाला के वर्णों, वाड्‌मय, दिशाओं और मानवी इच्छाओं को तक देवीदेवताओं के नाम दे दिए हैं साथ ही आसन-आयुध तक दिए हुए हैं। छः दिशापाल, रक्ष देवता पांच इनके अलावा रंगभेदानुसार असंख्य तारादेवीयां। आठ गौरी वर्ग में हैं। चार नृत्यदेवता, चार प्रकाश देवता, चार पशुमुखी देवता (घोडा, सुअर, सिंह) और चार डाकिणी हैं। सांची की कला में विभिन्न यक्षणियों एवं गजलक्ष्मी का अंकन है। बौद्धगया की वेदिका पर भी गजलक्ष्मी का चित्रण है। अमरावती स्तूप में गंगा-यमुना का वर्णन मिलता है। गांधार की बौद्ध कलाओं में नागियों और किन्नरियों का अंकन सामान्यतया हुआ है साथ ही मायादेवी हारीती, पृथ्वीदेव भी उत्कीर्ण की हुई मिलती है। समाविष्ट होने की यह प्रक्रिया धीरे-धीरे अनेक अवस्थाओं से गुजरते हुए हुई है और यह हिंदूधर्म का ही प्रभाव है। ऐसी अवस्था में तो यही कहा जा सकता है कि हिंदू भी बौद्ध ही हैं और बौद्ध हिंदू।

Friday, May 2, 2014

बाल विवाह


कुछेक माह पूर्व एक मुस्लिम महिला जकिया बेगम द्वारा मुंबई उच्च न्यायालय में दायर एक याचिका पर मुंबई उच्च न्यायालय यह विचार कर रहा है कि बाल विवाह विरोधी कानून कहीं संविधान प्रदत्त धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकारों का उल्लंघन तो नहीं है। यह याचिका इसलिए लगाई गई है क्योंकि, जब जकिया गत दिसंबर में अपनी 14 वर्षीय बेटी की शादी करने जा रही थी तभी लडकी के चचा की इस शिकायत पर कि लडकी नाबालिग है पुलिस ने विवाह रोक दिया। और लडकी को हिरासत में लेकर बाल कल्याण समिति के समक्ष पेश कर बाद में रिमांड होम भेज दिया। इस मामले का महत्व इसलिए है क्योंकि, यह मामला कानून और मुस्लिम पर्सनल लॉ के बीच के विरोधाभास के कारण सामने आया है। मुस्लिम पर्सनल लॉ के अनुसार यह विवाह वैध है। क्योंकि, लडकी 14 वर्ष की होकर यौवनारंभ (PUBERITY) को प्राप्त हो चूकी है और अभिभावकों की सम्मति होने के कारण विवाह कानून सम्मत है। पुलिस द्वारा कानूनी सलाह लेने पर ज्ञात हुआ कि CHILD MARRIAGE RESTRAIN ACT जो सभी भारतीयों पर लागू होता है के तहत लडकी बालिग होने की आयु 18वर्ष होने के कारण यह विवाह कानून सम्मत नहीं। इधर बाल कल्याण समिति द्वारा भी उन्हें यह बतलाया गया कि CHILD MARRIAGE RESTRAIN ACT & JUVENILE JUSTICE ACT जो बच्चों के मूलभूत अधिकारों से संबंधित हैं मुस्लिम पर्सनल लॉ को अधिक्रमित SUPERSEDE करते हैं अथवा उनके ऊपर हैं। अतः मामले पर इन्हीं कानूनों के तहत विचार किया जाना चाहिए।CHILD MARRIAGE RESTRAIN ACT का एक अंतर-राष्ट्रीय परिमाण भी है। भारत CHILD REIGHTS CONVENTION इस अंतर-राष्ट्रीय परिषद में सहभागी होकर इसमें पारित किए गए बालकों के हितों एवं अधिकारों की रक्षा करने के कानूनों को जो सर्वसम्मति से पारित हैं से सहमत होने के कारण उन्हें लागू करने के लिए बाध्य है।


इस संदर्भ में 'दारुल-इस्ता-सफा" के मुफ्ती हिदायतुल्लाह शौकत कासमी ने यह फतवा जारी कर रखा है कि ''शरीअत पर श्रद्धा हमारी धर्मश्रद्धा का अविभाज्य घटक है और धर्मश्रद्धा का मूलभूत अधिकार संविधान ने दिया हुआ होने के कारण शासन इसमें हस्तक्षेप ना करे।"" यह प्रतिक्रिया कोई नई नहीं। शरीअत ईश्वरीय और अपरिवर्तनीय है क्योंकि, वह परिपूर्ण है की भूमिका सभी उलेमा, मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और इस्लामी धार्मिक संस्थाएं जैसेकि देवबंद आदि लेती रही हैं।


परंतु, इस शरीअत की व्याख्या शिया-सुन्नी जैसे अलग-अलग पंथ तथा सुन्नियों के चार इमामों की विचारधारा और आधुनिक चिंतक भी अलग-अलग करते हैं, उनमें भी मतभिन्नता, विरोधाभास है। इसकी अनिवार्यता को तो सबसे पहले ठेस ब्रिटिशों ने 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में कई बदलाव करके पहुंचाई। ब्रिटिशों ने शरीअत का कुछ भाग निरस्त कर भारतीय दंड विधान के कानून लागू किए। इसी के साथ शरीअत का साक्ष्य संबंधी कानून, कॉन्ट्रॅक्ट एक्ट जैसे अनेक कानून रद्द कर उनके स्थान पर आधुनिक कानून लागू किए। इसके कारण लगभग शरीअत का लगभग 80% भाग निरस्त हो गया। आज जिसे मुस्लिम पर्सनल लॉ कहा जाता है वह विवाह, तलाक, गुजारा भत्ता और उत्तराधिकार इन चार बातों तक ही मर्यादित है। यह कानून शरीअत के तत्त्वों पर आधारित होने पर भी इस संबंध में उठनेवाले विवाद न्यायालयों में ही दाखिल करना पडते हैं। वैसे भी आज भारत में शरीअत कोर्ट का कोई अस्तित्व नहीं। गोआ में तो समान नागरिक संहिता पुर्तगाल काल से लागू है। इजिप्त में भी फौजदारी और दीवानी कानून 19वीं शताब्दी के फ्रेंच कानूनों के आधार पर हैं। जबकि यह इस्लामी राष्ट्र यह मानता है कि शरीअत कानून बनाने का प्रमुख स्त्रोत है और हुदूद के कानून के अनुसार कोडे मारने और मौत की सजा है लेकिन आज के इजिप्त में इसका उपयोग नहीं किया जाता। गुलामी जो इस्लामी कानून में वैध है को पूरे विश्व में सऊदी अरब सहित कहीं भी मान्यता नहीं। अफ्रीकी देश नाइजीरिया के दक्षिणी राज्यों में सन्‌ 2000 में कठोर इस्लामी कानून लागू जरुर किए गए परंतु, अमल में लाए नहीं गए। इसलिए कि कहने और सुनने में यह सजाएं अच्छी लगती हैं लेकिन व्यवहारिक नहीं हैं। इजिप्त की एक अदालत ने तो ऐसे 12 मुसलमानों को इस्लाम छोडने की आज्ञा प्रदान कर दी जिन्होंने ईसाइयत छोडकर इस्लाम को स्वीकार लिया था। जबकि, शरीअत कानून के अनुसार न तो कोई मुसलमान अपना धर्म बदल सकता है और न ही कोई गैर-मुस्लिम एक बार मुसलमान हो जाने के बाद अपने मूल धर्म में पुनः जा सकता है। इसी प्रकार से ब्याज के मामले में शरीअत के कानून को भी न के बराबर ही माना जाता है। इस्लाम के अनुसार तो कुरान अल्लाह द्वारा मुहम्मद साहेब को दिए हुए शब्द और हदीस मुहम्मद साहेब के विचार हैं जो उन्होंने अपनी उक्तियों एवं कृतियों द्वारा समय-समय पर व्यक्त किए थे, मूलाधार हैं। जबकि शरीअत तो हर देश में अलग-अलग हैं, इसकी व्याख्या भी अलग-अलग की जाती है। क्योंकि, कानून संबंधी स्वतंत्र भाग कुरान में आया हुआ नहीं है। प्रसंगानुसार मुहम्मद साहेब ने जो निर्णय दिए वे कुरान में विभिन्न स्थानों पर बिखरे हुए हैं। वे एकत्रित कर कुरान का कानून संबंधी भाग तैयार होता है। जो बहुत ही कम है। इस पर और हदीस पर आधारित शरीअत (कानून शास्त्र) को विभिन्न मुस्लिम विद्वानों ने विकसित किया है। इसलिए यह एक न होकर उन-उनकानून के ज्ञाताओं के अन्वयार्थोनुसार भिन्न-भिन्न है। इनमें हनाफी, शफी, हनबाली और मलिकी सुप्रसिद्ध हैं। इसी प्रकार से हर देश में लडकियों की रजोवृत्ति की आयु भिन्न-भिन्न है, हमारे देश में यह आयु 12, 13 वर्ष है, इसलिए इस संबंध में शरीअती आदेश भी विभिन्न देशों में भिन्न-भिन्न होंगे। ऐसे में शरीअत में हस्तक्षेप मत करो, शरीअत अपरिवर्तनीय है का दावा आखिर किस आधार पर किया जा रहा है?


बाल विवाह तो हिंदुओं में भी होते रहे हैं और आज भी बाल विवाह विरोधी कानून लागू हो जाने के बावजूद कभी-कभी कुछ अभिभावकों द्वारा इस प्रकार के विवाह संपन्न कराने के प्रयास किए जाते हैं। परंतु, जब शासन हस्तक्षेप करता है तो विरोध स्वरुप न तो किसी प्रकार के धर्मादेश (फतवे) जारी किए जाते हैं न ही शासन को, संविधान को चुनौति दी जाती है। शासन के हस्तक्षेप से भले ही थोडी सी नाराजगी प्रकट हो लेकिन न नुच के बाद स्वीकार लिया जाता है। क्योंकि, सबसे ऊपर देश का कानून है। जबकि हिंदू धर्मशास्त्रों के अनुसार तो बाल विवाह वैध है। 'मनु (9/94) के मत से 12 एवं 8 वर्ष की कन्याएं विवाह योग्य मानी गई हैं। महाभारत (अनुशासन पर्व 44/14) के अनुसार कन्या की विवाह अवस्था 10 तथा 7 है। शास्त्रों के अनुसार 'नग्निका" अर्थात्‌ जिसका मासिक धर्म बिल्कूल सन्निकट हो विवाह योग्य है। वसिष्ठ धर्मसूत्र (17/70) के मत से नग्निका शब्द अयुवा का द्योतक है। वैखानस (6/12) के मत से नग्निका 8 वर्ष से ऊपर या 10 वर्ष के नीचे होती है। गौतम (18/20-23) के अनुसार युवती होने के पूर्व ही कन्या का विवाह कर देना चाहिए। पराशर (7/6-9) के मत से यदि कोई 12 वर्ष के उपरान्त अपनी कन्या न ब्याहे तो उसके पूर्वज प्रति मास उस कन्या का ऋतु-प्रवाह पीते हैं। माता-पिता तथा ज्येष्ठ भाई रजस्वला कन्या को देखने से नरक के भागी होते हैं। मरीचि के मतानुसार 5 वर्ष की कन्या का विवाह सर्वश्रेष्ठ है।"


परंतु, मुसलमानों के मामले में जब-जब भी इस प्रकार से संविधान और मुस्लिम पर्सनल लॉ में विरोधाभास सामने आता है तब-तब मुस्लिम समाज का नेतृत्व संविधान के 25वें अनुच्छेद में मिले धार्मिक स्वतंत्रता का आधार लेकर विरोध प्रकट करता है। शरीअत हमारी धर्मश्रद्धा का अविभाज्य भाग होने के कारण उसमें परिवर्तन करने के कारण हमारे मूलभूत अधिकारों को बाधा पहुंचती है का युक्तिवाद प्रस्तुत करता है। इससे यह सवाल उठना लाजिम है कि आखिर अधिक महत्व किसका है, सबसेऊपर कौन है, देश का कानून या कि मुस्लिम पर्सनल लॉ? अब मुंबई उच्च न्यायालय जिस संविधान प्रदत्त धार्मिक स्वतंत्रता पर विचार करने जा रहा है वह संविधान के 25वें अनुच्छेद में इस प्रकार से वर्णित है -


1. ''लोक व्यवस्था, सदाचार और स्वास्थ्य तथा इस भाग के अन्य उपबन्धों के अधीन रहते हुए, सभी व्यक्तियों को अन्तःकरण की स्वतंत्रता का और धर्म के अबाध रुप से मानने, आचरण करने और प्रचार करने का समान हक होगा।
2. इस अनुच्छेद की कोई बात किसी ऐसी विद्यमान विधि के प्रवर्तन पर प्रभाव नहीं डालेगी या राज्य को कोई ऐसी विधि बनाने से निवारित नहीं करेगी जो -
(क). धार्मिक आचरण से सम्बद्ध किसी आर्थिक, वित्तीय, राजनैतिक या अन्य लौकिक क्रियाकलापों का विनियमन या निर्बंधन करती है;
(ख). सामाजिक कल्याण और सुधार का उपबन्ध करती है या सार्वजनिक प्रकार की हिन्दुओं की धार्मिक संस्थाओं को हिंदुओं के सभी वर्गों और विभागों के लिए खोलती है।""

ब्राह्म - क्षात्र तेज के प्रतीक अवतार परशुराम


ऋगवेद से लेकर पुराणों तक में अनेकानेक ऋषियों के वर्णन प्राप्त होते हैं जो ज्ञान, कठोर साधना तथा वीरता के साथ ही मानवता के उद्धारकर्ता के रुप में अवतरित हुए थे। इसी ऋषि परंपरा में मंत्रदृष्टा भृगु ऋषि भी हुए जो दक्ष द्वारा आयोजित यज्ञ के भंगकर्ता भगवान शिव का सामना कर पाए थे। इंद्र पदासीन नहुष के अहंकार का दमन करनेवाले भृगु की वंशबेल के ऋषि जमदग्नि के अद्वितीय पुष्प थे भगवान परशुराम। जिनकी माता रेणुका इक्ष्वाकु वंश की राजपुत्री थी। माता-पिता ने उन्हें नाम दिया था 'राम", परंतु परमगुरु मंगलकारी शिवशंकर का कृपा-प्रसाद के रुप में प्राप्त परशु मिलने के पश्चात वे कहलाए 'परशुराम"। 


परशुराम भगवान विष्णु का छठा अवतार हैं। इनके पहले मत्स्य, कूर्म, वराह, नृसिंह और फिर वामन अवतार हुए हैं यानी कि जलजीव से विष्णु ने अवतार लेना प्रारंभ कर प्रगति करते हुए अपूर्णावस्थावाले छोटे वामन से पूर्णावस्थावाले मानव अवतार तक के गंतव्य तक पहुंचे।


क्षत्रियों से हुए संग्राम के पश्चात प्राप्त भूमि ऋषि कश्यप को दान देने और दान की हुई वास्तु का स्वयं उपभोग नहीं लेना चाहिए इसलिए सागर से नवभूप्रदेश प्राप्त कर वे वहां निवास के लिए गए। नवभूप्रदेश की निर्मिति यह उनके अवतार कार्य की एक विशिष्टता है। परशुराम ने दाशरथी भगवान राम से भेंटकर अपना क्षात्र तेज राघव राम में निष्क्रांत किया था। इन दोनो रामों की भेंट का रहस्य है पूर्णत्व द्वारा परिपूर्णत्व पाना। अब जयपराजय बची ही कहां? परशु के बिना राम कहां पूर्ण हुए और परशुराम के बिना दाशरथी राम भी पूरे नहीं होते।


परशुराम न केवल अपरान्त (कोंकण, पश्चिमी सीमांत) के निर्माता हैं अपितु स्वयं द्वारा निर्मित भूमि में आमंत्रित जातियों के प्रस्थापनकर्ता भी हैं। ब्राह्म और क्षात्रवृत्ती का संतुलन साधते हुए एक आदर्श समाजधारण इस नवप्रदेश में स्थापित किया। उनका यह संस्कृति पालन-पोषण का कार्य विष्णु के दशावतारों में सर्वश्रेष्ठ है। मातृहत्या के एकमेव उदाहरण के रुप में जिनकी ओर ऊंगली उठाई जाती है, वही परशुराम मातृसावर्ण्य माननेवाले केरल के परमश्रेष्ठ देवता हैं। वहां के समाज की निर्मिती परशुराम शासित होकर आज भी वहां परशुराम शक चल रहा है। सम्पूर्ण भारत के समुद्रतट से लगे प्रदेशों में परशुराम की कथा कही और सुनी जाती है। इस कारण सम्पूर्ण भारत में परशुराम क्षेत्र हैं। उडिसा, आसाम, गुजरात और पंजाब में भी परशुराम क्षेत्र हैं।


अपरान्त में विभिन्न प्रदेशों से देवताओं को लाकर उनकी स्थापना परशुरामजी ने की ही, परंतु इसके सिवाय 14 स्थानों पर पाशुपतास्त्र की सहायता से स्वयंभू ज्योतिलिंगों का निर्माण किया। इनमें से एक वालुकेश्वर महादेव की महिमा बडी न्यारी है पापक्षालन और पुनर्जन्म से मुक्ति हो इसलिए भक्तों के झुंड के झुंड इस स्थान पर आते हैं। छत्रपति शिवाजी महाराज से लेकर कान्होजी आंगे्र और राघोबा पेशवा जैसे इतिहास प्रसिद्ध व्यक्ति इस यात्रा में सम्मिलित हो चूके हैं के संदर्भ गॅजेटियर में मिलते हैं।


परशुराम को धनस्य देवता के रुप में भी संबोधित किया जाता है, ऐसे परशुराम का अद्‌भुत मंदिर चिपलूण जो कोंकणस्थों का आद्य जन्मस्थान कहा जाता है के निकट स्थित है। इस मंदिर की विशेषता यह है कि मंदिर हिंदुओं का, पैसा मुसलमानों का और निर्माणकर्ता हैं ईसाई। इस प्रकार से यह एकात्मता का प्रतीक है। इस मंदिर की एक विशेषता और है - लगभग 600 से भी अधिक वर्ष पूर्व जहां वर्तमान मंदिर स्थित है उस स्वयंभू स्थान पर गाय अपना पेन्हाना छोडती थी इस प्रकार से इस देव-स्थान का पता लगा। एक कुनबी (एक कृषिजीवी अब्राह्मण जाति) उस स्थान पर सेवा करता था। आज भी उस परिवार के वंशज को मंदिर में सम्मान का पहला अधिकार है।


पेढ़े-परशुराम गांव से लगभग आधा कि.मी. दूर सौ मीटर गहराई में उतरने पर परशुराम मंदिर नजर आता है। उतरने के लिए जो पत्थर की पाख बनी हुई है वह शिवाजी महाराज के जमाने में सुबेदार चंद्रराव मोरे ने निर्मित की थी। यदि यह पाख ना होती तो नीचे उतरना बडा ही कठिन होता। प्रवेशद्वार देखकर कोई भी नवागंतुक चौंक जाएगा। क्योंकि, वह दरवाजा मुस्लिम पद्धति से बना हुआ है। मुस्लिम पद्धति की कमान, ऊपर चारों कोनों पर छोटे-छोटे मुस्लिम पद्धति के मिनॅरेट्‌स हैं। प्लास्टर किया हुआ है और उसे मुस्लिम पद्धति से सफेद चूना पोता हुआ है। हिंदू पहचान के रुप में काले पत्थरों की ऊंची दीपमाला दांई ओर प्रवेश-कमान से जुडी हुई है। बांई ओर सफेदा की हुई प्लास्टर वाली ऊंची दीवार है। 


मस्जिद के प्रवेश द्वार जैसी दिखनेवाली कमान से चार-पांच सीढ़ियां उतरने के पश्चात सामने एक तालाब नजर आता है। बाकी रचना मंदिर जैसी ही है चारों ओर ऊंची-ऊंची दीवारें, खुला स्थान और अन्य मंदिरों में पेढ़े परशुराम गांव की ग्राम देवता श्रीधावजी और जाखड माता मंदिर, दत्त मंदिर, जीवित झरना, हरेभरे घने जंगल में पर्वतेश्वर मंदिर, रामजी की चरण पादुका, दुर्लभ कामधेनु मंदिर आदि निकट ही हैं। राम पादुका की स्थापना पेशवाओं के गुरु ब्रह्मेंद्रस्वामी ने दुष्ट प्रवृत्तियों की रोकथाम के लिए की थी। उस समय जंजीरा के सिद्दी ने इस स्थान को हानि पहुंचाने के असफल प्रयास किए थेे।


मंदिर के सामने के मंडप से होकर जब मंदिर में प्रवेश करते हैं तो फिर से ठिठकना पडता है। क्योंकि, मंदिर का वह भाग एक बडे लंबे-चौडे कमरे के रुप में है। पत्थरों से निर्मित और मुस्लिम पद्धति की कमान वाली साथ ही सारी दीवारों को सफेदी पोती हुई और उस पर नीले रंग से निकाली हुई बेल-बुटी यानी सब कुछ मुस्लिम पद्धति का। हिंदुओं का कैसे कहें ऐसे हालात, अंदर न तो खोदा या कुरेदा हुआ काम, न तो कोई मनुष्याकृति ना ही कोई पशु-पक्षी कुरेदे हुए। बस प्रवेश करते ही सामने की दीवार पर एक भवन नीले रंग में चित्रित वह भी ग्रीक या रोमन लगे ऐसा। छत का गुंबद यूरोपीयन पद्धति का। 


गर्भगृह में तीन मूर्तियां हैं। ब्रह्मा, विष्णु, महेश (काम, परशुराम, काल) की गहरे काले रंग की अत्यंत सुंदर-सुडौल। काम यानी वासना (इच्छा देवता), परशुराम यानी निरीच्छ होकर इस स्थान पर निवास कर रहे हैं। इसलिए काम और काल प्रतीक के रुप में स्थापित किए गए हैं। तीनों मूर्तियां चतुर्भुज हैं। पहली मूर्ति ब्रह्मा यानी काम के दो हाथों में दंड, कमंडल होकर दो वरद हस्त हैं। बीचवाली मूर्ति विष्णु अवतार परशुराम की होकर दायां हाथ अभय हस्त है। बाकी बचे तीन हाथों में बाण, धनुष्य और परशु हैं। तीसरी मूर्ति शंकर भगवान की होकर दो हाथ वरद हस्त तो दो हाथों में परशु और मृग (हरिण) हैं। 


उनके आसपास उत्तम लकडी का कुरेदा हुआ मंडप। इन सबको छोड दिया जाए तो सबकुछ जैसेकि नीले रंग की बेल बुटी, खोदा हुआ काम न होना, सफेद चूना पुता होना आदि। मुस्लिम पद्धति का होने के कारण कोई यह भी सोच सकता है कि, कहीं मस्जिद को तोडकर तो मंदिर नहीं बना दिया गया। परंतु, हिंदू परंपरा-इतिहास को देखते हुए यह तो असंभव ही है। तो, इसका कारण आखिर क्या है? तो, इसका कारण है - जंजीरा के राज्यकर्ता सिद्दी हब्शी ने इस मंदिर का निर्माण किया है तो स्वाभाविक ही है कि मुस्लिम पद्धति नजर आएगी ही।


चौदहवीं शताब्दी में परशुरामजी को माननेवाले बीजापुर की आदिलशाही के मुस्लिम राज्यकर्ता की सहायता से इस मंदिर का निर्माण हुआ। इसके तीनसौ वर्ष पश्चात ब्रह्मेंद्रस्वामी ने इस स्थान को अपना निवास बनाया। उस समय जंजीरा के हब्शी सिद्दी का दामाद और लडकी समुद्र यात्रा पर थे उसी दौरान उनका जहाज गायब हो गया। हब्शी सिद्दी ब्रह्मेंद्रस्वामी की शरण में आया। स्वामी ने कहा इस मंदिर का जीर्णोद्धार कर, बेटी-दामाद वापिस आ जाएंगे। सिद्दी राजी हो गया। लडकी और दामाद के सकुशल लौट आने पर जंजीरा के सिद्दी ने अपने पैसे से इच्छानुसार इस मंदिर का निर्माण किया इसलिए इस मंदिर में मुस्लिम पद्धति दृष्टिगोचर होती है। 


यूरोपीयन पद्धति के गुंबज का कारण उस समय निर्माण कार्य करनेवाले सभी कारीगर ईसाई थे और पुर्तगालियों के लिए निर्माण कार्य करते-करते वे यूरोपीयन पद्धति सीख गए थे। मंदिर के सामने स्थित पहाडी को ईसाइयों का पठार कहते हैं। इस प्रकार से यह अनोखा परशुराम मंदिर हिंदू-मुस्लिम-ईसाई तीन धर्मियों के आपसी समन्वय-मेल के रुप में मंदिर-मस्जिद-चर्च तीनो के ही स्थापत्यकला के सौन्दर्य एकत्रित रुप को दर्शानेवाला तीर्थस्थल है। इस देवस्थान का प्रमुख उत्सव (अक्षय तृतीया) परशुराम जयंती है। जो तीन दिन तक मनाया जाता है जिसमें श्रद्धालुजन जागृत स्थान होने के कारण भाग लेने आते हैं, मनौतियां मानते हैं और मनौती पूर्ण होने पर मन्नत उतारने फिर से आते हैं।