Thursday, December 29, 2011

विज्ञाननिष्ठ सावरकर और धार्मिक कट्टरता

कणाद shirishsapre.com

अपने आपको हिंदुत्ववादी, हिंदूधर्मउद्धारक समझनेवाले, बतानेवाले कुछ लोगों द्वारा इस प्रकार का प्रचार किया जाता है कि देखिए सभी सरकारें, सभी राजनैतिक दल मुसलमानों के तुष्टीकरण में लगे हुए हैं, सभी उनकी जायज-नाजायज मांगों के आगे झुकते नजर आते हैं। परंतु, हिंदुओं की कोई नहीं सुनता, उनकी उपेक्षा हो रही है, आदि। फिर वे खुलासा करते हुए कहते हैं कि, सरकारें, राजनैतिक दल मुसलमानों के आगे इसलिए झुकते हैं क्योंकि, वे धार्मिक रुप से कट्टर हैं, एकजुट हैं। इसलिए हमें भी उन्हीं की तरह धार्मिक रुप से कट्टर होना चाहिए, आदि। इस प्रकार की बातें सुनकर हमें सहसा विज्ञाननिष्ठ सावरकरजी के उन लेखों की याद आ जाती हैं जो उन्होंने रत्नागिरी में नजरबंद रहते उनके द्वारा की जा रही समाजक्रांति के दौरान हिंदू समाज के प्रबोधन के लिए किर्लोस्कर आदि में लिखे थे। वे लेख उन्होंने अपने हिंदू राष्ट्र की दृष्टि पोथीनिष्ठ (धर्मग्रंथनिष्ठ) न रहते विज्ञाननिष्ठ हो, पुराण प्रवृत्ति, सनातन प्रवृत्ति छूटकर उनकी प्रवृत्ति अद्यतन हो इस दृष्टि से लिखे थे।

'हमें भी मुसलमानों की तरह ही कट्टर पोथीनिष्ठ होना चाहिए।"  इस प्रकार के विचारों पर उन्होंने जो एक दीर्घ लेख 'विज्ञान बल" शीर्षक से लिखा था आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना कि उस काल में था। उसके कुछ अंश इस प्रकार से हैं - ''उन मुसलमानों को देखिए, दाढ़ी तो दाढ़ी रखेंगे; बुरका कष्टदायक होने के बावजूद समाज की विशिष्ट पहचान के रुप में उस रुढ़ि का पालन करेंगे; मस्जिद के सामने वाद्य (बैंड) बजा रे बजा कि, भडक उठेंगे! कुरान ईश प्रेषित धर्मग्रंथ है इसलिए सब के सब उसका सम्मान रखेंगे; उसके नाम से सभी एक हो जाएंगे; सुअर का मांस नहीं तो नहीं खाएंगे! कुरान का प्रत्येक आचार कितना भी पुराना हो या कष्टदायक हो, उसका सामाजिक धार्मिक बंधन के रुप में पालन करेंगे! पांच बार तो पांच बार प्रत्येक व्यक्ति नमाज पढ़ेगा, रोजा तो रोजा सारा समाज रोजा रखेगा! आदि रुढ़ियां क्या तर्कसंगत हैं? अंधश्रद्धा नहीं? परंतु, फिर भी उसके कारण उस समाज में एकरसता, एकजुटता और दृढ़ता आई है।

''हम हिंदुओं को भी उसी प्रकार से जो हमारी प्राचीन रुढ़ियां और धार्मिक मान्यताएं हैं वे अंधश्रद्धा और अन्य दृष्टि से हास्यास्पद हों तो भी समाज में मुसलमानों के समान ही धार्मिक कट्टरता संचारित करने के लिए उनका पालन करना चाहिए!""

धर्मपरायणता अथवा पोथीनिष्ठता के कारण मुसलमानों की दुर्दशा ही हो रही है!

पोथीनिष्ठता के कारण ही मुस्लिम समाज एकजुट, प्रबल और प्रगत हो रहा है और इसलिए अपन उनसे भी अधिक पोथीनिष्ठ हुए तो अधिक प्रबल और प्रगत होंगे इस प्रकार की समज आजके अनेक निश्चछल हिंदुसंघटकों में विचर रही है वह मूलतः दोतर्फा गलत है। पोथीनिष्ठता के कारण मुसलमानों की कौनसी प्रगति हुई है? आज (भी) हिंदुस्थान में भी वे शिक्षा में पिछडे हुए हैं; अज्ञान, दरिद्रता और कूपमंडूकता में भी हिंदुओं की अपेक्षा वे अधिक ग्रसित हैं। साहित्य में हिंदू ही श्रेष्ठ हैं। अधिकांश बडी-बडी संस्थाएं हिंदुओं ने ही प्रारंभ की और चलाई हैं। सारे भारतीय मुद्रालय हिंदुओं के ही हाथों में हैं, बडे-बडे कवि, संशोधक, उद्‌भावक, प्रकल्पक, संपादक, विद्वान प्राध्यापक, सुधारक, वक्ता, प्रबंधक जो पिछले कुछ शतकों में प्रसिद्ध हुए हैं हिंदुस्थान में हुए हैं। उनमें से 95% तो भी हिंदू ही हैं। ऑक्सफोर्ड, केंब्रिज, पेरिस, बर्लिन आदि यूरोपीय विश्वविद्यालयों में भारतीय बुद्धिमत्ता की जो छाप पडी है वह मुख्यतः हिंदुओं द्वारा ही पडी है। रॅंगलर्स, आय. सी.एस., नोबल प्राइजमेन, वैज्ञानिक, संशोधक जो भारतीय यूरोप में झलके हैं वे भी बहुतकर हिंदू और हिंदू ही हैं। राजनीति में जो कुछ विद्रोह जूझ होती रही है वह पिछले सौ वर्षों में सारी की सारी हिंदुओं द्वारा ही। तिलक, लाजपतराय, गोखले, बेनर्जी, पाल, गांधीजी, मालवीय, अय्यर आदि झट से बतलाने जैसे और जो यहां बतलाए नहीं गए हैं, वे हिंदू ही थे। जर्मन महायुद्ध जैसे सैनिक शौर्य प्रकट करनेवाले जो कुछ अच्छे-बुरे अवसर मिले, उनमें सिक्ख, गुरखा आदि हिंदू सैनिक अपना क्षात्र तेज प्रकट करने से चूके नहीं हैं। वही स्थिति औद्योगिक क्षेत्र में है। बीमा, मिलें, बैंके, सहकारी क्षेत्र की संस्थाएं कारखाने इन जैसी जो कुछ बडी-बडी औद्योगिक संस्थाओं का प्रपंच जो बढ़ता हुआ दिख रहा है वह अधिकतकर हिंदुओं के कर्तृत्व, नेतृत्व का फल है।

जो बात वर्तमानकाल में, वही बात भूतकाल में भी थी। पोथीनिष्ठता के कारण, ईशभक्ति, धार्मिक उन्माद के कारण ही मुसलमान वीर और विजयी हुए ऐसा कई बार मुसलमान बारम्बार बोलकर दिखलाते हैं। हमारे हितशत्रु भी यही बतलाते हैं। परंतु, वह अर्धसत्य है। जो समाज उनसे अधिक असंगठित था और अंधश्रद्ध था उन पर मुसलमानों की धार्मिक कट्टरता-उन्माद ने विजय पाई। परंतु जब उनसे अधिक ऐहिक दृष्टि से संगठित समाज से उनका पाला पडा तब मुसलमानों की पारलौकिक पोथीनिष्ठा उनके बिल्कूल भी काम ना आई। इसका निरुत्तर कर देनेवाला सबूत हिंदुओं तक का मर्यादित चाहिए हो तो महाराष्ट्र का इतिहास देखें। पोथीनिष्ठ औरंगजेब के क्या हाल मराठों ने किए।

विज्ञानबल के आगे धार्मिक कट्टरता का डंक और पोथीनिष्ठता का दंश किस प्रकार से ढ़िला पडा है उसे यूरोप में देखो। तीनसौ वर्षपूर्व यूरोप को भी पोथीनिष्ठता ने खोखला कर दिया था। उनकी पोथीनिष्ठता भी हिंदुओं की पोथीनिष्ठता की तरह थी इसीलिए मुसलमानों की आक्रमक पोथीनिष्ठता ने उनकी धज्जियां उडा दी। पुर्तगाल, स्पेन जीतकर वे पेरिस के तट तक और दूसरी ओर हंगरी तक पहुंच गए। परंतु, आगे जब यूरोप में विज्ञाननिष्ठा अवतरित हुई, भाप, बिजली और हवाई जहाज का युग आया, तब उसी यूरोप ने उन्हीं मुसलमानों की क्या दुर्दशा की है यह भी बतलाने की जरुरत है क्या? जिन मूरों ने स्पेन जीता उन मूरों को स्पेन और फ्रांस ने जीता। ईशभक्ति और पोथीनिष्ठता के गढ़ अबीसीनिया को विज्ञानबल से संपन्न इटली ने एक झटके में बेहाल कर दिया। सायबेरिया के पोथीनिष्ठ और लाखों कट्टर मुसलमानों पर निरीश्वरवादी और निधर्मी रशिया राज कर रहा है! इराक, इजिप्त और दिल्ली के खलीफाओं - बादशाहों के पोथीनिष्ठ तख्तों की प्रदर्शनी आज इंग्लैंड में लगी हुई है।

मुसलमानों की दुनियाभर में हुई दुर्दशा का अपवाद केवल तुर्कस्थान है। परंतु, वह अपवाद ही हम बतला रहे उस नियम का निरुत्तर कर देनेवाला सबूत है! तुर्कस्थान जो टिका वह केवल इसलिए मात्र क्योंकि, उसने ईशभक्ति, पोथीनिष्ठता को छोडकर विज्ञानबल की उपासना की। तुर्कस्थान यूरोप जितना ही अद्यतन बना, प्रयोगक्षम भौतिक विज्ञान का उपासक बना इसीलिए बच गया।

हमारी अंतःकरण से इच्छा है कि हिंदी मुसलमान भी पोथीनिष्ठता की प्रवृत्ति छोडकर, विज्ञाननिष्ठ बनें; धार्मिक कट्टरता के शिकंजे से उनकी बुद्धि स्वतंत्र हो, उनका समाज भी शिक्षित, प्रगत और अभ्युन्नत हो। अगर उनके ध्यान में यह बात आ गई कि विज्ञानबल के आगे अज्ञानी धार्मिक उन्माद कभी भी टिक नहीं सकेगा तो, वे भी तुर्कों का मार्ग स्वीकारेंगे और आज यूरोपीयन शक्तियों के आगे उनकी जो दुर्गत हो रही है वह रुकेगी। मुसलमान अगर विज्ञाननिष्ठ और प्रगत हुए तो उसमें हिंदुओं का भी कल्याण है, हिंदी मुसलमानों का तो बहुत बडा कल्याण है ही।

परंतु, इतना होने पर भी अगर मुसलमानों को उनकी पोथीनिष्ठ प्रवृत्ति ही हितकारक लगती है, पुसाती है तो बडे मजे से आचरण में लाएं। परंतु, हमने यह गांठ बांध लेना चाहिए कि, यूरोप के विज्ञानबल के आगे जिन अर्थों में उनके धार्मिक उन्माद की एक नहीं चलती, जिन अर्थों में बुद्धिनिष्ठ प्रगति से वंचित होने के कारण उनका समाज आज हमारे हिंदू समाज की अपेक्षा अज्ञान, दरिद्रता और अवनति के चंगुल में फंसा हुआ है और जिन अर्थों में हमें जो सामना करना है वह विज्ञानयुग का और यूरोपीय विज्ञानबल का ही, इन अर्थों में मुसलमान पोथीनिष्ठ हैं इसलिए हम उनसे अधिक पोथीनिष्ठ, ईशभक्त और धार्मिक रुप से कट्टर होंगे यह कोई हमारी अभ्युन्नति का उपाय नहीं। अगर अनुकरण ही करना है तो आज मुसलमानों के सामने टिकी रही यूरोप की उस विज्ञाननिष्ठता का। जिसका संपादन करना है, जिसके सामने धर्मभेद का डंक ढ़िला पडता है उस विज्ञानबल का! ईशभक्ति सारे गंडे-ताबीज, कोसाकाटी जिस कवच पर असर नहीं कर सकते, यह आज इंग्लैंड, रशिया, जर्मनी में साफ-साफ नजर आ रहा है, उस विज्ञानकवच को हमने धारण करना चाहिए। अपने इस विधेय को उन्होंने बुरका, नमाज-पूजा, मांसाहार के उदाहरण देकर विस्तृत रुप से समझाया है जो विस्तारभयास्तव हम उद्‌. नहीं कर रहे हैं।

इसी प्रकार बहुत से हितचिंतकों को लगता है कि जिस प्रकार से मुसलमानों का एकही धर्मग्रंथ कुरान है, ईसाइयों का बाइबल है उसी प्रकार से हिंदुओं ने भी कोई सा तो भी एक ही धर्मग्रंथ तय करना चाहिए। जिससे कि जिस प्रकार कुरान कहते ही सारे मुसलमान एकजुट हो जाते हैं वैसेही हिंदू भी हो जाएंगे। परंतु, यह आशा भी एक दोहरी भूल है। कुरान एक ही धर्मग्रंथ होने के कारण मुसलमानों को संगठन की दृष्टि से बहुत लाभदायक है, वे प्रबल बन रहे हैं, यह मूल बात ही ऊपरी तौर पर ही महसूस होती हैं उतनी सच नहीं! कुरान के एक-एक वाक्य के कारण मतभेद होकर मुसलमानों ने मुसलमानों का कत्लेआम किया है, खलीफाओं का मारा है, बगदाद; दमास्कस, मक्का-मदीना जो मुसलमानों के राजनगर-धर्मक्षेत्र हैं पक्ष-विपक्ष द्वारा बारम्बार ध्वस्त किए गए हैं। अपने हिंदुओं को वह इतिहास बहुतकर मालूम नहीं है इसलिए वे धोखा खा जाते हैं। वहाबियों और सुन्नियों की आज भी अरबस्थान में गूंज रही अनबन, कादियानी और अहरार के बीच की पंजाब की धारा 144 द्वारा थाम कर रखी गई जाती दुश्मनी, शिया-सुन्नी की लखनऊ में होनेवाली आपसी लडाई देखो! केवल पोथीनिष्ठता की दुर्घटना! अगर एक ही धर्मग्रंथ होने से मुस्लिम समाज की आज के युग में भी टिकाऊ ऐसी शक्ति होती तो आज यूरोपीयनों द्वारा सारी पृथ्वी पर मुसलमानों के जो हाल किए जा रहे हैं, वह वे कैसे कर सकते थे? यूरोपीयनों का उनको प्रबल करनेवाला एक ही धर्मग्रंथ कौनसा? बाइबल नहीं! इसके बिल्कूल विपरीत उन्होंने बाइबल को मूंदकर अपनी आँखें खोली! रशिया ने तो बाइबल ही फाड डाली! एक ही धर्मग्रंथ वाले लाखों मुसलमानों पर कोई सा भी धर्मग्रंथ न माननेवाला रशिया राज कर रहा है; वे पिछडे हुए, वह प्रगत; वे निर्बल, वह प्रबल; ऐसा क्यों? क्योंकि, रशिया ने अपनी समाज संस्था का आधार किसी भी धर्मग्रंथ पर न रचते विज्ञानग्रंथ पर रचा इसलिए!

इसलिए अपने को मुसलमानों की पोथीनिष्ठता का अनुकरण न करते विज्ञाननिष्ठा का करना चाहिए! जिस समाज ने जिस धर्मग्रंथ को जकड लिया वह धर्मग्रंथ जितना सहस्त्रावधि वर्षों से पुराना उतने ही सहस्त्रावधि वर्षों से वह समाज पिछडा ही रहना चाहिए! धर्मग्रंथ पर समाज व्यवस्था खडी करने के दिन गए! सौभाग्य से अपने हिंदू दर्शन में किसी भी एक धर्मग्रंथ को पिंजडे में न अटकनेवाली तत्त्वज्ञान बुद्धि की जो स्वतंत्र उडान मिलती है वही अपना भूषण है! वेदगीतोपनिषदादि ग्रंथ पूज्य हैं, आदरणीय हैं, उतना ही पर्याप्त है। वे परमप्रमाण नहीं होना चाहिए! इस विज्ञानयुग में समाजसंस्था का जो संगठन करना है वह प्रत्यक्ष ऐहिक और विज्ञाननिष्ठ इसी प्रकार के तत्त्वों पर करना चाहिए। उस मार्ग पर चलकर इंग्लैंड, रशिया, जापान ये राष्ट्र बलवान हुए वैसेही अपना हिंदूराष्ट्र भी हुए बगैर रहेगानहीं।

परंतु, खेद है कि विज्ञाननिष्ठ सावरकर के इन विचारों की उपेक्षा की गई चाहिए वैसा उन विचारों का प्रचार-प्रसार नहीं हुआ उसीका परिणाम है कि आज भी अपने हिंदू समाज में चंद ऐसे लोग मौजूद हैं स्वयं को हिंदुत्ववादी, हिंदूधर्मउद्धारक बताकर-बनकर लोगों को भ्रमित कर गलत राह पर ले जाने के प्रयास में हैं।

Sunday, December 25, 2011

राष्ट्रपुरुष महामना पंडित मदनमोहन मालवीयजी
आज तक हिंदुस्थान में जितने भी राष्ट्रपुरुष हुए हैं उनमें भारतीय संस्कृति का आदर्श के रुप में यदि कोई जाना जाता है तो वह हैं पं. मदनमोहन मालवीयजी। पंडित मालवीयजी के ह्रदय में एकही महत्वाकांक्षा सदैव प्रज्वलित रही और वह थी भारतवर्ष के उत्कर्ष की। इस संबध में उनके प्रयत्न भी विविध और दीर्घ होकर हिंदुस्थानवासियों विशेष रुप से हिंदुसमाज द्वारा इस कार्य में किस प्रकार हाथ बंटाना चाहिए उसका सर्वोत्कृष्ट विवेचन उन्होंने किया था। पंडितजी ने सार्वजनिक कार्यक्षेत्र में उतरने के बाद जो देशसेवा का व्रत स्वीकारा था वह आजीवन निभाया। सार्वजनिक कार्य के क्षेत्र में त्याग तो कइयों ने किया परंतु, पंडितजी का त्याग अत्यंत श्रेष्ठ प्रति का था। उन्होंने देशसेवा के लिए अपना सर्वस्व अर्पण कर दिया था। वे आजीवन कांग्रेस के एकनिष्ठ भक्त रहे। शिक्षक, संपादक, वकील आदि अनेक व्यवसायों मेें प्रवेश करने के बावजूद देशसेवा के आगे कोई भी व्यवसाय न रुचने के कारण उन्होंने सारे व्यवसाय छोड दिए। शिक्षक रहते उन्होंने प्रचलित शिक्षणपद्धति को सुधार कर उसमें राष्ट्रीय भावना उत्पन्न हो इस प्रकार की शिक्षा राष्ट्र के नागरिकों को मिलना चाहिए इसका उनको विश्वास होने के कारण आगे जाकर उन्होंने इस उद्देश्य को पूरा भी किया। हिंदू विश्वविद्यालय इसका मूर्तिमंत उदाहरण है।
पंडितजी का कार्यक्षेत्र अत्यंत विशाल था। कभी विद्यार्थियों का घेरा उनके आसपास होता जिन्हें वे इतिहास अथवा तत्त्वज्ञान का रहस्य समझाते नजर आते तो कभी सभाओं में सनातन धर्म की महत्ता का वर्णन करते नजर आते। कभी राष्ट्रीय महासभा के मंडप में तो कभी वरिष्ठ विधायिका में हिंदुस्थान के राजनैतिक प्रश्नों की छान-बीन करने में डूबे हुए नजर आते तो कभी राजा-महाराजाओं को आशीर्वाद देते नजर आते थे। पंडितजी शांततावादी और एकता के समर्थक थे। कहीं भी अशांति होते ही वहां जाते और शांति प्रस्थापित करते।
पंडितजी ने हिंदूमहासभा की स्थापना की। शुद्धि-संगठन के लिए वे आंदोलन करते थे। इस कारण से वे राष्ट्रकार्य के लिए अत्यावश्यक हिंदू-मुस्लिम एकता के विरोधी थे इस प्रकार का आरोप उन पर किया जाता था। परंतु, वह असत्य है यह उन्होंने अपनी स्वकृति से सिद्ध कर दिखाया था। राष्ट्रकार्य को साधने के लिए कभी थोडा झुकना भी पडे तो झुककर मुसलमानों का पक्ष लेकर हिंदू-मुस्लिम विवाद को समाप्त किया जाए महात्मा गांधीजी के इस उद्देश्य का समर्थन ही पंडितजी ने किया था। परमेश्वर को प्रसन्न करने का मुख्य उपाय लोकसेवा-देशभक्ति है। देशवासियों के दुख से दुखी होना और उनके दुख दूर करने के लिए शुद्ध भावना से यज्ञ करना ही सच्ची परमेश्वर की परम उपासना है इस प्रकार की उनकी सोच थी।
पंडितजी को प्रारंभ से ही हिंदी भाषा के प्रति गर्व होकर हिंदी साहित्य के प्रसार के काम में उनके प्रयत्न सर्वश्रुत हैं। पहला हिंदी सम्मेलन भी पंडितजी की अध्यक्षता में ही आयोजित हुआ था। संयुक्त प्रांत की अधिकांश जनता की मातृभाषा हिंदी होकर भी सरकारी कामकाज की भाषा उर्दू थी इससे लोगों को बडी असुविधा होती थी। पंडितजी ने राष्ट्रभाषा के ऊपर का यह संकट और जनता की असुविधा को देख उर्दू के साथ ही साथ हिंदी भाषा में भी न्यायालयों का कामकाज चले इसके लिए बडा आंदोलन चलाया। पंडितजी का इस काम में कोई कम बडा विरोध नहीं हुआ; परंतु, उस समय के संयुक्त प्रांत के ले. गव्हर्नर लार्ड मॅकडोनाल्ड ने पंडितजी की सत्यता से सहमत होकर सन्‌ 1900 में सारे सरकारी कार्यालयों में से उर्दू के साथ-साथ हिंदी भाषा में भी कामकाज चलना चाहिए का प्रस्ताव पारित किया।
पंडितजी ने हिंदी राष्ट्रभाषा होनी चाहिए के लिए जो प्रयत्न किए उसका समर्थन लो. तिलक, रमेशचंद्र दत्त, अरविंद घोष ने भी किया था। पंडितजी केवल इतना कर ही नहीं थमे तो सन्‌ 1908 में उन्होंने प्रयाग में हिंदी में 'अभ्युदय" प्रत्र शुरु किया, सन्‌ 1910 में 'मर्यादा" नामका हिंदी मासिक शुरु किया। 1910 में आयोजित पहले हिंदी साहित्य सम्मेलन की अध्यक्षता करने के लिए भी पंडितजी ही चुने गए थे। उस समय देशी भाषाओं की किस तरह से अवहेलना हो रही है और उसकी उन्नति किस प्रकार की जा सकेगी की योजना का बडा ही सुंदर वर्णन उन्होंने किया। हिंदू विश्वविद्यालय की शिक्षा का माध्यम उन्होंने हिंदी ही रखा था।
युवाओं के लिए उनका उपदेश था - भारतीय नवयुवकों में ईशभक्ति और देशभक्ति उत्पन्न हुए बगैर कुछ नहीं हो सकता इसीके साथ बलसंवर्धन की भी बडी आवश्यकता है। 'शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्‌" इस वचनानुसार देशकल्याण के लिए प्रयत्नशील प्रत्येक युवक व युवती को शरीर बल बढ़ाने के लिए प्रयत्न करना चाहिए। अपनी स्वराज्य प्राप्ति निकट है; परंतु स्वराज्य को टिकाने के लिए राष्ट्र की शरीर संपत्ति सुधारना आवश्यक है। क्योंकि, शक्तिशाली ही स्वतंत्र रह सकता है। राष्ट्र की भावी आशाएं युवाओं पर हैं इसलिए हिंदी युवा शक्तिशाली और समृद्ध होना चाहिए इस दिशा में उनके प्रयत्न अहर्निश चलते रहते थे और युवाओं से युवाभाव वालाभाषण करने में वे सतत आनंदित होते थे।
सदाचार और स्वधर्मनिष्ठा, सच्चे ब्राह्मण्य की आदर्श मूर्ति पंडितजी थे यह कोई भी गर्व से कह सकता है। आदर्श हिंदू। महान कूटनीतिज्ञ, आदर्श अध्यापक, उत्कृष्ट व तेजस्वी वक्ता जैसे अनेक गुणों से भरपूर पंडितजी का चरित्र हिंदू मात्र के लिए वंदनीय, स्मरणीय और अनुकरणीय है।
ब्लॉग - कणाद

Friday, December 23, 2011

धर्म का प्रमाणपत्र कौन देगा?

धर्म के आधार पर सेवाओं में या निर्वाचित पदों के लिए आरक्षण देने की चर्चा सतत चलती रहती है। हाल ही में केंद्रीय मंत्री सलमान खुर्शीद ने मुसलमानों को आरक्षित स्थान देने का विचार प्रस्तुत किया है। इसके पूर्व सच्चर आयोग ने इस प्रकार के आरक्षण की अनुशंसा की हुई ही है। कुछ परिमाण में उसका निष्पादन भी शुरु हो गया है। 'मौलाना आजाद अल्पसंख्यक आर्थिक विकास महामंडल" धार्मिक आधार पर आर्थिक सहायता करने के लिए ही है। धार्मिक अल्पसंख्यक के रुप में आज भी शैक्षणिक छात्रवृत्तियां मिलती हैं, उद्योग के लिए कम ब्याज से कर्ज मिलता है। आंध्र, केरल आदि राज्यों में धार्मिक आधार पर नागर सेवाओं में आरक्षण दिया जाता है। महाराष्ट्र में भी धार्मिक आधार पर (अर्थात्‌ अल्पसंख्यक के रुप में) पुलिस विभाग में जिला स्तर पर भर्ती की जाती है। इस संदर्भ में हमारे मन में निर्मित होनेवाला प्रश्न है, धर्म के आधार पर आरक्षण देने की गुणवत्ता या योग्यायोग्यता का न होकर, ऐसे समय अपना धर्म कहने के लिए इच्छुक व्यक्ति कौनसा सबूत या प्रमाणपज्ञ प्रस्तुत कर रहे होंगे यह है।
वर्तमान में चल रही पद्धति इस प्रकार की है कि, उस व्यक्ति द्वारा मेरा धर्म अमुक है, इस प्रकार का स्वघोषित प्रतिज्ञापत्र नोटरी के सामने साक्षांकित कर प्रार्थनापत्र के साथ प्रस्तुत किया जाना चाहिए। उसमें उसके द्वारा प्रतिज्ञापित किया हुआ धर्म सच्चा है, ऐसा मानकर आगे की आरक्षण की सारी प्रक्रिया पूरी की जाती है।
इस पद्धति से आजतक कोई सी भी कानूनी या व्यवहारिक समस्या पैदा हुई हो ऐसा दिखाई नहीं दिया है। प्रतिज्ञापत्र के धर्म को आव्हान देनेवाला या आक्षेप उठानेवाला एकाध प्रकरण न्यायालय में दाखिल हुआ हो यह भी सुनने में आया नहीं है। इसका महत्वपूर्ण कारण यानी किसीने भी अपने प्रतिज्ञापत्र में झूठा धर्म दर्ज किया नहीं हो; परंतु धर्म के आधार पर जब व्यापक स्वरुप में आरक्षण दिया जाएगा, नौकरियां मिलने लगेंगी, विधायकी, सांसद के पद मिलने लगेंगे तब यह स्थिति नहीं रहेगी। आज जाति के आरक्षण की जो स्थिति है वैसी होगी। जो अपना धर्म नहीं है उस धर्म का आरक्षण के लाभ के लिए प्रतिज्ञापत्र में लिखना बेधडक शुरु हो जाएगा। जाति के झूठे प्रमाणपत्र जांचने के लिए जिस प्रकार से जाति जांचने की मशीनरी (शासन तंत्र) खडी की गई है वैसी धर्म जांचने के लिए मशीनरी खडी करना पडेगी। भारतीय संविधान के धर्म का अर्थ और धर्मांतरण के मूलभूत अधिकार को ध्यान में लें तो यह धर्म जांच केवल असंभव ही नहीं बल्कि हास्यापस्द हुए बगैर रहेगी नहीं।
 संविधान की 25वी धारा के अनुसार 'रिलीजन" इस अर्थ से धर्म एक पारलौकिक और आध्यात्मिक श्रद्धा है। कानून-व्यवस्था, आरोग्य, नीतिमत्ता और दूसरों का मूलभूत अधिकार इनके विरोध में यह धर्मपालन न होने का बंधन डाला गया है। वैसेही राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक और अन्य इहलौकिक (सेक्यूलर) विषयों के संबंध में धर्म का विचार न करते, कानून बनाने का राज्य को सार्वभौम अधिकार प्रदान किया गया है। संक्षेप में धर्म का मनुष्य के इहलौकिक जीवन पर का (प्रतिकूल) प्रभाव परिणाम शून्य किया गया है। मनुष्य की आत्मिक और मानसिक संतुष्टि के लिए धर्मश्रद्धा पालने की स्वतंत्रता संविधान ने दी हुई है। यह श्रद्धा किस बात पर, किस पर, किस प्रकार से और कितने समय तक रखें इस पर संविधान का बंधन नहीं। धर्मश्रद्धा रखी ही जाए, ऐसा भी बंधन नहीं। एक बार रखी हुई श्रद्धा पुन्हः कभी भी बदली जा सकती है। धर्मांतरण की यह स्वतंत्रता संविधान ने ही दी हुई है। यह धर्मश्रद्धा निश्चित और सिद्ध करने की कोई सी भी पद्धति संविधान में नहीं। वह एक आंतरिक श्रद्धा होने के कारण वह पालनेवाला ही उसे समझ सकता है। वह कहता है इसलिए वह सच होना चाहिए इतना ही दूसरा जान सकता है। वह श्रद्धा दूसरों के सामने सिद्ध कर देने की कोई सी भी वस्तुनिष्ठ पद्धति उपलब्ध नहीं। किसका धर्म कौनसा है यह सिद्ध करनेवाला कोई सा भी कानूनी निर्णयाधिकारी अस्तित्व में नहीं। श्रद्धा और भावनाओं पर आधारित होने के कारण धर्म एक व्यक्तिनिष्ठ बात है। वस्तुनिष्ठ नहीं!  इसलिए तेरे प्रतिज्ञापत्र में लिखा हुआ धर्म ही तेरा धर्म है यह सिद्ध करके दिखा। ऐसा कहने का अथवा वह तेरा धर्म ही नहीं ऐसी आपत्ति उठाने का अन्यों को अधिकार नहीं। इन अन्यों में उस व्यक्ति के माता-पिता, संबंधित धर्मप्रमुुख, शासकीय अधिकारी और न्यायालय भी आते हैं। संक्षेप में, संविधान के अर्थानुसार 'मेरा धर्म अमुक है" यह उद्‌घोषणा ही उसकी वस्तुस्थिति का और सत्यता का एकमेव और अंतिम सबूत ठहरता है। वही उसका धर्म प्रमाणपत्र ठहरता है!
कुछ धर्मों में धर्म स्वीकृति के लिए कुछ विधि किए जाते हैं। उसके बाद वह व्यक्ति अपने धर्म में आ गई ऐसा माना जाता है। उदा. ईसाई धर्म में 'बपतिस्मा" का समाज मान्यता के लिए उपयोग होता है परंतु, उसका संवैधानिक एवं कानूनी दृष्टि से कोई मूल्य नहीं। आज बपतिस्मा लेने के बाद कल उसने अपने हिंदू हो जाने की घोषणा की तो बपतिस्मा अपनेआप ही शून्यवत हो जाता है और हिंदू होने के लिए कोई सी भी विधि की व्यवस्था न होने के कारण वह घोषणा करते ही हिंदू हो जाता है। इस्लाम का भी स्वीकार करने के लिए कोई सी भी विधि अनिवार्य नहीं। ईसाइयों के समान इस्लाम में कोई धर्मपीठ नहीं। इस्लाम का स्वीकार करने के लिए केवल इस 'कलिमा" पर श्रद्धा होने की घोषणा करना पडती है 'अल्लाह एकमेव ईश्वर है और मुहम्मद उसके रसूल (पैगंबर) है"। यह घोषणा किसके सामने की जाए इसका भी बंधन नहीं। इसका जोर से उच्चारण करना भी अनिवार्य नहीं। अकेले में या मन ही मन में उपर्युक्त 'कलिमा" पर श्रद्धा रखी तो भी चलता है। ऐसी श्रद्धा रखते ही वह मुसलमान हो जाता है। इसके लिए नमाज, रोजा, खतना, नामांतरण किसी की भी आवश्यकता नहीं। ये सारी बाद में की जानेवाली बातें हैं। न की गई तो भी 'कलिमा" पर श्रद्धा होने तक उसका मुसलमानत्व अबाधित रहता है। जिस क्षण और जब-जब उसकी श्रद्धा नहीं रहती तब-तब वह मुसलमान (यानी श्रद्धावान) नहीं रहता। अतः उपर्युक्त कलिमा पर मेरी श्रद्धा है, ऐसा कहना यही वह मुसलमान होने का एकमेव सबूत है। यही उसका धर्म प्रमाणपत्र है!
अतः मेरा धर्म अमुक है, ऐसा उद्‌घोषित करनेवाला प्रतिज्ञपत्र और प्रतिज्ञापन ही संविधानानुसार रहनेवाला धर्मप्रमाणपत्र मानना अचूक सिद्ध होता है। वर्तमान में इसीका निष्पादन हो रहा है। जनगणना में, स्कूल-कॅालेजेस में प्रवेश प्रार्थना पत्र में या शासन को दिए जानेवाले अन्य आवेदन या जानकारी पत्रों में धर्म का जो उल्लेख किया जाता है वह सत्य माना जाता है। इसके लिए कोई सा भी सबूत मांगा नहीं जाता। अब प्रश्न यह खडा होता है कि धर्म के आधार पर नौकरियों में या अन्यत्र व्यापक प्रमाण में आरक्षण दिए जाने पर इसके लिए धर्म के सबूत के रुप में कौनसा प्रमाण पत्र प्रस्तुत किया जाए? स्वयं का ही प्रमाण पत्र उपयोग में लाए जाने पर आरक्षण का लाभ लेने के लिए जो धर्म अपना नहीं है उसके प्रमाण लाए जाने लगे तो उसकी जांच कैसे करें? वे प्रतिज्ञापत्र या प्रमाण पत्र शून्यवत, अवैध या दंड के पात्र कैसे ठहराएं?
अपन एक उदाहरण लें। शिवाजी नामके व्यक्ति ने अपने मुसलमान होने का प्रतिज्ञापत्र प्रस्तुत किया और वह स्वीकारा या नकारा इस पर से वह विवाद उच्च न्यायालय में गया तो क्या होगा? शिवाजी कहेगा कि, 'मेरा प्रतिज्ञापत्र सौ प्रतिशत सत्य है। जिस समय मैंने इस प्रतिज्ञापत्र पर हस्ताक्षर किए थे तब मुझे श्रद्धापूर्वक ऐसा लगा था कि, 'अल्लाह एकमेव ईश्वर है और मुहम्मद उसके रसूल हैं। मैंने स्वयं इस्लाम का अध्ययन किया है। साथ में कुरान, हदीस और मौ. आजाद का कुरान भाष्य ये ग्रंथ लेकर आया हूं। अनेक  उलेमाओं ने मुझे बतलाया है कि, मुसलमान होने के लिए इतना ही पर्याप्त है। अतः प्रतिज्ञपत्र बिल्कूल भी झूठा नहीं।" इस पर 'तेरी श्रद्धा वैसी थी यह हमें सिद्ध करके दिखा? तेरा नाम शिवाजी होते हुए तू मुसलमान कैसे? तू कभी मस्जिद गया है क्या? तुझे नमाज पढ़ना आता है क्या? तेरे कपाल पर टीका कैसे? कुरान की कोई सी भी दो आयतें बोलकर दिखा? तुझे मुहम्मद पैगंबर का पूरा नाम मालूम है क्या? ..." इस प्रकार से कुछ भी न पूछते न्यायालय उसके पक्ष में फैसला दे डालेगा। धर्म एक श्रद्धा होकर, अंतःकरण की श्रद्धा को जांचने वाला यंत्र अद्याप नहीं निकला है का अभिप्राय दर्ज करेगा। तब उसके प्रमाणपत्र की जांच उसके स्वयं के सिवाय अन्य कोई भी कर नहीं सकेगा, वैसे ही उसके धर्म का प्रमाणपत्र उसके स्वयं के सिवाय अन्य कोई भी शासकीय अधिकारी दे नहीं सकेगा।
अब आगे के प्रश्न। आरक्षण का लाभ लेने के लिए उस व्यक्ति द्वारा कितने समय तक उस धर्म में ही रहना चाहिए? यानी आरक्षण के आधार पर नौकरी पर हाजिर होते ही उसने नया अथवा पूर्व का ही धर्म स्वीकार लिया तो उसकी नौकरी जाएगी? सेवानिवृत्ति तक उसने उसी धर्म में रहना चाहिए, ऐसा कहा तो वह संविधान की धारा 25 के धर्मांतरण के अधिकार का उल्लंघन तय होगा! मानलो उसने खुल्लमखुल्ला धर्मांतरण न करते वह धर्म मानना और पालन करना ही बंद कर दिया और उलटे उस धर्म की  आलोचना करने लगा - यानी वह बुद्धिवादी बन गया तो भी उसकी नौकरी जाएगी? संक्षेप में आरक्षण का लाभ लेने पर धर्म पर कायम श्रद्धा रखने का और पालने का बंधन उस संपूर्ण लाभ काल में उस पर रहेगा क्या? जिस प्रकार से जाति बदली नहीं जा सकती है उसी प्रकार से धर्म भी बदला नहीं जा सकेगा, इस प्रकार का कानून बनाया जाएगा क्या? और उस धर्म का प्रत्यक्ष में पालन हो रहा है कि नहीं इसके लिए एकाध 'धर्म दक्षता पथक" (रीलिजन व्हिजिलन्स टीम) स्थापित की जाएगी क्या?
और यदि यह संभव न हो तो फिर धर्म पर आधारित आरक्षण यानी प्रत्येक को स्वयं के मन मुताबिक और इच्छानुसार स्वघोषित  प्रमाणपत्रानुसार इसका लाभ लेने का मनमाना अधिकार देना नहीं है क्या?
लेखक - शेषराव मोरे, लोकसत्ता - मुंबई बुधवार, 21 दिसंबर 2011
अनुवाद - शिरीष सप्रे

Wednesday, December 21, 2011

 इस्लाम की मान्यताएं एवं सीख

इस्लाम की सीख यह है कि, 'अल्लाह एकमेव ईश्वर है"; उसके अलावा या उसके साथ अन्य ईश्वर को मानना अनेकेश्वरवाद/बहुदेववाद (शिर्क) है। अनेकेश्वरवाद सबसे बडा अपराध-अन्याय है। (4ः48) (इस संबंध में हदीस1 भी हैं और कुर्आन भाष्य भी हैं2)। मूर्तिपूजा निषेधार्ह है। (22ः30) ''अल्लाह की सबसे बड़ी अवज्ञा शिर्क (अनेकेश्वरवाद) और बुतपरस्ती (मूर्तिपूजा) है।"" (दअव्‌तुल कुरान खंड 2 - पृ.1381) मुहम्मद साहेब अल्लाह के अंतिम पैगंबर हैं। (33ः40) और अल्लाह ने उनके साथ पवित्र कुरान(38ः29) और सत्यधर्म के रुप में इस्लाम को भेजा है। (9ः33) जो पैगंबर का पैगाम (संदेश) सुनकर अल्लाह का दीन (धर्म) (3ः19) स्वीकारेगा वही अल्लाह की कृपा का पात्र होगा और उसीको इस इहलोक में और परलोक में भी अच्छा बदला मिलेगा। (40ः51) और जो इस संदेश को नकारेगा वह दोनो ही लोकों में अल्लाह के दंड का पात्र होगा। (3ः85;127) उसे हमेशा के लिए नरकाग्नि (दोजख की आग) का दंड भोगना पडेगा। (4ः56) आरंभ में पैगंबर मुहम्मद ने यही संदेश देकर धर्मप्रचार का कार्य प्रारंभ किया था। साथ ही उनका कहना यह भी था कि इसके पूर्व भी अनेक पैगंबर यही संदेश और सीख लेकर आए थे। (40ः78; 41ः43) और जिन मानव समूहों ने मान्य नहीं किया उन्हें अल्लाह का प्रकोप झेलना पडा। (40ः5; 26ः139) ये कथाएं, अल्लाह के प्रकोप का वर्णन, कुरान के लगभग 30% भाग में वर्णित हैं। यह पृथ्वी अल्लाह की और उसके पैगंबर की होकर (उदा. 5ः120; 24ः42) मानवों को अल्लाह पर श्रद्धा रखकर ही उसकी आज्ञानुसार इस पृथ्वी पर रहना चाहिए, व्यवहार करना चाहिए (4ः59) अन्यथा अल्लाह कठोर दंड देता है। (4ः115; 9ः63) यही संदेश लोगों को सुनाकर पैगंबर मुहम्मद अल्लाह के दंड से बचने के लिए इस्लाम का स्वीकार करो का आवाहन करते थे। (88ः21-24)

इस्लाम के अनुसार अल्लाह एकमेव होने के कारण सभी मानवों के लिए चुना हुआ धर्म एक ही है और वह है 'इस्लाम"। (3ः83) इस इस्लाम की स्थापना पैगंबर मुहम्मद ने की हुई न होकर अल्लाह ने की है। पैगंबर केवल संदेश देनेवाले हैं। (16ः82) इस्लाम के पहले पैगंबर आदम (3ः59) तो अंतिम पैगंबर मुहम्मद हैं। (33ः40) यही एकमेव ईश्वरीय, सत्य, परिपूर्ण और अंतिम धर्म है। (5ः3) संसार के बाकी के धर्म भी मूलतः सत्य ही थे (अर्थात्‌ पूर्व में वे इस्लाम के जैसे ही थे)। परंतु, अब वे वैसे नहीं रहे क्योंकि, पूर्व के पैगंबरों द्वारा दी गई शिक्षा, धर्म, धर्मग्रंथों को अनुयायियों ने भ्रष्ट कर डाला। (3ः78; 2ः79) (इस संबंध में हदीस भी हैं। बुखारी ः 7362,7363) इसी कारण अल्लाह ने प्रत्येक मानव समूह के पास वही धर्म और शिक्षा देकर बार बार पैगंबर भेजे। दअव्‌तुल कुरान भाष्य भी कहता है ः ''अल्लाह ने इस्लाम की हिदायत (सीख, आदेश) और रहनुमाई (पथ प्रदर्शन) के लिए जो दीन (धर्म) फरमाया वह इस्लाम है। यही दीन अल्लाह का दीन है और तमाम नबियों पर वह इसी दीन को नाजिल (अवतरित) फरमाता रहा। उसने कभी किसी देश में और युग में किसी भी नबी या रसूल पर इस्लाम के सिवा कोई और दीन नाजिल नहीं फरमाया। लेकिन पैगंबरों की उम्मतों (समुदायों) ने उस असल और वास्तविक दीन में बिगाड और मतभेद उत्पन्न करके अलग - अलग धर्म इजाद कर लिए।"" (द.कु. खंड1-पृ.173) अब पैगंबर मुहम्मद को मूल शिक्षाओं वाला धर्मग्रंथ और धर्म देकर भेजा गया है। जो कुरान में ग्रंथबद्ध है। (3ः3) संसार के पूर्व के सभी धर्म और धर्मग्रंथ विशुद्ध स्वरुप में अब केवल कुरान में - इस्लाम में अंतर्भूत हैं। इसलिए अब सभी को अपने पूर्वजों के मूल धर्म के रुप मेंं इस्लाम को स्वीकारना चाहिए। यह कुरान की सीख है। इसी कारण से सत्यधर्म लानेवाले सभी पूर्व पैगंबरों का मुस्लिमों द्वारा समान रुप से आदर किया जाना चाहिए। (2ः285; 4ः152) यह अल्लाह की इच्छा और आज्ञा है। अल्लाह की इस इच्छा, आज्ञा को पूर्ण करने का कार्य अल्लाह ने पैगंबर मुहम्मद को सौंपा था और अब उनके बाद इस कार्य की जिम्मेदारी उनके उत्तराधिकारियों (खलीफाओं) पर और सारे मुस्लिम समाज पर डाली गई है। (22ः78, 3ः110) द.कु. भाष्य भी कहता है ः ''यह हुक्म मुस्लिम उम्मत (समुदाय)  पर यह दायित्व डालता है कि वह दुनिया के सामने इस्लाम की दावत (निमंत्रण) पेश करे और इसके लिए अपने सारे संभावित संसाधनों को प्रयोग में लाए इस्लाम का प्रचार एवं प्रसार तथा दीन (इस्लाम धर्म) को फैलाना वह महत्वपूर्ण अनिवार्य कर्तव्य है जिसे अंजाम देने के लिए यह उम्मत खडी की गई है।"" (द.कु.खंड 2-पृ.1150)  इसी कारण से अन्य लोगों के भले के लिए इस्लाम की दावत (निमंत्रण) देना मुसलमान अपना अधिकार समझते हैं। द.कु. भाष्य के अनुसार ः ''पैगंबर मुहम्मद और आपकी लाई हुई किताब (कुरान) हिदायत और रहनुमाई के लिए मौजूद है तथा आपकी उम्मत (उम्मते मुस्लिमा) को बरपा किया गया है ताकि वे दुनिया के कोने - कोने में सत्य संदेश पहुंचाए और लोगों को सत्यधर्म की ओर बुलाएं।"" (द.कु. ख.3 -1541) इसके अलावा अल्लाह अपना यह धर्म अन्य सभी धर्मों पर विजयी बनाए बगैर नहीं रहेगा इस प्रकार का संदेश भी कुरान में आया हुआ है। (9ः33; 48ः28; 61ः9)

इस्लाम के अनुसार इस्लाम पूर्व का काल 'अज्ञान काल"3 days of ignorance है। कुरान (5ः50; 48ः26) में भी यही विशेषण उपयोग में लाया गया है। (यह अज्ञान काल तय करते समय इस्लाम की शुरुआत पैगंबर मुहम्मद के काल से हुई है ऐसा मानना चाहिए है)।

इस्लाम मतलब पांच बातें जिन्हें इस्लाम के आधार स्तंभ भी कहा जाता है। वे हैं - श्रद्धा (ईमान), नमाज, जकात (धर्मकर अनिवार्य धर्मदान), रोजा (रमजान महीने के उपवास) और हजयात्रा (जीवन में एक बार तो भी मक्का (हज) की यात्रा करना)। ये पांचों ही बातें प्रत्येक मुसलमान के अनिवार्य हैं। परंतु, उनमें से पहली बात 'श्रद्धा" अत्यंत अनिवार्य है। बची हुई चार में से एक या अनेक विशिष्ट प्रतिकूल परिस्थितियों में न भी की गई तो भी धक सकता है;4  परंतु, 'श्रद्धा" न रखने पर वह मुसलमान नहीं रह सकता। यह श्रद्धा भी पांच बातों पर रखना अनिवार्य है ः एकमेव ईश्वर (अल्लाह), (अल्लाह की ओर से संदेश लेकर आनेवाले) देवदूत (फिरिश्ते), अंतिम पैगंबर मुहम्मद, (जिसमें वह संदेश है वह अल्लाह की किताब) कुरान, और अंतिम निर्णय दिन। (2ः177) (उपर्युक्त स्तंभों एवं श्रद्धा के संबंध में हदीस भी हैं। मुस्लिम ः18-21; मजह ः63;41) परंतु, इस्लाम में जिन चीजों को मानने और उन पर ईमान लाने की शिक्षा दी गई है उनमें तीन चीजें मौलिक एवं महत्वपूर्ण हैं ः 1. अल्लाह है और वह एक है और वही सबका मालिक है। 2. मानव जाति के मार्गदर्शन के लिए उसने अपने नबी और रसूल भेजे। मुहम्मद अल्लाह के अंतिम रसूल और नबी हैं और आप सारे संसार के मार्गदर्शन के लिए भेजे गए हैं। 3. आखिरत सत्य है। (पथ-रेखाएं - सैयद कुत्ब शहीद अन. मुहम्मद फारुकखां -पृ.190) संसार का अंत होने पर सभी को फैसले के लिए अल्लाह के पास जाना पडेगा। उस दिन (न्याय दिवस) अल्लाह श्रद्धावानों को हमेशा के लिए स्वर्ग और श्रद्धाहीनों को हमेशा के लिए नरकाग्नि का फैसला देगा। इस न्याय दिवस को ही अंतिम निर्णय दिन, आखिरत या कयामत कहते हैं। इन पांचों श्रद्धाओं को एकत्रित रुप से मिलाकर रखना श्रद्धा रखना कहा जाता है और ये पांचों ही श्रद्धाएं अविभाज्य हैं। अगर इनमें से एक भी 'श्रद्धा" नहीं रखी तो श्रद्धा की श्रंखला टूटकर बची हुई चारों श्रद्धाएं भी निरर्थक हो जाती हैं अर्थात्‌ वह श्रद्धाहीन हो जाता है। (2ः85) व्यवहार में इन पांचों श्रद्धाओं को संक्षेप में 'अल्लाह पर श्रद्धा", ऐसा कहा जाता है। उपरोक्त पांचों श्रद्धाएं एक ही कलमें 'लाइलाह इल्ललाह मुहम्मदुर्रसूलुल्लाह" 5  अल्लाह एकमेव ईश्वर है और मुहम्मद उसके पैगंबर हैं, इसीको 'कलमा - ए- शहादत" या 'कलमा तैयबा" कहते हैं, में आ जाती हैं।6 जो इस प्रकार की श्रद्धा रखता है वह श्रद्धावान (ईमानवाला) अर्थात्‌ मुसलमान और जो श्रद्धा नहीं रखता वह गैर - मुस्लिम। इसे ही अरबी भाषा में 'काफिर" कहते हैं। काफिर मतलब जो 'कुफ्र" करता है। 'कुफ्र" मतलब 'नकार देना"। जो श्रद्धा को नकारता है वह 'काफिर", ऐसा सीधासादा अर्थ है। 'डिक्शनरी ऑफ इस्लाम" में काफिर का अर्थ दिया गया है ः 'काफिर वह है जो कुरान और मुहम्मद की सीख पर श्रद्धा नहीं रखता।" कुछ इसी प्रकार का भाष्य दअ्‌वतुल कुरान का भी है ''काफिर से मुराद (अभिप्रेत) वह व्यक्ति है जो हजरत मुहम्मद के लाए हुए दीन7को कुबूल करने से इंकार कर दे।"" (द. कु. खंड 3-पृ. 2367)  हदीस सौरभ की सामान्य पारिभाषिक शब्दावली के अनुसार ''कुफ्र- 1. अधर्म, 2. इन्कार, 3. कृतघ्नता। 'कुफ्र" का मूल अर्थ होता है ः ढ़ांकना, छिपाना। इस्लाम के इन्कार करनेवाले को कुफ्र का 'अपराधी" या 'काफिर" कहा जाता है।"" (हदीस सौरभ - मुहम्मद फारुकखां -पृ. 564) स्पष्ट कहें तो नास्तिक अथवा अनेकेश्वरवादी अथवा मूर्तिपूजक अथवा कुरान पर श्रद्धा न रखनेवाला। इनमें से प्रत्येक श्रद्धाहीन (काफिर) ही होता है।

अल्लाह की कृपा, दया, प्रेम, मार्गदर्शन, क्षमा, बदला, सहायता, लडाई में विजय यह सब श्रद्धावान को ही मिलता है। श्रद्धाहीन के लिए ठीक इसके विपरीत रहता है। इस्लाम के अनुसार 'श्रद्धा" सद्‌गुणों, नीतिमूल्यों, सदाचार, न्याय का मूल स्त्रोत है, तो श्रद्धाहीनता (कुफ्र) दुर्गुणों, दुराचार, अनीति, अन्याय का मूल स्त्रोत है। श्रद्धा रखने पर मनुष्य सदाचारी, सत्यवचनी, सद्‌गुणी, सह्रदयी, संयमी, न्यायी, क्षमाशील, शांतिप्रिय, समतावादी, परोपकारी, नीतिमान, मानवतावादी बन सकता है, तो श्रद्धाहीनता के कारण इसके विपरीत घटित होता है। इसीलिए सदाचारी (सत्कर्मी) वगैराह बनने के लिए पहले श्रद्धावान बनना आवश्यक है, ऐसी इस्लाम की भूमिका है।

टिप्पणी ः-
-1. मुस्लिमों में कुरान के अनंतर हदीस का महत्व है। हदीस को  "सुन्नाह' भी  कहते हैं। सुन्नाह का अर्थ मार्ग, नियम, कार्यपद्धति अथवा जीवन पद्धति होता है। कुरान की शिक्षाओं का योग्य स्पष्टीकरण और उसके अन्वयार्थों के विवाद मिटाने का एकमेव साधन हदीस ही है। अर्थात्‌ कुरान और हदीस मिलकर "दीन' (धर्म) की शिक्षा को पूर्णत्व तक पहुंचाते हैं। संक्षेप में हदीस मतलब पैगंबर मुहम्मद की कृतियां, उक्तियां एवं यादें, जो उनके निकटस्थ एवं विश्वसनीय अनुयायियों द्वारा आस्थापूर्वक संभालकर रखी थी, जिन्हें बाद में संग्रहीत कर संशोधकों ने ग्रंथ का रूप दिया।आगे के छह हदीस -संग्रह महत्वपूर्ण माने जाते हैं : (1) 'सहीह बुखारी' (सन्‌ 810-892); (2) 'सहीह मुस्लिम' (817-874) (3) 'अबू दाऊद का सुन्नाह' (817-888) ( 4) 'तिरमिजी का सुन्नाह' (821-892) (5) 'नसाई का सुन्नाह' (830-916) (6) 'मजह का सुन्नाह'(824-886)  (कोष्ठक के आंकड़े उस संग्राहक के जीवन काल के हैं।) इन छ: संग्रहों को मान्यता प्राप्त (approved)अधिकृत (authentic) अथवा विश्वसनीय (genuine/reliable) हदीस माना जाता है। (64-xxviii) (60-v) उन  छ: में से पहले दो हदीस संग्रहों कोअधिक सम्माननीय स्थान प्राप्त है। उन्हें 'सहीह' यानी 'अतिविश्वसनीय' (sound) ऐसा नाम प्राप्त हुआ। (99-xi) इन दोनों संग्रहों की प्रत्येक हदीस पूर्णतया सत्य हैं ऐसा माना जाता है। कुछ लोग इनमें भी थोड़ा अंतर करके 'सहीह-बुखारी' इस संग्रह को पहला क्रम देते हैं। इसके बाद अबू दाऊद की सुन्नाह का क्रम लगता है। बचे हुए तीन संग्रह महत्वपूर्ण माने जाते हैं और उनकी हदीस का आधार लिया जाता है फिर भी उनमें से प्रत्येक हदीस की सत्यता के बारे में निश्चित रूप से कहा नहीं जाता। इन छह के अलावा कुछ और हदीस प्रचलित हैं। (1) इमाम मलिक की मुवत्ता (2) इमाम हनबल की मुस्नद (3) अबू अब्द की मुस्नद, वैसे ही आगे के विद्वानों के नामों से भी सुन्नाह संग्रह हैं : (4) दरिमी, मझा, दरकुंटी, बाह्याकी, मंसूर वगैराह। हदीस को उद्‌धृत करते समय संबंधित संग्रह का नाम और उसका हदीस क्रमांक इतना उल्लेख करना पर्याप्त होता है। उदा. (बु. : 256, मु : 6200, दा : 2651) (बु : = सहीह बुखारी, मु : सहीह मुस्लिम और दा : अबू  दाऊद का सुन्नाह, मज: = , इब्न मजह का सुन्नाह, मलि : मुवत्ता इमाम मलिक) हमने हदीस उद्‌धृत करते समय यही पद्धति उपयोग में लाई है ।

-2. ''शिर्क यह है कि अल्लाह की जात (व्यक्तित्व, अस्तित्व) और उसकी सिफात (प्रशंसा, तुल्य) में किसी को साझीदार ठहराया जाए चाहे वह सूरज हो या तारे, नाग हो या आग, बुत (मूर्ति) हो या इन्सान, फरिश्ते हों या जिन्न, वली (महात्मा, ऋषि) हों या पैगंबर, भौतिक चीजें हों या अध्यात्मिक, काल्पनिक देवी हो या देवता।"" (द.कु.ख.1-279) 'शिर्क मतलब 'कलमा-ए-खबीस" और उसके साथ कोई अमल (कार्य, कृत्य) कुबूल नहीं होता।"(फजाइले आमाल-520) खबीस का अर्थ होता है ''बहुत बडा पापी""। (उर्दूःहिंदू शब्दकोश-146) ''जो इस कलमे को मानेंगे अल्लाह इनकी सारी कोशिशों को भटका देगा। वह कभी सीधा काम न कर करेंगे जिससे दुनिया या आखिरत (परलोक) में कोई अच्छा फल पैदा हो।"" (खुतबात, मौदूदी-42) ''इस कलिमे का अर्थ गंदी, बुरी और अपवित्र बात के है। मुराद बातिल (असत्य) का कलिमा है, चाहे वह शिर्क (बहुदेववाद) हो, अनीश्वरवाद हो या कुफ्र।"" (द.कु.ख.2-843)

-3. ''मुस्लिम इस्लाम के अभ्युदय के पूर्व के समग्र काल को 'जाहिलिया युग" कहते हैं। उनका विश्वास है कि इस्लाम के पूर्व अरब अज्ञानी थे क्योंकि उनके जीवन यापन के लिए कोई ईश्वरीय विधान नहीं था। शब्द जाहिलिया का प्रयोग मुहम्मद साहब ने भी कुरान शरीफ में चार स्थलों पर किया है। प्राचीन अरबों को अज्ञानी नहीं कहा जा सकता है। वे अत्यंत कुशाग्र बुद्धि के थे। वे अनेक मानवीय गुणों से भी विभूषित थे। वे अत्यंत विनम्र, दयालु और शिष्ट थे। अपने अतिथियों का बडा आदर सत्कार करते थे। परंतु चूंकि वे इस्लाम के नियमों से आबद्ध नहीं थे इसलिए इस युग को मुस्लिम 'दौर-जाहिलिया" की संज्ञा देते हैं।"" (अरबी साहित्य ....पृ.18)

-4.''अल्लाह की ही इबादत करे, नमाज कायम करे और जकात दे यही सही पायदार दीन है''  (अल्लाह पर श्रद्धा रखें, नमाज अदा करें और जकात दें) इस स्वरूप की अनेक आयतें (उदा. 2:277, 98:5) कुरान में आई हुई हैं। इन आरंभ की आयतों में रोजा या हज का उल्लेख नहीं।

-5. ''जब किसी मुस्लिम घराने में बच्चा पैदा होता है तो उसके कान में सबसे पहले अरबी भाषा के यह शब्द फूँके जाते हैं 'लाइलाहइल्ललाह मुहम्मदुर्रसूलल्लाह" और यही कलमा मरते समय आमतौर पर मुस्लिमों की जबानों पर होता है।"" (अरबी साहित्य - डॉ. नरेंद्र बहादुर, संपादक शाह अब्दस्सलाम, मानव संसाधन विकास मंत्रालय, भारत सरकार ....पृ. 9)

-6.इस कलमे का पहला भाग 'लाइलाह इल्ललाह" (37ः35) में आया है तो, दूसरा भाग 'मुहर्म्मदसूलुल्लाह" (48ः29) में आया है। 'पचासी आयतें हैं, जिनमें कलमा-ए-तैयबा या इसका मज्मून आया हुआ है। इनके अलावा और भी आयतें हैं जिनमें इनके अर्थ आए हुए हैं।" (फजाइले आमाल-541) 'इस कलमे पर जो लोग ईमान (श्रद्धा) लाएंगे अल्लाह उनको ... दुनिया और आखिरत दोनो में सबात (चिरस्थायित्व) बख्शेगा।" (खुतबात, मौदूदी-42) ''इस कलमे का अर्थ अच्छी और पाकीजा (पवित्र) बात के है। इससे अभिप्रेत तौहीद (एकेश्वरवाद) का कलिमा है जो इस्लामी अकीदे (शिक्षा) की बुनियाद और ईमान (इस्लाम पर श्रद्धा) की आधारशिला है। (द.कु. ख. 2-843)

-7. ''दीन जो वास्तव में अल्लाह की हिदायत का नाम है, सिर्फ इस्लाम है। लिहाजा जो व्यक्ति भी इस्लाम के सिवा कोई दूसरा दीन अपनाएगा वह अल्लाह के यहां कतई स्वीकार नहीं किया जाएगा और ऐसे लोग आखिरत में तबाह होंगे।"" (द.कु.ख. 1 -165)

Tuesday, December 20, 2011

वीर सावरकरजी की राष्ट्रसमाजोद्धारक सूक्तियां

प्राथमिक शिक्षा देने का काम कौन करे?

वीर सावरकरजी जब अंदमान कारागृह में दो आजीवन कारावास का दंड भुगत रहे थे। तब वे वहां अनाडी एवं अशिक्षित बंदियों को अक्षर ज्ञान करवा देने का पवित्र कार्य करते थे। इस पर राजबंदीवान उनसे प्रश्न पूछा करते थे कि, यह माथाफोडी का कार्य आप क्यों करते हैं? सावरकरजी बॅरिस्टर थे। इस पर सावरकरजी ने जो उत्तर दिया था वह इस प्रकार है -
.... अपन गांव-गांव में प्राथमिक शालाओं को प्रारंभ करने का प्रस्ताव लाते हैं। वह शिक्षा देने के लिए किसीने तो आगे आना चाहिए ही ना? फिर वह कष्टदायक कार्य हम ही क्यों न करें? हम उतने अध्यापकों के भारी-भरकम वेतन और सम्मान की कुर्सियों पर आसिन हों और गांवों में बारहखडी घोखते हुए शिक्षा देने का कष्टदायक कार्य अन्य करें यह इच्छा अन्याय नहीं क्या?

शिक्षक वर्ग की जीविका के लिए राष्ट्रीय निधी
अपने सारे नौकर वर्ग में जिस वर्ग की सांपत्तिक स्थिति अत्यंत अनुकंपनीय है उनमें प्राथमिक शिक्षक वर्ग की गणना करना पडती है। वास्तव में जिस शिक्षक वर्ग के हाथों राष्ट्र के कोमल बच्चों को शिक्षा दी जाती है, यानी राष्ट्र के बाल रुपी पौधे की हिफाजत करनेवाला जो माली ही है उस वर्ग की जीविका का भार राष्ट्रीय निधी से इतना संपूर्ण रुप से और संतुष्टिपूर्ण मात्रा में उठाना चाहिए कि, कम से कम अपने परिवार के पालन-पोषण की तो भी चिंता उसे ना करनी पडे। यानी वह बालराष्ट्र की बौद्धिक हिफाजत अबाध और प्रसन्न मन से कर सके। (1933 में सरदेसाई रियासत के परीक्षण की प्रस्तावना)

सच्चा शिक्षित - सच्चा शिक्षित वह है कि जो लोगों के दुःख से बेचैन हो उनके सुख के लिए स्वयं की यंत्रणाओं को नगण्य मानता है।

ज्ञानार्जन और ज्ञानदान कर्तव्य का मूल सिद्धांत -
ज्ञानार्जन और ज्ञानदान सतत करते रहना कर्तव्य का मूलसिद्धांत है। इस मूल सिद्धांत का जो सतत अभ्यास करते रहता है वह संत, सज्जन लोगों के सामने सत्यासत्य रखने का काम सतत करते रहेगा ही और सत्यासत्य लोगों के सामने प्रस्तुत करना यानी सत्य के पक्ष का समर्थन करना है, सत्यासत्य के पक्ष को प्रोत्साहित करना है और असत्य की महत्ता कम करना स्वभावतः ही सत्यशील रखनेवाला जनसमाज करने लगता है।

ज्ञान बांझ कब ठहरता है?
... केवल पढ़कर जो संचित होते जाता है वह ज्ञान, फलहीन वृक्ष के समान, अथवा जिसके पानी से हजारों न हों, परंतु एक आधे तृषार्त की तृष्णा भी पूरी न होती हो या अन्नउत्पादन से भूख मिटती नहीं हो उस जलाशय के संग्रह के समान केवल बांझ नहीं तो और क्या है?

शिक्षक का कार्य - शिक्षक ने उसके कार्य को केवल व्यवसाय के रुप में न करते देश की भावी पीढ़ियां बलशाली और राष्ट्रभक्त  होंगी इस प्रकार के प्रयत्न करना चाहिए।
शिक्षक सहज कर सकें ऐसे सुधार - शिक्षक अपनी नौकरी की कक्षा में ही जिन राष्ट्रीय सुधारों को सहज साध्य कर सकता है उनमें भाषाशुद्धि और लिपिशुद्धि के सुधारों का समावेश होता है। इसके लिए सभी शिक्षक स्वयं उन्हें सावधानी पूर्वक आचरण में लाएं, विद्यार्थियों से भी उन्हें आचरण में लाने को कहें।
सीखाने से विषय अधिक अच्छी तरह समझ में आता है - पढ़कर जो समझ में आता है वह दूसरों को कहने पर कई गुना अधिक समझ में आता है।

विद्यार्थियों को औद्योगिक शिक्षा - (राष्ट्रीय) शालाओं द्वारा शीघ्र ही स्वदेशी के प्रचार के लिए एकाध साबुन का कारखाना, खादी अथवा अन्य उद्योग चालू किया जाना चाहिए। विद्यार्थियों को औद्योगिक शिक्षा दें।

 योगशास्त्र में सावरकरजी की रुचि युवावस्था में ही जागृत हो गई थी इसका उल्लेख उनके काव्य 'सप्तर्षि" और 'माझी जन्मठेप" (मेरा आजीवन कारावास) में मिलता है। स्वामी विवेकानंद का राजयोग उनका प्रिय ग्रंथ था। स्नान के बाद ध्यानधारणा करना उनका नित्य क्रम था। अखिल हिंदू ध्वज पर कृपाण के साथ उन्होंने कुंडलिनी को स्थान दिया था।
योगशास्त्र मानव के लिए वरदान
मानव जीवन के लिए सर्वश्रेष्ठ वरदान के रुप में जिसका वर्णन किया जा सके ऐसा प्रयोगाधारित शास्त्र है योगशास्त्र जिसे हिंदुओं ने पूर्णत्व तक पहुंचाया है।
योगशास्त्र मनुष्य कीआंतरिक शक्तियों के संपूर्ण विकास का एक सर्वश्रेष्ठ शास्त्र है।
योगशास्त्र मानव के व्यक्तिगत अनुभव का शास्त्र है। उसमें मतभेद के लिए स्थान नहीं।
योग में गुप्तता नहीं फिर भी वह शास्त्र है।
योग करनेवाले मनुष्य को आश्चर्यजनक, इंद्रियातीत और श्रेष्ठ आनंद की प्राप्ति होती है। इस अवस्था को योगी कैवल्यानंदजी कहते हैं, वज्रायनी महासुख, अद्वैती ब्रह्मानंद और भक्त प्रेमानंद। इस सर्वश्रेष्ठ आनंद को प्राप्त कर लेना मनुष्य का - फिर वह हिंदू हो या अहिंदू, आस्तिक हो या नास्तिक, नागरिक हो या वनवासी हो, - सर्वश्रेष्ठ ऐसा ध्येय है।दंड-बैठक, सूर्यनमस्कार, तैरना, दीवार पर चढ़ना आदि व्यायाम सावरकरजी युवावस्था में करते थे। इंग्लैंड में रहते समय वे सॅंडो के वर्ग में जाते थे। सुदृढ़ थे इसीलिए सावरकरजी अंडमान (के दो आजीवन कारावास के दंड) में टिक सके। रत्नागिरी में स्थानबद्ध रहते समय उन्होंने वहां व्यायामशाला निकालने का प्रयत्न किया था। अपने दौरों में वे व्यायामशालाओं को आस्थापूर्वक भेंट दिया करते थे।

बचपन में कौनसे व्यायम करें?
मजबूत और खुरदरापन यानी बलशाली होना नहीं, शरीर के मोहक-सुंदर सलोनेपन को न गमाते हुए भी प्रमाणबद्ध व्यायाम से शरीर सुश्लिष्ट होकर भी बलशाली हो सकता है - जैसे भगवान कृष्ण का! मेरी युवावस्था के व्यायामविषयक अनुभव का दूसरा एक पाठ भी कहें ऐसा लगता है, कच्ची आयु में दंड-बैठक के स्थान पर ही मांसपेशियों को जमा डालने वाले व्यायाम का प्रमाण कुछ कम करके, सिंगलबार, डबलबार, मलखंब, ऊंचाई बढ़ानेवाले व्यायाम करना विशेष अनुसेवनीय लगते हैं।
लाठी बेलन कब हो जाती है?

जो लाठी धार्मिक कृत्य और अनाथ लोगों पर आततायी आक्रमण के समय मिलती नहीं है उस लाठी में और अबला के हाथ के बेलन में अंतर ही क्या रहा?दंड-बैठक, सूर्यनमस्कार, तैरना, दीवार पर चढ़ना आदि व्यायाम सावरकरजी युवावस्था में करते थे। इंग्लैंड में रहते समय वे सॅंडो के वर्ग में जाते थे। सुदृढ़ थे इसीलिए सावरकरजी अंडमान (के दो आजीवन कारावास के दंड) में टिक सके। रत्नागिरी में स्थानबद्ध रहते समय उन्होंने वहां व्यायामशाला निकालने का प्रयत्न किया था। अपने दौरों में वे व्यायामशालाओं को आस्थापूर्वक भेंट दिया करते थे।

सावरकरजी का कहना था - 'मुझे भूल जाओगे तो चलेगा परंतु, मेरे बतलाए हुए सामाजिक विचारों का विस्मरण मत होने देना।" इतना अंधश्रद्धा, धार्मिक रुढ़ि, ग्रंथ-प्रामाण्य, विज्ञान पराड्‌मुखता इन बातों पर किए हुए आक्रमणों का उन्हें महत्व प्रतीत होता था। राजनैतिक विचार तात्कालिक होते हैं, परंतु सामाजिक विचार समाज पर दीर्घकाल तक परिणाम करनेवाले होते हैं। समाज सुसंगठित और विज्ञाननिष्ठ हुआ कि वह किसी भी संकट का सामना कर सकता है। यह सोचकर ही उन्होंने विज्ञान से प्रेरित समाज रचना का आग्रह किया था।

साहित्य अनैर्बंधिक (गैर-कानूनी) कब ठहरता है?
 1). किसी व्यक्ति का अथवा समाज की केवल मानहानि, केवल उपमर्द या केवल हानि करने की दुष्ट बुद्धि से घृणित या असभ्य भाषा में जो लिखा जाए वही वाड्‌मय ही अनैर्बंधिक (गैर-कानूनी) या अप्रसिद्धेय समझा जाना चाहिए।
 2). ... सत्य जिज्ञासा से या तथ्य प्रतिपादन के उद्देश्य से जिस मत की प्रस्थापना कोई करना चाहता है उसे जहां तक संभव हो सके प्रतिबंध नहीं होना  चाहिए। लेखन अथवा उपदेश की स्वतंत्रता होनी चाहिए। इसके कारण पवित्रता का विडंबन हो रहा है ऐसा किसी को लगता हो तो उसका यह मत गलत है ऐसा विरुद्ध पक्ष द्वारा साधार प्रतिपादन किया जाना चाहिए; यानी उसके विडंबन की अप्रतिष्ठा हुए बगैर रहेगी नहीं। उसका कहना सत्य अथवा तथ्य ठहरा तो अपन ने भलती ही बात को असत्य अथवा अतथ्य बात को पवित्रता दी थी यह अपने ध्यान में आएगा। सत्य की ओर तथा तथ्य की ओर मनुष्य की  अधिक प्रगति होगी।

साहित्य का ध्येय
मानवी जीवन के भौतिक ध्येय की व्याख्या जिससे मैं सहमत हूं वह यह है कि, मनुष्य जाति का अधिकाधिक हित जिसके द्वारा साधा जा सके वही मनुष्य का ऐहिक कर्तव्य है। उसी न्याय से कहा जा सकता है कि,तात्कालिक कर्तव्य भी प्राप्त परिस्थिति में उस-उस काल में मनुष्य जाति का जो अधिकाधिक हित साधा जा सके वह-वह साधें। इस दृष्टि से साहित्य के परम या तात्कालिक ध्येय की व्याख्या भी इसी प्रकार की होगी कि, मनुष्यहित का अधिकाधिक हित साधने के लिए प्रयास करे वही साहित्य श्रेष्ठ, वही सुप्रासंगिक, आनंद और मनोरंजन मानवहित के लिए कुछ प्रमाण में हितकारक होने के कारण उनका भी अंतर्भाव योग्य मात्रा में उपर्युक्त ध्येय में आता ही है, परंतु केवल मनोरंजन यह कोई कर्तव्य नहीं।
साहित्य केवल अर्थशास्त्र या कामशास्त्र का प्रपंच नहीं
कोईसा भी साहित्य केवल अर्थशास्त्र या केवल कामशास्त्र का प्रपंच है, तमाम साहित्य की जडें पूंजी, सत्ता और श्रमिक सत्ता इनके विरोध या सुप्त और जागृत कामवासना में ही गडी रहती हैं, ऐसा सिद्धांत गर कोई प्रस्तुत करने लगा तो भर एकांगी और एकतरफा ठहरे बगैर नहीं रहेगा।
साहित्य राष्ट्र की बुद्धि, शक्ति, शौर्य का प्रतीक है।
जो राष्ट्र बौना, दुर्बल, उसका साहित्य भी बौना और दुर्बल ही रहेगा।

सावरकरजी की भाषा संस्कृत प्रचुर होकर वेद, उपनिषद, भगवद्‌गीता, पातंजल योगसूत्र, स्मृतियां और पुराण, रामायण-महाभारत, कौटिल्य अर्थशास्त्र, कालिदास, भवभूती आदि का सावरकरजी को व्यासंग था। योगवसिष्ठ उनका प्रिय गं्रथ था। उनके संस्कृत भाषा संबंधी विचार इस प्रकार से हैं -

 संस्कृत हमारी जाति का अत्यंत पवित्र और गर्व करने योग्य चिरंतन उत्तराधिकार है। हमारी जाति में मूलभूत एकता घटित करवाने में उसका सामर्थ्य ही प्रमुख कारण है।हमारे जीवनमूल्य, हमारा ध्येय, हमारी आकांक्षाओं को उदात्त, उन्नत करते हुए इस देववाणी संस्कृत ने ही हमारे राष्ट्रीय जीवन के प्रवाह को परिपूत और विशुद्ध किया ..

महाभारत के अधिकांश प्रसंग धर्म की सनातनी अहिंसा, सत्यास्तेय, ब्रह्मचर्य आदि सार्वभौम समझे जानेवाले शब्दों का सच्चा अर्थ क्या है, व्यवहार मेें उन्हें कौनसा घूमाव देने पर वह धर्म होता है और कौनसा न देने पर वह अधर्म होता है, यह स्पष्ट करने के लिए हेतुतः डाले गए हैं। महाभारत यानी व्यवहार्य और व्यवह्रत नीतिशास्त्र की सोपपत्तिक और उदाह्रत चाबी है।

मुट्ठीभर बालू के कणों के समान हमें दसों दिशाओं में भी यदि बिखेर दिया जाए तो भी केवल रामायण और महाभारत की कथाएं हमें एकत्र लाकर एकजाति के रुप में पुनः एकजीव कर सकती हैं।

चीन, बाबिलोन, ग्रीस आदि किसी भी प्राचीन राष्ट्र के जीवनवृतांत के समान अपना प्राचीन राष्ट्रीय वृतांत भी पुराणकाल में आता है। यानी उसमें समाविष्ट इतिहास पर दंतकथाओं की, दैवीकरण और लाक्षणिक वर्णनों की परतें चढ़ी हुई हैं। फिर भी वे अपने पुराने 'पुराण" अपने प्राचीन इतिहास के आधारस्तंभ ही हैं यह न भूलें। यह प्रचंड 'पुराण वाड्‌मय" अपने साहित्य, ज्ञान, कर्तृत्व का और ऐश्वर्य का एक भव्य भंडार है इसी प्रकार से वह अपने प्राचीन जीवनवृतांत का भी असंगत, अस्तव्यस्त और संदिग्ध होने पर भी एक अमर्यादित संग्रहालय है।

परंतु, अपने 'पुराण" यानी 'विशुद्ध इतिहास" नहीं।

संसार में अन्यत्र सारे राष्ट्र और सारी संस्कृतियां जिन क्रांतियों से नष्ट हो गई उन क्रांतियों से अपनी जाति का संपूर्ण प्राचीन और आदरणीय इतिहास सुरक्षित रखने के कारण अपने को इन पुराणों और महाकाव्यों का आभारी होना चाहिए।

किसी व्यक्ति की स्वतंत्रता के बारे में सावरकरजी के विचार इस प्रकार थे-
व्यक्ति की स्वतंत्रता का जितना संभव हो सके विकास होना चाहिए। परंतु, व्यक्ति की जीविका अबाध और सुखद हो इसके लिए व्यक्ति की स्वतंत्रता मानवी कल्याण के प्रतिकूल न होनेवाली राष्ट्रहित की मर्यादा में ही होना चाहिए।

अपने को भी अन्य राष्ट्रों के समान घोषणा करना चाहिए कि, 'मेरा राष्ट्र मेरे लिए और मैं मेरे राष्ट्र के लिए"।

स्वराज्य स्थापना के बाद कितने भी तीव्र हों तो भी अपने सारे मतभेद मतपेटी में ही समाना चाहिए। देखना केवल यह है कि मतपेटी का पेंदा कहीं फूटा तो नहीं है।

 उपयुक्ततावाद का पहला आचार्य श्रीकृष्ण
भगवान श्रीकृष्ण सावरकरजी के आराध्य थे। सावरकरजी उपयुक्ततावादी थे। उनके सारे कार्यों का अंतिम उद्देश्य और विचारों के सूत्र मानव जाति का कल्याण थे।

जिस नीतिशास्त्र के आधार पर और सूत्र द्वारा अपना क्रांतिकारी आंदोलन खडा किया जाना चाहिए और उसको समर्थन देना चाहिए वह (utility) यही नीतिशास्त्र, यही क्रांति की मनुस्मृति ऐसा मेरा कहना है, मानना है और महाभारत के कृष्ण के अनेक प्रसंगों पर के भाषणों और व्यवहार पर से मैं सिद्ध करता था कि उपयुक्ततावाद का पहला आचार्य ही नहीं अपितु प्रणेता भी श्रीकृष्ण ही है। क्योंकि, उन्होंने वह आचरण में लाकर दिखलाया। उनके सारे आचरणों का समर्थन इसी तत्त्व पर उन्होंने किया, किया जा सकता है।

Friday, December 16, 2011

जसबीर नायक वर्सेस डॉ. जाकिर नाईक

 पर विश्व प्रसिद्ध मुस्लिम विद्वान डॉ. जाकिर नाईक की एक भेंटवार्ता है। भेंटकर्ता ने डॉ. नाईक से कहा ''भारत के एक गैर-मुस्लिम ने एक प्रश्न पूछा है। इस्लामी राष्ट्रों में गैर-मुस्लिमों को अपने धर्म के प्रचार-प्रसार करने की, धार्मिक स्थल निर्मित करने की इजाजत है क्या? और यदि ऐसी इजाजत हो तो सऊदी अरब में मंदिर और चर्च निर्माण की इजाजत क्यों नहीं? मनाही क्यों है? लंडन और पेरिस जैसे शहरों में मुस्लिम लोग मस्जिदें खडी करते हैं और सऊदी अरब में भर मंदिर-चर्च निर्माण की अनुमति नहीं, ऐसा क्यों?

इस पर डॉ. नाईक का उत्तर ः''सऊदी अरब और तत्सम अन्य कुछ राष्ट्रों में अन्य धर्मों के प्रसार पर प्रतिबंध है। पूजास्थल (मंदिर-चर्च) खडे करने की मनाही है। हमारे देश में मुस्लिमों को धर्मप्रचार/प्रसार की प्रार्थनास्थलों (मस्जिदों) के निर्माण पूर्ण की पूर्ण स्वतंत्रता रहने पर भी इस्लामी राष्ट्रों में अन्य धर्मीयों के पूजास्थलों के निर्माण पर मनाही क्यों है? इस प्रकार के प्रश्न अनेक गैर-मुस्लिम पूछते हैं। इस पर मैं उन्हें प्रतिप्रश्न करना चाहता हूं कि, मानलो तुम एक विद्यालय के प्रधानाध्यापक हो। तुम्हारे विद्यालय में गणित शिक्षक की आवश्यकता है। उसके लिए उम्मीदवारों के साक्षात्कार चल रहे हैं। दो और दो कितने? ऐसा प्रश्न तुमने उनसे पूछा। इस पर एक उम्मीदवार ने उत्तर दिया- 'तीन!" दूसरे उम्मीदवार ने- 'चार!" और तीसरे ने कहा- 'छः!" अब ऐसे उत्तर देनेवाले उम्मीदवारों को तुम गणित के शिक्षक के रुप में चुनोगे क्या? उत्तर- नकारार्थी ही होगा। जिसे गणित का पर्याप्त ज्ञान नहीं, उसे कैसे चुनें? ऐसा वे कहेंगे। धर्म के मामले में भी वैसा ही है। ईश्वर की दृष्टि में इस्लाम ही सच्चा धर्म है ऐसी हमारी अटल- अपार श्रद्धा है, भावना है। इस्लाम के अलावा अन्य कोई सा भी धर्म परमेश्वर को मान्य नहीं ऐसा पवित्र कुरान (3ः85) में स्पष्ट रुप से कहा हुआ है। अब दूसरा प्रश्न है वह मंदिर और चर्च निर्माण पर मनाही का! इस पर मैं कहता हूं कि, जिनका धर्म ही गलत है, जिनकी प्रार्थना, पूजा पद्धति गलत है; उन्हें धर्मस्थल खडे करने की अनुमति क्यों दें? इसीलिए इस्लामी राष्ट्रों में इस प्रकार की बातों के लिए हम अनुमति नहीं देते!""

भेंटकर्ता ः''अपना ही धर्म (इस्लाम) सत्य है ऐसा मुस्लिमों को लगता है और वैसा वे दावा करते भी हैं। गैर-मुस्लिम भर हमारा धर्म ही सत्य है का दावा नहीं करते।""

डॉ. नाईक ः'"दो और दो यानी तीन ऐसा पढ़ानेवाले शिक्षक गैर-मुस्लिमों को भी मान्य नहीं यह पहले ही ध्यान में लेना चाहिए। धर्म के संबंध में, धार्मिक बातों के संबंध में हम ही (मुस्लिम) सही हैं, हमारे विचार, और मार्ग योग्य, उचित हैं इसका हमें विश्वास है। गैर-मुस्लिम मगर इस मामले में स्थिर नहीं। अपनी भूमिका, विचार ही योग्य हैं ऐसा उन्हें स्वयं को ही विश्वास नहीं। इस्लाम ही एकमात्र सच्चा और उचित धर्म है ऐसा हमारा विश्वास होने के कारण मुस्लिम राष्ट्रों में हम अन्य धर्मों के प्रचार-प्रसार की अनुमति नहीं दे सकते। तथापि, इस्लामी राष्ट्र में रहकर एकाध गैर-मुस्लिम को उसके धर्मानुसार आचरण करना हो तो उस पर मनाही नहीं, विरोध नहीं। केवल एक शर्त है कि, वह उसके स्वयं के घर में करे! सार्वजनिक स्थानों पर, जाहिर रुप से वह कर नहीं सकता।

  धर्मप्रचार/प्रसार की इजाजत नहीं। आचरण की है, वह भी केवल घर की चारदीवारी के अंदर। दो और दो तीन होते हैं ऐसा कहनेवाले को उसके विचारों की पूर्ण स्वतंत्रता है। परंतु, उसके गलत विचार, गलत भूमिका वह उसके तक ही मर्यादित रखे; नई पीढ़ी को, विद्यार्थियों को गलत न सीखाए। यही धर्म के मामले में भी है। इस्लाम, इस्लाम की सीख, विचार, भूमिका ही योग्य है। अन्यों की नहीं इसलिए इस्लामी राष्ट्रों में गैर-मुस्लिमों को धर्मप्रचार/प्रसार की अनुमति नहीं।""

इस भेंटवार्ता को पढ़कर जसबीर नायक मैदान में आ गए और उन्होंने डॉ. जाकिर नाईक को एक प्रश्न दाग दिया कि, बताएं आप सत्य किसे मानेंगे जसबीर नायक कोई बात आप से आकर कहे उस बात को या उनका कोई नौकर, मेसेंजर या दूत आकर कहे उसे! डॉ. नाईक जवाब देंगे - जसबीर नायक ने जो बात स्वयं आकर कही होगी वही सत्य मानी जाएगी। क्योंकि, नौकर- मेसेंजर या दूत द्वारा कहे गए सत्य में घालमेल हो सकता है, जरुरी नहीं कि वह शब्दशः वैसा का वैसा ही आकर कहे जैसाकि उसके 'आका" ने उसे कहने के लिए कहा हो।

 हमारी जानकारी के अनुसार मुहम्मद साहेब की भेंट और वार्तालाप अल्लाह से केवल एक बार ही 'मेराज यात्रा (17ः1)" के समय हुआ था। उसी में अल्लाह ने अपनी दयानतदारी दिखलाते हुए मुहम्मद साहेब की विनती पर पचास की जगह पांच नमाजें कुबूल फरमाई साथ ही फरमाया था कि 'पांच वक्त की (नमाजें) फर्ज रही और वह सवाब (पुण्य) में पचास के बराबर हैं, मेरे यहां हुक्म में तब्दीली नहीं होती है।" ऐसा दयालु अल्लाह इतना असहिष्णु भला कैसे हो सकता है कि फरमा दे कि ''जो शख्स अल्लाह के दीन (इस्लाम) के सिवा किसी और दीन (धर्म) को तलाश करेगा तो (अल्लाह के यहां) उसका वह दीन हरगिज कबूल नहीं।""(3ः85) स्पष्ट है कि वह अपने जिस दूत जिब्रिइल को भेजता था उसने संदेश लाने में गडबडी की है अन्यथा अल्लाह ने यह भी तो फरमाया है कि ''तुमको तुम्हारा दीन और मुझको मेरा दीन (मुबारक)।""(109ः6)

हम सीधे ईश्वर की बात को मानते हैं। क्योंकि, वह तो सीधे यहां भारत भूमि पर अवतार धारण कर आता है और कुरुक्षेत्र के मैदान में उपदेश देता है, अपनी बात कहता है। इसलिए जसबीर नायक आपसे सीधे फरमाता है कि क्यों हम जिब्रिइल जैसे किसी दूत की बात को मानें, हम तो नारद मुनि की भी इसी कारण से नहीं सुनते। क्योंकि, जब स्वयं परमात्मा भगवान कृष्ण के रुप में अवतार ग्रहण कर कह गए है कि 'मेरी शरण में आओ"। तो, क्यों नहीं आप इस तरह के कुतर्क देनेवाले धर्म को छोडकर भगवान कृष्ण की शरण में आते। क्योंकि, इस तरह के कुतर्क देनेवाले धर्म के लिए इस देश की धरती पर कोई स्थान ही नहीं है। इस धरती पर तो अधिकार हिंदूधर्म का ही रहेगा। महाभारत में कहा गया है - ''जो धर्म दूसरे धर्म का बाधक होता है वह धर्म धर्म नहीं कुधर्म है। सच्चा धर्म वही है जो किसी धर्म का विरोधी न हो।""
http:www.youtube.com/ watch?v=BwCn-IT_zZA

Wednesday, December 14, 2011

मीनारों पर प्रतिबंध और इस्लामी गणित

 नवंबर में स्विट्‌जरलैंड में हुए एक जनमत संग्रहण में 58 प्रतिशत लोगों ने देश में नई मीनारों के निर्माण पर प्रतिबंध को जायज ठहराया है। राहत की बात यह है कि 42.5 प्रतिशत लोग इस प्रतिबंध के विरोध में हैं। जो यह दर्शाता है कि देश में एक बडा हिस्सा इस नवधार्मिक कट्टरता के विरोध में होकर धार्मिक स्वतंत्रता में विश्वास प्रकट कर रहा है। परंतु, कई कट्टरपंथी ईसाइयों का यह कहना है कि किसी भी मुस्लिम देश में अन्य गैर-मुस्लिमों को धार्मिक स्वतंत्रता हासिल नहीं। सऊदी अरब में तो एक भी चर्च नहीं (ंमंदिर भी नहीं)। वैसे तो वेटिकन से लेकर कई योरोपीय देशों ब्रिटेन आदि ने भी इस पर विरोध प्रकट किया है। दुनिया भर के मुस्लिम भी इस पर अपना विरोध जता रहे हैं। परंतु, सऊदी अरब में एक भी मंदिर या गिरजाघर (चर्च) क्यों नहीं? इसका जवाब भले ही इन विरोध प्रकटीकरण के समाचारों में नहीं मिल रहा हो परंतु, इसका जवाब http:www.youtube.com/watch?v=BwCn-IT_zZa  में है और वह विश्वप्रसिद्ध मुस्लिम विचारक डॉ. जाकिर नाईक से एक भेंट के रुप में है। भेंटकर्ता ने डॉ. नाईक से कहा ''भारत के एक गैर-मुस्लिम ने एक प्रश्न पूछा है। इस्लामी राष्ट्रों में गैर-मुस्लिमों को अपने धर्म के प्रचार-प्रसार करने की, धार्मिक स्थल निर्मित करने की इजाजत है क्या? और यदि ऐसी इजाजत हो तो सऊदी अरब में मंदिर और चर्च निर्माण की इजाजत क्यों नहीं? मनाही क्यों है? लंडन और पेरिस जैसे शहरों में मुस्लिम लोग मस्जिदें खडी करते हैं और सऊदी अरब में भर मंदिर-चर्च निर्माण की अनुमति नहीं, ऐसा क्यों?

इस पर डॉ. नाईक का उत्तर ः''सऊदी अरब और तत्सम अन्य कुछ राष्ट्रों में अन्य धर्मों के प्रसार पर प्रतिबंध है। पूजास्थल (मंदिर-चर्च) खडे करने की मनाही है। हमारे देश में मुस्लिमों को धर्मप्रचार/प्रसार की प्रार्थनास्थलों (मस्जिदों) के निर्माण पूर्ण की पूर्ण स्वतंत्रता रहने पर भी इस्लामी राष्ट्रों में अन्य धर्मीयों के पूजास्थलों के निर्माण पर मनाही क्यों है? इस प्रकार के प्रश्न अनेक गैर-मुस्लिम पूछते हैं। इस पर मैं उन्हें प्रतिप्रश्न करना चाहता हूं कि, मानलो तुम एक विद्यालय के प्रधानाध्यापक हो। तुम्हारे विद्यालय में गणित शिक्षक की आवश्यकता है। उसके लिए उम्मीदवारों के साक्षात्कार चल रहे हैं। दो और दो कितने? ऐसा प्रश्न तुमने उनसे पूछा। इस पर एक उम्मीदवार ने उत्तर दिया- 'तीन!" दूसरे उम्मीदवार ने- 'चार!" और तीसरे ने कहा- 'छः!" अब ऐसे उत्तर देनेवाले उम्मीदवारों को तुम गणित के शिक्षक के रुप में चुनोगे क्या? उत्तर- नकारार्थी ही होगा। जिसे गणित का पर्याप्त ज्ञान नहीं, उसे कैसे चुनें? ऐसा वे कहेंगे। धर्म के मामले में भी वैसा ही है। ईश्वर की दृष्टि में इस्लाम ही सच्चा धर्म है ऐसी हमारी अटल- अपार श्रद्धा है, भावना है। इस्लाम के अलावा अन्य कोई सा भी धर्म परमेश्वर को मान्य नहीं ऐसा पवित्र कुरान (3ः85) में स्पष्ट रुप से कहा हुआ है। अब दूसरा प्रश्न है वह मंदिर और चर्च निर्माण पर मनाही का! इस पर मैं कहता हूं कि, जिनका धर्म ही गलत है, जिनकी प्रार्थना, पूजा पद्धति गलत है; उन्हें धर्मस्थल खडे करने की अनुमति क्यों दें? इसीलिए इस्लामी राष्ट्रों में इस प्रकार की बातों के लिए हम अनुमति नहीं देते!""

भेंटकर्ता ः''अपना ही धर्म (इस्लाम) सत्य है ऐसा मुस्लिमों को लगता है और वैसा वे दावा करते भी हैं। गैर-मुस्लिम भर हमारा धर्म ही सत्य है का दावा नहीं करते।""

डॉ. नाईक ः'"दो और दो यानी तीन ऐसा पढ़ानेवाले शिक्षक गैर-मुस्लिमों को भी मान्य नहीं यह पहले ही ध्यान में लेना चाहिए। धर्म के संबंध में, धार्मिक बातों के संबंध में हम ही (मुस्लिम) सही हैं, हमारे विचार, और मार्ग योग्य, उचित हैं इसका हमें विश्वास है। गैर-मुस्लिम मगर इस मामले में स्थिर नहीं। अपनी भूमिका, विचार ही योग्य हैं ऐसा उन्हें स्वयं को ही विश्वास नहीं। इस्लाम ही एकमात्र सच्चा और उचित धर्म है ऐसा हमारा विश्वास होने के कारण मुस्लिम राष्ट्रों में हम अन्य धर्मों के प्रचार-प्रसार की अनुमति नहीं दे सकते। तथापि, इस्लामी राष्ट्र में रहकर एकाध गैर-मुस्लिम को उसके धर्मानुसार आचरण करना हो तो उस पर मनाही नहीं, विरोध नहीं। केवल एक शर्त है कि, वह उसके स्वयं के घर में करे! सार्वजनिक स्थानों पर, जाहिर रुप से वह कर नहीं सकता।  धर्मप्रचार/प्रसार की इजाजत नहीं। आचरण की है, वह भी केवल घर की चारदीवारी के अंदर। दो और दो तीन होते हैं ऐसा कहनेवाले को उसके विचारों की पूर्ण स्वतंत्रता है। परंतु, उसके गलत विचार, गलत भूमिका वह उसके तक ही मर्यादित रखे; नई पीढ़ी को, विद्यार्थियों को गलत न सीखाए। यही धर्म के मामले में भी है। इस्लाम, इस्लाम की सीख, विचार, भूमिका ही योग्य है। अन्यों की नहीं इसलिए इस्लामी राष्ट्रों में गैर-मुस्लिमों को धर्मप्रचार/प्रसार की अनुमति नहीं।""

75 लाख की आबादीवाले एक छोटे से देश स्विट्‌जरलैंड के पौने चार लाख मुसलमानों की धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकारों के हनन की आलोचना करनेवाले दुनियाभर के मुसलमानों में से क्या चंद मुसलमान भी ऐसे नहीं हैं जो आगे आकर उपर्युक्त भेंट में कही गई बातों, जिनमें गैर-मुस्लिमों की धार्मिक भावनाओं, स्वतंत्रता का हनन होता है, पर विरोध प्रकट कर कुरान सर्वधर्मसमभाव, धार्मिक स्वतंत्रता को मान्यता देती है के लिए हमेशा उद्‌. की जानेवाली सूर अल-काफिरून की आयत 6 ''तुम्हारे लिए तुम्हारा दीन (धर्म) और मेरे लिए मेरा दीन"" को सार्थक सिद्ध करें।

Wednesday, December 7, 2011

 ईश्वराचे अधिष्ठान आणि सावरकर
कणाद shirishsapre.com

सावरकर नाव उच्चारले की आमच्या डोळ्यांसमोर जे चित्र उभे ठाकते ते समुद्रात उडी टाकणाऱ्या वीराचे, स्वातंत्र्य संग्रामातल्या एका अप्रतिम योद्धाचे  ज्यांस आम्ही अत्यंत आदराने स्वातंत्र्यवीर म्हणतो, हिंदु-हिंदुत्वाचे दर्शन मांडणाऱ्याचे ज्याच्या मुळे सर्वांचेच डोळे दीपले. पण सावरकर म्हणजे केवळ इतकेच नाही तर सावरकरांची जी विविध रुपे आहेत त्यांचा तो एक भाग मात्रच आहे. ही विविध रुपे वर्तमानकाळात एक प्रकारे विस्मृतीच्या कपारीत दडल्या सारखी झाली आहेत. असेच एक रुप आहे विज्ञाननिष्ठ सावरकरांचे.

सावरकरांचे हे रुप सर्वसाधारणजनांच्या विचारांना हादरवून सोडते. हे जितके खरे आहे तितकेच हे पण खरे आहे की सावरकर एक वास्तववादी क्रांतीकारी, प्रगतीशील विचारांचे धनी होते. त्यांचे विचार काळ बदलला तरी टिकून राहणारे, काळबाह्य न होणारे अर्थात्‌ सर्वकाळिक आहेत. यातहि दुमत नाही. त्यांचे संपूर्ण जीवन या राष्ट्राकरीता, हा हिंदु समाज आधुनिक, विज्ञाननिष्ठ संघटित व्हावा, हेच ध्येय समोर ठेऊन याच ध्येयपूर्ती करीता वाहिलेले होते. आपल्या हिंदु समाजाचे अभ्युदय आणि निःश्रेयस दोन्हीं साधले गेले तरच तर समाज आणि राष्ट्राची उन्नती साधली जाईल. हीच परिकल्पना त्यांनी आपल्या हिंदुध्वजातहि साकारली आहे. त्यांनी जी समाजक्रांती केली त्यामुळे अनेक रुढ़ींना धक्का पोहोचला आणि समाजात सर्वात जास्त लोक अप्रियहि तेच झालेत. हे दुर्दैव. पण ज्या गोष्टी समाजाला घातक त्यांच्या बद्दल धाडसाने विरोध म्हणजे क्रांती आणि अशी क्रांती करणारा आपल्या भाग्यात यश येईल की अपयश यांची किंचितहि पर्वा करीत नाही.

सावरकर असा सूर्य आहे की त्यांच्या बद्दल कितीहि दुष्प्रचार केला गेला किंवा न उल्लेखाने मारण्याचा किंवा दडपण्याचा प्रयत्न केला गेला तरी आपल्या तेजाने ते सर्वांस निष्प्रभ करुन टाकतात.

एक दुष्प्रचार त्यांच्या बाबतीत हेतुपूर्वक असा केला जातो की बघा इतका तेजस्वी, तपस्वी कल्पनेपलीकडच्या यातना भोगून देशाच्या स्वातंत्र्यतेकरीता लडणारा योद्धा पण त्यांस यश नाही मिळाले. कां? कां की त्यांस ईश्वराचे अधिष्ठान नव्हते. आता या दुष्प्रचारकांना ईश्वराचे अधिष्ठान म्हणजे काय? हेच समजत नसावे असे म्हणावयासे वाटते. तसेहि ईश्वराचे अधिष्ठान कोणी लुंग्या-सुंग्यांनी म्हटण्यात अर्थ नाही. असा एकहि सत्पुुरुष ज्याला ईश्वराचे अधिष्ठान प्राप्त झाले होते त्याने असे विचार व्यक्त केलेले नाही. ज्या लोकांनी अंधश्रद्धा पसरवली आणि बुवाबाजी वाढ़वली त्यांना सावरकर जाचकच राहणार आणि मग ती लोक अशीच भाष्य करणार. ईश्वराचे अधिष्ठान म्हणजे काय? हे सावरकरांनी आपल्या विज्ञाननिष्ठ निबंधात विशदले आहे.

सामर्थ्य आहे चळवळीचे। जो जो करील त्याचे। परंतु तेथे भगवंताचे। अधिष्ठान पाहिजे।।
समर्थ रामदासस्वामींची ही ओवीं विजेची एक ज्योत आहे! शिवकालीन महाराष्ट्राच्या प्रचंड कर्तृत्वशक्तीची नी हिंदु स्वातंत्र्य समराची केवळ रणघोषणा!

परंतु तेथे भगवंताचे अधिष्ठान पाहिजे, त्या शब्दांनी समर्थांच्या मनात कोणचा अर्थ व्यक्तविण्याचे उद्दिष्ट होते ते आता नक्की सांगणे यद्यपि दुर्घट आहे, तथापि त्यांचा अर्थ काहीहि असला तरी त्या ओवींचे तेजस्वी कार्य ती करुन गेली! तथापि त्या ओवींचा आज केला जाणारा अर्थ आजच्या परिस्थितीत किती अनर्थकारक आहे नी तिच्यांत जे तत्त्व अनुस्यूत केलेले आहे म्हणून साधारणतः समजले जाते, ते ऐतिहासिकदृष्टया किती अतथ्य आहे हे सावरकरांनी दाखवून दिले आहे.
चळवळीचे म्हणजे मानवी प्रयत्नांचे सामर्थ्य किती जरी वाढ़विले तरी ज्या चळवळीला भगवंताचा पाठिंबा नाही ती चळवळ अयशस्वी झालीच पाहिजे. ह्या तत्त्वाचा अर्थ नक्की करताना भगवंताचा पाठिंबा म्हणजे काय, ईश्वराचे अधिष्ठान म्हणजे काय ह्याचा प्रथम स्पष्ट उलगडा झाला पाहिजे. जर भगवंताच्या अधिष्ठानाचा इतकाच अर्थ असेल की ऐहिक आणि मानवी उपायांच्या हातीच यशाची किल्ली नसून मनुष्याच्या ज्ञानाच्या नी शक्तीच्या पलीकडे ज्या अनेक अज्ञात, अज्ञेय, प्रचंड अशा अमानुष विश्वशक्ती आहेत, त्यांच्या आघात-प्रत्याघातांच्या टकरीतहि त्या यशाचा वा अपयशाचा संभव असतो, तर तो अर्थ बरोबरच आहे! ह्या तात्त्विक अर्थी कोणच्याहि चळवळीचे यशापयश हेहि एक फलितच असल्यामुळे मानवी उपायांच्या पलीकडील त्या अमानुष शक्तींचा व्यापार हेच त्यांचे महाकारण होय. त्यास जर ईश्वराचे अधिष्ठान म्हणावयाचे असेल तर मानवी उपाय नी साधनें ही प्रत्यक्ष कारणेच कोणत्याहि यशाची अशेष कारणे नसून ती अमानुष विश्वशक्तींची गुंतागुंत, तो योगायोग, हे त्यांचे महत्कारणहि अनुकूल असले पाहिजे हे म्हटणे यथार्थ आहे. मानवी चळवळ कितीहि सामर्थ्यसंपन्न असली आणि ती कितीहि यशस्वी झाली तरी त्या यशाचे सर्वयश मनुष्यकृत प्रयत्नांसच नसून अतिमानुष शक्तींचा व्यापारहि त्यास अनुकूल असा घडत गेला; दैवाचा फांसाहि तेच दान देणारा पडत गेला; आणि त्या दैवास देवाची इच्छा म्हटले तर ईश्वराचे अधिष्ठान त्यास लाभले म्हणून ते यश आहे हे जर कां त्या ओवींचा उपदेश असेल तर तो यथातथ्य आहे. यात शंका नाही.

परंतु ह्या ओवींचा अर्थ अशा तात्त्विक अर्थी क्वचितच कोणी घेत असेल! सामान्यतः तिचा अर्थ असाच घेण्यात येतो की ज्याला ज्याच्या-त्याच्यापरी नीती वा अनीती, न्याय-अन्याय, दैवी वा आसुरीसंपन्न धर्म वा अधर्म म्हटतो त्यांपैकी पहिले ते सत्य नी दुसरे ते असत्य. जी चळवळ मानवी सत्याच्या पायावर उभी असते; मानवी धर्माचे ब्रीद मिरविते; तीच काय ती यशस्वी होते! ईश्वर तीच्यावरच कृपा करतो अशा अर्थी ईश्वराचे अधिष्ठान जिला लाभत नाही. ती चळवळ कितीहि प्रबळ असली तरी ती यशस्वी होत नाही. यास्तव चळवळ करणाऱ्यांनी प्रथम ते भगवंताचे अधिष्ठान संपादिले पाहिजे आणि हे संपादिण्याकरीता नामजप, उपास-तापास, एकशे आठ सत्यनारायण, एककोटी रामनामजप, रेडे वा बोकड मारणारे नवस इत्यादि शतावधि उपाय देवास संतोषविण्यास्तव वर्णिले आहेत, त्यांस आचरले पाहिजे अर्थात्‌ तपस्या आधी मग मानवी चळवळ.

सावरकरांनी पारलौकिक मोक्ष प्रभृति जी फळे आहेत त्यांचा ऊह केलेला नाही. त्यांची फळे प्रत्यक्ष अनुभवांत केव्हांहि मिळालेली नाहीत ती त्यांची फळे नव्हत इतकेच इथे विषदावयाचे आहे. त्या साधनांविषयी किंवा त्यांच्या आध्यात्मिक वा पारलौकिक परिणामांविषयी ज्यांस जसा आदर नी निष्ठा असेल त्यांस त्यानी सुखनैव आचरावे. त्यापासून लाभणाऱ्या आत्मप्रसादास सुखनैव आस्वादावे. परंतु तशा अर्थाच्या ईश्वरी अधिष्ठानावर वरील ओळीत ज्या राष्ट्रीय उत्थानादिक भौतिक चळवळींच्या ऐहिक यशाचा उल्लेख केलेला आहे, ते यश वा अपयश बहुधा मुळीच अवलंबून नसते; तर मुख्यतः तिच्या भौतिक सामर्थ्यावर अधिष्ठित असते.

वरील ओळीवर हे भाष्य नेहमीच करण्यात येते की हिंदुपदपादशाहीचे जे प्रचंड स्वातंत्र्ययुद्ध आम्हां हिंदुंनी ठाणले नी जिंकले, ती प्रचंड राष्ट्रव्यापी चळवळ यशस्वी होण्याचे मुख्य कारण तिच्या मुळाशी असलेले ईश्वरी अधिष्ठान हेच होय. नाना साधुसंत हरिनामाचा जो अखंड घोष महाराष्ट्रात दुमदुमवीत राहिले, ज्ञानेश्वरसारख्यांनी यौगिक सिद्धी संपादिल्या, सहस्त्रावधि पुण्यपुरुष ईश्वरी कृपा संपादिण्यास्तव जी तपस्याकरीत होते. ती मुळे भगवंत प्रसन्न झाले, ईश्वरी अधिष्ठान मिळाले यास्तव ती चळवळ समर्थ आणि यशस्वी ठरली. हिंदुवीरांना जो जय मिळाला, त्या झुंजीचा पुरावा ज्या अर्थी ईश्वरी अधिष्ठानाच्या सिद्धांतास दिला जातो तो किती लंगडा आहे हे इतिहासाची छाननी करुन सावरकरांनी खालीलप्रमाणे दाखवून दिला आहे.

साधारणतः 1300 ते 1600 पर्यंतचा काळास महाराष्ट्राच्या, भारताच्या इतिहासाचे कां म्हणाना, एक पान कल्पिले तर त्यांत ह्या ईश्वरी अधिष्ठानाच्या दृष्टीकोणातून प्रथमदर्शनीच ज्ञानेश्वरांसारख्या महायोग्याचे दर्शन घडते. जर कधी तपस्येने, योगाने, पुण्याईने कोणा मनुष्यात भगवंताचे अधिष्ठान सुव्यक्त झाले असेल तर ते ह्या अलौकिक पुरुषातच होतेच होते. रेड्याकडून त्यांनी वेद म्हणविले; भींतीना चालविले; हरिनामाच्या गजराने महाराष्ट्र दणाणून सोडले. जिकडे-तिकडे दैवी चमत्कार त्यांच्या मागोमाग नामदेव, जनाबाई, गोरा कुंभार इत्यादि सारे जीवन्मुक्त, साऱ्यास प्रत्यक्ष पांडुरंग प्रसन्नपणे भेटीगांठी देता आहेत, घेता आहेत. त्यांच्या मागोमाग एकनाथ ते तुकाराम ब्राह्मणवाड्यापासून महारवाड्यापर्यंत महाराष्ट्रात घरोघर साधुसंत, घरोघर यौगिक सिद्धि, घरोघर देवाचे येणे-जाणे, प्रत्यही सकाळी कोण्यातरी अलौकिक चमत्काराची ताजी बातमी! अशा चमत्कारांचे वर्णन सावरकरांनी विस्ताराने केले आहे पण विस्तारभयास्तव आम्ही उद. करीत नाही. पुढ़े सावरकर म्हणतात असे वाटते की महाराष्ट्र हेच देवाचे राहते घर झाले होते, वैकुंठ नव्हते!

ईश्वरी अधिष्ठान प्राप्त अशी ही महाराष्ट्राच्या इतिहासातील सुवर्णअक्षरांनी लिहलेली बाजू वाचल्यानंतर जेव्हां आपण दुसरी बाजू उलटतो तर आपल्याला दिसले पाहिजे ईश्वरी अधिष्ठानामुळे भौतिक सामर्थ्य, राष्ट्राची अजिंक्यता. पण दिसते मात्र देवांची नव्हे तर राक्षसांची भौतिक विजय. स्वातंत्र्य आणि राज्य धुळीस मिळून त्या देवाच्या अधिष्ठानावर राक्षसी राज्याची उभारणी.

काय हा दुष्ट योगायोग! परमयोगी ज्ञानेश्वरांनी 'ज्ञानेश्वरी" लिहून आपली लेखणी खाली ठेवली न ठेवली, तोच अलाउद्दिन खिलजी दहा-पंधरा हजार सैन्यास घेऊन बकऱ्यांच्या कळपात वाघ घुसावा तसा घुसला नी ज्ञानेश्वरांच्या भगवंताचा पूर्ण पाठिंबा असलेल्या रामदेवास अलाउद्दिन विंध्याद्रि उतरून आल्याची बातमी देखील पुरती कळाली नाही नी रामदेवरावाच्या हरिभक्त हिंदुंच्या अफाट सैन्याचा त्या हरिद्वेष्टयाने चक्काचूर उडविला. त्याचे हिंदु राज्य बुडविले. ते परत स्थापू निघालेल्या परमवीर शंकरदेवास जिते धरुन अंगाचे कातडे सोलून ठार मारले. संतमहंत घरोघर देवाशी हंसत, जेवत, बोलत असता महाराष्ट्र भगवंताची प्रत्यक्ष राजधानी झालेली असता तिकडे बिहार-बंगाल, अयोध्या-काशीत हिंदु राज्यश्री परकीयांच्या घोड्याच्या टापाखाली तुडविली जात होती. पण विंध्याद्रि उतरून प्रलय दक्षिणेवर कोसळणार हे स्पष्ट झाले होते एक टपालवाल्यालाहि जी सूचना देता आली असती की अलाउद्दिन चालून येत आहे ती मात्र ज्ञानेश्वरांना रेड्याच्या किंवा स्वतःच्या तोंडून देता आली नाही!! ज्ञानेश्वर निर्जीव भिंत चालवू शकले, पण सजीव माणसे मंत्रबळे चालवून विंध्याद्रिच्या खिंडीत अलाउद्दिनला रोखण्यासाठी उभी करु शकले नाहीत!! सन्‌ 1294त दक्षिणेच पहिला पाय टाकला आणि हिंदुराज्ये, देवदेवता उद्‌ध्वस्त करीत इतक्या दुर्धुष वेगाने पुढ़े घुसला की 1310च्या आत त्यानी रामेश्वरापर्यंतचे सारे राज्य निर्हिंदु करुन रामेश्वरला मशीद बांधली. इकडे विठूरायाची नगरी भगवंताच्या नामघोषाने दणाणतच होती, संताचे जाळे गांवोगांव पसरत होते, त्यांच्या घरात येऊन देव प्रत्यक्ष जोडे शिवीत होते, मडके घडीत होते दळणे दळीत होते. बादशहाची खंडणी भरीत होते. जपजाप्य, व्रतवैकल्य, नामसप्ताह इत्यादिंचा पर्वकाळ गजबजला होता. तिकडे एक सोडून पाच पादशाह्या हिंदुंच्या उरावर नाचत होत्या 'देवलदेवी" रावण पळवीत, बाटवीत होते. पण प्रत्येक देवास दोहोंपेक्षा जास्त हात असूनहि त्यांपैकी एकानेहि अलाउद्दिन किंवा मलिक अंबरचा हात धरला नाही. हिंदुंची हजारो तरुण मुले-मुली गुलाम होत असता, राजकन्या दासी होत असता, जोडे शिवीत बसलेल्या देवाला करुणा आली नाही की काशी ते रामेश्वरपर्यंत हजारो देवालय पाडून त्यांच्या मूर्तींची मशीदीची पायरी केली जात असता त्या देवाला या अत्याचारांचा राग आला नाही. पण एक नवस जरी चुकला तर त्या हिंदुचा कुलक्षय मात्र होई.

भगवंताचे अधिष्ठान होते त्या राज्याचा चक्काचूर कोणी उडविला तर त्या ज्यांस आम्ही पंचपातके म्हणतो ते करणाऱ्यांनी. जी गोष्ट या मुसलमानांची तीच पुर्तूगीजांची. तेथून मूठभर लोक येतात गोमांतकात घुसतात. हिंदुंवर धार्मिक छळाची आग पाखडतात. हजारो तरुण हिंदु मुले-मुलीं दास करुन यूरोप-आफ्रिकेच्या बाजारात विकतात. सारे हिंदु संस्कार दंडनीय ठरवतात. जीव घेऊन लोकच नव्हे तर देवहि आपआपल्या मूर्ती भंगू नयेत म्हणून श्रीमंगेश, शांतादुर्गा प्रभृति देवहि पळाले आणि तेहि आपल्या पायांनी नव्हे तर भक्तांच्या खांद्यांवर आपल्या पालख्या लादून.

भगवंताच्या अधिष्ठानाच्या अशाच वल्गना पीर-पाद्रयांनीहि हजारो वेळा केल्या होत्या. पण इतिहासानी त्याहि तशाच खोट्या पाडल्या. सावरकरांनी तो इतिहास पण विस्ताराने दिला आहे पण आम्ही तो विस्तारभयाने देत नाही आहोत.

सारांश सामर्थ्य आहे चळवळीचे, जो जो करील त्याचे, इतकेच काय ते खरे आहे. ऐहिक यश ज्या चळवळीस हवे तिने ऐहिक, भौतिक, प्रत्यक्ष सृष्टीत उपयोगी पडतील तेवढ़ी साधने संपादून विपक्षावर 'सामर्थ्यात" मात केली की ती चळवळ बहुधा यशस्वी होते. मग तिला ज्याच्या धार्मिक पोथ्यातील कल्पनां प्रमाणे न्यायाचा, पुण्याचा, स्नानसंध्याशील उपायांनी मिळविल्या जाणाऱ्या भगवतांच्या आध्यात्मिक अधिष्ठानाचा पाठिंबा असो वा नसो! हीच गोष्ट जगातील पारशी, ख्रिस्ती, मुसलमानी; यहूदी प्रभृति यच्चयावत धर्मग्रंथातील वचनांची नी त्यांच्या इतिहासाची आहे. शेवटी सावरकर म्हटतात, ऐहिक यश ज्यास हवे, त्याने अद्यावत वैज्ञानिक सामर्थ्य संपादावे. चळवळीत ते सामर्थ्य असेल तर भगवंताच्या अधिष्ठानावाचून कांही अडत नाही. ते सामर्थ्य नसेल तर भगवंतांच्या अधिष्ठानासाठी कोटी-कोटी जप केले तरी ऐहिक यश मिळत नाही, हाच सिद्धांत!

पण दुर्दैव हे की अंधश्रद्धा निर्मूलनवाल्यांहि हे सावरकर नको आहेत; पोथीनिष्ठ पुरोगाम्यांना त्यांचे हिंदुत्व तर नकोच आहे पण बुद्धिवादापुरते नाव सुद्धा घ्यावयास ते तयार नसतात. धर्मनिष्ठ अनुयायींना त्यांचा बुद्धिवाद नकोसा आहे. उरले सावरकर भक्त तर त्यांना त्यांचा केवळ जय जयकार करावयाचा आहे. केवळ मूठभर अनुयायीच असे आहेत जे त्यांना आचरणात आणण्याचा प्रयत्न करतात.

Wednesday, November 30, 2011

दक्षिण सूडान - क्षितिज पर एक नए देश का उदय

9 जुलाई 2011 को एक नया इतिहास बना दक्षिण सूडान के रुप में विश्व का सबसे नया, अफ्रीका का 53वां देश और विश्व का 193वां राष्ट्र के रुप में सूडान का विभाजन हो तेल बहुल दक्षिण सूडान का क्षितिज पर उदय। इस उदय के साथ ही एक नया इतिहास भी बना अभी तक हमेशा मुस्लिमों द्वारा ही किसी देश से अलग होने का विभाजन का श्रेय प्राप्त किया गया है। परंतु, इस उदय द्वारा पहली बार किसी ईसाई क्षेत्र को मुस्लिम देश से अलग करके नया देश बनाया गया है।

दक्षिण सूडान को यह स्वतंत्रता वर्षों की हिंसा और 20 लाख से अधिक लोगों के मारे जाने के पश्चात प्राप्त हुई है। इसी साल जनवरी में दक्षिण सूडान को लेकर एक जनमत संग्रह कराया गया था। लगभग 99% लोगों ने एक स्वतंत्र देश के पक्ष में मतदान किया था। उत्तरी सूडान और दक्षिणी सूडान में वर्ष 2005 में एक समझौता हुआ था जिसमें जनमत संग्रह की बात को स्वीकारा गया था। यह समझौता तत्कालीन अमेरिकी विदेश मंत्री कोलिन पावेल के प्रयासों से संभव हुआ था। भारत विश्व में पहला ऐसा देश है जिसने दक्षिण सूडान को राजनयिक मान्यता दी।

इस विभाजन की पटकथा उपनिवेशवादी शासकों द्वारा लिखी गई है। 19वीं शताब्दी में सूडान पर विजय के पश्चात ब्रिटेन ने सूडान को मिस्त्र में सम्मिलित कर दिया और यहीं से ब्रिटिश उपनिवेशवाद ने सूडान को अपनी 'डिवाइड एन्ड रुल" बांटों और राज करो की प्रयोगशाला में बदल डाला। अंग्रेजों ने वंशीय भेदभाव के आधार पर प्रशासनिक व्यवस्था की इसके कारण भूरे योरोपीयन वंश के निकट समझने जानेवाले उत्तरी सूडानियों का सत्ता पर अधिकार हो गया। अंग्रेजों ने 'बंद जिलों" की एक जटिल व्यवस्था के द्वारा उत्तर एवं दक्षिण भाग के मध्य परंपरागत और व्यापारिक संबंधों को बिल्कूल ही समाप्त कर डाला। उत्तरी सूडान में इस्लाम और अरबी के प्रचार और प्रयोग की छूट दी गई। तो, दक्षिण में दोनो को ही एकदम निषिद्ध कर उसे ईसाई मिशनरियों के हवाले कर दिया गया। ईसाई मिशनरियों की मानवतावादी शिक्षा ने दक्षिण के युवाओं में 'अफ्रीका अफ्रीकियों के लिए" का भाव भरकर देश में बंटवारे की नींव डाली।

इस उपर्युक्त व्यवस्था के पीछे उद्देश्य था कि वैद्यकीय सुविधाओं के अभाव में अफ्रीका में बडे पैमाने पर फैलनेवाले मलेरिया जैसे रोग इधर से उधर न फैलें। परंतु, असली उद्देश्य था ईसाई धर्म का प्रसार करना। उत्तरी सूडान अरब बहुल मुस्लिम है इसका कारण है आटोमन साम्राज्य तले इस्लाम धर्म का प्रसार हुआ उसमें उत्तर अफ्रीका भी था। उत्तर पूर्व की ओर सऊदी अरेबिया है ही। इधर दक्षिण अफ्रीका से ईसाईधर्म के प्रसार की शुरुआत हुई। 20वीं शताब्दी के मध्य तक उत्तरी सूडान पर इजिप्त का शासन था इस कारण सामाजिक और धार्मिक दृष्टि से इजिप्त का स्पष्ट प्रभाव था तो, दक्षिण सूडान ईसाई और प्रकृतिपूजक था। सूडान में आज भी 3000 ई.पू. की बस्तियां अपना अस्तित्व बनाए हुए हैं।

1946 में ब्रिटेन ने दक्षिण सूडान के नागरिकों के मतों का विचार न करते प्रशासकीय दृष्टि से स्वयं द्वारा विभाजित भागों को पुनः जोड दिया। इस समय पहली बार दक्षिण सूडान के लोग विचलित हुए। 1956 में सूडान ब्रिटिश आधिपत्य से स्वतंत्र हुआ। मगर 1953 में ही इस गृहकलह की पृष्ठभूमि तैयार हो गई थी। ब्रिटिश-इजिप्त स्वतंत्रता प्रदान करनेवाला है की भनक 1953 में ही लग गई थी और आनेवाली सरकार में हमें योग्य स्थान प्राप्त नहीं होगा तथा उत्तरी सूडान द्वारा दबाया जाएगा की स्वाभाविक आशंका से दक्षिणी सूडान के लोग ग्रस्त हो गए और 1955 में ही धार्मिक एवं सांस्कृतिक तथा आर्थिक संघर्ष की शुरुआत हो गई। इस गृहयुद्ध का अंत 1972 में लगभग 5 लाख लोगों की बलि लेने के बाद ही थमा। अदीसअबाब में हुए एक समझौते में उत्तर और दक्षिण का विभाजन प्रशासनिक दृष्टि से किया गया।

1983 तक की शांति के बाद तेल की राजनीति और सूडान को मुस्लिम राष्ट्र घोषित करने के कारण दक्षिण सूडान के लोग चीड गए। प्राकृतिक संसाधनों पर उत्तरी सूडान के लोगों द्वारा अपना अधिकार जताने और देश पर इस्लाम का सिक्का जमाने के प्रयत्नों को दक्षिण सूडानियों द्वारा झिडकने के कारण 1983 में फिर से गृहयुद्ध शुरु हो गया। 1989 में जनरल उमर अल बशर ने इस्लामी उग्रवादियों के समर्थन से वहां के लोकतांत्रिक शासन का तख्ता पलटकर सत्ता हथियाई। उसीने बाद में आतंकी ओसाम बिन लादेन को अपने यहां पनाह दी, जहां से उसने अपना आतंक का कारोबार जमाना प्रारंभ किया। सूडान अरबलीग का सदस्य है साथ ही लंबे समय से इस्लामी आतंक के दबदबेवाला देश है। 1991 में खाडी युद्ध में सूडान द्वारा सद्दाम हुसैन के समर्थन के कारण अमेरिका भी नाराज हो गया। अंत में 20 लाख लोगों की बलि चढ़ने के बाद  2005 में गृहयुद्ध थमा और अंततः 9 जुलाई 2011 को जनमत संग्रह के द्वारा दक्षिण सूडान अस्तित्व में आया।

परंतु, इन सब कारणों के साथ ही एक और महत्वपूर्ण एवं प्रभावी कारण है और वह है इस्लामी शिक्षा एवं आज्ञाओं से तैयार हुई विश्वव्यापी मुस्लिम मानसिकता जिसकी चर्चा कहीं सुनने में नहीं आई। इस्लामी शिक्षाएं एवं आज्ञाएं हदीस और कुरान पर आधारित हैं जिनका पालन करना सच्चे मुसलमानों के लिए बंधनकारी है। क्योंकि, पैगंबर ने कहा था - 'जो मेरी आज्ञा का पालन करता है वह अल्लाह की आज्ञा का पालन करता है और जो मेरी आज्ञा का पालन नहीं करता वह अल्लाह की आज्ञा का पालन नहीं करता।" (बुखारीः 2956,7281) और पैगंबर का कहना यह है कि 'एक भूमि पर दो धर्म रहना योग्य नहीं।" (अबू दाउद ः 3026, ींहश ुीरींह ेष रश्रश्ररह-ि.51)  इस कारण जहां मुस्लिम अल्पसंख्या में हैं वहां वे अलग देश की मांग करते हैं और जहां वे बहुसंख्य हैं वहां वे हर संभव प्रयत्न कर दूसरों को समाप्त कर देना चाहते हैं। इसका ज्वलंत उदाहरण है पाकिस्तान और बांग्लादेश जहां दिन ब दिन अल्पसंख्य हिंदू घटता जा रहा है, पलायन कर भारत आता जा रहा है।

रुमबेक के प्रतिष्ठित बिशप वयोवृद्ध सीजर मज्जोलारी के अनुसार सूडान में इस्लामी उग्रवादी वहां ईसाइयों को धर्मांतरित कर उन्हें आग से दाग देते हैं ताकि उन्हें काफिरों से भिन्न पहचाना जा सके। कुछ लोग दारफूर का उदाहरण देकर जो कि वर्तमान में एक अंतरराष्ट्रीय मुहावरा सा ही बन गया है यह कह सकते हैं कि यह तो कुछ सिरफिरे कट्टरपंथियों का काम है जो स्वयं मुस्लिमों को जो उनके ही  सहधर्मी हैं, इस्लाम के अनुयायी हैं का भी तो उत्पीडन कर रहे हैं। परंतु, यह तर्क वे ही दे सकते हैं जो या तो इस्लाम से अनजान हैं या जानकर भी अनजान बने रहना चाहते हैं। इस मुस्लिम उत्पीडन पर अरब विश्व भी मौन है क्योंकि, उत्पीडक अरब मुस्लिम हैं और उत्पीडित मुस्लिम होते हुए भी भिन्न जनजातीय समुदाय के हैं। वास्तव में इन सबके पीछे विशिष्ट अरब मुस्लिम की भावना कार्यरत है जिसमें अरबी श्रेष्ठता की ग्रंथी है जो अरब मुस्लिम को अन्य मुस्लिमों से श्रेष्ठ समझती है और यह भावना खिलाफत काल से ही चली आ रही है।

सभी मुसलमान समान अधिकार प्राप्त परस्पर भाई हैं का सिद्धांत इस्लाम द्वारा उद्‌घोषित है। धर्म के रिश्ते के मुकाबले सभी नाते-रिश्ते गौण हैं। रक्त, वंश, कुल, प्रांत, देश आदि के आधार पर दो मुस्लिमों में भेदभाव करना और उनमें परस्पर संघर्ष इस्लाम को मान्य नहीं। तथापि, मुस्लिमों की दृष्टि में आदर्श कही जानेवाली खिलाफत (जिसकी स्थापना के लिए ही अंतरराष्ट्रीय जिहाद आतंकवादियों ने छेड रखा है) के उत्तरार्ध में ही यह सिद्धांत पीछे रहकर वे सभी भेद तीव्रता से उभरकर सामने आ गए। अरब मुस्लिम विरुद्ध गैर-अरब मुस्लिम, दक्षिण अरब मुस्लिम विरुद्ध उत्तर अरब मुस्लिम, मक्का के मुस्लिम विरुद्ध मदीना के मुस्लिम, मुहाजिर विरुद्ध अनसार, कुरैश मुस्लिम विरुद्ध गैर-कुरैश मुस्लिम, पहले बने मुस्लिम विरुद्ध बाद में बने मुस्लिम, निर्धन मुस्लिम विरुद्ध संपन्न मुस्लिम इस प्रकार के इस प्रकार के विविध भेद निर्मित होकर उनमें संघर्ष प्रारंभ हो गया। तीसरे खलीफा उस्मान और चौथे एवं अंतिम आदर्श खलीफा अली (पैगंबर के चचेरे भाई व दामाद तथा दत्तक पुत्र भी) का दुखद अंत भी इसीमें से हुआ।

वैसे देखा जाए तो उपर्युक्त कारण कोई उनके काल में ही निर्मित नहीं हुए थे। पूर्व के खलीफाओं के काल में भी ये भेद अस्तित्व में थे। परंतु, उस काल में बलाढ्‌य साम्राज्यों को जीतने के विजयी अभियानों की लहरों पर वे सवार होने के कारण इन भेदों के आविष्कारों को स्थान नहीं मिला था। उन्हें लढ़ने के लिए समान शत्रु मिल जाने के कारण ये सारे भेद सुप्तावस्था में थे। समान शत्रु तय करने में उनके लिए धर्म उपयोगी ठहरता था। खिलाफत के उत्तरार्ध में इस प्रकार के विजयी अभियान ठंडे पड गए और समान कार्यक्रम के अभाव में उनके सुप्तावस्था में पडे भेद प्रकट हो गए और इसी कारण वे परस्पर संघर्ष करने लगे।*1 अपन अरब हैं, कुरैश हैं, हाशिमी या उमय्यी कुलीन हैं की भावना पैगंबर के वरिष्ठ सहयोगी एवं स्वयं खलीफा भी छोडने के लिए तैयार नहीं थे।

इनमे से उस काल में सबसे गंभीर सिद्ध हुआ विवाद अरब मुस्लिम विरुद्ध गैर-अरब मुस्लिम था। विस्तृत होते साम्राज्य के साथ अरबस्थान के बाहर गैर-अरब मुस्लिमों की संख्या बडी मात्रा मे बढ़ी थी।*2 अरब स्वयं को अन्य मुस्लिमों की अपेक्षा श्रेष्ठ समझते थे। गैर-अरब मुस्लिमों को वे मवाली (आश्रित) मानते थे। राज्याधिकार के सभी बडे पद अरब मुस्लिमों के पास ही थे। वे स्वयं एक राज्यकर्ता वर्ग बन गए थे। अरबों की स्वाभाविक लडाकू वृत्ति और विशिष्टता टिकाए रखने के लिए उमर ने विशेष नियम तैयार किए थे। उनके द्वारा विजित देशों में जमीनें खरीदने पर पाबंदी थी। उनके लिए विशेष सैनिकी नगर बसाए गए थे। वे गैर-अरब मुस्लिमों  में मिश्रित न हों इसका विशेष ध्यान रखा गया था। मवाली मुस्लिमों को अरब मुस्लिमों के समान अधिकार नहीं मिलते थे। मुस्लिम होकर भी उनके साथ दूसरे दर्जे का व्यवहार किया जाता था।

जब गैर-अरब मुस्लिमों की संख्या बढ़ी तब उन्होंने अपने को मिलनेवाले कनिष्ठ दर्जे के विरुद्ध आवाज उठाई और इस्लामानुसार समान अधिकारों की मांग की। उसी में से संघर्ष निर्मित हुआ। तीसरे खलीफा उस्मान के काल में उनकी सहानुभूति  खलीफा विरोधी विद्रोहियों के साथ थी। उनकी संतुष्टि के लिए ही चौथे व अंतिम आदर्श खलीफा अली को साम्राज्य की राजधानी मदीना के बजाए कुफा ले जाना पडी थी। आदर्श खिलाफत की शोकांतिका में यह भी एक महत्वपूर्ण कारण था। मुस्लिमों के एक वर्ग में युद्धलूट की प्रचंड संपत्ति आ जाने के कारण उनमें आर्थिक विषमता निर्मित हो गई। मुस्लिम समाज में अमीर और गरीब इस प्रकार के दो वर्ग निर्मित हो गए थे।

*1. इस प्रकार के संघर्षों को टालने के लिए ही पैगंबर मुहम्मद की मृत्यु के बाद बने पहले आदर्श खलीफा अबूबकर ने अरबस्थान के बाहर सेना भेजी थी। इससे अरब टोलियों में परस्पर संघर्ष रुक गया। तीसरे खलीफा उस्मान के काल में मुस्लिमों में खलीफा विरोधी जो असंतोष फैला था उस पर उपाय के रुप में उसके लिए खलीफा द्वारा बुलाई गई सूबेदारों की परिषद में एक ने इस प्रकार की सूचना की थी कि विद्रोहियों का ध्यान दूसरी ओर बंटाने के लिए उन्हें विदेश में जिहाद के लिए भेज दिया जाए। समान शत्रु नहीं होगा तो वे परस्पर संघर्ष करेंगे इस पर यह उपाय बतलाया गया था।

*2. अपना प्रभुत्व टिकाए रखने के लिए अरबों को अपनी संख्या बढ़ाने की आवश्यकता महसूस होने लगी। एक मुस्लिम को एक समय में चार से अधिक पत्नियां न होने की कानूनसम्मत मर्यादा होने पर भी वे उनके अलावा कितनी भी रखैलें रख सकते थे। इसका उपयोग कर अरबों ने अपनी संख्या बढ़ाने की शुरुआत की। इस संबंध में के.डी.भार्गव लिखते हैं ः ''सीरिया, इराक, पर्शिया और इजिप्त इन विजित प्रदेशों में अरबों की संख्या अत्यंत कम थी ... (वह संख्या बढ़ाने के लिए) उन्होंने इन विजित क्षेत्रों की कैदी स्त्रियों को (संख्या में कितनी भी हों) रखैलों के रुप में रखने की शुरुआत की ... (इस संबंध का नियम उनके लिए वरदान ठहरा)  इस मार्ग से उनकी संख्या में बढ़ौत्री न होती तो, उन देशों में मुस्लिम साम्राज्य अस्त ही हो गया होता। (इतिहासकार) जुर्जी जैदन ने कहा है कि, अधिकाधिक गुलाम (कैदी) लडकियों को प्राप्त करने के लिए अरबों में स्पर्धा चलती थी।""

कुरैश मुस्लिमों को जितना गर्व अपन कुरैश हैं पर था उतना ही गर्व उन्हें अपन अरब हैं इस पर भी था।*3 पैगंबर को अरबभूमि इस्लाम के आधार के रुप में संभालकर रखनी थी। दूसरे खलीफा उमर का कहना था कि 'अरब इस्लाम का कच्चा माल हैं"। इस्लाम का प्रसार करने के लिए अल्लाह ने अरबों को विशेष रुप से चुना है इस पर अरब मुस्लिमों का दृढ़ विश्वास था। अरबभूमि के बाहर आक्रमक अभियान चलाते समय इराक और सीरिया की अरबवंशीय जनता को अरब संबंधों का हवाला देकर राजसत्ता के विरुद्ध अपने को सहायता करने का आवाहन मुस्लिम सेनापति करते थे और उसे कुछ मात्रा में प्रतिसाद भी मिला था। इस्लाम ने सभी अरबों को एक किया था; उनका एक राष्ट्र निर्मित किया था; आरंभ के काल में अरब और मुस्लिम मानो समानार्थी शब्द हो गए थे। इतिहासकार के.डी. भार्गव का उमर के काल के विषय में कहना है - 

''इस्लाम ने अरबों को एकजुट किया। उस काल में इस्लाम की एकजुटता और अरबों की एकजुटता पर्यायवाची संज्ञाएं थी। अनगिनत टोलियों और कुलों में विभाजित अरबों को एकजुट किया गया था और वंश के स्थान पर धर्म का गर्व प्रस्थापित किया गया था। अरब और इस्लाम इनका भविष्य एकरुप हो गया था। परंतु, तीसरे खलीफा उस्मान के काल में यह स्थिति नहीं रही। अरबभूमि के अरबों में ही दक्षिण के और उत्तर के अरब ऐसे दो गुट निर्मित हो गए थे।

*3. पैगंबर ने कहा था- (अ). 'सभी लोग कुरैशों के आज्ञाकारक हैं; उनमें के (यानी सभी लोगों में के) मुस्लिम उनमें के (यानी कुरैशों में के) मुस्लिमों के आज्ञाकारक हैं; (सभी) लोगों में के श्रद्धाहीन (इस्लाम पर श्रद्धा न रखनेवाले) कुरैशों में के श्रद्धाहीनों के आज्ञाधारक हैं।"(मुस्लिमः4473,74) (इसका अर्थ वंश के रुप में कुरैश मानवों के सभी वंशों में श्रेष्ठ हैं तो, धर्म के रुप में मुस्लिम सभी धर्मियों की अपेक्षा श्रेष्ठ हैं तो, वंश और धर्म में (इस्लाम) धर्म सर्वश्रेष्ठ है)

(ब). पैगंबर ने कहा था- (सभी) लोग कुरैशों का अनुसरण करनेवाले हैं, फिर वे अच्छे हों कि बुरे हों। (यानी इस्लाम की बातों में हो कि इस्लाम पूर्व की बातों में हों) (कोष्ठक मूल के ही)(मुस्लिमः4475)

(स). पैगंबर ने कहा था- 'खिलाफत (राज्यसत्ता) हमेशा ही कुरैशों के अधिकार में रहेगी भले ही उनके दो मनुष्य भी (पृथ्वी पर) जीवित रहें तो भी (वह रहेगी)।" (मुस्लिमः4476,बुखारीः7140)

पैगंबर की मृत्यु के बाद खिलाफत के संबंध में मक्का (मुहाजिर, शरणार्थी) और मदीना (अनसार, सहायक) के लोगों में उभरे मतभेद पर पहले खलीफा अबू बकर ने उपर्युक्त हदीस का संदर्भ देकर कहा था 'हम अमीर (राजा) हैं और तुम वजीर (प्रधान) रहनेवाले हो। अतः खलीफा पद हमारे पास और प्रधान पद तुम्हारे पास रहने दो। हम आश्वासन देते हैं कि तुम्हारी सलाह के सिवाय  (राज्य करते समय) हम कोई सा भी निर्णय नहीं लेंगे।" मदीनावासियों द्वारा ऐतराज उठाने पर अबू बकर ने स्पष्ट शब्दों में कहा था 'नहीं। हम अमीर रहेंगे और तुम वजीर। सभी अरबों में वंश में हम श्रेष्ठ हैं।" उमर ने भी कहा था 'हम पैगंबर के कुल (यानी कुरैश) से हैं और इसलिए हमारी अपेक्षा खलीफा पद के लिए अधिक हकदार और कौन हो सकता है।" 
 
इन उपर्युक्त के संबंध में दो मान्यवर एवं प्रसिद्ध धार्मिक विद्वानों के मत उल्लेखनीय हैं। इब्ने खल्दून ने कहा है - ''कुरैश मूलतः उत्कृष्ट और श्रेष्ठ दर्जे के अरब नेता थे .... सभी अरबों ने यह वस्तुस्थिति मान्य की थी और उनके श्रेष्ठत्व के सामने अपनी गर्दन झुकाई थी। अगर अन्य किसी के पास यह राजनेतृत्व जाता तो वह राज्य कभी का नष्ट हो जाता .... उनका कोई विरोध करेगा इसका उन्हें भय नहीं था, समाज विघटन का भय नहीं था .... इस प्रकार का उत्तरदायित्व वे ही ले सकते थे। इसीलिए खलीफा कुरैश वंश का रहने की शर्त डाली गई थी।"" शाह वलीउल्लाह ने भी इसी प्रकार का समर्थन करते हुए कहा है- ''कुरैश टोली अन्य किसी भी टोली की अपेक्षा (इस्लाम के) दैवी संदेश के निकट की थी और इस इस्लाम धर्म सेवा और रक्षा करनेवाले पहले वे ही थे।"" 

दक्षिण और उत्तर-मध्य अरबभूमि के अरबों में वांशिक, आर्थिक, सामाजिक और कुल मिलाकर सांस्कृतिक दृष्टि से अंतर था। उत्तर के अरब टोली जीवन जीनेवाले और व्यापार-व्यवसाय करनेवाले तो, दक्षिण के खेतीबाडी करनेवाले और स्थायी जीवन जीनेवाले थे। परिणाम स्वरुप दक्षिण के अरब उत्तर की अपेक्षा अधिक प्रगत थे।

जीविकानुसार उनकी स्वभाव प्रवृतियों में भी भिन्नता और कुछ मात्रा में परस्पर विरोध भी आ गया था। वे एक दूसरे का द्वेष भी करते थे। मदीना भौगोलिक दृष्टि से उत्तर अरबभूमि में होने पर भी वहां के लोग मूलतः दक्षिण अरबभूमि से आए हुए होेने के कारण  उनकी स्वभाव प्रवृत्ति दक्षिण जैसी ही थी तो, मक्का के अरब उत्तरभूमि का टोलीस्वरुप जीवन जीनेवाले थे। भिन्न वंश के मक्का और मदीना के लोगों में परंपरागत बैरभाव और स्पर्धा चली आ रही थी। उस्मान के काल में मदीना के अनासर और मक्का के मुहाजिरों में निर्मित हुई स्पर्धा और विरोध एक प्रकार से इस परंपरागत विरोध का पुनरुज्जीवन था। उस्मान की खिलाफत की शोकांतिका का एक कारण यह भी था।

ध्यान में रखने योग्य बात यह है कि दक्षिण क्षेत्र के अरब वंश परंपरागत स्थिर राजपरिवारों की राजवंश परंपरा को माननेवाले थे; हजारों वर्षों से वहां यह परंपरा रुढ़ हो गई थी। इसके विपरीत उत्तर क्षेत्र के अरब टोली-प्रजातंत्र को माननेवाले थे। टोली का नेता वे जिस पद्धति से वे चुनते थे उस पद्धति से ही वे राजप्रमुख चुनते थे। इस कारण इस विषय में वंशपरंपरा उन्हें मान्य नहीं थी। अबू बकर, उमर, उस्मान का चुनाव इसी पद्धति से हुआ था भर यह पद्धति दक्षिण की परंपरा माननेवाले मदीना के अनसारों को मान्य नहीं थी। पैगंबर का उत्तराधिकारवाले उनके ही परिवार के अली खलीफा के रुप में मान्य होने योग्य थे। स्वाभाविक रुप से उनका अली के पक्ष को समर्थन था। उनके द्वारा उस्मान का पक्ष लेकर उनकी रक्षा करने में अग्रणी ने होने का यह एक कारण था।

उपर्युक्त सभी कारण अरब मुस्लिमों के अंतर्गत विविध गुटों के कलह, परस्पर विरोधी अस्मिता और स्पर्धा से निर्मित हुए थे। ऐसा होने पर भी अरब स्वयं को अन्यों की अपेक्षा श्रेष्ठ और जो अरब नहीं उन्हें कनिष्ठ मानते थे। अरबभूमि में सभी अरब होने के कारण वहां यह प्रश्न निर्मित नहीं हुआ। परंतु, बाहर के मुस्लिम साम्राज्य में यह प्रश्न उपस्थित हुआ था और उस्मान के काल में तीव्र हो गया था। सभी मुसलमान समान और परस्पर बंधु हैं का इस्लामी सिद्धांत पवित्र ग्रंथ में ही रह गया था और व्यवहार में अरब मुस्लिम गैर-अरब मुस्लिमों को अपने समान नहीं समझते थे।

पूर्ण पर्शिया (ईरान) और रोमन साम्राज्य का बहुत बडा क्षेत्र मुस्लिम साम्राज्यांतर्गत आने पर जिस गैर-अरब प्रजा ने इस्लाम का स्वीकार किया उन्हें अरब मुस्लिमों के बराबर का स्थान मिलता नहीं था। अरबभूमि से स्थानांतरण कर आए अरब उन्हें दूसरे दर्जे का समझते, उन्हें अपने से कम अधिकार देते थे। अरब मुस्लिम विशेषाधिकारवाले वर्ग के रुप में निर्मित हो गया था। इस कारण वहां  अरब मुस्लिम विरुद्ध गैर-अरब मुस्लिम ऐसा विवाद और संघर्ष निर्मित हो गया। इन गैर-अरब मुस्लिमों को 'मवाली" कहा जाता था।*4 मुस्लिम होने के लिए उन्हें किसी ना किसी अरब का आश्रित बनना पडता था। इसके सिवाय कोई भी मुस्लिम हो नहीं सकता था। इन गैर-अरब मुस्लिमों की सहानुभूति खलीफा विरोधी विद्रोहियों के साथ थी। उनमें से कुछ खुले रुप में विद्रोहियों की सहायता करते थे। इस्लामी समता के सिद्धांतानुसार अपने साथ भी समानता का व्यवहार किया जाए की उनकी मांग थी।*5
*4. इस संबंध में कुछ इतिहासकारों के अभिप्राय इस प्रकार से हैं - सर विल्यम मूरः ''अरबभूमि से विजय प्राप्त करते हुए निकले अरब अमीर-उमराव बन गए। अपनी संस्कृति उच्च दर्जे की होने के बावजूद जब उन पराजित देशों के लोगों ने इस्लाम का स्वीकार किया तब उन्हें कनिष्ठ वर्ग मिला। अरब ही प्रभावशाली और वर्चस्ववाली जाति बन गई..... विजित प्रांतो के नव मुस्लिम उनके आश्रित (मवाली)(लश्रळशपींी, वशशिपवशपींी) बन गए।"" वैसेही ''(उमर के काल में) अरब विजित प्रदेशों की संपन्नता पर जीनवाले बन गए तो, पराजित लोग उनकी सेवा करते थे।" 'अरब रक्त के मुस्लिमों की ही केवल विशेषाधिकार मिलते थे। सिद्धांततः सभी मुस्लिमों के अधिकार वंशनिरपेक्षता से समान थे .... परंतु, यथार्थ में यह समानता अरबों तक ही सीमित थी अन्य वंश के मुस्लिमों को समान अधिकार केवल उपजीविका तक के सीमित शासकीय अनुदान मिलने तक के ही मर्यादित थे.... अरब मुस्लिम जिस-जिस स्थान पर गए वहां एक स्वतंत्र और वर्चस्वशाली वर्ग बनकर रहे। राज्यकर्ता और सूबेदार वे ही बने। मुस्लिम बनी (गैर-अरब) जनता एक कनिष्ठ वर्ग बन गया। किसी ना किसी अरब टोली का आश्रित बनकर उनका पालकत्व और संरक्षण मिलने से अधिक उन्हें कुछ नहीं मिलता था। इस प्रकार से अरब इस्लाम प्रसार के पवित्र कार्य के एक स्वतंत्र लडाकू राष्ट्र बन गए।""

जोएल कारमाएकेलः ''अरबभूमि के बाहर पडते ही अरब इस्लाम को शुद्ध अरब संस्था मानने लगे थे। गैर-अरबों को मुस्लिम बनाना एक विचित्र बात थी इसलिए उन्हें मुस्लिम बनाने की कोई पद्धति अस्तित्व में नहीं आई थी... इस्लाम स्वीकारने के पहले उन्हें अरब होना पडता था और इसके लिए पहले उन्हें किसी ना किसी अरबटोली से संलग्न होना पडता था ... (उसे आश्रित (मवाली) कहते) .... इस प्रकार से वह मुस्लिम समाज का सदस्य बनकर सिद्धांततः उनके ही समान होने पर भी उसके संबंध में (मूल) अरब मुस्लिमों के श्रेष्ठत्व का अन्याय भर कम नहीं होता था। अरब मुस्लिम अन्य मुस्लिमों को तिरस्कारपूर्वक कनिष्ठ समझते थे।"" ''इस्लाम अरबों का अन्यों पर प्रभुत्व प्रस्थापित करनेवाली एक संस्था बन गई थी।""

फॉन क्रेमरः ''उमर ने सूत्र प्रस्थापित किया था कि 'अरब गुलाम हो नहीं सकता" उसकी यह घोषणा उसके द्वारा उद्‌घोषित राजनैतिक सिद्धांतों से सुसंगत थी। उमर का यह मत कि अरब मूलतः ही स्वतंत्र है केवल अन्य लोग ही गुलाम हो सकते हैं और किए जाना चाहिए। उसकी दृष्टि में अरब विश्व पर राज्य करने के लिए चुने हुए लोग थे।""

के.डी. भार्गवः ''इस्लाम में के अपने विशिष्ट दर्जे के विषय में अरब अत्यंत जागरुक थे .... उनके इस अभिमान और अन्याय के कारण अन्य प्रदेशों के मुस्लिमों में उनके प्रति द्वेष निर्मित हो गया। उनके साथ अरब मुस्लिम अत्यंत तिरस्कारपूर्वक व्यवहार करते थे ... मवाली (आश्रित) के पीछे खडे रहकर नमाज पढ़ना उन्हें पसंद नहीं था। अगर कभी ऐसा हुआ तो, उसे वे स्वयं का अपमान समझते थे .... कोई सा भी मवाली शोभायात्रा में अरब मुस्लिमों से आगे या जोडी से चल नहीं सकता था। अरब मुस्लिम स्वयं को पृथ्वी पर के सभी लोगों की अपेक्षा श्रेष्ठ मानते थे। राज्य करना मुस्लिमों का विशेषाधिकार तो उनकी आज्ञा का पालन करना अन्य सभी का कर्तव्य है, ऐसा माना जाता था ... नव-मुस्लिमों के लिए अरबों ने समानता नकारी थी।""

जे. वेलहॉसनः ''मुस्लिम साम्राज्य में दो वर्ग थे ... अरब मुस्लिम योद्धा और विजेता के रुप में स्वामी थे। मुहम्मद का समाज (उम्मा) अब सैन्य वर्ग में रुपांतरित हो गया था ... सेना के लोगों को ही नागरिकत्व के संपूर्ण अधिकार मिलते थे।"" ''जीते हुए प्रदेशों में भी अरबों ने अपनी प्राचीन कुलव्यवस्था कायम रखी थी।"" ''गैर-अरब लोगों ने बडी मात्रा में इस्लाम का स्वीकार किया था। विशेष रुप से इसमें कुफा और बसरा की प्रचंड संख्या के युद्ध कैदियों का समावेश था। इस्लाम स्वीकारने के कारण उनकी युद्ध कैद से मुक्तता हो गई। परंतु, उन्हें अन्य अरब मुस्लिमों के समान नागरी, सैनिकी अधिकार या अन्य लाभ नहीं दिए गए। वे किसी ना किसी अरब परिवार के आश्रित सदस्य बन गए। उन्हें मवाली कहते थे .... इस्लामी धर्मसत्ताक राज्य यानी विजित लोगों पर अरबों की साम्राज्यशाही था .... अरब-मुस्लिम गैर-अरब मुस्लिम जनता पर राज्य करते थे।""

फीलिप हिट्टीः ''उमर की नीति का दूसरा प्रमुख सिद्धांत सभी अरबों का, जो अब सभी मुस्लिम हो गए हैं, धार्मिक-सैनिकी संघराज्य स्थापित करना था। उसमें अरब विशुद्ध और अलग रहनेवाले थे। वह एक प्रकार की सैनिकी अधिकारशाही (ाळश्रश्रळींरीू रीळीींीेलीरलू) रहनेवाली थी और उसमें सभी गैर-अरबों को नागरिकत्व के अधिकार नकारे जानेवाले थे।""    

*5. इस विषय में कुछ इतिहासकारों के अभिप्राय - अ). डॉमिनीक सॉर्डेल ः''(कुछ समय में ही) नव-मुस्लिमों की संख्या कई गुना बढ़ गई और उन्होंने अधिकारों और (अन्य) लाभों में (अन्य मुस्लिमों के समान ही) समान हिस्से की मांग की।"" ''मुस्लिम साम्राज्य के लोगों के स्पष्ट रुप से तीन वर्ग बन गए थे विजेता अरब मुस्लिम, गैर-अरब नव-मुस्लिम और गैर-अरब गैर-मुस्लिम ... इन गुटों के उत्तरदायित्व और अधिकार समान नहीं थे।"" ब). के.डी. भार्गव ः'पर्शिया और इराक के गैर-अरब मुस्लिम अरबों के वर्चस्व और अलगत्व के कट्टर विरोधी थे। उन्होंने अरबों के श्रेष्ठत्व के दावे को नकारा था और सभी क्षेत्रों में समान अधिकारों की  मांग की थी।"

जैसाकि पूर्व में ही कहा जा चूका है उत्तरी सूडान इजिप्त प्रभाववाला अरब बहुल मुस्लिम है और इजिप्त को अरब बहुल स्थानीय लडकियों-स्त्रियों से विवाह कर उनसे संतति पैदा कर बनाया गया है। इसलिए उनमें अरबी श्रेष्ठता की ग्रंथी का आना स्वाभाविक ही है। इसके अतिरिक्त प्रभाव के अन्य कारणों में उनके द्वारा स्वयं को पैगंबर का वंशज, निकटस्थ संबंधी समझना भी है। क्योंकि, मुस्लिम स्वयं को जिस पैगंबर इस्माईल (पैगंबर इब्राहीम के पुत्र) का वंशज मानते हैं उनकी मां इजिप्त की ही थी। इस दृष्टि से मुस्लिमों के लिए इजिप्त ननिहाल है साथ ही इजिप्त मुस्लिमों को मान्य अनेक पूर्व पैगंबरों की भी भूमि है। जिनमें मोजेस (मूसा), जोसेफ, इब्राहीम आदि का इतिहास इसी भूमि से जुडा हुआ है। इजिप्त का अन्यायी राजा फिरौन मोजेस के काल में ही हुआ था और मोजेस को उससे संघर्ष करना पडा था। अंत में अल्लाह ने फिरौन और उसकी सेना को इसी भूमि में नष्ट कर डाला था। इजिप्त और वहां के पैगंबरों और स्थानों के संबंध में कई आयतें कुरान में आई हुई हैं। फिरौन को नष्ट करने के बाद श्रद्धावानों (इस्लाम पर श्रद्धा रखनेवाले यानी मुस्लिम) को उद्देशित कर अल्लाह ने कहा है ः (44ः25-28) इस प्रकार से यह भूमि पॅलेस्टाइन के समान ही मुस्लिम साम्राज्यांतर्गत कर लेना मुस्लिमों का धार्मिक कर्तव्य था और इसीलिए उमर के काल में इसको जीता गया था। आर्थिक एवं संरक्षणात्मक कारण अपने स्थान पर थे ही।  
इसके पूर्व के इतिहास के अनुसार- पैगंबर को जब ऐसा विश्वास हो गया कि अपनी मातृभूमि अरबस्थान में अपने पांव जम गए हैं और अब अंतिम विजय निश्चित है तो उन्होंने अपना ध्यान अरबस्थान के बाहर केंद्रित करते हुए पडौस के पर्शिया, रोम, इजिप्त, ऍबीसीनिया आदि देशों के प्रमुखों को इस्लाम स्वीकारने का आवाहन करने की शुरुआत की। उनके द्वारा विभिन्न सम्राटों को निमंत्रण-पत्र भेजे गए। पैगंबर द्वारा मिस्त्र और स्कंदरिया के सम्राट मकोकिस के नाम सन 627ई. में निमंत्रण पत्र भेजा गया था। इस पत्र की मूल प्रति 1850ई. में फ्रांस के प्रसिद्ध प्राच्यविद्‌ बारतिल्मी को ईसाई खानकाह (मठ) में मिली। आजकल यह पत्र इस्तंबूल (तुर्की) के 'तोब काबी सराई" के म्यूजियम में सुरक्षित है। इस पत्र का अनुवाद यह है-

''अल्लाह कृपाशील, दयावान के नाम से। अल्लाह के बंदे और उसके रसूल मुहम्मद की ओर से किब्त के सम्राट मकोकिस की तरफ। सलाम उस पर जिसने मार्गदर्शन का अनुसरण किया। तत्पश्चात मैं तुम्हें इस्लाम के आमंत्रण की ओर आमंत्रित करता हूं। इस्लाम स्वीकार कर लो सलामती पाओगे। इस्लाम स्वीकार करो अल्लाह तुम्हे दोहरा बदला देगा। फिर यदि तुमने मुंह फेरा तो सारे किब्त (जाति) का गुनाह तुम पर होगा। 'हे किताब वालों! आओ एक सीधी बात की ओर जो हमारे और तुम्हारे बीच की है, यह कि हम अल्लाह के सिवा किसी की बन्दगी न करें और किसी के साथ साझी न ठहराएं और न हममें कोई परस्पर एक-दूसरे को अल्लाह को छोडकर 'रब" (प्रभु) बनाएं-फिर यदि वे मुंह मोडें तो कह दो ः गवाह रहो हम मुस्लिम हैं।""

सम्राट मकोकिस ईसाई था उसने धर्मांतरण से इंकार कर दिया। परंतु, आए हुए दूत का आदरातिथ्य किया और सौजन्यता का व्यवहार किया। सम्राट ने पैगंबर के लिए भरपूर भेंट देकर दूत को रवाना किया। उस भेंट में दो युवतियां, एक घोडा, खच्चर, गधा, पोशाक... इनका समावेश था। पैगंबर ने भेंट स्वीकारते हुए उनमें से एक युवती मेरी को अपनी पत्नी होने का बहुमान प्रदान किया। उससे उन्हें एक लडका भी हुआ। उसका नाम 'इब्राहीम" रखा गया। परंतु, वह पंद्रह महीने की अवस्था में ही चल बसा।

एक और कारण मिस्त्र पर फातेमी वंश (909-1160ई.) का शासन होना। जो स्वयं को पैगंबर के दामाद और चचेरे भाई अली और उनकी पत्नी फातेमा की संतान बतलाते थे। इन्हीं के सेनापति जौहर ने काहिरा नामका नया नगर बसाया जो 973ई. से फातेमियों की राजधानी बना। 972ई. में उसीने विश्व प्रसिद्ध इस्लामी केंद्र अल-अजहर मस्जिद का निर्माण कराया। इनके बाद हुए ममलूक वंश ने अपने राज्य को धार्मिक लोगों की दृष्टि में अधिक पवित्र बनाने के लिए अब्बासी खलीफा अल जाहिर के पुत्र को दमिश्क से बुलाकर अल मुस्तनसिर के नाम से खलीफा बना दिया। खलीफा मुख्य रुप से प्रबंध किया करते थे और ममलूक सुल्तानों की इच्छानुसार बनाए बिगाडे जाते थे। ये अब्बासी पैगंबर मुहम्मद के चाचा अब्बास इब्ने अब्दुल मुतल्लिब इब्ने हाशिम की संतान थे। इस इजिप्त को दूसरे खलीफा उमर के सेनापति अमर बि. अल आस ने जीता था। मुस्लिमों की आदर्श खिलाफत के चौथे खलीफा अली का मुविया के साथ चली खिलाफत की लडाई में इजिप्त समर्थक प्रांत था।

इस प्रकार के इतिहासवाले अरब बहुल उत्तरी सूडान के साथ ईसाई बहुल दक्षिणी सूडान का निभाव बडा ही मुश्किल था और इसलिए इस प्रकार का विभाजन अपरिहार्य ही था जो आज नहीं तो कल होना ही था। और यह अरबी श्रेष्ठता की ग्रंथी ही वह कारण है जिसके कारण दारफूर में लाखों जनजातिय मुस्लिमों के कत्लेआम के बाद भी खून-खराबा है कि थमने का नाम ही नहीं ले रहा।