Saturday, January 26, 2013



भारत मुुक्ति के लिए जन्मा हुआ महात्मा - स्वामी विवेकानंद



भारतीय संस्कृति के उत्तुंग कीर्तिकलश के रुप में जिन्हें गिना जा सके ऐसे चुनिंदा महाभागों में जिनका समावेश किया जा सके, जिनकी महानता का वर्णन करना असंभव सा ही है, जिनका चरित्र वर्णन पढ़कर आद्यशंकराचार्य, समर्थ रामदास जैसे लोकविलक्षण पुरुषों का स्मरण हो आए ऐसे व्यक्तित्व के धनी का नाम हैं स्वामी विवेकानंद।



जब ब्रिटिश विद्वान प्रशासक, मिशनरी हिंदुत्व का समाधि लेख लिख रहे थे- मैक्समूलर मिशनरियों को सुसमाचार सुना रहे थे- 'ब्राह्मणत्व मर रहा है, बल्कि मर ही चूका है। भले ही वह अभी भी 11करोड नर-नारियों का धर्म है। लेकिन जब किसी धर्म के श्रद्धा रक्षक वीर पुरुष और अग्रगामी समर्थक सामने नहीं आते, तब वह धर्म निष्प्राण ही मानना चाहिए।" ऐसे दुर्धर समय में आविर्भाव हुआ था श्रीरामकृष्ण परमहंस के उत्तराधिकारी शिष्य स्वामी विवेकानंद का। जिन्होंने स्वयं की मुक्ति को क्षुद्र मान, भारत मुक्ति के आदर्श को सामने रख 'बहुजन हिताय बहुजन सुखाय" की महत्वाकांक्षा को अपना कर्म मान हिमालय से लेकर कन्याकुमारी तक परिव्राजक व्रत धारण कर तीर्थाटन कर भारतवर्ष संबंधी प्रत्यक्ष ज्ञान संपादन किया था।



उन्हें लगता था कि पश्चिमी समाजों से जहां हमें बहुत कुछ सीखना है वहीं हमारे पास उन्हें सीखाने के लिए आध्यात्मिक ज्ञान है। इसका अर्थ यह है- हिंदुओं को मिशनरियों और जिहादियों की नकल नहीं करनी चाहिए। हिंदुत्व अपने ही शील-स्वभाव के साथ बाहर जाएगा। विनाश और उत्पीडन के लिए नहीं, सृजन और प्रबोधन के लिए। भारत का कर्तव्य है कि वह इन समाजों के प्राचीन अध्यात्म और प्राचीन देवताओं के पुनराविष्कार में सहायक बने।



भारत मुक्ति का, भारतोन्नति का उपाय स्वामीजी को कन्याकुमारी में सूझा था। भारत की सर्वसामान्य जनता की दरिद्रता और अज्ञान का निरुपण ही भारत मुक्ति का मार्ग है। भारत के पुनरुद्धार के लिए साधनों एवं मार्ग संपादन करने के लिए पाश्चात्य राष्ट्रों में जाने का निश्चय स्वामीजी ने किया। यदि स्वयं को सुसंगठित राष्ट्र के रुप में निर्मित करना है तो अन्य देशों के विचार प्रवाहों के साथ स्वयं को मुक्त संबंध रखना होंगे। भारतोन्नति व भारत मुक्ति के लिए पैसा एवं मनुष्य संपादन करें, आधुनिक पाश्चात्य विज्ञान की सहायता से भारत के कृषि, उद्योग-व्यापार का विकास करें इस विचारानुरोध के कारण स्वामीजी सन्‌ 1893 में अमेरिका सर्वधर्म परिषद निमित्त गए थे।



उनकी दृष्टि में भारत की दुर्दशा का मूल कारण दरिद्रता है। इस दरिद्रता के निवारण के लिए स्वामीजी ने तीन मार्ग सुझाए। 1. विज्ञाननिष्ठ खेती, 2. स्वदेशी उद्योग-धंदे, 3. भारतीय माल का विदेशों में व्यापार। चूंकि भारत का प्रमुख व्यवसाय कृषि है और जब तक भारतीय कृषि आधुनिक वैज्ञानिक पद्धति से की नहीं जाएगी तब तक भारत की दरिद्रता नष्ट नहीं होगी। स्वामीजी ही भारत के प्रथम 'विज्ञाननिष्ठ कृषि" के उद्‌गाता हैं। स्वामीजी के विचारानुसार भारत की उन्नति के लिए भारतीय उद्योग व्यवसाय का विकास करने के लिए पाश्चात्य विज्ञान के आधार पर भारतीय पूंजी के द्वारा नए-नए उद्योग-धंदे, कारखाने भारतीय प्रारंभ करें इसके लिए भारतीय युवा जापान, अमेरिका आदि प्रगत राष्ट्रों से तांत्रिक ज्ञान संपादन कर भारत में उद्योग-व्यवसाय का विकास करें।



स्वामीजी द्वारा बतलाया हुआ तीसरा मार्ग है भारत की दरिद्रता के निवारण के लिए स्वदेशी वस्तुओं का विदेशों में व्यापार। स्वामीजी कहते हैं - 'भारत में कई तरह की विविध वस्तुएं बनती हैं। विदेशी लोग तो सारा कच्चा माल ले जाकर उसकी सहायता से सोना बना रहे हैं और तुम भारतीय गधों की भांति उन्हीं का लाया हुआ माल गले से लगाए मरे जा रहे हो। भारत में जो कच्चा माल उत्पन्न होता है वह देश विदेश के लोग ले जाते हैं, अपनी बुद्धि का उपयोग कर उससे विभिन्न प्रकार की वस्तुएं तैयार कर बडे बन रहे हैं और तुम अपनी बुद्धि को गाडकर घर का धन दूसरों को बांटकर 'अन्न-अन्न" करते हुए भीख मांगते भटक रहे हो- देशी कपडा, अंगोछा, सूप, झाडू सिर पर उठाकर यूरोप, अमेरिका के रास्तों पर घूमकर बिक्री करो तो देखोगे कि आज भी भारत में तैयार वस्तुओं की कीमत क्या है!



विदेश व्यापार के संबंध में स्वामीजी दि. 17 जनवरी 1895 को न्यूयार्क से स्वामी त्रिगुणातीतानंद को भेजे पत्र में लिखते हैंः 'मूंग की, तुअर की दालों का व्यापार इंग्लैंड एवं अमेरिका में लाभदायक ढ़ंग से चल सकेगा ऐसा रामदयाल बाबू को कहलवाओ पकाई हुई दाल का अगर योग्य तरीके से प्रचार हुआ तो लोग उसका उपयोग रुचिपूर्वक करने लगेंगे। छोटे-छोटे डिब्बों में डालकर और  उस पर उसे किस प्रकार बनाया जाता है यह छापकर अगर ये दालें घर-घर जाकर खपाई जाएं तो उनकी बहुत मांग रहेगी। उसी प्रकार यहां उनका संचय कर रखने की व्यवस्था करना चाहिए। इसी प्रकार मुंगबडी जैसी वस्तुएं यहां बडे स्तर पर खप सकती हैं, साहसयुक्त उद्योग की आवश्यकता है, आलसियों जैसे बैठे रहने से कुछ नहीं होगा। किसीने कंपनी निकालकर और इंग्लैंड में भारतीय माल भेजना तय किया तो अच्छा खासा व्यापार चल पडेगा, परंतु अपने लोग ठहरे जमाने के आलसी!"



स्वामीजी के उपर्युक्त उद्‌गारों पर विचार करें तो सर्वसंग परित्याग किए हुए स्वामीजी भारत दरिद्रता के निवारणार्थ किस प्रकार  का सूक्ष्म और कुशलता से व्यवहारिक विवेचन कर रहे हैं इसका सहज आकलन हो जाएगा। आज के संदर्भ में यदि हम उनके विचारों पर गौर करें तो पाएंगे कि आज भी दरिद्रता नष्ट करने का उद्‌घोष जारी ही है, अन्न के संबंध में हम आज भी थोडी बहुत मात्रा में परावलंबी ही हैं, भारत आर्थिक संकटों से घिरा होकर आर्थिक दुर्दशा की सीमा की ओर जा रहा है। इस दृष्टि से स्वामीजी के विचार आज भी प्रासंगिक नजर आ रहे हैं।



स्वामीजी की धारणा थी कि, ''भारत के समस्त दुखों का एकमेव कारण अज्ञान ही है""। अज्ञान निवारणार्थ सर्वसामान्य जनता को शिक्षित करने से ही उनकी उन्नति हो राष्ट्र निर्माण हो सकेगा। उन्हीं के शब्दों में- ''बिल्कुल सरल भाषा में विज्ञान, तत्त्वज्ञान, भूगोल आदि इतिहासादि विषयों के मूलतत्व सारी जनता में प्रसृत करो। इसीके साथ उन्हें सीधे सरल तरीके से व्यवहार, व्यापार, कृषि वगैराह गृहस्थपयोगी बातों की भी शिक्षा दो।""



स्वामीजी जब 1893 में अमेरिका 'पार्लियामेंट ऑफ रिलीजंस" में भाग लेने के लिए जा रहे थे तब उनकी जहाज पर टाटा के साथ देश की औद्योगिक दुर्दशा पर हुई चर्चा में उन्होंने टाटा का ध्यान इस ओर दिलाया था कि वे क्यों जापान से दियासलाई का आयात करते हैं, जबकि इसके उत्पादन के लिए भारत में ही व्यवस्था की जा सकती है? स्पष्ट है कि इससे जो पैसा विदेश जाता था उसके प्रति वे चिंतित थे। स्वामीजी के साथ हुई चर्चा से उत्पन्न विचारों का ही प्रभाव था कि 28 सितंबर 1898 को जमशेदजी टाटा ने एक घोषणा की थी जो 'टाईम्स ऑफ इंडिया (मुंबई)" में प्रकाशित हुई थी जिसमें उन्होंने भारत में उच्च अध्ययन के लिए एक आधुनिक संस्थान स्थापित करने का संकल्प प्रकट किया था। इस संदर्भ में उन्होंने 23 नवंबर 1898 को मुंबई से स्वामी विवेकानंदजी को एक पत्र भी लिखा था जो विस्तारभयावश यहां दिया नहीं जा रहा है। स्वाभाविक ही था कि अंग्रेजों को यह निर्णय रास नहीं आया और उन्होंने अडंगे डाल दिए। परंतु, टाटा हताश नहीं हुए उनके और उनके पश्चात उनके दोनो पुत्रों दोराबजी टाटा और नवल टाटा के अथक प्रयासों से अंततः स्वप्न साकार हुआ 1909 में और बंगलौर में आज की विख्यात भारतीय विज्ञान संस्था का उदय हुआ।



उनके भारत मुक्ति के लिए किए गए प्रयत्नों, विचारों, मार्गदर्शन के कारण ही मैसूर के महाराज ने उनका वर्णन भारत मुक्ति के लिए जन्मा महात्मा के रुप में किया है जो यथार्थ भी है।



     

Wednesday, January 16, 2013



ब्रिटिश नीति 'फूट डालो और राज करो" को सूत्ररुप में संबोधित करना योग्य होगा क्या?



अपने धक्कादायक और तल्ख बयानों के लिए प्रसिद्ध पूर्व न्यायाधीश श्रीमार्कंडेय काटजू ने विगत दिनों देश के 90% लोगों को यह कहते हुए मूर्ख ठहराया था कि वे ब्रिटिशों की 'फूट डालो और राज करो" की नीति का शिकार हैं और 1857 के पूर्व देश में सांप्रदायिकता, धर्म के नाम पर भेदभाव नहीं था या वे लडते नहीं थे। उनके यह वाक्य मु. लीग के 30वें वार्षिक अधिवेशन में जिन्ना के 24 अप्रैल 1943 के अध्यक्षीय भाषण जिसकी शुरुआत उन्होंने 'अल्लाहो अकबर" से की थी से कुछ साम्य जरुर रखते हैं। उस भाषण में जिन्ना ने अपने झगडे के लिए ब्रिटिशों को दोषी ठहराने पर अपने ही लोगों की आलोचना करते हुए कहा था- ''ब्रिटिश अपने में समझौता होने नहीं देना चाहते ऐसा कहने से कोई फायदा नहीं अर्थात्‌ अपनी मूर्खता का लाभ वे उठाते हैं यह सच है। परंतु, ब्रिटिशों की अपेक्षा अपने में ही एकता न होने के साधन अधिक हैं.... 'ब्रिटिशों की नीति 'फूट डालो और राज करो" है, यह ध्यान में आ जाने के बावजूद अपन एकत्रित होकर ब्रिटिशों को बाहर निकाल क्यों नहीं देते?""



इसके कुछ महीनों बाद मुंबई में बेव्हर्ली निकोलस ने साक्षात्कार में जिन्ना से प्रश्न किया गया था कि, ''तुम्हारे विरोधी आलोचना करते हैं कि, 'पाकिस्तान" ब्रिटिशों की 'फूट डालो और राज करो" की नीति का निर्माण है।"" इस पर कुछ क्रोधित होकर ही जिन्ना ने कहा था- ''जो मनुष्य ऐसा कहता है उसका ब्रिटिशों की बुद्धिमत्ता के विषय में और इसी प्रकार मेरी प्रामाणिकता के विषय में भी अत्यंत बुरा मत होना चाहिए ... (उल्टे) मैं पुनः कहता हूं कि, अखंड भारत यही ब्रिटिशों का निर्माण है। वह एक कल्पना है और अत्यंत धोखादायक है। इसके कारण अखंड संघर्ष होता रहेगा। यह संघर्ष रहने तक ब्रिटिशों को यहां रहने का कारण मिलेगा... (अतः) 'फूट डालो और राज करो" की नीति यहां लागू ही नहीं होती।""



जिन्ना का प्रतिपादन कुछ झूठ भी नहीं था। हिंदू-मुस्लिम संघर्ष कोई ब्रिटिशों द्वारा निर्मित किया हुआ नहीं था। इसके पूर्व से ही 800 वर्षों से वह चालू ही था। ब्रिटिशों ने सर सय्यद अहमद, अलीबंधु, जिन्ना, गांधी, नेहरु, सरदार पटेल, सावरकर आदि का सहारा लेकर यह संघर्ष लगा दिया था यह आरोप छिछला और इन महान नेताओं की बदनामी करनेवाला है। अपने में ही मूलतः और मूलभूत संघर्ष था और उसका लाभ ब्रिटिशों ने न उठाया होता तो ही आश्चर्य की बात होती या यूं कहें कि, वह न उठाना राजनैतिक दृष्टि से मूर्खतपूर्ण ठहरता।

डा. आंबेडकरजी ने कहा थाः ''हिंदू-मुस्लिम ... इनमें विरोध के मूल कारण ऐतिहासिक, धार्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक घोर शत्रुता है; राजनैतिक जानीदुश्मनी तो उसका प्रतिबिंब है ... ये दो धर्म परस्पर विभिन्न हैं... उनके विरोध अंगभूत हैं और सदियों से वे मिट न सकें हैं।""


वस्तुतः हिंदू-मुसलमानों में फूट डालने की आवश्यकता ब्रिटिशों को थी ही नहीं। उन्हें तो केवल इस फूट का उपयोग अपने राज्य को स्थिर करने के लिए करना भर था। डॉ. पी. हार्डी के अनुसार ब्रिटिशों की नीति 'फूट डालो और राज करो" की नहीं थी, बल्कि 'संतुलन साधो और राज करो" (balance & rule) की थी।

इस नीति के संबंध में प्रा. फॅ्रान्सिस रॉबिनसन ने अपने ग्रंथ 'सेपरेटिज्म अमंग इंडियन मुस्लिमस्‌" में अत्यंत वस्तुनिष्ठ एवं मार्मिक विश्लेषण किया हुआ है। उनके कहने के अनुसार ''(1857 के बाद) भारत के ब्रिटिश राज्य के लिए मुस्लिम समाज सबसे बडा धोखा है ऐसा मानकर उनके विषय में ब्रिटिश शासन ने नीति तय की... बाद के काल में भी ब्रिटिशों को दूसरे मुस्लिम विद्रोह का भय सताता रहता था। मुस्लिम समाज उनकी सर्वाधिक चिंता का विषय बन गया था और इसीको दृष्टि में रख वायसराय लॉर्ड मेयो ने मुस्लिमों के संबंध में अपनी नीति तय की ... (उन्हें निकट करना प्रारंभ हुआ। उनके लिए विशेष शिक्षा प्रसार की योजना 1871 में तैयार की गई) .... लॉर्ड मेयो की (मुस्लिम) शिक्षा योजना और हंटर के ग्रंथ में आई हुई मुस्लिम पिछडेपन की चर्चा को अखिल भारतीय महत्व प्राप्त हुआ ... मुसलमानों का विचार करते समय पहले राजनीति का विचार किया गया और उसअनुसार नीति तय की गई और उसके दूरगामी परिणाम हुए।"" लॉर्ड मेयो का विचार था कि राजनैतिक दृष्टि से मुसलमान अत्यंत धोखादायक हैं और उनसे तालमेल बैठा लेने में ही समझदारी है। परंतु, इस प्रकार के विचार व्यक्त करने के कुछ ही दिनों बाद एक वहाबी मुसलमान ने उनका कत्ल कर दिया और वे स्वयं समन्वय बैठा लेने की नीति के लाभ से वंचित रह गए ।


फ्रांसिस यह भी स्पष्ट करते हैं कि, इस प्रकार से ब्रिटिश शासन ने 1871 के बाद अपनी नीति मुसलमानों के लिए कितनी भी अनुकूल बनाई हो तो भी ''खुला सच यह था कि, ब्रिटिशों को मुसलमान कभी भी विश्वसनीय नहीं लगे।"" वे दिखला देते हैं कि, 1877 में लॉडॅ नॉर्थब्रुक ने 'हाउस ऑफ लॉर्ड्‌स" में कहा था कि, ''कोई भी धार्मिक मुसलमान मुस्लिम राज्य के बगैर संतुष्ट रह ही नहीं सकता।"" ''वस्तुस्थिति यह थी कि, ब्रिटिश मुसलमानों के प्राणघातक हमलों से डरते थे। उनकी दृष्टि में इस्लाम के अनुयायी ब्रिटिश राज्य की सुरक्षा के लिए सर्वाधिक धोखादायक थे। इसीलिए (1857 के) विद्रोह के बाद उनके विरुद्ध बदले का अभियान चलाया गया था। परंतु, जब ध्यान में यह आया कि, (बदले का दंड) गले पडनेवाला सिद्ध होनेवाला है तो उन्हें निकट करने की नीति अपनाई गई।"" वे स्पष्ट करते हैं कि, ''इस प्रकार से (निकट) करने का उनका उद्देश्य मुसलमानों को हिंदुओं के विरुद्ध खडा करने का नहीं था बल्कि (उनका) ब्रिटिश राज्य से समन्वय बैठा लेने का था। (उनमें भेदभाव निर्मित करना यह उद्देश्य नहीं था) परंतु, भले ही उद्देश्य ना हो तो भी उसका परिणाम कुछ मुसलमानों को राजनीति में मुसलमान के रुप में व्यवहार करने के लिए प्रोत्साहन मिलने में हुआ।""



निश्चय ही विश्लेषण सत्य के निकट है ब्रिटिश यहां राज करना चाहते थे उसके लिए अपने राह की बाधाओं को हटाना, धोखों को कम करना जरुरी था इसलिए उन्होंने मुसलमानों को खुष करने का मार्ग चुनकर अपना मार्ग आसान करना चाहा तो उसमें उनकी दृष्टि से कुछ भी गलत नहीं था। वे यहां कोई हिंदू-मुस्लिम एकता स्थापित करने तो आए नहीं थे, हिंदू-मुस्लिमों के बीच के भेद का लाभ उठाकर अपना राज्य स्थिर करना उनका राजकर्तव्य था, प्रजा के भेदों का लाभ न उठाकर अपना राज्य गमानेवाला राज्यकर्ता मूर्ख ही कहलाता है। स्वतंत्र भारत के धर्मनिरपेक्ष और प्रजातांत्रिक शासक भी चुन कर आने और स्थिर रहने के लिए इसी भेदनीति को अपनाते हैं। ब्रिटिश राज्यकर्ताओं की तरह ही उन्हें भी मुसलमानों का भय सताता है और इसलिए उन्हें खुश करने की नीतियां और कार्यक्रम अपनाए जाते हैं। हिंदुओं को दुखाने का इस प्रजातंत्र के दलों को जरा भी डर नहीं लगता। यह 'फूट डालो और राज करो" की नीति न होकर विद्रोहियों को शांत और खुश करने की सामान्य राजनीति है।



वैसे भी ब्रिटिश जानते थे कि हिंदू कोई अनंतकाल तक उनका राज्य सहन करनेवाले नहीं थे। इंग्लिश विद्या सीखकर उनकी राज्यपद्धति अवगत और आत्मसात करने, उनके शक्तिस्थान समझकर स्वयं जब प्रजातांत्रिक शासन चलाने योग्य हो जाएंगे ऐसा समझने लगेंगे वैसेही हिंदू स्वराज्य-स्वतंत्रता के लिए संघर्ष छेड देंगे। यह ठीक है कि हिंदू कोई मुसलमानों के समान विद्रोही नहीं थे फिर भी सातसौ वर्षों तक मुसलमानों द्वारा शासित रहने के बावजूद बहुसंख्यक थे और प्रजातांत्रिक पद्धति से आंदोलन चलाकर  प्रजातंत्र की भाषा उपयोग में लानेवाले ब्रिटिशों को स्वतंत्रता देने के लिए बाध्य कर सकते थे। अतः ब्रिटिशों के लिए संभावित विरोधक हिंदू ही रहनेवाले थे ऐसी परिस्थिति में नई नीतियों के अनुसार हाल ही में मित्र बने मुसलमान उपयोगी ठहरनेवाले थे।



उधर मुस्लिम नेताओं को भी केवल मुसलमानों का हित चाहिए था। वह हित साध्य होने में जब तक हिंदुओं की सहायता मिलेगी तब तक चाहिए थी जैसीकि 1857 में अपना राज्य वापिस लाने के लिए उन्होंने हिंदुओं की सहायता ली थी। परंतु, अब परिस्थितियां बदल गई थी ब्रिटिशों ने मुसलमानों को दबाना, कुचलना प्रारंभ कर दिया था। मुसलमान भी समझ चूके थे कि अब ब्रिटिशों के विरुद्ध विद्रोह करना सरल नहीं बल्कि उनके साथ तालमेल बैठा लेने में ही अपना हित है। यह समझ विकसित हो इसके लिए सर सय्यद अहमद आगे आए। उन्होंने इतना अध्ययन कर लिया था कि 1857 का विद्रोह हिंदुओं के कारण ही ब्रिटिशों द्वारा कुचला जा सका था। आगे इस प्रकार के विद्रोह के कारण मुसलमानों का ही अहित होगा यह भी उनकी समझ में आ गया था। मुसलमानों का सच्चा हित ब्रिटिशों का विरोध नहीं मित्रता करने में ही है। इधर ब्रिटिशों ने भी अपनी नीतियां बदल दी थी। अंग्रेजी पढ़े-लिखे धर्मनिष्ठ मुसलमानों को न तो पराये ब्रिटिशों से कोई लगाव था न ही एतद्देशीय हिंदुओं के साथ प्रेम और उसमें उन्हें सर सय्यद जैसा उच्चशिक्षित न्यायाधीश,उदारवादी विचारक नेता ब्रिटिशों को हिंदुओं की अपेक्षा निकट मानने का उपदेश कुरान के आधार पर कर रहा था। ब्रिटिशों को भी तो यही चाहिए था अतः दोनो में गठबंधन हो गया और कल के सहयोगी हिंदू अब विरोधी हो गए।



मुसलमानों के लिए भी सच्चे विरोधी एवं प्रतिस्पर्धी हिंदू ही थे, उन्हें भय भी हिंदुओं से ही लगता था, क्योंकि वे बहुसंख्यक थे, उनसे ज्यादा पढ़े-लिखे एवं आधुनिक भी थे। यह भी वे जानते थे कि ब्रिटिशों के जाने के बाद इस देश में प्रजातंत्र आएगा और बहुसंख्य होने के कारण राज्य हिंदुओं का ही आएगा। हिंदुओं का बहुसंख्यकत्व ही उनके लिए धोखा था। इसलिए हिंदुओं के बहुसंख्यकत्व और वर्चस्व से बचने के लिए ब्रिटिश ही उनके तारणहार ठहरनेवाले थे। यही विचारसरणी आगे जाकर 'द्विराष्ट्रवाद" बनी और देश के विभाजन का कारण भी बनी। विभाजन का आधार भी इसी काल में तैयार हुआ।



डॉ. आंबेडकर अपने पाकिस्तान इस ग्रंथ में कहते हैं ः ''छःसौ वर्षों से मुसलमान इस देश के राज्यकर्ता (मालिक) रहे थे। ब्रिटिशोंें का राज्य आने के बाद उनका दर्जा कम होकर वे हिंदुओं की बराबरी में आ गए। राज्यकर्ता का दर्जा जाकर सामान्य प्रजा का दर्जा मिलना यह पर्याप्त मानहानी थी; परंतु (हिंदुओं के साथ रहने पर प्रजातंत्र के तत्त्वानुसार) हिंदू राज्यकर्ता हो जाएंगे और अपन उनके प्रजाजन बनेंगे यही उनकी दृष्टि में सच्ची मानखंडना थी।"" इससे छूटने के लिए ही उन्होंने विभाजन की मांग की थी।



विभाजन की दृष्टि से पहला चरण था 1906 में मुस्लिम लीग की स्थापना तो दूसरा चरण था मुस्लिमों के लिए स्वतंत्र चुनाव क्षेत्र मान्य करना जिसे 1909 में ब्रिटिश शासन ने मान्य किया था और1916 में लखनऊ करार द्वारा कांग्रेस (यानी हिंदुओं) ने। यह समझौता करते समय और मान्यता देते समय कांग्रेस की ओर से लोकमान्य तिलक तो मु. लीग की ओर से मोहम्मदअली जिन्ना थे। इसका स्पष्ट अर्थ इस प्रकार से होता है कि लो. तिलक और कांग्रेस ने मुस्लिमों के स्वतंत्र चुनाव क्षेत्र को मान्यता दी थी। इधर एक ओर तो हम लखनऊ समझौते को हिंदू-मुस्लिम एकता का करार मानकर इसके लिए तिलक-जिन्ना को 'हिंदू-मुस्लिम एकता के दूत" कहकर उनको गौरवान्वित करते हैं और उधर हम ब्रिटिशों ने स्वतंत्र चुनाव क्षेत्र को मान्यता देकर 'फूट डालो और राज करो"  की नीति उपयोग में लाई इसके लिए दोषी ठहराते हैं। क्या यह हास्यास्पद नहीं है।  निष्कर्ष यही है कि, ब्रिटिश नीति 'फूट डालो और राज करो" को सूत्ररुप में संबोधित करना अयोग्य होगा।