Saturday, January 26, 2013



भारत मुुक्ति के लिए जन्मा हुआ महात्मा - स्वामी विवेकानंद



भारतीय संस्कृति के उत्तुंग कीर्तिकलश के रुप में जिन्हें गिना जा सके ऐसे चुनिंदा महाभागों में जिनका समावेश किया जा सके, जिनकी महानता का वर्णन करना असंभव सा ही है, जिनका चरित्र वर्णन पढ़कर आद्यशंकराचार्य, समर्थ रामदास जैसे लोकविलक्षण पुरुषों का स्मरण हो आए ऐसे व्यक्तित्व के धनी का नाम हैं स्वामी विवेकानंद।



जब ब्रिटिश विद्वान प्रशासक, मिशनरी हिंदुत्व का समाधि लेख लिख रहे थे- मैक्समूलर मिशनरियों को सुसमाचार सुना रहे थे- 'ब्राह्मणत्व मर रहा है, बल्कि मर ही चूका है। भले ही वह अभी भी 11करोड नर-नारियों का धर्म है। लेकिन जब किसी धर्म के श्रद्धा रक्षक वीर पुरुष और अग्रगामी समर्थक सामने नहीं आते, तब वह धर्म निष्प्राण ही मानना चाहिए।" ऐसे दुर्धर समय में आविर्भाव हुआ था श्रीरामकृष्ण परमहंस के उत्तराधिकारी शिष्य स्वामी विवेकानंद का। जिन्होंने स्वयं की मुक्ति को क्षुद्र मान, भारत मुक्ति के आदर्श को सामने रख 'बहुजन हिताय बहुजन सुखाय" की महत्वाकांक्षा को अपना कर्म मान हिमालय से लेकर कन्याकुमारी तक परिव्राजक व्रत धारण कर तीर्थाटन कर भारतवर्ष संबंधी प्रत्यक्ष ज्ञान संपादन किया था।



उन्हें लगता था कि पश्चिमी समाजों से जहां हमें बहुत कुछ सीखना है वहीं हमारे पास उन्हें सीखाने के लिए आध्यात्मिक ज्ञान है। इसका अर्थ यह है- हिंदुओं को मिशनरियों और जिहादियों की नकल नहीं करनी चाहिए। हिंदुत्व अपने ही शील-स्वभाव के साथ बाहर जाएगा। विनाश और उत्पीडन के लिए नहीं, सृजन और प्रबोधन के लिए। भारत का कर्तव्य है कि वह इन समाजों के प्राचीन अध्यात्म और प्राचीन देवताओं के पुनराविष्कार में सहायक बने।



भारत मुक्ति का, भारतोन्नति का उपाय स्वामीजी को कन्याकुमारी में सूझा था। भारत की सर्वसामान्य जनता की दरिद्रता और अज्ञान का निरुपण ही भारत मुक्ति का मार्ग है। भारत के पुनरुद्धार के लिए साधनों एवं मार्ग संपादन करने के लिए पाश्चात्य राष्ट्रों में जाने का निश्चय स्वामीजी ने किया। यदि स्वयं को सुसंगठित राष्ट्र के रुप में निर्मित करना है तो अन्य देशों के विचार प्रवाहों के साथ स्वयं को मुक्त संबंध रखना होंगे। भारतोन्नति व भारत मुक्ति के लिए पैसा एवं मनुष्य संपादन करें, आधुनिक पाश्चात्य विज्ञान की सहायता से भारत के कृषि, उद्योग-व्यापार का विकास करें इस विचारानुरोध के कारण स्वामीजी सन्‌ 1893 में अमेरिका सर्वधर्म परिषद निमित्त गए थे।



उनकी दृष्टि में भारत की दुर्दशा का मूल कारण दरिद्रता है। इस दरिद्रता के निवारण के लिए स्वामीजी ने तीन मार्ग सुझाए। 1. विज्ञाननिष्ठ खेती, 2. स्वदेशी उद्योग-धंदे, 3. भारतीय माल का विदेशों में व्यापार। चूंकि भारत का प्रमुख व्यवसाय कृषि है और जब तक भारतीय कृषि आधुनिक वैज्ञानिक पद्धति से की नहीं जाएगी तब तक भारत की दरिद्रता नष्ट नहीं होगी। स्वामीजी ही भारत के प्रथम 'विज्ञाननिष्ठ कृषि" के उद्‌गाता हैं। स्वामीजी के विचारानुसार भारत की उन्नति के लिए भारतीय उद्योग व्यवसाय का विकास करने के लिए पाश्चात्य विज्ञान के आधार पर भारतीय पूंजी के द्वारा नए-नए उद्योग-धंदे, कारखाने भारतीय प्रारंभ करें इसके लिए भारतीय युवा जापान, अमेरिका आदि प्रगत राष्ट्रों से तांत्रिक ज्ञान संपादन कर भारत में उद्योग-व्यवसाय का विकास करें।



स्वामीजी द्वारा बतलाया हुआ तीसरा मार्ग है भारत की दरिद्रता के निवारण के लिए स्वदेशी वस्तुओं का विदेशों में व्यापार। स्वामीजी कहते हैं - 'भारत में कई तरह की विविध वस्तुएं बनती हैं। विदेशी लोग तो सारा कच्चा माल ले जाकर उसकी सहायता से सोना बना रहे हैं और तुम भारतीय गधों की भांति उन्हीं का लाया हुआ माल गले से लगाए मरे जा रहे हो। भारत में जो कच्चा माल उत्पन्न होता है वह देश विदेश के लोग ले जाते हैं, अपनी बुद्धि का उपयोग कर उससे विभिन्न प्रकार की वस्तुएं तैयार कर बडे बन रहे हैं और तुम अपनी बुद्धि को गाडकर घर का धन दूसरों को बांटकर 'अन्न-अन्न" करते हुए भीख मांगते भटक रहे हो- देशी कपडा, अंगोछा, सूप, झाडू सिर पर उठाकर यूरोप, अमेरिका के रास्तों पर घूमकर बिक्री करो तो देखोगे कि आज भी भारत में तैयार वस्तुओं की कीमत क्या है!



विदेश व्यापार के संबंध में स्वामीजी दि. 17 जनवरी 1895 को न्यूयार्क से स्वामी त्रिगुणातीतानंद को भेजे पत्र में लिखते हैंः 'मूंग की, तुअर की दालों का व्यापार इंग्लैंड एवं अमेरिका में लाभदायक ढ़ंग से चल सकेगा ऐसा रामदयाल बाबू को कहलवाओ पकाई हुई दाल का अगर योग्य तरीके से प्रचार हुआ तो लोग उसका उपयोग रुचिपूर्वक करने लगेंगे। छोटे-छोटे डिब्बों में डालकर और  उस पर उसे किस प्रकार बनाया जाता है यह छापकर अगर ये दालें घर-घर जाकर खपाई जाएं तो उनकी बहुत मांग रहेगी। उसी प्रकार यहां उनका संचय कर रखने की व्यवस्था करना चाहिए। इसी प्रकार मुंगबडी जैसी वस्तुएं यहां बडे स्तर पर खप सकती हैं, साहसयुक्त उद्योग की आवश्यकता है, आलसियों जैसे बैठे रहने से कुछ नहीं होगा। किसीने कंपनी निकालकर और इंग्लैंड में भारतीय माल भेजना तय किया तो अच्छा खासा व्यापार चल पडेगा, परंतु अपने लोग ठहरे जमाने के आलसी!"



स्वामीजी के उपर्युक्त उद्‌गारों पर विचार करें तो सर्वसंग परित्याग किए हुए स्वामीजी भारत दरिद्रता के निवारणार्थ किस प्रकार  का सूक्ष्म और कुशलता से व्यवहारिक विवेचन कर रहे हैं इसका सहज आकलन हो जाएगा। आज के संदर्भ में यदि हम उनके विचारों पर गौर करें तो पाएंगे कि आज भी दरिद्रता नष्ट करने का उद्‌घोष जारी ही है, अन्न के संबंध में हम आज भी थोडी बहुत मात्रा में परावलंबी ही हैं, भारत आर्थिक संकटों से घिरा होकर आर्थिक दुर्दशा की सीमा की ओर जा रहा है। इस दृष्टि से स्वामीजी के विचार आज भी प्रासंगिक नजर आ रहे हैं।



स्वामीजी की धारणा थी कि, ''भारत के समस्त दुखों का एकमेव कारण अज्ञान ही है""। अज्ञान निवारणार्थ सर्वसामान्य जनता को शिक्षित करने से ही उनकी उन्नति हो राष्ट्र निर्माण हो सकेगा। उन्हीं के शब्दों में- ''बिल्कुल सरल भाषा में विज्ञान, तत्त्वज्ञान, भूगोल आदि इतिहासादि विषयों के मूलतत्व सारी जनता में प्रसृत करो। इसीके साथ उन्हें सीधे सरल तरीके से व्यवहार, व्यापार, कृषि वगैराह गृहस्थपयोगी बातों की भी शिक्षा दो।""



स्वामीजी जब 1893 में अमेरिका 'पार्लियामेंट ऑफ रिलीजंस" में भाग लेने के लिए जा रहे थे तब उनकी जहाज पर टाटा के साथ देश की औद्योगिक दुर्दशा पर हुई चर्चा में उन्होंने टाटा का ध्यान इस ओर दिलाया था कि वे क्यों जापान से दियासलाई का आयात करते हैं, जबकि इसके उत्पादन के लिए भारत में ही व्यवस्था की जा सकती है? स्पष्ट है कि इससे जो पैसा विदेश जाता था उसके प्रति वे चिंतित थे। स्वामीजी के साथ हुई चर्चा से उत्पन्न विचारों का ही प्रभाव था कि 28 सितंबर 1898 को जमशेदजी टाटा ने एक घोषणा की थी जो 'टाईम्स ऑफ इंडिया (मुंबई)" में प्रकाशित हुई थी जिसमें उन्होंने भारत में उच्च अध्ययन के लिए एक आधुनिक संस्थान स्थापित करने का संकल्प प्रकट किया था। इस संदर्भ में उन्होंने 23 नवंबर 1898 को मुंबई से स्वामी विवेकानंदजी को एक पत्र भी लिखा था जो विस्तारभयावश यहां दिया नहीं जा रहा है। स्वाभाविक ही था कि अंग्रेजों को यह निर्णय रास नहीं आया और उन्होंने अडंगे डाल दिए। परंतु, टाटा हताश नहीं हुए उनके और उनके पश्चात उनके दोनो पुत्रों दोराबजी टाटा और नवल टाटा के अथक प्रयासों से अंततः स्वप्न साकार हुआ 1909 में और बंगलौर में आज की विख्यात भारतीय विज्ञान संस्था का उदय हुआ।



उनके भारत मुक्ति के लिए किए गए प्रयत्नों, विचारों, मार्गदर्शन के कारण ही मैसूर के महाराज ने उनका वर्णन भारत मुक्ति के लिए जन्मा महात्मा के रुप में किया है जो यथार्थ भी है।



     

No comments:

Post a Comment