Saturday, November 28, 2015

ऐसे थे भालजी पेंढ़ारकर

आजकल निर्माता-निर्देशक संजयलीला भंसाली की निर्माणाधीन फिल्म बाजीराव मस्तानी किसी ना किसी कारण से बडी चर्चा में है। परंतु, सबसे पहले दादासाहेब फालके पुरस्कार प्राप्त भालचंद्र गोपाल ऊर्फ भालजी पेंढ़ारकर ने आज से 90 वर्षपूर्व सन्‌ 1925 में इन ऐतिहासिक पात्रों बाजीराव-मस्तानी की अमर प्रेम कथा पर निर्मित एक फिल्म 'बाजीराव-मस्तानी" का निर्देशन किया था, जिसकी पटकथा भी उन्होंने ही लिखी थी। सिने जगत में उन्हें श्रद्धावश चित्र-तपस्वी कहा गया। चित्रपट सृष्टी खडी करने के लिए उन्होंने अथक प्रयास किए। सूर्य, शारदा, फेमस अरुण, कोल्हापूर सिनेटोन जैसी चित्र संस्थाओं के निर्माण में उनका महत्वपूर्ण योगदान था। इस कारण उन्हें चित्रपट विद्यापीठ कहा जाने लगा। भालजी ने 1932 से 1986 के बीच 45 सामाजिक और ऐतिहासिक चित्रपट दिए। हिंदी के पृथ्वीराज कपूर, दुर्गा खोटे, सुलोचना, ललिता पवार, दाद कोंडके, कृष्ण भूमिका के लिए विख्यात शाहू मोडक, रमेश देव, गजानन जहागीरदार जैसे अग्रणी कलाकारों ने भालजी के समर्थ दिग्दर्शन तले काम किया था।

राजकपूर जिन्हें भालजी से पहले ही दादा साहब फालके पुरस्कार मिला था। उन्हें फिल्म जगत में लानेवाले भालजी ही थे। उनकी फिल्म 'वाल्मिकी" में राजकपूर नारद बने थे और पिता पृथ्वीराज कपूर ने वाल्मिकी का रोल निभाया था। महारथी कर्ण (1944) चित्रपट में पृथ्वीराज और भालजी की जो वैचारिक जुगलबंदी थी वह भालजी के आत्मचरित्र 'साधा माणूस" में मूलतः ही पढ़ी जाए ऐसी है। मराठी चित्रपट जगत की तीन पीढ़ियां उनके दिग्दर्शन में तैयार हुई थी। जिसका उल्लेख वे कलाकार 'मैं भालजी की स्कूल का विद्यार्थी हूं" गर्व से कहकर करती रही। 1932 में बनी फिल्म 'श्याम सुंदर" भारत की पहली सिल्वर जुबली फिल्म थी। भालजी ने ही 1934 में पहली एनिमेशन फिल्म 'आकाशवाणी" बनाई थी। भालजी ने व्ही. शांताराम के लिए भी उदयकाल, रानी साहिबा, खूनी खंजर, जुल्म जैसी सफल फिल्में और गीत लिखे थे।

उनके आत्मचरित्र से ही ज्ञात होता है कि, पंडित मदनमोहन मालवीयजी के साथ भालजी काशी हिंदूविश्वविद्यालय के निर्माण में ठोस सहायता मिले के लिए छत्रपति राजाराम से मिले थे और उस जमाने में महाराज ने पं. मालवीयजी को एक लाख रुपये का दान दिया था। इसी प्रकार से भालजी डॉ. आंबेडकर के साथ महाराज से इतिहास प्रसिद्ध किला पन्हाला पर सैनिक शिक्षा के लिए एक भव्य अकादमी स्थापित की जाए के संदर्भ में मिलने पहुंचे। उस समय महाराज किसी से चर्चा कर रहे थे, बहुत देर हो जाने के कारण डॉ. आंबेडकर भालजी सहित महाराज से बिना मिले ही चले आए।  

14 वर्ष की आयु में उन्होंने कलकत्ता यात्रा की इस दौरान भगतसिंह के सहयोगी राजगुरु के संपर्क में आए और घनिष्ठ मित्र बन गए। वहां से लौटने के पश्चात 1917 में सेना में भर्ती हो गए और तीन वर्ष मराठा पलटन में रहे। उनकी हिंदुत्व पर अगाध निष्ठा थी। लोकमान्य तिलक और बाबाराव सावरकर (वीर सावरकर के बडे भाई) के सान्निध्य में वे रहे। तिलक, वीर सावरकर और शिवाजी उनके श्रद्धास्थान थे। युवावस्था में कुछ समय उन्होंने तिलक के समाचार पत्र 'केसरी" में काम किया था। जिससे उनकी राष्ट्रीय चेतना विकसित हुई। बाबाराव सावरकर के मार्गदर्शन में उन्होंने भारत की स्वाधीनता के लिए कार्य किया। स्वधर्म, स्वभाषा, स्वदेश  पर उनकी अगाध श्रद्धा थी। 1927 में जब वंदेमातरम्‌ बोल देना भर भयंकर अपराध माना जाता था भालजी ने 'वंदेमातरम आश्रम" नामकी फिल्म जिसमें गुरुकुल पद्धति से शिक्षा का समर्थन था बनाई जिस पर ब्रिटिश सेंसर ने सात बार कैंची चलाई। विरोधस्वरुप भालजी ने यह फिल्म फिर प्रदर्शित ही नहीं की। भालजी ऐतिहासिक फिल्मों के प्रणेता थे। उन्होंने 'छत्रपति शिवाजी", मराठी तथा हिंदी में बनाई थी। ऐतिहासिक फिल्मों द्वारा उन्होंने राष्ट्र के स्वाभिमान को सशक्त स्वर दिया। सामाजिक जीवन को अभिव्यक्ति देने के लिए उन्होंने ग्रामीण जीवन का यथार्थपरक चित्रण भी अपनी फिल्मों में किया था। 

शिवाजी पर उनकी कितनी श्रद्धा थी यह इस प्रसंग से मालूम पडता है। कोल्हापूर के मध्यवर्ती चौक में गव्हर्नर सर लेस्ली विल्सन का पुतला था। सन्‌ 1942 के आंदोलनकारियों ने इस सफेद पुतले को काला पोतकर कोल्हापूर में हलचल मचा दी थी। बाद में इस पुतले को सुरक्षा बलों की उपस्थिति होने के बावजूद आंदोलनकारियों ने तोड डाला। शासन ने इस पुतले को वहां से हटाने का निर्णय लिया। भालजी ने वहां छत्रपति शिवाजी का पुतला लगाना तय किया। जनता का समर्थन हासिल करने के लिए एक मुहिम छेडी। शिवाजी महाराज का पुतला खडा करना यह कोल्हापूर की अस्मिता और स्वाभिमान का प्रश्न है यह भालजी का विचार लोगों को पसंद आया। समाचार पत्रों ने भी अपना समर्थन दिया। कोल्हापूर के हिंदू चीफ इंजीनिअर भी सहमत थे परंतु यह बात उनके अधिकार क्षेत्र के बाहर की होने के कारण उनकी सलाह पर अंग्रेज रेसिडेंट कर्नल हेरिसन से भालजी मिले।

कर्नल हेरिसन ने कहा कि आपको क्यों लगता है कि ब्रिटिश सरकार आपके प्रस्ताव को स्वीकार लेगी। क्या इसीलिए आपने सर लेस्ली के पुतले को तोडा था। भालजी ने प्रतिवाद किया कि निराधार आरोप ना लगाएं। जिसने तोडा है उसे पकडें। कर्नल ने इस पर कहा कि हम दोबारा सर लेस्ली का पुतला वहां लगाएंगे। भालजी का उत्तर था अवश्य आप कर सकते हैं परंतु इस पुतले को फिर से तोडा नहीं जाएगा ऐसा आपको लगता है क्या? आगे उन्होंने कहा - मैं एक कलाकार हूं कला निर्मिती मेरा जीवन है किसी को मैं बदसूरत कर नहीं सकता। वे चित्रपट व्यवसायी हैं राजनीतिज्ञ नहीं वे यह कार्य केवल शिवाजी पर श्रद्धावश कर रहे हैं। कर्नल अनुकूल हो गया और शिवाजी महाराज का पुतला खडा कर दिया गया।

जब पंडित मदनमोहन मालवीय और डॉ. हेडगेवार के आधिपत्यतले हिंदू महासभा का आंदोलन आरंभ हुआ तब बाबाराव सावरकर की प्रेरणा के कारण वे हिंदू महासभा में शामिल हुए और दक्षिण हिंदुस्थान की हिंदू महासभा के प्रमुख के रुप में काम करने लगे। बाद में वे रा. स्व. से. संघ से आजीवन जुडे रहे। डॉ. हेडगेवारजी ने भालजी की फिल्म 'भगवा झंडा" का उद्‌घाटन भगवा ध्वज  फहराकर किया था। इस फिल्म में शिवाजी महाराज की संगठन क्षमता का उत्कृष्ट प्रदर्शन था। अंग्रेज सरकार ने इस फिल्म को प्रतिबंधित कर दिया था।

Thursday, November 19, 2015

टीपू सुलतान का मूल्यांकन हो

सन्‌ 1707 में औरंगजेब की मृत्यु के पश्चात मुगल साम्राज्य रसातल को जाने लगा और धीरे-धीरे तीन शक्तियों का उदय हो गया। मराठा, सिक्ख और ब्रिटिश, इनमें मराठे सबसे प्रबल थे। 1757 में प्लासी की लडाई जीतकर अंग्रेजों ने अपनी रणनीति सफल कर दिखाई थी। मुसलमानों का एकमात्र ध्येय इस्लाम था और इसीको सामने रख शाहवलीउल्लाह ने अफगानिस्तान के अमीर अहमदशाह अब्दाली को हिंदुस्थान पर आक्रमण के लिए निमंत्रित किया था। 1761 में अब्दाली आया और पानीपत के युद्ध में मराठों को करारी हार का सामना करना पडा। प्लासी की लडाई का स्पष्ट परिणाम 1764 में बक्सर की लडाई जो मुख्यतः अयोध्या के नवाब और ब्रिटिशों में हुई थी के बाद नजर आया। ब्रिटिशों का आधार अधिक ही विस्तृत हो गया और स्पष्ट हो गया कि मराठे नहीं अंग्रेज ही भारत के अधिपति बनेंगे। 1803 में मराठे भी अंग्रेजों से पराजित हो गए और दिल्ली का बादशाह अंग्रेजों की कठपुतली बनकर रह गया साथ ही अब मुस्लिमों के शत्रु क्रमांक एक अंगे्रज हो गए।

इस प्रकार से जब उत्तर भारत के मुसलमान ब्रिटिश विरोधी भावना से आंदोलित हो रहे थे। दक्षिण में ब्रिटिश सत्ता को आव्हान देने के लिए धर्मवीर टीपू सुलतान (1740-99) का 1782 में उदय हुआ और ब्रिटिशों से लडते हुए वह शहीद हुआ। उसकी कब्र पर लिखा हुआ है 'टीपू सुलतान ने पवित्र जिहाद किया और अल्लाह ने उसे शहीद का दर्जा प्रदान किया।" अब प्रश्न यह उठता है कि वह ब्रिटिशों के विरुद्ध क्यों लड रहा था? और ब्रिटिशों को निकाल बाहर करने के बाद कौनसा राज्य लानेवाला था? टीपू कोे अंगे्रजों के साथ मराठों और धर्मबंधु निजाम से भी लडना पडा था और निजाम ने कई बार गैरमुस्लिम सत्ताओं से गठबंधन भी किया था इस कारण इस संघर्ष में धर्म का कोई संबंध नहीं था यह दिशाभ्रम होने की संभावना है इसलिए इस संघर्ष में निजाम के संबंध में टीपू की भूमिका क्या थी यह उसने निजाम को भेजे पत्र में स्पष्ट होती है।

निजाम को भेजे एक पत्र में टीपू इस्लामी बंधुभाव का आवाहन करते हुए लिखता है कि ''ब्रिटिश अपने को भुलावे में रखकर एकत्र आने नहीं दे रहे हैं। अगर अपन दोनो एकत्रित आ गए तो अपने पर हमला करने का साहस मराठे कभी भी नहीं जुटा सकेंगे।"" इस प्रकार की एकता के लिए उसने निजाम से पूर्व में जीता प्रदेश उसे वापिस देने का प्रस्ताव रखा और निजाम के खानदान से विवाह संबंध करने की तैयारी दिखलाई परंतु, निजाम तैयार नहीं हुआ। टीपू ने दिल्ली दरबार के एक निकटस्थ व्यक्ति को पत्र लिखकर विनती की कि, वह निजाम से आग्रह करे कि इस्लाम के उत्कर्ष के लिए अपन एकजुट हों। धर्म के प्रमुख होने के कारण पैगंबर के धर्म को प्रोत्साहित करना हमारे लिए बंधनकारक है। निजाम के दामाद और अधौनी के सूबेदार महाबतजंग को लिखा था कि ''निजाम काफिरों (मराठों) के पक्ष में है यह अनुचित है।""

इसी इस्लामी ध्येय को सामने रखकर उसने दिल्ली के बादशाह शाहआलम को लिखा था कि, ''यह इस्लाम का नम्र सेवक वर्तमान में ईसाइयों (यहां टीपू ने 'ब्रिटिश" या 'अंग्रेज" न कहते भान रखकर 'ईसाई" कहा है) का विद्रोह कुचल डालने के काम में लगा हुआ है ... अल्लाह पर श्रद्धा रखकर इस्लाम का यह सेवक गैरइस्लामी शक्तियों के विरुद्ध लडाई लडकर उन्हें नष्ट करने का विचार कर रहा है।"" मुगल दरबार के एक उच्च पदस्थ व्यक्ति मुहम्मद बेग को उसने लिखा था कि, ''तुम्हें यह निश्चित रुप से ज्ञात ही होगा कि, इस तुम्हारे मित्र ने भ्रष्ट ईसाइयों को किस प्रकार से कुचल डाला है। वर्तमान में मैं ऐसे कुछ मुस्लिम राज्यकर्ताओं का विद्रोह कुचलने में लगा हूं कि जो इस्लाम के विरुद्ध ईसाइयों की ओर से हो गए हैं। इस संदर्भ में मैंने पूरे देशभर में हस्तपत्रक बांटे हैं जिनमें इस्लामसंबंधी कर्तव्य और पैगंबर की हदीसें (उक्तियां और कृतियां) समाविष्ट की हुई हैं। उसकी एक प्रति तुम्हें भेज रहा हूं। इस्लाम की रक्षा और उत्कर्ष के लिए अपन सब लोगों को एकत्रित आने की और पूरी ताकत से ईसाइयों के आक्रमण को आव्हान देने की नितांत आवश्यकता है ... अभी भी यदि सभी मुस्लिम एकत्र आ जाएं तो इस्लाम का गतवैभव प्राप्त होना संभव है।""

परंतु, भारत के सभी मुसलमानों को एकत्रित न कर सकने के कारण उसने सैद्धांतिक रुप से विश्व के सारे मुस्लिमों के राजनैतिक और धार्मिक प्रमुख तुर्कस्तान के विश्व के खलीफा सलीम से सैनिक सहायता लेना तय किया। जिस प्रकार से विश्व के सारे मुस्लिम राजा अपने राजापद को कानूनी मान्यता मिले इसलिए खलीफा से मान्यतादर्शक राजवस्त्र मंगाते थे वैसे ही वस्त्र पाने के लिए उसने 1776 में 900 लोगों के एक शिष्टमंडल के साथ दसलाख रुपये और हीरेजवाहरात, चार हाथी की भेंट के साथ ही एक पत्र भी उनके साथ भेजकर उसमें लिखा था ः ''इस देश में ईसाइयो से हमारी लडाई चल रही है। इस सर्वोच्च काम में हम आपकी सहायता मांग रहे हैं।"" शत्रुओं को कुचलने और इस्लामी मूल्य कायम रखने के लिए चल रहे प्रयत्नों में आप सहायता करें। ैआगे वैश्विक इस्लाम की चिंता करते हुए उपाय के रुप में लिखा ः ''ब्रिटिशों की कारवाइयों के विरुद्ध भारतीय मुस्लिमों की ओर से संघर्ष करना मेरा कर्तव्य ही है, परंतु मुझे लगता है कि, सारे इस्लामी विश्व के लिए जिहाद अतिअनिवार्य हो गया है। हमारा ध्येय इस्लाम के श्रेष्ठत्व को ऊंचा रखना ही है, केवल हमारे देश की रक्षा करना ही नहीं!"" ... अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों के कारण खलीफा  अपने धर्मबंधु का प्रस्ताव स्वीकार न कर सका परंतु उसने राजवस्त्र और उसके नाम से खुत्बा पढ़ने और सिक्का ढ़ालने का अधिकार अवश्य दे दिया। मुगल बादशाहों ने कभी भी ऐसे वस्त्र नहीं मंगाए थे वे स्वयं को ही सम्राट समझते थे इस प्रकार टीपू का दर्जा धार्मिक दृष्टि से मुगल बादशाह से ऊंचा हो गया। 

खलीफा से भले ही सहायता नहीं मिली परंतु फिर भी उसने अफगानिस्तान के अमीर जमानशाह को पत्र लिखा ः ''हम हमेशा ही प्रार्थना करते हैं कि धर्म के आधार पर (विश्व के) सभी मुस्लिम राज्यकर्ताओं में सामंजस्य और एकता निर्मित हो। वर्तमान में हम बडी विकट स्थिति में हैं। इस्लाम विरोधी शक्ति हमारे विरोध में लडने की तैयारी कर रही है अतः हम आपके पास (सैनिकी) सहायता के लिए तरस खाने की विनती कर रहे हैं। हमें आशा है कि आप इस धर्मयुद्ध में हमारी सहायता करेंगे।"" उसने 20000 घुडसवारों की मांग की थी। जमानशाह ने उत्तर दिया ''इस्लाम विरोधी शक्ति इस्लामी साम्राज्य नष्ट करने की तैयारी में होने के कारण हम तुम्हें अपना समर्थन जाहीर करते हैं। तुम्हारा देश मूर्तिपूजा और इस्लाम बाह्य बातों से शुद्ध करने के लिए हम प्रचंड सेना लेकर तुम्हारी सहायता के लिए आ रहे हैं।"" वह 33000 की फौज लेकर निकला लेकिन अंग्रेजों द्वारा ईरान के सम्राट को दिशाभ्रम कर अफगानिस्तान पर हमले के लिए उद्युक्त कर दिए जाने के कारण भारत की सरहद तक पहुंच चुके अमीर को वापिस लौटना पडा। इसके बाद टीपू ने ईरान के सम्राट को भी पत्र लिखा परंतु ईरान युद्धजन्य परिस्थितियों के कारण कुछ न कर सका।

इस प्रकार तीनों बडी मुस्लिम साम्राज्य की शक्तियां जिहाद के लिए टीपू के काम न आ सकी। 1786 में टीपू ने एक राजाज्ञा निकालकर ब्रिटिश प्रांतों के मुस्लिमों को अपने इस्लामी राज्य में आकर स्थायी होने का आवाहन किया था। इसमें कहा गया था ः ''मुस्लिमों को श्रद्धाहीनों के देश से निकल जाना चाहिए (यह हिजरत का सिद्धांत है) और जब तक (टीपू) सुलतान वहां के बदमाश श्रद्धाहीनों को इस्लाम में ले नहीं आएगा अथवा उन्हें जजिया देने के लिए बाध्य नहीं कर देगा तब तक देश के बाहर ही रुकना चाहिए ... हमारा हेतु श्रद्धाहीनों के विरुद्ध जिहाद करना है।"" मुसलमानों में जिहाद की प्रेरणा निर्मित करने के लिए उसने एक पुस्तक प्रकाशित की थी 'फतह उल मुजाहिदीन" (धर्मयोद्धाओं की विजय) उसमें स्पष्ट किया था कि इस्लाम की विजय के लिए आक्रमक श्रद्धाहीनों के विरुद्ध जिहाद करना ही सच्चा इस्लाम है। 

वह विशुद्ध इस्लाम का कट्टर समर्थक था। शाह वली उल्लाह के विचारों का उस पर बडा प्रभाव था। ""अनेक शताब्दियों से हिंदुओं के सान्निध्य के कारण अनेक प्रकार की इस्लाम बाह्य विधियां एवं प्रथाएं घुस गई थी, धर्म में अनेक नई बातें आ गई थी, इन सबसे मुसलमानों को मुक्त करना उसका ध्येय था।"" ''वह इस्लाम के राजनैतिक वर्चस्व के लिए लड रहा था।"" ''उसे इस्लामी राज्य चाहिए था।"" ''विश्व में इस्लाम किस प्रकार वर्चस्वशाली बनेगा इसीकी उसे चिंता लगी रहती थी।"" संक्षेप में कहें तो शाहवलीउल्लाह को जिस प्रकार का खलीफा चाहिए था वैसा ही वह था।

टीपू की प्रशंसा भारत की स्वतंत्रता का योद्धा के रुप में की जाती है। क्योंकि, वह अंग्रेजों के विरुद्ध लडा था। अब यहां कुछ प्रश्न उपस्थित होते हैं। वास्तव में टीपू को यदि सचमुच अंगे्रजों को निकाल बाहर करना था, उनके वर्चस्व से देश को मुक्त कराना था तो वह हिंदुओं के विरुद्ध शस्त्र उठाता ही नहीं। वह क्या चाहता था उसकी विशिष्टता ऊपर बयान की ही जा चूकी है। ब्रिटिशों को निकाल बाहर करना इतनी ही बात स्वतंत्रता का योद्धा होने के लिए पर्याप्त है क्या? हां, ब्रिटिशों की बजाए मुस्लिमों का इस्लामी राज्य भारत में आ जाता तो मुस्लिमों की दृष्टि से स्वतंत्रता होती परंतु, हिंदुओं की दृष्टि से क्या होती? दूसरी महत्वपूर्ण बात- स्वतंत्रता की लडाई कब शुरु हुई यह समझें? उसका उत्तर एक ही है ः स्वतंत्रता गंवाने के बाद। टीपू अंग्रेजों के विरुद्ध लडा, परंतु टीपू मरने तक स्वतंत्र ही था। उसने अंगे्रजों से फौजें तैनात करने का समझौता नहीं किया था। निजाम ने सन्‌ 1800 में और दूसरे बाजीराव पेशवा ने वसई समझौते के द्वारा 1802 में अपनी स्वतंत्रता गंवाई। इस कारण हैदराबाद की स्वतंत्रता की लडाई की शुरुआत 1800 से और पश्चिम महाराष्ट्र की सन्‌ 1802 से समझना चाहिए। टीपू के पिता हैदरअली ने राज्य स्थापित किया और अंगे्रज-मराठा युद्ध में मराठों से सहयोग कर हैदरअली लडा। परंतु, अंग्रेज-मराठा युद्ध को कोई स्वतंत्रता की लडाई नहीं कहता। क्योंकि, मराठे क्या और हैदरअली क्या दोनो ही स्वतंत्र थे, अंग्रेजों के अधीन नहीं थे। उनकी लडाई को स्वतंत्रता की लडाई भला कैसे कहा जा सकता है? ठीक इसी प्रकार से टीपू स्वतंत्र के रुप मेंं लडा और स्वतंत्र रहते ही मरा, यह प्रशंसनीय है परंतु वह स्वतंत्रता संग्राम का योद्धा नहीं।

टीपू का चरित्रकार किरमानी ने टीपू के चरित्र में उसकी कट्टर इस्लामी निष्ठा और अन्य धर्मों के संबंध में घृणा का वर्णन किया हुआ है। 'अन्य धर्मियों के संबंध में टीपू को अत्यंत नापसंदगी थी प्रत्युत तिरस्कार ही था, ऐसा कहें तो भी चलेगा।" वास्तव में देखें तो टीपू के राज्य का आधार ही अस्थिर था। मराठों का राज्य जिन अर्थों से राष्ट्रीय कह सकते हैं वैसा टीपू का नहीं था। राष्ट्रीय इन अर्थों में कि मराठों की सत्ता की जडें मूल समाज में थी, वैसी टीपू की नहीं थी। बहुसंख्य समाज उसकी सत्ता से कभी भी एकरुप हो नहीं पाया और वह एकरुप हो इसके लिए टीपू ने प्रयत्न भी नहीं किए। हैदर ने परिस्थितियों का फायदा उठाकर अपनी ताकत बढ़ाई थी परंतु स्थानीय जागीरदार, नवाब उसके राज्य में असंतुष्टों के रुप में बचे ही रहे थे और विदेशी धर्मबंधुओं पर दारोमदार रखनेवाला टीपू उनका समावेश अपनी सत्ता में कर न सका और मौका मिलते ही वे अंग्रेज, मराठा और निजाम से जा मिले। 

टीपू ने एकनिष्ठ ऐसा एक सुरक्षा पथक बनाने के लिए खालिस मुसलमानों को भर्ती करना प्रारंभ किया। अपने पथक के बारे में वह बोलता था 'दर जुंभराए सा गम न बाशद" (मेरे हुजुरात में शोक नहीं) परंतु अर्थ कुछ ओर ही निकलता था। गम का 'ग" यानी हुजरात में गेर (परदेशी) नहीं चाहिए। 'म" यानी मोगल; मराठा, 'न" मतलब नवायत यानी कोकणी मुसलमान, 'ब" यानी ब्राह्मण, 'अ" यानी अफगान, 'श" यानी शिया और 'द" यानी मेदवी पठान नहीं चाहिए। उसने केवल शेख और सय्यदों को ही लिया इस कारण सेना में असंतोष फैल गया। परिणाम वही हुआ जो होना चाहिए। अंत में टीपू अंगे्रजों के हाथों मारा गया परंतु अंग्रेजों के हाथों मारे जाने के कारण उसके आस-पास हुतात्मा होने का वलय निर्मित हो गया। इकबाल ने टीपू के संबंध में कहा है ः 'धर्म और पाखंड (दीन और काफिर) के प्रचंड संघर्ष में हमारे तरकश का आखिरी तीर टीपू था।" सूज्ञ इस पर से टीपू का मूल्यांकन स्वयं ही करें। अंत में 'तमस" सीरियाल का यह वाक्य उद्‌धृत कर रहा हूं - 'जो इतिहास भूलते हैं, उनके माथे पर पुनः वैसा ही इतिहास लिखा जाता है।" 

Saturday, October 24, 2015

अत्यंत प्राचीन है भारत में गुप्तचर विज्ञान

गुप्तचर व्यवस्था के संबंध में विश्व प्रसिद्ध सेनानायक नेपोलियन बोनापार्ट का कहना था कि ठीक स्थान पर एक गुप्तचर बीस हजार सैनिकों के बराबर होता है। यह उल्लेख इसलिए कि वर्तमान में प्रत्येक राष्ट्र सैनिक शक्ति के समान ही गुप्तचर व्यवस्था को भी उतना ही महत्व दे रहा है। संसार की सभी प्राचीन सभ्यताओं में गुप्तचरी का उल्लेख मिलता है। गुप्तचर व्यवस्था के महत्व को हमारे पूर्वजों ने भी समझा था। संसार की अन्य सभ्यताओं में जहां गुप्तचरी का प्रयोग मात्र राजा के हित संवर्धन और रक्षार्थ किए जाने के निर्देश मिलते हैं वहीं भारत के सभी ग्रंथों में प्रजा के हित संवर्धन को महत्व दिए जाने के निर्देश हैं। भारत के सभी प्राचीन ग्रंथों ऋगवेद, अथर्ववेद, मनु स्मृति से लेकर पुराणों तक में इस व्यवस्था के संंबंध में प्रत्यक्ष या परोक्ष वर्णन मिलते हैं। रामायण और महाभारत में भी गुप्तचर व्यवस्था का उल्लेख मिलता है। हरिवंश पुराण में 'बाणासुर प्रसंग" में एक उल्लेख मिलता है, जिसमें लिखा गया है कि अनिरुद्ध जब गुप्त रुप से बाणासुर की कन्या के महल में पहुंचे और उषा-अनिरुद्ध मिलन हो गया तो,बाणासुर के महल में कार्यरत गुप्तचरों ने उसे उक्त घटना को बतला दिया। 

रामायण काल में अत्यंत उच्च कोटी की गुप्तचर व्यवस्था थी। राम और रावण की गुप्तचर व्यवस्था में भी बहुत अंतर था। जहां राम के गुप्तचर विद्वान और नीति का अनुसरण करनेवाले होकर सदाचारी और शालीन व्यवहारवाले थे, वहीं रावण के दूत कपटी और मायावी होकर धोखेबाज भी थे। रामायण में गुप्तचरी के दो उद्देश्य बतलाए गए हैं। 1. आत्मरक्षा, 2. राष्ट्र रक्षा। इन उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए राजा को चाहिए कि वह अपने गुप्तचरों द्वारा सतत न केवल शत्रुओं के भेद मालूम करता रहे अपितु अपने कर्मचारियों से भी सावधान रहे। जो राजा इनका पालन नहीं करेगा निश्चित रुप से एक दिन वह स्वयं नष्ट हो जाएगा। मनु ने चर-व्यवस्था का उल्लेख करते हुए इसे 'रक्षाधिकृत" (पुलिस) के अंतर्गत बताते हुए दो भागों में बांटा है। प्रथम अपराध अनुसंधान विभाग दूसरा सामान्य पुलिस विभाग। इससे यह पता चलता है कि यह कहना कि अपराध विज्ञान आधुनिक विज्ञानों में सबसे नया विज्ञान है असत्य है। प्राचीन काल में अपराध अनुसंधान किस प्रकार किया जाता था इस संबंध में कई कथाएं मिलती हैं। 
इसी प्रकार जासूसी में आजकल महिलाओं का प्रयोग अत्यंत व्यापक हो गया है पर वह भी नया नहीं है। प्राचीन भारत में स्त्रियों का प्रयोग गुप्तचरी के लिए किया जाता था। अपराधियों को पकडने के लिए वेश्याओं का प्रयोग किया जबकि सुंदर एवं संचारिकाओं को शत्रु पक्ष में भेजा जाता था। जो राजपरिवार के सदस्यों को अपने रुप जाल में फांस ठिकाने लगाने के काम आती थी। विषकन्याओं का उपयोग राजाओं व राजपुरुषों  की हत्या के लिए किया जाता था। इसके अतिरिक्त राज्य के अंदर ही आम जनता के बीच गुप्तचरी के लिए गुप्तचर सुंदरियां सार्वजनिक भोजनालयों और मदिरालयों में भी कार्य करती थी।

हम पुनः चर (चरकार्य यानी गुप्तचरी) व्यवस्था पर आते हैं। अपराध अनुसंधान विभाग के कर्मचारी साधारण वेशभूषा में रहते थे और अत्यंत गुप्त रुप से विभिन्न प्रकार के अपराधियों की जांच करते थे। विभिन्न क्षेत्रों के लिए विभिन्न उप-विभाग हुआ करते थे। कौटिल्य चाणक्य ने भी कहा है कि भिन्न-भिन्न कार्यक्षेत्रों के लिए भिन्न-भिन्न चर विभाग होने चाहिएं।

मनु ने राजा के लिए निर्देश दिए थे कि, राजा रोज अपने गुप्तचरों के साथ बैठक करा करे व आवश्यक सूचनाएं प्राप्त करे और इस आधार पर अपने वरिष्ठ चरों के साथ विचार-विमर्श करे। गुप्तचरों की भर्ती अत्यंत सतर्कतापूर्वक करे तथा सत्यनिष्ठ, होशियार, बुद्धिमान विश्वासपात्र लोगों को ही नियुक्त करे। चाणक्य ने भी कहा है कि राजा एक गुप्तचर पर विश्वास न करे वरन्‌ भिन्न-भिन्न तीन गुप्तचरों द्वारा सूचना की पुष्टि हो जाने पर ही विश्वास करे। गुप्तचरों को पर्याप्त वेतन दिया जाना चाहिए जिससे कि वह परिवार की ओर से निश्ंिचत हो कार्य कर सके। गलत सूचना देने पर चर को दंडित करना चाहिए।

भारत में गुप्तचरी का सर्वप्रथम संकेत ऋगवेद में मिलता है। अथर्ववेद में भी ऐसे अनेक संकेत हैं। अथर्ववेद में वरुण को सहस्त्रनेत्र कहा गया है। अर्थात्‌ वरुण के सहस्त्रों (हजारों) गुप्तचर। गुप्तचर ही राजा के नेत्र होते हैं। उन्हीं के माध्यम से राजा पूरे समाज-प्रजा की सभी सूचनाएं प्राप्त कर उनका ध्यान रख सकता है। शत्रुओं और अपराधियों के बारे में सूचनाएं पाकर उचित न्याय कर सकता है। वेदों में गुप्तचारिणी सभा का भी उल्लेख है जो दस्युओं से संबंधित सूचनाएं देने का कार्य करती थी। स्त्री गुप्तचरों की परंपरा वैदिक काल में ही आरंभ हो गई थी। ऋषियों की तपस्या भंग करने के लिए आनेवाली अप्सराएं गुप्तचर नारियां ही तो थी।

Tuesday, October 13, 2015

दुर्गापूजोत्सव की परंपरा - इतिहास के झरोखे से

सर्वत्र देवी दुर्गा 'शक्ति" का प्रतीक है। बंगाली मनुष्य के लिए तो दुर्गा मानो उनकी मॉं ही है। 'आमार मा" कहकर वे देवी दुर्गा के चरणों पर अपना मस्तक बडी श्रद्धा के साथ रखते समय भावविव्हल हो जाते हैं। स्वतंत्रता की लडाई के समय क्रांतिकारियों को इसी मॉं में भारत का दर्शन होता था। बंगालियों के भावविश्व में दुर्गा पूजा को जो अनन्य महत्व प्राप्त है उसकी पूर्वपीठिका के संबंध में अधिकतर लोग अपरिचित हैं उसीका यह थोडासा सिंहावलोकन है।


दुर्गापूजाोत्सव की परंपरा बडी मनोरंजक व कुछ अनपेक्षित भी है। बंगाली साहित्य में पहला उल्लेख पंद्रहवी शताब्दी के कृतिवास  के रामायण का संभवतः है। रावण को मारने के सभी प्रयत्न निष्फल होने पर राम ने यह आराधना की। देवी को जगाने के लिए राम ने 'अकालबोधन" (असमय जगाना) किया। यह संज्ञा आज भी प्रचलित है। इसका काल अश्विन शुद्ध षष्ठी से दशमी तक का कहा जाता है। दुर्गा के वर के पश्चात ही राम ने रावण को मारा। बंगाल में होनेवाली पूजा राम द्वारा की गई पूजा के समान ही होती है। कोलकाता में कुछ स्थानों पर यह पूजा और भी पंद्रह दिनों तक चलती है और उसका उद्यापन दीवाली की अमावस्या को होता है।
लगभग 200 वर्षों तक पूजा घर-घर में अपने सामर्थ्यानुसार की जाती रही और वह भी मूर्ती की न होकर घट या श्रीशालिग्राम शिला की। उत्सव का आडबंर अचूक किस समय आरंभ हुआ यह कहना जरा कठिन ही है। फिर भी नवद्वीप के राजा कृष्णचंद्र राय (1710-82) के काल में पहला ज्ञात महोत्सव संपन्न हुआ। 1757 में प्लासी की विजय के पश्चात कृष्णचंद्र ने लॉर्ड क्लाइव्ह को सूचित किया कि धूमधडाके से दुर्गा पूजा की जाए। उस जमाने में एक म्लेच्छ के हाथों पूजा होना असंभव ही था इसलिए राजा ने क्लाइव्ह की ओर से पूजा की। उस समय कुल खर्च 16 हजार आया था। ईस्ट इंडिया कंपनी की ओर से 12 हजार दिए गए थे। क्लाइव्ह ने पूरा समारंभ हाथी पर बैठकर देखा था। बहुत बडे भोज का आयोजन हुआ श्रीलंका और ब्रह्मदेश (म्यंमार) से नर्तकियां बुलवाई गई थी। संपन्नता का यह प्रदर्शन आगे भी बरसों तक जारी रहा।

सन्‌ 1956 में कर व्यवस्था पक्की हो गई इसीमें से जमीनदारों-मालगुजारों का एक नया संपन्न वर्ग अस्तित्व में आया। बाडिशा के सावर्ण राय चौधरी ने मात्र 1300 रुपये में पेशगी देकर लिए हुए तीन गांव बढ़ते-बढ़ते कोलकाता महानगर में तब्दील हो गए। कंपनी का कुसुम सौरभ चारों ओर महकने लगा। पारसी, अफगानी, हब्शी, रुसी आदि भी आने लगे। कोलकाता ने पैसे के पेड का रुप धारण कर लिया। सारा पांडित्य और हुनर यहां एकत्रित होने लगा। विलायत में यह कहावत प्रचलन में आ गई - 'गोइंग टू कोलकाता टू शेक द पगोडा ट्री"। अर्थात्‌ जिसमें दम है वह यहां आए और पैसा बनाए। इन सारे नवधनाढ्‌य लोगों ने दुर्गापूजा बडे पैमाने पर मनाना आरंभ कर दिया।

19 वी शताब्दी के प्रारंभ में कोलकाता की पूजा के वर्णन विस्तारपूर्वक अंग्रेजी समाचार पत्र छापने लगे और विलायत के समाचार पत्र भी उसी रौं में बहकर कुछ अद्‌भुत पढ़ने के लिए मिलेगा इसलिए छापने लगे। 1819 के 'कोलकाता जर्नल" के अंक में यह छपा था कि निकी नाम की गोरांगी जो कि उस जमाने की सबसे महंगी नर्तकी थी का नाच होगा। राजा रामचंद्र के घर की इस पूजा उत्सव की तुलना अरेबियन नाइट्‌स के शाही वातावरण से की गई थी। 1829 में लॉर्ड बैंटिक पत्नी सहित एक उत्सव में पधारे थे। उनका स्वागत 'गॉड सेव द किंग" के गान से किया गया था। (इसी वर्ष बैंटिक ने सती प्रथा बंद की थी) जमीनदार अपनी पूजा की ओर लोग आकर्षित हों इसलिए विज्ञापन दिया करते थे। जिसमें यह बतलाया जाता था कि फलां-फलां नर्तकी का नाच रखा गया है। पंचमी की सुबह से उत्सव शुरु होकर चारों ओर  हलचल मच जाती थी। हलवाइयों और फूल बेचनेवालों की परेशानी बढ़ जाती थी। जमीनदारों में स्पर्धा मच जाती थी। भोजन के लिए लगनेवाले केले के पत्ते बेचनेवाले, हमाल, भोइयों के भाव बढ़ जाते। ढ़ोल-ताशे बजानेवाले चौराहों पर ढ़ोल बजाते खडे हो जाते। उन्हें चार दिनों के लिए ठेके पर ले लिया जाता। रात-रात भर नाचना-गाना, भोज चलते। मैदानों में नाटक आदि चलते, खेल चलते, आतिशबाजी होती। दशमी को विसर्जन होता और बाद में स्नेह मिलन होता।

आगे चलकर नदिया, वर्धमान, नाटोर, शोभा बाजार के प्रसिद्ध उत्सवों की धूम कम होने लगी। 'ऊंची दुकान फीका पकवान"  वाली स्थिति जमीनदारों की हो जाने के कारण उत्सवों की बहार ढ़लान पर आ गई। जमीनदारों के आश्रितों और बेकार लोगों की भीड जिनको इस मौज-मजे की आदत पड गई थी उन्होंने चुप न बैठते सार्वजनिक आयोजन किए जाएं का हल निकाला। गुप्तीपाडा के बारह प्रतिष्ठों ने एकत्रित होकर चंदा कर यह पूजा प्रारंभ की इसलिए लोग इसे 'बारोवारी पूजा" कहने लगे। बारोवारी का यह उन्माद बहुत शीघ्र ही फैल गया। आज भी सार्वजनिक इस अर्थ से यह बारोवारी शब्द रुढ़ है।

मुहल्लावार केंद्र बन गए। चंदा वसूली चालू हो गई। नौबत यहां तक आ गई कि भद्र महिलाओं तक को रोककर इच्छित चंदा मांगा जाने लगा। चंदेबाजों की वाहियात बातों से बचने के लिए पैसे ना होने पर महिलाएं अपने गहने तक उन्हें सौंपने लगी। आपस में झगडे भी होने लगे। वैष्णवों और शाक्तों का बलि पर से झगडा होने लगा। विवाद हिंदुओ का और मध्यस्थता साहब बहादुर की। उसने फैसला दिया कि वैष्णव पहले पूजा करें फिर शाक्त करें। आज जिस प्रकार से ऊंची से ऊंची प्रतिमाओंें की और अवैध वसूली की होड मचती है वैसी उस जमाने में भी मचने लगी।

उस जमाने में किए जानेवाले पूजा उत्सवों का सबसे विकृत पहलू था - गोरे साहब बहादुर की चाटुकारिता। आज जिस प्रकार अपप्रवृत्तियों की आलोचना होती है वैसी उस जमाने में भी होती थी। गोरे साहब से पूजा करवाई जाती है की आलोचना समाचार पत्रों में भी छपती थी। आज ही के समान उस समय भी नाच-गाने के शोर-शराबे से पूजा की पवित्रता भंग होती है, कष्ट होता है की शिकायत बुजुर्ग लोग किया करते थे। कुछ ब्रिटिश भी इन उत्सवों के विरोध में थे। उनका मत था कि इस प्रकार की पागलपन भरी मूर्ति पूजा के समारोहों को प्रोत्साहन नहीं दिया जाना चाहिए, अंग्रेज अधिकारियों को इसमें शामिल नहीं होना चाहिए। वैसे आगे चलकर जब स्वतंत्रता की लडाई जोर पकडने लगी तो इन अंग्रेजों का महत्व कुछ कम होने लगा।

अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त कुछ घमंडी डेढ़ गुजरे धनिक हिंदू चापलूसी की हदें लांघ जाते थे। अंग्रेज अधिकारियों को जो चाहिए वह परोसा जाता था। ऊंचे दर्जे की शराब, मांसाहारी पदार्थ यहां तक कि गोमांस तक। कुछ चापलूस देवी को खीर के साथ कॉफी-सेंडविच का भोग लगाते थे। उस समय प्रथा यह थी कि देवी की प्रतिमा के पीछे शिव पुराण के चित्र रंगे जाते थे। परंतु, ये चापलूस रानी व्हिक्टोरिया, परियों आदि के चित्र रंगते थे। यदि साहब ने बिछायत पर पेशाब कर दी तो कहा जाता 'हुक्के का गुलाब पानी ढुल गया होगा"।
परंतु, जिस प्रकार से कीचड में कमल खिलता है वैसे ही इन विकृतियों में से ही कुछ अच्छे का जन्म हुआ। इन दुरावस्थाओं की धज्जियां बंकिमचंद्र चटोपाध्याय ने उडाना आरंभ की। उन्होंने 'आमार दुर्गोत्सव" निबंध में दशप्रहरण धारिणी दुर्गा पुनः जनमानस में प्रतिष्ठित की। 'वंदे मातरम्‌" का महान मंत्र दिया। महान मनीषियों विवेकानंद, भगिनी निवेदिता, बिपीनचंद्रपाल, श्री अरविंद आदि ने देवी दुर्गा का तेजस्वी रुप देशबंधुओं के सामने रखकर जनता की आंखे खोल दी। सारा हीनत्व समाप्त हो गया। सारी धमाचौकडी का रुप बदलकर दुष्टों का निर्दालन करनेवाली देवी दुर्गा का तेजस्वी रुप स्थापित हुआ।

Wednesday, August 26, 2015

18 अगस्त पतेती - पारसी नूतनवर्ष
पारसीयों का भारत से संबंध 

ईरान या पर्शिया के निवासी पारसी और उनका साम्राज्य जोराष्ट्रियन और उनके पैगंबर का नाम जरतुष्ट्र। 651 में अरबों ने पर्शियन साम्राज्य को परास्त कर दिया। अरबों द्वारा अपने राज में ईरानियों का जबरदस्ती धर्मांतरण किया गया तब कुछ ईरानी निर्वासित होकर गुजरात में आए। आज के पारसी उन्हीं ईरानी निर्वासितों के वंशज हैं पर भारत में आए हुए ये पहले ईरानी नहीं। ईरान के सासानी घराने के कार्यकाल (ई. स. 226 से 651) में भी भारत और ईरान में व्यापारिक और सांस्कृतिक संबंध थे। इसके अलावा महाभारत, पुराणों, कालीदास के रघुवंश इन ग्रंथों में भी पारसिकों (पार्स. पारसा, सिका-शक) का उल्लेख आता है।  कालीदास ने लिखा है अपरांत (कोंकण, पश्चिमी समुद्रतट) जीतने के बाद रघु पारसिकों को जीतने निकला था। कुषाण साम्राज्य की पराजय के बाद यानी 4थी और 7वीं शताब्दी में इन गोरे पारसिक योद्धाओं ने सासानी घराने के सार्वभौमत्वतले राजस्थान से काश्मीर के दरम्यान एक साम्राज्य स्थापित किया था। गिरनार, कार्ला और नाशिक में मिले शिलालेखों में (पार्थव, पार्थियन) उल्लेख मिलता है। ई. पू. 126 पार्थियन सम्राट मिनिएंदर (ई. पू. 155-130) सौराष्ट्र पर राज्य किया था तो, पल्लव राजा बाद में कांजीपुरम के सम्राट बने थे। उन्होंने दक्षिण के तीन बडे राज घरानों में से एक की स्थापना की थी।

ईरान से निकला दूसरा गुट मागी पुरोहितों का जो सिस्तान (सकद्वीप) से निकले थे। दक्षिण मारवाड के माघ या भोजक ब्राह्मणों में वे घुल मिल गए। इन्हीं माघी या भोजक ब्राह्मणों ने हिंदुओं में सूर्योपासना आरंभ की। मुस्लिम इतिहासकार भी गवाही देते हैं कि, प्राचीन मध्य युग में भारत में ईरानी जोराष्ट्रीयन थे।

पारसियों के आरंभिक (भारत में बसने के) इतिहास के बारे में एकमात्र लिखित साक्ष्य है 'किस्सा-इ-संजान"। ''पारसी जब संजान के राजा जादी राणा के पास संजान में रहने की अनुमति लेने गए तब उसने पांच शर्तें डाली- 'राजा को जोराष्ट्रियन धर्म समझाकर बतलाएं, पारसी मातृभाषा के रुप में गुजराती को स्वीकारें, पारसी स्त्रियां साडी पहनें, पारसी अपने पास के सारे हथियार सरकार के पास जमा करें और अपने विवाह की बारातें रात के अंधेरे में निकालें। यह अंतिम शर्त, बहुधा निर्वासितों ने स्वयं द्वारा की हुई विनती पर डाली गई थी। इस परायी जमात की ओर अन्य जमातों का ध्यान आकृष्ट न हो यह इसके पीछे का उद्देश्य होना चाहिए। इस किस्से के अलावा गुजराती गर्बों, समूह गीतों, नृत्यों, आदि में ईरानी निर्वासित और राजा जाधव राणा की भेंट के बारे में विस्तृत विवरण मिलता है। इस प्रकार पारसी समुदाय दूध में घुली हुई शक्कर की भांति यहां रहने लगा।

सन्‌ 1200 में "नेरीओसांग धवल' नामके एक पारसी पुरोहित ने संपूर्ण 'अवेस्ता" (पारसियों का धर्मग्रंथ) का संस्कृत में रुपांतर किया। तत्कालीन हिंदू विद्वानों के सुविधा के लिए उसने यह उपक्रम किया होना चाहिए। नेरीओसांग द्वारा किया हुआ भाषांतर आज भी उपलब्ध है। पारसियों ने गुजराती भाषा के अध्ययन को भी बढ़ावा दिया। गुजराती भाषा में प्रकाशित पहला वृत्तपत्र था 'द बॉम्बे समाचार" (1822) फर्दुनजी मर्जबान उसके पहले संपादक थे। 

पारसियों ने भारत को तीन प्राचीन कारीगिरी-नक्काशी की देन दी है। वे हैं सुरतीघाट, गारो और तनचोई। गारो और तनचोई मूलतः चीनी हुनर है। तीन पारसी भाई अनेक वर्षों तक चीन में रहे और वहां यह कला उन्होंने सीखी फिर सूरत में आकर यहां बुनाई का व्यवसाय आरंभ किया। स्थानीय लोग उन्हें तनचोई कहने लगे। तन यानी तीन और चोई यानी चीनी। उनका मूलनाम था जोशी।  उनकी ख्याती देशभर में फैली हुई थी। जब यह प्रसिद्धि गांधीजी के कानों पर गई तो वे पैदल ही उनसे मिलने पहुंचे। वहां जोशी के कार्य को देख वे बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने कहा कि 'जब भारत स्वतंत्र होगा तब भारत सरकार 'तनचोई कसीदा केंद्र" देशभर में शुरु करने की जिम्मेदारी आप पर सौंपेगी।" गांधीजी ने अपने वचन का पालन किया।    
भारत के अर्वाचीन इतिहासकाल में पारसियों ने भारत के निर्माण में बहुत सक्रिय भाग लिया है। इस देश की स्वतंत्रता की लडाई में महर्षि दादाभाई नौरोजी (1825 से 1917) के नेतृत्व को भारतीय नेताओं ने माना था। इनके अलावा अन्य दो पारसी जिनका राष्ट्रीय आंदोलन से संबंध था वे थे सिर फिरोजशाह मेहता (1845 से 1915) और सर दिनशा वाच्छा (1844 से 1936)।  राष्ट्रीय आंदोलन में स्वयं का ऐसा खास स्थान निर्मित करनेवाली पहली पारसी महिला थी भिकाजी कामा। लाला हरदयाल, विनायक दामोदर सावरकर, आदि जैसे राष्ट्रवादीयों का उन्हें समर्थन प्राप्त था। 18 अगस्त 1907 को जर्मनों के सामने उनकी मातृभाषा में दिए भाषण में एक ध्वज फहराया था जिसमें थोडा फेरफार कर आज का राष्ट्रध्वज बना। उन्होंने देवनागरी लिपि का भी प्रसार किया। उनका प्रतिपादन था हिंदी ही भारत की सर्वमान्य भाषा रहेगी। 

भारत के औद्योगिक क्षेत्र का नेतृत्व जमशेदजी टाटा ने किया और उन्हीं के कदमों पर चलकर भारतीय उद्योगीयों ने भारत की कारखानेदारी को आज का यह विशाल रुप दिया है। रॉयल सोसायटी की फेलोशिप का सम्मान सबसे पहले एक पारसी अर्देसी कर्सेजटी वाडिया को मिला था। वे सबसे पहले मुंबई में गैस के दीए लाए थे। दिनशॉ पेरिट, कावसी जहांगीर, गोदरेज आदि अन्य प्रसिद्ध नाम हैं। बैंक क्षेत्र के प्रवर्तक भी पारसी ही थे। शापुरजी पालनजी मिस्त्री आधुनिक मुंबई के शिल्पकार हैं तो, एम. एन. दस्तुर की कंपनी अंतरराष्ट्रीय कन्सल्टिंग इंजीनिअर्स के रुप में काम करनेवाली पहली भारतीय कंपनी है। भारत की पहली वास्तुशास्त्रज्ञ एक पारसी महिला है पेरीन जे. मिस्त्री। इतिहास बतलाता है कि टाटा ने हमेशा से ही स्त्रियों को प्रोत्साहन दिया।

पारसियों ने जिस प्रकार से भारत के व्यापार-उद्योग का विकास किया वैसे ही व्यवसाय के क्षेत्र में भी नाम कमाया। पारसियों ने दो प्रमुख शास्त्रज्ञ-वैज्ञानिक भी दिए अणु-ऊर्जा संशोधन के क्षेत्र में होमी जहांगीर भाभा और भूगर्भशास्त्र में दाराशॉ नोशेरवान वाडिया। चिकित्सा शास्त्र में भी पारसियों ने महत्वपूर्ण काम किया है और विज्ञान और चिकित्सा के क्षेत्र में पारसियों ने अंतरराष्ट्रीय ख्याती प्राप्त की। सर जमशेटजी जीजीभॉय ने 3 जनवरी 1843 को जे. जे. हॉस्पिटल की नींव डाली। उस समय मुंबई में सामान्य लोगों के लिए एक भी अस्पताल नहीं था। आंखों का पहला अस्पताल मुंबई भायखला में सर कावसजी जहांगीर ने खोला था। इन्होंने ही सूरत में पहला प्रसूतीगृह खोला था। लेडी साकरबाई ने 1874 में पहला पशु चिकित्सालय खोलने के साथ ही प्राणियों को क्रूरता से बचानेवाली संस्था द सोसायटी फॉर द प्रिव्हेन्शन ऑफ क्रुएल्टी टु द एनिमल्स स्थापित की थी।  

पारसियों के रीति-रिवाज हिंदुओं से मिलते-जुलते हैं - कमर में ऊन के पट्टे की कश्ती (जनेऊ) बांधते हैं। पंच महाभूतों की पूजा करते हैं। सूर्य की उपासना करते हैं। विवाहादि मुहूर्त के समय मंगलाष्टक का उच्चारण करते हैं उस समय वधू को चंदन का उबटन लगाते हैं। गोमूत्र, गोमय को पवित्र मानते हैं और प्रायश्चित के समय उनको उपयोग में लाते हैं। नवजोत (उपनयन संस्कार) (प्रत्येक पारसी के जीवन की सबसे महत्वपूर्ण घटना) संस्कार करते समय दरवाजे के बाहर रंगोली निकालते हैं। स्त्री-पुरुष के  कपाल पर कुंकुम तिलक लगाते हैं। विवाह के समय वर-वधू आमने-सामने बैठते हैं और पुरोहित उनके बीच अंतःपाट पकडकर रखते हैं। पुरोहित अग्नि को चंदन और धूप की आहुती देते हैं। अवेस्ता के कुछ सुंदर उपदेश और आशीर्वाद का प्रारंभ होता है। सारी विधि में संस्कृत कही जाती है। विवाह में अक्षताओं का प्रयोग करते हैं। केले के पत्ते पर भोजन करते हैं।
अपने धर्म के आचरण की स्वतंत्रता और खुशहाली मिले इस हेतु पारसी भारत में आए। जो उन्हें मिली भी इसीलिए उनके पैगंबर जरतुष्ट्र (जरतुष्ट्र एक खिताब है- इसका अर्थ सुवर्ण प्रकाश) की सीख हम जाने यह आवश्यक लगता है। लेकिन विस्तारभयावश वह दे नहीं रहा हूं फिर भी अत्यंत संक्षिप्त सार यह है- संसार में एक ही ईश्वर है और वह है आहुरमाजदा। (मानवी इतिहास में ऐसा कहनेवाला बहुधा वह पहला ही पैगंबर होना चाहिए) आहुरमाजदा को वह जीवन और ज्ञान, तेज और सत्य, सद्‌गुण और न्याय, प्रेम और दया का देवता मानता है। उसकी सीख का मूलभूत तत्त्व है - रुचि-अरुचि की स्वतंत्रता। सुख और दुख मानव के अच्छे या बुरे कृत्यों के फल हैं। ईशभीरुओं को शुभ फल मिलता है तो, दुष्टों को दीर्घकाल पीडा होती है। जरतुष्ट्र की सीख का सार है अपने साथ के लोगों के साथ अच्छा व्यवहार करो। उसका ध्येय वाक्य है - अच्छे विचार, उत्तम शब्द और सत्कृत्य।  

Monday, August 17, 2015

18 अगस्त बाजीराव पेशवा (प्रथम) जयंति
विराट व्यक्तित्व का स्वामी - बाजीराव पेशवा प्रथम

पेशवा बाजीराव के नाम से सुविख्यात व्यक्ति का बरही के दिन रखा गया जन्म नक्षत्र से पडनेवाला नाम 'विश्वनाथ" (विसाजी) था, यह नाम इनके दादा का भी था। इन्हें 'विश्वासराव" भी कहा जाता रहा। बताया जाता है कि जिस समय बालाजी विश्वनाथ उनके द्वारा पूर्व में लिखी गई वह बखर (मराठी में लिखा गद्यमय इतिहास) पढ़ रहे थे, जिसमें 'बाजी" नाम के वीर पुरुषों की पूरी सूची ही थी, तो संयोग मात्र से उसी समय पर उन्हें जब पुत्र प्राप्ति का सुसमाचार मिला तो सहसा उन्होंने उसका नामकरण 'बाजीराव" कर दिया। वैसे 'बाजी" शब्द फारसी भाषा का है। इतिहास को अज्ञात किसी प्रसंग या प्रकरण से मराठी में 'बाजीराव" यह सम्मानजनक नामकरण बडे संपन्न, अकडैल, ठाट-बाट से रहनेवाले किसी व्यक्ति के लिए प्रयुक्त हुआ और फिर आगे यह इसी अर्थ में सगर्व प्रयोग में लाया जाने लगा। माता राधाबाई लाड-प्यार से अपने पुत्र बाजीराव को 'राऊ" (राव अर्थात्‌ बाजीराव नाम का संक्षिप्तिकरण)  नाम से पुकारती तो स्वयं बाजीराव की संतान और कनिष्ठ पीढ़ी के लोग उन्हें सम्मानजनक 'बाबासाहेब" नाम से संबोधित करते थे।

बाजीराव जन्मतः ही एक वर्धिष्णु प्रशासक के पुत्र रहे। जन्मना वे ब्राह्मण थे तथापि मूलरुप से वे क्षात्र-प्रवृत्ति रहे हों, अतः एक संपन्न प्रशासक के घर में प्राप्त शिक्षा-दीक्षा से उनके क्षात्र-भाव में विलक्षण निखार आया। पेशवा बाजीराव की अपने सनातन हिंदू-धर्म में नितांत श्रद्धा थी। परंतु, धर्म के प्रति वे सश्रद्ध थे, अंधश्रद्ध नहीं। उन्हें अपने ब्राह्मण होने में किसी संकोच के होने का कोई प्रश्न ही नहीं था। परंतु, उन्होंने अपनी इच्छा से क्षात्रकर्म का वरण किया था। अतः वे इसे ही अपना धर्म मानते थे। वे सतत्‌ राजनय एवं युद्धकर्म में व्यस्त रहते, इतने कि अपने पारिवारिक शुभ कर्मों-विवाह-यज्ञोपवीतादि में भी उपस्थित रह नहीं पाते। यहां तक कि शोक एवं सूतकादि के पालन का धार्मिक दायित्व उन्होंने अपने काका के परिवार राजमाचीकर-भट को सौंप रखा था।

बाजीराव के मन में अपनी माता के प्रति नितांत श्रद्धाभाव था। परिवार तथा संबंधियों पर उनकी एक आदरयुक्त धाक सी थी। इसीलिए सन्‌ 1729 तक तो सब सुखपूर्वक चलता रहा। परंतु, जब पेशवा बाजीराव बुंदेलखंड में अपना रणकौशल दिखाकर वापस लौटे तो साथ में महाराज छत्रसाल की पुत्री मस्तानी से विवाहबद्ध हो उसे द्वितीय पत्नी के रुप में अपने साथ ले आए थे। वैसे उस काल में, एक पत्नीव्रत के लिए भगवान श्रीराम की प्रशंसा तो होती ही थी, परंतु आचरण का आदर्श माना नहीं जाता था। संपन्न,  विद्वान, वीर और सामान्यतः सभी प्रकार के लोगों में एक से अधिक स्त्री को अपने घर-परिवार में विवाहित पत्नी, उपपत्नी या अविवाहित रुप में रखने का मानो रिवाज था। माता राधाबाई की कोई विवाहित सौत नहीं थी पर अविवाहित अवश्य थी। बाजीराव की पत्नी काशीबाई की सगी मॉं के साथ एक सौतेली मॉं भी थी। इस प्रकार पेशवा बाजीराव की दो पत्नियां होने की कोई समस्या किसी को नहीं थी। 

समस्या यदि थी तो दूसरी पत्नी मस्तानी के पिता महाराज छत्रसाल तो हिंदू थे, परंतु उनकी मॉं यावनी यानी मुसलमान थी। ऐसे में मजहबे इस्लाम के अनुसार उसकी मॉं इस्लामधर्मी मानी ही नहीं जा सकती थी। परंतु, हिंदू समाज की प्रचलित मान्यता के अनुसार वह इस्लामधर्मी थी और उसके गर्भ में पली पुत्री मस्तानी भी मुस्लिम हुई, जबकि उसके पिता महाराजा छत्रसाल हिंदू थे। स्पष्ट है कि सामाजिक मान्यता का कोई व्यवस्थित निश्चित आधार नहीं होता।

पेशवा की माताजी राधाबाई की दृष्टि में मस्तानी का यावनी यानी मुस्लिम होना ही आपत्ति का एकमेव और प्रबल कारण था। पुणे के सनातनी पंडित-पुरोहित ही नहीं तो तमाम उच्चवर्णीय भी इसी कारण से पेशवा बाजीराव के संदर्भ में सतत्‌ विवाद की स्थिति उत्पन्न करते रहे। निश्चय ही आश्चर्य कहना होगा कि बाजीराव की पत्नी काशीबाई इस विषय में अत्यंत उदारमना थी और मस्तानी को वह अपनी छोटी बहन मानती थी। परंतु उसके अतिरिक्त पेशवा परिवार एकजुट हो मस्तानी के विरुद्ध था। मॉं राधाबाई, अनुज चिमाजी अप्पा, पुत्र नाना मस्तानी को समस्या मान येनकेन प्रकारेण उससे मुक्ति के विचार और आचार में संलग्न रहते। दूसरी ओर पेशवा बाजीराव पूर्ण प्रामाणिकता एवं प्रेमभाव से मस्तानी को अपनी अर्धांगिनी मानते थे और बिछुडाव की कल्पना तक उनके लिए असहनीय थी। इस एक मुद्दे के कारण पेशवा का परिवार मानो कलह की आग में धधक रहा था। अन्य किसी भी कारण से विचलित नहीं होनेवाले पेशवा बाजीराव मस्तानी के साथ हो रहे अन्याय, उसका हो रहा अपमान, उसे बाजीराव के जीवन से हटाने के लिए रचे जा रहे षड्‌यंत्र, यहां तक कि अंतिम उपाय के स्वरुप ही क्यों ना हो मस्तानी के जीवन को ही संकट में डालने की चालों की भनक से बाजीराव विचलित होने लगे थे और शनैः-शनै उनकी मानस की विचलित अवस्था बढ़ती ही चली जा रही थी।

सामाजिक मान्यताओं का यह कितना विरोधाभास है कि एक ओर जोधाबाई और अन्य अनेक राजपूत राजकुल की हिंदू कन्याएं इस्लामी मुगल बादशाह अकबर के हरम में पत्नियां बनकर रहती हैं और मुगलशाही खानदान को बढ़ाती हैं। दूसरी ओर एक मस्तानी को ब्याह कर लाने से पुणे के सनातनी समाज में मानो भूचाल आ जाता है और पेशवा परिवार में कलह मच जाती है। ऐसी विपरीत सामाजिक मान्यताओं से उत्पन्न होनेवाली भयंकर स्थितियों को काल की महिमा के अतिरिक्त क्या कहा जा सकता है। भावना के आवेग में आज हम मॉं राधाबाई, अनुज चिमाजी अप्पा, पुत्र नाना को दोषी बता सकते हैं पर, जब हम तत्कालीन समाज में उन्हें खडा करें तो वे ठीक उस समाज जैसे प्रतीत होते हैं। अपवाद थे तो पेशवा बाजीराव और उनकी पत्नी काशीबाई जिनका आचरण व्यवहार तत्कालीन समाज के अनुसार नहीं तो उससे सैंकडों वर्ष आगे का था। एक ओर उनकी यह विलक्षण असाधारणता थी तो दूसरी ओर दकियानूसी परंपरावाला समाज। ऐसे में विवाद, कलह नहीं तो और क्या होता! इसी को विद्वत भाषा में 'माया" कहा जाता है! पेशवा बाजीराव के जीवन के संदर्भ में इस माया के प्रभाव को स्वीकारते हुए भी एक विलक्षण, अद्‌भुत तथ्य को अस्वीकार किया ही नहीं जा सकता कि इस गृहकलह रुपी अग्नि की आँच किसी भी सदस्य के माध्यम से उनके राजनैतिक दायित्व को नहीं लग पाई और वह सर्वथा अबाधित रहा। मॉं राधाबाई जैसी अनुभवी एवं निश्चयी महिला से राजकाज में हस्तक्षेप नहीं किया, नवयुवक पुत्र नाना ने भी कोई दुःसाहस नहीं किया। 

Sunday, August 16, 2015

सावन विशेष
शिव महिमा एवं वृहत्तर भारत की एकता के प्रतीक हैं द्वादश ज्योतिर्लिंग
पूरे विश्व में लिंग पूजा अत्यंत प्राचीन है। इस संबंध में वैदिक साहित्य में अनेकों प्रमाण मिलते हैं। चीन और जापान में भी लिंग पूजन के साक्ष्य मिलते हैं। अजरबैजान में भी एक पुराना शिव मंदिर है। इस मंदिर का निर्माण कब हुआ यह ठीक ठाक ढ़ंग से कहना संभव नहीं है। इजिप्त, यूनान, रोम आदि देशों में भी शिवलिंग पूजन होता रहा है। पश्चिम के कई देशों की कई जातियों में किसी ना किसी रुप में लिंग पूजा होती रही है। अमेरिका के प्राचीन निवासी भी लिंग पूजा किया करते थे। कंबोडिया और थाईलैंड की सीमा पर एक शिव मंदिर स्थित है। 

वृहत्तर भारत में द्वादश ज्योतिर्लिंग का अपना एक विशेष स्थान है। द्वादश ज्योतिर्लिंग का विवरण शिव पुराण में दिया हुआ है। इस विवरण के अनुसार द्वादश ज्योतिर्लिंग इस प्रकार हैं - सौराष्ट्र गुजरात में सोमनाथ, श्रीशैल पर्वत (आंध्रप्रदेश) पर मल्लिकार्जुन, उज्जैन (म.प्र.) महाकाल, नर्मदा के तट पर ओंकारेश्वर, हिमालय पर्वत पर केदारेश्वर, सह्याद्रि पर्वत पर डाकिनी नामक स्थान पर भीमशंकर, वाराणसी (उ.प्र.) में विश्वनाथ, गोदावरी (महाराष्ट्र) के तट पर त्र्यम्बकेश्वर, बिहार में वैद्यनाथ, दारुक वन (आंध्रप्रदेश) में नागेश्वर, सेतुबंध पर रामेश्वर, शिवायल में घुमेश्वर। भारत में पूर्व से पश्चिम, उत्तर से दक्षिण में ये द्वादश ज्योतिर्लिंग अपना विशिष्ट इतिहास संजोए हुए हैं। 

सोमनाथ - शिव का पहला अवतार सोमनाथ के रुप में हुआ। इस मंदिर और ज्योतिर्लिंग की महत्ता पौराणिक एवं ऐतिहासिक दोनो ही है। चंद्रमा ने इसकी स्थापना की थी। महमूद गजनवी ने पहली बार इस मंदिर को लूटा। इस मंदिर को अनेक बार लूटा गया और यह अनेक बार फिर से स्थापित हुआ। सन्‌ 1413 में अंतिम बार मुस्लिम शासक सुलतान अहमद शाह ने इसे तोडा था। अंततोगत्वा सरदार पटेल के सत्प्रयास से इस मंदिर की पुनर्निमिति हुई।

मल्लिकार्जुन-मल्लिका अर्थ पार्वती है और अर्जुन शिव का वाचक है इस प्रकार से यहां शिव-पार्वती दोनो स्थापित हैं। पुत्र प्राप्ति के लिए इस लिंगपूजन को विशेष मान्यता है। पुराणों के कथनानुसार शैल पर्वत के दर्शन मात्र से मानव पुनर्जन्म से मुक्त हो जाता है।

महाकालेश्वर - इस ज्योतिर्लिंग के संबंध में अनेक कथाएं हैं। महाकालेश्वर सज्जनों का आश्रयदाता एवं दुष्टों का विनाशक है। महाकाल की गरिमा बढ़ाने में क्षिप्रा नदी सहायक है। हर 12वें वर्ष यहां सिंहस्थ का आयोजन होता है।

ओंकारेश्वर - प्राकृतिक एवं भव्य दृश्यों के मध्य मांधाता पर्वत पर ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग का भव्य मंदिर है। यह शिला रुप में  है। राजा मांधाता के नाम पर ही यह पर्वत प्रसिद्ध हुआ। पौराणिक कथा के अनुसार विंध्य पर्वत ने मानव रुप धारण कर शिवलिंगार्चन किया। उसी शिवलिंग के दो भाग हो गए एक को, ओंकारेश्वर तो दूसरे को ममलेश्वर (इच्छा पूर्ण करनेवाला ईश्वर कहा गया) 

केदारनाथ - केदारेश्वर ज्योतिर्लिंग की स्थापना नर नारायण नामक देवों ने की। ऐसे तो नर नारायण अर्जुन और श्रीकृष्ण ही माने जाते हैं। इस मंदिर के निर्माण में भी छैनी हथौडी का प्रयोग नहीं हुआ है। यह केदार शिखर पर मंदाकिनी के तट पर स्थित है।

भीमशंकर - इस ज्योतिर्लिंग के संबंध में विद्वानों में कुछ मतभेद हैं। सामान्यतः तो यही माना जाता है कि मुंबई से पूर्व और पुणे के उत्तर में भीमा नदी के उद्‌गम स्थान सह्याद्रि पर्वत के डाकिनी नामक स्थान पर यह स्थित है। एक अन्य कथा के अनुसार यह असम के कामरुप जिले के ब्रह्मपुत्र पहाडी पर स्थित शिवलिंग है।

विश्वेश्वर - शिव का सांतवा ज्योतिर्लिंग काशी विश्वेश्वर या विश्वनाथ है। पौराणिंक मान्यता के अनुसार यहां शिव सदा विद्यमान रहते हैं। इस ज्योतिर्लिंग की स्थापना-संस्थापक आदि का इतिहास नहीं मिलता। हां, आद्यशंकराचार्य ने इस विश्वेश्वर लिंग की स्थापना की थी। चीनी यात्री ह्वेनसांग ने 100 फुट ऊंची मानवाकार विश्ववेश्वर की मूर्ती का उल्लेख किया है। सबसे पहले कुतुबुद्दीन ऐबक ने इसे तोडा था। उसीने सारनाथ के चक्र को भी तोडा था। 1494 में सिकंदर लोधी ने इसे तोडा। 1669 में औरंगजेब ने तोडा और इसे विश्वनाथ मस्जिद का रुप दे दिया। 1790 में देवी अहिल्या ने इसी मस्जिद के पास नया विश्वनाथ मंदिर बनवाया।

त्र्यम्बकेश्वर - कहा जाता है कि गौतम ऋषि और दक्षिण की गंगा गोदावरी की प्रार्थना पर शिवजी यहां ज्योतिर्लिंग के रुप में प्रकट हुए थे। मंदिर के भीतर तीन शिवलिंग हैं वे क्रमशः ब्रह्मा, विष्णु और शिव के प्रतीक हैं। इसी कारण त्र्यम्बकेश्वर नाम पडा।

वैद्यनाथेश्वर - शिवभक्त राक्षस राज रावण ने कैलाश पर्वत पर घोर तपस्या की और अपने ही हाथों से अपना सिर काटकर चढ़ाने लगा, नवां सिर चढ़ाने के पश्चात जब वह दसवां सिर चढ़ाने को उद्यत हुआ तो भगवान शंकर प्रकट हो गए। शिवशंकर को प्रसन्न जान रावण ने कैलाश पर स्थापित शिवलिंग को लंका में स्थापित करने का विचार किया। शिवजी ने कहा तुम इसे बीच में कहीं ना रखना। भगवान शंकर की आज्ञा ले रावण चल पडा परंतु, मार्ग में लघुशंका के लिए रुकने के कारण यह ज्योतिर्लिंग इसी स्थान पर स्थापित हो गया और वैद्यनाथ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। 

नागेश्वर - सुप्रिय नामक एक वैश्य शिवजी का अनन्य भक्त था। उस भक्त को दारुक नामके एक राक्षस ने पकड लिया और कारागार में बंद कर दिया। सुप्रिय कारागार में भी शिवभक्ति कर रहा है यह अवगत होेने पर राक्षस उसकी हत्या करने पहुंचा। शिवजी  अपने भक्त की रक्षा के लिए कारागार में प्रकट हुए और वहीं उस दारुक दैत्य को मार डाला। नागेश्वर ज्योतिर्लिंग सभी कामनाओं को पूर्ण करनेवाला माना जाता है। यह ज्योतिर्लिंग पूर्णा-हिंगोली लाइन पर चौडी स्टेशन से 12 मील दूर औढ़ा नामक गांव में है। 

सेतुबंध रामेश्वरम्‌ - तमिलनाडु के रामनाथम या रामनद जिले में स्थित है। रामचरित मानस के आधार पर समुद्र पर पुल बांधने  के पूर्व ही रामेश्वरम्‌ की स्थापना श्रीरामचंद्रजी ने की थी। रामकथा के अनुसार श्रीराम ने शिवजी से सदैव वहां रहने का आग्रह किया था तद्‌नुसार शिवजी वहां रामेश्वर ज्योतिर्लिंग के रुप में स्थापित हुए। दाक्षिणात्य कथा के अनुसार लंका पर विजय प्राप्त करने के पश्चात अयोध्या वापसी के समय रामेश्वर शिवलिंग की स्थापना की। इस ज्योतिर्लिंग को गंगा स्नान करवाना विशेष पुण्य का माना जाता है। रामेश्वरम शिवलिंग के बगल में ही हनुमदीश्वर शिवलिंग स्थापित है। हनुमानजी द्वारा कैलाश पर्वत से शिवलिंग लाने में देर हो जाने के कारण दूसरे मुहुर्त पर इस लिंग की स्थापना की गई थी।

घूमेश्वर - शिव पुराण की कथा के अनुसार प्राचीन युग में देवगिरी नामक पर्वत के निकट सुधर्मा नाम का एक ब्राह्मण रहता था। उसकी पत्नी घुश्मा अत्यंत शिवभक्त थी। वह नित्य एक सौ एक पार्थिव शिवलिंगों की पूजा करती और उन्हें निकट के सरोवर में विसर्जित कर देती। एक दिन शिवजी ने प्रसन्न होकर उसे दर्शन दिए और घुश्मा के आग्रह पर जनहितार्थ वहीं ज्योतिर्लिंग के रुप में  रहे। इस शिवलिंग को घुसणेश्वर या घृष्णेश्वर शिवलिंग भी कहा जाता है। यह ज्योतिर्लिंग दक्षिण के हैदराबाद के अंतर्गत दौलताबाद स्टेशन से बारह कि.मी. दूर स्थित है।