Monday, August 17, 2015

18 अगस्त बाजीराव पेशवा (प्रथम) जयंति
विराट व्यक्तित्व का स्वामी - बाजीराव पेशवा प्रथम

पेशवा बाजीराव के नाम से सुविख्यात व्यक्ति का बरही के दिन रखा गया जन्म नक्षत्र से पडनेवाला नाम 'विश्वनाथ" (विसाजी) था, यह नाम इनके दादा का भी था। इन्हें 'विश्वासराव" भी कहा जाता रहा। बताया जाता है कि जिस समय बालाजी विश्वनाथ उनके द्वारा पूर्व में लिखी गई वह बखर (मराठी में लिखा गद्यमय इतिहास) पढ़ रहे थे, जिसमें 'बाजी" नाम के वीर पुरुषों की पूरी सूची ही थी, तो संयोग मात्र से उसी समय पर उन्हें जब पुत्र प्राप्ति का सुसमाचार मिला तो सहसा उन्होंने उसका नामकरण 'बाजीराव" कर दिया। वैसे 'बाजी" शब्द फारसी भाषा का है। इतिहास को अज्ञात किसी प्रसंग या प्रकरण से मराठी में 'बाजीराव" यह सम्मानजनक नामकरण बडे संपन्न, अकडैल, ठाट-बाट से रहनेवाले किसी व्यक्ति के लिए प्रयुक्त हुआ और फिर आगे यह इसी अर्थ में सगर्व प्रयोग में लाया जाने लगा। माता राधाबाई लाड-प्यार से अपने पुत्र बाजीराव को 'राऊ" (राव अर्थात्‌ बाजीराव नाम का संक्षिप्तिकरण)  नाम से पुकारती तो स्वयं बाजीराव की संतान और कनिष्ठ पीढ़ी के लोग उन्हें सम्मानजनक 'बाबासाहेब" नाम से संबोधित करते थे।

बाजीराव जन्मतः ही एक वर्धिष्णु प्रशासक के पुत्र रहे। जन्मना वे ब्राह्मण थे तथापि मूलरुप से वे क्षात्र-प्रवृत्ति रहे हों, अतः एक संपन्न प्रशासक के घर में प्राप्त शिक्षा-दीक्षा से उनके क्षात्र-भाव में विलक्षण निखार आया। पेशवा बाजीराव की अपने सनातन हिंदू-धर्म में नितांत श्रद्धा थी। परंतु, धर्म के प्रति वे सश्रद्ध थे, अंधश्रद्ध नहीं। उन्हें अपने ब्राह्मण होने में किसी संकोच के होने का कोई प्रश्न ही नहीं था। परंतु, उन्होंने अपनी इच्छा से क्षात्रकर्म का वरण किया था। अतः वे इसे ही अपना धर्म मानते थे। वे सतत्‌ राजनय एवं युद्धकर्म में व्यस्त रहते, इतने कि अपने पारिवारिक शुभ कर्मों-विवाह-यज्ञोपवीतादि में भी उपस्थित रह नहीं पाते। यहां तक कि शोक एवं सूतकादि के पालन का धार्मिक दायित्व उन्होंने अपने काका के परिवार राजमाचीकर-भट को सौंप रखा था।

बाजीराव के मन में अपनी माता के प्रति नितांत श्रद्धाभाव था। परिवार तथा संबंधियों पर उनकी एक आदरयुक्त धाक सी थी। इसीलिए सन्‌ 1729 तक तो सब सुखपूर्वक चलता रहा। परंतु, जब पेशवा बाजीराव बुंदेलखंड में अपना रणकौशल दिखाकर वापस लौटे तो साथ में महाराज छत्रसाल की पुत्री मस्तानी से विवाहबद्ध हो उसे द्वितीय पत्नी के रुप में अपने साथ ले आए थे। वैसे उस काल में, एक पत्नीव्रत के लिए भगवान श्रीराम की प्रशंसा तो होती ही थी, परंतु आचरण का आदर्श माना नहीं जाता था। संपन्न,  विद्वान, वीर और सामान्यतः सभी प्रकार के लोगों में एक से अधिक स्त्री को अपने घर-परिवार में विवाहित पत्नी, उपपत्नी या अविवाहित रुप में रखने का मानो रिवाज था। माता राधाबाई की कोई विवाहित सौत नहीं थी पर अविवाहित अवश्य थी। बाजीराव की पत्नी काशीबाई की सगी मॉं के साथ एक सौतेली मॉं भी थी। इस प्रकार पेशवा बाजीराव की दो पत्नियां होने की कोई समस्या किसी को नहीं थी। 

समस्या यदि थी तो दूसरी पत्नी मस्तानी के पिता महाराज छत्रसाल तो हिंदू थे, परंतु उनकी मॉं यावनी यानी मुसलमान थी। ऐसे में मजहबे इस्लाम के अनुसार उसकी मॉं इस्लामधर्मी मानी ही नहीं जा सकती थी। परंतु, हिंदू समाज की प्रचलित मान्यता के अनुसार वह इस्लामधर्मी थी और उसके गर्भ में पली पुत्री मस्तानी भी मुस्लिम हुई, जबकि उसके पिता महाराजा छत्रसाल हिंदू थे। स्पष्ट है कि सामाजिक मान्यता का कोई व्यवस्थित निश्चित आधार नहीं होता।

पेशवा की माताजी राधाबाई की दृष्टि में मस्तानी का यावनी यानी मुस्लिम होना ही आपत्ति का एकमेव और प्रबल कारण था। पुणे के सनातनी पंडित-पुरोहित ही नहीं तो तमाम उच्चवर्णीय भी इसी कारण से पेशवा बाजीराव के संदर्भ में सतत्‌ विवाद की स्थिति उत्पन्न करते रहे। निश्चय ही आश्चर्य कहना होगा कि बाजीराव की पत्नी काशीबाई इस विषय में अत्यंत उदारमना थी और मस्तानी को वह अपनी छोटी बहन मानती थी। परंतु उसके अतिरिक्त पेशवा परिवार एकजुट हो मस्तानी के विरुद्ध था। मॉं राधाबाई, अनुज चिमाजी अप्पा, पुत्र नाना मस्तानी को समस्या मान येनकेन प्रकारेण उससे मुक्ति के विचार और आचार में संलग्न रहते। दूसरी ओर पेशवा बाजीराव पूर्ण प्रामाणिकता एवं प्रेमभाव से मस्तानी को अपनी अर्धांगिनी मानते थे और बिछुडाव की कल्पना तक उनके लिए असहनीय थी। इस एक मुद्दे के कारण पेशवा का परिवार मानो कलह की आग में धधक रहा था। अन्य किसी भी कारण से विचलित नहीं होनेवाले पेशवा बाजीराव मस्तानी के साथ हो रहे अन्याय, उसका हो रहा अपमान, उसे बाजीराव के जीवन से हटाने के लिए रचे जा रहे षड्‌यंत्र, यहां तक कि अंतिम उपाय के स्वरुप ही क्यों ना हो मस्तानी के जीवन को ही संकट में डालने की चालों की भनक से बाजीराव विचलित होने लगे थे और शनैः-शनै उनकी मानस की विचलित अवस्था बढ़ती ही चली जा रही थी।

सामाजिक मान्यताओं का यह कितना विरोधाभास है कि एक ओर जोधाबाई और अन्य अनेक राजपूत राजकुल की हिंदू कन्याएं इस्लामी मुगल बादशाह अकबर के हरम में पत्नियां बनकर रहती हैं और मुगलशाही खानदान को बढ़ाती हैं। दूसरी ओर एक मस्तानी को ब्याह कर लाने से पुणे के सनातनी समाज में मानो भूचाल आ जाता है और पेशवा परिवार में कलह मच जाती है। ऐसी विपरीत सामाजिक मान्यताओं से उत्पन्न होनेवाली भयंकर स्थितियों को काल की महिमा के अतिरिक्त क्या कहा जा सकता है। भावना के आवेग में आज हम मॉं राधाबाई, अनुज चिमाजी अप्पा, पुत्र नाना को दोषी बता सकते हैं पर, जब हम तत्कालीन समाज में उन्हें खडा करें तो वे ठीक उस समाज जैसे प्रतीत होते हैं। अपवाद थे तो पेशवा बाजीराव और उनकी पत्नी काशीबाई जिनका आचरण व्यवहार तत्कालीन समाज के अनुसार नहीं तो उससे सैंकडों वर्ष आगे का था। एक ओर उनकी यह विलक्षण असाधारणता थी तो दूसरी ओर दकियानूसी परंपरावाला समाज। ऐसे में विवाद, कलह नहीं तो और क्या होता! इसी को विद्वत भाषा में 'माया" कहा जाता है! पेशवा बाजीराव के जीवन के संदर्भ में इस माया के प्रभाव को स्वीकारते हुए भी एक विलक्षण, अद्‌भुत तथ्य को अस्वीकार किया ही नहीं जा सकता कि इस गृहकलह रुपी अग्नि की आँच किसी भी सदस्य के माध्यम से उनके राजनैतिक दायित्व को नहीं लग पाई और वह सर्वथा अबाधित रहा। मॉं राधाबाई जैसी अनुभवी एवं निश्चयी महिला से राजकाज में हस्तक्षेप नहीं किया, नवयुवक पुत्र नाना ने भी कोई दुःसाहस नहीं किया। 

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