Sunday, October 27, 2013

स्वदेशी का अंगीकार करें - बहिष्कार करें चीनी सामान का


20 जुलाई 1905 को ब्रिटिश शासन ने बंग-भंग की घोषणा की और उनके इस आव्हान को भरपूर साहस से स्वीकारते हुए लो. तिलक ने साम्राज्यवादी शक्तियों का मुंहतोड उत्तर देने के लिए विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार और स्वदेशी वस्तुओं का स्वीकार ये दो सूत्र प्रमुख रुप से दिए। वस्तुतः 'स्वदेशी" और 'बहिष्कार" एक ही सिक्के के दो पहलू हैं और इसीलिए 7 अगस्त 1905 से विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार और स्वदेशी वस्तुओं का स्वीकार आंदोलन तीव्रता से प्रारंभ हुआ। अरविंद घोष, रविंद्रनाथ ठाकुर, लालालाजपत राय इस आंदोलन के मुख्य उद्‌घोषकों में से थे। आगे चलकर गांधीजी ने इस स्वदेशी आंदोलन को स्वतंत्रता आंदोलन का केंद्रबिंदु बनाया। इस आंदोलन के प्रभाव के कारण ही लो. तिलक ने 'हिंद केसरी" की शुरुआत कर हिंदी के प्रचार-प्रसार का अभियान चलाया। पं. मदनमोहन मालवीयजी ने काशी हिंदूविश्वविद्यालय की स्थापना के पश्चात हिंदी एक विषय के रुप में सम्मिलित करके 'अभ्युदय", 'मर्यादा", 'हिंदुस्थान" आदि पत्रों का प्रारंभ एवं सम्पादन कर हिंदी का प्रचार प्रसार शुरु किया।



लो. तिलक के आवाहन पर देश में स्वदेशी और बहिष्कार का आंदोलन चलानेवालों में क्रांतिकारी सावरकर बंधुओं का विशेष स्थान रहा है। 1 अक्टूबर 1905 को पुणे की एक सभा में वीर सावरकर ने छात्रों के सम्मुख विदेशी वस्त्रों की होली जलाने का एक आश्चर्यमयी प्रस्ताव रखा। इस प्रस्ताव की स्वीकृति हेतु जब सावरकर तिलक से मिले तो उन्होंने एक शर्त लगा दी कि, दस-बीस वस्त्र जलाने से काम नहीं चलेगा यदि विदेशी वस्त्रों की होली जलानी ही है तो ढ़ेरों कपडे जलाने होंगे। इस शर्त के अनुसार ही सावरकर ने 7 अक्टूबर 1905 को दस बीस नहीं तो ढ़ेरों विदेशी वस्त्रों से लदी एक गाडी की होली जलाई। सावरकर की यह परिकल्पना इतनी अनूठी थी कि पूरे 16 वर्षों के अनंतर क्यों ना हो गांधीजी ने 9 अक्टूबर 1921 को मुंबई में इसी प्रकार विदेशी वस्त्रों की होली जलाई।



गांधीजी में स्वदेशी ललक इतनी जगी हुई थी कि दक्षिण अफ्रीका से प्रकाशित अपनी पत्रिका 'इंडियन ओपीनियन" (गुजराती संस्करण 28 दिसंबर 1907) में गांधीजी ने पाठकों से 'पैसिव रेजिस्टेंट", 'सिविल डिसओबिडिएन्स" और ऐसे ही कतिपय शब्दों के लिए समानार्थक गुजराती शब्द सुझाने का कहते हुए इसके लिए पुरस्कार भी रखा था। गांधीजी के इस आवाहन के प्रत्युत्तर में उन्हें 'प्रत्युपाय, कष्टाधीन प्रतिवर्तन, कष्टाधीन वर्तन, दृढ़प्रतिपक्ष, सत्यनादर, सदाग्रह आदि शब्द जब प्राप्त हुए तो तब उन्होंने उन सब शब्दों के अर्थों का अलग-अलग विश्लेषण करने के तत्पश्चात सदाग्रह शब्द का चयन किया और उसे बदलकर 'सत्याग्रह" कर दिया। इस विषय में तब गांधीजी ने लिखा था ''सिविल डिसओबिडिएन्स" तो असत्य का अनादर है और जब वह अनादर सत्य रीति से हो तो "सिविल" कहा जाएगा। उसमें भी 'पेसिव" का अर्थ समाया हुआ है। इसलिए फिलहाल तो एक ही शब्द का प्रयोग किया जा सकता है और वह है - 'सत्याग्रह"। गांधीजी ने आगे यह भी लिखा था कि ः जल्दी-जल्दी करके चाहे जो शब्द दे डालने से अपनी भाषा का अपमान होता है और अपना अनादर होता है। इसलिए ऐसा करना, और वह भी 'पेसिव रेजिस्टेंस" जैसे शब्द अर्थ देने के सिलसिले में, एक तरह से 'सत्याग्रही" के संघर्ष का ही खंडन हुआ।



सावरकर ने तो 1893 में 10 वर्ष की आयु में ही 'स्वदेशी" का उपयोग करो का विचार प्रस्तुत करनेवाली कविता लिखी थी। यह निर्विवाद है कि लोकमान्य तिलक का बहुत प्रभाव सावरकर पर था और कदाचित्‌ तिलक के ही कहीं किसी भाषण में सावरकर ने वह सुना हो इससे इंकार नहीं किया जा सकता। लोकमान्य तिलक ने तो 1998 में ही पुणे में स्वदेशी वस्तुओं के विक्रय के लिए एक दुकान प्रारंभ की थी। इनके भी पूर्व बंगाल के भोलाचंद्र ने 1874 में शंभुचंद्र मुखोपाध्याय द्वारा प्रवर्तित 'मुखर्जीज मेगजीन" में स्वदेशी का नारा दिया था। 1870 में 'वंदेमातरम्‌" का महामंत्र देनेवाले बंकिमचंद्र चटोपाध्याय ने 1872 में 'बंगदर्शन" में स्वदेशी का नारा दिया था। वंदेमातरम्‌ के उद्‌घोष ने इसी आंदोलन के दौरान महामंत्र का रुप धर प्रत्येक भारतीय को आंदोलित कर दिया।

उपर्युक्त उदाहरण इसलिए दिए हुए हैं कि स्वदेशी का विचार कितना पुराना है यह पाठक जान सकें। आपको आश्चर्य होगा कि  यह विचार सबसे पहले महाराष्ट्र के निष्ठावान सामाजिक कार्यकर्ता गणेश वासुदेव जोशी (9-4-1828 से 25-7-1880) जिनके द्वारा किए गए सार्वजनिक कार्यों के कारण उनको 'सार्वजनिक काका" ही कहा जाने लगा था, ने दिया था। समाजसुधारक न्यायमूर्ति रानडे के साथ मंत्रणा कर सार्वजनिक काका ने 1872 में स्वदेशी आंदोलन का श्रीगणेश किया था। उन्होंने 'देशी व्यापारोत्तेजक मंडल" की स्थापना कर स्याही, साबुन, मोमबत्ती, छाते आदि स्वदेशी वस्तुओं का उत्पादन करने को प्रोत्साहन दिया था। इसके लिए स्वयं आर्थिक हानि भी सही थी। इस स्वदेशी माल की बिक्री के लिए सहकारिता के सिद्धांत पर आधारित पुणे, सातारा, नागपूर, मुंबई, सुरत आदि स्थानों पर दुकाने प्रारंभ करने के लिए प्रोत्साहित किया था। स्वदेशी वस्तुओं की प्रदर्शनियां भी आयोजित की। उन्हींके प्रयत्नों से आगरा में कॉटन मिल शुरु की गई थी। यही कार्य सावरकर ने 1924 से 1937 तक रत्नागिरी में नजरबंदी की अवस्था में बहुत बडे पैमाने पर किया था।


12-1-1872 को उन्होंने खादी उपयोग में लाने की शपथ ली थी और उसे आजीवन निभाया। खादी का उपयोग कर उसका प्रचार-प्रसार करनेवाले वे पहले द्रष्टा देशभक्त थे। इतना ही नहीं तो खादी का पोशाक कर 1872 में दिल्ली दरबार में भी सार्वजनिक सभा की ओर से गए थे। (जिसकी स्थापना उन्होंने उस काल में पुणे के 95 प्रतिष्ठित लोगों को लेकर कानूनी पद्धति से राजनीतिक कार्य किए जा सकें। जनता की शिकायतें सरकार के सामने प्रस्तुत की जा सके, उसे सार्वजनिक किया जा सके इसके लिए 1970 में की थी। इस प्रकार इस सार्वजनिक सभा को राजनीति का आद्यपीठ या कांग्रेस की जननी भी कहा जा सकता है।)



यह इतिहास कथन इसलिए कि इससे प्रेरणा ले आज फिर से इस स्वदेशी के विचार को अपनाने, इसके प्रचार-प्रसार, आंदोलन की आवश्यकता तीव्रता से महसूस की जा रही है। विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार, स्वदेशी वस्तुओं का प्रयोग कांग्रेस या किसी विशिष्ट विचार के लोगों का नहीं तो समूचे राष्ट्र का संकल्प था और होना चाहिए। आज वैश्वीकरण के इस दौर में मुक्त द्वार की नीतियों का लाभ उठा चीन अपने सस्ते उत्पादों से पूरे भारत के बाजारों को पाटता चला जा रहा है। हमारे उद्योग-धंधे चौपट हुए जा रहे हैं। चीन का इतिहास विश्वासघात का रहा है वह न केवल हमारी भूमि को दबाए बैठा है, सीमाओं पर समस्याएं खडी कर रहा है वरन्‌ अपने सस्ते सामान का हमारे बाजारों में ढ़ेर लगाकर हमें अन्यान्य तरीकों से हानि भी पहुंचा रहा है, हमारे सामने नई-नई समस्याओं को खडी करने के साथ ही साथ चुनौती भी दे रहा है।



आज बाजार में जिस ओर नजर घूमाइए उस ओर चीनी सामान दिख पडेगा। घरेलू सामान,बच्चों के खिलौने, इलेक्ट्रॉनिक्स सामान, मोबाईल से लेकर हमारे देवी-देवताओं की मूर्तियां तक आखिर क्या नहीं है। यह सारा चीनी सामान हमारे घरेलू उद्योगों द्वारा निर्मित उत्पादों से सस्ता है। बाजार के लिए उत्पादन से सस्ता आायत पड रहा है लेकिन इससे हमारे लघु, मध्यम, कुटिर उद्योग चौपट हुए जा रहे हैं। लाखों लोग बेरोजगारी की गर्त में जा रहे हैं। इस पर चिंतन आवश्यक है। यह एक कुटिल चाल है। आज सस्ता लगनेवाला माल कल बहुत महंगा पडेगा। अंग्रेजों ने भी इसी तरह सस्ता माल उपलब्ध करवा पहले व्यापार फिर देश की दुर्दशा की। आर्थिक गुलामी का अगला पडाव राजनैतिक गुलामी ही है।



सस्ते चीनी सामान के हम आदि होते जा रहे हैं। चीनी उद्योगों ने हमारे उद्योगों को निगलना प्रारंभ कर दिया है इसका ज्वलंत उदाहरण है लुधियाना का साइकल उद्योग। जो पुर्जे पहले देश में बनते थे वे अब चीन से मंगाए जा रहे हैं। हमारे ही पैसों से चीनी मालामाल हो रहे हैं तो हम कंगाल। विश्वासघाती और दादागिरी करनेवाला चीन हमारा हितचिंतक कभी भी नहीं हो सकता। सस्ता मिल रहा है इसलिए चीनी माल खरीदकर हम चीन को दृढ़ कर स्वयं के साथ छल कर रहे हैं। आज कंपनियां, उद्योग गुहार लगा रहे हैं लेकिन कोई सुन नहीं रहा। यह वही चीन है जिसके माओत्सेतुंग ने अनेक बार कहा था - तिब्बत चीन की हथेली है तो नेफा, भूटान, नेपाल, लद्दाख, सिक्किम इसकी उंगलियां हैं। जिन्हें हम हासिल करके ही रहेंगे।

चीन के साथ हमारा निर्यात कम और आयात अधिक है। परिणामतः हमारा धन उनके पास चला जाता है जो हमारे ही खिलाफ उपयोग में लाया जाता है। सर्वेक्षणों के अनुसार बिजली के सीएफएल का प्रमुख कच्चा माल फास्फोरस के लिए हम चीन पर निर्भर हैं। अभी हाल ही में चीन ने फास्फोरस की कीमतें बढ़ाकर हमारी चूलें हिला दीं। दवा उद्योग बल्क ड्रग के लिए पूरी तरह चीन पर निर्भर है। दूरसंचार क्षेत्र का 50% आयात पर निर्भर है उसके 62% पर चीन का अधिकार है। बिजली परियोजनाओं के 1/3 बॉयलर, टरबाईन चीन से आए हुए हैं। देशभर में चल रही विभिन्न परियोजनाओं में चीन कम दरों में ठेके लेकर धीरे-धीरे अपनी गतिविधियां बढ़ा रहा है जो आगे जाकर घातक सिद्ध होंगी। उसकी घटिया मशीनरी, पुरानी पडती जा रही टेक्नालॉजी सस्ते के चक्कर में हम अपनाते जा रहे हैं जो कल को निश्चय ही दुखदायी साबित होगा। चीन हमसे कच्चे माल के रुप में लोह अयस्क, रबर यहां तक कि कपास तक आयात कर रहा है और बाद में निर्मित वस्तुओं के रुप में हमें ही निर्यात के रुप में लौटा रहा है। क्या ईस्ट इंडिया कंपनी के इतिहास को दोहराया नहीं जा रहा है।

हमें एक बार फिर से स्वदेशी का अंगीकार और विदेशी (यानी चीनी) का बहिष्कार के सूत्र को अपनाना होगा। हमें चीनी माल का बहिष्कार कर अपने राष्ट्रधर्म का पालन करना चाहिए। भारतीय उत्पादों की विश्वसनीयता भारत ही नहीं तो पूरे विश्व में चीन की अपेक्षा अधिक है। हमारी प्राथमिकता 'सस्ता" नहीं वरन्‌ 'सुरक्षा, सम्मान, स्वाभिमान" की होना चाहिए।

आज भी प्रासंगिक होने के कारण इस लेख का समापन मैं बंकिमचंद्र चटोपाध्याय व भोलाचंद्र के इन कथनों के साथ करता हूं - ''जो विज्ञान स्वदेशी होने पर हमारा दास होता, वह विदेशी होने के कारण हमारा प्रभु बन बैठा है, हम लोग दिन ब दिन साधनहीन होते जा रहे हैं। अतिथिशाला में रहनेवाले अतिथि की तरह हम लोग प्रभु के आश्रम में पडे हैं, यह भारतभूमि भारतीयों के लिए एक विराट अतिथिशाला बन गई है।"" ''आइए हम सब लोग यह संकल्प करें कि विदेशी वस्तु नहीं खरीदेंगे। हमें हर समय यह स्मरण रखना चाहिए कि भारत की उन्नति भारतीयों द्वारा ही सम्भव है।""

Saturday, October 19, 2013

पहली मुस्लिम नारीवादी महिला - रुकय्या सखावत हुसैन


'सुल्तानाज ड्रीम्स" एक काल्पनिक विज्ञानकथा है रुकय्या सखावत हुसैन की। जो एक विलक्षण स्वप्नकथा के रुप में है। जिसमें रुकय्या ने कल्पना की जो उडान भरी है वह किसी को भी आश्चर्यचकित कर सकती है। इस कथा को पढ़ने पर ऐसा लगता है मानो रुकय्या पूरे पुरुषसमाज से बदला सा ले रही है। इस कथा को पढ़ने के पूर्व यह रुकय्या कौन थी यह जान लें।



19वी शताब्दी के जिस काल में महाराष्ट्र में ज्योतिबा फुले शिक्षा की अलख जगा रहे थे, बंगाल में ब्राम्हो समाज का जन्म हो चूका था, उत्तर भारत में आर्यसमाज का आंदोलन परवान चढ़ रहा था। अंग्रेजी शिक्षा का प्रारंभ हुए अधिक समय नहीं बीता था। शिक्षा उच्च वर्ग तक ही सीमित थी। महिला शिक्षा और वह भी मुस्लिम महिलाओं के संबंध में तो और भी दुर्लभ थी। ऐसे काल में 1880 में रुकय्या का जन्म तत्कालीन ब्रिटिश इंडिया और वर्तमान बांग्लादेश के रंगपुर में एक उच्च कुलीन जमीनदार परिवार में हुआ। रुकय्या के पिता सनातनी रुढ़िप्रिय थे, जिनकी दृष्टि में लडकियों की शिक्षा यानी कुरानपठन तक ही सीमित थी। भाषा के मामले में अरबी, फारसी, उर्दू और अंगे्रजी में व्यवहार एवं बांग्ला भाषा विरोध। क्योंकि उनकी दृष्टि में बांग्ला गुलामों और गैर मुस्लिमों की भाषा इसलिए तुच्छ। परंतु इस रुकय्या ने अपने भाई इब्राहीम से बांग्ला पढ़ना लिखना सीखा और वह भी दिल से। उसका विवाह 16 वर्ष की अवस्था में 30 वर्षीय विधुर खानबहादुर सय्यद सखावत हुसैन से  1896 में हुआ। जो अंगे्रजी भाषा में उच्चविद्याविभूषित होकर बिहार में जिला मजिस्ट्रेट थे। उन्होंने भी उसे बांग्ला व अंग्रेजी सीखने व लिखने के लिए प्रोत्साहित किया। उसने कई लघुकथाएं व उपन्यास लिखे। उनकी ही प्रेरणा से रुकय्या ने कोलकाता में मुस्लिम लडकियों के लिए एक स्कूल की स्थापना की जो अब शासन द्वारा संचालित किया जा रहा है। उसकी मृत्यु 1932 में हुई।



रुकय्या स्त्री पुरुष समानता एवं मुस्लिम स्त्रियों की शिक्षा के लिए किए गए कार्यो के लिए जानी जाती हैं। बांग्लादेश में 9 दिसंबर रुकय्या दिवस के रुप में मनाया जाता है। 1926 में उसने बांग्ला महिला शिक्षा सम्मेलन में कहा था ः 'महिला शिक्षा विरोधी कहते हैं महिलाएं उच्छृंखल हो जाएंगी .... यद्यपि वे स्वयं को मुस्लिम कहते हैं उसके बावजूद वे इस्लाम की मूल शिक्षाओं के विरुद्ध जाते हैं जो स्त्रियों को समानता और शिक्षा का अधिकार देती है। यदि शिक्षित होने के बाद पुरुष राह से नहीं भटकते तो, स्त्रियां ही क्यों?



रुकय्या ने 'सुल्तानाज ड्रीम" नामकी स्वप्नकथा लिखी जिसमें नारीवाद की कल्पना थी। यह स्वप्नकथा सन्‌ 1905 में मद्रास से प्रकाशित होनेवाले 'इंडियन लेडीज जनरल" में प्रकाशित हुई। रुकय्या कल्पना करती है कि आधी रात को उसे एक सपना आता है जिसमें एक स्त्री उसके पास आती है जिसे वह अपनी बहन सारा समझती है। जो उसे चारदीवारी से निकालकर एक दूसरे देश ले जाती है जहां का कामकाज बिल्कुल ही भिन्न है। इस देश की स्त्रियां परदा नहीं करती। यहां चारों ओर स्त्रियां ही स्त्रिया हैं। पुरुष कहीं नजर नहीं आते। पूछने पर पता चलता है कि इस देश में पुरुष घर में बंदिश यानी मर्दानखाने में रहते हैं। घर का सारा कामकाज खाना बनाना, बच्चे संभालना आदि पुरुष ही करते हैं। वे पराई स्त्रियों के सामने आ नहीं सकते। उनकी दुनिया घर की चारदीवारी तक ही सीमित रहती है।



जिन्हें पुरुषों का कार्यक्षेत्र माना जाता है ऐसे सभी कार्य स्त्रियां ही संपन्न करती हैं। कहीं कोई अपराध, अत्याचार, शोषण, हिंसा नहीं क्योंकि ये सारे कार्य पुरुष करते हैं वे घर की बंदिश में हैं। चकित रुकय्या पूछती है हम स्त्रियों को तो प्रकृति ने ही कमजोर बनाया है ऐसी अवस्था में स्त्रियों को इतनी स्वतंत्रता कितनी योग्य है? क्या यहां की स्त्रियों को सुरक्षा की आवश्यकता महसूस नहीं होती? इस पर उसे उत्तर मिलता है जब पुरुष घर में हैं तो स्त्रियों को भय किस बात का? पागल और हिंसक लोगों को जिस प्रकार से पागलखाने में बंद रखा जाता है उसी प्रकार से इन पुरुषों को घर में बंद करके रखना आवश्यक है। रुकय्या कहती है हमारे देश में यह संभव नहीं। इस पर उसे उत्तर मिलता है तुम्हारे देश में पुरुष स्त्रियों के साथ दुर्व्यवहार करता है, कर सकता है परंतु उसे खुला छोड स्त्रियों को ही घर में कैद कर रखा जाता है।



यहां रुकय्या द्वारा यह कहने पर की हम भारतीय स्त्रियां क्या करें? पुरुष तो बहुत शक्तिशाली होता है। इस पर वह स्त्री उसे अद्वितीय उत्तर देती है ः शेर मनुष्य से शक्तिशाली होता है क्या इसलिए वह मनुष्य पर वर्चस्व स्थापित करने का, उसे गुलाम बनाने का प्रयत्न करता है ? तुम भारतीय स्त्रियों को यह मालूम ही नहीं है कि स्वयं का कल्याण किसमें है, ऐसी अवस्था में मैं भला क्या कर सकती हूं? तुमने स्वयं होकर अपने प्राकृतिक अधिकार खोए हैं।



इस विलक्षण स्वप्नकथा में सौर उर्जा की कल्पना का भी रोमांचित कर देनेवाला वर्णन है, स्वतंत्र महिला विश्वविद्यालय की कल्पना भी की गई है। वर्षा पर पूर्ण नियंत्रण का वर्णन है। लडकियों को निशुल्क शिक्षा मिलती है। कानूनन 21 वर्ष की आयु से कम की लडकी का विवाह हो नहीं सकता। धर्म के संबंध में भी इस देश की जो संकल्पना है वह यदि साकार हो जाए तो वास्तव में सारे झगडे ही मिट जाएं यहां का धर्म है 'प्रेम और सत्य"। यहां प्रत्येक का धार्मिक कर्तव्य है कि परस्पर प्रेम का व्यवहार करें और सच बोलें। यहां तक कि इस देश का कामकाज एक महिला ही देखती है और सभी शोधकार्य स्त्रियों द्वारा ही किए जाते हैं।



इस प्रकार की एक से बढ़कर एक विचित्र कल्पनाओं से यह स्वप्न कथा भरी हुई है जो स्त्री स्वतंत्रता, उस पर होनेवाले अन्याय, अत्याचार, उसे घर में कैद रखने, शिक्षा से वंचित रखने आदि की पुरुष मानसिकता के प्रति आक्रोश सा प्रकट करती महसूस होती है। इस कथा के माध्यम से रुकय्या का आत्मविश्वास, उसकी बुद्धिमानी, प्रतिभा के हमें दर्शन होते हैं। यह कथा इसलिए भी महत्वपूर्ण नजर आती है क्योंकि जिन कल्पनाओं को आज हम कुछ अंशों में साकार होते देख रहे हैं वे कल्पनाएं रुकय्या ने आज से 100 से अधिक वर्ष पूर्व ही कर ली थी। एक बात और एक उच्चकुलीन महिला होते हुए भी उसकी कल्पना की उडान आम महिलाओं की भावनाओं से जुडी नजर आती हैं। एक रुढ़िग्रस्त धर्मांध मुस्लिम समाज के स्त्रीविषयक दृष्टिकोण के विरुद्ध खडी हो स्त्री मुक्ति का उद्‌घोष करनेवाली वे पहली नारीवादी पुरोगामी लेखिका हैं। उसकी इस स्वप्नकथा का जब बांग्ला अनुवाद प्रकाशित हुआ तब भी कट्टरपंथी लोग उसे कोई विशेष कष्ट ना दे सके क्योंकि उसका पति ब्रिटिशों का एक बडा अधिकारी मजिस्ट्रेट, मायका भी सक्षम व शासन अंग्रेजों का था। परंतु, फिर भी उसकी इस स्वप्नकथा को धर्मविरोधी, राष्ट्रद्रोही जरुर घोषित किया गया।



 रुकय्या के पूर्व महाराष्ट्र की ताराबाई शिंदे जो एक जमीनदार परिवार की होकर उसे हिंदी, अंग्रेजी, मराठी और संस्कृत भाषा का भी ज्ञान था। उस जमाने में घोडे पर बैठकर अपने खेतों पर जाती थी। उसने भी स्त्री-पुरुष संबंधों पर एक लेख 'स्त्री पुरुष तुलना" पुरुष वर्चस्व के विरुद्ध सन्‌ 1882 में लिखा था परंतु उसे वह चर्चा व प्रसिद्धि ना मिल सकी जो रुकय्या को मिली। एक विशेषता और सन्‌ 1950-60 तक यूरोप, अमेरिका तक में नारीवाद की संकल्पना रुढ़ ना हो सकी थी उससे पूर्व ही ताराबाई शिंदे और रुकय्या जैसी महिलाओं ने स्त्री मुक्तिवादी भूमिका ली थी। आज की नारीवादी महिलाओं के लिए ये महिलाएं निश्चय ही आदर्श सिद्ध हो सकती हैं। क्योंकि नारी समान अधिकारवाद की संकल्पना किसी भी विशिष्ट देश या धर्म के लिए अवतरित हुई ना होकर यह आत्मविश्वास संपन्न स्वतंत्रता की चाह रखनेवाली संवेदनशील स्त्री का एक सुंदर स्वप्न है।

Sunday, October 13, 2013

पहले शौचालय फिर देवालय - मोदी


देर आइद दुरुस्त आइद



आज से कुछ माह पूर्व केंद्रिय मंत्री श्रीजयराम रमेश ने कथन किया था कि देश में मंदिरों से अधिक आवश्यकता शौचालयों की है तो देशभर में अच्छा-खासा विवाद खडा हो गया था और विशेषकर हिंदुत्वादियों ने उन्हें अपने निशाने पर ले लिया था। लेकिन अब श्रीमोदी ने 'पहले शौचालय फिर देवालय" का नारा देकर इस बात की पुष्टि कर दी है कि श्रीजयराम रमेश का दृष्टिकोण ही उचित है, समयानुकूल है।



पूरे देश में लाखों मंदिर-मंदिरी बने हुए हैं। कई सुंदर मंदिर वीरान, जीर्ण-शीर्ण अवस्था में उपेक्षित पडे हुए हैं। उनकी ओर देखनेवाला तक कोई नहीं है। फिर भी नए-नए मंदिरों का निर्माण बेरोकटोक बदस्तूर जारी है। इन मंदिरों के नाम पर धंधेबाजी जमकर चल रही है। भगवान के नाम पर बने ओटलों, चबूतरों के अतिरिक्त किसी बडे भारी पत्थर को गेरु या सिंदूर से पोतकर और वह भी अक्सर सरकारी जमीनों पर तरह-तरह के देवता स्थापित किए जा रहे हैं। यहां तक कि पहले से ही किसी गांव-नगर में अत्याधिक कम शौचालयों की उपलब्धता के बावजूद जो हैं उन शौचालयों के पास नालियों आदि पर कब्जा जमा मूर्तियां स्थापित कर, तस्वीरें टांग सुनियोजित ढ़ंग से शौचलयों को ही गायब कर दिया जाता है और यह हरकतें विशेष रुप से महिला शौचालयों के साथ ही अधिकतर घटित होती हैं। जबकि सार्वजनिक स्वच्छतागृहों की आवश्यकता सबसे अधिक महिलाओं को ही होती है।



इन धंधेबाजों के मंदिर कई स्थानों पर तो बीच सडक मुंह निकाले खडे हैं तो कहीं बीच चौराहों पर ही मंदिर निर्मित कर लिए गए हैं। यह प्रवृति इतनी अधिक बढ़ती जा रही है कि अतिक्रमणकर्ता यह जानकारी होने के बावजूद फलां मार्ग का चौडीकरण प्रस्तावित है अपनी स्वार्थ सिद्धि व वर्चस्व जमाने, दिखाने के लिए तुरंत बडी भारी मूर्तियां स्थापित कर प्रसाद वितरण भी शुरु कर देते हैं। यहीं स्मरण करा दें कि मंदिरों का उल्लेख प्रतीक रुप में किया गया है। जो हाल मंदिरों का है वही हाल अन्य धर्मियों के धर्मस्थलों का भी है। हालात यह हैं कि आगामी कई वर्षों तक यदि धर्मस्थलों के निर्माण को ही रोक दिया जाए तो भी उनकी उपलब्धता में कमी नहीं होगी। निश्चय ही यह असंभव सा ही है लेकिन धंधेबाजों की धंधेबाजी पर तो रोक लगाई ही जा सकती है।



शौचालयों की उपलब्धता, उनकी दुर्दशा, उनकी आवश्यकता वह भी विशेषकर महिलाओं के संबंध में का बयान इसके पूर्व के तीन लेखों में जो 'साप्ताहिक स्पूतनिक" में ही प्रकाशित हुए हैं में मैं कर चूका हूं। अतः शौचालयों की आवश्यकता का प्रतिपादन का कोई औचित्य नजर नहीं आता। फिर भी प्रसंगवशात्‌ गुजरात के संबंध में उल्लेख कर देना उचित होगा कि सन्‌ 2011 के आंकडों के अनुसार शौचालयवाले घरों का प्रतिशत 57.4, सार्वजनिक शौचालय 2.3 और खुले में शौच जानेवाले 40.3 प्रतिशत हैं। इस संबंध में कांग्रेस-वामपंथियों द्वारा शासित रहा केरल अवश्य ही सौभाग्यशाली है जहां का प्रतिशत क्रमशः 95.1, 1.1 एवं 3.8 है।



सन्‌ 2005-6 के आंकडों के अनुसार टॉयलेट सुविधा गुजरात में 43.5 प्रतिशत के पास थी तो केरल में 96.7। यदि बिहार के आंकडे देखें तो सन्‌ 2005-6 में टॉयलेट सुविधा मात्र 17 प्रतिशत थी जो बढ़कर 2011 में 23.1 हो गई। यदि गुजरात से तुलना की जाए तो बिहार इस दौड में निश्चय ही पीछे है। सरकारी स्कूलों में स्थिति सन्‌ 2009-10 के आंकडों के अनुसार गुजरात में लडकियों के लिए पृथक शौचालयों का प्रतिशत 54.6, कॉमन 38.9। बिहार क्रमशः 37.7 व 48.3। पंजाब 98.5 व  92.9 प्रतिशत है।



मोदी द्वारा 'पहले शौचालय फिर देवालय" का नारा देना इसलिए भी महत्वपूर्ण नजर आता है क्योंकि, यह नारा एक हिंदुत्ववादी नेता ने दिया है जिसकी छबि कई लोगों के मन में कारपोरेट के आदमी की है। आज की तारीख में अधिकांश कारपोरेट उनकी तारीफ के कसीदे बांच चूके हैं। परंतु, शौचालयों का महत्व जतलाकर मोदी ने यह संदेश दिया हुआ सा लगता है कि उन्हें 'सोशल इंडिकेटर्स" की भी परवाह है। वे भी सोशल जस्टिस, सोशल रिफॉर्म को महत्व देते हैं। उन्हें आम जनता को शौचालयों की कमी तथा उससे उपजनेवाली समस्याओं का भान है। शायद उनके ध्यान में  यह बात भी आ गई लगता है कि पिछले 20 वर्षों में हम सोशल रिफॉर्म के मामले में बहुत पिछडे गए हैं भले ही प्रति व्यक्ति आय बढ़ी हो।



इसी भाषण में मोदी ने जो एक एनजीओ 'सिटीजन्स फॉर अकांउटेबल गवर्नेस" द्वारा आयोजित युवा छात्रों के सम्मेलन दिल्ली में ता. 2 अक्टूबर 2013 को सवाल-जवाब में दिया था कि पर्यटन उद्योग को बढ़ावा देने एवं इससे रोजगार का उल्लेख भी किया है। परंतु, इसके लिए भी सबसे पहली आवश्यकता स्वच्छता की है। जिसके मामले में निश्चय ही हम कुख्यात हैं। स्वच्छता बरतने के लिए अन्य कई आदतों को बदलने के साथ-साथ स्वच्छतागृहों की बहुतायत आवश्यक है।



मोदी जो अपने दृढ़निश्चय व काम करके दिखानेवाला के रुप में प्रसिद्ध हैं यदि उन्होंने वास्तव में ठान लिया कि 'पहले शौचालय फिर देवालय" तो वह दिन दूर नहीं जब गुजरात खुले में शौच करनेवालों से मुक्त प्रदेश होगा। यदि ऐसा होता है तो निश्चय ही यह एक बहुत बडी क्रांति होगी। अब देखना यह है कि मोदी अपने इस नारे को कितना अमलीजामा पहनाते हैं।