Wednesday, April 29, 2015

ताजमहल, तेजोमहालय अर्थात्‌ त्रिनेत्रधारी भगवान शिवजी-तेजाजी का मंदिर है
ताजमहल एक बार फिर विवादों के घेरे में है। इस बार छः वकिलों के एक समूह ने एक याचिका दायर कर दावा किया है कि ताजमहल एक शिव मंदिर है, दलील यह दी गई है कि वहां भगवान अग्रेश्वर महादेव विराजमान हैं।  इन्होंने यह दावा किया है कि वहां कोई कब्र मौजूद नहीं। शारदापीठ जगद्‌गुरु शंकराचार्य स्वामी स्वरुपानंदजी महाराज ने भी एक बयान देकर कहा है कि ताजमहल के नीचे शिवमंदिर है और इसे भक्तों के लिए खोला जाना चाहिए जिससे कि वे वहां पूजा-अर्चा कर सकें। शंकराचार्य के मुताबिक इस मामले को सुलझाने के लिए उन्होंने कोर्ट में अर्जी भी दी है। इस संबंध में सबसे पहले एक साहसी उद्‌भट विद्वान पुरुषोतम नागेश ओक ने एक पुस्तक लिखकर दावा किया था कि 'ताजमहल मंदिर भवन" है, 'ताजमहल राजपूत प्रासाद" था। 

 यह विलक्षण शोध प्रतिभा का धनी जिसने अथक परिश्रम के बल पर मात्र भारत ही नहीं तो विश्व इतिहास को एक नवीन आयाम  दिया का जन्म इंदौर नगर में 1917 में हुआ था और शिक्षा होलकर कॉलेज इंदौर में। 1941 में आजाद हिंद फौज में शामिल होकर द्वितीय विश्वयुद्ध में अंग्रेज साम्राज्य के विरुद्ध सशस्त्र युद्ध किया था। जून 1942 से जून 1943 तक वे आजाद हिंद सेना के इंडोचायना रेडियो केंद्र के प्रसारण में स्वाधीनता प्रचारक रहे तो नेताजी सुभाषचंद्र बोस के सिंगापुर शिविर काल में जून 1943 से 15 अगस्त 1945 अर्थात्‌ युद्ध समाप्ति तक नेताजी के सान्निध्य में एक सैनिकी सहकारी अधिकारी के रुप में कार्यरत रहे। उसके बाद वे स्वतंत्रता प्राप्ति तक भूमिगत रहे। 

स्वाधीनता के पश्चात युद्ध के इतिहास और अनुभवों पर आधारित दो पुस्तकें 'हिंदुस्थान का द्वितीय स्वाधीनता युद्ध और नेताजी के साथ" प्रकाशित की और इन्हीं विषयों पर भाषण एवं जनजागरण करते फिरे। बाद में मुंबई विश्वविद्यालय से एम.ए. और विधि की उपाधियां प्राप्त कर अगस्त 1947 से लगभग साढ़े चार वर्ष तक दिल्ली में हिंदुस्थान टाईम्स तथा 1951 से 1953 तक स्टेट्‌समन में संवाददाता का कार्य करते रहे। 1953 से 1957 तक भारत सरकार के सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय में क्षेत्रीय अधिकारी रहे। तत्पश्चात अमरीकी दूतावास में सम्मानीय पद पर कार्य किया। लोकमान्य तिलक के केसरी में 1961 मेें तीन धारावाहिक लेख 'ऐतिहासिक इमारतींच्या बांधकामाचे जनक" (ऐतिहासिक इमारतों के निर्माण के जनक) शीर्षक से लिखकर खलबली मचा दी थी। अपने इतिहास शोध कार्य के विराट स्वरुप को व्यापक स्तर पर चलाने के लिए 14 जून 1964 को 'इन्स्टीट्यूट फॅार रीरायटिंग इंडियन हिस्ट्री" नामक संस्था को जन्म दिया।

पु. ना. ओक ने ताजमहल से संबंधित अपने शोध पत्र में एक सौ से अधिक प्रमाण प्रस्तुत किए हैं जो कि उनके इस मान्यता का समर्थन करते हैं कि ताजमहल मुस्लिम नहीं तो एक हिंदू निर्माण है। इन प्रमाणों में ही श्री ओक ने एक शिलालेख का आधार दिया है जो कि चंदेल राजा परमादिदेव का है न कि डॉ. त्रिवेदीजी के कथनानुसार जयपुर के राजा का। उक्त शिलालेख लखनऊ के अजायबघर में है। इस शिलालेख के आधार से ही ओक की यह दृढ़ मान्यता है कि 'ताजमहल, तेजोमहालय, अर्थात्‌ त्रिनेत्रधारी भगवान शिवजी-तेजाजी का मंदिर है।" यह निष्कर्ष उन्होंने संस्कृत पुस्तक 'खर्जुरवाहक" पढ़ने के बाद निकाला था।

यह पुस्तक उन्हें इंदौर के एक प्राध्यापक श्री विक्रम गणेश ओक ने दी थी। (यह दोनो ओक रिश्तेदार नहीं हैं) वे जब छतरपुर में पदस्थ तब उन्हें यह पुस्तक 'खर्जुरवाहक" वहां के अभिभाषक महेश्वर काले ने जो उनके काका द्वारा लिखी गई थी उनकी पढ़ने-लिखने की अभिरुचि को देखते दी थी। उस पुस्तक को पढ़ने के बाद उन्हें ऐसा आभास हुआ कि राजा परमादिदेव के संस्कृत श्लोक में वर्णित भवन कहीं वहीं तो नहीं जिसे हम ताजमहल कहते हैं। उस संदर्भ से उन्होंने पु.ना.ओक को अवगत कराया।  पु. ना. ओक ने पुस्तक में उद्‌धत संस्कृत शिलालेख, जिसे 'बटेश्वर" शिलालेख कहा जाता है की सत्यता को प्रमाणित करने के लिए पुरातत्व संग्रहालयों, ग्रंथालयों की भरपूर खाक छानकर निष्कर्ष रुप में एक नवीन शोध 'ताजमहल मंदिर भवन है"। शीर्षक का पुस्तक के रुप में प्रकाशित की। जिससे वैचारिक जगत में तहलका मचा। इस विषय में विक्रम ओक का जो योगदान रहा उसकी भावुक सराहना पु. ना. ओक ने अपने पत्र द्वारा करते हुए उन्हें लिखा था - ''आपने अपनत्व से जो जानकारी हमें दी वह अत्यंत महत्वपूर्ण सिद्ध हुई है। इसके लिए मैं आपका हमेशा के लिए ऋणी हूं। इस विषय में इसी प्रकार सक्रिय रहें।""   

अपने प्रमाणों में ओक ने शाहजहां के दरबारी बखरकार मुल्ला अब्दुल हमीद लाहौरी के बादशाहनामे का उल्लेख भी किया, जिसमें की उक्त भवन को मानसिंह मंजिल बताया गया है और जिसे तत्कालीन जयपुर नरेश जयसिंह से प्राप्त कर उसमें अगले वर्ष मुमताज को दफनाने की बात है। ओक ने शाहजादा औरंगजेब के 1652 के उस पत्र का  आधार भी अपने कथन की पुष्टि हेतु लिया है। इस पत्र में औरंगजेबउक्त कब्र को 'उज्जवल कब्र" कहता है। यह पत्र 'यादगार नामा" और 'आदाब ए आलमगिरी" इन दोनो तत्कालीन इतिहास ग्रंथों में उद्‌धृत है। इस प्रकार ओक आलोचकों के इस कथन को स्पष्ट आव्हान देते हैं कि 'ताजमहल" शब्द का प्रयोग शाहजहां और औरंगजेब दोनो के समय तक नहीं हुआ था। पर उसके अनंतर के बखरकारों ने इसका प्रयोग किया अतः उसे प्रामाणिक नहीं माना जा सकता। श्रीओक जयपुर राजघराने में अप्रकाशित पडे हुए कपडदारा विभाग के पत्र क्रमांक 176 एवं 177 को प्रकाशित करने का आव्हान भी प्रकट रुप से करते हैं।

श्रीओक वास्तुविज्ञान के संस्कृत ग्रंथ में उद्‌धृत वास्तुपुरुष का तथा ताजमहल के शिल्प, उस पर दिखाई देनेवाली नागों की जोडीयां, धतूरे के ओम्‌ आकार के फूल, उसका अष्टकोण निर्माण, ताजमहल के शिखर पर होनेवाले त्रिशूल कलश, आम्रपत्र, आदि  का आधार भी चित्रसहित दर्शाते हैं। इस प्रकार ओक का कथन केवल तर्क ही नहीं तो शिल्प एवं अभिलेखों पर आधारित है। इतना होते हुए भी ओक ने यह कभी नहीं कहा कि इसका निर्माण इस विशिष्ट वर्ष में, इस विशिष्ट नरेश ने किया है। उनका स्पष्ट कथन यह है कि तथाकथित 'ताजमहल" तेजोमहालय होकर उसका निर्माण शाहजहां के पहले ही हुआ है।

इतिहास शोध ओक का स्वानंद था, जीवनव्रत था। हिंदुस्थान के इतिहास में क्रांति ला देनेवाले ऐसे उद्‌भट विद्‌भट विद्वान के एक प्रसिद्ध ग्रंथ 'भारतीय इतिहास की भयंकर भूलें" ने 10 मार्च 1992 को राज्यसभा की चर्चा में स्थान पाया और फिर बुधवार 11 मार्च को लोकसभा में इस पर विस्तृत चर्चा हुई। 'भारतीय इतिहास की भयंकर भूलें" जुलाई 1966 में प्रकाशित अंगे्रजी इतिहास शोधग्रंथ - 'सम ब्लंडर्स ऑफ इंडियन हिस्टोरिकल रिसर्च" का हिंदी रुपांतर है। 10 मार्च को राज्यसभा में जनता दल सांसद मोहम्मद अफजल ने ओक के शोधग्रंथ 'भारतीय इतिहास की भयंकर भूलें" का पार्लियामेंट हाऊस की लाइब्रेरी में होने पर आपत्ति उठाई और दूसरे ही दिन लोकसभा में हर माह 'मुस्लिम इंडिया" प्रकाशित करनेवाले धर्मनिरपेक्ष जनता दल के सांसद शहाबुद्दीन के नेतृत्व में देश विभाजक मुस्लिम लीग और निजाम की रियासत में हिंदुओं पर जुल्म ढ़ानेवाले रजाकारों के वारिस इत्तेहादुल मुसलमीन आदि के मुस्लिम सांसदों ने इस शोधग्रंथ को हममजहबियों के दीनी जज्बातों पर हमला बताते हुए इसे पार्लियामेंट हाऊस की लाइब्रेरी से हटाने और इसके प्रकाशन को प्रतिबंधित करने की रट लगा दी।

शहाबुद्दीन ने चतुराईपूर्ण भाषा का प्रयोग करते हुए कहा कि 'यह पुस्तक कोई विद्वत्‌ रचना नहीं, कोई गंभीर रचना नहीं, अतः मैं इसे कोई विशेष महत्व देना नहीं चाहता। पर चूंकि यह लोगों की भावनाओं के प्रति आक्रमक है और हमारे देश में ईशनिंदा के विरुद्ध कानून है", अतः इस पुस्तक को पार्लियामेंट हाऊस लाइब्रेरी से हटाया जाना चाहिए। प्रतिबंधित भी किया जाना चाहिए और शासन को इस विषय में अभी ही घोषणा करनी चाहिए। मुस्लिम लीग के सुलैमान सैत ने शहाबुद्दीन से सहमति दर्शाई। परिणामतः 11 मार्च 1992 को लोकसभा अध्यक्ष के आदेश से इस गं्रथ को संसदीय ज्ञानपीठ (संसद ग्रंथालय) में संग्रहित 11 लाख ग्रंथों से अलग निकाल कर ताले में बंद रखने की अर्थात्‌ पठन हेतु नहीं दिए जाने की तत्काल व्यवस्था की जाए! 

1 से 7 सितंबर 1986 को साऊदम्पटन नगर के साऊदम्पटन विश्वविद्यालय में आयोजित विश्व पुरातत्व परिषद में पु. ना. ओक ने जिस शोध ग्रंथ को प्रस्तुत किया था उस शोधलेख में 'इस्लाम भी वैदिक संस्कृति से ही उपजा हुआ एक पंथ है"। उपशीर्षक में वही विचार व्यक्त किए गए थे जो कि इस ग्रंथ में भी दिए गए हैं। क्या यह दुर्भाग्यपूर्ण नहीं है कि जिस शोधलेख का सम्मान विश्व सम्मेलन में होता है उस पर मुस्लिम सांसदों द्वारा हायतौबा मचाने पर शोधग्रंथ को ताले में बंद कर दिया जाता है। 

प्रथम लोकसभा अध्यक्ष श्री जी. वी. मावलंकर की परिकल्पना के अनुसार, पूर्व में जिसे 'प्रिंसेस चेंबर" के नाम से जाना जाता था जहां अविभाजित भारत के देशी राज्यों के शासकों के सम्मेलन हुआ करते थे उसीके लिए इसका निर्माण हुआ था; जहां बाद में स्वतंत्रता प्राप्ति पर कुछ समय के लिए सर्वोच्च न्यायालय के न्यायालय कक्ष के रुप में इसका उपयोग हुआ था; जब सर्वोच्च न्यायालय का वर्तमान भवन निर्मित हो गया था तब न्यायालय वहां स्थानांतरित हो गया, यहां विशाल संसद ग्रंथालय स्थापित किया गया। यह मात्र ग्रंथालय नहीं तो ज्ञानपीठ है अतः ग्रंथ संग्रहण के अतिरिक्त भी अन्य अनेक सुविधाएं, व्यवस्थाएं संजोयी गई हैं। 

ऐसे ज्ञानपीठ की गरिमा को कलंकित करनेवाले अन्याय के एकमात्र प्रतीक को वहां से हटाकर, क्षुद्रता संकुचितता को तिलांजलि दे, मुक्तता, विशाल मनस्कता की भावना को अपना कर विराट 'संसदीय ज्ञानपीठ" रुपी स्वर्ण को सुरभित कर दे। जो पूर्व में ना हो सका वह यह नई कार्यशैली वाली मोदी सरकार करे 'भारतीय इतिहास की भयंकर भूलें" शीर्षक का जो अनूठा शोधग्रंथ बंद करके रखा गया है उस तालाजडे बक्से से उसे आजाद करे। 

Friday, April 17, 2015

सेक्यूलरिजम और इस्लाम
shirishsapre
सेक्यूलरिजम शब्द संसार में कब, कहां और किन परिस्थितियों में आया उसकी गहराई में न जाते हम 'ऑक्सफोर्ड" अंग्रेजी शब्दकोश में इस शब्द का क्या अर्थ दिया हुआ है वह पहले देखेंगे। शब्दकोश के अनुसार इस शब्द का अर्थ है 'इहलौकिक बातों के संबंध में"। पारलौकिक और आध्यात्मिक बातें इन इहलौकिक बातों से अलग हैं, ऐसा इस व्याख्या में गृहित है। अनेक विचारकों ने अपनी - अपनी पद्धतिनुसार इस शब्द की व्याख्या की हुई है। इस शब्द की व्याख्या के संबंध में जो वादविवाद हमेशा होते रहते हैं वे 'शासन की धर्मसंबंधी भूमिका कौनसी होनी चाहिए" इस पर से ही होते हैं। इस स्थान पर 'शासन" इस शब्द में केंद्र-राज्य सरकारें, लोकसभा-विधानसभा, न्यायालय और कानून द्वारा स्थापित अन्य संस्थाओं का समावेश होता है। इसी में से फिर सेक्यूरिजम की अनेक भूमिकाएं जन्म लेती हैं।

अपने को जो सेक्यूलरिजम मानना है, जिस सेक्यूलरिजम का पालन करना है वह भारतीय संविधान का है। संविधान की धारा 25 में सेक्यूलरिजम की भूमिका आई हुई है। यह नागरिकों को धार्मिक स्वतंत्रता का मूलभूत अधिकार प्रदान करनेवाली धारा  है। इस धारा में उस स्वतंत्रता की मर्यादाएं भी बतलाई हुई हैं। इस धारा में दो उपधाराएं हैं। इनमें से पहली उपधारा मनुष्य द्वारा पारलौकिक अर्थ का धर्म (यानी संप्रदाय, उपासनापंथ अथवा रिलिजन) पालने के अधिकारों से संबंधित है, तो दूसरी उपधारा इहलौकिक जीवन में धर्म का स्थान तय करनेवाली है।

पहली उपधारा के अनुसार प्रत्येक को अपने धर्म (रिलिजन) का पालन करने की और उसका प्रचार-प्रसार करने की समान स्वतंत्रता दी गई है; परंतु उसके लिए चार शर्तें डाली गई हैं। उनमें से तीन शर्तें सार्वजनिक सुव्यवस्था, नीतिमत्ता और आरोग्य के विरोध में वह स्वतंत्रता न होने संबंधी है। चौथी शर्त संविधान द्वारा सभी नागरिकों को प्रदान किए हुए संविधान में अन्य मूलभूत अधिकारों के विरोध मेें वह स्वतंत्रता न होने संबंधी हैं। इन चार शर्तों का पालन न करने पर पूजा, प्रार्थना इस अर्थ का संप्रदाय का पालन भी न किया जा सकेगा इस प्रकार का इसका अर्थ है। इन शर्तों का पालन करने के बाद बचा हुआ पारलौकिक धर्म कितना बच रहता है यह पाठक स्वयं सहज ही तय कर सकते हैं।

दूसरी उपधारा में इस धर्मस्वतंत्रता के विरोध में शासन को कुछ अधिकार प्रदान किए गए हैं ः शासन को आर्थिकनीति, राजनीति, सामाजिकनीति और अन्य इसी प्रकार की इहवादी बातों के संबंध में कानून बनाने का पूर्ण अधिकार रहेगा। इस अधिकार के आडे वह धार्मिक स्वतंत्रता आ नहीं सकती। यह उपधारा शासन को नागरिकों के इहलौकिक जीवन के संबंध में सार्वभौम अधिकार प्रदान करती है। शासन को यह अधिकार देकर संविधान ने नागरिकों के व समाज के इहलौकिक जीवनसंबंधी धर्म के अधिकार को ही समाप्त कर डाला है। धर्म (रिलिजन) का पालन करना यह बात सेक्यूलर बातों से पूर्णतया अलग है, यह गृहित लेकर ही यह धारा तैयार की गई है। इसी उपधारा में आगे यह भी कहा गया है कि, सामाजिक सुधार और समाजकल्याण के संबंध में कानून बनाने का शासन को पूर्ण अधिकार रहेगा। 

धारा 25 के अनुसार संविधान ने नागरिकों को पारलौकिक धर्म पालन करने की मर्यादित स्वतंत्रता दी हुई है, तो इहलौकिक बातों के संबंध में धर्म को निष्प्रभ करने का शासन को सार्वभौम अधिकार प्रदान किया हुआ है। इस संबंध में संविधान ने केवल एक अपवाद और वह इस धारा में विशेषरुप से स्पष्टीकरण देकर किया हुआ है। सिक्खधर्मीय लोगों को धर्माज्ञा के रुप में कृपाण रखते हैं। अब प्रश्न यह है कि, कृपाण रखना यह बात पारलौकिक है कि इहलौकिक? धर्म में कही हुई होने के बावजूद यह बात स्पष्टरुप से ही इहलौकिक है ऐसा होने के बावजूद उपधारा 2 के अनुसार कृपाण रखने की बंदी लानेवाला कानून बनाने का अधिकार शासन को प्राप्त होनेवाला था। वह न हो ऐसी संविधानकर्ताओं की इच्छा थी इसलिए उन्होंने इस धारा में विशेष स्पष्टीकरण देकर कृपाण रखने का मुद्दा उस धर्म के पारलौकिक बातों में समाविष्ट किया। इस कारण ही यह बात अब केवल कानून-सुव्यवस्था और अन्य मूलभूत अधिकार आदि शर्तों के अधीन रही। यह अपवाद संविधानकर्ताओं की धर्मविषयक भूमिका पर एकदम स्पष्ट प्रकाश डालता है।

'धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार" इस शीर्षकतले संविधान की 26 से 30 इस प्रकार की और पांच धाराएं हैं। मगर इन धाराओं में उपरोक्त धारा के विरोध में कुछ भी नहीं है। उदा. धारा 26 धर्मविषयक व्यवहार के संबंध में है। पारलौकिक धर्म कहा तो, उसके लिए मंदिर, मस्जिद, चर्च आदि का निर्माण आएगा ही। उसके लिए मालमत्ता धारण करना, संस्था स्थापित करना, आर्थिक व्यवहार करना ये सेक्यूलर बातें आएंगी ही। इस धारा के अनुसार इस प्रकार की संस्थाओं की पारलौकिक बातें सार्वजनिक सुव्यवस्था, नीतिमत्ता और आरोग्य के अधीन रखी गई हैं, तो सेक्यूलर बातों संबंधी कानून बनाने का अधिकार शासन को प्रदान किया हुआ है। अर्थात्‌ कौनसी बात धर्म की और कौनसी सेक्यूलर इस बारे में विवाद होने पर उसका निर्णय न्यायालय द्वारा दिया जाएगा। उदा. सर्वोच्च न्यायालय ने एक प्रकरण में इस प्रकार से निर्णय दिया है कि, पुजारी द्वारा कौनसी पद्धति से पूजा की जाए यह धर्म का भाग है; मगर पुजारी की नियुक्ति सेक्यूलर मामला है। (AIR 1972 Sc 1586) अतः 'धर्म" अथवा 'धार्मिक" शब्द संविधान में संप्रदाय, उपासनापद्धति अथवा पारलौकिक धर्म इस अर्थ से सर्वत्र उपयोग में लाया गया है, यह ध्यान में रखे जाने योग्य है।

अब हम इस्लाम की भूमिका को देखेंगे - पाश्चात्य पद्धति में जिस प्रकार से 'धर्म" और 'राज्य" अलग-अलग होते हैं वैसा इस्लाम में नहीं होता। इस्लाम को मानव जीवन का विभाजन राजनीति, धर्मनीति, आर्थिक नीति, सामाजिक नीति इस प्रकार का मान्य नहीं है। इस्लाम के अनुसार मानव जीवन के सारे घटक इस्लाम में एकजीव होकर समाविष्ट हो गए हैं। इस्लाम एक जीवन पद्धति है जिसमें अल्लाह ने समय-समय पर जो संदेश पैगंबर को दिए थे उनमें उपर्युक्त प्रकार का विभाजन नहीं है। अल्लाह ने मानवी जीवन को धर्मनीति, राजनीति, आर्थिक नीति, सामाजिक नीति आदि खानों में बांटकर मार्गदर्शन नहीं किया है। इस कारण ये सारी बातें इस्लाम में अविभाज्य होकर एकरुप हो गई हैं। इस्लाम को पाश्चात्य पद्धतिवाला धर्म और राजनीति का विभाजन मान्य नहीं। 

इस संबंध में हम कुछ विद्वानों के अभिप्रायों पर गौर करेंगे जिससे कि इस्लाम की भूमिका को बडी आसानी से हम समझ सकेंगे - 1. बर्नाड लुईस ः ''ईसाई धर्म के संस्थापक ने अपने अनुयायियों को आदेश दिया कि, 'सीजर (यानी राज्य) का सीजर को दो, ईश्वर (यानी धर्म) का ईश्वर को दो" ... परंतु, तीन शताब्दियों के बाद सम्राट कॉन्सटॅन्टाईन के काल में राज्य और चर्च (धर्म) एक रुप हो गए। परंतु, (मूलतः) इस्लाम के संस्थापक स्वयं ही (ऐसे) कॉन्सटॅन्टाईन थे... इसलिए उनके सहयोगियों के सामने ईश्वर (धर्म) और सीजर (राज्य) इनमें से एक को चुनने का प्रश्न निर्मित ही नहीं हुआ। इस्लाम में सीजर नहीं था केवल अल्लाह था और मुहम्मद साहेब उनके पैगंबर थे। अल्लाह की सीख बतलाना और उसकी ओर से राज्य करना ये दोनो ही काम वे करते थे ... अल्लाह के उस संदेश में (राजनैतिक) आदेश और उसका (धार्मिक) आधार भी दिया हुआ होता था।""

''(इस्लाम के अनुसार) राज्य एक धार्मिक संस्था है ... उसमें चर्च और राज्य एक ही होते हैं, जिसका प्रमुख खलीफा होता है। धार्मिक और इहलौकिक, आध्यात्मिक और भौतिक, संत और गृहस्थी, इतना ही नहीं तो पवित्र और अपवित्र इन जुडे हुए शब्दों के लिए इस्लाम में वैकल्पिक संज्ञा ही नहीं है।"" 

2. भूतपूर्व सांसद एम. तय्यबुल्ला - ''इस्लाम में राज्य और धर्म एक ही और अविभाज्य हैं, एक ही शरीर के दो भाग हैं। हॅन्स कोहन ने अपने सुप्रसिद्ध ग्रंथ the history of nationalism in the eastमें कहा है ः 'इस्लाम केवल धर्म नहीं तो (मुस्लिमों का) राज्य है।" (यह बिल्कूल सत्य है) इस्लाम में राज्य की संकल्पना राजनैतिक-आध्यात्मिक है ... जो राज्य और धर्म में विभाजन की बात करता है उसे (इस्लाम का) कुछ नहीं समझता है। वह केवल अंधता से पाश्चात्यों की नकल करता है और धर्म के संबंध में पूर्णतः अज्ञानी है।""

''पैगंबर मुहम्मद ने (इस्लामी) राज्य की स्थापना 'इस्लाम के अविभाज्य अंग" (the organ of islam) के रुप में की थी और वे ही 'अरबस्थान के प्रजासत्ताक के पहले अध्यक्ष" (first president of the republic of arabia) और उसी समय 'इस्लाम के धार्मिक प्रमुख" बने। इसी प्रकार से उनके उत्तराधिकारी खलीफा भी वैसे ही बने।"" (एम. तय्यबुल्ला कांग्रेस के भूतपूर्व सांसद थे। स्वतंत्रता पूर्वकाल में वे महात्मा गांधी के सहयोगी थे। उन्होंने 1942 के स्वतंत्रता के आंदोलन में भाग लिया था और वे कारावास में भी गए थे इस ग्रंथ islam and non violence की प्रस्तावना गांधीजी लिखनेवाले थे। उन्होंने यह ग्रंथ पढ़ा भी था। परंतु, उनकी हत्या के कारण वे प्रस्तावना लिख ना सके। गांधीजी ने उन्हें भेजे हुए एक स्वहस्ताक्षरित पत्र की छायाप्रति भी उस गं्रथ के अंत में दी हुई है। अपना यह ग्रंथ उन्होंने गांधीजी को ही अर्पित किया हुआ है। 1940-48 के काल में असम कांग्रेस अध्यक्ष और बाद में वहां के मंत्री भी रहे थे)

3. मौ. अबू मुहम्मद इमामुद्दीन ः ''इस्लाम मानव जीवन का विभाजन दो भागों में करता नहीं है। एक भाग इस्लाम के अधीन और दूसरा (इस्लाम से) स्वतंत्र ऐसा नहीं होता। इस्लाम ही मानव जीवन का संविधान है। उपासना, उपजीविका, सामाजिक व्यवस्था,  नागरिकता, शिष्टाचार, राजनीति, शासन व्यवस्था आदि सबकुछ इस्लाम के अधिकार क्षेत्र में समाविष्ट है।""

उपर्युक्त कथन इस्लाम की सेक्यूलरिजम के संबंध में भूमिका एकदम साफतौर पर प्रस्तुत करते हैं फिर भी किसी को कुछ शंका ना रह जाए इसलिए हम दअ्‌वतुल कुरान भाष्य इस संबंध में क्या कहता है पर गौर करेंगे -  ''जीवन को धर्म और संसार के खानों में विभक्त कर अल्लाह और उसके रसूल के कितने ही फैसलों को जो पारिवारिक, आर्थिक एवं राजनैतिक जीवन से संबंधित हैं रद्द कर देना और तथाकथित धर्मनिरपेक्ष जीवन पद्धति को अपनाना इस्लाम से खुली विमुखता है।""  (खंड 3 पृ. 1475)