tag:blogger.com,1999:blog-86956058545596246062024-03-13T06:18:59.567-07:00कणादShirish Saprehttp://www.blogger.com/profile/12101620590252946119noreply@blogger.comBlogger194125tag:blogger.com,1999:blog-8695605854559624606.post-77249882047586790812015-11-28T05:47:00.002-08:002015-11-28T05:47:20.074-08:00<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<b><span style="font-size: large;">ऐसे थे भालजी पेंढ़ारकर</span></b></div>
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<b><span style="font-size: large;"><br /></span></b></div>
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<span style="font-size: large;">आजकल निर्माता-निर्देशक संजयलीला भंसाली की निर्माणाधीन फिल्म बाजीराव मस्तानी किसी ना किसी कारण से बडी चर्चा में है। परंतु, सबसे पहले दादासाहेब फालके पुरस्कार प्राप्त भालचंद्र गोपाल ऊर्फ भालजी पेंढ़ारकर ने आज से 90 वर्षपूर्व सन् 1925 में इन ऐतिहासिक पात्रों बाजीराव-मस्तानी की अमर प्रेम कथा पर निर्मित एक फिल्म 'बाजीराव-मस्तानी" का निर्देशन किया था, जिसकी पटकथा भी उन्होंने ही लिखी थी। सिने जगत में उन्हें श्रद्धावश चित्र-तपस्वी कहा गया। चित्रपट सृष्टी खडी करने के लिए उन्होंने अथक प्रयास किए। सूर्य, शारदा, फेमस अरुण, कोल्हापूर सिनेटोन जैसी चित्र संस्थाओं के निर्माण में उनका महत्वपूर्ण योगदान था। इस कारण उन्हें चित्रपट विद्यापीठ कहा जाने लगा। भालजी ने 1932 से 1986 के बीच 45 सामाजिक और ऐतिहासिक चित्रपट दिए। हिंदी के पृथ्वीराज कपूर, दुर्गा खोटे, सुलोचना, ललिता पवार, दाद कोंडके, कृष्ण भूमिका के लिए विख्यात शाहू मोडक, रमेश देव, गजानन जहागीरदार जैसे अग्रणी कलाकारों ने भालजी के समर्थ दिग्दर्शन तले काम किया था।</span></div>
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<span style="font-size: large;">राजकपूर जिन्हें भालजी से पहले ही दादा साहब फालके पुरस्कार मिला था। उन्हें फिल्म जगत में लानेवाले भालजी ही थे। उनकी फिल्म 'वाल्मिकी" में राजकपूर नारद बने थे और पिता पृथ्वीराज कपूर ने वाल्मिकी का रोल निभाया था। महारथी कर्ण (1944) चित्रपट में पृथ्वीराज और भालजी की जो वैचारिक जुगलबंदी थी वह भालजी के आत्मचरित्र 'साधा माणूस" में मूलतः ही पढ़ी जाए ऐसी है। मराठी चित्रपट जगत की तीन पीढ़ियां उनके दिग्दर्शन में तैयार हुई थी। जिसका उल्लेख वे कलाकार 'मैं भालजी की स्कूल का विद्यार्थी हूं" गर्व से कहकर करती रही। 1932 में बनी फिल्म 'श्याम सुंदर" भारत की पहली सिल्वर जुबली फिल्म थी। भालजी ने ही 1934 में पहली एनिमेशन फिल्म 'आकाशवाणी" बनाई थी। भालजी ने व्ही. शांताराम के लिए भी उदयकाल, रानी साहिबा, खूनी खंजर, जुल्म जैसी सफल फिल्में और गीत लिखे थे।</span></div>
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<span style="font-size: large;">उनके आत्मचरित्र से ही ज्ञात होता है कि, पंडित मदनमोहन मालवीयजी के साथ भालजी काशी हिंदूविश्वविद्यालय के निर्माण में ठोस सहायता मिले के लिए छत्रपति राजाराम से मिले थे और उस जमाने में महाराज ने पं. मालवीयजी को एक लाख रुपये का दान दिया था। इसी प्रकार से भालजी डॉ. आंबेडकर के साथ महाराज से इतिहास प्रसिद्ध किला पन्हाला पर सैनिक शिक्षा के लिए एक भव्य अकादमी स्थापित की जाए के संदर्भ में मिलने पहुंचे। उस समय महाराज किसी से चर्चा कर रहे थे, बहुत देर हो जाने के कारण डॉ. आंबेडकर भालजी सहित महाराज से बिना मिले ही चले आए। </span></div>
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<span style="font-size: large;">14 वर्ष की आयु में उन्होंने कलकत्ता यात्रा की इस दौरान भगतसिंह के सहयोगी राजगुरु के संपर्क में आए और घनिष्ठ मित्र बन गए। वहां से लौटने के पश्चात 1917 में सेना में भर्ती हो गए और तीन वर्ष मराठा पलटन में रहे। उनकी हिंदुत्व पर अगाध निष्ठा थी। लोकमान्य तिलक और बाबाराव सावरकर (वीर सावरकर के बडे भाई) के सान्निध्य में वे रहे। तिलक, वीर सावरकर और शिवाजी उनके श्रद्धास्थान थे। युवावस्था में कुछ समय उन्होंने तिलक के समाचार पत्र 'केसरी" में काम किया था। जिससे उनकी राष्ट्रीय चेतना विकसित हुई। बाबाराव सावरकर के मार्गदर्शन में उन्होंने भारत की स्वाधीनता के लिए कार्य किया। स्वधर्म, स्वभाषा, स्वदेश पर उनकी अगाध श्रद्धा थी। 1927 में जब वंदेमातरम् बोल देना भर भयंकर अपराध माना जाता था भालजी ने 'वंदेमातरम आश्रम" नामकी फिल्म जिसमें गुरुकुल पद्धति से शिक्षा का समर्थन था बनाई जिस पर ब्रिटिश सेंसर ने सात बार कैंची चलाई। विरोधस्वरुप भालजी ने यह फिल्म फिर प्रदर्शित ही नहीं की। भालजी ऐतिहासिक फिल्मों के प्रणेता थे। उन्होंने 'छत्रपति शिवाजी", मराठी तथा हिंदी में बनाई थी। ऐतिहासिक फिल्मों द्वारा उन्होंने राष्ट्र के स्वाभिमान को सशक्त स्वर दिया। सामाजिक जीवन को अभिव्यक्ति देने के लिए उन्होंने ग्रामीण जीवन का यथार्थपरक चित्रण भी अपनी फिल्मों में किया था। </span></div>
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<span style="font-size: large;">शिवाजी पर उनकी कितनी श्रद्धा थी यह इस प्रसंग से मालूम पडता है। कोल्हापूर के मध्यवर्ती चौक में गव्हर्नर सर लेस्ली विल्सन का पुतला था। सन् 1942 के आंदोलनकारियों ने इस सफेद पुतले को काला पोतकर कोल्हापूर में हलचल मचा दी थी। बाद में इस पुतले को सुरक्षा बलों की उपस्थिति होने के बावजूद आंदोलनकारियों ने तोड डाला। शासन ने इस पुतले को वहां से हटाने का निर्णय लिया। भालजी ने वहां छत्रपति शिवाजी का पुतला लगाना तय किया। जनता का समर्थन हासिल करने के लिए एक मुहिम छेडी। शिवाजी महाराज का पुतला खडा करना यह कोल्हापूर की अस्मिता और स्वाभिमान का प्रश्न है यह भालजी का विचार लोगों को पसंद आया। समाचार पत्रों ने भी अपना समर्थन दिया। कोल्हापूर के हिंदू चीफ इंजीनिअर भी सहमत थे परंतु यह बात उनके अधिकार क्षेत्र के बाहर की होने के कारण उनकी सलाह पर अंग्रेज रेसिडेंट कर्नल हेरिसन से भालजी मिले।</span></div>
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<span style="font-size: large;">कर्नल हेरिसन ने कहा कि आपको क्यों लगता है कि ब्रिटिश सरकार आपके प्रस्ताव को स्वीकार लेगी। क्या इसीलिए आपने सर लेस्ली के पुतले को तोडा था। भालजी ने प्रतिवाद किया कि निराधार आरोप ना लगाएं। जिसने तोडा है उसे पकडें। कर्नल ने इस पर कहा कि हम दोबारा सर लेस्ली का पुतला वहां लगाएंगे। भालजी का उत्तर था अवश्य आप कर सकते हैं परंतु इस पुतले को फिर से तोडा नहीं जाएगा ऐसा आपको लगता है क्या? आगे उन्होंने कहा - मैं एक कलाकार हूं कला निर्मिती मेरा जीवन है किसी को मैं बदसूरत कर नहीं सकता। वे चित्रपट व्यवसायी हैं राजनीतिज्ञ नहीं वे यह कार्य केवल शिवाजी पर श्रद्धावश कर रहे हैं। कर्नल अनुकूल हो गया और शिवाजी महाराज का पुतला खडा कर दिया गया।</span></div>
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<span style="font-size: large;">जब पंडित मदनमोहन मालवीय और डॉ. हेडगेवार के आधिपत्यतले हिंदू महासभा का आंदोलन आरंभ हुआ तब बाबाराव सावरकर की प्रेरणा के कारण वे हिंदू महासभा में शामिल हुए और दक्षिण हिंदुस्थान की हिंदू महासभा के प्रमुख के रुप में काम करने लगे। बाद में वे रा. स्व. से. संघ से आजीवन जुडे रहे। डॉ. हेडगेवारजी ने भालजी की फिल्म 'भगवा झंडा" का उद्घाटन भगवा ध्वज फहराकर किया था। इस फिल्म में शिवाजी महाराज की संगठन क्षमता का उत्कृष्ट प्रदर्शन था। अंग्रेज सरकार ने इस फिल्म को प्रतिबंधित कर दिया था।</span></div>
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Shirish Saprehttp://www.blogger.com/profile/12101620590252946119noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8695605854559624606.post-63424640852818769902015-11-19T23:13:00.000-08:002015-11-19T23:13:26.922-08:00<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<span style="font-size: large;"><b>टीपू सुलतान का मूल्यांकन हो</b></span></div>
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<span style="font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
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<span style="font-size: large;">सन् 1707 में औरंगजेब की मृत्यु के पश्चात मुगल साम्राज्य रसातल को जाने लगा और धीरे-धीरे तीन शक्तियों का उदय हो गया। मराठा, सिक्ख और ब्रिटिश, इनमें मराठे सबसे प्रबल थे। 1757 में प्लासी की लडाई जीतकर अंग्रेजों ने अपनी रणनीति सफल कर दिखाई थी। मुसलमानों का एकमात्र ध्येय इस्लाम था और इसीको सामने रख शाहवलीउल्लाह ने अफगानिस्तान के अमीर अहमदशाह अब्दाली को हिंदुस्थान पर आक्रमण के लिए निमंत्रित किया था। 1761 में अब्दाली आया और पानीपत के युद्ध में मराठों को करारी हार का सामना करना पडा। प्लासी की लडाई का स्पष्ट परिणाम 1764 में बक्सर की लडाई जो मुख्यतः अयोध्या के नवाब और ब्रिटिशों में हुई थी के बाद नजर आया। ब्रिटिशों का आधार अधिक ही विस्तृत हो गया और स्पष्ट हो गया कि मराठे नहीं अंग्रेज ही भारत के अधिपति बनेंगे। 1803 में मराठे भी अंग्रेजों से पराजित हो गए और दिल्ली का बादशाह अंग्रेजों की कठपुतली बनकर रह गया साथ ही अब मुस्लिमों के शत्रु क्रमांक एक अंगे्रज हो गए।</span></div>
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<span style="font-size: large;">इस प्रकार से जब उत्तर भारत के मुसलमान ब्रिटिश विरोधी भावना से आंदोलित हो रहे थे। दक्षिण में ब्रिटिश सत्ता को आव्हान देने के लिए धर्मवीर टीपू सुलतान (1740-99) का 1782 में उदय हुआ और ब्रिटिशों से लडते हुए वह शहीद हुआ। उसकी कब्र पर लिखा हुआ है 'टीपू सुलतान ने पवित्र जिहाद किया और अल्लाह ने उसे शहीद का दर्जा प्रदान किया।" अब प्रश्न यह उठता है कि वह ब्रिटिशों के विरुद्ध क्यों लड रहा था? और ब्रिटिशों को निकाल बाहर करने के बाद कौनसा राज्य लानेवाला था? टीपू कोे अंगे्रजों के साथ मराठों और धर्मबंधु निजाम से भी लडना पडा था और निजाम ने कई बार गैरमुस्लिम सत्ताओं से गठबंधन भी किया था इस कारण इस संघर्ष में धर्म का कोई संबंध नहीं था यह दिशाभ्रम होने की संभावना है इसलिए इस संघर्ष में निजाम के संबंध में टीपू की भूमिका क्या थी यह उसने निजाम को भेजे पत्र में स्पष्ट होती है।</span></div>
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<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">निजाम को भेजे एक पत्र में टीपू इस्लामी बंधुभाव का आवाहन करते हुए लिखता है कि ''ब्रिटिश अपने को भुलावे में रखकर एकत्र आने नहीं दे रहे हैं। अगर अपन दोनो एकत्रित आ गए तो अपने पर हमला करने का साहस मराठे कभी भी नहीं जुटा सकेंगे।"" इस प्रकार की एकता के लिए उसने निजाम से पूर्व में जीता प्रदेश उसे वापिस देने का प्रस्ताव रखा और निजाम के खानदान से विवाह संबंध करने की तैयारी दिखलाई परंतु, निजाम तैयार नहीं हुआ। टीपू ने दिल्ली दरबार के एक निकटस्थ व्यक्ति को पत्र लिखकर विनती की कि, वह निजाम से आग्रह करे कि इस्लाम के उत्कर्ष के लिए अपन एकजुट हों। धर्म के प्रमुख होने के कारण पैगंबर के धर्म को प्रोत्साहित करना हमारे लिए बंधनकारक है। निजाम के दामाद और अधौनी के सूबेदार महाबतजंग को लिखा था कि ''निजाम काफिरों (मराठों) के पक्ष में है यह अनुचित है।""</span></div>
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<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">इसी इस्लामी ध्येय को सामने रखकर उसने दिल्ली के बादशाह शाहआलम को लिखा था कि, ''यह इस्लाम का नम्र सेवक वर्तमान में ईसाइयों (यहां टीपू ने 'ब्रिटिश" या 'अंग्रेज" न कहते भान रखकर 'ईसाई" कहा है) का विद्रोह कुचल डालने के काम में लगा हुआ है ... अल्लाह पर श्रद्धा रखकर इस्लाम का यह सेवक गैरइस्लामी शक्तियों के विरुद्ध लडाई लडकर उन्हें नष्ट करने का विचार कर रहा है।"" मुगल दरबार के एक उच्च पदस्थ व्यक्ति मुहम्मद बेग को उसने लिखा था कि, ''तुम्हें यह निश्चित रुप से ज्ञात ही होगा कि, इस तुम्हारे मित्र ने भ्रष्ट ईसाइयों को किस प्रकार से कुचल डाला है। वर्तमान में मैं ऐसे कुछ मुस्लिम राज्यकर्ताओं का विद्रोह कुचलने में लगा हूं कि जो इस्लाम के विरुद्ध ईसाइयों की ओर से हो गए हैं। इस संदर्भ में मैंने पूरे देशभर में हस्तपत्रक बांटे हैं जिनमें इस्लामसंबंधी कर्तव्य और पैगंबर की हदीसें (उक्तियां और कृतियां) समाविष्ट की हुई हैं। उसकी एक प्रति तुम्हें भेज रहा हूं। इस्लाम की रक्षा और उत्कर्ष के लिए अपन सब लोगों को एकत्रित आने की और पूरी ताकत से ईसाइयों के आक्रमण को आव्हान देने की नितांत आवश्यकता है ... अभी भी यदि सभी मुस्लिम एकत्र आ जाएं तो इस्लाम का गतवैभव प्राप्त होना संभव है।""</span></div>
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<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">परंतु, भारत के सभी मुसलमानों को एकत्रित न कर सकने के कारण उसने सैद्धांतिक रुप से विश्व के सारे मुस्लिमों के राजनैतिक और धार्मिक प्रमुख तुर्कस्तान के विश्व के खलीफा सलीम से सैनिक सहायता लेना तय किया। जिस प्रकार से विश्व के सारे मुस्लिम राजा अपने राजापद को कानूनी मान्यता मिले इसलिए खलीफा से मान्यतादर्शक राजवस्त्र मंगाते थे वैसे ही वस्त्र पाने के लिए उसने 1776 में 900 लोगों के एक शिष्टमंडल के साथ दसलाख रुपये और हीरेजवाहरात, चार हाथी की भेंट के साथ ही एक पत्र भी उनके साथ भेजकर उसमें लिखा था ः ''इस देश में ईसाइयो से हमारी लडाई चल रही है। इस सर्वोच्च काम में हम आपकी सहायता मांग रहे हैं।"" शत्रुओं को कुचलने और इस्लामी मूल्य कायम रखने के लिए चल रहे प्रयत्नों में आप सहायता करें। ैआगे वैश्विक इस्लाम की चिंता करते हुए उपाय के रुप में लिखा ः ''ब्रिटिशों की कारवाइयों के विरुद्ध भारतीय मुस्लिमों की ओर से संघर्ष करना मेरा कर्तव्य ही है, परंतु मुझे लगता है कि, सारे इस्लामी विश्व के लिए जिहाद अतिअनिवार्य हो गया है। हमारा ध्येय इस्लाम के श्रेष्ठत्व को ऊंचा रखना ही है, केवल हमारे देश की रक्षा करना ही नहीं!"" ... अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों के कारण खलीफा अपने धर्मबंधु का प्रस्ताव स्वीकार न कर सका परंतु उसने राजवस्त्र और उसके नाम से खुत्बा पढ़ने और सिक्का ढ़ालने का अधिकार अवश्य दे दिया। मुगल बादशाहों ने कभी भी ऐसे वस्त्र नहीं मंगाए थे वे स्वयं को ही सम्राट समझते थे इस प्रकार टीपू का दर्जा धार्मिक दृष्टि से मुगल बादशाह से ऊंचा हो गया। </span></div>
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<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
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<span style="font-size: large;">खलीफा से भले ही सहायता नहीं मिली परंतु फिर भी उसने अफगानिस्तान के अमीर जमानशाह को पत्र लिखा ः ''हम हमेशा ही प्रार्थना करते हैं कि धर्म के आधार पर (विश्व के) सभी मुस्लिम राज्यकर्ताओं में सामंजस्य और एकता निर्मित हो। वर्तमान में हम बडी विकट स्थिति में हैं। इस्लाम विरोधी शक्ति हमारे विरोध में लडने की तैयारी कर रही है अतः हम आपके पास (सैनिकी) सहायता के लिए तरस खाने की विनती कर रहे हैं। हमें आशा है कि आप इस धर्मयुद्ध में हमारी सहायता करेंगे।"" उसने 20000 घुडसवारों की मांग की थी। जमानशाह ने उत्तर दिया ''इस्लाम विरोधी शक्ति इस्लामी साम्राज्य नष्ट करने की तैयारी में होने के कारण हम तुम्हें अपना समर्थन जाहीर करते हैं। तुम्हारा देश मूर्तिपूजा और इस्लाम बाह्य बातों से शुद्ध करने के लिए हम प्रचंड सेना लेकर तुम्हारी सहायता के लिए आ रहे हैं।"" वह 33000 की फौज लेकर निकला लेकिन अंग्रेजों द्वारा ईरान के सम्राट को दिशाभ्रम कर अफगानिस्तान पर हमले के लिए उद्युक्त कर दिए जाने के कारण भारत की सरहद तक पहुंच चुके अमीर को वापिस लौटना पडा। इसके बाद टीपू ने ईरान के सम्राट को भी पत्र लिखा परंतु ईरान युद्धजन्य परिस्थितियों के कारण कुछ न कर सका।</span></div>
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<span style="font-size: large;">इस प्रकार तीनों बडी मुस्लिम साम्राज्य की शक्तियां जिहाद के लिए टीपू के काम न आ सकी। 1786 में टीपू ने एक राजाज्ञा निकालकर ब्रिटिश प्रांतों के मुस्लिमों को अपने इस्लामी राज्य में आकर स्थायी होने का आवाहन किया था। इसमें कहा गया था ः ''मुस्लिमों को श्रद्धाहीनों के देश से निकल जाना चाहिए (यह हिजरत का सिद्धांत है) और जब तक (टीपू) सुलतान वहां के बदमाश श्रद्धाहीनों को इस्लाम में ले नहीं आएगा अथवा उन्हें जजिया देने के लिए बाध्य नहीं कर देगा तब तक देश के बाहर ही रुकना चाहिए ... हमारा हेतु श्रद्धाहीनों के विरुद्ध जिहाद करना है।"" मुसलमानों में जिहाद की प्रेरणा निर्मित करने के लिए उसने एक पुस्तक प्रकाशित की थी 'फतह उल मुजाहिदीन" (धर्मयोद्धाओं की विजय) उसमें स्पष्ट किया था कि इस्लाम की विजय के लिए आक्रमक श्रद्धाहीनों के विरुद्ध जिहाद करना ही सच्चा इस्लाम है। </span></div>
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<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
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<span style="font-size: large;">वह विशुद्ध इस्लाम का कट्टर समर्थक था। शाह वली उल्लाह के विचारों का उस पर बडा प्रभाव था। ""अनेक शताब्दियों से हिंदुओं के सान्निध्य के कारण अनेक प्रकार की इस्लाम बाह्य विधियां एवं प्रथाएं घुस गई थी, धर्म में अनेक नई बातें आ गई थी, इन सबसे मुसलमानों को मुक्त करना उसका ध्येय था।"" ''वह इस्लाम के राजनैतिक वर्चस्व के लिए लड रहा था।"" ''उसे इस्लामी राज्य चाहिए था।"" ''विश्व में इस्लाम किस प्रकार वर्चस्वशाली बनेगा इसीकी उसे चिंता लगी रहती थी।"" संक्षेप में कहें तो शाहवलीउल्लाह को जिस प्रकार का खलीफा चाहिए था वैसा ही वह था।</span></div>
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<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
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<span style="font-size: large;">टीपू की प्रशंसा भारत की स्वतंत्रता का योद्धा के रुप में की जाती है। क्योंकि, वह अंग्रेजों के विरुद्ध लडा था। अब यहां कुछ प्रश्न उपस्थित होते हैं। वास्तव में टीपू को यदि सचमुच अंगे्रजों को निकाल बाहर करना था, उनके वर्चस्व से देश को मुक्त कराना था तो वह हिंदुओं के विरुद्ध शस्त्र उठाता ही नहीं। वह क्या चाहता था उसकी विशिष्टता ऊपर बयान की ही जा चूकी है। ब्रिटिशों को निकाल बाहर करना इतनी ही बात स्वतंत्रता का योद्धा होने के लिए पर्याप्त है क्या? हां, ब्रिटिशों की बजाए मुस्लिमों का इस्लामी राज्य भारत में आ जाता तो मुस्लिमों की दृष्टि से स्वतंत्रता होती परंतु, हिंदुओं की दृष्टि से क्या होती? दूसरी महत्वपूर्ण बात- स्वतंत्रता की लडाई कब शुरु हुई यह समझें? उसका उत्तर एक ही है ः स्वतंत्रता गंवाने के बाद। टीपू अंग्रेजों के विरुद्ध लडा, परंतु टीपू मरने तक स्वतंत्र ही था। उसने अंगे्रजों से फौजें तैनात करने का समझौता नहीं किया था। निजाम ने सन् 1800 में और दूसरे बाजीराव पेशवा ने वसई समझौते के द्वारा 1802 में अपनी स्वतंत्रता गंवाई। इस कारण हैदराबाद की स्वतंत्रता की लडाई की शुरुआत 1800 से और पश्चिम महाराष्ट्र की सन् 1802 से समझना चाहिए। टीपू के पिता हैदरअली ने राज्य स्थापित किया और अंगे्रज-मराठा युद्ध में मराठों से सहयोग कर हैदरअली लडा। परंतु, अंग्रेज-मराठा युद्ध को कोई स्वतंत्रता की लडाई नहीं कहता। क्योंकि, मराठे क्या और हैदरअली क्या दोनो ही स्वतंत्र थे, अंग्रेजों के अधीन नहीं थे। उनकी लडाई को स्वतंत्रता की लडाई भला कैसे कहा जा सकता है? ठीक इसी प्रकार से टीपू स्वतंत्र के रुप मेंं लडा और स्वतंत्र रहते ही मरा, यह प्रशंसनीय है परंतु वह स्वतंत्रता संग्राम का योद्धा नहीं।</span></div>
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<span style="font-size: large;">टीपू का चरित्रकार किरमानी ने टीपू के चरित्र में उसकी कट्टर इस्लामी निष्ठा और अन्य धर्मों के संबंध में घृणा का वर्णन किया हुआ है। 'अन्य धर्मियों के संबंध में टीपू को अत्यंत नापसंदगी थी प्रत्युत तिरस्कार ही था, ऐसा कहें तो भी चलेगा।" वास्तव में देखें तो टीपू के राज्य का आधार ही अस्थिर था। मराठों का राज्य जिन अर्थों से राष्ट्रीय कह सकते हैं वैसा टीपू का नहीं था। राष्ट्रीय इन अर्थों में कि मराठों की सत्ता की जडें मूल समाज में थी, वैसी टीपू की नहीं थी। बहुसंख्य समाज उसकी सत्ता से कभी भी एकरुप हो नहीं पाया और वह एकरुप हो इसके लिए टीपू ने प्रयत्न भी नहीं किए। हैदर ने परिस्थितियों का फायदा उठाकर अपनी ताकत बढ़ाई थी परंतु स्थानीय जागीरदार, नवाब उसके राज्य में असंतुष्टों के रुप में बचे ही रहे थे और विदेशी धर्मबंधुओं पर दारोमदार रखनेवाला टीपू उनका समावेश अपनी सत्ता में कर न सका और मौका मिलते ही वे अंग्रेज, मराठा और निजाम से जा मिले। </span></div>
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<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
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<span style="font-size: large;">टीपू ने एकनिष्ठ ऐसा एक सुरक्षा पथक बनाने के लिए खालिस मुसलमानों को भर्ती करना प्रारंभ किया। अपने पथक के बारे में वह बोलता था 'दर जुंभराए सा गम न बाशद" (मेरे हुजुरात में शोक नहीं) परंतु अर्थ कुछ ओर ही निकलता था। गम का 'ग" यानी हुजरात में गेर (परदेशी) नहीं चाहिए। 'म" यानी मोगल; मराठा, 'न" मतलब नवायत यानी कोकणी मुसलमान, 'ब" यानी ब्राह्मण, 'अ" यानी अफगान, 'श" यानी शिया और 'द" यानी मेदवी पठान नहीं चाहिए। उसने केवल शेख और सय्यदों को ही लिया इस कारण सेना में असंतोष फैल गया। परिणाम वही हुआ जो होना चाहिए। अंत में टीपू अंगे्रजों के हाथों मारा गया परंतु अंग्रेजों के हाथों मारे जाने के कारण उसके आस-पास हुतात्मा होने का वलय निर्मित हो गया। इकबाल ने टीपू के संबंध में कहा है ः 'धर्म और पाखंड (दीन और काफिर) के प्रचंड संघर्ष में हमारे तरकश का आखिरी तीर टीपू था।" सूज्ञ इस पर से टीपू का मूल्यांकन स्वयं ही करें। अंत में 'तमस" सीरियाल का यह वाक्य उद्धृत कर रहा हूं - 'जो इतिहास भूलते हैं, उनके माथे पर पुनः वैसा ही इतिहास लिखा जाता है।" </span></div>
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Shirish Saprehttp://www.blogger.com/profile/12101620590252946119noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8695605854559624606.post-78729256582068470382015-10-24T23:06:00.001-07:002015-10-24T23:06:02.746-07:00<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b>अत्यंत प्राचीन है भारत में गुप्तचर विज्ञान</b></span></div>
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<span style="font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">गुप्तचर व्यवस्था के संबंध में विश्व प्रसिद्ध सेनानायक नेपोलियन बोनापार्ट का कहना था कि ठीक स्थान पर एक गुप्तचर बीस हजार सैनिकों के बराबर होता है। यह उल्लेख इसलिए कि वर्तमान में प्रत्येक राष्ट्र सैनिक शक्ति के समान ही गुप्तचर व्यवस्था को भी उतना ही महत्व दे रहा है। संसार की सभी प्राचीन सभ्यताओं में गुप्तचरी का उल्लेख मिलता है। गुप्तचर व्यवस्था के महत्व को हमारे पूर्वजों ने भी समझा था। संसार की अन्य सभ्यताओं में जहां गुप्तचरी का प्रयोग मात्र राजा के हित संवर्धन और रक्षार्थ किए जाने के निर्देश मिलते हैं वहीं भारत के सभी ग्रंथों में प्रजा के हित संवर्धन को महत्व दिए जाने के निर्देश हैं। भारत के सभी प्राचीन ग्रंथों ऋगवेद, अथर्ववेद, मनु स्मृति से लेकर पुराणों तक में इस व्यवस्था के संंबंध में प्रत्यक्ष या परोक्ष वर्णन मिलते हैं। रामायण और महाभारत में भी गुप्तचर व्यवस्था का उल्लेख मिलता है। हरिवंश पुराण में 'बाणासुर प्रसंग" में एक उल्लेख मिलता है, जिसमें लिखा गया है कि अनिरुद्ध जब गुप्त रुप से बाणासुर की कन्या के महल में पहुंचे और उषा-अनिरुद्ध मिलन हो गया तो,बाणासुर के महल में कार्यरत गुप्तचरों ने उसे उक्त घटना को बतला दिया। </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">रामायण काल में अत्यंत उच्च कोटी की गुप्तचर व्यवस्था थी। राम और रावण की गुप्तचर व्यवस्था में भी बहुत अंतर था। जहां राम के गुप्तचर विद्वान और नीति का अनुसरण करनेवाले होकर सदाचारी और शालीन व्यवहारवाले थे, वहीं रावण के दूत कपटी और मायावी होकर धोखेबाज भी थे। रामायण में गुप्तचरी के दो उद्देश्य बतलाए गए हैं। 1. आत्मरक्षा, 2. राष्ट्र रक्षा। इन उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए राजा को चाहिए कि वह अपने गुप्तचरों द्वारा सतत न केवल शत्रुओं के भेद मालूम करता रहे अपितु अपने कर्मचारियों से भी सावधान रहे। जो राजा इनका पालन नहीं करेगा निश्चित रुप से एक दिन वह स्वयं नष्ट हो जाएगा। मनु ने चर-व्यवस्था का उल्लेख करते हुए इसे 'रक्षाधिकृत" (पुलिस) के अंतर्गत बताते हुए दो भागों में बांटा है। प्रथम अपराध अनुसंधान विभाग दूसरा सामान्य पुलिस विभाग। इससे यह पता चलता है कि यह कहना कि अपराध विज्ञान आधुनिक विज्ञानों में सबसे नया विज्ञान है असत्य है। प्राचीन काल में अपराध अनुसंधान किस प्रकार किया जाता था इस संबंध में कई कथाएं मिलती हैं। </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">इसी प्रकार जासूसी में आजकल महिलाओं का प्रयोग अत्यंत व्यापक हो गया है पर वह भी नया नहीं है। प्राचीन भारत में स्त्रियों का प्रयोग गुप्तचरी के लिए किया जाता था। अपराधियों को पकडने के लिए वेश्याओं का प्रयोग किया जबकि सुंदर एवं संचारिकाओं को शत्रु पक्ष में भेजा जाता था। जो राजपरिवार के सदस्यों को अपने रुप जाल में फांस ठिकाने लगाने के काम आती थी। विषकन्याओं का उपयोग राजाओं व राजपुरुषों की हत्या के लिए किया जाता था। इसके अतिरिक्त राज्य के अंदर ही आम जनता के बीच गुप्तचरी के लिए गुप्तचर सुंदरियां सार्वजनिक भोजनालयों और मदिरालयों में भी कार्य करती थी।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">हम पुनः चर (चरकार्य यानी गुप्तचरी) व्यवस्था पर आते हैं। अपराध अनुसंधान विभाग के कर्मचारी साधारण वेशभूषा में रहते थे और अत्यंत गुप्त रुप से विभिन्न प्रकार के अपराधियों की जांच करते थे। विभिन्न क्षेत्रों के लिए विभिन्न उप-विभाग हुआ करते थे। कौटिल्य चाणक्य ने भी कहा है कि भिन्न-भिन्न कार्यक्षेत्रों के लिए भिन्न-भिन्न चर विभाग होने चाहिएं।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">मनु ने राजा के लिए निर्देश दिए थे कि, राजा रोज अपने गुप्तचरों के साथ बैठक करा करे व आवश्यक सूचनाएं प्राप्त करे और इस आधार पर अपने वरिष्ठ चरों के साथ विचार-विमर्श करे। गुप्तचरों की भर्ती अत्यंत सतर्कतापूर्वक करे तथा सत्यनिष्ठ, होशियार, बुद्धिमान विश्वासपात्र लोगों को ही नियुक्त करे। चाणक्य ने भी कहा है कि राजा एक गुप्तचर पर विश्वास न करे वरन् भिन्न-भिन्न तीन गुप्तचरों द्वारा सूचना की पुष्टि हो जाने पर ही विश्वास करे। गुप्तचरों को पर्याप्त वेतन दिया जाना चाहिए जिससे कि वह परिवार की ओर से निश्ंिचत हो कार्य कर सके। गलत सूचना देने पर चर को दंडित करना चाहिए।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">भारत में गुप्तचरी का सर्वप्रथम संकेत ऋगवेद में मिलता है। अथर्ववेद में भी ऐसे अनेक संकेत हैं। अथर्ववेद में वरुण को सहस्त्रनेत्र कहा गया है। अर्थात् वरुण के सहस्त्रों (हजारों) गुप्तचर। गुप्तचर ही राजा के नेत्र होते हैं। उन्हीं के माध्यम से राजा पूरे समाज-प्रजा की सभी सूचनाएं प्राप्त कर उनका ध्यान रख सकता है। शत्रुओं और अपराधियों के बारे में सूचनाएं पाकर उचित न्याय कर सकता है। वेदों में गुप्तचारिणी सभा का भी उल्लेख है जो दस्युओं से संबंधित सूचनाएं देने का कार्य करती थी। स्त्री गुप्तचरों की परंपरा वैदिक काल में ही आरंभ हो गई थी। ऋषियों की तपस्या भंग करने के लिए आनेवाली अप्सराएं गुप्तचर नारियां ही तो थी।</span></div>
</div>
Shirish Saprehttp://www.blogger.com/profile/12101620590252946119noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8695605854559624606.post-27349712664888901302015-10-13T03:21:00.001-07:002015-10-13T03:28:55.195-07:00<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<b><span style="font-size: large;">दुर्गापूजोत्सव की परंपरा - इतिहास के झरोखे से</span></b><br />
<span style="font-size: large;"><b><br /></b>
सर्वत्र देवी दुर्गा 'शक्ति" का प्रतीक है। बंगाली मनुष्य के लिए तो दुर्गा मानो उनकी मॉं ही है। 'आमार मा" कहकर वे देवी दुर्गा के चरणों पर अपना मस्तक बडी श्रद्धा के साथ रखते समय भावविव्हल हो जाते हैं। स्वतंत्रता की लडाई के समय क्रांतिकारियों को इसी मॉं में भारत का दर्शन होता था। बंगालियों के भावविश्व में दुर्गा पूजा को जो अनन्य महत्व प्राप्त है उसकी पूर्वपीठिका के संबंध में अधिकतर लोग अपरिचित हैं उसीका यह थोडासा सिंहावलोकन है।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">दुर्गापूजाोत्सव की परंपरा बडी मनोरंजक व कुछ अनपेक्षित भी है। बंगाली साहित्य में पहला उल्लेख पंद्रहवी शताब्दी के कृतिवास के रामायण का संभवतः है। रावण को मारने के सभी प्रयत्न निष्फल होने पर राम ने यह आराधना की। देवी को जगाने के लिए राम ने 'अकालबोधन" (असमय जगाना) किया। यह संज्ञा आज भी प्रचलित है। इसका काल अश्विन शुद्ध षष्ठी से दशमी तक का कहा जाता है। दुर्गा के वर के पश्चात ही राम ने रावण को मारा। बंगाल में होनेवाली पूजा राम द्वारा की गई पूजा के समान ही होती है। कोलकाता में कुछ स्थानों पर यह पूजा और भी पंद्रह दिनों तक चलती है और उसका उद्यापन दीवाली की अमावस्या को होता है।</span><br />
<span style="font-size: large;">लगभग 200 वर्षों तक पूजा घर-घर में अपने सामर्थ्यानुसार की जाती रही और वह भी मूर्ती की न होकर घट या श्रीशालिग्राम शिला की। उत्सव का आडबंर अचूक किस समय आरंभ हुआ यह कहना जरा कठिन ही है। फिर भी नवद्वीप के राजा कृष्णचंद्र राय (1710-82) के काल में पहला ज्ञात महोत्सव संपन्न हुआ। 1757 में प्लासी की विजय के पश्चात कृष्णचंद्र ने लॉर्ड क्लाइव्ह को सूचित किया कि धूमधडाके से दुर्गा पूजा की जाए। उस जमाने में एक म्लेच्छ के हाथों पूजा होना असंभव ही था इसलिए राजा ने क्लाइव्ह की ओर से पूजा की। उस समय कुल खर्च 16 हजार आया था। ईस्ट इंडिया कंपनी की ओर से 12 हजार दिए गए थे। क्लाइव्ह ने पूरा समारंभ हाथी पर बैठकर देखा था। बहुत बडे भोज का आयोजन हुआ श्रीलंका और ब्रह्मदेश (म्यंमार) से नर्तकियां बुलवाई गई थी। संपन्नता का यह प्रदर्शन आगे भी बरसों तक जारी रहा।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">सन् 1956 में कर व्यवस्था पक्की हो गई इसीमें से जमीनदारों-मालगुजारों का एक नया संपन्न वर्ग अस्तित्व में आया। बाडिशा के सावर्ण राय चौधरी ने मात्र 1300 रुपये में पेशगी देकर लिए हुए तीन गांव बढ़ते-बढ़ते कोलकाता महानगर में तब्दील हो गए। कंपनी का कुसुम सौरभ चारों ओर महकने लगा। पारसी, अफगानी, हब्शी, रुसी आदि भी आने लगे। कोलकाता ने पैसे के पेड का रुप धारण कर लिया। सारा पांडित्य और हुनर यहां एकत्रित होने लगा। विलायत में यह कहावत प्रचलन में आ गई - 'गोइंग टू कोलकाता टू शेक द पगोडा ट्री"। अर्थात् जिसमें दम है वह यहां आए और पैसा बनाए। इन सारे नवधनाढ्य लोगों ने दुर्गापूजा बडे पैमाने पर मनाना आरंभ कर दिया।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">19 वी शताब्दी के प्रारंभ में कोलकाता की पूजा के वर्णन विस्तारपूर्वक अंग्रेजी समाचार पत्र छापने लगे और विलायत के समाचार पत्र भी उसी रौं में बहकर कुछ अद्भुत पढ़ने के लिए मिलेगा इसलिए छापने लगे। 1819 के 'कोलकाता जर्नल" के अंक में यह छपा था कि निकी नाम की गोरांगी जो कि उस जमाने की सबसे महंगी नर्तकी थी का नाच होगा। राजा रामचंद्र के घर की इस पूजा उत्सव की तुलना अरेबियन नाइट्स के शाही वातावरण से की गई थी। 1829 में लॉर्ड बैंटिक पत्नी सहित एक उत्सव में पधारे थे। उनका स्वागत 'गॉड सेव द किंग" के गान से किया गया था। (इसी वर्ष बैंटिक ने सती प्रथा बंद की थी) जमीनदार अपनी पूजा की ओर लोग आकर्षित हों इसलिए विज्ञापन दिया करते थे। जिसमें यह बतलाया जाता था कि फलां-फलां नर्तकी का नाच रखा गया है। पंचमी की सुबह से उत्सव शुरु होकर चारों ओर हलचल मच जाती थी। हलवाइयों और फूल बेचनेवालों की परेशानी बढ़ जाती थी। जमीनदारों में स्पर्धा मच जाती थी। भोजन के लिए लगनेवाले केले के पत्ते बेचनेवाले, हमाल, भोइयों के भाव बढ़ जाते। ढ़ोल-ताशे बजानेवाले चौराहों पर ढ़ोल बजाते खडे हो जाते। उन्हें चार दिनों के लिए ठेके पर ले लिया जाता। रात-रात भर नाचना-गाना, भोज चलते। मैदानों में नाटक आदि चलते, खेल चलते, आतिशबाजी होती। दशमी को विसर्जन होता और बाद में स्नेह मिलन होता।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">आगे चलकर नदिया, वर्धमान, नाटोर, शोभा बाजार के प्रसिद्ध उत्सवों की धूम कम होने लगी। 'ऊंची दुकान फीका पकवान" वाली स्थिति जमीनदारों की हो जाने के कारण उत्सवों की बहार ढ़लान पर आ गई। जमीनदारों के आश्रितों और बेकार लोगों की भीड जिनको इस मौज-मजे की आदत पड गई थी उन्होंने चुप न बैठते सार्वजनिक आयोजन किए जाएं का हल निकाला। गुप्तीपाडा के बारह प्रतिष्ठों ने एकत्रित होकर चंदा कर यह पूजा प्रारंभ की इसलिए लोग इसे 'बारोवारी पूजा" कहने लगे। बारोवारी का यह उन्माद बहुत शीघ्र ही फैल गया। आज भी सार्वजनिक इस अर्थ से यह बारोवारी शब्द रुढ़ है।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">मुहल्लावार केंद्र बन गए। चंदा वसूली चालू हो गई। नौबत यहां तक आ गई कि भद्र महिलाओं तक को रोककर इच्छित चंदा मांगा जाने लगा। चंदेबाजों की वाहियात बातों से बचने के लिए पैसे ना होने पर महिलाएं अपने गहने तक उन्हें सौंपने लगी। आपस में झगडे भी होने लगे। वैष्णवों और शाक्तों का बलि पर से झगडा होने लगा। विवाद हिंदुओ का और मध्यस्थता साहब बहादुर की। उसने फैसला दिया कि वैष्णव पहले पूजा करें फिर शाक्त करें। आज जिस प्रकार से ऊंची से ऊंची प्रतिमाओंें की और अवैध वसूली की होड मचती है वैसी उस जमाने में भी मचने लगी।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">उस जमाने में किए जानेवाले पूजा उत्सवों का सबसे विकृत पहलू था - गोरे साहब बहादुर की चाटुकारिता। आज जिस प्रकार अपप्रवृत्तियों की आलोचना होती है वैसी उस जमाने में भी होती थी। गोरे साहब से पूजा करवाई जाती है की आलोचना समाचार पत्रों में भी छपती थी। आज ही के समान उस समय भी नाच-गाने के शोर-शराबे से पूजा की पवित्रता भंग होती है, कष्ट होता है की शिकायत बुजुर्ग लोग किया करते थे। कुछ ब्रिटिश भी इन उत्सवों के विरोध में थे। उनका मत था कि इस प्रकार की पागलपन भरी मूर्ति पूजा के समारोहों को प्रोत्साहन नहीं दिया जाना चाहिए, अंग्रेज अधिकारियों को इसमें शामिल नहीं होना चाहिए। वैसे आगे चलकर जब स्वतंत्रता की लडाई जोर पकडने लगी तो इन अंग्रेजों का महत्व कुछ कम होने लगा। </span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त कुछ घमंडी डेढ़ गुजरे धनिक हिंदू चापलूसी की हदें लांघ जाते थे। अंग्रेज अधिकारियों को जो चाहिए वह परोसा जाता था। ऊंचे दर्जे की शराब, मांसाहारी पदार्थ यहां तक कि गोमांस तक। कुछ चापलूस देवी को खीर के साथ कॉफी-सेंडविच का भोग लगाते थे। उस समय प्रथा यह थी कि देवी की प्रतिमा के पीछे शिव पुराण के चित्र रंगे जाते थे। परंतु, ये चापलूस रानी व्हिक्टोरिया, परियों आदि के चित्र रंगते थे। यदि साहब ने बिछायत पर पेशाब कर दी तो कहा जाता 'हुक्के का गुलाब पानी ढुल गया होगा"।</span><br />
<span style="font-size: large;">परंतु, जिस प्रकार से कीचड में कमल खिलता है वैसे ही इन विकृतियों में से ही कुछ अच्छे का जन्म हुआ। इन दुरावस्थाओं की धज्जियां बंकिमचंद्र चटोपाध्याय ने उडाना आरंभ की। उन्होंने 'आमार दुर्गोत्सव" निबंध में दशप्रहरण धारिणी दुर्गा पुनः जनमानस में प्रतिष्ठित की। 'वंदे मातरम्" का महान मंत्र दिया। महान मनीषियों विवेकानंद, भगिनी निवेदिता, बिपीनचंद्रपाल, श्री अरविंद आदि ने देवी दुर्गा का तेजस्वी रुप देशबंधुओं के सामने रखकर जनता की आंखे खोल दी। सारा हीनत्व समाप्त हो गया। सारी धमाचौकडी का रुप बदलकर दुष्टों का निर्दालन करनेवाली देवी दुर्गा का तेजस्वी रुप स्थापित हुआ।</span></div>
Shirish Saprehttp://www.blogger.com/profile/12101620590252946119noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8695605854559624606.post-6768349323816302202015-08-26T01:43:00.001-07:002015-08-26T01:43:30.811-07:00<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">18 अगस्त पतेती - पारसी नूतनवर्ष</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b>पारसीयों का भारत से संबंध</b> </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">ईरान या पर्शिया के निवासी पारसी और उनका साम्राज्य जोराष्ट्रियन और उनके पैगंबर का नाम जरतुष्ट्र। 651 में अरबों ने पर्शियन साम्राज्य को परास्त कर दिया। अरबों द्वारा अपने राज में ईरानियों का जबरदस्ती धर्मांतरण किया गया तब कुछ ईरानी निर्वासित होकर गुजरात में आए। आज के पारसी उन्हीं ईरानी निर्वासितों के वंशज हैं पर भारत में आए हुए ये पहले ईरानी नहीं। ईरान के सासानी घराने के कार्यकाल (ई. स. 226 से 651) में भी भारत और ईरान में व्यापारिक और सांस्कृतिक संबंध थे। इसके अलावा महाभारत, पुराणों, कालीदास के रघुवंश इन ग्रंथों में भी पारसिकों (पार्स. पारसा, सिका-शक) का उल्लेख आता है। कालीदास ने लिखा है अपरांत (कोंकण, पश्चिमी समुद्रतट) जीतने के बाद रघु पारसिकों को जीतने निकला था। कुषाण साम्राज्य की पराजय के बाद यानी 4थी और 7वीं शताब्दी में इन गोरे पारसिक योद्धाओं ने सासानी घराने के सार्वभौमत्वतले राजस्थान से काश्मीर के दरम्यान एक साम्राज्य स्थापित किया था। गिरनार, कार्ला और नाशिक में मिले शिलालेखों में (पार्थव, पार्थियन) उल्लेख मिलता है। ई. पू. 126 पार्थियन सम्राट मिनिएंदर (ई. पू. 155-130) सौराष्ट्र पर राज्य किया था तो, पल्लव राजा बाद में कांजीपुरम के सम्राट बने थे। उन्होंने दक्षिण के तीन बडे राज घरानों में से एक की स्थापना की थी।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">ईरान से निकला दूसरा गुट मागी पुरोहितों का जो सिस्तान (सकद्वीप) से निकले थे। दक्षिण मारवाड के माघ या भोजक ब्राह्मणों में वे घुल मिल गए। इन्हीं माघी या भोजक ब्राह्मणों ने हिंदुओं में सूर्योपासना आरंभ की। मुस्लिम इतिहासकार भी गवाही देते हैं कि, प्राचीन मध्य युग में भारत में ईरानी जोराष्ट्रीयन थे।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">पारसियों के आरंभिक (भारत में बसने के) इतिहास के बारे में एकमात्र लिखित साक्ष्य है 'किस्सा-इ-संजान"। ''पारसी जब संजान के राजा जादी राणा के पास संजान में रहने की अनुमति लेने गए तब उसने पांच शर्तें डाली- 'राजा को जोराष्ट्रियन धर्म समझाकर बतलाएं, पारसी मातृभाषा के रुप में गुजराती को स्वीकारें, पारसी स्त्रियां साडी पहनें, पारसी अपने पास के सारे हथियार सरकार के पास जमा करें और अपने विवाह की बारातें रात के अंधेरे में निकालें। यह अंतिम शर्त, बहुधा निर्वासितों ने स्वयं द्वारा की हुई विनती पर डाली गई थी। इस परायी जमात की ओर अन्य जमातों का ध्यान आकृष्ट न हो यह इसके पीछे का उद्देश्य होना चाहिए। इस किस्से के अलावा गुजराती गर्बों, समूह गीतों, नृत्यों, आदि में ईरानी निर्वासित और राजा जाधव राणा की भेंट के बारे में विस्तृत विवरण मिलता है। इस प्रकार पारसी समुदाय दूध में घुली हुई शक्कर की भांति यहां रहने लगा।</span></div>
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<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">सन् 1200 में "नेरीओसांग धवल' नामके एक पारसी पुरोहित ने संपूर्ण 'अवेस्ता" (पारसियों का धर्मग्रंथ) का संस्कृत में रुपांतर किया। तत्कालीन हिंदू विद्वानों के सुविधा के लिए उसने यह उपक्रम किया होना चाहिए। नेरीओसांग द्वारा किया हुआ भाषांतर आज भी उपलब्ध है। पारसियों ने गुजराती भाषा के अध्ययन को भी बढ़ावा दिया। गुजराती भाषा में प्रकाशित पहला वृत्तपत्र था 'द बॉम्बे समाचार" (1822) फर्दुनजी मर्जबान उसके पहले संपादक थे। </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">पारसियों ने भारत को तीन प्राचीन कारीगिरी-नक्काशी की देन दी है। वे हैं सुरतीघाट, गारो और तनचोई। गारो और तनचोई मूलतः चीनी हुनर है। तीन पारसी भाई अनेक वर्षों तक चीन में रहे और वहां यह कला उन्होंने सीखी फिर सूरत में आकर यहां बुनाई का व्यवसाय आरंभ किया। स्थानीय लोग उन्हें तनचोई कहने लगे। तन यानी तीन और चोई यानी चीनी। उनका मूलनाम था जोशी। उनकी ख्याती देशभर में फैली हुई थी। जब यह प्रसिद्धि गांधीजी के कानों पर गई तो वे पैदल ही उनसे मिलने पहुंचे। वहां जोशी के कार्य को देख वे बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने कहा कि 'जब भारत स्वतंत्र होगा तब भारत सरकार 'तनचोई कसीदा केंद्र" देशभर में शुरु करने की जिम्मेदारी आप पर सौंपेगी।" गांधीजी ने अपने वचन का पालन किया। </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">भारत के अर्वाचीन इतिहासकाल में पारसियों ने भारत के निर्माण में बहुत सक्रिय भाग लिया है। इस देश की स्वतंत्रता की लडाई में महर्षि दादाभाई नौरोजी (1825 से 1917) के नेतृत्व को भारतीय नेताओं ने माना था। इनके अलावा अन्य दो पारसी जिनका राष्ट्रीय आंदोलन से संबंध था वे थे सिर फिरोजशाह मेहता (1845 से 1915) और सर दिनशा वाच्छा (1844 से 1936)। राष्ट्रीय आंदोलन में स्वयं का ऐसा खास स्थान निर्मित करनेवाली पहली पारसी महिला थी भिकाजी कामा। लाला हरदयाल, विनायक दामोदर सावरकर, आदि जैसे राष्ट्रवादीयों का उन्हें समर्थन प्राप्त था। 18 अगस्त 1907 को जर्मनों के सामने उनकी मातृभाषा में दिए भाषण में एक ध्वज फहराया था जिसमें थोडा फेरफार कर आज का राष्ट्रध्वज बना। उन्होंने देवनागरी लिपि का भी प्रसार किया। उनका प्रतिपादन था हिंदी ही भारत की सर्वमान्य भाषा रहेगी। </span></div>
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<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">भारत के औद्योगिक क्षेत्र का नेतृत्व जमशेदजी टाटा ने किया और उन्हीं के कदमों पर चलकर भारतीय उद्योगीयों ने भारत की कारखानेदारी को आज का यह विशाल रुप दिया है। रॉयल सोसायटी की फेलोशिप का सम्मान सबसे पहले एक पारसी अर्देसी कर्सेजटी वाडिया को मिला था। वे सबसे पहले मुंबई में गैस के दीए लाए थे। दिनशॉ पेरिट, कावसी जहांगीर, गोदरेज आदि अन्य प्रसिद्ध नाम हैं। बैंक क्षेत्र के प्रवर्तक भी पारसी ही थे। शापुरजी पालनजी मिस्त्री आधुनिक मुंबई के शिल्पकार हैं तो, एम. एन. दस्तुर की कंपनी अंतरराष्ट्रीय कन्सल्टिंग इंजीनिअर्स के रुप में काम करनेवाली पहली भारतीय कंपनी है। भारत की पहली वास्तुशास्त्रज्ञ एक पारसी महिला है पेरीन जे. मिस्त्री। इतिहास बतलाता है कि टाटा ने हमेशा से ही स्त्रियों को प्रोत्साहन दिया।</span></div>
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<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">पारसियों ने जिस प्रकार से भारत के व्यापार-उद्योग का विकास किया वैसे ही व्यवसाय के क्षेत्र में भी नाम कमाया। पारसियों ने दो प्रमुख शास्त्रज्ञ-वैज्ञानिक भी दिए अणु-ऊर्जा संशोधन के क्षेत्र में होमी जहांगीर भाभा और भूगर्भशास्त्र में दाराशॉ नोशेरवान वाडिया। चिकित्सा शास्त्र में भी पारसियों ने महत्वपूर्ण काम किया है और विज्ञान और चिकित्सा के क्षेत्र में पारसियों ने अंतरराष्ट्रीय ख्याती प्राप्त की। सर जमशेटजी जीजीभॉय ने 3 जनवरी 1843 को जे. जे. हॉस्पिटल की नींव डाली। उस समय मुंबई में सामान्य लोगों के लिए एक भी अस्पताल नहीं था। आंखों का पहला अस्पताल मुंबई भायखला में सर कावसजी जहांगीर ने खोला था। इन्होंने ही सूरत में पहला प्रसूतीगृह खोला था। लेडी साकरबाई ने 1874 में पहला पशु चिकित्सालय खोलने के साथ ही प्राणियों को क्रूरता से बचानेवाली संस्था द सोसायटी फॉर द प्रिव्हेन्शन ऑफ क्रुएल्टी टु द एनिमल्स स्थापित की थी। </span></div>
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<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">पारसियों के रीति-रिवाज हिंदुओं से मिलते-जुलते हैं - कमर में ऊन के पट्टे की कश्ती (जनेऊ) बांधते हैं। पंच महाभूतों की पूजा करते हैं। सूर्य की उपासना करते हैं। विवाहादि मुहूर्त के समय मंगलाष्टक का उच्चारण करते हैं उस समय वधू को चंदन का उबटन लगाते हैं। गोमूत्र, गोमय को पवित्र मानते हैं और प्रायश्चित के समय उनको उपयोग में लाते हैं। नवजोत (उपनयन संस्कार) (प्रत्येक पारसी के जीवन की सबसे महत्वपूर्ण घटना) संस्कार करते समय दरवाजे के बाहर रंगोली निकालते हैं। स्त्री-पुरुष के कपाल पर कुंकुम तिलक लगाते हैं। विवाह के समय वर-वधू आमने-सामने बैठते हैं और पुरोहित उनके बीच अंतःपाट पकडकर रखते हैं। पुरोहित अग्नि को चंदन और धूप की आहुती देते हैं। अवेस्ता के कुछ सुंदर उपदेश और आशीर्वाद का प्रारंभ होता है। सारी विधि में संस्कृत कही जाती है। विवाह में अक्षताओं का प्रयोग करते हैं। केले के पत्ते पर भोजन करते हैं।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">अपने धर्म के आचरण की स्वतंत्रता और खुशहाली मिले इस हेतु पारसी भारत में आए। जो उन्हें मिली भी इसीलिए उनके पैगंबर जरतुष्ट्र (जरतुष्ट्र एक खिताब है- इसका अर्थ सुवर्ण प्रकाश) की सीख हम जाने यह आवश्यक लगता है। लेकिन विस्तारभयावश वह दे नहीं रहा हूं फिर भी अत्यंत संक्षिप्त सार यह है- संसार में एक ही ईश्वर है और वह है आहुरमाजदा। (मानवी इतिहास में ऐसा कहनेवाला बहुधा वह पहला ही पैगंबर होना चाहिए) आहुरमाजदा को वह जीवन और ज्ञान, तेज और सत्य, सद्गुण और न्याय, प्रेम और दया का देवता मानता है। उसकी सीख का मूलभूत तत्त्व है - रुचि-अरुचि की स्वतंत्रता। सुख और दुख मानव के अच्छे या बुरे कृत्यों के फल हैं। ईशभीरुओं को शुभ फल मिलता है तो, दुष्टों को दीर्घकाल पीडा होती है। जरतुष्ट्र की सीख का सार है अपने साथ के लोगों के साथ अच्छा व्यवहार करो। उसका ध्येय वाक्य है - अच्छे विचार, उत्तम शब्द और सत्कृत्य। </span></div>
</div>
Shirish Saprehttp://www.blogger.com/profile/12101620590252946119noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8695605854559624606.post-81180302858728083552015-08-17T21:19:00.002-07:002015-08-17T21:19:20.543-07:00<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">18 अगस्त बाजीराव पेशवा (प्रथम) जयंति</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b>विराट व्यक्तित्व का स्वामी - बाजीराव पेशवा प्रथम</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">पेशवा बाजीराव के नाम से सुविख्यात व्यक्ति का बरही के दिन रखा गया जन्म नक्षत्र से पडनेवाला नाम 'विश्वनाथ" (विसाजी) था, यह नाम इनके दादा का भी था। इन्हें 'विश्वासराव" भी कहा जाता रहा। बताया जाता है कि जिस समय बालाजी विश्वनाथ उनके द्वारा पूर्व में लिखी गई वह बखर (मराठी में लिखा गद्यमय इतिहास) पढ़ रहे थे, जिसमें 'बाजी" नाम के वीर पुरुषों की पूरी सूची ही थी, तो संयोग मात्र से उसी समय पर उन्हें जब पुत्र प्राप्ति का सुसमाचार मिला तो सहसा उन्होंने उसका नामकरण 'बाजीराव" कर दिया। वैसे 'बाजी" शब्द फारसी भाषा का है। इतिहास को अज्ञात किसी प्रसंग या प्रकरण से मराठी में 'बाजीराव" यह सम्मानजनक नामकरण बडे संपन्न, अकडैल, ठाट-बाट से रहनेवाले किसी व्यक्ति के लिए प्रयुक्त हुआ और फिर आगे यह इसी अर्थ में सगर्व प्रयोग में लाया जाने लगा। माता राधाबाई लाड-प्यार से अपने पुत्र बाजीराव को 'राऊ" (राव अर्थात् बाजीराव नाम का संक्षिप्तिकरण) नाम से पुकारती तो स्वयं बाजीराव की संतान और कनिष्ठ पीढ़ी के लोग उन्हें सम्मानजनक 'बाबासाहेब" नाम से संबोधित करते थे।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">बाजीराव जन्मतः ही एक वर्धिष्णु प्रशासक के पुत्र रहे। जन्मना वे ब्राह्मण थे तथापि मूलरुप से वे क्षात्र-प्रवृत्ति रहे हों, अतः एक संपन्न प्रशासक के घर में प्राप्त शिक्षा-दीक्षा से उनके क्षात्र-भाव में विलक्षण निखार आया। पेशवा बाजीराव की अपने सनातन हिंदू-धर्म में नितांत श्रद्धा थी। परंतु, धर्म के प्रति वे सश्रद्ध थे, अंधश्रद्ध नहीं। उन्हें अपने ब्राह्मण होने में किसी संकोच के होने का कोई प्रश्न ही नहीं था। परंतु, उन्होंने अपनी इच्छा से क्षात्रकर्म का वरण किया था। अतः वे इसे ही अपना धर्म मानते थे। वे सतत् राजनय एवं युद्धकर्म में व्यस्त रहते, इतने कि अपने पारिवारिक शुभ कर्मों-विवाह-यज्ञोपवीतादि में भी उपस्थित रह नहीं पाते। यहां तक कि शोक एवं सूतकादि के पालन का धार्मिक दायित्व उन्होंने अपने काका के परिवार राजमाचीकर-भट को सौंप रखा था।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">बाजीराव के मन में अपनी माता के प्रति नितांत श्रद्धाभाव था। परिवार तथा संबंधियों पर उनकी एक आदरयुक्त धाक सी थी। इसीलिए सन् 1729 तक तो सब सुखपूर्वक चलता रहा। परंतु, जब पेशवा बाजीराव बुंदेलखंड में अपना रणकौशल दिखाकर वापस लौटे तो साथ में महाराज छत्रसाल की पुत्री मस्तानी से विवाहबद्ध हो उसे द्वितीय पत्नी के रुप में अपने साथ ले आए थे। वैसे उस काल में, एक पत्नीव्रत के लिए भगवान श्रीराम की प्रशंसा तो होती ही थी, परंतु आचरण का आदर्श माना नहीं जाता था। संपन्न, विद्वान, वीर और सामान्यतः सभी प्रकार के लोगों में एक से अधिक स्त्री को अपने घर-परिवार में विवाहित पत्नी, उपपत्नी या अविवाहित रुप में रखने का मानो रिवाज था। माता राधाबाई की कोई विवाहित सौत नहीं थी पर अविवाहित अवश्य थी। बाजीराव की पत्नी काशीबाई की सगी मॉं के साथ एक सौतेली मॉं भी थी। इस प्रकार पेशवा बाजीराव की दो पत्नियां होने की कोई समस्या किसी को नहीं थी। </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">समस्या यदि थी तो दूसरी पत्नी मस्तानी के पिता महाराज छत्रसाल तो हिंदू थे, परंतु उनकी मॉं यावनी यानी मुसलमान थी। ऐसे में मजहबे इस्लाम के अनुसार उसकी मॉं इस्लामधर्मी मानी ही नहीं जा सकती थी। परंतु, हिंदू समाज की प्रचलित मान्यता के अनुसार वह इस्लामधर्मी थी और उसके गर्भ में पली पुत्री मस्तानी भी मुस्लिम हुई, जबकि उसके पिता महाराजा छत्रसाल हिंदू थे। स्पष्ट है कि सामाजिक मान्यता का कोई व्यवस्थित निश्चित आधार नहीं होता।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">पेशवा की माताजी राधाबाई की दृष्टि में मस्तानी का यावनी यानी मुस्लिम होना ही आपत्ति का एकमेव और प्रबल कारण था। पुणे के सनातनी पंडित-पुरोहित ही नहीं तो तमाम उच्चवर्णीय भी इसी कारण से पेशवा बाजीराव के संदर्भ में सतत् विवाद की स्थिति उत्पन्न करते रहे। निश्चय ही आश्चर्य कहना होगा कि बाजीराव की पत्नी काशीबाई इस विषय में अत्यंत उदारमना थी और मस्तानी को वह अपनी छोटी बहन मानती थी। परंतु उसके अतिरिक्त पेशवा परिवार एकजुट हो मस्तानी के विरुद्ध था। मॉं राधाबाई, अनुज चिमाजी अप्पा, पुत्र नाना मस्तानी को समस्या मान येनकेन प्रकारेण उससे मुक्ति के विचार और आचार में संलग्न रहते। दूसरी ओर पेशवा बाजीराव पूर्ण प्रामाणिकता एवं प्रेमभाव से मस्तानी को अपनी अर्धांगिनी मानते थे और बिछुडाव की कल्पना तक उनके लिए असहनीय थी। इस एक मुद्दे के कारण पेशवा का परिवार मानो कलह की आग में धधक रहा था। अन्य किसी भी कारण से विचलित नहीं होनेवाले पेशवा बाजीराव मस्तानी के साथ हो रहे अन्याय, उसका हो रहा अपमान, उसे बाजीराव के जीवन से हटाने के लिए रचे जा रहे षड्यंत्र, यहां तक कि अंतिम उपाय के स्वरुप ही क्यों ना हो मस्तानी के जीवन को ही संकट में डालने की चालों की भनक से बाजीराव विचलित होने लगे थे और शनैः-शनै उनकी मानस की विचलित अवस्था बढ़ती ही चली जा रही थी।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">सामाजिक मान्यताओं का यह कितना विरोधाभास है कि एक ओर जोधाबाई और अन्य अनेक राजपूत राजकुल की हिंदू कन्याएं इस्लामी मुगल बादशाह अकबर के हरम में पत्नियां बनकर रहती हैं और मुगलशाही खानदान को बढ़ाती हैं। दूसरी ओर एक मस्तानी को ब्याह कर लाने से पुणे के सनातनी समाज में मानो भूचाल आ जाता है और पेशवा परिवार में कलह मच जाती है। ऐसी विपरीत सामाजिक मान्यताओं से उत्पन्न होनेवाली भयंकर स्थितियों को काल की महिमा के अतिरिक्त क्या कहा जा सकता है। भावना के आवेग में आज हम मॉं राधाबाई, अनुज चिमाजी अप्पा, पुत्र नाना को दोषी बता सकते हैं पर, जब हम तत्कालीन समाज में उन्हें खडा करें तो वे ठीक उस समाज जैसे प्रतीत होते हैं। अपवाद थे तो पेशवा बाजीराव और उनकी पत्नी काशीबाई जिनका आचरण व्यवहार तत्कालीन समाज के अनुसार नहीं तो उससे सैंकडों वर्ष आगे का था। एक ओर उनकी यह विलक्षण असाधारणता थी तो दूसरी ओर दकियानूसी परंपरावाला समाज। ऐसे में विवाद, कलह नहीं तो और क्या होता! इसी को विद्वत भाषा में 'माया" कहा जाता है! पेशवा बाजीराव के जीवन के संदर्भ में इस माया के प्रभाव को स्वीकारते हुए भी एक विलक्षण, अद्भुत तथ्य को अस्वीकार किया ही नहीं जा सकता कि इस गृहकलह रुपी अग्नि की आँच किसी भी सदस्य के माध्यम से उनके राजनैतिक दायित्व को नहीं लग पाई और वह सर्वथा अबाधित रहा। मॉं राधाबाई जैसी अनुभवी एवं निश्चयी महिला से राजकाज में हस्तक्षेप नहीं किया, नवयुवक पुत्र नाना ने भी कोई दुःसाहस नहीं किया। </span></div>
</div>
Shirish Saprehttp://www.blogger.com/profile/12101620590252946119noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8695605854559624606.post-59220274798673082962015-08-16T07:22:00.004-07:002015-08-16T07:22:33.929-07:00<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">सावन विशेष</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="font-size: large;"><b>शिव महिमा एवं वृहत्तर भारत की एकता के प्रतीक हैं द्वादश ज्योतिर्लिंग</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">पूरे विश्व में लिंग पूजा अत्यंत प्राचीन है। इस संबंध में वैदिक साहित्य में अनेकों प्रमाण मिलते हैं। चीन और जापान में भी लिंग पूजन के साक्ष्य मिलते हैं। अजरबैजान में भी एक पुराना शिव मंदिर है। इस मंदिर का निर्माण कब हुआ यह ठीक ठाक ढ़ंग से कहना संभव नहीं है। इजिप्त, यूनान, रोम आदि देशों में भी शिवलिंग पूजन होता रहा है। पश्चिम के कई देशों की कई जातियों में किसी ना किसी रुप में लिंग पूजा होती रही है। अमेरिका के प्राचीन निवासी भी लिंग पूजा किया करते थे। कंबोडिया और थाईलैंड की सीमा पर एक शिव मंदिर स्थित है। </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">वृहत्तर भारत में द्वादश ज्योतिर्लिंग का अपना एक विशेष स्थान है। द्वादश ज्योतिर्लिंग का विवरण शिव पुराण में दिया हुआ है। इस विवरण के अनुसार द्वादश ज्योतिर्लिंग इस प्रकार हैं - सौराष्ट्र गुजरात में सोमनाथ, श्रीशैल पर्वत (आंध्रप्रदेश) पर मल्लिकार्जुन, उज्जैन (म.प्र.) महाकाल, नर्मदा के तट पर ओंकारेश्वर, हिमालय पर्वत पर केदारेश्वर, सह्याद्रि पर्वत पर डाकिनी नामक स्थान पर भीमशंकर, वाराणसी (उ.प्र.) में विश्वनाथ, गोदावरी (महाराष्ट्र) के तट पर त्र्यम्बकेश्वर, बिहार में वैद्यनाथ, दारुक वन (आंध्रप्रदेश) में नागेश्वर, सेतुबंध पर रामेश्वर, शिवायल में घुमेश्वर। भारत में पूर्व से पश्चिम, उत्तर से दक्षिण में ये द्वादश ज्योतिर्लिंग अपना विशिष्ट इतिहास संजोए हुए हैं। </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">सोमनाथ - शिव का पहला अवतार सोमनाथ के रुप में हुआ। इस मंदिर और ज्योतिर्लिंग की महत्ता पौराणिक एवं ऐतिहासिक दोनो ही है। चंद्रमा ने इसकी स्थापना की थी। महमूद गजनवी ने पहली बार इस मंदिर को लूटा। इस मंदिर को अनेक बार लूटा गया और यह अनेक बार फिर से स्थापित हुआ। सन् 1413 में अंतिम बार मुस्लिम शासक सुलतान अहमद शाह ने इसे तोडा था। अंततोगत्वा सरदार पटेल के सत्प्रयास से इस मंदिर की पुनर्निमिति हुई।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">मल्लिकार्जुन-मल्लिका अर्थ पार्वती है और अर्जुन शिव का वाचक है इस प्रकार से यहां शिव-पार्वती दोनो स्थापित हैं। पुत्र प्राप्ति के लिए इस लिंगपूजन को विशेष मान्यता है। पुराणों के कथनानुसार शैल पर्वत के दर्शन मात्र से मानव पुनर्जन्म से मुक्त हो जाता है।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">महाकालेश्वर - इस ज्योतिर्लिंग के संबंध में अनेक कथाएं हैं। महाकालेश्वर सज्जनों का आश्रयदाता एवं दुष्टों का विनाशक है। महाकाल की गरिमा बढ़ाने में क्षिप्रा नदी सहायक है। हर 12वें वर्ष यहां सिंहस्थ का आयोजन होता है।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">ओंकारेश्वर - प्राकृतिक एवं भव्य दृश्यों के मध्य मांधाता पर्वत पर ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग का भव्य मंदिर है। यह शिला रुप में है। राजा मांधाता के नाम पर ही यह पर्वत प्रसिद्ध हुआ। पौराणिक कथा के अनुसार विंध्य पर्वत ने मानव रुप धारण कर शिवलिंगार्चन किया। उसी शिवलिंग के दो भाग हो गए एक को, ओंकारेश्वर तो दूसरे को ममलेश्वर (इच्छा पूर्ण करनेवाला ईश्वर कहा गया) </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">केदारनाथ - केदारेश्वर ज्योतिर्लिंग की स्थापना नर नारायण नामक देवों ने की। ऐसे तो नर नारायण अर्जुन और श्रीकृष्ण ही माने जाते हैं। इस मंदिर के निर्माण में भी छैनी हथौडी का प्रयोग नहीं हुआ है। यह केदार शिखर पर मंदाकिनी के तट पर स्थित है।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">भीमशंकर - इस ज्योतिर्लिंग के संबंध में विद्वानों में कुछ मतभेद हैं। सामान्यतः तो यही माना जाता है कि मुंबई से पूर्व और पुणे के उत्तर में भीमा नदी के उद्गम स्थान सह्याद्रि पर्वत के डाकिनी नामक स्थान पर यह स्थित है। एक अन्य कथा के अनुसार यह असम के कामरुप जिले के ब्रह्मपुत्र पहाडी पर स्थित शिवलिंग है।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">विश्वेश्वर - शिव का सांतवा ज्योतिर्लिंग काशी विश्वेश्वर या विश्वनाथ है। पौराणिंक मान्यता के अनुसार यहां शिव सदा विद्यमान रहते हैं। इस ज्योतिर्लिंग की स्थापना-संस्थापक आदि का इतिहास नहीं मिलता। हां, आद्यशंकराचार्य ने इस विश्वेश्वर लिंग की स्थापना की थी। चीनी यात्री ह्वेनसांग ने 100 फुट ऊंची मानवाकार विश्ववेश्वर की मूर्ती का उल्लेख किया है। सबसे पहले कुतुबुद्दीन ऐबक ने इसे तोडा था। उसीने सारनाथ के चक्र को भी तोडा था। 1494 में सिकंदर लोधी ने इसे तोडा। 1669 में औरंगजेब ने तोडा और इसे विश्वनाथ मस्जिद का रुप दे दिया। 1790 में देवी अहिल्या ने इसी मस्जिद के पास नया विश्वनाथ मंदिर बनवाया।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">त्र्यम्बकेश्वर - कहा जाता है कि गौतम ऋषि और दक्षिण की गंगा गोदावरी की प्रार्थना पर शिवजी यहां ज्योतिर्लिंग के रुप में प्रकट हुए थे। मंदिर के भीतर तीन शिवलिंग हैं वे क्रमशः ब्रह्मा, विष्णु और शिव के प्रतीक हैं। इसी कारण त्र्यम्बकेश्वर नाम पडा।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">वैद्यनाथेश्वर - शिवभक्त राक्षस राज रावण ने कैलाश पर्वत पर घोर तपस्या की और अपने ही हाथों से अपना सिर काटकर चढ़ाने लगा, नवां सिर चढ़ाने के पश्चात जब वह दसवां सिर चढ़ाने को उद्यत हुआ तो भगवान शंकर प्रकट हो गए। शिवशंकर को प्रसन्न जान रावण ने कैलाश पर स्थापित शिवलिंग को लंका में स्थापित करने का विचार किया। शिवजी ने कहा तुम इसे बीच में कहीं ना रखना। भगवान शंकर की आज्ञा ले रावण चल पडा परंतु, मार्ग में लघुशंका के लिए रुकने के कारण यह ज्योतिर्लिंग इसी स्थान पर स्थापित हो गया और वैद्यनाथ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">नागेश्वर - सुप्रिय नामक एक वैश्य शिवजी का अनन्य भक्त था। उस भक्त को दारुक नामके एक राक्षस ने पकड लिया और कारागार में बंद कर दिया। सुप्रिय कारागार में भी शिवभक्ति कर रहा है यह अवगत होेने पर राक्षस उसकी हत्या करने पहुंचा। शिवजी अपने भक्त की रक्षा के लिए कारागार में प्रकट हुए और वहीं उस दारुक दैत्य को मार डाला। नागेश्वर ज्योतिर्लिंग सभी कामनाओं को पूर्ण करनेवाला माना जाता है। यह ज्योतिर्लिंग पूर्णा-हिंगोली लाइन पर चौडी स्टेशन से 12 मील दूर औढ़ा नामक गांव में है। </span></div>
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<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">सेतुबंध रामेश्वरम् - तमिलनाडु के रामनाथम या रामनद जिले में स्थित है। रामचरित मानस के आधार पर समुद्र पर पुल बांधने के पूर्व ही रामेश्वरम् की स्थापना श्रीरामचंद्रजी ने की थी। रामकथा के अनुसार श्रीराम ने शिवजी से सदैव वहां रहने का आग्रह किया था तद्नुसार शिवजी वहां रामेश्वर ज्योतिर्लिंग के रुप में स्थापित हुए। दाक्षिणात्य कथा के अनुसार लंका पर विजय प्राप्त करने के पश्चात अयोध्या वापसी के समय रामेश्वर शिवलिंग की स्थापना की। इस ज्योतिर्लिंग को गंगा स्नान करवाना विशेष पुण्य का माना जाता है। रामेश्वरम शिवलिंग के बगल में ही हनुमदीश्वर शिवलिंग स्थापित है। हनुमानजी द्वारा कैलाश पर्वत से शिवलिंग लाने में देर हो जाने के कारण दूसरे मुहुर्त पर इस लिंग की स्थापना की गई थी।</span></div>
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<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
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<span style="font-size: large;">घूमेश्वर - शिव पुराण की कथा के अनुसार प्राचीन युग में देवगिरी नामक पर्वत के निकट सुधर्मा नाम का एक ब्राह्मण रहता था। उसकी पत्नी घुश्मा अत्यंत शिवभक्त थी। वह नित्य एक सौ एक पार्थिव शिवलिंगों की पूजा करती और उन्हें निकट के सरोवर में विसर्जित कर देती। एक दिन शिवजी ने प्रसन्न होकर उसे दर्शन दिए और घुश्मा के आग्रह पर जनहितार्थ वहीं ज्योतिर्लिंग के रुप में रहे। इस शिवलिंग को घुसणेश्वर या घृष्णेश्वर शिवलिंग भी कहा जाता है। यह ज्योतिर्लिंग दक्षिण के हैदराबाद के अंतर्गत दौलताबाद स्टेशन से बारह कि.मी. दूर स्थित है।</span></div>
</div>
Shirish Saprehttp://www.blogger.com/profile/12101620590252946119noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8695605854559624606.post-79859719735094329272015-07-31T23:20:00.003-07:002015-07-31T23:20:52.689-07:00<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b>राजनीति में वंशवाद</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">आज राजनैतिक क्षेत्र में चारों ओर वंशवाद का ही बोलबाला नजर आता है। पहले तो वंशवाद केवल कांग्रेस की ही बपौति था और नेहरु गांधी परिवार तक ही सीमित था। परंतु, वर्तमान में कमोबेश सभी राजनैतिक दल एवं लगभग सभी बडे राजनेता इस वंशवाद के पोषक नजर आ रहे हैं। इस वंशवाद की शुरुआत पंडित मोतीलाल नेहरु से ़शुरु हुई जो कांग्रेस के एक सुप्रतिष्ठित एवं सुस्थापित बडे नेता थे। जिन्होंने अपनी दूरदृष्टी से यह भांप लिया था कि लोकमान्य तिलक की मृत्यु के बाद कांग्रेस नेतृत्व में एक रिक्ती आ गई है उस रिक्ती को गांधीजी ही भर सकेंगे और वे ही उगते सूरज हैं जिनके पीछे भारत की जनता चलेगी और वे ही भविष्य के नेता होंगे। और उन्होंने अपने बेटे जवाहर (पंडित नेहरु) को गांधीजी से निकटस्थता बढ़ाने की सलाह दी जिससे की वे गांधीजी का आशीर्वाद प्राप्त कर राजनैतिक बुलंदियों को हासिल कर सकें। पंडित जवाहरलाल नेहरु ने अपने पिता की सलाह को माना और अंततः गांधीजी के प्रिय पात्र बन प्रधानमंत्री के पद तक पहुंचने में सफल भी रहे। हां यह ठीक है कि सरदार वल्लभभाई पटेल भी गांधीजी के निकटस्थों में से एक थे परंतु भाग्य ने नेहरुजी का साथ दिया। वैसे किसी भी प्रसिद्ध एवं बडे व्यक्ति के पास कई योग्य, अनुभवी, सक्षम नेतृत्व दे सकने की काबिलीयत रखने वाले विश्वासपात्र लोग होते ही हैं। परंतु, सर्वोच्च पद पर तो किसी एक व्यक्ति को ही बैठाया जा सकता है ना। जैसेकि बालासाहेब ठाकरे से जब एक बार पूछा गया था कि आपने श्री मनोहरराव जोशी को ही महाराष्ट्र का मुख्यमंत्री क्यों बनाया? तो उन्होंने यही जवाब दिया था कि मेरे पास कई योग्य व्यक्ति हैं परंतु मुझे उन सबमें श्री मनोहरराव जोशी ही सबसे योग्य लगे और इसीलिए मैंने उन्हें मुख्यमंत्री के पद पर आसीन कराया। बस इसी तरह से शायद गांधीजी को भी ऐसा ही कुछ लगा होगा और उन्होंने अपना आशीर्वाद पंडित नेहरु को दे दिया। </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">वैसे ही समकालीन जिन्ना से नेहरु की प्रतिद्वदिंता थी और दोनो ही बेरिस्टर और तुल्यबल भी थे,साथ ही दोनो आधुनिक विचारों वाले होने के अलावा अलग-अलग पार्टियों मुस्लिम लीग और कांग्रेस में थे। जो भी हो शायद इसका भी लाभ नेहरुजी को मिला हो। हां इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि पंडित जवाहरलाल नेहरु भारत की जनता के बीच एक अत्यंत लोकप्रिय व प्रभावशाली नेता थे और वे कितना प्रभावी थे यह तो हमें इसी बात से पता चलता है कि उनके प्रभाव से भारत के अंतिम गवर्नर जनरल लार्ड माउंटबैंटन की पत्नी लेडी एडविना भी न बच सकी थी। और अपनी लोकप्रियता व प्रभाव के कारण ही वे सबसे लम्बे समय तक भारत के प्रधानमंत्री रहे और अपनी राजभोग प्रिय प्रवृति के कारण अपनी बेटी इंदिरा को राजनीति में ले आए। हां यह भी सही है कि इंदिराजी नेहरुजी की मृत्यु के तत्काल बाद प्रधानमंत्री के पद पर उस तरह से आसीन नहीं हुई जिस तरह से की उनकी मृत्यु के तत्काल बाद राजीव गांधी हो गए थे। नेहरुजी की मृत्यु के बाद पहले लालबहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री बने। परंतु, ज्यादा समय तक जीवित न रह सके और अल्प कार्यकाल के बाद ताशकंद में उनका संदिग्ध परिस्थितियों मे स्वर्गवास हो गया। </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">उस जमाने में स्वतंत्रता संग्राम में नेहरुजी के साथ कार्य करने वाले कई वरिष्ठ कांग्रेसी उदा. कामराज, मोरारजी देसाई जैसे लोग जीवित थे। उन्होंने एक सिंडीकेट बनाकर श्रीमति इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री के पद पर यह सोचकर बैठाया कि उन्हें कठपुतली बनाकर वे राज करेंगे। परंतु, इंदिराजी उनसे बढ़कर कूटनीतिज्ञ एवं राजनीतिज्ञ निकली और उन्होने कांग्रेस दो फाडकर सिंडीकेट के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार नीलम संजीव रेड्डी को हराकर अपनी इंडीकेट कांग्रेस के माध्यम से श्री वी.वी.गिरी को राष्ट्रपति बनाने में सफलता पाई और उसके बाद प्रीविपर्स समाप्ति, बैंकों का राष्ट्रीयकरण जैसे बडे क्रांतिकारी कदम उठाकर और 1971 में पाकिस्तान को बुरी तरह से हराकर, उसके लगभग एक लाख सैनिकों से हथियार रखवाकर एवं पाकिस्तान के दो टुकडे कर बांग्लादेश बनाने में सफलता प्राप्त कर लोकप्रियता की नई ऊंचाइयों को छुआ। उनकी बांग्लादेश पर प्राप्त की गई अभूतपूर्व विजय के कारण विपक्षी तत्कालीन जनसंघ के नेता श्री अटलबिहारी बाजपेयी ने तो उन्हें देवी दुर्गा का अवतार कहकर सम्मानित किया। अपनी कूटनीति और राजनीति के बल पर ही उन्होंने सिक्कीम को भारत में विलय कर वृहत्तर भारत, अखंड भारत की दिशा में एक कदम बढ़ाने में भी सफलता पाई। परंतु सन 1975 में उच्च न्यायालय द्वारा उनके चुनाव को अवैध घोषित करने पर उच्च न्यायालय के आदेश का सम्मान कर त्याग-पत्र देने की बजाए उन्होंने आपातकाल का सहारा लिया और उनके पतन की शुरुआत हो गई। उसीमें पुत्र मोह से ग्रस्त होकर अपने बेलगाम तानाशाही प्रवृति वाले पुत्र संजय गांधी के अलोकतांत्रिक आचरण एवं व्यवहार को रोक न सकने के कारण वे अलोकप्रिय हो गई एवं आपातकाल को हटाने के बाद हुए 1977 के चुनाव में स्वयं तो हारी ही पूरी कांग्रेस भी हार गई और कांग्रेस फिर से विभाजित हो गई और जनता पार्टी के नाम से बेमेल पार्टियों के विलय से बनी पार्टी शासन में आ गई। लेकिन आपसी मनमुटाव और सिरफुटोव्वल के कारण अपना कार्यकाल पूरा न कर सकी। और इसी का लाभ उठाकर व बिहार में घटित हुए बेलछी कांड का व जनता पार्टी शासन द्वारा उठाए गए सतत इंदिरा विरोधी कदमों से अकेली पडी हुई एक महिला के प्रति उपजी सहानुभूति के कारण वे फिर से सत्तासीन हो गई।</span></div>
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<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">परंतु दुर्भाग्यवश एक विमान दुर्घटना में उनके पुत्र संजय गांधी नहीं रहे, अटलजी के शब्दों में कहें तो 'मध्यांह में सूर्यास्त हो गया" यह उद्गार अटलजी ने संजय गांधी को उनके द्वारा दी गई श्रद्धांजलि के समय निकाले गए थे, तो इंदिराजी के वंशवाद ने फिर से जोर पकडा और वे अपने बडे बेटे राजीव गांधी जो एक व्यवसायिक विमान चालक थे और जिनकी रुचि राजनीति में कतई न थी उनको राजनीति में ले आई, जो आगे जाकर प्रधानमंत्री जरुर बने पर राजनीति के दांव-पेंचों से अनभिज्ञ होने के कारण असफल ही सिद्ध हुए। 1984 में अपनी ही गलतियों के कारण श्रीमति इंदिरा गांधी को शहीद होना पडा और सहानुभूति की लहर पर आरुढ़ हो स्व. राजीव गांधी ने वह बहुमत हासिल कर दिखाया जो उनके नाना पंडित जवाहरलाल नेहरु को भी प्राप्त न हुआ था। परंतु राजनीति पर पकड न होने और अनुभवहीनता के चलते कभी हिंदू कार्ड तो कभी मुस्लिम कार्ड खेलने के चक्कर में सत्ता खो बैठे और अपने कार्यकाल की अपरिपक्वतावश की हुई गलतियों के कारण आतंकवाद का शिकार हो गए। और कुछ समय बाद इस वंशवाद के प्रभाव से उपजी अभिलाषा के कारण जो सोनिया गांधी राजनीति में पहले तो आने से इंकार करती थी वही सोनिया गांधी राजनीति में सक्रिय हो गई और धीरे से कांग्रेस की बागडोर सम्हाल ली और राजग को पराजित कर संप्रग के माध्यम से सत्ता की पायदान तक जा पहुंची। परंतु अपने विदेशी मूल के होने के कारण संभावित खतरों को भांप सत्ता सिंहासन पर भले ही आरुढ़ नहीं हुई परंतु अपने वंशवादी गुलाम मानसिकता के कांग्रेसियों के महान त्याग और बलिदान वाले नारों के बलबूते यह आभास निर्माण करने में जरुर सफल रही की उन्होंने आई हुई सत्ता को ठुकराया है। और वंशवादी गुलाम मानसिकता के कांग्रेसियों ने तो उनके इस (मजबूरीवश किए गए) 'महान त्याग" को गांधीजी के त्याग से भी बढ़कर बतलाना शुरु कर दिया। भले ही वे प्रधानमंत्री के पद पर आसीन नहीं हुई परंतु आज जो उनकी सर्वोच्च की स्थिति कांग्रेस में है और सरकार में रही है वह किसी से भी छुपी नहीं है। और इसी का लाभ उठाकर उन्होंने अपने बेटे राहुल गांधी को राजनीति के क्षेत्र में सर्वोच्च पद की ओर अग्रसर करना शुरु कर दिया था और बेटा कहीं कम न पड जाए इसलिए अपने ही वंशवादी चाटुकारितावालों की ही नई पीढ़ी के कुछ युवा सांसदों को भी तैयार करना शुरु कर दिया जो भविष्य में जब कभी राहुल सत्तासीन हुए तो उनके काम आएंगे।</span></div>
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<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
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<span style="font-size: large;">इस वंशवाद की आलोचना, विरोध करने वाले भी इस वंशवाद की परंपरा के प्रभाव से बच न सके और जो भाजपा जनसंघ के जमाने से इस नेहरु गांधी परिवार के वंशवाद का मुखर विरोध और आलोचना बडे जोर-शोर से करती थी वह भी समय के साथ इस विरोध को भूलकर इसी वंशवाद की रौं में बह गई और इस वंशवाद की परंपरा में नए आयाम जोडते हुए कांग्रेस से कई गुना आगे बढ़ गई। और जहां कांग्रेस में नेहरु-गांधी परिवार का वंशवाद ही शीर्ष पर था बाकी नेता तो वंशवाद के छोटे-मोटे टापू के रुप में ही दृष्टिगोचर होते थे वहीं भाजपा ने तो जो रणनीति अपनाई थी कि 'कांग्रेस को कांग्रेस के ही अखाडे में कांग्रेस के ही दांव से पटकनी देना" में पटकनी देने में तो वह निश्चय ही सफल रही। परंतु, उसका परिणाम यह हुआ कि खुद ही कांग्रेस के रंग में इतने गहरे रंग में रंग गई कि अपनी मूल पहचान, अपना मूल उद्देश्य, अपना अलगत्व ही खो बैठी और 'पार्टी विथ डिफरंस" का नारा जरुर बुलंद करती रही परंतु वह नारा हास्यास्पद रुप ले हास्य का पर्याय सा ही बन गया। और अब वंशवाद इतना सर चढ़कर बोल रहा है कि भाजपा के हर छोटे-बडे नेता का कोई ना कोई रिश्तेदार राजनीति में सक्रिय नजर आ रहा है। फिर भले ही इस वंशवाद को आगे बढ़ाने में पार्टी की किरकिरी भी क्यों ना हो जाए। </span></div>
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<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">केवल भाजपा ही नहीं तो भाजपा के साथ जो अन्य विरोधी दल थे जो कांग्रेस के वंशवाद की आलोचना में भाजपा से उन्नीसे नहीं तो बीसे ही बैठते होंगे उन्होने भी इसी वंशवाद को अपना लिया। उदा. इधर उत्तरप्रदेश में मुलायमसिंग के भाई और पुत्र दोनो ही राजनीति में सक्रिय हैं तो उधर बिहार में लालू यादव अपनी पत्नी और पत्नी के भाई तो, तमिलनाडु में करुणानिधि अपने पूरे कुनबे के साथ राजनीति में सक्रिय नजर आ रहे हैं। यह वंशवाद अब इतना बढ़ गया है कि महिला आरक्षण के इस दौर में यह नगर पालिका, निगमों में तो पार्षद पति, पार्षद भाई, पार्षद पिता के रुप में नजर आ रहा है। यदि यह महिला आरक्षण और वंशवाद का दौर यूं ही परवान चढ़ता रहा तो आज जहां केवल पार्षद पति आदि नजर आ रहे हैं वहीं कल को विधायक पति, सांसद पति, मंत्री पति आदि भी केंद्र से लेकर राज्य तक, राज्य के शहरों, गांवों में तक घूमते नजर आएंगे। अब तो इस वंशवाद ने हर क्षेत्र में प्रवेश कर लिया है। फिल्मों में भी पहले जहां केवल कपूर या चोपडा परिवार जैसे कुछ ही गिने-चुने परिवार वंशवाद का झंडा थामे हुए थे वहीं आज कई परिवार वंशवाद के पोषक नजर आ रहे हैं। और तो और इस वंशवाद ने धार्मिक क्षेत्र को भी अछूता नहीं रहने दिया है और शीघ्र ही वहां भी पिता के बाद पुत्र को लोग गद्दीनशीन होते देख सकेंगे। यह राजस शक्ति का प्रभाव है जो धार्मिक क्षेत्र में भी घुस आया है। लेकिन इस वंशवाद को दोष देना व्यर्थ है यह तो मानव की सहज राजभोग प्रवृत्ति है जो कमोबेश हर व्यक्ति में कम या ज्यादह मात्रा में मौजूद रहती ही है। लगभग हर व्यक्ति कम या अधिक मात्रा में चाहता है कि मैंने जो सत्ता भोग का आनंद लूटा है वही आगे भी जारी रहे और मेरे बाद मेरी पत्नी, पुत्र, पुत्री और अन्य रिश्तेदारों को भी पीढ़ी दर पीढ़ी आगे भी मिलता रहे और जीते जी तो क्या मरते वक्त तक वह इसी जुगाड में लगा रहता है और इसके लिए तमाम तरह के उचित, अनुचित तरीके अपनाने से भी बाज नहीं आता। उदाहरणार्थ ः इस वंशवाद के समर्थक नेतागणों द्वारा यह तर्क दिया गया कि 'बढ़ई का बेटा बढ़ई बनता है" तो नेता का बेटा नेता क्यों नहीं बन सकता? या 'जब डॉक्टर का बेटा डॉक्टर बन सकता है, व्यवसायी का बेटा व्यवसायी कर सकता है तो ऐसे में राजनीति करनेवाले का बेटा राजनीति क्यों नहीं कर सकता?" लेकिन यह तर्क देनेवाले यह भूल जाते हैं कि यह सामंती तर्क है कि 'राजा का बेटा राजा बनेगा" भले ही वह योग्य हो या कि अयोग्य। प्रजातंत्र में तो नेता प्रजा यानी जनता द्वारा चुना जाता है और इस तरह के तर्कों के आधार पर अपने पुत्र को नेता के रुप में थोपना सरासर प्रजातंत्र का अपमान नहीं हुआ क्या? लेकिन यह सभी दलों में हो रहा है और यह प्रवृति प्राचीन -काल से ही चली आ रही है। परंतु यहां यह याद दिला देना उचित होगा कि इस प्रवृति के दो ही अपवाद आधुनिक काल में हैं और वे हैं महात्मा गांधी और वीर सावरकर जिन्होने इस प्रवृति को प्रश्रय कभी भी नहीं दिया।</span></div>
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Shirish Saprehttp://www.blogger.com/profile/12101620590252946119noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8695605854559624606.post-13848556685346477912015-06-28T21:33:00.000-07:002015-06-28T21:33:02.767-07:00<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: center;">
<span style="font-size: large;"><b>बेतहाशा बढ़ती छुट्टियों के कहर से निजात कब मिलेगी, कौन दिलाएगा?</b></span></div>
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<span style="font-size: large;">सरकारी कर्मचारियों का कार्यालय से गायब रहना और नित नए बहाने बनाते रहना यह प्रवृत्ति कोई आज की नहीं है। यह प्रवृत्ति कितने लंबे समय से है यह हमें सम्राट चंद्रगुप्त के गुरु चाणक्य, जो एक कुशल राजनीतिज्ञ, कूटनीतिज्ञ, आयुर्वेदाचार्य आदि तो थे ही साथ ही एक कुशल प्रशासक एवं समस्याओं का संतोषजनक हल निकालने में भी अत्यंत पारंगत थे के जमाने में भी मौजूद थी इसका पता हमें इस कथा से मिलता है जो आज भी प्रासंगिक है-</span></div>
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<span style="font-size: large;">चाणक्य को निरीक्षण में यह नजर आया कि सरकारी कार्यालयों में कई बार कर्मचारियों की उपस्थिति बहुत बडे पैमाने पर कम रहती है। पूछताछ करने पर यह पता चला कि अनुपस्थित कर्मचारियों के घर में मॉं अथवा पिता का श्राद्ध है इसलिए वे नहीं आए हैं। अधिक जांच करने पर यह भी ध्यान में आया कि वर्ष में दो-तीन बार मॉं या पिता का श्राद्ध है कहकर कर्मचारी कार्यालय से गायब रहते हैं। चाणक्य के लिए यह कहना तो संभव था नहीं कि श्राद्ध ना करें। क्योंकि, धार्मिक भावना को ठेस पहुंचा नहीं सकते थे। इस पर चाणक्य ने यह मार्ग ढूंढ़ निकाला कि भाद्रपद महीने के अंतिम पंद्रह दिनों को पितृ-पक्ष का नाम देकर उन पंद्रह दिनों में सभी लोग अपने मृत संबंधियों के श्राद्ध करें।</span></div>
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<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">कुछ परिवारों में यदि कोई अडचन हो या श्राद्धकर्म करने के लिए पंडित (ब्राह्मण) उपलब्ध न हो सके तो अंतिम अमावस्या वाले दिन करें और चाणक्य ने उस दिन का नामकरण सर्वपितृ अमावस्या किया। इस प्रकार से बिना किसी की धार्मिक भावना को ठेस पहुंचाए चाणक्य ने इस कामचोरी और कार्यालय से गायब रहने की प्रवृत्ति पर काबू पाया। परंतु, कर्मचारियों के गायब रहने की यह समस्या आज फिर सिर उठाए खडी है। परिस्थितियां यहां तक बेकाबू हो गई है कि कर्मचारी तो कर्मचारी अधिकारी तक गायब रहने लगे हैं और हमारे शासक-प्रशासक इस समस्या से पार पाने के स्थान पर अधिकाधिक छुट्टियां घोषित कर इस देशघातक प्रवृत्ति को क्षणिक लाभवश बढ़ावा ही दे रहे हैं और जनता हैरान-परेशान है एवं भारत दुनिया में सर्वाधिक छुट्टियोंवाला देश बनता चले जा रहा है। नया वर्ष आरंभ होने के समय समाचार पत्रों में यह समाचार बराबर स्थान पाता है कि नए वर्ष में कितनी छुट्टियां रहेंगी और कर्मचारी अपनी छुट्टियों का जोड-बाकी लगाने में भिड जाते हैं।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">राजीव गांधी के प्रधानमंत्री बनने पर उन्होंने पांच दिन का सप्ताह घोषित कर सरकारी कर्मचारियों से यह अपेक्षा की कि वे तरोताजा होकर अधिक काम करेंगे परंतु कोई बदलाव नहीं आया न तो काम करने की गति बढ़ी ना ही जवाबदेही बढ़ी। छठे वेतन आयोग की सिफारिशों को लागू करने के बाद अधिकारियों-कर्मचारियों का वेतन बढ़ा इससे हजारों करोडों रुपयों का बोझ सरकार पर पडा। सरकारी नौकरियां और भी अधिक आकर्षक हो गई। इस वेतन बढ़ौत्री के साथ सिफारिशें समयबद्धता, अनुशासन, कार्यसंस्कृति बढ़ाने। कर्मचारियों की संख्या और खर्चों में कटौती, कागजी कार्यवाही में कमी लाने, जांच अल्पावधि में करने, कार्यकुशलता के आधार पर पदोन्नति, देर से आनेवाले कर्मचारियों पर निगरानी आदि की जाए, की भी थी। परंतु, कर्मचारियों को तो खुश कर दिया गया परंतु, बाकी सिफारिशें उपेक्षित ही रह गई। कार्य संस्कृति में कोई इजाफा नहीं हुआ।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">हम अमेरिकीयों की नकल करने में कहीं पीछे नहीं रहना चाहते, नई आर्थिक नीतियों से भी अमेरिकी संस्कृति को ही बढ़ावा मिल रहा है। कई भारतीय तो अमेरिका जाने का, खुद को अमेरिकी कहलवाने का सपना रात-दिन देखते रहते हैं, पाले रहते हैं। परंतु, अमेरिका में छुट्टियां ही नहीं मिलती इस बारे में न तो हम बात करना चाहते हैं न ही उसी तर्ज पर अपनी छुट्टियां कम करवाना चाहते हैं। ऑस्ट्रेलिया जाने का सपना भी बहुत से लोग पाले रहते हैं। वहां जरुर छुट्टियां मिलती हैं परंतु, इतनी नही जितनी हमारे देश में। अमेरिकी तो छुट्टियों के लिए ही तरस जाते हैं। वहां पेड अवकाश भी 'पर्क" है। छुट्टियां मोलभाव का विषय है। वहां की कई कंपनियां 5 से 15 दिन का वेतन सहित अवकाश उपहार के रुप में देती हैं। पाश्चात्य देशों की वैज्ञानिकप्रगति, अनुशासनप्रियता, स्वच्छता की सबसे अधिक प्रशंसा करनेवालों में हम ही सबसे आगे हैं। परंतु, उनकी तरह कर्मप्रधान होने की बजाए सर्वाधिक छुट्टियां मनानेवालों में भी सबसे आगे हम ही हैं।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">हमारे यहां साप्ताहिक अवकाश के रुप में रविवार के अतिरिक्त महापुरुषों के नाम पर छुट्टियां चाही जाती हैं। हमारे नेता भी सस्ती लोकप्रियता और वोट बैंक की राजनीति के चलते सत्ता में आते ही अपनी विचारधारा के नेताओं के नाम पर छुट्टियां घोषित करते चले जाते हैं। मानो यह सबका संविधान प्रदत्त हक हो। लेकिन निजी कंपनियों के लोग और मजदूरों को यह नसीब नहीं होती। आपको आश्चर्य होगा कि सप्ताह में एक दिन का अवकाश-रविवार का अवकाश जो हम सबको अति प्रिय है वह भी एक जमाने में भारतीयों को लडकर लेना पडा था और आज से सवासौ वर्षों पूर्व तक तो उन्हें यह भी नहीं मिलता था। रविवार का सबसे पहला अवकाश 10 जून 1890 को मिला था। वह भी अंगे्रज बहादुर की कृपा से नहीं बल्कि नारायण मेघाजी लोखंडे के कारण जिन्होंने इसके लिए ब्रिटिशों से 6 साल तक लडाई लडी थी। लेकिन स्वतंत्रता के बाद हमें अधिकार क्या मिले हम छुट्टियां मांगते चले जा रहे हैं, मिलती चली जा रही हैं और महत्वपूर्ण काम देरी से होने के कारण राष्ट्रीय हानि हो रही है परंतु हममें से कोई भी परवाह नहीं कर रहा।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
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<span style="font-size: large;">व्ही. पी. सिंह प्रधानमंत्री बनने के पूर्व तक पैगंबर मुहम्मद के नाम पर छुट्टी नहीं मिलती थी। अर्जुनसिंह ने अपने मुख्यमंत्रीत्व काल में सतनामी समाज के संत घासीदास के नाम पर अवकाश घोषित किया था। जिन्हें म. प्र. के अधिकांश लोग जानते तक नहीं थे। लेकिन छुट्टी पूरा प्रदेश मना रहा था। उत्तर प्रदेश सरकार तो इस मामले में सबसे बाजी मार गई है। वहां इस वर्ष 37 शासकीय अवकाश घोषित किए गए हैं और इसके खिलाफ लोग कोर्ट में भी चले गए हैं। इन छुट्टियों को घोषित करने के पीछे यह राजनीति काम करती है कि इस बहाने सरकारी कर्मचारियों-उनके परिवारों के साथ ही कुछ सामाजिक वर्गों को भी प्रसन्न किया जा सके जिन्हें आगे जाकर चुनावों में वोटों में तब्दील किया जा सके। </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">आखिर में इन महापुरुषों के नाम पर इतनी सारी छुट्टियों का औचित्य ही क्या है। नेहरुजी और इंदिरा गांधी के जन्मदिन पर तो कोई छुट्टी नहीं होती तो क्या लोग उनको याद नहीं करते या उनके योगदान को भूल गए हैं। नेहरुजी कहा करते थे 'आराम हराम है"। गांधीजी के नाम पर छुट्टी दी जाती है। सच बताइए कितने लोग इस दिन गांधीजी को याद करते हैं और करते हैं तो किसलिए यह 'मुन्नाभाई सीरिज" की एक फिल्म से पता चल जाता है। कितने लोग गांधीजी के बताए रास्ते पर चलने का प्रयत्न करेंगे यह ठानते हैं। यदि ठानते होते तो आज देश में इतनी न तो हिंसा होती न हिंसा प्रधान फिल्में बॉक्स ऑफिस के रिकॉर्ड तोडती नजर आती। सभी महापुरुष तो हमेशा कर्मप्रधान रहे, अपने विचारों पर अडिग रहे। उन्होंने आजीवन अपने को देश और समाज के लिए कर्मरत रखा इसीलिए तो आज वे महापुरुष हैं, श्रद्धेय हैं। लेकिन हम उनके नाम पर छुट्टियां चाहते हैं। उसे प्रतिष्ठा का विषय बनाते हैं और छुट्टी मिलने के बाद मौज-मजा, सैर-सपाटे पर निकल जाते हैं या निठल्ले घर में बैठे रहते हैं। और भूले भटके कभी रविवार को इनके नाम पर मिलनेवाली छुट्टी आ गई तो लोग बडे दुखी हो जाते हैं कि अरे, यार एक छुट्टी फोकट में ही मारी गई।</span></div>
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<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">भारत एक प्रजातांत्रिक देश है इसलिए जो कुछ होता है वह जनसंख्या के आधार पर ही होता है इस आधार पर तो हर 2, 3 करोड का समूह यदि अपने महापुरुषों या धर्म-संप्रदाय के त्यौहारों पर छुट्टी मांगने लगे तो, क्या यह देना संभव है? और यदि नहीं दी इसलिए वे धमकाने लगे ... और दी जाने लगी तो कल्पना कीजिए क्या होगा? क्योंकि, जब हम कुछ महापुरुषों के जन्मदिन पर और उस समूह के धर्म के आधार उसके त्यौहारों पर छुट्टी देते हैं तो इस आधार पर सभी समूहों को छुट्टियां दी जाना चाहिए और इस आधार पर तो मेरे खयाल से शायद और 100 छुट्टियां देना पडेंगी। कुछ विद्वानों के मतानुसार साल के 365 दिन में से हम केवल 150-55 दिन काम करते हैं। इस प्रकार से तो बमुश्किल दो महीने ही काम करेंगे बाकी समय मौज-मजा करेंगे। यह तो संभव नहीं इसलिए बेहतर यही होगा कि इस प्रकार की सभी छुट्टियां निरस्त की जाएं।</span></div>
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<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">इस वर्ष यानी सन् 2015 में केंद्र सरकार की घोषित छुट्टियां हैं 18 और वैकल्पिक 33, 1 मई की छुट्टी अलग से दी हुई है। म. प्र. शासन ने 24 अवकाश सामान्य और 57 वैकल्पिक अवकाश घोषित किए हैं उनमें से तीन लिए जा सकते हैं। केंद्र में तो पांच दिन का सप्ताह है इस आधार पर शनिवार-रविवार के लगभग 104 अवकाश बनते हैं। तो म. प्र. में 77। हडतालें आदि होती रहती हैं और हमारे कुछ चतुर कर्मचारी भाई अपनी छुट्टियों को उस हिसाब से भी एडजस्ट कर लेते हैं इसके अतिरिक्त स्थानीय अवकाश अलग से घोषित होते ही हैं। सी. एल., ई. एल. आदि अलग से हैं। उदा ः. सन् 2012 में बैंककर्मियों ने दो दिन की हडताल की थी उसके पूर्व संलग्न तीन दिनों की छुट्टियां थी एक दिन और छुट्टी ले ली तो बढ़िया फेमिली टूर बनाया जा सकता था और कुछ भाई लोगों ने बनाया भी था। इस वर्ष भी इस प्रकार के बहुत से मजे के अवसर उपलब्ध हैं उसी पर अब नजर डालेंगे। </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">जाते हुए वर्ष एवं नववर्ष के आगमन पर कई लोग पूरे साल क्या-क्या करना है, कौनसी उपलब्धियां हासिल करना है की योजनाएं बनाने में लग जाते हैं तो कुछ लोग केवल आनंद ही आनंद के प्लानिंग में छुट्टियों का गणित बैठाने में जुट जाते हैं। हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी सरकारी कर्मचारी-अधिकारियों को जो तडी मारने, लेटलतीफी, काम के घंटों के दौरान गप्पे हांकने या घरेलु काम निपटाने, कामचोरी, आदि में माहिर हैं की छुट्टियों की विपुलता के कारण चांदी ही चांदी है।</span></div>
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<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">1. जनवरी से आरंभ करते हैं नए वर्ष का प्रारंभ ही चार छुट्टियों से हुआ। एक जनवरी को छुट्टी थी 2 को सी.एल ले ली 3,4 (ईद मिलाद उन नबी) शनिवार रविवार था। 23 जनवरी को सुभाष जयंती, 24,25 'वीक एंड" 26 जनवरी को राष्ट्रीय अवकाश। </span></div>
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<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">2. फरवरी की पहली तारीख को रविवार की छुट्टी थी। 3 को रविदास जयंती। 14, 15 शनिवार, रविवार 16 को या तो तडी मार दी या सी. एल. ले ली तो 17 को महाशिवरात्री का आनंद डबल हो गया। 18 को बहुत से लोग काम के मूड में नहीं रहे इतनी छुट्टियों का आनंद भूले जो नहीं थे। फिर उपवास का भारी फरियाल भी तो किया था। महाराष्ट्र में तो 19 को छत्रपति जयंती के कारण छुट्टी मनाई गई यानी हर एक दिन छोडकर छुट्टियों का लुत्फ उठाया गया। क्योंकि, 21, 22 वीक एंड था। </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">3. मार्च की शुरुआत भी रविवार यानी छुट्टी से हुई। 6 को धूलंडी थी फिर वीकएंड था। 21 मार्च गुढ़ी पडवा 22 रविवार छुट्टी।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">4. अप्रैल के शुरुआत में ही 2 महावीर जयंती, 3 को गुडफ्रायडे, 4 को शनिवार हनुमान जयंती और 5 को रविवार की छुट्टियां रही। 11, 12 को शनिवार-रविवार था। 13 को एक छुट्टी ले ली तो 14 को फिर अंबेडकर जयंती की छुट्टी थी। 21 अप्रैल को अक्षय तृतीया-परशुराम जयंती की छुट्टी थी परंतु सरकारी कार्यालयों में छुट्टी का माहौल 18-19 के वीक एंड से प्रारंभ होकर पूरे सप्ताह बना रहा और कार्यालयों में कामकाम की शुरुआत धीरे-धीरे 27 से ही हो सकी। सभी कर्मचारी शादी-ब्याह में व्यस्त रहे। सरकारी कार्यालयों में 30 में से 18 दिन छुट्टियों का माहौल बना रहा। </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">5. मई की शुरुआत ही छुट्टीवाले दिन से हुई 1 मई मजदूर दिवस, 2, 3 वीक एंड 4 को बुद्धपूर्णिमा की छुट्टी। हाल-फिलहाल जून-जुलाई जरुर छुट्टियों से मुक्त रहेंगे। केवल 18 जुलाई शनिवार को ईद-उल-फितर की छुट्टी रहेगी।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">6. अगस्त में 5 रविवार हैं। 15 अगस्त के बाद 16 को रविवार की छुट्टी है। यदि 17 को कुछ एडजस्ट कर लिया गया तो 18 को पतेती (पारसी नववर्ष) की छुट्टी (महाराष्ट्र में) है ही। कुल 8 छुट्टियां हैं। </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">7. 5 सितंबर शनिवार जन्माष्टमी।17 सितंबर को गणेश चतुर्थी है 19-20 वीक एंड 18 को जुगाड जमा ली जाए तो संलग्न 4 छुट्टियां। यही हाल 24 से 27 तक का है । 24 या 25 को ईदुज्जहा 26, 27 वीक एंड। इस प्रकार की संलग्न मिलनेवाली छुट्टियों के कारण कई माता-पिता यह भी सलाह देते मिल जाते हैं कि अपने बच्चों को अपने शहर के निकट के शहर में यदि संभव हो तो पढ़ने मत भेजो। यदि भेजना ही हो तो दूर ही भेजो या भेजो ही मत क्योंकि साल भर में कई बार इस प्रकार की संलग्न छुट्टियों के कारण बच्चे बार-बार घर चले आते हैं पढ़ाई का तो नुक्सान होता ही है पैसा भी बेजा खर्च होता है। मेरे एक शिक्षाविद मित्र के अनुसार उनके 47 साल के शैक्षणिक अनुभव का निचोड यह है कि साल भर में किसी भी हालत में 180 दिन से अधिक स्कूल लगते ही नहीं तो कोर्स कैसे पूरा होगा। शिक्षक बच्चों को उनका पाठ्यक्रम पूर्ण करवाएं कैसे? </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">8. अक्टूबर 2 शुक्रवार को गांधी जयंती है 3, 4 वीक एंड है यानी 3 दिन छुट्टियों के। 22 को दशहरा है 23 को कार्यदिवस कैसे जाएगा यह बतलाने की आवश्यकता नहीं ! 24 (मोहर्रम), 25 वीक एंड और 27 को वाल्मिकी जयंती।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">9. नवंबर छुट्टियों का महिना है। 1 को रविवार है और कुल 5 रविवार हैं इस महिने में। 7, 8 वीक एंड है। 9 तारीख धनतेरस से दीपावली प्रारंभ हो रही है, 10 को नरक चतुर्दशी या रुपचौदस है, 11 को लक्ष्मी पूजन, 12 को बलिप्रतिपदा या पडवा, गोवर्धन पूजा है, 13 को भाईदूज। 14, 15 वीक एंड। संलग्न 9 दिन छुट्टियों का आनंद उठाने के बाद 16 को या तो सरकारी कर्मचारी हमेशा से अधिक लेट आएंगे या आएंगे ही नहीं, पूछनेवाला भी या तो आएगा नहीं आ भी गया तो पूछने की जहमत नहीं उठाएगा उसे भी सब मालूम है, आदत में आ गया है। कर्मचारी आ भी गए तो दीवाली कैसी रही पर गंभीर चर्चा करेेंगे। काम का माहौल बनते बनते ही बनेगा, जनता भी अब समझदार हो गई है वह भी एक दिन और सही कहकर धका लेगी। इतने पर ही बस नहीं अभी तो दो वीक एंड और 25 नवंबर को गुरुनानक जयंती की छुट्टियां बाकी हैं।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">10. साल जाते जाते भी कर्मचारियों पर मेहरबान है। 24 गुरुवार को ईद मिलाद दूसरी बार आई है। 25 को क्रिस्मस 26, 27 वीक एंड। इन सब का परिणाम जनता के काम न होने के रुप में सामने आता है। एक तो कई कर्मचारी गायब रहते हैं ऊपर से कई विभागों में तो सतत बैठके होती रहती हैं अधिकारीयों को उसमें भाग लेना रहता है इस कारण से भी जनता के काम रुकते हैं। इसलिए छुट्टियों पर नियंत्रण आवश्यक है। इस लेख में 'वीक एंड" का उल्लेख इसलिए बार-बार किया गया है क्योंकि जहां पांच दिन का अवकाश नहीं होता वहां भी शनिवार को छुट्टी हो या नहीं सरकारी ऑफिसों में काम नहीं होगा यह मानसिकता ही अब बन सी गई है और जनता भी अपेक्षा नहीं करती कि इस दिन कुछ काम होगा। बेहिसाब छुट्टियों का यह सिलसिला बरसों से चला आ रहा है इस वर्ष भी है और आनेवाले वर्ष का आगाज भी छुट्टियों से ही होनेवाला है। 2,3 जनवरी वीक एंड है। </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">कई छुट्टियां तो ऐसी हैं कि जो मिलना ही नहीं चाहिए या केवल उन्हें ही मिले जो संबंधित हैं। उदाहरणार्थ ः पारसियों के नववर्ष 'पतेती" की छुट्टी। इस संबंध में पहली बात तो यह है कि सरकारी नौकरियों में पारसी हैं ही कितने और उनकी आबादी है ही कितनी और जो है वह देश के कुछ क्षेत्रों तक ही सीमित है और कितने बहुसंख्य समाज के लोग इस बारे में जानते हैं या उसमें सम्मिलित होते हैं। यही बात मुस्लिम या ईसाई समुदाय के त्यौहारों के संबंध में भी कही जा सकती है। कितने हिंदू बकरा ईद मनाते हैं। सरकार चाहे तो इन समुदायों को अलग से छुट्टी दे या उस दिन अन्य कोई विशेष सुविधा भी दी जा सकती है जैसेकि अमेरिका के न्यूयॉर्क शहर में दीपावली के दिन पार्किंग फ्री होती है। मेरे मत से तो रविवार के अतिरिक्त राष्ट्रीय त्यौहारों के नाम पर 15 अगस्त और 26 जनवरी की ही छुट्टियां यानी कुल मिलाकर दो छुट्टियां हों इसी प्रकार बहुसंख्य लोग किसी ना किसी रुप में दीवाली मनाते हैं या इस त्यौहार से जुडे हुए हैं अतः इन त्यौहारों पर दो या तीन दिन की छुट्टी दी जाना चाहिए बाकी सभी छुट्टियां समाप्त कर दी जाना चाहिएं। जिन्हें यह मान्य नहीं वे अपना वेतन कटवाएं और लें छुट्टियां। </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"> वर्तमान में हो यह रहा है कि बेचारी जनता कर कुछ नहीं सकती, मन ही मन कुढ़ती रहती है। हैरान-परेशान होती रहती है। रिश्वत देने के बाद भी समय पर काम इन छुट्टियों की विपुलता के कारण होता नहीं है और यदि रिश्वत नहीं दी तो इन छुट्टियों का उपयोग हथियार के रुप में करने में सरकारी अधिकारी-कर्मचारी माहिर हैं। इन बेतहाशा बढ़ती छुट्टियों के कहर के कारण कार्यदिवस की हानि होती है, कार्यसंस्कृति का ह्रास होता है इसलिए जनता तो चाहती है कि छुट्टियां कम हों परंतु, एक भी कर्मचारी संगठन जो वेतन एवं सुविधा वृद्धि के नाम पर एकजुट हो अपनी मांगे मनवाने पर उतारु रहते हैं वे भूले से भी अपने संगठन के सदस्यों को ईमानदारी और तेज गति से काम करो, छुट्टियां कम करो, कार्यालयीन समय में गायब मत रहा करो कि अपील करते कहीं नजर नहीं आते हैं। ना ही सरकार से कभी कहते हैं कि हमारी छुट्टियों में कमी की जाना चाहिए जिससे कि सरकारी काम तेज गति से हों।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">हमारे देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कार्यकाल को एक वर्ष पूर्ण हो चूका है और जब उन्होंने पूरे वर्षभर में एक दिन की भी छुट्टी नहीं ली है और सतत परिश्रम कर रहे हैं तो, इन सरकारी कर्मचारी-अधिकारियों, उनके संगठनों और साथ ही बात बे बात छुट्टियां घोषित करनेवाले नेतागणों को भी तो कुछ सोचना चाहिए। लेकिन वे सोचते नजर आते नहीं। अतः अब केंद्र सरकार ही सबसे पहले पहल करे और बिना किसी की परवाह किए राष्ट्रीय हित में तत्काल छुट्टियों में कटौती प्रारंभ करे। कर्मचारियों के गायब रहने, लेटलतीफी के प्रति सख्ती दिखाए। देखिए कितने शीघ्र देश की सूरत बदली हुई नजर आने लगेगी।</span></div>
</div>
Shirish Saprehttp://www.blogger.com/profile/12101620590252946119noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8695605854559624606.post-64888728191176121082015-06-20T06:56:00.002-07:002015-06-20T06:56:29.799-07:00<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b>योगशास्त्र पर सावरकरजी के विचार</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">सावरकरजी की योगशास्त्र में रुचि युवावस्था में ही हो गई थी। उनके काव्य 'सप्तर्षि" और 'माझी जन्मठेप" (मेरा आजन्म कारावास) में योगशास्त्र का उल्लेख मिलता है। स्वामी विवेकानंद का राजयोग उनका प्रिय ग्रंथ था। स्नान के बाद ध्यानधारणा करना उनका नित्यक्रम था। उन्होंने अखिल हिंदू ध्वज पर कृपाण के साथ कुंडलिनी को स्थान दिया था।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b>योगशास्त्र - मानव को एक वरदान</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">योगशास्त्र का वर्णन मानवी जीवन को एक श्रेष्ठ वरदान के रुप में किया जा सकता है। इस प्रयोगाधारित शास्त्र को हिंदुओं ने पूर्णत्व तक पहुंचाया है।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">योगशास्त्र मनुष्य की आंतरिक शक्तियों के संपूर्ण विकास का एक सर्वश्रेष्ठ शास्त्र है।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b>व्यक्तिगत अनुभवों का शास्त्र</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">योगशास्त्र व्यक्तिगत अनुभवों का शास्त्र है इसलिए उसमें मतभेद को स्थान नहीं।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b>गुप्त नहीं शास्त्र है</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">योग गोपनीय न होकर एक शास्त्र है।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b>मनुष्य का सर्वश्रेष्ठ ध्येय</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">योग को आचरण में लानेवाले मनुष्य में आश्चर्यकारी, इंद्रियातीत और उत्कंट प्रसन्नता प्राप्त होती है। इस अवस्था के बारे में योगी कैवल्यानंद कहते हैं - वज्रायनी महासुख। अद्वैती ब्रह्मानंद और भक्त प्रेमानंद कहते हैं - यह सर्वश्रेष्ठ आनंद प्राप्त कर लेना मनुष्य का फिर वह हिंदू या अहिंदू, आस्तिक हो या नास्तिक, नागरिक हो या वनवासी हो, सर्वश्रेष्ठ ध्येय है। (वि. दा. सावरकर)</span></div>
</div>
Shirish Saprehttp://www.blogger.com/profile/12101620590252946119noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8695605854559624606.post-79602050483507393122015-06-15T01:02:00.002-07:002015-06-15T01:02:31.351-07:00<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b>अधिकस्य अधिकम्</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">वैश्वीकरण, निजीकरण, उदारीकरण, बाजारवाद की संकल्पनाओं के कारण सारी दुनिया में कुहराम मचा हुआ है। इसके कारण उपभोक्तावाद भी बहुत तेज गति से बढ़ा साथ ही फुजूलखर्ची, भ्रष्टाचार, बिनाकारण खर्च करना की प्रवृत्ति भी बढ़ने लगी, विपुलतावाद, मौज-मजा की संस्कृति ने पांव फैलाना प्रारंभ कर दिया, मितव्ययिता शब्द ही मानो परिदृश्य से गायब होता चला जा रहा है। राजनैतिक, सामाजिक, स्वास्थ्य-परीक्षा, शैक्षणिक आदि सभी क्षेत्रों में इस प्रवृत्ति ने पांव फैलाना प्रारंभ कर दिया है। अधिकस्य- अधिकम् की होड मची है।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">विदेशों में लोग सप्ताह में पांच दिन 14 से 15 घंटे जमकर काम करते हैं फिर बचे हुए दो दिनों में 'वीक एंड" मनाते हैं। उसके लिए किसी शांत स्थान पर जाना वे पसंद करते हैं। वहां मौज-मजा, खाना-पिना करते हैं, कमाए हुए पैसे को खर्च करते हैं और आकर फिर काम में जुट जाते हैं। हमने केवल उत्तरार्ध स्वीकारा है। (कारपोरेट क्षेत्र में काम करनेवाले लोग अपवाद हैं) एक तो हमारे यहां मिलनेवाला वेतन या काम-धंधे से होनेवाली आय विदेशों की तुलना में कम है जिसमें जैसे-तैसे गुजारा हो सकता है। सिवाय बेरोजगारों की फौज फालतू घूम रही है। हमारे यहां कई अधिकारी-कर्मचारी बडी शान से यह कहते मिल जाएंगे कि मजे की नौकरी है कोई टेंशन नहीं अब ऐसे लोगों को क्या कहें? लेकिन प्रत्येक को कम से कम कष्ट उठाकर अधिक से अधिक ऐशोआराम चाहिए और इसके लिए कुछ भी करने को लोग तैयार हैं इसीके कारण भ्रष्टाचार और लूट की प्रवृत्ति तेजी से बढ़ी है। अच्छे, ईमानदार लोग एकाकी, उपेक्षित और उपहास के पात्र बनते जा रहे हैं।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">इस मौज-मजा की संस्कृति को फिल्में, टी. व्ही. और उनपर आनेवाले विज्ञापन बढ़ावा दे रहे हैं जिनका बहुत बडा प्रभाव आज के युवाओं पर नजर आ रहा है। फिल्मी अभिनेता-नेत्री किस प्रकार का व्यवहार करते हैं, कौनसी फैशन करते हैं, कैसे गहने, कपडे पहनते है इसी पर उनका ध्यान है। चित्रपट बाजार में आते ही या कोई सा सीरियल लोकप्रिय होते ही उसी नाम के गहने, कपडे बाजार में बिकने लगते हैं। बाजार, शॉपिंग मॉल, बडे शोरुम में बिना जेब की परवाह किए खर्च किए जा रहे हैं। फास्ट फूड संस्कृति ने घर-घर में प्रवेश कर लिया है। घर के भोजन के बजाए होटलों में जाने का कल्चर बढ़ रहा है। कई परिवार तो छुट्टी के दिन बाहर ही भोजन करते हैं। ग्रामीण क्षेत्र भी अछूते नहीं रहे हैं वहां भी ढ़ाबे में जाकर भोजन करने की पद्धति रुढ़ हो रही है। </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">आवश्यकता हो या न हो नए-नए दोपहिया वाहन वह भी महंगे से महंगे लेने का रुझान बढ़ रहा है साथ ही कई मोबाईल एक साथ रखना और उन्हें सतत बदलते रहना का चलन भी क्या शहर और क्या गांव दोनो में ही बढ़ता चला जा रहा है। आज हर एक के हाथ में मोबाईल है यह बात अलग है कि वे इसका सदुपयोग कितना और दुरुपयोग कितना करते हैं। इस मोबाईल ने मनुष्य के सारे जीवन को ग्रसित कर लिया है सभी जानते हैं कि इस मोबाईल से हमें लाभ कम हानि अधिक हो रही है फिर भी इसको प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया गया है। अधिकांश बच्चे और युवा इस पर 24 घंटे चॅटिंग करने में लगे रहते हैं या गेम खेलते रहते हैं। सुविधाएं स्वीकारने की प्रवृत्ति भी बढ़ती ही जा रही है एकने किया इसलिए दूसरे को भी वह आवश्यक लगने लगता है।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"> भौतिक सुख सुविधाएं हमारे लिए ही हैं परंतु हम उनके कितने अधीन हों यह हम नहीं संबंधित कंपनियां तय कर रही हैं। रोकडा नहीं हों तो क्रेडिट कार्ड है इस कारण अनावश्यक खरीदी और जो नहीं चाहिए वह हम स्वीकारते हुए ऑफर्स की बलि चढ़ रहे हैं। इस क्रेडिट कार्ड के कारण पैसा खर्च करते समय में मन में जो टीस उठती है वह नहीं उठती और कितना पैसा खर्च हो गया का भान हमें नहीं रहता। देशी पौष्टिक पेय गन्ने का रस, छाछ, दूध, लस्सी, फलों का रस पीने के स्थान पर पेप्सी और कोला जैसे पेयों की खपत अधिकतम होती जा रही है। आम का रस पीने के स्थान पर कंपनियों का आम से बना ठंडा पेय हमें पसंद होते चले जा रहा है। सारी दुकानें यहां तक की पान की दुकान तक पर यह उपलब्ध हैं और खपत इतनी अधिक है कि उनकी शॉर्टेज भी होती है। एक लीटर दूध की कीमत इन पेयों से कम है परंतु, पीनेवाले गायब हैं। आज भी ग्रामीण क्षेत्र में कई गांवों में पिने के पानी के लिए महिलाओं को मीलों भटकना पडता है जहां जलयोजनाएं आज तक पहुंच नहीं सकी हैं ऐसे क्षेत्रों में भी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के शीतल पेय, चीप्स-वेफर्स बडी सहजता से उपलब्ध हैं। यह किस बात का द्योतक है।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"> बाजारवाद के केंद्र में है उपभोक्ता यानी कंज्यूमर और कंज्यूमर कंज्यूम करेगा तभी तो उत्पादन बढ़ेगा एवं उत्पादन और खपत बढ़ेगी तभी कंपनियों को लाभ होगा इसलिए कंपनियां उपभोक्ताओं को आकर्षित करने के लिए ग्राहक की क्रय शक्ति हो या न हो उसे कर्ज मुहैया कराने में पीछे हटती नहीं हैं और लोग भी अधिकाधिक सुविधाएं जुटाने के लिए कर्ज लेकर कर्ज में डूबते चले जा रहे हैं। हमारा पुराना अनुभव सिद्ध मंत्र 'जितनी चादर हो उतने ही पांव पसारो" को हम भूल जाएं इसलिए वे 'जितने चाहे पांव पसारो चादर हम दे देंगे" का लालच दिखाकर हमें उपभोगवादी बनाने पर तुले हैं। वे इस प्रकार के विज्ञापन बडे ही सुनियोजित ढ़ंग से दिखा रहे हैं कि यदि आपने फलां-फलां वस्तु का उपयोग नहीं किया तो लोग आप पर हंसेंगे और हम भावनाधीन हो बलि चढ़ रहे हैं। कारपोरेट क्षेत्र के लोगों को छोड बाकी लोगों की आय इतनी नहीं कि वे इस उपभोगवादी संस्कृति को स्वीकारे परंतु, वे स्वीकारते चले जा रहे हैं और अपना सुख-चैन खोते जा रहे हैं। इस झूठे नशे के अधीन हो उनकी बुद्धि भ्रष्ट हो रही है, वे पतन की और बढ़ रहे हैं एवं कई संयम खोने के कारण आत्महत्या की ओर भी बढ़ जाते हैं।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">ये बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपनी अपार धनराशी के बलबूते और साम-दाम-दंड-भेद की नीति को अपना स्थानीय व्यापार, उद्योगों को समाप्त कर देना चाहती हैं। एक बार यहां का व्यापार-उद्योग-धंधा ठप्प हुआ कि ये ग्राहकों को विकल्प ना होने के कारण मनमाने भाव पर सामान बेचेंगी। इसके लिए वे ऑफर्स का सहारा ले रही हैं हम हमारे बचत के मंत्र को भूल रहे हैं। हमें पुराने मंत्र बचाते रहो बचाते रहो के संदेश का अवलंबन कर इसका प्रचार करेंतो अधिक बेहतर होगा। </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">हमारे राजनेता भी इस उपभोगवाद को बढ़ा रहे हैं। हर चुनाव के समय जो की लगभग साल भर ही चलते रहते हैं। युवाओं को साथ लेकर उन्हें जो चाहिए वह दिया जाता है और युवा भी मुफ्त में मिल रहा है इसलिए महंगा भोजन, शराब, पान-गुटखा सिगरेट का सेवन करने लगते हैं व्यसनाधीन हो जाते हैं और जब चुनाव के बाद यह सब मिलता नहीं तो गलत रास्ते पर निकल पडते हैं। यदि अपराधों पर नजर डालें तो दिख पडेगा कि समाज के सभी स्तरों के युवक अपराधों की ओर बढ़ते नजर आ रहे हैं। बात इतनी अधिक बढ़ती जा रही है कि मां या दादी बेजा खर्च के लिए पैसे ना दे तो वे हत्या तक कर गुजरते हैं। राजनैतिक दल जनता की सभी अपेक्षाओं को तो पूरा कर नहीं सकते और उम्मीदवार को तो चुनाव जीतना है इसलिए वह सुविधाएं लोगों को बांटकर वोट कबाडता है। एक प्रकार से यह भी तो मुफ्त में मौज मजा की संस्कृति को बढ़ावा देने का एक एक्सटेंशन है। परिणाम सभी जानते हैं भ्रष्टाचार।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">यदि मौज-मजा संस्कृति को स्वीकारना ही है तो हमें अपनी आय बढ़ाना होगी। परंतु, हमारे यहां इतने अवसर नहीं। सिक्स्थ पे कमीशन के बाद सरकारी नौकरियों में वेतन अवश्य अत्यंत आकर्षक हो गए हैं परंतु वह नौकरियां मिलना आसान नहीं और कारपोरेट कंपनियों को छोडकर अन्य नौकरियों में कोई वेतन कोई खास नहीं। अब पीछे भी जा नहीं सकते पुराने जमाने की मितव्ययिता से गुजारा करना भी संभव नहीं। जो है उसे स्वीकारते हुए एक ही रास्ता बचता है वह है अधिकाधिक मेहनत, मेहनत और कठिन मेहनत। हम अमेरिका में तो हैं नहीं जहां की अर्थव्यवस्था अधिकाधिक खर्च पर चलती है, वहां क्रेडिट कार्ड के बलबूते लोग जीते हैं, साथ ही सरकार की ओर से सोशल सिक्योरिटी होने के कारण नौकरी या आय के साधन नहीं मिलने पर कोई भूखा नहीं मरे इसकी व्यवस्था सरकार करती है। परंतु, हम तो बचत पर निर्भर हैं, उसे ही बढ़ाना होगा जितना संभव हो सके बचाएं। यह ना भूलें कि हमारे यहां सोशल सिक्योरिटी सरकार की ओर से नहीं है। यदि नहीं समझे तो फिर घर फूंक तमाशा ही होगा लेकिन यह भी कितने दिन चलेगा। इसलिए मेहनत का मार्ग स्वीकारें, मौज मजा को नियंत्रित रखें। अपनी आवश्यकताओं को बेजा बढ़ाएं नहीं।</span></div>
</div>
Shirish Saprehttp://www.blogger.com/profile/12101620590252946119noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8695605854559624606.post-4507307033435550382015-06-06T06:50:00.001-07:002015-06-06T06:50:13.601-07:00<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b>आचरण बदलने पर ही स्वच्छ भारत का सपना साकार हो सकेगा</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">प्रधानमंत्री मोदी के कार्यकाल के एक वर्ष पूर्ण होने पर मीडिया में जो व्यापक चर्चाएं आयोजित की गई थी उन्हें देख-सुनकर ऐसा लगने लगा मानो देश में ऐसा कुछ अभूतपूर्व घटित हो गया है जैसाकि आज तक घटित नहीं हुआ है। हां, ऐसा अभूतपूर्व कुछ घटित हो सकता था यदि मोदी की महत्वाकांक्षी घोषणा स्वच्छ भारत सफल हो जाती तो। परंतु, वह तो बुरी तरह असफल हो गई है जो खुली आंखों दिखाई पड रहा है और इसके जिम्मेदारों में हम आम लोग भी हैं जिनमें से कई सरकार की उत्तमता का प्रमाणपत्र दे रहे हैं साथ ही मोदी के पार्टीजन भी हैं जिन्होंने अपनी हरकतों से इस बहुउपयोगी महत्वाकांक्षी योजना का मजाक बना कर रख दिया। पार्टीजन मोदी से प्रेरणा ले यदि ईमानदारी से इस अभियान को सफल बनाने में जुट जाते तो वास्तव में यह एक ऐसा महान ऐतिहासिक कार्य होता कि सरकार गर्व से कह सकती थी कि सरकार का एक वर्ष का कार्यकाल अभूतपूर्व रहा है और सारी दुनिया भी अपनी स्वीकृती बडी प्रसन्नता से देती एवं बाकी सारे ऐब, असफलताएं इस आड में छुप जाती जो आज विपक्ष उघाडने पर उतारु है और ऐसी स्थिति में जनता भी विपक्ष की इन आलोचनाओं को कोई खास तवज्जो नहीं देती। क्योंकि, स्वच्छता के लाभ उन्हें नजर आने लगते।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">पार्टीजन यदि इस मुद्दे पर गंभीरता पूर्वक कार्य करने की ठानते तो उनके ध्यान में आता कि स्वच्छता के लिए दो पहलुओं पर ध्यान देना आवश्यक है। पहला प्रशासन और दूसरा आम नागरिक जिन्हें चाहे जहां कचरा फैलाने में महारत हासिल है इसमें उन्हें कोई संकोच नहीं होता ना ही ऐसा कुछ लगता है कि यह गलत है। प्रशासन की दृष्टि स्वच्छता के मामले में कैसी है यह तो जगजाहिर है। मोदी के आवाहन पर स्वच्छता अभियान से जुडे सेलेब्रिटिज की भूमिका तो स्वयं को चमकाने की यानी लाइम लाइट में रहने की ही रही। और सोशल मीडिया वीर तो स्वच्छता के संदेश को शेअर, फॉरवर्ड करने तक ही सीमित रहे, झाडू हाथ में लेना भूल गए। जो आए भी उन्हें आगे मार्गदर्शन नहीं मिला। प्रारंभ में उत्साह से जुडे लोग बाद में कौन छुट्टी के दिन हम्माली करे की भावनावश धीरे से दूर हो गए। </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">पार्टीजन यदि स्वच्छ भारत अभियान को सफल बनाने के लिए जनता से नियमित संपर्क में रहते, स्वच्छता अभियान में सततता बनाए रहते तो उन्हें कई ऐसे लोग नजर आ जाते जो कई छोटी-छोटी बातों को आचरण में लाकर अपने आसपास के परिसर को स्वच्छ रखने में योगदान देते हैं। उदाहरणार्थ मेरे एक मित्र जो डॉक्टर हैं और स्पूतनिक परिवार से संबद्ध भी होने के साथ ही स्पूतनिक की नीति लोग शौचालय एवं स्वच्छता के प्रति जागरुक हों से इत्तिफाक भी रखते हैं का दृष्टिकोण एवं व्यवहार अनुकरणीय है। वे अपनी दुकान (क्लीनिक) एवं उसके सामने के फुटपाथ को स्वयं स्वच्छ तो करते ही हैं साथ ही दिन भर उड-उडकर आनेवाले कचरे को समय-समय पर स्वयं ही उठाकर डस्टबिन में डालते रहते हैं और अपने सहायक के द्वारा या स्वयं ही निकट की कचरा पेटी के अंदर डाल भी आते हैं। फैंकी हुई चाकलेट की जिलेटिन या जर्मन पन्नियों या दवाइयों की स्ट्रीप्स को अलग से एकत्रित कर उसकी गोल गेंद के रुप में स्क्रब बना बरतन साफ करने के उपयोग में भी लाते हैं। </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">जबकि अधिकांशतः होता यह है कि सभी व्यवसायी, दुकानदार प्रतिदिन सुबह दुकान या अपना प्रतिष्ठान खोलते से ही दुकान की स्वच्छता के साथ ही साथ अपनी दुकान के सामने के फुटपाथ को भी झाडू से साफ अवश्य करते हैं जिससे उनकी दुकान के सामने स्वच्छता नजर आए। परंतु, अधिकांश मामलों में यह देखा जा सकता है कि वे सारा कचरा एक ढ़ेर बनाकर दुकान से थोडा दूर सामने के एक कोने में यह सोचकर एकत्रित करके रख देते हैं कि चलो हमारी दुकान के सामने तो स्वच्छता है। परंतु, होता यह है कि थोडी ही देर में वही कचरा आनेजानेवाली गाडियों या हवा के चलने या पैदल चलनेवालों के पांवों के कारण फिर से फैल जाता है और उड-उडकर दूकानों के सामने या अंदर आने लगता है। कुछ लोग तो इस मामले में और भी अधिक होशियारी दिखाते हैं। वे अपनी दुकान या घर के सामने का कचरा दूसरे की दुकान या मकान के सामने एकत्रित करके रख देते हैं।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">पार्टीजन उपर्युक्त प्रकार के उदाहरण देकर उन व्यवसायियों को बता सकते कि यदि वे वास्तव में स्वच्छता चाहते हैं और अपनी दुकान के साथ ही साथ आसपास का परिसर भी स्वच्छ रहे तो इसके लिए उन्हें यह कचरा डस्टबिन में एकत्रित कर उसे निकट की कचरा पेटी के अंदर डाल आना चाहिए। चूंकि, वे इतनी जहमत उठाते नहीं हैं और इस कारण बाजारों में स्वच्छता नजर आती नहीं है। वे उन्हें बता सकते हैं कि, इस प्रकार से विचार करें तो और भी कई छोटी-छोटी बातें हमें करने लायक नजर आ जाएंगी जिन्हें आचरण में लाकर हम स्वच्छ भारत अभियान को सफल बना सकते हैं। इस तरह की बातों को हिकारत की नजरों से ना देखें, आचरण में लाएं। </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">मेरा तो अनुभव यह है कि अधिकतर पढ़े-लिखे व्हाईट कालर वाले लोग ही इस प्रकार के कार्य को हिकारत की नजर से देखते हैं। यही लोग गरीबों को गंदगी, अस्वच्छता, कचरा फैलाने के लिए जिम्मेदार ठहराते हैं और अपने आचरण की ओर ध्यान देना या किसीके द्वारा आकर्षित किए जाने को अपनी तौहीन समझते हैं। उदाहरण के लिए कार में सफर करते समय पानी पीकर बोतल चलती कार से बाहर सडक पर ही फैंक देते हैं। पापकार्न या अन्य कोई फास्ट फूड खाकर पैकेट या कागज की प्लेट आदि सडक पर फैंक देना आदि इसीमें शुमार होता है। इंदौर में एक वकील हैं वे हमेशा अपनी कार में एक डस्टबिन रखते हैं जिसमें वे सफर के दौरान किसी भी तरह का कचरा फिर वह फालतू कागज का टुकडा या केले का छिलका ही क्यों ना हो डाल देते हैं और बाद में गंतव्य या घर पहुंचने पर उसे कचरा पेटी के हवाले कर देते हैं। </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">गरीबों के पास तो साधन, स्थान की कमी है इसलिए वे घर के बहुत से कार्य जैसे बर्तन मांजना, कपडे धोना यहां तक कि स्नान तक सडक से लगे घर के ओटलों पर करने के लिए बाध्य हैं। कभी-कभी वे अशिक्षा एवं अज्ञानवश भी ऐसे कुछ कार्य कर जाते हैं जिनसे अस्वच्छता फैलती है। परंतु, पढ़े-लिखे लोग स्वयं भी अस्वच्छता फैलाने में कुछ कम नहीं कई लोग रात का बचा हुआ भोजन गाय को खिलाने के नाम पर दूसरों के गेट के सामने बडे आराम से प्लास्टिक की थैली में बांधकर फैंक देते हैं इससे क्या हानि हो सकती है इस पर कई बार लिखा जा चूका है फिर भी ये लोग सुधरने का नाम ही नहीं लेते।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">कचरा और गंदगी फैलाने में चाय, चाट-पकौडी के स्थान भी अग्रणी हैं। चाय पीने के डिस्पोजेबल प्लास्टिक के कप, दौने आदि बहुत अहम भूमिका निभाते हैं जिन्हें हम ही वहीं स्थित कचरा पेटी में डालने के स्थान पर उपयोग के पश्चात सडक पर ही फैंक देते हैं। सडक पर खाते हुए चलते-चलते पैकेट या कागज कहीं भी फैंक देना हमारी आदतों में शुमार है। युवा भी इस मामले में किसीसे पिछे नहीं। वे कागज, डिस्पोजेबल पेन, प्लास्टिक पैकेट, बोतलें, गुटके-सिगरेट के पैकेट, टुकडे, लायटर, चाकलेट के रैपर चाहे जहां फैंक देते हैं। बूढ़े भी कुछ कम नहीं वे चाहे जहां खंखाकर थूक देते हैं, सार्वजनिक वॉशबेसिन, मूत्रालयों में तो यह सहज ही दिख पडेगा कि थूके हुए पान-तंबाकू से लेकर थूक-कफ तक पडा हुआ है। </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">वस्तुतः स्वच्छ भारत के नाम पर सभी ने औपचारिकता निभाई इस कारण स्वच्छता के नाम पर चारों ओर केवल शोर सुनाई पडा, अस्वच्छता वैसी की वैसी ही बरकरार है।</span></div>
</div>
Shirish Saprehttp://www.blogger.com/profile/12101620590252946119noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8695605854559624606.post-23527145425504323482015-05-31T04:40:00.003-07:002015-05-31T04:40:18.074-07:00<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b>हिंदू परिवारों में रिश्ते-नाते</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">साली एक ऐसा रिश्ता है जो केवल हिंदू परिवार पद्धति में ही पाया जाता है जिसके संबंध में कई खट्टी-मीठी, मजेदार, हास्य पैदा करनेवाली तो, कभी-कभी अश्लीलता की हदों की छूनेवाली कहावतें-मुहावरे भारत के हर प्रदेश, समाज, भाषा में प्रचलन में हैं और साधारणतया उसका कोई बुरा भी नहीं मानता। उदाहरणार्थ कुछ कहावतें प्रस्तुत हैं -</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">1. साली तो आधी घरवाली होती है, 2. साली बडी कमीनी चीज है, 3. मेव्हणी (साळी/साली) म्हणजे अर्धी बायको (आधी पत्नी)(मराठी), 4. घरी नाही साळी, सासुशी करी टवाळी (घर पे नहीं है साली तो सास की ही उडाए खिल्ली (मराठी) 5. साली छोड सासू सूं ही मसकरी (राजस्थानी). 6. बायको पेक्षा मेव्हूणी बरी (पत्नी से साली अच्छी) (मराठी), 7. शाली शालाज आधेक माग यानी साली और साले की पत्नी आधी पत्नियां होती हैं, (बंगाली) 8. माछ जाकरे फली टापरा जाकरे साली यानी मछली में मछली 'फली" और गप्पे हांकने के लिए अच्छी होती है साली (ओरिया), 9. ससु रे न साहुरा साली अ रे न नींहुं यानी सास नहीं तो ससुराल नहीं, साली नहीं तो सुख नहीं (सिंधी)।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">परंतु, साली के संबंध में जो भावनाएं ऊपर बयान की गई हैं उस तरह की भावनाएं मुस्लिम या ईसाई परिवारों में देखने को नहीं मिलेंगी। ऐसा क्यों? तो, जब हम हिंदू परिवारों पर दृष्टि डालें तो दिख पडेगा कि उनमें अनेक रिश्ते होते हैं जैसेकि, सगे भाई-बहन, ममेरे, चचेरे, फुफेरे भाई-बहन आदि। ये अधिकतर हमउम्र ही होते हैं परंतु, कभी-कभी यह भी दिख पडता है कि मामा और भांजे-भांजियां, चाचा और भतीजा-भतीजियां तो कभी-कभी बुआ, मौसी भी हम उम्र नजर आती है। परंतु, हिंदू परिवारों में इनमें आपस में विवाह हो नहीं सकता। ये विवाह निषिद्ध ही नहीं तो पाप की श्रेणी में गिने जाते हैं।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">इसका कारण है हिंदू धर्म में स्वीकृत एक ही पिंड की कल्पना। पिंड यानी देह। माता-पिता की देह उनके बच्चों में संक्रांत होती है। मामा और मौसी में मां का पिंड तो बुआ और काका या चाचा में पिता का पिंड होता है इस कारण इनके साथ संबंध स्थापित हो नहीं सकता। ये संबंध कौटुंबिक व्यभिचार की श्रेणी में आते हैं और यह जो कल्पना है उसका प्रभाव, परिणाम हर हिंदू परिवार के सदस्य पर, उसके कामजीवन पर पडता ही है। </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">इसी संबंध में और अधिक विचार करें। हिंदू परिवारों में बडे होते बच्चों को जो शिक्षा, संस्कार, वातावरण दिया जाता है वह इस प्रकार का होता है कि अब तुम बडे हो गए हो इसलिए एक दूसरे से दूर रहो, एक दूसरे को स्पर्श ना करो, आदि। इसके पीछे कारण यह है कि युवावस्था की ओर अग्रसर होते लडके-लडकियों में एकदूसरे के प्रति आकर्षण स्वाभाविक रुप से उत्पन्न हो जाता है। इस अवस्था में एक दूसरे के सान्निध्य में अच्छा लगता है, एकदूसरे से कुछ बात करने की इच्छा उत्पन्न होती है, एकदूसरे को चुपचुपके निहारने की इच्छा भी जागृत हो जाती है और यह सब कामवासना के निर्दोष आविष्कार हैं, जो कि स्वाभाविक, प्राकृतिक भी हैं। जो कि पृथ्वी पर मौजूद सभी प्राणियों में पाई जाती है। परंतु, इसीसे परिवारों के ज्येष्ठों को अगम्यगमन के पाप का भय भी सताने लगता है इसलिए उनकी स्वतंत्रता पर बंधन लगाए जाते हैं। जो कि उचित भी नजर आते हैं, हां यह बात अलग है कि अब बदलते समय के साथ कुछ परिवारों में अपने आपको आधुनिक दिखाने की होड में समवयस्कों में इतने बंधन ना हों परंतु आज भी अधिकांश हिंदू परिवारों में ये बंधन मौजूद हैं। इस कारण हिंदू परिवारों में कामवासना एक दबाव के अंतर्गत रहती है। </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">परंतु, साला या साली के संबंध में ऐसा कुछ नहीं रहता यहां बंधनों में थोडी छूट है क्योंकि, ये संबंध विवाह के बाद निर्मित होते हैं और दूसरा सपिंड न होने के कारण निषिद्ध लैंगिक व्यवहार होने का भय नहीं रहता। पति-पत्नी का विवाह अधिकृत रुप से होता है और जीजा-साली के बीच पत्नी बफर स्टेट की तरह होती है। इस प्रकार यह जीजा-साली का नया संबंध जिसमें कुछ हद तक मुक्त व्यवहार की मिली हुई छूट दोनो की दबी हुई कामवासना को मिला हुआ आविष्कार स्वातंत्र्य है। इसे सामाजिक मान्यता भी प्राप्त है। इसी कारण से यदि कोई परिस्थिति उत्पन्न हुई तो जीजा-साली का विवाह हो सकता है। अपवाद स्वरुप कुछ हिंदू जातियों में ममेरे-फूफेरे भाई-बहनों में विवाह करने की पद्धति है इस कारण वहां अगम्यगमन की भावना तो शेष नहीं रहती लेकिन फिर साली के रिश्ते का मजा भी नहीं रहता।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">जबकि मुस्लिम परिवारों में चचेरे भाई-बहनों में विवाह संबंध खुलेआम होते हैं और इसे धार्मिक-सामाजिक मान्यता भी प्राप्त है। हिंदू परिवार तो इस प्रकार के संबंधों के बारे में सपने में भी सोच नहीं सकता। मुस्लिम परिवारों में बंंधन है तो केवल इतना की एक ही माता-पिता की संतानों के यानी सहोदरों के विवाह निषिद्ध हैं। मुस्लिम परिवार में एक मुस्लिम युवा अपनी सगी चचेरी बहन को भावी वधू के रुप में देख सकता है और ऐसा करने में न तो उसके धर्म की ना ही उसके समाज की ओर से कोई रोकटोक है। इसी कारण से मुस्लिम समाज में साली के रिश्ते का खट्टा-मिठा रिश्ता नहीं है। </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">रही ईसाई परिवारों की बात तो वे हिंदू-मुस्लिम परिवारों के बनिस्बत मुक्त परिवार हैं। उनमें मुसलमानों के समान रिश्तों में विवाह नहीं होते। परंतु, उनमें कामवासना के प्रति उत्पन्न होनेवाले निर्दोष आविष्कारों पर हिंदुओं की तरह कोई बंधन भी नहीं है। उनमें विभिन्न रिश्तेवाले स्त्री-पुरुष साथ-साथ नाचते-गाते हैं, पार्टियां करते हैं, आपस में मुक्त व्यवहार करते हैं इस कारण उनमें भी साली के रिश्ते का आनंद भी मौजूद नहीं।</span></div>
</div>
Shirish Saprehttp://www.blogger.com/profile/12101620590252946119noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8695605854559624606.post-11283583559641790352015-05-29T23:17:00.003-07:002015-05-29T23:17:30.148-07:00<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">18 मई स्पूतनिक स्थापना दिवस विशेष</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<b><span style="font-size: large;">स्पूतनिक</span><span style="font-size: large;"> </span><span style="font-size: large;">- निर्भीक पत्रकारिता ही जिसका मिशन है</span></b></div>
<div style="text-align: justify;">
<b><span style="font-size: large;"><br /></span></b></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">कोई भी व्यक्ति या संस्था, आदि जब एक लंबे समय तक किसी क्षेत्र में अपना अस्तित्व बनाए रखती है तो उसके बारे में लोगों में एक जिज्ञासा, कुतुहल निर्मित हो जाना स्वाभाविक ही होता है कि, आखिर यह कौन है, क्या है? इसकी गतिविधियां क्या हैं? इसकी सोच-विचारधारा क्या है? इससे कौन-कौन जुडे हैं? इसके संस्थापक कौन हैं? आदि। वे उनके बारे में जानना चाहते हैं? यदि वह समाचार पत्र हुआ तो, यह जिज्ञासा-कुतुहल और भी बढ़ जाता है। क्योंकि, हर पढ़ा-लिखा, विचारवान व्यक्ति भले ही कितना भी व्यस्त क्यों ना रहता हो किसी ना किसी समाचार पत्र को पढ़ता ही है और उसमें छपे समाचारों-लेखों, कभी-कभी विशिष्ट समाचार या विषय पर लिखे गए लेख को थोडा बहुत ही क्यों ना हो पर पढ़ता अवश्य है। उस पर विचार भी करता है, गाहेबगाहे उस पर चर्चा भी करता है या कम से कम कहीं चल रही चर्चा को सुनता तो भी है। </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">इन सब पर से वह उस समाचार पत्र के बारे में एक विशिष्ट धारणा बना लेता है और जब उस समाचार पत्र से संबंधित व्यक्ति जैसे कोई पत्रकार या लेखक, आदि से मिलता है तो वह अपनी जिज्ञासा-कुतुहल को दबा नहीं पाता और उस समाचार पत्र के संबंध में उसकी धारणा क्या है? वह उसके बारे में क्या मत रखता है, उसे प्रकट करता है। वह सब जानने कि कोशिश करता है जिनका कथन मैंने ऊपर किया है। कई बार वह भ्रांत धारणाएं कोई विशिष्ट समाचार या लेख पढ़कर भी बना लेता है। मेरा तो अनुभव ऐसा भी है कि, कई लोग इतने अधिक पूर्वाग्रस्त होते हैं कि केवल किसी लेख का शीर्षक या कभी-कभी तो समाचार पत्र का नाम पढ़कर ही अपने पूर्वाग्रह के आधार पर उसके बारे में अपना मत बना लेते हैं और तत्काल उसके बारे में अपना द्वेष प्रकट करने से बाज नहीं आते। स्थानीय दैनिक समाचार पत्र जिसे वह रोज पढ़ता है उसके बारे में हो सकता है कि उसकी सोच ठीक हो, परंतु साप्ताहिक आदि जिन्हें वह हमेशा नहीं पढ़ता उसके बारे में कोई भ्रांत धारणा यदि उसने बना ली हो तो यह बात जरुर समझ में आती है। उसे दोष नहीं दिया जा सकता। दोषी तो वह तब होगा कि मौका मिलने पर भी वह इस दोष को दूर करने का प्रयास ना करे।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">स्पूतनिक के संबंध में यही बात कही जा सकती है। इस संबंध में मेरा अनुभव यह है कि, मुझे कुछ लोग यह कहते मिले कि, अरे यह तो भाजपा विरोधी है तो, कुछ लोग सीधे कांग्रेस समर्थक ही घोषित कर देते हैं। कुछ लोग यह भी कहते हैं कि यह तो समाजवादी अखबार लगता है। इन पर मैं टिप्पणी करना नहीं चाहता क्योंकि इनमें से अधिकांश बगैर पढ़े, अधूरी जानकारी के बूते, बगैर किसी विश्लेषण के या पूर्वाग्रह के आधार पर तो कभी अंधश्रद्ध हो इस प्रकार के मत प्रकट करते हैं। इन लोगों को मेरा उत्तर एक ही होता है पहले पढ़ो, विश्लेषण करना सीखो, पूर्वाग्रह, अंधश्रद्धा छोडो फिर मुझसे बात करो। </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">फिर मैं अपना मत प्रकट करते हुए उनसे कहता हूं कि, भई ये विशुद्ध पत्रकारिता है। ये किसी से बंधे हुए लोग नहीं हैं। उनकी नजरों में जो सच है जो उनके विश्लेषण, उन्हें प्राप्त सूचनाओं पर आधारित है उसे सामने लाने का प्रयास करते हैं। अपने पत्रकारिता धर्म का पालन बिना किसी संकोच के निर्भीक एवं निष्पक्ष रुप से करते हैं। जिस समाचार को छापने का साहस दूसरे समाचार पत्र या पत्रकार जुटा नहीं पाते उसे वे बिना किसी भय के छापने से हिचकिचाते नहीं। इस कारण स्पूतनिक में छपनेवाले समाचार या लेख लीक से हटकर होते हैं और साधारण सोचवाले लोगों के गले जल्दी से उतरते नहीं हैं। यह स्पूतनिक का तो दोष नहीं, इसे समझने की आवश्यकता है।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">उदाहरणार्थ ः 14 से 20 अप्रैल 2014 में छपा 'वाजपेयी-मोदी की तुलना" यह विश्लेषणात्मक लेख पढ़ने के बाद क्या हर किसी को सोचने के लिए मजबूर नहीं कर देता । इसी प्रकार 2 से 8 जून 2014 के अंक में छपा यह लेख 'आडवाणी की बिदाई का समय नियति का फैसला" पढ़ें। इसमें लिखा यह कथन कि, 'लालकृष्ण आडवाणी नियती के फैसले को स्वीकार करके अपनी राजनैतिक बिदाई का रास्ता चुन लें तो अब उनका सम्मान बना रह सकता है। वे अपनी कैसी बिदाई चाहते हैं? इसका निर्णय उनको स्वयं को करना पडेगा।" कितना समयोचित था। इसी अंक में छपा यह दूसरा लेख 'केंद्रिय मंत्रीपरिषद के गठन में नरेंद्र मोदी ने किया 'जनादेश का अपमान" क्या इस प्रकार का लेख किसी समाचार पत्र ने छापा था। क्या यह सबसे हटकर नहीं था। 9 से 15 जून 2015 का '10 जनपथ की खामोशी ने किया कांग्रेस का बंटाधार" स्पूतनिक को कांग्रेसी कहनेवाले पहले पढ़ें फिर बोलें। वैसे सच तो यह है कि इस प्रकार की बातें करनेवाले पढ़ने का कष्ट उठाने में ही विश्वास नहीं करते तो विश्लेषण किस प्रकार करेंगे ऊपर वाले ने जबान दी है तो बस बोलते रहो। </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">आज समाचार पत्रों की दुनिया में व्यवासियकता ने 100 प्रतिशत प्रवेश कर लिया है। इस पूंजीवादी दौर में भी स्पूतनिक इन सबसे दूर होकर अपने मिशन में लगा है। इस संबंध में स्पूतनिक के 56 वर्ष पूर्ण होने पर 19 से 25 मई 2014 के अंक में डॉ. गीता ने इसी सच को इस लेख 'स्पूतनिक की बेबाक लेखनी से थर्रा जाती हैं सरकारें" क्या यह सिद्ध नहीं करती हैं कि इसी पूंजीवादी पत्रकारिता के दौर में स्पूतनिक एक जगमगाता सितारा है। रामदेव बाबा का जब डंका बज रहा था कोई सपने में भी नहीं सोच सकता था वह हिम्मत सिर्फ और सिर्फ स्पूतनिक ने जुटाई और रामदेव एक व्यवसायी है, उसके गुरु कहां लापता हैं? आदि कई प्रश्न आज से कई वर्ष पूर्व ही खडे कर दिए थे। जो अब जाकर कुछ माह पूर्व से सभी समाचार पत्र छापने लगे।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">यह निर्भीकता, इस दबंगता के संस्कार स्पूतनिक ने अपने संस्थापक श्री दिनेशजी अवस्थी से पाए हैं। जिनका जन्म 12 जुलाई 1927 को हुआ था। वे द्वितीय विश्वयुद्ध के समय 1944-45 में वायुसेना में भी रहे। इसके बाद उन्होंने अपनी पत्रकारिता 'नेशनल हैराल्ड" जिसके संस्थापक स्वंय नेहरुजी और संपादक चेलापतिराव थे जो उनके पत्रकारिता के गुरु भी रहे से प्रारंभ की। म. प्र. का तत्कालीन लीडिंग दैनिक 'नवप्रभात" ग्वालियर संस्करण में भी कार्य किया। इसके बाद इंदौर आकर उस समय के सर्वाधिक प्रसारण संख्यावाले 'इंदौर समाचार" में भी पत्रकारिता की फिर 18 मई 1958 को 'स्पूतनिक" का पहला अंक प्रकाशित हुआ। इसके साथ ही वे देश भर की पत्र-पत्रिकाओं के लिए लेखन कार्य करते रहे।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">उनके दो कार्य जो वास्तव में मील का पत्थर हैं वह मैं सबके सामने लाना चाहता हूं जिससे बहुत से लोग अनजान होंगे। 1970 में चंबल के बीहडों के दस्युओं के पुनर्वास के विचार को ध्यान में रख महिनों तक बीहडों में स्कूटर पर अपने मित्र के साथ भटकते रहे और गंभीर अध्ययन के पश्चात जब उनके निष्कर्ष और अध्ययन सामग्री स्पूतनिक सहित दिल्ली के प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई तो सरकार का ध्यान इस ओर आकर्षित हुआ और इसके बाद जयप्रकाश नारायण और सर्वोदयी सुब्बाराव के मार्गदर्शन में चंबल के इन खतरनाक दस्युओं (माधोसिंह, मोहरसिंह सहित लगभग 125 दस्युओं) ने आत्मसमर्पण किया।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">आज शिरडी के साईबाबा के दरबार में दर्शनों के लिए घंटों कतार में लगना पडता है तब जाकर कहीं उनके दर्शन हो पाते हैं। परंतु, जब शिरडी के साईबाबा का माहात्म्य इतना न था उस जमाने में 1975-76 में शिरडी के साई बाबा के संबंध मेें विस्तृत अध्ययन एवं उनके संबंध में अधिकृत जानकारी जुटाने के उद्देश्य से सपत्नीक दो माह तक शिरडी के आसपास के क्षेत्र का दौरा किया। इस कठिन प्रवास में उन्होंने पगडंडियों के रास्ते गांव-गांव घूमकर सूचनाएं एकत्रित की। इसी दौरान उन्होंने एक ऐसे व्यक्ति से भी मुलाकात एवं चर्चा की जो साईबाबा के सान्निध्य में उनके अनुयायी के रुप में रह चूका था। इसके पश्चात वह सारा अध्ययन स्पूतनिक एवं तत्कालीन सुप्रसिद्ध अखबार 'ब्लिट्ज" में प्रकाशित हुआ और सर्वसाधारण लोगों के सामने साईबाबा का माहात्म्य सामने आया और साईबाबा के भक्तगणों की संख्या उसीके बाद बढ़ना प्रारंभ हुई।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">इस प्रकार से स्पूतनिक की निर्भीक पत्रकारिता की यात्रा बगैर अपने उद्देश्य से भटके इस पूंजीवादी-व्यवसायिकता के दौर में भी यथावत जारी है और अब 18 मई को स्पूतनिक अपना 57 स्थापना दिवस मनाने जा रहा है। जो अपनेआप में एक रिकार्ड है।</span></div>
</div>
Shirish Saprehttp://www.blogger.com/profile/12101620590252946119noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8695605854559624606.post-58483181667684177612015-05-08T22:52:00.002-07:002015-05-08T22:52:19.813-07:00<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">पक्षी दिवस 4 मई</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b>जूझ पक्षियों की </b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">पक्षियों और उनकी अनूठी दुनिया का आकर्षण मनुष्य को प्रारंभ से ही रहता चला आया है। पक्षियों का मानव जीवन में एक महत्वपूर्ण स्थान अनेकानेक प्रकार से प्राचीनकाल से ही रहा है। मनुष्य का संबंध पक्षियों से भक्षण, मनोरंजन से लेकर अपने मन की बात कहने तक रहा है। प्राचीन भारतीयों ने विभिन्न पक्षियों जैसेकि तोता-मैना, हंस आदि को घर में स्थान दिया। उनसे अपनी प्रेमकथा कहने से लेकर विरहकथा तक कही, अपना राजदार बनाकर उनके माध्यम से प्रेमसंदेश भेजने का काम लिया तो कभी शुभाशुभ जानने के लिए उनका उपयोग किया। तोता-मैना तो स्त्री-पुरुषों के सुख-दुख के साझीदार होते थे। </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">प्राचीनकाल में इतने मनोरंजन के साधन नहीं थे जितने की आज हैं। उस काल में पक्षी एक बहुत बडा मनोरंजन का साधन थे। प्राचीनकाल में पक्षियों की जूझ या लडाई का खेल अत्यंत लोकप्रिय था। बाण ने मुर्गा, सारस आदि की लडाइयों का वर्णन कर रखा है। चालुक्य नरेश सोमेश्वर के बारहवीं शताब्दी में रचित मानसोल्लास में मुर्गों की जूझ का वर्णन विस्तार से मिलता है। उसने लडाकू मुर्गों की आठ जातियां बतलाई हैं।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">मुर्गों की लडाई के खेल की उत्पत्ति पौर्वात्य देशों में हुई और फिर वह खेल बाद में पाश्चात्य देशों में गया। वात्सायायन के कामसूत्र में मनोरंजन के लिए पशु-पक्षियों की जूझ का उपयोग किस प्रकार से किया जाता था का वर्णन मिलता है। वे बतलाते हैं ः दोपहर भोजन के पश्चात नागरिक तोता-मैना से कानाबाती किया करते थे अथवा लावा (पक्षी), मुर्गों की जूझ, भेडों की टक्कर का आनंद उठाते। पशु-पक्षियों की लडाई पर पैसा लगाकर जुआ भी खेला जाता था। मनु ने जुअॆ के दो प्रकार बतलाए हैं। पहला अचेतन वस्तुओं द्वारा खेला जानेवाला जुआ उसे 'द्यूत" कहते और मुर्गा, भेड आदि की लडाइयों पर शर्त लगाकर खेले जानेवाले जुअॆ को 'समाह्वय" कहा है।(मनुस्मृती, 9-221) याज्ञवल्क्य ने प्राणियों की जूझ को 'प्राणिद्यूत" कहा है। प्राणिद्यूत के दो प्रकार थे - सपणबंध यानी जिस लडाई पर शर्त लगाई जाती थी और पणबंधरहित यानी शर्त न लगाते खेली जानेवाली जूझ।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">दूसरों के शौर्य पर अपने मन की बदले की भावना, युद्धपिपासा पूर्ण करने का शौक नवाबकालीन लखनऊ के निवासियों को बहुत था। यह तीन प्रकार का था 1. हिंसक जानवरों और चौपायों को लडवाने का। 2. पक्षियों की जूझ का। और 3. पतंगबाजी का। हिंसक जानवरों को लडवाने का शौक प्राचीन भारत में कहीं नहीं था। हां, रोम में जरुर पहले के जमाने में यह शौक था। वहां मनुष्य और पशुओं को परस्पर अथवा एकदूसरे के विरुद्ध लडवाया जाता था। परंतु, ख्रिश्चनिटी के उदय के पश्चात यह प्रथा बंद हो गई। परंतु, स्पेन और यूरोप के कुछ देशों में अद्याप सांडों की लडाई का खेल परस्पर या कभी-कभी मनुष्य के विरुद्ध लडा जाता है। </span></div>
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<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">हिंसक जानवरों की लडाई का खेल बादशाह और नवाबों तक ही सीमित था परंतु, पक्षियों की जूझ का खेल तो हरएक अमीर-गरीब के बस का था। लडने के लिए मुर्गा, बटेर को तैयार करने का शौक तो सर्वसामान्य व्यक्ति के लिए भी संभव था। नवाबकालीन लखनऊ में मनोरंजन के लिए मुर्गा, बटेर, तीतर, लावा, गुलदुम, लाल, कबूतर और तोता को लडवाया जाता था। गुलदुम को सामान्यतः सभी लोग बुलबुल समझते हैं। परंतु, यह गलत है। बुलबुल बदख्शां और ईरान का गानेवाला पक्षी है। परंतु, इस पक्षी की दुम के नीचे एक लाल रंग की चित्ती होती है। भारतीय संस्कृति पर गर्व करनेवाले और लखनऊ के ऐश्वर्यशाली व वैभवसंपन्न दीर्घ इतिहास का अंतिम पर्व देखनेवाले मशहूर पत्रकार, उपन्यासकार एवं निबंधकार अब्दुल हलीम 'शरर" ने अपने उपन्यास 'कल का लखनऊ" (नॅशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया) में इन लडाइयों का विस्तार से रसभरा वर्णन किया हुआ है। एक जमाने में लखनऊ की 'कबूतरबाजी" और 'बटेरबाजी" प्रसिद्ध रही है। </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">प्राचीनकाल में बाज को सभी पक्षियों का सिरमौर माना जाता था। राजा के हाथ पर बैठने का बहुमान केवल उसे ही हासिल था। बाज को अच्छे शगुनवाला और राजा का मित्र माना जाता था। ऐसा माना जाता था कि सफेद रंग का बाज निडर, पीले रंग का बाज श्रेष्ठ स्वभाव का और काला बाज बदमाश होता है। सोमेश्वर ने इनकी अनेक जातियों का वर्णन किया हुआ है। बाज को पकडने की पद्धति का वर्णन भी सोमेश्वर ने किया हुआ है। पक्षी विशेषज्ञ बाज को शिकार करने का प्रशिक्षण दिया करते थे। हाथ में कौअॆ को पकडकर उसे बाज को दिखाते थे और फिर उसे 'एहीती" कहकर बुलाते। बाज पास में आकर जैसे ही झपट्टा मारता कि कौअॆ को छोड दिया जाता था। इस प्रकार से कई बार करने पर पक्षी को झपट्टा मारकर पकडने में बाज निपुण हो जाता था। इसी प्रकार से आकाश में उडते पक्षियों पर झपट्टा मारकर पकडने का प्रशिक्षण भी उसे दिया जाता था। 'बाबरनामा" और 'आइन ए अकबरी" में भी बाज का उल्लेख आया है।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">जूझ जोरदार हो इसके लिए जूझवाले दिन उसे भूखा रखा जाता था व सोने भी नहीं दिया जाता था जिसके कारण वह क्रोधित अवस्था में रहता। जूझवाले दिन बाजों को जंगल में ले जाया जाता वहां विभिन्न जातियों के बाजों को राजा विभिन्न पक्षियों के बीच छोड देता। भिन्न-भिन्न पक्षियों से होनेवाली बाजों की लडाइयों का आनंद राजा उठाता। बाज कई पक्षियों को घायल कर मार डालता। </span></div>
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<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">आज तो पशु-पक्षी प्रेमी इसे निश्चय ही सहन नहीं करेंगे। कई देशों में इस प्रकार के हिंसक खेलों पर प्रतिबंध है। स्मृतिकार मनु ने भी शर्त लगाकर पक्षियों की जूझ पर शर्त लगाकर खेलनेवालों के हाथ तोडने का दंड बतलाया है। बुद्ध के काल में भी मुर्गों को लडवाया जाता था, परंतु बुद्ध ने भिक्षुओं के लिए 'कुक्कुट युद्ध" निषिद्ध माना है। सम्राट अशोक ने भी अपने राज्य में प्राणि द्यूत पर बंदी लाई थी। निश्चय ही इसके पीछे यही भावना थी कि स्वयं के मनोरंजन के लिए निरीह प्राणियों की होनेवाली यातनाओं पर रोक लगे। यजुर्वेद में भी जीवदया को दृष्टि में रख कहा गया है कि 'प्राणी मात्र को दया की दृष्टि से देखो।" </span></div>
</div>
Shirish Saprehttp://www.blogger.com/profile/12101620590252946119noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-8695605854559624606.post-2371976128058892572015-04-29T09:14:00.000-07:002015-04-29T09:14:05.461-07:00<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: center;">
<span style="font-size: large;"><b>ताजमहल, तेजोमहालय अर्थात् त्रिनेत्रधारी भगवान शिवजी-तेजाजी का मंदिर है</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">ताजमहल एक बार फिर विवादों के घेरे में है। इस बार छः वकिलों के एक समूह ने एक याचिका दायर कर दावा किया है कि ताजमहल एक शिव मंदिर है, दलील यह दी गई है कि वहां भगवान अग्रेश्वर महादेव विराजमान हैं। इन्होंने यह दावा किया है कि वहां कोई कब्र मौजूद नहीं। शारदापीठ जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी स्वरुपानंदजी महाराज ने भी एक बयान देकर कहा है कि ताजमहल के नीचे शिवमंदिर है और इसे भक्तों के लिए खोला जाना चाहिए जिससे कि वे वहां पूजा-अर्चा कर सकें। शंकराचार्य के मुताबिक इस मामले को सुलझाने के लिए उन्होंने कोर्ट में अर्जी भी दी है। इस संबंध में सबसे पहले एक साहसी उद्भट विद्वान पुरुषोतम नागेश ओक ने एक पुस्तक लिखकर दावा किया था कि 'ताजमहल मंदिर भवन" है, 'ताजमहल राजपूत प्रासाद" था। </span></div>
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<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
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<span style="font-size: large;"> यह विलक्षण शोध प्रतिभा का धनी जिसने अथक परिश्रम के बल पर मात्र भारत ही नहीं तो विश्व इतिहास को एक नवीन आयाम दिया का जन्म इंदौर नगर में 1917 में हुआ था और शिक्षा होलकर कॉलेज इंदौर में। 1941 में आजाद हिंद फौज में शामिल होकर द्वितीय विश्वयुद्ध में अंग्रेज साम्राज्य के विरुद्ध सशस्त्र युद्ध किया था। जून 1942 से जून 1943 तक वे आजाद हिंद सेना के इंडोचायना रेडियो केंद्र के प्रसारण में स्वाधीनता प्रचारक रहे तो नेताजी सुभाषचंद्र बोस के सिंगापुर शिविर काल में जून 1943 से 15 अगस्त 1945 अर्थात् युद्ध समाप्ति तक नेताजी के सान्निध्य में एक सैनिकी सहकारी अधिकारी के रुप में कार्यरत रहे। उसके बाद वे स्वतंत्रता प्राप्ति तक भूमिगत रहे। </span></div>
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<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
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<span style="font-size: large;">स्वाधीनता के पश्चात युद्ध के इतिहास और अनुभवों पर आधारित दो पुस्तकें 'हिंदुस्थान का द्वितीय स्वाधीनता युद्ध और नेताजी के साथ" प्रकाशित की और इन्हीं विषयों पर भाषण एवं जनजागरण करते फिरे। बाद में मुंबई विश्वविद्यालय से एम.ए. और विधि की उपाधियां प्राप्त कर अगस्त 1947 से लगभग साढ़े चार वर्ष तक दिल्ली में हिंदुस्थान टाईम्स तथा 1951 से 1953 तक स्टेट्समन में संवाददाता का कार्य करते रहे। 1953 से 1957 तक भारत सरकार के सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय में क्षेत्रीय अधिकारी रहे। तत्पश्चात अमरीकी दूतावास में सम्मानीय पद पर कार्य किया। लोकमान्य तिलक के केसरी में 1961 मेें तीन धारावाहिक लेख 'ऐतिहासिक इमारतींच्या बांधकामाचे जनक" (ऐतिहासिक इमारतों के निर्माण के जनक) शीर्षक से लिखकर खलबली मचा दी थी। अपने इतिहास शोध कार्य के विराट स्वरुप को व्यापक स्तर पर चलाने के लिए 14 जून 1964 को 'इन्स्टीट्यूट फॅार रीरायटिंग इंडियन हिस्ट्री" नामक संस्था को जन्म दिया।</span></div>
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<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">पु. ना. ओक ने ताजमहल से संबंधित अपने शोध पत्र में एक सौ से अधिक प्रमाण प्रस्तुत किए हैं जो कि उनके इस मान्यता का समर्थन करते हैं कि ताजमहल मुस्लिम नहीं तो एक हिंदू निर्माण है। इन प्रमाणों में ही श्री ओक ने एक शिलालेख का आधार दिया है जो कि चंदेल राजा परमादिदेव का है न कि डॉ. त्रिवेदीजी के कथनानुसार जयपुर के राजा का। उक्त शिलालेख लखनऊ के अजायबघर में है। इस शिलालेख के आधार से ही ओक की यह दृढ़ मान्यता है कि 'ताजमहल, तेजोमहालय, अर्थात् त्रिनेत्रधारी भगवान शिवजी-तेजाजी का मंदिर है।" यह निष्कर्ष उन्होंने संस्कृत पुस्तक 'खर्जुरवाहक" पढ़ने के बाद निकाला था।</span></div>
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<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">यह पुस्तक उन्हें इंदौर के एक प्राध्यापक श्री विक्रम गणेश ओक ने दी थी। (यह दोनो ओक रिश्तेदार नहीं हैं) वे जब छतरपुर में पदस्थ तब उन्हें यह पुस्तक 'खर्जुरवाहक" वहां के अभिभाषक महेश्वर काले ने जो उनके काका द्वारा लिखी गई थी उनकी पढ़ने-लिखने की अभिरुचि को देखते दी थी। उस पुस्तक को पढ़ने के बाद उन्हें ऐसा आभास हुआ कि राजा परमादिदेव के संस्कृत श्लोक में वर्णित भवन कहीं वहीं तो नहीं जिसे हम ताजमहल कहते हैं। उस संदर्भ से उन्होंने पु.ना.ओक को अवगत कराया। पु. ना. ओक ने पुस्तक में उद्धत संस्कृत शिलालेख, जिसे 'बटेश्वर" शिलालेख कहा जाता है की सत्यता को प्रमाणित करने के लिए पुरातत्व संग्रहालयों, ग्रंथालयों की भरपूर खाक छानकर निष्कर्ष रुप में एक नवीन शोध 'ताजमहल मंदिर भवन है"। शीर्षक का पुस्तक के रुप में प्रकाशित की। जिससे वैचारिक जगत में तहलका मचा। इस विषय में विक्रम ओक का जो योगदान रहा उसकी भावुक सराहना पु. ना. ओक ने अपने पत्र द्वारा करते हुए उन्हें लिखा था - ''आपने अपनत्व से जो जानकारी हमें दी वह अत्यंत महत्वपूर्ण सिद्ध हुई है। इसके लिए मैं आपका हमेशा के लिए ऋणी हूं। इस विषय में इसी प्रकार सक्रिय रहें।"" </span></div>
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<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">अपने प्रमाणों में ओक ने शाहजहां के दरबारी बखरकार मुल्ला अब्दुल हमीद लाहौरी के बादशाहनामे का उल्लेख भी किया, जिसमें की उक्त भवन को मानसिंह मंजिल बताया गया है और जिसे तत्कालीन जयपुर नरेश जयसिंह से प्राप्त कर उसमें अगले वर्ष मुमताज को दफनाने की बात है। ओक ने शाहजादा औरंगजेब के 1652 के उस पत्र का आधार भी अपने कथन की पुष्टि हेतु लिया है। इस पत्र में औरंगजेबउक्त कब्र को 'उज्जवल कब्र" कहता है। यह पत्र 'यादगार नामा" और 'आदाब ए आलमगिरी" इन दोनो तत्कालीन इतिहास ग्रंथों में उद्धृत है। इस प्रकार ओक आलोचकों के इस कथन को स्पष्ट आव्हान देते हैं कि 'ताजमहल" शब्द का प्रयोग शाहजहां और औरंगजेब दोनो के समय तक नहीं हुआ था। पर उसके अनंतर के बखरकारों ने इसका प्रयोग किया अतः उसे प्रामाणिक नहीं माना जा सकता। श्रीओक जयपुर राजघराने में अप्रकाशित पडे हुए कपडदारा विभाग के पत्र क्रमांक 176 एवं 177 को प्रकाशित करने का आव्हान भी प्रकट रुप से करते हैं।</span></div>
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<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">श्रीओक वास्तुविज्ञान के संस्कृत ग्रंथ में उद्धृत वास्तुपुरुष का तथा ताजमहल के शिल्प, उस पर दिखाई देनेवाली नागों की जोडीयां, धतूरे के ओम् आकार के फूल, उसका अष्टकोण निर्माण, ताजमहल के शिखर पर होनेवाले त्रिशूल कलश, आम्रपत्र, आदि का आधार भी चित्रसहित दर्शाते हैं। इस प्रकार ओक का कथन केवल तर्क ही नहीं तो शिल्प एवं अभिलेखों पर आधारित है। इतना होते हुए भी ओक ने यह कभी नहीं कहा कि इसका निर्माण इस विशिष्ट वर्ष में, इस विशिष्ट नरेश ने किया है। उनका स्पष्ट कथन यह है कि तथाकथित 'ताजमहल" तेजोमहालय होकर उसका निर्माण शाहजहां के पहले ही हुआ है।</span></div>
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<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
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<span style="font-size: large;">इतिहास शोध ओक का स्वानंद था, जीवनव्रत था। हिंदुस्थान के इतिहास में क्रांति ला देनेवाले ऐसे उद्भट विद्भट विद्वान के एक प्रसिद्ध ग्रंथ 'भारतीय इतिहास की भयंकर भूलें" ने 10 मार्च 1992 को राज्यसभा की चर्चा में स्थान पाया और फिर बुधवार 11 मार्च को लोकसभा में इस पर विस्तृत चर्चा हुई। 'भारतीय इतिहास की भयंकर भूलें" जुलाई 1966 में प्रकाशित अंगे्रजी इतिहास शोधग्रंथ - 'सम ब्लंडर्स ऑफ इंडियन हिस्टोरिकल रिसर्च" का हिंदी रुपांतर है। 10 मार्च को राज्यसभा में जनता दल सांसद मोहम्मद अफजल ने ओक के शोधग्रंथ 'भारतीय इतिहास की भयंकर भूलें" का पार्लियामेंट हाऊस की लाइब्रेरी में होने पर आपत्ति उठाई और दूसरे ही दिन लोकसभा में हर माह 'मुस्लिम इंडिया" प्रकाशित करनेवाले धर्मनिरपेक्ष जनता दल के सांसद शहाबुद्दीन के नेतृत्व में देश विभाजक मुस्लिम लीग और निजाम की रियासत में हिंदुओं पर जुल्म ढ़ानेवाले रजाकारों के वारिस इत्तेहादुल मुसलमीन आदि के मुस्लिम सांसदों ने इस शोधग्रंथ को हममजहबियों के दीनी जज्बातों पर हमला बताते हुए इसे पार्लियामेंट हाऊस की लाइब्रेरी से हटाने और इसके प्रकाशन को प्रतिबंधित करने की रट लगा दी।</span></div>
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<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
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<span style="font-size: large;">शहाबुद्दीन ने चतुराईपूर्ण भाषा का प्रयोग करते हुए कहा कि 'यह पुस्तक कोई विद्वत् रचना नहीं, कोई गंभीर रचना नहीं, अतः मैं इसे कोई विशेष महत्व देना नहीं चाहता। पर चूंकि यह लोगों की भावनाओं के प्रति आक्रमक है और हमारे देश में ईशनिंदा के विरुद्ध कानून है", अतः इस पुस्तक को पार्लियामेंट हाऊस लाइब्रेरी से हटाया जाना चाहिए। प्रतिबंधित भी किया जाना चाहिए और शासन को इस विषय में अभी ही घोषणा करनी चाहिए। मुस्लिम लीग के सुलैमान सैत ने शहाबुद्दीन से सहमति दर्शाई। परिणामतः 11 मार्च 1992 को लोकसभा अध्यक्ष के आदेश से इस गं्रथ को संसदीय ज्ञानपीठ (संसद ग्रंथालय) में संग्रहित 11 लाख ग्रंथों से अलग निकाल कर ताले में बंद रखने की अर्थात् पठन हेतु नहीं दिए जाने की तत्काल व्यवस्था की जाए! </span></div>
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<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
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<span style="font-size: large;">1 से 7 सितंबर 1986 को साऊदम्पटन नगर के साऊदम्पटन विश्वविद्यालय में आयोजित विश्व पुरातत्व परिषद में पु. ना. ओक ने जिस शोध ग्रंथ को प्रस्तुत किया था उस शोधलेख में 'इस्लाम भी वैदिक संस्कृति से ही उपजा हुआ एक पंथ है"। उपशीर्षक में वही विचार व्यक्त किए गए थे जो कि इस ग्रंथ में भी दिए गए हैं। क्या यह दुर्भाग्यपूर्ण नहीं है कि जिस शोधलेख का सम्मान विश्व सम्मेलन में होता है उस पर मुस्लिम सांसदों द्वारा हायतौबा मचाने पर शोधग्रंथ को ताले में बंद कर दिया जाता है। </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
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<span style="font-size: large;">प्रथम लोकसभा अध्यक्ष श्री जी. वी. मावलंकर की परिकल्पना के अनुसार, पूर्व में जिसे 'प्रिंसेस चेंबर" के नाम से जाना जाता था जहां अविभाजित भारत के देशी राज्यों के शासकों के सम्मेलन हुआ करते थे उसीके लिए इसका निर्माण हुआ था; जहां बाद में स्वतंत्रता प्राप्ति पर कुछ समय के लिए सर्वोच्च न्यायालय के न्यायालय कक्ष के रुप में इसका उपयोग हुआ था; जब सर्वोच्च न्यायालय का वर्तमान भवन निर्मित हो गया था तब न्यायालय वहां स्थानांतरित हो गया, यहां विशाल संसद ग्रंथालय स्थापित किया गया। यह मात्र ग्रंथालय नहीं तो ज्ञानपीठ है अतः ग्रंथ संग्रहण के अतिरिक्त भी अन्य अनेक सुविधाएं, व्यवस्थाएं संजोयी गई हैं। </span></div>
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<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">ऐसे ज्ञानपीठ की गरिमा को कलंकित करनेवाले अन्याय के एकमात्र प्रतीक को वहां से हटाकर, क्षुद्रता संकुचितता को तिलांजलि दे, मुक्तता, विशाल मनस्कता की भावना को अपना कर विराट 'संसदीय ज्ञानपीठ" रुपी स्वर्ण को सुरभित कर दे। जो पूर्व में ना हो सका वह यह नई कार्यशैली वाली मोदी सरकार करे 'भारतीय इतिहास की भयंकर भूलें" शीर्षक का जो अनूठा शोधग्रंथ बंद करके रखा गया है उस तालाजडे बक्से से उसे आजाद करे। </span></div>
</div>
Shirish Saprehttp://www.blogger.com/profile/12101620590252946119noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8695605854559624606.post-10904149277054483992015-04-17T21:26:00.000-07:002015-04-17T21:26:02.456-07:00<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b>सेक्यूलरिजम और इस्लाम</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b>shirishsapre</b></span></div>
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<span style="font-size: large;">सेक्यूलरिजम शब्द संसार में कब, कहां और किन परिस्थितियों में आया उसकी गहराई में न जाते हम 'ऑक्सफोर्ड" अंग्रेजी शब्दकोश में इस शब्द का क्या अर्थ दिया हुआ है वह पहले देखेंगे। शब्दकोश के अनुसार इस शब्द का अर्थ है 'इहलौकिक बातों के संबंध में"। पारलौकिक और आध्यात्मिक बातें इन इहलौकिक बातों से अलग हैं, ऐसा इस व्याख्या में गृहित है। अनेक विचारकों ने अपनी - अपनी पद्धतिनुसार इस शब्द की व्याख्या की हुई है। इस शब्द की व्याख्या के संबंध में जो वादविवाद हमेशा होते रहते हैं वे 'शासन की धर्मसंबंधी भूमिका कौनसी होनी चाहिए" इस पर से ही होते हैं। इस स्थान पर 'शासन" इस शब्द में केंद्र-राज्य सरकारें, लोकसभा-विधानसभा, न्यायालय और कानून द्वारा स्थापित अन्य संस्थाओं का समावेश होता है। इसी में से फिर सेक्यूरिजम की अनेक भूमिकाएं जन्म लेती हैं।</span></div>
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<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">अपने को जो सेक्यूलरिजम मानना है, जिस सेक्यूलरिजम का पालन करना है वह भारतीय संविधान का है। संविधान की धारा 25 में सेक्यूलरिजम की भूमिका आई हुई है। यह नागरिकों को धार्मिक स्वतंत्रता का मूलभूत अधिकार प्रदान करनेवाली धारा है। इस धारा में उस स्वतंत्रता की मर्यादाएं भी बतलाई हुई हैं। इस धारा में दो उपधाराएं हैं। इनमें से पहली उपधारा मनुष्य द्वारा पारलौकिक अर्थ का धर्म (यानी संप्रदाय, उपासनापंथ अथवा रिलिजन) पालने के अधिकारों से संबंधित है, तो दूसरी उपधारा इहलौकिक जीवन में धर्म का स्थान तय करनेवाली है।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">पहली उपधारा के अनुसार प्रत्येक को अपने धर्म (रिलिजन) का पालन करने की और उसका प्रचार-प्रसार करने की समान स्वतंत्रता दी गई है; परंतु उसके लिए चार शर्तें डाली गई हैं। उनमें से तीन शर्तें सार्वजनिक सुव्यवस्था, नीतिमत्ता और आरोग्य के विरोध में वह स्वतंत्रता न होने संबंधी है। चौथी शर्त संविधान द्वारा सभी नागरिकों को प्रदान किए हुए संविधान में अन्य मूलभूत अधिकारों के विरोध मेें वह स्वतंत्रता न होने संबंधी हैं। इन चार शर्तों का पालन न करने पर पूजा, प्रार्थना इस अर्थ का संप्रदाय का पालन भी न किया जा सकेगा इस प्रकार का इसका अर्थ है। इन शर्तों का पालन करने के बाद बचा हुआ पारलौकिक धर्म कितना बच रहता है यह पाठक स्वयं सहज ही तय कर सकते हैं।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">दूसरी उपधारा में इस धर्मस्वतंत्रता के विरोध में शासन को कुछ अधिकार प्रदान किए गए हैं ः शासन को आर्थिकनीति, राजनीति, सामाजिकनीति और अन्य इसी प्रकार की इहवादी बातों के संबंध में कानून बनाने का पूर्ण अधिकार रहेगा। इस अधिकार के आडे वह धार्मिक स्वतंत्रता आ नहीं सकती। यह उपधारा शासन को नागरिकों के इहलौकिक जीवन के संबंध में सार्वभौम अधिकार प्रदान करती है। शासन को यह अधिकार देकर संविधान ने नागरिकों के व समाज के इहलौकिक जीवनसंबंधी धर्म के अधिकार को ही समाप्त कर डाला है। धर्म (रिलिजन) का पालन करना यह बात सेक्यूलर बातों से पूर्णतया अलग है, यह गृहित लेकर ही यह धारा तैयार की गई है। इसी उपधारा में आगे यह भी कहा गया है कि, सामाजिक सुधार और समाजकल्याण के संबंध में कानून बनाने का शासन को पूर्ण अधिकार रहेगा। </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">धारा 25 के अनुसार संविधान ने नागरिकों को पारलौकिक धर्म पालन करने की मर्यादित स्वतंत्रता दी हुई है, तो इहलौकिक बातों के संबंध में धर्म को निष्प्रभ करने का शासन को सार्वभौम अधिकार प्रदान किया हुआ है। इस संबंध में संविधान ने केवल एक अपवाद और वह इस धारा में विशेषरुप से स्पष्टीकरण देकर किया हुआ है। सिक्खधर्मीय लोगों को धर्माज्ञा के रुप में कृपाण रखते हैं। अब प्रश्न यह है कि, कृपाण रखना यह बात पारलौकिक है कि इहलौकिक? धर्म में कही हुई होने के बावजूद यह बात स्पष्टरुप से ही इहलौकिक है ऐसा होने के बावजूद उपधारा 2 के अनुसार कृपाण रखने की बंदी लानेवाला कानून बनाने का अधिकार शासन को प्राप्त होनेवाला था। वह न हो ऐसी संविधानकर्ताओं की इच्छा थी इसलिए उन्होंने इस धारा में विशेष स्पष्टीकरण देकर कृपाण रखने का मुद्दा उस धर्म के पारलौकिक बातों में समाविष्ट किया। इस कारण ही यह बात अब केवल कानून-सुव्यवस्था और अन्य मूलभूत अधिकार आदि शर्तों के अधीन रही। यह अपवाद संविधानकर्ताओं की धर्मविषयक भूमिका पर एकदम स्पष्ट प्रकाश डालता है।</span></div>
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<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">'धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार" इस शीर्षकतले संविधान की 26 से 30 इस प्रकार की और पांच धाराएं हैं। मगर इन धाराओं में उपरोक्त धारा के विरोध में कुछ भी नहीं है। उदा. धारा 26 धर्मविषयक व्यवहार के संबंध में है। पारलौकिक धर्म कहा तो, उसके लिए मंदिर, मस्जिद, चर्च आदि का निर्माण आएगा ही। उसके लिए मालमत्ता धारण करना, संस्था स्थापित करना, आर्थिक व्यवहार करना ये सेक्यूलर बातें आएंगी ही। इस धारा के अनुसार इस प्रकार की संस्थाओं की पारलौकिक बातें सार्वजनिक सुव्यवस्था, नीतिमत्ता और आरोग्य के अधीन रखी गई हैं, तो सेक्यूलर बातों संबंधी कानून बनाने का अधिकार शासन को प्रदान किया हुआ है। अर्थात् कौनसी बात धर्म की और कौनसी सेक्यूलर इस बारे में विवाद होने पर उसका निर्णय न्यायालय द्वारा दिया जाएगा। उदा. सर्वोच्च न्यायालय ने एक प्रकरण में इस प्रकार से निर्णय दिया है कि, पुजारी द्वारा कौनसी पद्धति से पूजा की जाए यह धर्म का भाग है; मगर पुजारी की नियुक्ति सेक्यूलर मामला है। (AIR 1972 Sc 1586) अतः 'धर्म" अथवा 'धार्मिक" शब्द संविधान में संप्रदाय, उपासनापद्धति अथवा पारलौकिक धर्म इस अर्थ से सर्वत्र उपयोग में लाया गया है, यह ध्यान में रखे जाने योग्य है।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">अब हम इस्लाम की भूमिका को देखेंगे - पाश्चात्य पद्धति में जिस प्रकार से 'धर्म" और 'राज्य" अलग-अलग होते हैं वैसा इस्लाम में नहीं होता। इस्लाम को मानव जीवन का विभाजन राजनीति, धर्मनीति, आर्थिक नीति, सामाजिक नीति इस प्रकार का मान्य नहीं है। इस्लाम के अनुसार मानव जीवन के सारे घटक इस्लाम में एकजीव होकर समाविष्ट हो गए हैं। इस्लाम एक जीवन पद्धति है जिसमें अल्लाह ने समय-समय पर जो संदेश पैगंबर को दिए थे उनमें उपर्युक्त प्रकार का विभाजन नहीं है। अल्लाह ने मानवी जीवन को धर्मनीति, राजनीति, आर्थिक नीति, सामाजिक नीति आदि खानों में बांटकर मार्गदर्शन नहीं किया है। इस कारण ये सारी बातें इस्लाम में अविभाज्य होकर एकरुप हो गई हैं। इस्लाम को पाश्चात्य पद्धतिवाला धर्म और राजनीति का विभाजन मान्य नहीं। </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">इस संबंध में हम कुछ विद्वानों के अभिप्रायों पर गौर करेंगे जिससे कि इस्लाम की भूमिका को बडी आसानी से हम समझ सकेंगे - 1. बर्नाड लुईस ः ''ईसाई धर्म के संस्थापक ने अपने अनुयायियों को आदेश दिया कि, 'सीजर (यानी राज्य) का सीजर को दो, ईश्वर (यानी धर्म) का ईश्वर को दो" ... परंतु, तीन शताब्दियों के बाद सम्राट कॉन्सटॅन्टाईन के काल में राज्य और चर्च (धर्म) एक रुप हो गए। परंतु, (मूलतः) इस्लाम के संस्थापक स्वयं ही (ऐसे) कॉन्सटॅन्टाईन थे... इसलिए उनके सहयोगियों के सामने ईश्वर (धर्म) और सीजर (राज्य) इनमें से एक को चुनने का प्रश्न निर्मित ही नहीं हुआ। इस्लाम में सीजर नहीं था केवल अल्लाह था और मुहम्मद साहेब उनके पैगंबर थे। अल्लाह की सीख बतलाना और उसकी ओर से राज्य करना ये दोनो ही काम वे करते थे ... अल्लाह के उस संदेश में (राजनैतिक) आदेश और उसका (धार्मिक) आधार भी दिया हुआ होता था।""</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">''(इस्लाम के अनुसार) राज्य एक धार्मिक संस्था है ... उसमें चर्च और राज्य एक ही होते हैं, जिसका प्रमुख खलीफा होता है। धार्मिक और इहलौकिक, आध्यात्मिक और भौतिक, संत और गृहस्थी, इतना ही नहीं तो पवित्र और अपवित्र इन जुडे हुए शब्दों के लिए इस्लाम में वैकल्पिक संज्ञा ही नहीं है।"" </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">2. भूतपूर्व सांसद एम. तय्यबुल्ला - ''इस्लाम में राज्य और धर्म एक ही और अविभाज्य हैं, एक ही शरीर के दो भाग हैं। हॅन्स कोहन ने अपने सुप्रसिद्ध ग्रंथ the history of nationalism in the eastमें कहा है ः 'इस्लाम केवल धर्म नहीं तो (मुस्लिमों का) राज्य है।" (यह बिल्कूल सत्य है) इस्लाम में राज्य की संकल्पना राजनैतिक-आध्यात्मिक है ... जो राज्य और धर्म में विभाजन की बात करता है उसे (इस्लाम का) कुछ नहीं समझता है। वह केवल अंधता से पाश्चात्यों की नकल करता है और धर्म के संबंध में पूर्णतः अज्ञानी है।""</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">''पैगंबर मुहम्मद ने (इस्लामी) राज्य की स्थापना 'इस्लाम के अविभाज्य अंग" (the organ of islam) के रुप में की थी और वे ही 'अरबस्थान के प्रजासत्ताक के पहले अध्यक्ष" (first president of the republic of arabia) और उसी समय 'इस्लाम के धार्मिक प्रमुख" बने। इसी प्रकार से उनके उत्तराधिकारी खलीफा भी वैसे ही बने।"" (एम. तय्यबुल्ला कांग्रेस के भूतपूर्व सांसद थे। स्वतंत्रता पूर्वकाल में वे महात्मा गांधी के सहयोगी थे। उन्होंने 1942 के स्वतंत्रता के आंदोलन में भाग लिया था और वे कारावास में भी गए थे इस ग्रंथ islam and non violence की प्रस्तावना गांधीजी लिखनेवाले थे। उन्होंने यह ग्रंथ पढ़ा भी था। परंतु, उनकी हत्या के कारण वे प्रस्तावना लिख ना सके। गांधीजी ने उन्हें भेजे हुए एक स्वहस्ताक्षरित पत्र की छायाप्रति भी उस गं्रथ के अंत में दी हुई है। अपना यह ग्रंथ उन्होंने गांधीजी को ही अर्पित किया हुआ है। 1940-48 के काल में असम कांग्रेस अध्यक्ष और बाद में वहां के मंत्री भी रहे थे)</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">3. मौ. अबू मुहम्मद इमामुद्दीन ः ''इस्लाम मानव जीवन का विभाजन दो भागों में करता नहीं है। एक भाग इस्लाम के अधीन और दूसरा (इस्लाम से) स्वतंत्र ऐसा नहीं होता। इस्लाम ही मानव जीवन का संविधान है। उपासना, उपजीविका, सामाजिक व्यवस्था, नागरिकता, शिष्टाचार, राजनीति, शासन व्यवस्था आदि सबकुछ इस्लाम के अधिकार क्षेत्र में समाविष्ट है।""</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">उपर्युक्त कथन इस्लाम की सेक्यूलरिजम के संबंध में भूमिका एकदम साफतौर पर प्रस्तुत करते हैं फिर भी किसी को कुछ शंका ना रह जाए इसलिए हम दअ्वतुल कुरान भाष्य इस संबंध में क्या कहता है पर गौर करेंगे - ''जीवन को धर्म और संसार के खानों में विभक्त कर अल्लाह और उसके रसूल के कितने ही फैसलों को जो पारिवारिक, आर्थिक एवं राजनैतिक जीवन से संबंधित हैं रद्द कर देना और तथाकथित धर्मनिरपेक्ष जीवन पद्धति को अपनाना इस्लाम से खुली विमुखता है।"" (खंड 3 पृ. 1475) </span></div>
</div>
Shirish Saprehttp://www.blogger.com/profile/12101620590252946119noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8695605854559624606.post-76608559701744301282015-03-28T03:38:00.001-07:002015-03-28T03:38:14.900-07:00<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b>भारत में भ्रष्टाचार का इतिहास</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">यद्यपि भ्रष्टाचार कोई अकेले भारत की समस्या नहीं है अपितु वह तो विश्वव्यापी समस्या है। तथापि, इस बात से कोई भी इंकार नहीं कर सकता कि जिस प्रकार से चारों ओर फैले हुए भ्रष्टाचार ने हमें ग्रसित कर रखा है उस कारण भ्रष्टाचार सर्वसाधारणजन और हमारे देश दोनों को लिए एक भयंकर समस्या बन गया है। भले ही भगवान राम या कृष्ण के काल में हमें भ्रष्टाचार का उल्लेख नहीं मिलता। फिर भी भ्रष्टाचार की हमारी ऐतिहासिक परंपरा पुरातन तो निश्चय ही है। मौर्यकाल में इसका उल्लेख मिलता है। आचार्य चाणक्य के अर्थशास्त्र का यह उद्धरण प्रमाणस्वरुप दिया जा सकता है कि जिस प्रकार जल के भीतर रहनेवाली मछली जल पीती है या नहीं यह पता लगाना कठिन है उसी प्रकार सरकारी नौकर भ्रष्टाचार करते हैं या नहीं यह पता लगाना भी एक कठिन कार्य है। उस काल में भी घूस देने को एक अस्त्र की तरह माना जाता था।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">भ्रष्टाचार केवल रिश्वत लेना ही नहीं बल्कि देना भी है। टैक्स न देना या चुराना, लायसेंस-परमिट बेचना, किसी की संपत्ति औने-पौने में लेना, बिना बिल का माल-खरीदना बेचना या झूठे बिल बनाना, बिना दौरे किए भत्ते लेना, आदि यानी कि भ्रष्टाचार के सहस्त्रों रुप और नाम हैं। इस सब पर से तो यही मानना पडेगा कि हमें चिराग लेकर उन्हें ढूंढ़ना पडेगा जो भ्रष्टाचार से वास्तव मंंें सख्त नफरत करते हों। हम भारतीयों के जीवन में भ्रष्टाचार इस प्रकार से व्याप्त हो गया है जैसेकि किसी हरे-भरे पेड के कण-कण में विद्यमान पानी। वास्तव में हम सब किसी ना किसी मौके की तलाश में ही रहते हैं। ये बात अलग है कि यह मौका हर किसीको मिल नहीं पाता या मिला तो वह उसे भुना नहीं पाता। इस कारण वह अनिच्छा से ही क्यों ना हो पर ईमानदार बना रह जाता है।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">किंतु, सच पूछा जाए तो भारत में भ्रष्टाचार का इतिहास मुगलकालीन भारत से शुरु है। मुगल बादशाहों विशेषकर अकबर ने रिश्वत के राजनैतिक हथियार का प्रयोग अपने विरोधियों के दमन के लिए किया, मगर फिर भी भ्रष्टाचार उस काल में इतना विकराल नहीं था। वास्तव में भ्रष्टाचार ने व्यापक रुप लेना प्रारंभ किया ब्रिटिशों द्वारा भारत पर कब्जे के बाद। उन्होंने पटवारी, पुलिस कॉन्सटेबल और चपरासी जो क्रमशः राजस्व, कार्यपालिका एवं न्यायपालिका से संलग्न थे, नियुक्त किए और इन तीनो के ही वेतन बहुत कम रखे इस कारण वे अतिरिक्त कमाई रिश्वत की आय से करने लगे। इन तीनो को ही ब्रिटिशों ने अपनी शासन पद्धति का आधार स्तंभ बना रखा था। इस प्रकार भ्रष्टाचार बढ़ने लगा तथा कुछ विभाग तो भ्रष्टाचार के लिए ही मशहूर हो गए।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">आगे चलकर जब देश स्वतंत्र हुआ तो उद्योगीकरण की शुरुआत हुई। लोगों में संपत्ति का मोह कुछ अधिक ही बढ़ने लगा साथ ही नैतिक पतन भी प्रारंभ हुआ और भ्रष्टाचार ने अपनी जडें विभिन्न क्षेत्रों में जमाना भी प्रारंभ कर दिया। स्वतंत्रता प्राप्ति के दो-तीन दशकों तक तो ऊपर की कमाई करनेवाले लोग बडे गुपचुप तरीके से रिश्वत लेते थे और समाज के सामने रिश्वत के पैसों का भौंडा प्रदर्शन भी नहीं करते थे ताकि उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा बनी रहे। क्योंकि, उस समय भ्रष्टाचारी को लोग अच्छी नजरों नहीं देखते थे। मगर धीरे-धीरे परिदृश्य बदलने लगा और भ्रष्टाचारी समाज में प्रतिष्ठा पाने लगे। आगे चलकर जब वैश्वीकरण-निजीकरण की बयार बहने लगी तो भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारियों का कुनबा बढ़ने लगा उसने वटवृक्ष का रुप धारण कर लिया और ईमानदार व ईमानदारी ने उसके तले दम तोडना प्रारंभ कर दिया।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">चुनावी खर्चों के कारण संविधान द्वारा घोषित प्रजातांत्रिक समाजवादी राष्ट्र राजनेताओं और भ्रष्ट नौकरशाहों के हाथों का खिलौना बन गया। उद्योगपतियों से चंदा उगाही शुरु हो गई। जिसके कारण अनुचित व्यापार पद्धति और कालाबाजारी दिए गए चंदे की कई गुना वसूली की प्रवृत्ति स्वाभाविक रुप से जोर पकडने लगी। इस भ्रष्टाचार के माध्यम से अधिकाधिक धन कमाने के लिए कोटा-परमिट राज लाया गया, ट्रस्ट बना डोनेशन के माध्यम से धन एकत्रित किया जाने लगा। सरकारी बैंकों से फर्जी तरीके से लोन लेकर वारे-न्यारे किए जाने लगे। इस पूरे सिस्टम में बाधक बननेवाले नेताओं-अधिकारियों को धन से खरीदा जाने लगा या रास्ते से किसी ना किसी प्रकार से हटाया जाने लगा। इस प्रकार भ्रष्टाचार का घोडा सरपट दौडने लगा। इस पूरी प्रक्रिया से कालाधन पैदा होने लगा। 21 दिसंबर 1963 को भारत में भ्रष्टाचार के खात्मे पर संसद में हुई बहस में राममनोहर लोहिया ने जो भाषण दिया था वह आज भी प्रासंगिक है। उस समय लोहिया ने कहा था कि सिंहासन और व्यापार के बीच संबंध भारत में जितना दूषित, भ्रष्ट और बेईमान हो गया है उतना दुनिया के इतिहास में कहीं नहीं हुआ। </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">उदारीकरण-बाजारवाद-वैश्विकरण-निजीकरण की नीतियां अपनाने के बाद पहले कोटा-परमिट इंस्पेक्टर राज को भ्रष्टाचार को लिए दोषी ठहराया गया अब नए दौर को दोष दिया जा रहा है। किंतु, यह सच भी है कि इस नए दौर में जितना कालाधन पैदा हुआ विदेशों में गया उतना पहलेवाले दौर में नहीं हुआ था। इस सबका सबसे बडा दुखद पहलू तो यह है कि भ्रष्टाचार का वायरस न्यायपालिका, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे पवित्र एवं सेवाभावी पेशों में गहरे तक पैठ गया है। वस्तुतः आज भ्रष्टाचार गॉडफादर बन गया है इसे खुश रखो और मजे में जीयो वरना जीना दुभर हो जाएगा ऐसी परिस्थिति निर्मीत हो गई है। किसी एक को दोषी नहीं ठहराया जा सकता, हमाम में सभी नंगे हैं, जितना जिसके हाथ लग जाए उतना वह साफ कर देता है और जिसको मौका नहीं मिलता वह पाक-साफ बना भ्रष्टाचार का रोना रोते रहता है। </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">सच तो यह है कि भ्रष्टाचार हमारी सबसे बडी कमजोरी है और इस भ्रष्टाचार की उत्पत्ति मानव आचरण में नैतिकता के क्षरण का परिणाम है। भ्रष्टाचार के इस जानलेवा विषाणु से मुक्ति पाना कोई आसान काम नहीं। इसके प्रभाव को शनैः शनैः ही कम करना होगा। इसके लिए आचरण की शुद्धता की आवश्यकता है। साधारण लोग तो बडों का ही अनुसरण करते हैं और जब तक शीर्ष पर बैठे लोग सादगी का और भ्रष्टाचार मुक्त आचरण का प्रदर्शन नहीं करते। आदर्श प्रस्तुत नहीं करते तब तक इस भ्रष्टाचार की दीमक से छुटकारा नहीं मिल सकता। इसके अलावा सबसे अधिक आवश्यकता यदि किसी बात की है तो वह है सामाजिक संस्कारों की भी जिसकी शुरुआत घर से ही होती है जो लगभग ओझल सी हो गई है।</span></div>
</div>
Shirish Saprehttp://www.blogger.com/profile/12101620590252946119noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8695605854559624606.post-13411241870224297852015-03-11T00:05:00.002-07:002015-03-11T00:05:19.066-07:00<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b>आशाओं पर तुषारापात - जाएं तो जाएं कहां?</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">मई 2014 में जब भाजपा की मोदी सरकार 'अच्छे दिन आएंगे" के नारे के साथ अपने बलबूते पूर्ण बहुमत के साथ सरकार बनाने में कामयाब हुई तो, लोगों की आशाएं परवान चढ़ने लगी। सर्वसाधारण जनता को लगने लगा था कि अब अवश्य बदलाव आएगा, सरकारी ढ़र्रा कुछ बदलेगा, भ्रष्टाचार से मुक्ति मिलेगी, कालाधन वापिस आएगा, महंगाई से राहत मिलेगी। जो लोग मोदी के भाषणों के मुरीद और कट्टर समर्थक थे उन्होंने तो मानो मोदी का झंडा सा ही उठा रखा था। रोज मोदी भाषण देते और समर्थक उन भाषणों पर चर्चा कर खुशी जताते, विरोधियो की आलोचनाओं का मजाक उडाते। परंतु, गुजरते समय के साथ इन समर्थकों से लेकर आम जनता में भी बेचैनी बढ़ने लगी, उत्साह कुछ ठंडा पडने लगा। नया कुछ होते नजर नहीं आ रहा कि भावना बलवती होने लगी लेकिन फिर भी जनता ने मोदी के नाम पर वोट देकर भाजपा को महाराष्ट्र, हरियाणा, झारखंड में विजय दिलवाने के साथ ही कश्मीर में भी अभूतपूर्व सीटें जीतवा दी।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">मोदी के भाषण बदस्तूर जारी रहे। परंतु, अब बेचैनी जाहिर रुप से लोग प्रकट करने लगे और अंततः बेचैनी ने उग्र रुप धर लिया। दिल्ली में भाजपा बुरी तरह पराजित हुई। मोदी का नारा 'कांग्रेस मुक्त भारत" को वे तो साकार नहीं कर पाए परंतु केजरीवाल ने जरुर दिल्ली को कांग्रेस मुक्त कर दिया। वैसे तो मूलतः यह नारा होना था 'भ्रष्टाचार मुक्त भारत" क्योंकि, भ्रष्टाचार की जननी तो कांग्रेस ही है और उसीने ऊपर से लेकर नीचे तक भ्रष्टाचार फैलाया, उसे प्रश्रय दिया।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">दिल्ली के नतीजों के बाद मुझे कई लोग प्रतिक्रिया देते नजर आए कि, अच्छा हुआ कुछ जमीन पर आएंगे। कुछ लोगों की प्रतिक्रिया थी कि चलो कोई तो मिला, अब कम से कम विपक्ष तो भी नजर आएगा। क्योंकि, कांग्रेस तो मृत प्राय पडी है, विरोधी पक्ष की भूमिका भी निभा नहीं पा रही। उसे तो बस विपक्ष के नेता का दर्जा चाहिए। इसी बीच एक बडी गलती मोदी सरकार से हो गई भूमि अधिग्रहण अधिनियम संशोधन की। बस विपक्ष में जान आना प्रारंभ हो गई। दिल्ली के चुनाव में भाजपा की हार में इस अधिग्रहण की भी बडी भूमिका रही।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">मोदी सरकार के समर्थक और कुछ लोग फिर भी आशाएं लगाए रहे कि चलो बजट के बाद कुछ बदलाव आएगा। परंतु, इस बजट ने तो उनकी आशाओं पर तुषारापात ही कर दिया। वोटर अपने को ठगा सा महसूस कर रहे हैं। आरंभ से ही भाजपा और मोदी का सबसे बडा समर्थक वर्ग मध्यम वर्ग ही रहा है। कांग्रेस सरकार के जमाने में सबसे ज्यादा उसीको भुगतना पडा था। उनकी नौकरियां खतरे में आ गई थी। उनका तो फील गुड ही जो चला गया था। उन्हें भी बडी आशा थी। परंतु, उन्हें इन्कमटैक्स में कोई छूट नहीं मिली, वे निराश हो गए, छूट के नाम पर हैल्थ प्लान में इंवेस्टमेंट की लीमिट 15000 से बढ़ाकर 25000 कर दी। किंतु, इस छूट का लाभ उठाने के लिए पैसा भी तो बचना चाहिए, नई नौकरियां भी तो मिलना चाहिए बल्कि कई कंपनियों में तो छंटनी होना शुरु हो गई है तो, कई स्थानों पर तलवार लटक गई है।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">ऐसे में सर्विस टैक्स में बढ़ौत्री ने किसी को भी कहीं का भी नहीं छोडा, ऊपर से 2 प्रतिशत स्वच्छता कर अलग से यानी कुलामिलाकर 16 प्रतिशत का बोझा। लेकिन सिलसिला यहीं नहीं रुका बजटवाली रात को ही पेट्रोल डीजल के भाव प्रति लीटर तीन रुपये से अधिक बढ़ा दिए जिससे कि बजट के बाद जो महंगाई का कहर आम जनता पर पडनेवाला है उसका ठीकरा पेट्रोल-डीजल पर फूटे। अब जनता की तो हालत यह हो गई है कि जाएं तो जाएं कहां? बडे बेआबरु होकर जो उनके कूचे से निकले। </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">हां, कारपोरेट टैक्स को कम करने में सरकार चूकी नहीं है। आखिर वे भी तो मोदी के पक्के समर्थक जो हैं। रही मीडिल क्लास की बात तो वित्तमंत्री जेटली ने कह ही दिया कि मिडिल क्लास अपना ध्यान खुद रखे। लेकिन यदि इस मिडिल क्लास ने इन बडबोलों का ध्यान रखने की ठान ली ना तो क्या होगा, इसका भी तो जरा विचार कर लें। सोशल मीडिया पर यही वर्ग सबसे अधिक सक्रिय है और उसीने पिछली बार कांग्रेस विरोधी हवा बनाने में एक अहं रोल निभाया था।</span></div>
</div>
Shirish Saprehttp://www.blogger.com/profile/12101620590252946119noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-8695605854559624606.post-14258770811320161012015-03-08T01:00:00.000-08:002015-03-08T01:00:06.729-08:00<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><u>महिलाओं की आजादी की पक्षधर </u></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b>मलिका - ए - अफगानिस्तान ः सुरय्या</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">20वीं सदी के उत्तरार्ध में तालिबान द्वारा देश को मुहम्मद गजनी और मुहम्मद गौरी के दौर में पहुंचाने और इस्लाम के नाम पर अफगान महिलाओं को पिंजरेनुमा बुर्के में कैद करने के कारण अफगानिस्तान चर्चा में आया, तो 20वीं सदी के पूर्वार्ध में अफगानिस्तान दो कारणों से प्रसिद्ध हुआ एक, अंग्रेजों के चंगुल से छूटकर स्वतंत्रता प्राप्ति में सफल होने और दो, अफगानिस्तान की मलिका (रानी) सुरय्या के कारण जिसको पाश्चात्य देशों में बडी प्रसिद्धी और कीर्ति प्राप्त हुई।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">अफगानिस्तान की स्त्रियों को सर्वप्रथम मुक्ति का मार्ग दिखानेवाले थे वहां के राजा अमानुल्लाह और उनकी पत्नी सुरय्या। अमानुल्लाह का शासनकाल (1919-29) मात्र दस वर्ष चला और अंत में उन्हें अपने सुधारवादी रवैये के कारण देश छोडकर भागना पडा। उसकी प्रतिभा और साहस लोकोत्तर था। उसने अमीर का पद तोडकर स्वयं को बादशाह घोषित कर अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध का शंखनाद कर दिया। दबाने में असफल हो अंततः विवश हो अंगे्रजों ने उससे संधि कर ली अफगानिस्तान एक स्वतंत्र राष्ट्र के रुप में सामने आया। अमानुल्लाह यूरोप में शिक्षित होकर उदारचेता एवं अपने देश को रुढ़िवाद से मुक्त कर इस्लाम के अंधकार से निकाल उन्नत और सभ्य देशों की श्रेणी में लाना चाहता था। उसने यूरोप और एशिया के प्रमुख देशों के साथ व्यापारिक एवं कूटनीतिक संबंध जोडे। 1920 में ही उसने नया क्रिमिनल एवं सिविल कोड तैयार किया था।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">उसने 1913 में जिस स्त्री सुरय्या से विवाह अपनी पहली पत्नी परिगुल से संबंध विच्छेद कर किया था वह दमास्कस (सीरिया) में शिक्षित होकर वहां उसने आधुनिक और पाश्चात्य कल्पनाओं को अंगीकार कर लिया था। सुरय्या के पिता सरदार महमूद तर्जी अफगान होकर राजनैतिक कारणों से सीरिया में आश्रय लेकर रह रहे थे। महमूद तर्जी एक विचारवंत नेता होकर अमानुल्लाह के पिता हबीबुल्लाह ही उन्हें वापिस अफगानिस्तान लेकर आए थे। अफगानिस्तान को आधुनिक बनाने की कोशिशों में उनका बडा ही योगदान है। महमूद तर्जी बहुपत्नीत्व परंपरा के विरोधी थे और स्त्रियों की शिक्षा और रोजगार का आग्रह रखते थे। सुरय्या भी इसी विचारसरणी का मूर्तिमंत प्रतीक थी। अमानुल्लाह ने भी इन्हीं विचारों को अंगीकृत कर गांव-गांव में स्त्री शिक्षा का आंदोलन चलाया। सुरय्या भी सामाजिक बदलाव लाने के लिए आग्रही होने के कारण अनेक लडकियों ने उच्च शिक्षा ग्रहण की यहां तक कि विदेशों में भी जाकर और आगे जाकर यही स्त्रियां सरकारी विभागों में उच्चाधिकारी बनकर कार्य कर सकी। </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">यह सुरय्या के प्रोत्साहन का ही नतीजा था कि अनेक महिलाएं शिक्षा ग्रहण करने लगी। तुर्कस्तान के बदलाव को देखकर उसने 15 होशियार लडकियों को वहां भेजा। अफगानिस्तान की नई मानसिकता तैयार करने के लिए तर्जी ने 'सिराजुल अखबार" नामक पत्र चलाया था। सुरय्या ने भी स्त्रियों के लिए 'इरशाद-ए-निसवान" मासिक शुरु किया था। सुरय्या अपने भाषणों में पुरुषों की बराबरी से ही स्त्रियों को भी स्वतंत्रता मिलना चाहिए का प्रचार अपने भाषणों द्वारा करती थी। देश की उत्क्रांति में सुरय्या की महत्वपूर्ण भूमिका को देखते हुए अमानुल्लाह जनता को संबोधित करते हुए कहा करता था मैं तुम्हारा राजा हूं और तुम्हारी शिक्षामंत्री तुम्हारी रानी सुरय्या है। सुरय्या उन्हें शिक्षा एवं ज्ञान प्राप्ति के लिए कहती थी। वे एक साथ अनेक सार्वजनिक कार्यक्रमों में शिरकत करते थे। वह उसके साथ शिकार और अश्वारोहण का शौक भी रखती थी। अफगानिस्तान की आजादी की लडाई में घायल सैनिकों से मिलती उनके साथ संवाद स्थापित कर उन्हें भेंट भी देती, विद्रोह स्थलों पर जाकर लोगों से चर्चा भी करती।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">अमानुल्लाह के आधुनिकीकरण और सुधार अभियान का जबरदस्त विरोध भी हुआ। इस्लाम के नाम पर चल रहे ढ़ोंग को उसने शीर्षासन करवा दिया। परदा प्रथा को बंद करा दिया। अफगान महिलाएं भी पाश्चात्य पद्धति के कपडे पहनने लगी, बाल कटवाने लगी। बालविवाह पर बंदिश आई। लडकियां अपना पति स्वयं पसंद करने लगी। अफगानियों को कोट-पैंट पहनना अनिवार्य कर दिया गया। शुक्रवार के स्थान पर गुरुवार को छुट्टी घोषित कर दी गई। यहां तक कि देवबंदी उलेमाओं को देश निकाला दे दिया गया।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">1928-29 में अमानुल्लाह और सुरय्या ने यूरोप यात्रा की ऑक्सफोर्ड यूनिव्हर्सिटी ने उन्हें सम्मानीय पदवी प्रदान की सुरय्या ने वहां विद्यार्थियों के समक्ष व्याख्यान दिया। अमानुल्लाह पाश्चात्य तंत्रज्ञान से प्रभावित था। वही सबसे पहले फोटोग्राफी के साधन अफगानिस्तान में लाया। उन दोनो की जीवनप्रणाली पाश्चात्य पद्धति की होकर वे शूटिंग, हंटिंग व फिशिंग उनकी दिनचर्या में शामिल थी। सुरय्या हमेशा चायपार्टी आयोजित किया करती थी। वह इंग्लैंड की उच्चभ्रू महिलाओं के समान पोशाक किया करती थी। इस प्रकार की दिनचर्या से अफगान लोग पूरी तरह से अनभिज्ञ थे। 10 दिसंबर 1927 को अमानुल्लाह और सुरय्या भारत चमन आए थे। चमन से वे कराची गए वहां एक समारंभ में सुरय्या ने अनेक स्त्रियों से भेट की। उस समय सुरय्या द्वारा कही गई कथाएं और उसके सौंदर्य के वर्णन चर्चा का विषय बने। </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">1919 में अंग्रेजों से किए गए युद्ध के कारण अमानुल्लाह और अंग्रेजों के संबंध कुछ अच्छे ना थे। उसने अफगानिस्तान का संविधान तैयार किया था। सरकार का स्वरुप और राजा की भूमिका ये सारी बातें संविधान की दृष्टि से जनता के सामने स्पष्ट की। सारे विश्व में अमानुल्लाह और सुरय्या द्वारा किए गए सुधार चर्चा का विषय बने। किंतु, अंग्रेजों ने सुरय्या की स्त्री मुक्ति आंदोलन का विरोध किया, अफगानिस्तान को आधुनिक बनाने का उपक्रम वहां के कट्टरपंथियों को भी रास ना आया। जब 1929 में वे वापिस लौटे तब तक उनके विरोध में जोरदार जनमत तैयार हो चूका था। अंतर्गत गृहयुद्ध को टालने के लिए उन्होंने देश त्यागने का निर्णय लिया और रोम में स्थायी होना तय कर विदेशों में अपना शेष जीवन बीताया। अफगानिस्तान फिर से पीछे चला गया। तुर्की में कमाल अता तुर्क तो सुधार लाने में सफल रहा परंतु, अमानुल्लाह अफगानिस्तान में सफल ना सका। लेकिन अमानुल्लाह और सुरय्या द्वारा बोए बीज दोबारा प्रस्फुटित हो गए।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">1977 में कुछ पुरोगामी विचारों की महिलाओं ने एकत्रित आकर 'रिव्होल्यूशनरी अफगान विमेन्स एसोसिएशन" (रावा) की स्थापना की। सामाजिक न्याय और मानवाधिकारों की रक्षा 'रावा" का ध्येय है। 'रावा" मुस्लिम कट्टरपंथियों के विरोध में तो है ही परंतु, 1979 में अफगानिस्तान पर हुए रशिया के हमले का भी 'रावा" ने विरोध किया था। जब तालिबान ने सत्ता में आने के बाद अफगान स्त्रियों का जीवन अंधकारमय कर दिया था तब इस प्रकार की भयानक परिस्थिति में भी बहुत बडा धोखा उठाकर भी कुछ अफगान महिलाओं ने लडकियों के लिए गुप्त रुप से स्कूल चलाए। 'रावा" अपना भूमिगत कार्य चलाते रही। जब असंभव हो गया तब पाकिस्तान जाकर वहां भी निर्वासित अफगान स्त्रियों-लडकियों के लिए स्कूल चलाए। उपजीविका के साधनों के रुप में सिलाई-कढ़ाई-बुनाई की शिक्षा दी, महिलाओं के लिए दवाखाने चलाए। यूनो के सामने अफगान स्त्रियों की दुर्दशा प्रस्तुत की, उनकी ओर से प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष सहायता की अपेक्षा रखी। परंतु, किसी ने उनकी परवाह नहीं की लेकिन जब अमेरिका पर 11 सितंबर का हादसा गुजरा तब दुनिया जागी। परंतु, बिना हताश हुए अफगान स्त्रियों ने हिम्मत, धैर्य के साथ अनंत यंत्रणाएं सहकर भी अपनी लडाई जारी रखी। अपने परिवारों को, समाज को रीढ़ की हड्डी बन संभाले रखा।</span></div>
</div>
Shirish Saprehttp://www.blogger.com/profile/12101620590252946119noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8695605854559624606.post-84573217401203656002015-02-26T02:01:00.002-08:002015-02-26T02:01:21.758-08:00<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b>महापुरुषों का प्रभाव - अटलजी और प्रधानमंत्री मोदी पर</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">जब अटल बिहारी बाजपेयी एनडीए 1 के प्रधानमंत्री थे। तब 'उन्होंने स्वयं उन दस महान व्यक्तियों के नाम गिनाए थे, जिन्होंने उनके संपूर्ण व्यक्तित्व को प्रभावित किया। ... इन दस व्यक्तियों में आठ भारतीय हैं और दो विदेशी हैं। 'रेडिफ ऑन द नेट" चैनल के 'द मिलेनियम स्पेशल" श्रंखला को दिए गए साक्षात्कार में श्री वाजपेयी ने यह जानकारी दी थी। उन्होंने कहा था - इन व्यक्तियों का प्रभाव मुझ पर छात्र जीवन से रहा तो कुछ नेताओं ने मेरे पांच दशक के राजनीतिक जीवन पर छाप छोडी। स्वामी विवेकानंद से मैं बाल्यकाल से प्रभावित रहा। बाल्यकाल के बाद जब मैं पत्रकार बना और आज जब मैं देश का प्रधानमंत्री हूं, तब भी स्वामी विवेकानंद का जीवन और संदेश मुझे प्रेरणा देता रहता है। ... महात्मा गांधी का भी मुझ पर बहुत प्रभाव है। आधुनिक भारत के निर्माण में उनका योगदान अमूल्य है। शहीद भगतसिंह ने तो मेरी समूची पीढ़ी की कल्पनाशक्ति को ही चुनौती दी। विदेशियों के खिलाफ उनके संघर्ष से तो मैं अवाक् रह गया। बैरिस्टर सावरकर की राष्ट्रवाद के इतिहास में मिसाल नहीं है। अत्यंत विपरीत परिस्थितियों से संघर्ष कैसे किया जाए, यह मैंने उनसे सीखा है। मेरे छात्र जीवन को प्रभावित करनेवाले नेताओं में नेताजी सुभाषचंद्र बोस भी थे। आजादी के बाद सरदार वल्लभभाई पटेल और पंडित जवाहरलाल नेहरु से मैंने खूब सीख ली। आज जो भारत हम देख रहे हैं, उसका निर्माण पटेल-नेहरु ने ही किया। अखंड भारत के लिए डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी के राष्ट्रवाद को मैं कतई नहीं भूल सकता। विंस्टन चर्चिल और मार्टिन ल्यूथर किंग के जीवन से भी मुझे प्रेरणा मिली है।" (नईदुनिया 9-12-99)</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">अब नरेंद्र मोदी एनडीए 2 के प्रधानमंत्री हैं और वे गांधी-पटेल से बहुत प्रभावित हैं। यह गांधीजी का ही प्रभाव है जिसके कारण 2 अक्टूबर 2014 को 'स्वच्छ भारत अभियान" का आगाज कर सन् 2019 तक संपूर्ण भारत को स्वच्छ कर गांधीजी के 'स्वच्छ भारत" के सपने को साकार करने का बीडा उन्होंने उठाया है। गांधीजी स्वच्छता पसंद होेने के साथ ही साथ सादगीप्रिय भी थे। मोदी जिस संघपरिवार से आते हैं उस परिवार में भी स्वच्छता पसंदगी और सादगीप्रियता की परंपरा रही है। लेकिन मोदी की जीवनशैली और कार्यशैली दोनो ही तडक-भडक पूर्ण और सामनेवाले को चकाचौंध कर देनेवाली है। वैसे इस मामले में यह भी कहा जा सकता है कि पसंद अपनी-अपनी, शौक अपना-अपना।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">संघपरिवार में चाणक्य और चंद्रगुप्त का भी बडा प्रभाव है और उनके उदाहरण भी दिए जाते रहते हैं। इन्हीं कौटिल्य और चंद्रगुप्त पर एक एपिसोड् क्रमांक (10) 'मानव पुरुषार्थ - अर्थ" 'उपनिषद गंगा" में है। इस 'उपनिषद गंगा" धारावाहिक का प्रसारण तीन-चार वर्ष पूर्व उपनिषदों के विचार और वैदिक संस्कृति से अवगत कराने के प्रयत्न के तहत दूरदर्शन द्वारा किया गया था। इस एपिसोड् का कुछ वार्तालाप प्रासंगिक होने के कारण उसका उल्लेख यहां कर रहा हूं। (यह संपूर्ण एपिसोड् देखना पाठकों के लिए अधिक योग्य साबित होगा)</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">चंद्रगुप्त राज्य संचालन एवं अपने जीवन के निजी विषयों के संबंध में चाणक्य के कठोर निर्णयों से दुखी हो कह उठता है - नहीं बनना मुझे सम्राट, नहीं चाहिए यह साम्राज्य। नहीं होगा यह राज्याभिषेक। रोक दो यह राज्याभिषेक। इसके बाद चाणक्य आकर कहते हैं ः यह क्या सुन रहा हूं मैं चंद्रगुप्त।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">चंद्रगुप्त ः आपने ठीक ही सुना है आचार्य। नहीं बनना मुझे मगध का सम्राट। चाणक्य ः क्यों? </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">चंद्रगुप्त ः जब से यहां आया हूं, अपनी इच्छा से सांस तक नहीं ले सका हूं। आपने मुझे एक महान स्वप्न दिया था। चक्रवर्ती सम्राट का स्वप्न। एक महान साम्राज्य का स्वप्न। परंतु, यहां आने के बाद पता चला, आचार्य विष्णुगुप्त के लिए सम्राट एक वेतन लेनेवाले नौकर से बढ़कर कुछ नहीं।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">चाणक्य ः तूने ठीक ही समझा है चंद्रगुप्त। मेरे लिए सम्राट समाज के नौकर से बढ़कर कुछ नहीं।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">चंद्रगुप्त ः तो रखें अपना साम्राज्य। नहीं बनना मुझे सम्राट। यदी यही सुख है सम्राट होने का।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">चाणक्य ः चंद्रगुप्त तुझे सुखी होना है। चंद्रगुप्त ः क्या सम्राटों को सुखी नहीं होना चाहिए?</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">चाणक्य ः मूर्ख, जब तक तेरे साम्राज्य में एक भी व्यक्ति भूखा है तो क्या, तू सुखी हो पाएगा? सुख शिक्षक और सम्राटों के भाग्य में नहीं होता। भूल गया तू, चंद्रगुप्त। मैंने तुझे साम्राज्य देने का वचन दिया था। सुख देने का नहीं। भूल गया तू, प्रजा के सुख में ही राजा का सुख है। सुख चाहता है! तो, पहले अपनी प्रजा को सुखी बना। तूने साम्राज्य अर्जित किया है। सुख अर्जित करने का मार्ग भी तेरे लिए खुला है। (क्या यही एकात्ममानवतावाद नहीं है)</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">तत्पश्चात चंद्रगुप्त का राज्याभिषेक चाणक्य के हाथों होता है। इस समय चाणक्य चंद्रगुप्त को उपदेश देता है- चंद्रगुप्त यह राष्ट्र तुम्हें सौंपा जाता है। तुम इसके संचालक, नियामक और उत्तरदायित्व के दृढ़वाहनकर्ता हो। यह राज्य तुम्हें कृषि के कल्याण, संपन्नता और प्रजा के पोषण के लिए दिया जाता है। </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">इस पूरे घटनाक्रम के पश्चात उद्घोषिका कहती है - अपने महान गुरु के महान शिष्य चंद्रगुप्त ने अर्थ का ऐसा पाठ पढ़ा कि अपने जीवन के अंतकाल में चालीस दिन तक अन्न ग्रहण नहीं किया। क्यूं? क्योंकि, अपने जीवन के अंतसमय में चंद्रगुप्त के राज्य में भीषण अकाल के कारण लोगों के पास अन्न नहीं था। महान गुरु, महान शिष्य, महान आदर्श। अपने महान शिष्य के लिए महान गुरु ने कौटिल्य के नाम से अर्थशास्त्र नामक ग्रंथ की रचना की।</span></div>
</div>
Shirish Saprehttp://www.blogger.com/profile/12101620590252946119noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8695605854559624606.post-13781231998121902052015-02-19T21:26:00.000-08:002015-02-19T21:26:03.367-08:00<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"> शिवरात्री विशेष </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b>शिवशंकर की आंख से टपका आंसू - रुद्राक्ष </b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">रुद्राक्ष हिंदुओं के जीवन का एक महत्वपूर्ण प्रतीक है। रुद्राक्ष को धारण करनेवाला शिव का आराधक है ही यह माना जाता है। जिस प्रकार से शिवजी की पूजा में आक, धतूरा, बेलपत्र और चंदन अनिवार्य रुप से रहते ही हैं उसी प्रकार से रुद्राक्ष भी होता ही है। रुद्राक्ष यानी रुद्र + अक्ष। एक और अर्थ रुद्र के तेज से बहे अश्रु। रुद्राक्ष को हिंदुओं के दैनिक जीवन में कैसे स्थान मिला इस संबंध में कथा इस प्रकार से है ः प्राचीनकाल में असुरों का नेता त्रिपुरासुर ने युद्ध में देवताओं को पराजित कर दिया। दुखी हो देवता शिवजी की शरण में आए। थोडा विचार करने के पश्चात शिव ने नेत्र मूंद लिए और हजारों वर्ष की तपस्या में लीन हो गए। लंबे समय के पश्चात अनायास उन्होंने अपने नेत्र जरा से खोले और उनसे आंसू की बूंंदे टपक पडी। कहते हैं उन्हीं आंसुओंं से रुद्राक्ष का वृक्ष पल्लवित हुआ। इस प्रकार जनकल्याण की भावना से उत्पन्न हुआ शिवजी का यह अंशरुपी परम श्रेष्ठ फल है रुद्राक्ष जो शिवजी को बहुत ही प्रिय है। रुद्राक्ष धारण करने से भुक्ति-मुक्ति, कल्याण एवं सर्वांगिण सुख-शांति प्राप्त होती है।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">बताया जाता है कि सूर्य से बारह प्रकार के रुद्राक्ष अस्तित्व में आए, सोलह चन्द्रमा से और दस अग्नि से जन्मे हैं। सूर्य से निकले रुद्राक्ष का रंग रक्त की भांति लाल, चन्द्रमा से निकले रुद्राक्ष का रंग सफेद एवं अग्नि से निकले काले रंग के थे। प्रत्येक रुद्राक्ष पर खाने एवं मुख अंकित होते हैं और उनके अंकों में भी विभिन्नता होती है। इसकी इक्कीस किस्में अस्तित्व में हैं। पंचमुखी रुद्राक्ष बहुतायत से उपलब्ध होते हैं एवं सस्ते भी होते हैं। जबकि एकमुखी, ग्यारह मुखी, चौदह मुखी और इक्कीस मुखी रुद्राक्ष दुर्लभ होते हैं। अलग-अलग मुखी रुद्राक्ष एक ही पेड पर हो सकते हैं। जंगल में रुद्राक्ष को एकत्र किया जाता है, फिर मुख के अनुसार उन्हें छांटा जाता है। वैसे नकली रुद्राक्ष मिलना आम बात है। रुद्राक्ष का भ्रम उत्पन्न करनेवाला छोटे बेर के आकार का रुद्राक्ष भी मिलता है जो बडा सुंदर होता है। प्रायः यह जावा-सुमात्रा द्वीपों से आता है। महिलाएं इसकी माला गले में पहनती हैं, परंतु यह रुद्राक्ष से भिन्न है। हरिद्वार और वाराणसी जैसे धार्मिक केंद्रों पर रुद्राक्ष जैसा ही एक वृक्ष पाया जाता है जिसका फल भी बिल्कूल रुद्राक्ष जैसा ही होता है इसे भद्राक्षस कहा जाता है। छोटे आकार का रुद्राक्ष सुख और भाग्य बढ़ानेवाला होता है।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">एक मुखी रुद्राक्ष स्वयं शिव का प्रतिनिधित्व करता है और प्रायः दुर्लभ है। जिसके पास एकमुखी रुद्राक्ष होता है उसके पास किसी चीज का अभाव नहीं रहता। शैव मतावलंबियों के मतानुसार सदाशिव स्वरुप एक मुखी रुद्राक्ष वृक्ष से चटखकर वहीं गिरता है जहां विधिवत शिवलिंग की स्थापना की गई हो एवं वहीं विलीन भी हो जाता है। </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">दो मुखी रुद्राक्ष विरल होकर उसको गौरीशंकर के नाम से संबोधित किया जाता है और पाप दूर करता है। तीन मुखी रुद्राक्ष अग्निस्वरुप होकर यह माना जाता है कि शक्तिप्रदाता होकर बीमारी दूर करता है एवं बेरोजगारी भी दूर करता है। चतुर्मुखी रुद्राक्ष ब्रह्म स्वरुप होकर छात्रों के लिए औषधी है। यह मस्तिष्क को तेज करता है व स्मरणशक्ति भी बढ़ाता है। पंचमुखी रुद्राक्ष कालाग्नि का स्वरुप है। सभी अभक्ष्य एवं अगम्यागम्य पापों से मुक्ति दिलाता है। ह्रदयरोग एवं मानसिक अशांति वालों के लिए लाभदायक है।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">छहमुखी रुद्राक्ष साक्षात कार्तिकेय है। इसे दाहिने हाथ में धारण करना चाहिए। जो इसे धारण करता है उसकी भौतिक इच्छाओं की क्षति नहीं होती। यह हिस्टीरिया, रक्तचाप एवं स्त्री रोगों का भी उपचार करता है। सप्तमुखी रुद्राक्ष कामदेव का प्रतीक है और धन की प्राप्ति कराता है। अष्टमुखी रुद्राक्ष व्यापारियों के लिए लाभकारी है एवं साक्षात गणेश स्वरुप है। नौमुखी रुद्राक्ष भैरव नाम होकर बाएं हाथ में पहना जाता है। यह दुर्लभ होकर भैरव के समान शक्ति प्राप्त होती है।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">दसमुखी रुद्राक्ष जनार्दन यानी विष्णु का रुप है। इसको धारण करनेवाले के पास भूत-पिशाच निकट नहीं आते। ग्यारहमुखी रुद्राक्ष रुद्र का प्रतीक है। इसे शिखा में धारण करने का विधान है और अधिकतर महिलाएं इसे धारण करती हैं। द्वादशमुखी रुद्राक्ष बारह आदित्यों का निवास स्थान है। इसे कानों में ईश्वर को प्रसन्न करने के लिए धारण किया जाता है। इससे पशुओं के दांतों और सिंगों से सुरक्षा मिलती है। तेरह मुखी रुद्राक्ष कार्तिकेय के समान धर्म, अर्थ काम और मोक्ष प्रदान करता है। चौदहमुखी रुद्राक्ष शिव का नेत्र है, शिव स्वरुप है और इससे बीमारी के विरुद्ध रक्षा होती है। पंद्रहमुखी रुद्राक्ष पशुपतिनाथ का प्रतीक है। यह उन लोगों के लिए लाभकारी है जो आध्यात्मिक उपलब्धि चाहते हैं। सोलहमुखी रुद्राक्ष धारण करनेवाले की चोरी के विरुद्ध रक्षा होती है। सत्रहमुखी रुद्राक्ष विश्वकर्मा का प्रतीक है। लोगों का विश्वास है कि इसको धारण करने से अचानक धन प्राप्ति होती है। अठराहमुखी रुद्राक्ष को पृथ्वी का प्रतीक माना जाता है तो कुछ लोग इस भैरवस्वरुप भी मानते हैं। गर्भवती महिलाओं की समयापूर्व प्रसूती से रक्षा करता है और बच्चों की रोगों से रक्षा करता है। उन्नीसमुखी साक्षात नारायण का रुप है और इसको धारण करनेवाले की सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं। बीसमुखी रुद्राक्ष ब्रह्म का प्रतीक होकर ज्ञानवर्धक होने के साथ ही मानसिक शांति प्रदाता एवं नेत्र रोगों में लाभकारी होता है। अंत में इक्कीसमुखी रुद्राक्ष जो कि अत्यंत दुर्लभ होता है और कुबेर का प्रतीक है। जो लोग सांसारिक सुख-विलास-आनंद चाहते हैं वे इसे धारण करते हैं। यह निर्धनता को पास फटकने भी नहीं देता। अनेक उदाहरण रुद्राक्ष की महिमा साबित करते हैं। रुद्राक्ष न केवल आध्यात्मिकता का प्रतीक है वरन् चिकित्सा के उपयोग में भी लाया जाता है। इसे किसी शुभ मुहुर्त में धारण करना चाहिए। रुद्राक्ष साक्षात शिव होकर इसकी महिमा रुद्राक्ष महिमा के बिना अधूरी ही रहेगी। परंतु, लेख की सीमा को देखते दे नहीं रहा हूं। </span></div>
</div>
Shirish Saprehttp://www.blogger.com/profile/12101620590252946119noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8695605854559624606.post-47500275214424238122015-02-06T03:48:00.003-08:002015-02-06T03:48:31.034-08:00<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b>रेल-पेल मची है अभियानों की</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">इस समय पूरे देश में कई अभियान बडे जोर-शोर से चलाए जा रहे हैं, जैसेकि गंगा स्वच्छता अभियान, सर्वशिक्षा अभियान-चलो स्कूल चलें हम, निर्मल भारत, स्वच्छ भारत, आदि। जब भी कोई अभियान प्रारंभ होता है तो बडी-बडी चर्चाएं होती हैं, मीडिया में समाचार छपते हैं और फिर अंत में टांय-टांय फिस्स, चाहिए वैसे परिणाम हासिल होते ही नहीं और अभियान सरकारी कागजों में सिमटकर रह जाते हैं। उदा. के लिए सर्वशिक्षा अभियान को ही लें - आज भी करोडों बच्चे स्कूल नहीं जाते और प्राप्त समाचारों के अनुसार सन् 2015 तक 'सबको प्राथमिक शिक्षा" के लक्ष्य तक पहुंचना कठिन है। इसके पीछे सबसे बडा कारण ग्रामीण क्षेत्रों में रहनेवाले और आर्थिक दृष्टि से कमजोर बच्चों को स्कूल भेजने के लिए आधारभूत संरचना नहीं है, न ही इसके लिए कोई विशेष योजना है।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">गांधी जयंती 2 अक्टूबर सन् 2014 को शुरु हुए 'स्वच्छ भारत अभियान" की हालत तो और भी बदतर है। उदाहरण के लिए रेल्वे को ही लें, डिब्बे के शौचालयों में फ्लश वॉल्व ही नहीं होते तो, उपयोग के पश्चात फ्लश कैसे करें? रेल्वे स्थानकों, वहां के शौचालयों, डिब्बों के अंदर की गंदगी के लिए जनता भी कम जिम्मेदार नहीं। मेरे एक संबंधी जो सतत प्रवास करते रहते हैं ने इस संबंध में अपने जो अनुभव मेरे साथ साझा किए वे बडे ही चौंकानेवाले हैं। उनके अनुसार लोग एसी कोच में भी गंदगी फैलाने से बाज नहीं आते। (घर से लाया) भोजन करने के पश्चात बचा हुआ भोजन बर्थ के नीचे खिसका देते हैं और कुछ कहने पर नाराज हो जाते हैं। ये तथाकथित मॉडर्न लोग जिस भाषा का प्रयोग करते हैं वह तो और भी हास्यास्पद है। एक युवा महिला ने अपने बच्चे को खाने के लिए पिज्जा और कोल्डडिं्रक दिया और बाद में बचा हुआ पिज्जा और कोल्डडिं्रक का ग्लास बर्थ के नीचे सरका दिया व बच्चे से कहा चल बेटा 'आपका हैंड वॉश करा दूं, माउथ साफ करा दूं।"</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">वास्तव में हमारे यहां अस्वच्छता के पीछे सबसे बडा कारण है - सामाजिक संस्कारों की कमी। जब तक लोग स्वच्छता को अपने आचरण में नहीं लाते, बच्चों में सफाई के संस्कार नहीं डालते तब तक कुछ हो नहीं सकता। दूसरा महत्वपूर्ण कारण अधिकांश लोग स्वच्छता किस प्रकार रखी जाए इस संबंध में भी अनजान हैं। जैसेकि शौचालय एवं वॉशबेसिन का उपयोग किस प्रकार किया जाए, डस्टबिन और पीकदान में का फर्क। यदि स्वच्छता रखनी है तो लोगों को इस संबंध में शिक्षित तथा जागरुक करना पडेगा। एक और कारण है कि दूर-दूर तक जिस प्रकार से मूत्रालय नजर नहीं आते उसी प्रकार से कचरा पेटियां भी नजर नहीं आती। इस कारण लोग जहां खाली जगह दिखी कचरा फैंक देते हैं। प्लास्टिक की पन्नियों, थैलियों के दुरुपयोग पर भी कुछ ना कुछ प्रतिबंध आवश्यक है, आदि।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">ऐसे हालात में जब हम पूर्व से ही चले आ रहे अभियानों से वांछित परिणाम हासिल कर नहीं पा रहे हैं उस पर नए-नए अभियान प्रारंभ करना जैसेकि 'बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ" और शीघ्र ही आरंभ होनेवाला अभियान 'रीड इंडिया कैम्पेन" मतलब केवल अभियानों की भीड या संख्या बढ़ाना मात्र ही सिद्ध होगा। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि लडकियों की भ्रूण हत्याएं हो रही हैं। लडकियों की संख्या लडकों के मुकाबले कई राज्यों-प्रदेशों के क्षेत्र विशेष में कम है इसलिए इस अभियान को प्रारंभ किया गया है। परंतु, जब तक समाज, जनता इन अभियानों से स्वयं होकर नहीं जुडेगी, उन्हें प्रेरित करनेवाली सामाजिक संस्थाएं सक्रिय होकर ईमानदारी से उन्हें गंतव्य तक पहुंचाने में नहीं जुटेगीं, सार्थक परिणाम मिलनेवाले नहीं हैं।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">इसी प्रकार से 'रीड इंडिया कैम्पेन" गांवों में पढ़ने की आदत को बढ़ावा मिले इसलिए प्रारंभ किया जानेवाला है। यह भी एक अत्यंत सार्थक अभियान सिद्ध हो सकता है। क्योंकि, दिन ब दिन लोगों की पढ़ने की आदत छुटती जा रही है वर्तमान में इसके बहुत से कारण हैं। वैसे तो पढ़ने के मामले में हमेशा से ही कमजोरी नजर आई है परंतु, पहले फिर भी लोग पढ़ लिया करते थे भले ही मांग करके ही सही। उस समय 'सरिता" जैसी समाज को जागरुक करने का प्रयास करनेवाली पत्रिका ने एक अभियान चलाया था 'क्या आप मांगकर खाते हैं, क्या आप मांगकर पहनते हैं? नहीं ना तो फिर आप मांगकर क्यों पढ़ते हैं?" लेकिन लगता है कि प्रयास कम पडे तभी तो दिनमान, धर्मयुग जैसी पत्रिकाएं बंद हो गई। फिर भी पढ़ना लोगों की आदत में शुमार हो के प्रयास करनेवाले प्रयास कर ही रहे हैं। जैसेकि कुछ माह पूर्व मैंने एक पत्रिका पढ़ी थी जो टाटा की किसी कंपनी द्वारा केवल इसलिए शुरु की गई कि लोग पढ़ने की आदत डालें। </span></div>
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<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">महाराष्ट्र सातारा जिले के वाई गांव कस्बे के प्रदीप लोखंडे ने ग्रामीण क्षेत्र की भावी पीढ़ि को शैक्षणिक दृष्टि से मजबूत करने और ग्रामीण भाग को विकसित करने के लिए सन् 2000 में पुणे में 'रुरल रिलेशन्स" नामकी संस्था स्थापित की। इस संस्था द्वारा 'ग्यान की" ग्रंथालयों का उपक्रम आरंभ किया गया है। अभी तक वे 1255 ग्रंथालय दान कर चूके हैं। इस संबंध में अभिप्राय प्रकट करनेवाले 200 से 400 पोस्टकार्ड उन्हें प्रतिदिन प्राप्त होते हैं।</span></div>
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<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">वास्तव में अभियानों की इस रेल-पेल में यदि सर्वाधिक आवश्यकता किसी अभियान की है तो वह है जनसंख्या नियंत्रण की। आज हमारे देश में जनसंख्या विस्फोट हो गया है। हालात ऐसे हो गए हैं कि हम लाख अभियान छेडें, इंफ्रास्ट्रकचर खडे करें, भांति-भांति के संसाधन जुटा लें, वे ऊंट के मुंह में जीरा ही साबित होंगे। समस्याएं हल होने के स्थान पर बढ़ेंगी ही। उदाहरण के लिए ध्वनि व वायु प्रदूषण नियंत्रण के मुद्दे को ही लें। जनसंख्या बढ़ेगी तो वाहन भी बढ़ेंगे ही और वाहन बढ़ेंगे तो ध्वनि व वायु प्रदूषण बढ़ेगा ही, कार्बन उत्सर्जन भी बढ़ेगा ही। जनसंख्या बढ़ने से जो योजनाएं जैसेकि वाटर सप्लाय, ड्रेनेज सिस्टम, रास्तों की चौडाई, रेल सुविधाएं आदि तय कर किए गए कार्य समय के पूर्व ही अपर्याप्त सिद्ध हो जाएंगे, हो भी रहे हैं।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">परंतु, खेद है कि इस संबंध में कोई अभियान छेडना तो दूर हमारे नेता इस संबंध में कोई सार्थक बात तक करना पसंद नहीं करते। उलटे कोई कह रहा है चार बच्चे पैदा करो, तो कोई कहता है पांच पैदा करो, जो भी समस्या आएगी वह भगवान हल कर देंगे। यदि सारी समस्याएं भगवान को ही हल करना है और भगवान ही करनेवाले हैं तो रोज नए-नए अभियान प्रारंभ करने की आवश्यकता ही क्या है?</span></div>
</div>
Shirish Saprehttp://www.blogger.com/profile/12101620590252946119noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8695605854559624606.post-26015172212905041592015-01-31T00:27:00.005-08:002015-01-31T00:27:49.459-08:00<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">30 जनवरी हुतात्मा दिवस - </span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="font-size: large;"><b>गांधीयुग का आदर्श सेवामयी जीवनव्रती - </b></span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="font-size: large;"><b>अप्पा पटवर्धन उर्फ कोंकण का गांधी</b></span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">आज जब चारों ओर स्वच्छता और शौचालयों पर चर्चा बडे जोर शोर से चल रही है ऐसे समय में महान कर्मयोगी अप्पा पटवर्धन (सीताराम पुरुषोत्तम पटवर्धन) जो गांधीजी के असहकार युग के पहले ही उनके सत्याग्रह आश्रम में दाखिल हो गए थे। जिनकी मूलभूत प्रेरणा थी - मातृभक्ति, ब्रह्मचर्य, दलित सेवा। उनका गोपूरी का प्रयोग बडा प्रसिद्ध हुआ था। जिसके बाद वे विनोबा भावे के भूदान आंदोलन से भी जुडे के आत्म चरित्र को जो स्वच्छता विषय से जुडा है, प्रस्तुत करना अत्यंत समयानुकूल समझ उसे संक्षेप में प्रस्तुत कर रहा हूं। उनकी 'जीवन यात्रा" के महत्व को बतलाने की आवश्यकता इसलिए महसूस होती है क्योंकि, अप्पा पटवर्धन उन 8-10 दस लोगों में से एक थे जिन्होंने गांधी कार्य को उत्तम रीति से समझ अपना जीवन उसके लिए अर्पित करना तय किया था। उनके बारे में विनोबा भावे हमेशा कहते थे - 'एक अप्पा, बाकी गप्पा।" (काम करनेवाला एक ही है अप्पा बाकी सब गपोडे)</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">उनके लिखे इस आत्मचरित्र में अत्यंत उच्च प्रति की प्रामाणिकता सर्वत्र मिलती है। इसकी साक्ष यह पक्तियां हैं ः 'गांधी और अप्पा पटवर्धन में फर्क बतलाते हुए वे कहते हैं ः जो बात उचित और आवश्यक है इसलिए बुद्धि सहमत हुई वह लोगों की निंदा-स्तुती की परवाह ना करते तत्काल अमल में लाना यह गांधीजी एक दिन में कर दिखाते थे और वही करने में मुझे कई वर्ष लगे और अंत में करने लगा वह भी गांधीजी के आश्रम के आश्रय से (वे सार्वजनिक अप्पा गांधीजी के सत्याग्रह आश्रम में ही बने) और बाद में कर्तव्य विस्मृति दूर हुई, जागृति आई वह रस्किन को पढ़ने से।" जॉन रस्किन की 'अंटु दिस लास्ट" भारत में 'सर्वोदय" के नाम से प्रसृत हुई। जिसे गांधीजी ने रेल यात्रा के दौरान पढ़ा था और उसका परिणाम वे बॅरिस्टर गांधी से किसान गांधी बन गए। फिर वे क्रमशः चमार, हरिजन और बुनकर भी बने। </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">संडास शब्द से उनका परिचय सबसे पहले 1904 में तब हुआ जब वे पहली बार रत्नागिरी नगर मिडल स्कूल स्कॉलर्शिप की परीक्षा के लिए आए थे। उन्हीं के शब्दों मेें ः 'रत्नागिरी शहर का वैभव देखकर मैं चकित हो गया परंतु, जब दूसरे दिन मैं संडास में गया वह प्रसंग मैं जीवनभर नहीं भूल नहीं सकता। संडास की बदबू इतनी असह्य थी कि वहां एक मिनिट भर सांस रोक कर बैठना तक दुश्वार हो गया। इस कारण कई वर्षों तक मैं संडास में ही नहीं गया। खुले में शौच के लिए जाता था। बरसात के दिनों में धान के खेत की मुंडेर पर बैठना पडता था जिस पर मुझे बडा अफसोस होता था। वे आगे कहते हैं स्वच्छ संडास मेरी एक जीवन विषयक आवश्यकता है। (वर्तमान में भी यही परिस्थिति कई स्थानों पर बडी सहजता से दिख जाएगी) </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">स्पूतनिक की नीति शौचालयों के संबंध में जागरुकता आए के तहत मैंने सबसे पहला लेख 'स्पूतनिक" में 31 दिसंबर से 6 जनवरी 2013 के अंक में लिखा था जिसमें मैंने लिखा था कि 'आपको आश्चर्य होगा कि 20 शताब्दी के आरंभ तक हमारे नेताओं को शौचालय भी कोई समस्या है इसका भान तक न था। यह एक समस्या है इस ओर सबसे पहले यदि किसीने ध्यान आकर्षित किया तो वह थे गांधीजी। गांधीजी कांग्रेस के हर अधिवेशन में सबसे पहले शौचालयों की व्यवस्था की ओर ही ध्यान देते थे कि पानी आदि की समुचित व्यवस्था है कि नहीं!"</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">यह वाक्य कितना सटिक था इसका पता अप्पा के 'मेरी जीवन यात्रा" इस आत्मचरित्र से भी पता चलता है। वे लिखते हैं ः 'खादी संघ की सभा के लिए अगस्त 1925 में मैं (अहमद) नगर में गया। वहां 'पेशाब करने के लिए कहां जाएं?" पूछने पर सूचना मिली कि छत पर चले जाएं। छत का उपयोग शौच के लिए भी किया जाता है का पता मुझे चला। रत्नागिरी और मुंबई-पुणे के बाहर के महाराष्ट्र का यह मेरा पहला परिचय था।"</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">उनके द्वारा सार्वजनिक स्वच्छता कार्य अप्रैल 1928 से अचानक प्रारंभ हुआ। कोंकण बालावली के नारायण मंदिर में जहां रामनवमी के उत्सव के वास्ते चार दिन के लिए अनेक गांवों के लोग एकत्रित होते थे, वे चरखे के प्रचार-प्रसार कार्य के लिए गए। धर्मशाला के निकट ही एक तालाब था रात में वे वहां पानी पीने के लिए गए। मंदिर के आसपास पेशाब की बदबू आ रही थी और वही पेशाब का बहाव बहकर तालाब की सीढ़ियों पर आ गया था। (पेशाब के बहाव के इसी प्रकार के नजारे इंदौर के नवलखा बस स्टैंड पर भी देखे जा सकते हैं) सुबह क्या देखते हैं कि तालाब के दूसरे किनारे पर लोग निवृत्त हो रहे हैं और सफाई भी उसी तालाब में कर रहे हैं। उनके पास सामने प्रश्न खडा हो गया 'अब क्या करें? चार दिन कैसे रहेंगे? गांव छोडकर जाएं तो पलायनवाद होगा।" अंत में उत्सव के संचालक से जाकर मिले और उसके सामने उत्सव के दौरान सफाई की योजना रखी। गड्ढ़ों के मूत्रालय और कचरे के लिए टोकरियां। संचालक ने सहयोग का आश्वासन दिया और इस प्रकार से उनके सफाई कार्यक्रम की शुरुआत हुई। परिणामस्वरुप उत्सव के दौरान स्वच्छता बनी रही। </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">स्थानीय समाचार पत्र में स्वच्छता कार्य की प्रशंसा छपी। उनके स्वच्छता कार्य की दखल सर्व्हंट्स ऑफ इंडिया सोसायटी के अधिकारी एन.एम.जोशी ने ली। उन्होंने कहा 'तुम्हारे गांधीवाद से मैं सहमत नहीं हूं तो भी तुम्हारी ग्राम सेवा अमूल्य है। हमारी सोशल सर्विस लीग के पास फ्लारेंस नाइटेंगल व्हिलेज सेनिटेशन फंड है उससे हम सहायता मंजूर करेंगे।" अप्पा ने गड्ढ़ोंवाले शौचालयों के प्रचार की कल्पना उनके सामने रखी। इसके लिए रु. 150 मंजूर कर अप्पा को भिजवा दिए। अप्पा ने गड्ढ़े, झांप, तट्टे, टाट, आदि सामग्री के शौचालय निर्मित कर उसे किसान का शौचालय नाम दिया। सावंतवाडी म्युनसिपालटी ने भी इन्हें मंजूरी प्रदान कर दी। इन शौचालयों की तारीफ हुई।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">1928 से उनके द्वारा संडास-मूत्रालय-स्वच्छता बाबद अनेक उपक्रम, प्रचार, प्रयोग और सत्याग्रह किए गए थे। 1946 में वे हरिजन मुक्ति कार्य की ओर अग्रसर हुए। इसका पहला प्रयोग कणकवली में किया। इसका कारण यह था कि कणकवली गांव की सार्वजनिक सफाई बाबद की स्थिति अत्यंत ही दयनीय थी। कणकवली के तिराहे पर ही गाडियां रुका करती थी और जहां बाजार, पोस्ट-ऑफिस, स्कूल आदि होने के कारण बडी भीड रहा करती थी। वहीं आसपास लोग पेशाब किया करते और निकट की झाडियों में निवृत्त भी हो लिया करते थे। यह सब वह मुंबई-गोवा हायवे बन जाने के बावजूद बदस्तूर जारी था। इस कारण बरसात के दिनों में वहां दुर्गंध व्याप्त रहती थी। अप्पा कहते हैं 'मुझे स्वयं को पेशाब के लिए बार-बार जाना पडता था इस कारण छोटे शहरों और गांवों में जहां सार्वजनिक मूत्रालय नहीं होते वहां पेशाब जाने में कठिनाई महसूस होती थी।" (आज भी परिस्थितियां कुछ विशेष बदली नहीं हैं) कणकवली का रहवासी होने के कारण मैं स्वयं को बडा शर्मिंदा महसूस किया करता था।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">देश की स्वतंत्रता निकट ही थी और अब जेल जाने के प्रसंग आनेवाले नहीं थे। स्वतंत्र भारत स्वच्छ भारत होना चाहिए इस दृष्टि से कुछ प्रयत्न करना चाहिए यह सोच 'स्वच्छ कणकवली" की योजना हाथ में ली। 1946 मई में कणकवली में जगह-जगह पर सार्वजनिक शौचालय और विशेष स्थानों एवं स्कूलों में मूत्रालय आरंभ करने, रास्ते साफ करने और जगह-जगह पर के कचरे के ढ़ेरों को साफ करना आदि कार्यक्रम हाथ में लिए। गांधीजी के आश्रम पद्धति के दो-दो बालटियों के संडास खडे किए। बालटियों के स्थान पर कुम्हार से बडे-बडे कुंडे बनवाकर उनमें डामर पोता। गांव के सरपंच की सलाह पर बस स्टैंड पर तीन-चार स्थानों पर संडास बनाए। कुंंडों में सागवान के पत्ते बिछाए और मल ढ़ांकने के लिए एक डिब्बे में राख रखी गई। मल ढ़ोेने के लिए कांवर की व्यवस्था की। पूरी बरसात यह काम बडे उत्साहपूर्वक चला। स्वयं अप्पा ने पेशाब से भरे कांवर उठाए। यह मानवता के अनंतर स्वच्छता की दृष्टि थी और मलमूत्र उत्कृष्ट खाद बनाकर उससे अन्न उत्पादन बढ़े।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">उन्होेंने जो गोपूरी की कल्पना प्रस्तुत की थी जिसके कारण उन्हें बडी प्रसिद्धि मिली थी उसके पीछे यह त्रिविध घोषणा थी - 1. हरिजन मुक्ति आंदोलन - प्रबलता से चलाओ। 2. स्वच्छ भारत आंदोलन - सफल करो। 3. अन्न समृद्धि आंदोलन - पूरा करो। उनका हरिजन मुक्ति आंदोलन संडास-मूत्रालयों तक ही सीमित नहीं था। मृत पशु विच्छेदन (मरे हुए जानवर का चमडा निकालना) और शव साधना (मृत देह का परिपूर्ण उपयोग करना)। यह हरिजन मुक्ति आंदोलन के अंग ही थे। गोपूरी में गांधी निधी, हरिजन सेवक संघ के कार्यकर्ता सफाई की 'ट्रेनिंग" लेने के लिए आया करते थे। गोपूरी संडास की रचना सीखने के लिए भी आया करते थे। गांधी निधी से उन्होंने कई ग्राम पंचायतों को मैला गैस प्लांट बनाकर दिए।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">अप्पा पटवर्धन कहते हैं इस तरह से मैं भारत विख्यात सफाई-नेता बन गया और इन सब को मात दे दी विनोबा भावे ने। आगे वे कहते हैं ः इंदौर के लोगों को विनोबाजी के प्रति भक्तिभाव और आकर्षण अद्भुत था। इंदौर के प्रमुख नागरिकों ने विनोबाजी से भेंट कर पूछा ः 'हमसे आप किस-किस चीज की अपेक्षा करते हैं?" विनोबाजी ने कहा- इंदौर नगरी साफसुथरी हो, इसके लिए तुम अप्पा को बुला लो। तत्काल उज्जैन के सांसद पुस्तके और दादाभाई नाईक ने शीघ्रता से इंदौर आने के बारे में पत्र लिखा।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">इंदौर आने के पिछे मेरा उद्देश्य 'सफाई यज्ञ" का जोरदार प्रचार करना था साथ ही अपनी नगर दान की कल्पना से विनोबाजी को सहमत करना भी था। विनोबाजी की प्रेरणा से इंदौर के नागरिक स्वयं सफाई का अथवा सफाई-यज्ञ का व्रत बडी संख्या में स्वीकारें यह भी था। परंतु, इन दोनो ही उद्देश्यों में से मेरा कोई सा भी उद्देश्य सफल नहीं हुआ। फिर भी मेरे और विनोबाजी के इंदौर छोडने के बाद भी स्वयं सफाई का कार्य कुछ समय तक चलता रहा। परंतु, इंदौर में रहने के कारण मुझे सफाई कार्यकर्ता के रुप में अखिल भारतीय प्रसिद्धि जरुर मिल गई। बाद में मैंने जीवन निष्ठा के रुप में हरिजन मुक्ति स्वयं तक की सीमित शुरु रखी। विनोबाजी की तर्ज पर अखंड और अनन्य भाव से घूमते रहना तय किया तथा जिस जगह मुकाम करता वहां स्वच्छता कार्य के शिविर आयोजित करता। </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">अप्पा ने सफाई करनेवाले को कम से कम घिन आए और घर के लोगों को उपयोग में लाने के लिए पूरी तरह से स्वच्छ, सस्ता और आसान कहीं भी फिट कर सकें, ले जा सकें ऐसा संडास 'कुटुंब कमोड" प्रस्तुत किया। जिसे मुंबई राज्य कल्याण विभाग ने मान्य कर 50 प्रतिशत सहायता मंजूर की। उन्होंने अंबर चरखा सीखने आनेवालों युवाओं को सफाई काम के लिए तैयार किया। और इस प्रकार से 'स्वर्ण हरिजन वर्ग" या 'नव हरिजन संप्रदाय" तैयार हुआ। लेकिन विघ्न संतोषियों ने युवकों को विचलित करना शुरु कर दिया। उन युवकों के विवाह में भी बाधाएं आने लगी। अंततः अप्पा ने हरिजन मुक्ति कार्य को दोयम स्थान देना तय कर हरिजन मुक्ति कार्य का संयोजक पद छोड दिया।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"> हरिजन मुक्ति कार्य के दो पहलू थे। पहला और मुख्य- हरिजनों का घिन आनेवाला काम भी अपन स्वयं करें ः घिन आनेवाला होने पर भी करना ऐसा नहीं वरन् घिनवाला है इसलिए दूसरे को न सौंपते अपना अपन ही करें यह मानवी प्रेरणा। दूसरा, उस काम का घिनौनापन जितना संभव हो सके उतना कम करने के लिए संडास के आसान नमूने और सफाई के आसान उपकरणों का प्रबंध करना। इन उपकरणों में आसान कांवर, मैला ढ़ोने के लिए हाथ गाडियां, ऊंचे जूते, रबर के हाथमौजे और विभिन्न औजार आते हैं। अप्पा को अनुभव यह आया कि हरिजन मुक्ति का दूसरा पहलू जो तांत्रिक पक्ष है वह तो सर्वसाधारण कार्यकर्ता को समझ में आ जाता है, सहमत हो जाता है, कर भी सकता है और उसीका बोलबाला होता है। परंतु, मुख्य प्रेरणा बडी आसानी से नजरअंदाज कर दी जाती है।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">वर्तमान में प्रधानमंत्री मोदी के आवाहन पर सफाई करने के लिए भाजपा के सभी छोटे-बडे नेता जुट रहे हैं, सेलेब्रिटिज भी जुड रही हैं परंतु, सफाई के नाम पर केवल दिखावा एवं फोटो सेशन हो रहे हैं। 14 नवंबर से 19 नवंबर 2014 तक जो सफाई अभियान चला उस विशेष स्वच्छता अभियान पर केंद्र सरकार स्वयं नजर रखनेवाली थी एवं राज्यों में होेने वाले विशेष अभियान के साक्ष्य भी मांगे जानेवाले थे। परंतु, नतीजा शून्य ही निकला सब ओर गंदगी वैसी की वैसी ही फैली पडी रही। 25 दिसंबर को भारत रत्न अटलजी और महामना मालवीयजी के जन्मदिवस पर आयोजित सफाई कार्यक्रम का परिणाम भी यही हुआ। यानी कि यहां भी मुख्य प्रेरणा सफाई आचरण में आए वह स्वयं करें नदारद है।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">वास्तव में इस प्रकार के कार्य जो सीधे समाज से जुडे हैं वे सरकारों और राजनीतिक दलों के बूते के होते ही नहीं हैं। यह कार्य तो उन सामाजिक संस्थाओं द्वारा किए जाने चाहिएं जिनका नेटवर्क (अखिल भारतीय) होने के साथ ही जिनके पास समर्पित कार्यकर्ता हों तो अधिक सफलता मिलने की संभावना है। विनोबाजी के भूदान आंदोलन में कांग्रेस कहीं नहीं थी। यह कार्य विनोबाजी ने अपने एवं कार्यकर्ताओं के बलबूते किया था। आज भी यदि उपर्युक्त प्रकार के गैर राजनैतिक सामाजिक संगठन इस स्वच्छता अभियान को हाथ में लें तो सफलता मिल सकती है। गांधीजी का सपना स्वच्छ भारत साकार हो सकता है। अंत में केवल एक ही बात कहना चाहूंगा कि बिना पर्याप्त पानी के स्वच्छता हो नहीं सकती और हिंदुस्थान में पानी के क्या हाल हैं यह जगजाहिर है। </span></div>
</div>
Shirish Saprehttp://www.blogger.com/profile/12101620590252946119noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8695605854559624606.post-54827202248644611462015-01-23T08:17:00.003-08:002015-01-23T08:17:26.610-08:00<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: center;">
<span style="font-size: large;"><b>गांधीयुगाचा आदर्श सेवामयी जीवनव्रती - अप्पा पटवर्धन ऊर्फ कोंकणचा गांधी</b></span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">आजकाल स्वच्छते व शौचकूपांचा उल्लेख मोठ्या धामधूमीने केला जात आहे. अशा वेळेस महान कर्मयोगी अप्पा पटवर्धन (सीताराम पुरुषोत्तम पटवर्धन) जे गांधीजींच्या असहकार युगाच्या आधीच त्यांच्या सत्याग्रह आश्रमात दाखल झाले होते. ज्यांची मूळभूत जीवन प्रेरणा होती - मातृभक्ति, ब्रह्मचर्य, दलित सेवा. त्यांच्या गोपुरीच्या प्रयोगला भरपूर प्रसिद्धि लाभली होती. गोपुरीच्या प्रयोगांतूनच ते विनोबाजींच्या भूदान चळवळीकडे वळले. त्यांचे आत्म-चरित्र स्वच्छतेच्या विषयाशीच निगडित आहे, अत्यंत समयानुकूल असल्यामुळे त्यांस संक्षेपात प्रस्तुत करित आहे. त्यांच्या 'जीवन-यात्रा"चे महत्व यावरुन समझले जाऊ शकते की अप्पा पटवर्धन त्या 8-10 लोकांपैकी एक होते ज्यांनी गांधीकार्य उत्तम रीतीने समजून घेऊन त्याला आपले आयुष्य अर्पण करण्याचे ठरविले. त्यांच्या विषयी विनोबा नेहमी म्हणत - 'एक अप्पा, बाकी गप्पा."</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">त्यांनी लिहिलेल्या या त्यांच्या आत्मचरित्रात अत्यंत उच्चप्रतीचा प्रांजळपणा सर्वत्र आढ़ळतो. ह्याची साक्ष ह्या ओळी आहेत ः 'जी गोष्ट उचित व आवश्यक म्हणून बुद्धिला पटली ती लोकांच्या निंदा-स्तुतीची पर्वा न करता तत्काळ अंमलात आणायची हे गांधींनी एक दिवसात केलें आणि तेंच करायला मला कित्येक वर्षे लागली आणि शेवटी करु लागलो तेहि गांधींजींच्या आश्रमाच्या आश्रयाने. नंतर जी कर्तव्य-विस्मृति आली होती ती रस्किनच्या वाचनापासून दूर झाली, सुस्ती जाऊन जागृति सुरु झाली." जॉन रस्किनचे 'अंटु धिस लास्ट" भारतात 'सर्वोदयच्या" नावाने प्रसृत झाले. या पुस्तकाला गांधींनी रेल्वेच्या प्रवासात वाचले होते आणि त्याचा परिणाम ते बॅरिस्टर गांधींचे किसान गांधी झाले. आणि नंतर क्रमाक्रमाने चांभार, हरिजन व विणकर बनले.</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">संडास या शब्दाशी त्यांची पहली ओळख रत्नागिरीस त्या वेळेस झाली जेव्हां ते येथे मिडलस्कूल स्कॉलर्शिप परिक्षेसाठी आले होते. त्यांच्या शब्दांत - 'तो प्रसंग मी जन्मभर विसरणार नाही. संडासाची घाण इतकी असह्य झाली की तेवढ़े एक मिनिट भर श्वांस कोंडून धरणे अवघड झाले. मी पुढ़े कित्येक वर्षे पुन्हा संडासात गेलोच नाही. दूर उघड्यावरच शौचाला जात असे. पावसाळ्यात भातशेतीच्या बांधोळ्यावरच बसावे लागे त्याची खंत वाटे." (आजही हीच परिस्थिती कित्येक स्थानांवर सहजच दिसून पडते)</span></div>
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<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
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<span style="font-size: large;">शौचकूपांसंबंधी जागृती यावी या करिता मी सगळ्यात आधी डिसेंबर 2012 मध्यें पहिला लेख लिहिला होता. त्यांत मी लिहिले होते- 'तुम्हांस आश्चर्य वाटेल की 20व्या शतकाच्या सुरुवातीपर्यंत आमच्या नेत्यांना शौचकूप पण एक समस्या आहे याचे भान सुद्धा नव्हते. ही एक समस्या आहे याकडे सगळ्यात आधी कोणी लक्ष वेधिले असेल ते गांधीजींनी. गांधीजी कांग्रेसच्या प्रत्येक अधिवेशनात सगळ्यात आधी शौचालयांच्या व्यवस्थेकडेच लक्ष देत असत की तेथे पाणी इत्यादिची योग्य व्यवस्था आहे की नाहीं."</span></div>
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<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
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<span style="font-size: large;">हे वाक्य किती अचूक आहे हे अप्पांच्या 'जीवन यात्रा" या आत्मचरित्रातल्या या ओळींवरुन देखील कळते ः खादी संघाच्या सभेकरिता ते नगरला आले होते. 'लघवीला कोठे जावें?" विचारता घराच्या वरील गच्चीवर जाण्याची सूचना मिळाली. गच्चीचा शौचासाठीही उपयोग केला जातो असें समजलें ! रत्नागिरी व मुंबई-पुण्याबाहेरील महाराष्ट्राचा हा मला पहिलाच परिचय होता."</span></div>
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<span style="font-size: large;">सार्वजनिक स्वच्छतेचे कार्य त्यांच्याकडून अकस्मात् एप्रिल 1928 मध्यें सुरु झाले. कोंकण बालावलीच्यानारायण मंदिरात रामनवमी उत्सवांप्रीत्यर्थ अनेक लोक एकत्रित होत असत. तेथे ते चरख्याच्या प्रचारार्थ गेले असतां रात्रीच्यावेळेस धर्मशाळेच्या जवळच्या तलावात पाणी पिण्याकरिता गेले. मंदिराच्या आसपास सगळीकडे लघवीची घाण येत होती. ती तुडवत तलावावर जावून त्यांनी पाहिल की तलावाच्या पायऱ्या-पायऱ्यांवरुनहि लघवीचे ओघळ जात होते. (लघवीच्या ओघळांचे अशाच प्रकाराचे दृश्य बस स्थानकांवरच तर काय कित्येक स्थानी देखील पाहावयास मिळतात.) सकाळी शौचाला जाताना त्यांना आढ़ळले की त्याच तलावाच्या दूरच्या टोकाशी यात्रेकरु शौचाची सफाईहि बिना तांब्यानेच करित होते.</span></div>
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<span style="font-size: large;">'आता काय करावे? येथे चार दिवस काढ़ायचे कसे? निघून जावे तर तो पलायनवाद होतो." ते उत्सवाच्या चालकांना जावून भेटले. आणि त्यांच्या समोर उत्सवाच्या मुदतीत देवळाच्या आसमंतातील सफाई योजना - खड्डयाच्या मुत्र्या व कचऱ्यासाठी करंड मांडण्याची, मांडली. त्यांनी सहकार्य देण्याचे मान्य केले व अशा प्रकारे सफाई कार्यक्रमाची सुरुवात झाली. परिणामी उत्सवाच्या मुदतीत चांगलीच स्वच्छता राहिली. सर्वांचे सर्वप्रकारें साह्य मिळाले. स्थानीय साप्ताहिकाने सफाई कार्याची तारीफ केली.</span></div>
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<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
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<span style="font-size: large;">त्यांच्या या कामगिरीची दखल सर्व्हंट्स ऑफ इंडिया सोसायटीचे अधिकारी एन.एम.जोशीनी घेतली. ते अप्पांना म्हणाले - 'तुमचा गांधीवाद आम्हाला पटत नसला तरी तुमची ग्राम सेवा मोलाची आहे. आमच्या सोशल सर्विस लीगपाशी फ्लारेंसनाइटिंगेल व्हिलेज सेनिटेशन फंड आहे त्यांतून खेड्यात कांही आरोग्य संवर्धक कार्य करशील तर आपण मदत मंजूर करु." त्यांनी चराच्या संडासाची प्रचाराची कल्पना मांडली. तिच्यासाठी त्यांनी 150 रु. मंजूर करुन मला पाठवूनहि दिले." अप्पांनी मोडत्या-जोडत्या व फिरत्या चौकटी संडासाच्या आडोशासाठी आणि झाप, तट्टे, किंतान व चर खणून एक स्वस्त, स्वच्छ, सभ्य, सुटसुटीत, स्वाधीनचा, समृद्धिदाता आदि गुणांचे वर्णन करुन त्यांस शेतकऱ्यांचा शौचकूप अशा नावाचे संडास उभारले. सावंतवाडी म्युनिसिपालटीने देखील या संडासांना मंजूरी दिली. या संडासांची सर्वत्र वाहवा झाली. </span></div>
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<span style="font-size: large;">1928 पासून त्यांनी संडास-मुत्री-सफाई बाबत अनेक उपक्रम, प्रचार, प्रयोग व सत्याग्रह केले होते. 1946 मध्यें ते हरिजन मुक्ति कार्याकडे वळले. याचा पहला प्रयोग कणकवली गांवात केला. याच कारण कणकवली गांवाची सार्वजनिक सफाई बाबतची स्थिति एकंदरित किळसवाणीच होती. कणकवलीच्या तिठ्यावरच मोटारी थांबत असत व तेथेच बाजार, हॉटेले, पोस्ट ऑफिस, प्राथमिक शाळा इत्यादि होत्या. लोक तेथेच लघवी करीत व नजीकच्या झाडीत शौच्याला जाण्याची वहिवाट, नवीन मुंबई-गोवा रस्ता झाल्यानंतरहि, चालूच होती. यामुळे पावसाळ्यात चिखल व लघवीची दुर्गंधी इतकी येत की तेथे उभे राहणे मुश्किलीचें होत. अप्पा म्हणतात, 'मला स्वतःला लघवीला फार वेळा जावें लागते, त्यामुळे छोट्या शहरामध्यें व देशावरील गांवामध्येंहि जेथे सार्वजनिक मुत्र्या नसतात तेथे, लघवीची मला स्वतःला अडचण जाणवत असते. (आज देखील हिच परिस्थिती कित्येक जागी अजून दिसून पडते) याबद्दल कणकवलीचा रहिवाशी या नात्याने मला मोठी शरम वाटत असे.</span></div>
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<span style="font-size: large;">देशाला लवकरच स्वातंत्र्य मिळणार व आता आपल्याला तुरुंगात जाण्याचे प्रसंग येणारच नाही. स्वतंत्र भारत हा स्वच्छ भारत असलाच पाहिजे त्या दृष्टिने काही प्रयत्न सुरु करावा असा विचार करुन 'स्वच्छ कणकवली" कार्यक्रम हाती घेतला. '1946च्या मे मध्ये कणकवलीमध्ये मी जागोजाग सार्वजनिक संडास आणि विशेष ठिकाणी व शाळांमध्ये मुत्र्या सुरु करण्याचें, रस्ते झाडणे व ठिकठिकाणचे उकिरडे साफ करणे इत्यादि कार्यक्रम हाती घेतले. गांधीजींच्या आश्रमाच्या पद्धतीचे दोन दोन बालद्यांचे संडास मांडले. बालद्यांऐवजी मातीच्या मोठमोठ्या कुंड्या स्थानिक कुंभाराकडून करवून घेतल्या व त्यांना डांबर काढ़ले. सरपंचाच्या सल्ल्याने मोटर स्टंडवर व आणखी तीन-चार ठिकाणी चार-चार संडास सुरु केले. कुंड्यात सागवानाचीं पानें आंथरीत व मळ्यावर झाकण्यासाठी एका डब्यात राख ठेवीत असू. मलमूत्र वाहून घेण्यासाठी कावडी केल्या. भर पावसाळ्याचे दोन-तीन महिने हें काम मोठ्या उत्साहाने चालले. स्वतः अप्पाने लघवीने भरलेल्या कावडी वाहून नेल्या. यात मानवतेच्या खालोखाल स्वच्छतेची दृष्टी होती. आणि मलमूत्रापासून उत्कृष्ट खत बनून त्यातून धान्यवाढ़ व्हावी अशी दृष्टीहि होती.</span></div>
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<span style="font-size: large;">त्यांच्या गोपुरीच्या कल्पनेला चांगलीच प्रसिद्धी लाभली होती. त्यामागे ही त्रिविध घोषणा होती - 1. हरिजन मुक्ति आंदोलन - निकराने चालवा. 2. स्वच्छ भारत आंदोलन - यशस्वी करा. 3. अन्नसमृद्धि आंदोलन - तडीस न्या. त्यांची हरिजनमुक्ति ही संडासमुत्र्यांपुरतीच मर्यादित नव्हती. मृतपशु विच्छेदन (मेलेल्या जनावरांची कातडी सोडविणे) व शवसाधना (मृतदेहांचा परिपूर्ण उपयोग करणे) ही हरिजनमुक्ति कार्यक्रमाचीं अंगेच होती. गोपुरीत गांधी निधीचे कार्यकर्ते सफाईच्या शिक्षणासाठी येत. गोपुरी संडासाची रचना शिकून घेण्यासाठी पण येत. कित्येक ग्रामपंचायतींना त्यांनी मैला गॅसप्लॅंट बांधून दिले.</span></div>
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<span style="font-size: large;">अशा प्रकारे ते भारतविख्यात सफाई नेता बनले. आणि या सर्वांवर मात केली विनोबांनी. इंदूरच्या लोकांना विनोबांबद्दल वाटणारा भक्तिभाव किंवा आकर्षण अद्भुत होतें. इंदूरच्या प्रमुख नागरिकांनी विनोबांना भेटून 'आमच्याकडून तुम्हीं कोणकोणत्या गोष्टींची अपेक्षा करता?" असें विचारले. विनोबांनी इंदूर नगरी साफसूफ व्हावी, त्यासाठी तुम्ही अप्पांना बोलवून घ्या, असें सांगतिले. लगेच अप्पांना उज्जैनचे खासदार श्रीपुस्तके, व श्री. दादाभाई नाईक यांनी तांतडीने इंदूरला येण्याबद्दल पत्रें धाडली.</span></div>
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<span style="font-size: large;">अप्पा म्हणतात, इंदूरला जाण्यात माझा हेतु 'सफाई यज्ञा"चा उठावदार प्रचार करायला मिळावा हा होताच, पण आपली नगरदानाची कल्पना विनोबांना पटवून देता आल्यास पाहावें असाहि होता. पण या दोहोंपैकी माझा कोणताच हेतु सफल झाला नाही. तरीपण मी व विनोबा इंदूर सोडून गेल्यानंतर तेथे साप्ताहिक सफाई स्वयंसफाई कार्यक्रम काही काळ चालू राहिला. शिवाय इंदूरच्या वास्तव्यात मला सफाई कार्यकर्ता म्हणून अखिल भारतीय प्रसिद्धि मिळाली. नंतर मी जीवननिष्ठा म्हणून हरिजनमुक्ति स्वतःपुरती चालूच ठेवली. विनोबांच्या कित्त्यानुसार अखंडपणे व अनन्यभावाने फिरत राहण्याचे ठरविले व ज्याजागी मुक्काम करित असे तेथे सफाईकाम शिविर भरवीत असे.</span></div>
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<span style="font-size: large;">सफाई करणाराला कमीत कमी किळस वाटावा व घरच्या वापरणारांना पूर्ण स्वच्छ, स्वस्त, सुटसुटीत, कोठेहि मांडता व हलवता यावा असा 'कुटुंब कमोड" अप्पानी योजला. मुंबई राज्याच्या समाज कल्याण खात्याने 50% साह्य मान्य केले. अंबर चरखा शिकायला आलेले तरुणहि स्वच्छता कार्य करण्यास तयार झाले. एक खासा 'सवर्ण हरिजनवर्ग" किंवा 'नव-हरिजन संप्रदाय" तयार झाला. पण हिरमोड करणारेहि टपलेलेच असतात. अशांमुळे अनेक युवकांचा उत्साह कायमचा खच्ची होई. या तरुणांची लग्नें होण्याचीसुद्धा अडचण पडू लागली. शेवटी अप्पांनी हरिजनमुक्ति कार्याला दुय्यम स्थान देण्याचे ठरवून हरिजन मुक्तिकार्याचें संयोजक पद सोडून दिले.</span></div>
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<span style="font-size: large;">हरिजनमुक्ति कार्याच्या दोन बाजू आहेत. पहिली व मुख्य बाजू - सफाईकर्मींचे किळसवाणे कामहि आपण जातीने करणे ः किळसवाणे असले तरीहि करणे असे नव्हे तर किळसवाणे आहे म्हणूनच परक्यावर न सोपविता आपले आपणच करणें ही मानवी प्रेरणा ः व दूसरी त्या कामाचा किळसवाणेपणा, शक्य तेवढ़ा कमी करण्यासाठी संडासाचे सोयीस्कर नमुने व सफाईची सोयीस्कर उपकरणे योजणें. या उपकरणांमध्ये सोपी कावड, मैला वाहण्याच्या हातगाड्या, ऊंच बूट, रबरी हातमोजे व विविध अवजारें येतात. अप्पांना अनुभव असा आला की हरिजनमुक्तिची ही दूसरी तांत्रिक बाजू सर्वसामान्य कार्यकर्त्यांना पटते, जुळते, झेपते, तिचाच बोलबाला होतो. आणि पहली किंवा मुख्य प्रेरणा सोयीस्कर प्रकारें नजरेआड केली जाते. </span></div>
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<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
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<span style="font-size: large;">वर्तमानात पंतप्रधान मोदींच्या आवाहनावर भाजपचे सगळे छोटे-मोठे नेते सफाई कामास लागले आहेत यांत सेलेब्रिटिज देखील सामील आहेत. परंतु, सफाईच्या नावावर देखावा व फोटो सेशन चालले आहेत. 14 ते 19 नोव्हेंबर जी सफाई मोहिम चालली होती त्या विशेष स्वच्छते मोहिमेवरती स्वतः केंद्रसरकार नजर ठेवणार होती आणि राज्यांत चालणाऱ्या या विशेष मोहिमेची साक्ष्य देखील मागली जाणार होती. परंतु, परिणाम शून्यच निघाला व सगळीकडे घाण जशीच्या तशीच पसरलेली राहिली. 25 डिसेंबरला भारतरत्न अटलजी व पंडित मालवीयचींच्या जन्मदिवसावर योजलेल्या सफाई कार्यक्रमाचा परिणाम देखील तोच निघाला म्हणजे स्वच्छता आचरणात यावी व ती स्वतः करावी बेपत्ताच होती. </span></div>
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<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">वस्तुतः अशाप्रकाराचे कार्य जे सरळ समाजाशी संबंद्ध आहेत ते सरकार व राजनीतिक पक्षांच्या कुवतीच्या बाहेरचे असतात. अशी कार्ये तर अशा सामाजिक संस्थेंनी केली पाहिजेत ज्यांचा नेटवर्क (अखिल भारतीय) असून ज्यांच्या जवळ समर्पित कार्यकर्ते असतील तर यश मिळण्याची शक्यता जास्तीच जास्त राहिल. विनोबांच्या भूदान आंदोलनात कांग्रेस कोठेच नव्हती. हे कार्य विनोबांनी स्वतः आणि स्वतःच्या कार्यकर्त्यांच्या जोरावरच केले होते. आज जर कां वरील प्रकारच्या अराजकीय सामाजिक संघटनेंनी स्वच्छतेचे कार्य हाती घेतले तर यश नक्कीच मिळू शकते. गांधींच्या स्वप्नातील भारत साकारले जाऊ शकते. शेवटी एकच गोष्ट नमूद करावीशी वाटते की स्वच्छतेसाठी हवे भरपूर पाणी आणि हिंदुस्थानांततर पाण्याचे हाल काय आहेत ते सगळ्यां समोरच आहे. याचा देखील विचार आवश्यक आहे. </span></div>
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Shirish Saprehttp://www.blogger.com/profile/12101620590252946119noreply@blogger.com0