Thursday, December 29, 2011

विज्ञाननिष्ठ सावरकर और धार्मिक कट्टरता

कणाद shirishsapre.com

अपने आपको हिंदुत्ववादी, हिंदूधर्मउद्धारक समझनेवाले, बतानेवाले कुछ लोगों द्वारा इस प्रकार का प्रचार किया जाता है कि देखिए सभी सरकारें, सभी राजनैतिक दल मुसलमानों के तुष्टीकरण में लगे हुए हैं, सभी उनकी जायज-नाजायज मांगों के आगे झुकते नजर आते हैं। परंतु, हिंदुओं की कोई नहीं सुनता, उनकी उपेक्षा हो रही है, आदि। फिर वे खुलासा करते हुए कहते हैं कि, सरकारें, राजनैतिक दल मुसलमानों के आगे इसलिए झुकते हैं क्योंकि, वे धार्मिक रुप से कट्टर हैं, एकजुट हैं। इसलिए हमें भी उन्हीं की तरह धार्मिक रुप से कट्टर होना चाहिए, आदि। इस प्रकार की बातें सुनकर हमें सहसा विज्ञाननिष्ठ सावरकरजी के उन लेखों की याद आ जाती हैं जो उन्होंने रत्नागिरी में नजरबंद रहते उनके द्वारा की जा रही समाजक्रांति के दौरान हिंदू समाज के प्रबोधन के लिए किर्लोस्कर आदि में लिखे थे। वे लेख उन्होंने अपने हिंदू राष्ट्र की दृष्टि पोथीनिष्ठ (धर्मग्रंथनिष्ठ) न रहते विज्ञाननिष्ठ हो, पुराण प्रवृत्ति, सनातन प्रवृत्ति छूटकर उनकी प्रवृत्ति अद्यतन हो इस दृष्टि से लिखे थे।

'हमें भी मुसलमानों की तरह ही कट्टर पोथीनिष्ठ होना चाहिए।"  इस प्रकार के विचारों पर उन्होंने जो एक दीर्घ लेख 'विज्ञान बल" शीर्षक से लिखा था आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना कि उस काल में था। उसके कुछ अंश इस प्रकार से हैं - ''उन मुसलमानों को देखिए, दाढ़ी तो दाढ़ी रखेंगे; बुरका कष्टदायक होने के बावजूद समाज की विशिष्ट पहचान के रुप में उस रुढ़ि का पालन करेंगे; मस्जिद के सामने वाद्य (बैंड) बजा रे बजा कि, भडक उठेंगे! कुरान ईश प्रेषित धर्मग्रंथ है इसलिए सब के सब उसका सम्मान रखेंगे; उसके नाम से सभी एक हो जाएंगे; सुअर का मांस नहीं तो नहीं खाएंगे! कुरान का प्रत्येक आचार कितना भी पुराना हो या कष्टदायक हो, उसका सामाजिक धार्मिक बंधन के रुप में पालन करेंगे! पांच बार तो पांच बार प्रत्येक व्यक्ति नमाज पढ़ेगा, रोजा तो रोजा सारा समाज रोजा रखेगा! आदि रुढ़ियां क्या तर्कसंगत हैं? अंधश्रद्धा नहीं? परंतु, फिर भी उसके कारण उस समाज में एकरसता, एकजुटता और दृढ़ता आई है।

''हम हिंदुओं को भी उसी प्रकार से जो हमारी प्राचीन रुढ़ियां और धार्मिक मान्यताएं हैं वे अंधश्रद्धा और अन्य दृष्टि से हास्यास्पद हों तो भी समाज में मुसलमानों के समान ही धार्मिक कट्टरता संचारित करने के लिए उनका पालन करना चाहिए!""

धर्मपरायणता अथवा पोथीनिष्ठता के कारण मुसलमानों की दुर्दशा ही हो रही है!

पोथीनिष्ठता के कारण ही मुस्लिम समाज एकजुट, प्रबल और प्रगत हो रहा है और इसलिए अपन उनसे भी अधिक पोथीनिष्ठ हुए तो अधिक प्रबल और प्रगत होंगे इस प्रकार की समज आजके अनेक निश्चछल हिंदुसंघटकों में विचर रही है वह मूलतः दोतर्फा गलत है। पोथीनिष्ठता के कारण मुसलमानों की कौनसी प्रगति हुई है? आज (भी) हिंदुस्थान में भी वे शिक्षा में पिछडे हुए हैं; अज्ञान, दरिद्रता और कूपमंडूकता में भी हिंदुओं की अपेक्षा वे अधिक ग्रसित हैं। साहित्य में हिंदू ही श्रेष्ठ हैं। अधिकांश बडी-बडी संस्थाएं हिंदुओं ने ही प्रारंभ की और चलाई हैं। सारे भारतीय मुद्रालय हिंदुओं के ही हाथों में हैं, बडे-बडे कवि, संशोधक, उद्‌भावक, प्रकल्पक, संपादक, विद्वान प्राध्यापक, सुधारक, वक्ता, प्रबंधक जो पिछले कुछ शतकों में प्रसिद्ध हुए हैं हिंदुस्थान में हुए हैं। उनमें से 95% तो भी हिंदू ही हैं। ऑक्सफोर्ड, केंब्रिज, पेरिस, बर्लिन आदि यूरोपीय विश्वविद्यालयों में भारतीय बुद्धिमत्ता की जो छाप पडी है वह मुख्यतः हिंदुओं द्वारा ही पडी है। रॅंगलर्स, आय. सी.एस., नोबल प्राइजमेन, वैज्ञानिक, संशोधक जो भारतीय यूरोप में झलके हैं वे भी बहुतकर हिंदू और हिंदू ही हैं। राजनीति में जो कुछ विद्रोह जूझ होती रही है वह पिछले सौ वर्षों में सारी की सारी हिंदुओं द्वारा ही। तिलक, लाजपतराय, गोखले, बेनर्जी, पाल, गांधीजी, मालवीय, अय्यर आदि झट से बतलाने जैसे और जो यहां बतलाए नहीं गए हैं, वे हिंदू ही थे। जर्मन महायुद्ध जैसे सैनिक शौर्य प्रकट करनेवाले जो कुछ अच्छे-बुरे अवसर मिले, उनमें सिक्ख, गुरखा आदि हिंदू सैनिक अपना क्षात्र तेज प्रकट करने से चूके नहीं हैं। वही स्थिति औद्योगिक क्षेत्र में है। बीमा, मिलें, बैंके, सहकारी क्षेत्र की संस्थाएं कारखाने इन जैसी जो कुछ बडी-बडी औद्योगिक संस्थाओं का प्रपंच जो बढ़ता हुआ दिख रहा है वह अधिकतकर हिंदुओं के कर्तृत्व, नेतृत्व का फल है।

जो बात वर्तमानकाल में, वही बात भूतकाल में भी थी। पोथीनिष्ठता के कारण, ईशभक्ति, धार्मिक उन्माद के कारण ही मुसलमान वीर और विजयी हुए ऐसा कई बार मुसलमान बारम्बार बोलकर दिखलाते हैं। हमारे हितशत्रु भी यही बतलाते हैं। परंतु, वह अर्धसत्य है। जो समाज उनसे अधिक असंगठित था और अंधश्रद्ध था उन पर मुसलमानों की धार्मिक कट्टरता-उन्माद ने विजय पाई। परंतु जब उनसे अधिक ऐहिक दृष्टि से संगठित समाज से उनका पाला पडा तब मुसलमानों की पारलौकिक पोथीनिष्ठा उनके बिल्कूल भी काम ना आई। इसका निरुत्तर कर देनेवाला सबूत हिंदुओं तक का मर्यादित चाहिए हो तो महाराष्ट्र का इतिहास देखें। पोथीनिष्ठ औरंगजेब के क्या हाल मराठों ने किए।

विज्ञानबल के आगे धार्मिक कट्टरता का डंक और पोथीनिष्ठता का दंश किस प्रकार से ढ़िला पडा है उसे यूरोप में देखो। तीनसौ वर्षपूर्व यूरोप को भी पोथीनिष्ठता ने खोखला कर दिया था। उनकी पोथीनिष्ठता भी हिंदुओं की पोथीनिष्ठता की तरह थी इसीलिए मुसलमानों की आक्रमक पोथीनिष्ठता ने उनकी धज्जियां उडा दी। पुर्तगाल, स्पेन जीतकर वे पेरिस के तट तक और दूसरी ओर हंगरी तक पहुंच गए। परंतु, आगे जब यूरोप में विज्ञाननिष्ठा अवतरित हुई, भाप, बिजली और हवाई जहाज का युग आया, तब उसी यूरोप ने उन्हीं मुसलमानों की क्या दुर्दशा की है यह भी बतलाने की जरुरत है क्या? जिन मूरों ने स्पेन जीता उन मूरों को स्पेन और फ्रांस ने जीता। ईशभक्ति और पोथीनिष्ठता के गढ़ अबीसीनिया को विज्ञानबल से संपन्न इटली ने एक झटके में बेहाल कर दिया। सायबेरिया के पोथीनिष्ठ और लाखों कट्टर मुसलमानों पर निरीश्वरवादी और निधर्मी रशिया राज कर रहा है! इराक, इजिप्त और दिल्ली के खलीफाओं - बादशाहों के पोथीनिष्ठ तख्तों की प्रदर्शनी आज इंग्लैंड में लगी हुई है।

मुसलमानों की दुनियाभर में हुई दुर्दशा का अपवाद केवल तुर्कस्थान है। परंतु, वह अपवाद ही हम बतला रहे उस नियम का निरुत्तर कर देनेवाला सबूत है! तुर्कस्थान जो टिका वह केवल इसलिए मात्र क्योंकि, उसने ईशभक्ति, पोथीनिष्ठता को छोडकर विज्ञानबल की उपासना की। तुर्कस्थान यूरोप जितना ही अद्यतन बना, प्रयोगक्षम भौतिक विज्ञान का उपासक बना इसीलिए बच गया।

हमारी अंतःकरण से इच्छा है कि हिंदी मुसलमान भी पोथीनिष्ठता की प्रवृत्ति छोडकर, विज्ञाननिष्ठ बनें; धार्मिक कट्टरता के शिकंजे से उनकी बुद्धि स्वतंत्र हो, उनका समाज भी शिक्षित, प्रगत और अभ्युन्नत हो। अगर उनके ध्यान में यह बात आ गई कि विज्ञानबल के आगे अज्ञानी धार्मिक उन्माद कभी भी टिक नहीं सकेगा तो, वे भी तुर्कों का मार्ग स्वीकारेंगे और आज यूरोपीयन शक्तियों के आगे उनकी जो दुर्गत हो रही है वह रुकेगी। मुसलमान अगर विज्ञाननिष्ठ और प्रगत हुए तो उसमें हिंदुओं का भी कल्याण है, हिंदी मुसलमानों का तो बहुत बडा कल्याण है ही।

परंतु, इतना होने पर भी अगर मुसलमानों को उनकी पोथीनिष्ठ प्रवृत्ति ही हितकारक लगती है, पुसाती है तो बडे मजे से आचरण में लाएं। परंतु, हमने यह गांठ बांध लेना चाहिए कि, यूरोप के विज्ञानबल के आगे जिन अर्थों में उनके धार्मिक उन्माद की एक नहीं चलती, जिन अर्थों में बुद्धिनिष्ठ प्रगति से वंचित होने के कारण उनका समाज आज हमारे हिंदू समाज की अपेक्षा अज्ञान, दरिद्रता और अवनति के चंगुल में फंसा हुआ है और जिन अर्थों में हमें जो सामना करना है वह विज्ञानयुग का और यूरोपीय विज्ञानबल का ही, इन अर्थों में मुसलमान पोथीनिष्ठ हैं इसलिए हम उनसे अधिक पोथीनिष्ठ, ईशभक्त और धार्मिक रुप से कट्टर होंगे यह कोई हमारी अभ्युन्नति का उपाय नहीं। अगर अनुकरण ही करना है तो आज मुसलमानों के सामने टिकी रही यूरोप की उस विज्ञाननिष्ठता का। जिसका संपादन करना है, जिसके सामने धर्मभेद का डंक ढ़िला पडता है उस विज्ञानबल का! ईशभक्ति सारे गंडे-ताबीज, कोसाकाटी जिस कवच पर असर नहीं कर सकते, यह आज इंग्लैंड, रशिया, जर्मनी में साफ-साफ नजर आ रहा है, उस विज्ञानकवच को हमने धारण करना चाहिए। अपने इस विधेय को उन्होंने बुरका, नमाज-पूजा, मांसाहार के उदाहरण देकर विस्तृत रुप से समझाया है जो विस्तारभयास्तव हम उद्‌. नहीं कर रहे हैं।

इसी प्रकार बहुत से हितचिंतकों को लगता है कि जिस प्रकार से मुसलमानों का एकही धर्मग्रंथ कुरान है, ईसाइयों का बाइबल है उसी प्रकार से हिंदुओं ने भी कोई सा तो भी एक ही धर्मग्रंथ तय करना चाहिए। जिससे कि जिस प्रकार कुरान कहते ही सारे मुसलमान एकजुट हो जाते हैं वैसेही हिंदू भी हो जाएंगे। परंतु, यह आशा भी एक दोहरी भूल है। कुरान एक ही धर्मग्रंथ होने के कारण मुसलमानों को संगठन की दृष्टि से बहुत लाभदायक है, वे प्रबल बन रहे हैं, यह मूल बात ही ऊपरी तौर पर ही महसूस होती हैं उतनी सच नहीं! कुरान के एक-एक वाक्य के कारण मतभेद होकर मुसलमानों ने मुसलमानों का कत्लेआम किया है, खलीफाओं का मारा है, बगदाद; दमास्कस, मक्का-मदीना जो मुसलमानों के राजनगर-धर्मक्षेत्र हैं पक्ष-विपक्ष द्वारा बारम्बार ध्वस्त किए गए हैं। अपने हिंदुओं को वह इतिहास बहुतकर मालूम नहीं है इसलिए वे धोखा खा जाते हैं। वहाबियों और सुन्नियों की आज भी अरबस्थान में गूंज रही अनबन, कादियानी और अहरार के बीच की पंजाब की धारा 144 द्वारा थाम कर रखी गई जाती दुश्मनी, शिया-सुन्नी की लखनऊ में होनेवाली आपसी लडाई देखो! केवल पोथीनिष्ठता की दुर्घटना! अगर एक ही धर्मग्रंथ होने से मुस्लिम समाज की आज के युग में भी टिकाऊ ऐसी शक्ति होती तो आज यूरोपीयनों द्वारा सारी पृथ्वी पर मुसलमानों के जो हाल किए जा रहे हैं, वह वे कैसे कर सकते थे? यूरोपीयनों का उनको प्रबल करनेवाला एक ही धर्मग्रंथ कौनसा? बाइबल नहीं! इसके बिल्कूल विपरीत उन्होंने बाइबल को मूंदकर अपनी आँखें खोली! रशिया ने तो बाइबल ही फाड डाली! एक ही धर्मग्रंथ वाले लाखों मुसलमानों पर कोई सा भी धर्मग्रंथ न माननेवाला रशिया राज कर रहा है; वे पिछडे हुए, वह प्रगत; वे निर्बल, वह प्रबल; ऐसा क्यों? क्योंकि, रशिया ने अपनी समाज संस्था का आधार किसी भी धर्मग्रंथ पर न रचते विज्ञानग्रंथ पर रचा इसलिए!

इसलिए अपने को मुसलमानों की पोथीनिष्ठता का अनुकरण न करते विज्ञाननिष्ठा का करना चाहिए! जिस समाज ने जिस धर्मग्रंथ को जकड लिया वह धर्मग्रंथ जितना सहस्त्रावधि वर्षों से पुराना उतने ही सहस्त्रावधि वर्षों से वह समाज पिछडा ही रहना चाहिए! धर्मग्रंथ पर समाज व्यवस्था खडी करने के दिन गए! सौभाग्य से अपने हिंदू दर्शन में किसी भी एक धर्मग्रंथ को पिंजडे में न अटकनेवाली तत्त्वज्ञान बुद्धि की जो स्वतंत्र उडान मिलती है वही अपना भूषण है! वेदगीतोपनिषदादि ग्रंथ पूज्य हैं, आदरणीय हैं, उतना ही पर्याप्त है। वे परमप्रमाण नहीं होना चाहिए! इस विज्ञानयुग में समाजसंस्था का जो संगठन करना है वह प्रत्यक्ष ऐहिक और विज्ञाननिष्ठ इसी प्रकार के तत्त्वों पर करना चाहिए। उस मार्ग पर चलकर इंग्लैंड, रशिया, जापान ये राष्ट्र बलवान हुए वैसेही अपना हिंदूराष्ट्र भी हुए बगैर रहेगानहीं।

परंतु, खेद है कि विज्ञाननिष्ठ सावरकर के इन विचारों की उपेक्षा की गई चाहिए वैसा उन विचारों का प्रचार-प्रसार नहीं हुआ उसीका परिणाम है कि आज भी अपने हिंदू समाज में चंद ऐसे लोग मौजूद हैं स्वयं को हिंदुत्ववादी, हिंदूधर्मउद्धारक बताकर-बनकर लोगों को भ्रमित कर गलत राह पर ले जाने के प्रयास में हैं।

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