Sunday, December 25, 2011

राष्ट्रपुरुष महामना पंडित मदनमोहन मालवीयजी
आज तक हिंदुस्थान में जितने भी राष्ट्रपुरुष हुए हैं उनमें भारतीय संस्कृति का आदर्श के रुप में यदि कोई जाना जाता है तो वह हैं पं. मदनमोहन मालवीयजी। पंडित मालवीयजी के ह्रदय में एकही महत्वाकांक्षा सदैव प्रज्वलित रही और वह थी भारतवर्ष के उत्कर्ष की। इस संबध में उनके प्रयत्न भी विविध और दीर्घ होकर हिंदुस्थानवासियों विशेष रुप से हिंदुसमाज द्वारा इस कार्य में किस प्रकार हाथ बंटाना चाहिए उसका सर्वोत्कृष्ट विवेचन उन्होंने किया था। पंडितजी ने सार्वजनिक कार्यक्षेत्र में उतरने के बाद जो देशसेवा का व्रत स्वीकारा था वह आजीवन निभाया। सार्वजनिक कार्य के क्षेत्र में त्याग तो कइयों ने किया परंतु, पंडितजी का त्याग अत्यंत श्रेष्ठ प्रति का था। उन्होंने देशसेवा के लिए अपना सर्वस्व अर्पण कर दिया था। वे आजीवन कांग्रेस के एकनिष्ठ भक्त रहे। शिक्षक, संपादक, वकील आदि अनेक व्यवसायों मेें प्रवेश करने के बावजूद देशसेवा के आगे कोई भी व्यवसाय न रुचने के कारण उन्होंने सारे व्यवसाय छोड दिए। शिक्षक रहते उन्होंने प्रचलित शिक्षणपद्धति को सुधार कर उसमें राष्ट्रीय भावना उत्पन्न हो इस प्रकार की शिक्षा राष्ट्र के नागरिकों को मिलना चाहिए इसका उनको विश्वास होने के कारण आगे जाकर उन्होंने इस उद्देश्य को पूरा भी किया। हिंदू विश्वविद्यालय इसका मूर्तिमंत उदाहरण है।
पंडितजी का कार्यक्षेत्र अत्यंत विशाल था। कभी विद्यार्थियों का घेरा उनके आसपास होता जिन्हें वे इतिहास अथवा तत्त्वज्ञान का रहस्य समझाते नजर आते तो कभी सभाओं में सनातन धर्म की महत्ता का वर्णन करते नजर आते। कभी राष्ट्रीय महासभा के मंडप में तो कभी वरिष्ठ विधायिका में हिंदुस्थान के राजनैतिक प्रश्नों की छान-बीन करने में डूबे हुए नजर आते तो कभी राजा-महाराजाओं को आशीर्वाद देते नजर आते थे। पंडितजी शांततावादी और एकता के समर्थक थे। कहीं भी अशांति होते ही वहां जाते और शांति प्रस्थापित करते।
पंडितजी ने हिंदूमहासभा की स्थापना की। शुद्धि-संगठन के लिए वे आंदोलन करते थे। इस कारण से वे राष्ट्रकार्य के लिए अत्यावश्यक हिंदू-मुस्लिम एकता के विरोधी थे इस प्रकार का आरोप उन पर किया जाता था। परंतु, वह असत्य है यह उन्होंने अपनी स्वकृति से सिद्ध कर दिखाया था। राष्ट्रकार्य को साधने के लिए कभी थोडा झुकना भी पडे तो झुककर मुसलमानों का पक्ष लेकर हिंदू-मुस्लिम विवाद को समाप्त किया जाए महात्मा गांधीजी के इस उद्देश्य का समर्थन ही पंडितजी ने किया था। परमेश्वर को प्रसन्न करने का मुख्य उपाय लोकसेवा-देशभक्ति है। देशवासियों के दुख से दुखी होना और उनके दुख दूर करने के लिए शुद्ध भावना से यज्ञ करना ही सच्ची परमेश्वर की परम उपासना है इस प्रकार की उनकी सोच थी।
पंडितजी को प्रारंभ से ही हिंदी भाषा के प्रति गर्व होकर हिंदी साहित्य के प्रसार के काम में उनके प्रयत्न सर्वश्रुत हैं। पहला हिंदी सम्मेलन भी पंडितजी की अध्यक्षता में ही आयोजित हुआ था। संयुक्त प्रांत की अधिकांश जनता की मातृभाषा हिंदी होकर भी सरकारी कामकाज की भाषा उर्दू थी इससे लोगों को बडी असुविधा होती थी। पंडितजी ने राष्ट्रभाषा के ऊपर का यह संकट और जनता की असुविधा को देख उर्दू के साथ ही साथ हिंदी भाषा में भी न्यायालयों का कामकाज चले इसके लिए बडा आंदोलन चलाया। पंडितजी का इस काम में कोई कम बडा विरोध नहीं हुआ; परंतु, उस समय के संयुक्त प्रांत के ले. गव्हर्नर लार्ड मॅकडोनाल्ड ने पंडितजी की सत्यता से सहमत होकर सन्‌ 1900 में सारे सरकारी कार्यालयों में से उर्दू के साथ-साथ हिंदी भाषा में भी कामकाज चलना चाहिए का प्रस्ताव पारित किया।
पंडितजी ने हिंदी राष्ट्रभाषा होनी चाहिए के लिए जो प्रयत्न किए उसका समर्थन लो. तिलक, रमेशचंद्र दत्त, अरविंद घोष ने भी किया था। पंडितजी केवल इतना कर ही नहीं थमे तो सन्‌ 1908 में उन्होंने प्रयाग में हिंदी में 'अभ्युदय" प्रत्र शुरु किया, सन्‌ 1910 में 'मर्यादा" नामका हिंदी मासिक शुरु किया। 1910 में आयोजित पहले हिंदी साहित्य सम्मेलन की अध्यक्षता करने के लिए भी पंडितजी ही चुने गए थे। उस समय देशी भाषाओं की किस तरह से अवहेलना हो रही है और उसकी उन्नति किस प्रकार की जा सकेगी की योजना का बडा ही सुंदर वर्णन उन्होंने किया। हिंदू विश्वविद्यालय की शिक्षा का माध्यम उन्होंने हिंदी ही रखा था।
युवाओं के लिए उनका उपदेश था - भारतीय नवयुवकों में ईशभक्ति और देशभक्ति उत्पन्न हुए बगैर कुछ नहीं हो सकता इसीके साथ बलसंवर्धन की भी बडी आवश्यकता है। 'शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्‌" इस वचनानुसार देशकल्याण के लिए प्रयत्नशील प्रत्येक युवक व युवती को शरीर बल बढ़ाने के लिए प्रयत्न करना चाहिए। अपनी स्वराज्य प्राप्ति निकट है; परंतु स्वराज्य को टिकाने के लिए राष्ट्र की शरीर संपत्ति सुधारना आवश्यक है। क्योंकि, शक्तिशाली ही स्वतंत्र रह सकता है। राष्ट्र की भावी आशाएं युवाओं पर हैं इसलिए हिंदी युवा शक्तिशाली और समृद्ध होना चाहिए इस दिशा में उनके प्रयत्न अहर्निश चलते रहते थे और युवाओं से युवाभाव वालाभाषण करने में वे सतत आनंदित होते थे।
सदाचार और स्वधर्मनिष्ठा, सच्चे ब्राह्मण्य की आदर्श मूर्ति पंडितजी थे यह कोई भी गर्व से कह सकता है। आदर्श हिंदू। महान कूटनीतिज्ञ, आदर्श अध्यापक, उत्कृष्ट व तेजस्वी वक्ता जैसे अनेक गुणों से भरपूर पंडितजी का चरित्र हिंदू मात्र के लिए वंदनीय, स्मरणीय और अनुकरणीय है।
ब्लॉग - कणाद

No comments:

Post a Comment