Tuesday, December 20, 2011

वीर सावरकरजी की राष्ट्रसमाजोद्धारक सूक्तियां

प्राथमिक शिक्षा देने का काम कौन करे?

वीर सावरकरजी जब अंदमान कारागृह में दो आजीवन कारावास का दंड भुगत रहे थे। तब वे वहां अनाडी एवं अशिक्षित बंदियों को अक्षर ज्ञान करवा देने का पवित्र कार्य करते थे। इस पर राजबंदीवान उनसे प्रश्न पूछा करते थे कि, यह माथाफोडी का कार्य आप क्यों करते हैं? सावरकरजी बॅरिस्टर थे। इस पर सावरकरजी ने जो उत्तर दिया था वह इस प्रकार है -
.... अपन गांव-गांव में प्राथमिक शालाओं को प्रारंभ करने का प्रस्ताव लाते हैं। वह शिक्षा देने के लिए किसीने तो आगे आना चाहिए ही ना? फिर वह कष्टदायक कार्य हम ही क्यों न करें? हम उतने अध्यापकों के भारी-भरकम वेतन और सम्मान की कुर्सियों पर आसिन हों और गांवों में बारहखडी घोखते हुए शिक्षा देने का कष्टदायक कार्य अन्य करें यह इच्छा अन्याय नहीं क्या?

शिक्षक वर्ग की जीविका के लिए राष्ट्रीय निधी
अपने सारे नौकर वर्ग में जिस वर्ग की सांपत्तिक स्थिति अत्यंत अनुकंपनीय है उनमें प्राथमिक शिक्षक वर्ग की गणना करना पडती है। वास्तव में जिस शिक्षक वर्ग के हाथों राष्ट्र के कोमल बच्चों को शिक्षा दी जाती है, यानी राष्ट्र के बाल रुपी पौधे की हिफाजत करनेवाला जो माली ही है उस वर्ग की जीविका का भार राष्ट्रीय निधी से इतना संपूर्ण रुप से और संतुष्टिपूर्ण मात्रा में उठाना चाहिए कि, कम से कम अपने परिवार के पालन-पोषण की तो भी चिंता उसे ना करनी पडे। यानी वह बालराष्ट्र की बौद्धिक हिफाजत अबाध और प्रसन्न मन से कर सके। (1933 में सरदेसाई रियासत के परीक्षण की प्रस्तावना)

सच्चा शिक्षित - सच्चा शिक्षित वह है कि जो लोगों के दुःख से बेचैन हो उनके सुख के लिए स्वयं की यंत्रणाओं को नगण्य मानता है।

ज्ञानार्जन और ज्ञानदान कर्तव्य का मूल सिद्धांत -
ज्ञानार्जन और ज्ञानदान सतत करते रहना कर्तव्य का मूलसिद्धांत है। इस मूल सिद्धांत का जो सतत अभ्यास करते रहता है वह संत, सज्जन लोगों के सामने सत्यासत्य रखने का काम सतत करते रहेगा ही और सत्यासत्य लोगों के सामने प्रस्तुत करना यानी सत्य के पक्ष का समर्थन करना है, सत्यासत्य के पक्ष को प्रोत्साहित करना है और असत्य की महत्ता कम करना स्वभावतः ही सत्यशील रखनेवाला जनसमाज करने लगता है।

ज्ञान बांझ कब ठहरता है?
... केवल पढ़कर जो संचित होते जाता है वह ज्ञान, फलहीन वृक्ष के समान, अथवा जिसके पानी से हजारों न हों, परंतु एक आधे तृषार्त की तृष्णा भी पूरी न होती हो या अन्नउत्पादन से भूख मिटती नहीं हो उस जलाशय के संग्रह के समान केवल बांझ नहीं तो और क्या है?

शिक्षक का कार्य - शिक्षक ने उसके कार्य को केवल व्यवसाय के रुप में न करते देश की भावी पीढ़ियां बलशाली और राष्ट्रभक्त  होंगी इस प्रकार के प्रयत्न करना चाहिए।
शिक्षक सहज कर सकें ऐसे सुधार - शिक्षक अपनी नौकरी की कक्षा में ही जिन राष्ट्रीय सुधारों को सहज साध्य कर सकता है उनमें भाषाशुद्धि और लिपिशुद्धि के सुधारों का समावेश होता है। इसके लिए सभी शिक्षक स्वयं उन्हें सावधानी पूर्वक आचरण में लाएं, विद्यार्थियों से भी उन्हें आचरण में लाने को कहें।
सीखाने से विषय अधिक अच्छी तरह समझ में आता है - पढ़कर जो समझ में आता है वह दूसरों को कहने पर कई गुना अधिक समझ में आता है।

विद्यार्थियों को औद्योगिक शिक्षा - (राष्ट्रीय) शालाओं द्वारा शीघ्र ही स्वदेशी के प्रचार के लिए एकाध साबुन का कारखाना, खादी अथवा अन्य उद्योग चालू किया जाना चाहिए। विद्यार्थियों को औद्योगिक शिक्षा दें।

 योगशास्त्र में सावरकरजी की रुचि युवावस्था में ही जागृत हो गई थी इसका उल्लेख उनके काव्य 'सप्तर्षि" और 'माझी जन्मठेप" (मेरा आजीवन कारावास) में मिलता है। स्वामी विवेकानंद का राजयोग उनका प्रिय ग्रंथ था। स्नान के बाद ध्यानधारणा करना उनका नित्य क्रम था। अखिल हिंदू ध्वज पर कृपाण के साथ उन्होंने कुंडलिनी को स्थान दिया था।
योगशास्त्र मानव के लिए वरदान
मानव जीवन के लिए सर्वश्रेष्ठ वरदान के रुप में जिसका वर्णन किया जा सके ऐसा प्रयोगाधारित शास्त्र है योगशास्त्र जिसे हिंदुओं ने पूर्णत्व तक पहुंचाया है।
योगशास्त्र मनुष्य कीआंतरिक शक्तियों के संपूर्ण विकास का एक सर्वश्रेष्ठ शास्त्र है।
योगशास्त्र मानव के व्यक्तिगत अनुभव का शास्त्र है। उसमें मतभेद के लिए स्थान नहीं।
योग में गुप्तता नहीं फिर भी वह शास्त्र है।
योग करनेवाले मनुष्य को आश्चर्यजनक, इंद्रियातीत और श्रेष्ठ आनंद की प्राप्ति होती है। इस अवस्था को योगी कैवल्यानंदजी कहते हैं, वज्रायनी महासुख, अद्वैती ब्रह्मानंद और भक्त प्रेमानंद। इस सर्वश्रेष्ठ आनंद को प्राप्त कर लेना मनुष्य का - फिर वह हिंदू हो या अहिंदू, आस्तिक हो या नास्तिक, नागरिक हो या वनवासी हो, - सर्वश्रेष्ठ ऐसा ध्येय है।दंड-बैठक, सूर्यनमस्कार, तैरना, दीवार पर चढ़ना आदि व्यायाम सावरकरजी युवावस्था में करते थे। इंग्लैंड में रहते समय वे सॅंडो के वर्ग में जाते थे। सुदृढ़ थे इसीलिए सावरकरजी अंडमान (के दो आजीवन कारावास के दंड) में टिक सके। रत्नागिरी में स्थानबद्ध रहते समय उन्होंने वहां व्यायामशाला निकालने का प्रयत्न किया था। अपने दौरों में वे व्यायामशालाओं को आस्थापूर्वक भेंट दिया करते थे।

बचपन में कौनसे व्यायम करें?
मजबूत और खुरदरापन यानी बलशाली होना नहीं, शरीर के मोहक-सुंदर सलोनेपन को न गमाते हुए भी प्रमाणबद्ध व्यायाम से शरीर सुश्लिष्ट होकर भी बलशाली हो सकता है - जैसे भगवान कृष्ण का! मेरी युवावस्था के व्यायामविषयक अनुभव का दूसरा एक पाठ भी कहें ऐसा लगता है, कच्ची आयु में दंड-बैठक के स्थान पर ही मांसपेशियों को जमा डालने वाले व्यायाम का प्रमाण कुछ कम करके, सिंगलबार, डबलबार, मलखंब, ऊंचाई बढ़ानेवाले व्यायाम करना विशेष अनुसेवनीय लगते हैं।
लाठी बेलन कब हो जाती है?

जो लाठी धार्मिक कृत्य और अनाथ लोगों पर आततायी आक्रमण के समय मिलती नहीं है उस लाठी में और अबला के हाथ के बेलन में अंतर ही क्या रहा?दंड-बैठक, सूर्यनमस्कार, तैरना, दीवार पर चढ़ना आदि व्यायाम सावरकरजी युवावस्था में करते थे। इंग्लैंड में रहते समय वे सॅंडो के वर्ग में जाते थे। सुदृढ़ थे इसीलिए सावरकरजी अंडमान (के दो आजीवन कारावास के दंड) में टिक सके। रत्नागिरी में स्थानबद्ध रहते समय उन्होंने वहां व्यायामशाला निकालने का प्रयत्न किया था। अपने दौरों में वे व्यायामशालाओं को आस्थापूर्वक भेंट दिया करते थे।

सावरकरजी का कहना था - 'मुझे भूल जाओगे तो चलेगा परंतु, मेरे बतलाए हुए सामाजिक विचारों का विस्मरण मत होने देना।" इतना अंधश्रद्धा, धार्मिक रुढ़ि, ग्रंथ-प्रामाण्य, विज्ञान पराड्‌मुखता इन बातों पर किए हुए आक्रमणों का उन्हें महत्व प्रतीत होता था। राजनैतिक विचार तात्कालिक होते हैं, परंतु सामाजिक विचार समाज पर दीर्घकाल तक परिणाम करनेवाले होते हैं। समाज सुसंगठित और विज्ञाननिष्ठ हुआ कि वह किसी भी संकट का सामना कर सकता है। यह सोचकर ही उन्होंने विज्ञान से प्रेरित समाज रचना का आग्रह किया था।

साहित्य अनैर्बंधिक (गैर-कानूनी) कब ठहरता है?
 1). किसी व्यक्ति का अथवा समाज की केवल मानहानि, केवल उपमर्द या केवल हानि करने की दुष्ट बुद्धि से घृणित या असभ्य भाषा में जो लिखा जाए वही वाड्‌मय ही अनैर्बंधिक (गैर-कानूनी) या अप्रसिद्धेय समझा जाना चाहिए।
 2). ... सत्य जिज्ञासा से या तथ्य प्रतिपादन के उद्देश्य से जिस मत की प्रस्थापना कोई करना चाहता है उसे जहां तक संभव हो सके प्रतिबंध नहीं होना  चाहिए। लेखन अथवा उपदेश की स्वतंत्रता होनी चाहिए। इसके कारण पवित्रता का विडंबन हो रहा है ऐसा किसी को लगता हो तो उसका यह मत गलत है ऐसा विरुद्ध पक्ष द्वारा साधार प्रतिपादन किया जाना चाहिए; यानी उसके विडंबन की अप्रतिष्ठा हुए बगैर रहेगी नहीं। उसका कहना सत्य अथवा तथ्य ठहरा तो अपन ने भलती ही बात को असत्य अथवा अतथ्य बात को पवित्रता दी थी यह अपने ध्यान में आएगा। सत्य की ओर तथा तथ्य की ओर मनुष्य की  अधिक प्रगति होगी।

साहित्य का ध्येय
मानवी जीवन के भौतिक ध्येय की व्याख्या जिससे मैं सहमत हूं वह यह है कि, मनुष्य जाति का अधिकाधिक हित जिसके द्वारा साधा जा सके वही मनुष्य का ऐहिक कर्तव्य है। उसी न्याय से कहा जा सकता है कि,तात्कालिक कर्तव्य भी प्राप्त परिस्थिति में उस-उस काल में मनुष्य जाति का जो अधिकाधिक हित साधा जा सके वह-वह साधें। इस दृष्टि से साहित्य के परम या तात्कालिक ध्येय की व्याख्या भी इसी प्रकार की होगी कि, मनुष्यहित का अधिकाधिक हित साधने के लिए प्रयास करे वही साहित्य श्रेष्ठ, वही सुप्रासंगिक, आनंद और मनोरंजन मानवहित के लिए कुछ प्रमाण में हितकारक होने के कारण उनका भी अंतर्भाव योग्य मात्रा में उपर्युक्त ध्येय में आता ही है, परंतु केवल मनोरंजन यह कोई कर्तव्य नहीं।
साहित्य केवल अर्थशास्त्र या कामशास्त्र का प्रपंच नहीं
कोईसा भी साहित्य केवल अर्थशास्त्र या केवल कामशास्त्र का प्रपंच है, तमाम साहित्य की जडें पूंजी, सत्ता और श्रमिक सत्ता इनके विरोध या सुप्त और जागृत कामवासना में ही गडी रहती हैं, ऐसा सिद्धांत गर कोई प्रस्तुत करने लगा तो भर एकांगी और एकतरफा ठहरे बगैर नहीं रहेगा।
साहित्य राष्ट्र की बुद्धि, शक्ति, शौर्य का प्रतीक है।
जो राष्ट्र बौना, दुर्बल, उसका साहित्य भी बौना और दुर्बल ही रहेगा।

सावरकरजी की भाषा संस्कृत प्रचुर होकर वेद, उपनिषद, भगवद्‌गीता, पातंजल योगसूत्र, स्मृतियां और पुराण, रामायण-महाभारत, कौटिल्य अर्थशास्त्र, कालिदास, भवभूती आदि का सावरकरजी को व्यासंग था। योगवसिष्ठ उनका प्रिय गं्रथ था। उनके संस्कृत भाषा संबंधी विचार इस प्रकार से हैं -

 संस्कृत हमारी जाति का अत्यंत पवित्र और गर्व करने योग्य चिरंतन उत्तराधिकार है। हमारी जाति में मूलभूत एकता घटित करवाने में उसका सामर्थ्य ही प्रमुख कारण है।हमारे जीवनमूल्य, हमारा ध्येय, हमारी आकांक्षाओं को उदात्त, उन्नत करते हुए इस देववाणी संस्कृत ने ही हमारे राष्ट्रीय जीवन के प्रवाह को परिपूत और विशुद्ध किया ..

महाभारत के अधिकांश प्रसंग धर्म की सनातनी अहिंसा, सत्यास्तेय, ब्रह्मचर्य आदि सार्वभौम समझे जानेवाले शब्दों का सच्चा अर्थ क्या है, व्यवहार मेें उन्हें कौनसा घूमाव देने पर वह धर्म होता है और कौनसा न देने पर वह अधर्म होता है, यह स्पष्ट करने के लिए हेतुतः डाले गए हैं। महाभारत यानी व्यवहार्य और व्यवह्रत नीतिशास्त्र की सोपपत्तिक और उदाह्रत चाबी है।

मुट्ठीभर बालू के कणों के समान हमें दसों दिशाओं में भी यदि बिखेर दिया जाए तो भी केवल रामायण और महाभारत की कथाएं हमें एकत्र लाकर एकजाति के रुप में पुनः एकजीव कर सकती हैं।

चीन, बाबिलोन, ग्रीस आदि किसी भी प्राचीन राष्ट्र के जीवनवृतांत के समान अपना प्राचीन राष्ट्रीय वृतांत भी पुराणकाल में आता है। यानी उसमें समाविष्ट इतिहास पर दंतकथाओं की, दैवीकरण और लाक्षणिक वर्णनों की परतें चढ़ी हुई हैं। फिर भी वे अपने पुराने 'पुराण" अपने प्राचीन इतिहास के आधारस्तंभ ही हैं यह न भूलें। यह प्रचंड 'पुराण वाड्‌मय" अपने साहित्य, ज्ञान, कर्तृत्व का और ऐश्वर्य का एक भव्य भंडार है इसी प्रकार से वह अपने प्राचीन जीवनवृतांत का भी असंगत, अस्तव्यस्त और संदिग्ध होने पर भी एक अमर्यादित संग्रहालय है।

परंतु, अपने 'पुराण" यानी 'विशुद्ध इतिहास" नहीं।

संसार में अन्यत्र सारे राष्ट्र और सारी संस्कृतियां जिन क्रांतियों से नष्ट हो गई उन क्रांतियों से अपनी जाति का संपूर्ण प्राचीन और आदरणीय इतिहास सुरक्षित रखने के कारण अपने को इन पुराणों और महाकाव्यों का आभारी होना चाहिए।

किसी व्यक्ति की स्वतंत्रता के बारे में सावरकरजी के विचार इस प्रकार थे-
व्यक्ति की स्वतंत्रता का जितना संभव हो सके विकास होना चाहिए। परंतु, व्यक्ति की जीविका अबाध और सुखद हो इसके लिए व्यक्ति की स्वतंत्रता मानवी कल्याण के प्रतिकूल न होनेवाली राष्ट्रहित की मर्यादा में ही होना चाहिए।

अपने को भी अन्य राष्ट्रों के समान घोषणा करना चाहिए कि, 'मेरा राष्ट्र मेरे लिए और मैं मेरे राष्ट्र के लिए"।

स्वराज्य स्थापना के बाद कितने भी तीव्र हों तो भी अपने सारे मतभेद मतपेटी में ही समाना चाहिए। देखना केवल यह है कि मतपेटी का पेंदा कहीं फूटा तो नहीं है।

 उपयुक्ततावाद का पहला आचार्य श्रीकृष्ण
भगवान श्रीकृष्ण सावरकरजी के आराध्य थे। सावरकरजी उपयुक्ततावादी थे। उनके सारे कार्यों का अंतिम उद्देश्य और विचारों के सूत्र मानव जाति का कल्याण थे।

जिस नीतिशास्त्र के आधार पर और सूत्र द्वारा अपना क्रांतिकारी आंदोलन खडा किया जाना चाहिए और उसको समर्थन देना चाहिए वह (utility) यही नीतिशास्त्र, यही क्रांति की मनुस्मृति ऐसा मेरा कहना है, मानना है और महाभारत के कृष्ण के अनेक प्रसंगों पर के भाषणों और व्यवहार पर से मैं सिद्ध करता था कि उपयुक्ततावाद का पहला आचार्य ही नहीं अपितु प्रणेता भी श्रीकृष्ण ही है। क्योंकि, उन्होंने वह आचरण में लाकर दिखलाया। उनके सारे आचरणों का समर्थन इसी तत्त्व पर उन्होंने किया, किया जा सकता है।

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