Thursday, January 5, 2012

बुरका

स्त्री-पुरुष के मध्य आकर्षण प्रकृत्ति प्रदत्त है यह एक जानी-पहचानी बात है। यह आकर्षण कहीं अनैतिक रुप धारण न कर ले इसलिए सभी धर्मों और उनके धर्मग्रंथों में इस आकर्षण को नियंत्रित रखने के लिए कुछ नियम, कुछ आज्ञाएं आई हुई हैं। कुरान में भी हैं। इतना होने के बावजूद जब पैगंबर को अनुभव हुआ कि इस आकर्षण का अतिरेक कहीं इन नियमों-आज्ञाओं का उल्लंघन कर सामाजिक मर्यादाओं को भंग न कर दे तो इस्लाम में परदा-बुरका का प्रादुर्भाव हुआ। परदा या बुरका की परंपरा कोई नई न होकर ईसा से 300 वर्ष पूर्व कुलीन-अभिजात वर्ग की असीरियन महिलाओं में परदा प्रथा थी। साधारण महिलाओं और वेश्याओं को परदे की अनुमति नहीं थी। मध्यकाल में यद्यपि एंग्लो-सेक्सन महिलाएं अपने बालों और चेहरे को ढ़ंाकने के लिए एक कपडे को उपयोग में लाती थी। फिर भी स्पष्टरुप से वह कोई धार्मिक प्रथा नहीं थी। धार्मिक रुप से कॅथलिक नन और मॉरमन्स यद्यपि बहुत बाद में धार्मिक समारोहों और कर्मकांडों में परदे को उपयोग में लाती थी। परंतु, मुुस्लिम महिलाओं के लिए इस प्रकार का धार्मिक परदा केवल कुछ कर्मकांडों तक ही सीमित नहीं बल्कि प्रतिदिन के लिए जीवन में धार्मिक दृष्टि से भी बाध्यकारी है। भारत के संदर्भ में ''उच्च कुल की नारियां बिना अवगुंठन के बाहर नहीं आती थी, किंतु साधारण स्त्रियों के साथ ऐसी बात नहीं थी। उत्तरी एवं पूर्वी भारत में परदा की प्रथा जो सर्वसाधारण में पाई जाती है उसका आरंभ मुसलमानों के आगमन से हुआ।"" (धर्मशास्त्र का इतिहास- पृ. 337)

'प्राचीन अरबस्थान में परदे के संबंध में विभिन्न प्रथाएं थी। रेगिस्तानी प्रदेश में रहनेवाले समाज की स्त्रियां परदा न करते ही पुरुषों के मध्य उन्मुक्ततापूर्वक विचरन करती थी। तो, नगर में रहनेवाली स्त्रियां परदा करती थी। स्वयं पैगंबर की कुरैश जाति की सभी स्त्रियां परदा करती थी। इतिहासकार फकी के कथनानुसार प्राचीन मक्कावासी अपनी अविवाहित लडकियों और स्त्री गुलामों को तडक-भडकवाले कपडे पहनाकर और बिना बुरके के उनकी काबा के आस-पास प्रदर्शनी लगाते थे। उनके लिए विवाह प्रस्ताव अथवा उन्हें खरीदने के लिए कोई आए ऐसी उनकी अपेक्षा रहती थी। वह पूरी होने के बाद वे स्त्रियां हमेशा के लिए बुरका धारण कर लेती। मुहम्मद साहेब ने अपने घर की स्त्रियों को 'अज्ञानकाल" (इस्लामपूर्व काल) के अनुसार सज-संवरकर सार्वजनिक स्थानों पर न घूमने की और घर में ही रहने की आज्ञाएं दी। वे कुरान में इस प्रकार से आई हुई हैं ''ऐ नबी की पत्नियों! तुम दूसरी औरतों की तरह नहीं हो।""(33ः32) ''अपने घरों में ठहरी रहो और पिछली जाहिलियत की सी नुमाईश न करो।""(33ः33) स्पष्ट है कि यह आज्ञाएं उपर्युक्त 'अधार्मिक प्रथा" के संबंध में हैं।"(इस्लामची सामाजिक रचना - पृ.125)

इसी सूरह में आया हुआ है ''ऐ नबी! अपनी पत्नियों और अपनी बेटियों और ईमानवालों की औरतों से कह दो कि अपने ऊपर अपनी चादरें डाल लिया करें। यह इस लिहाज से अधिक मुनासिब है कि उनकी पहचान हो जाए और सताई न जाएं।""(33ः59) इस पर कुर्आन भाष्य कहता है ''अपने ऊपर अपनी चादरें डाल लिया करें" इससे पता चल जाएगा कि वे शरीफ और हयादार औरतें हैं ... मतलब यह है कि मुसलमान औरतें जब घर से निकलें तो अपने ऊपर ऐसा कपडा डाल कर निकलें जो ओढ़नी से बडा हो और जो उनके शरीर और उनके परिधान को छिपाए। इससे अभिप्रेत शरीर के खुले हिस्सों और परिधानों के बनाव सिंगार को छिपाना है।"" (दअ्‌वतुल कुर्आन खंड3 पृ. 1499) सूरह 'नूर" की आयत 31 में जो इसके बाद अवतरित हुई है औरतों को जहां अपने बनाव-सिंगार छिपाने का आदेश दिया गया है वहां 'सिवाय उसके जो जाहिर हो जाए" की रिआयत भी दी गई है।""(1499) ''इसलिए यदि हाथ और चेहरा अपने श्रंगार के साथ दिख जाता है तो औरत को इसकी छूट हैै। हदीसों से साबित होता है कि मुहम्मद साहेब के जमाने में औरते चेहरे का परदा करती थी और नहीं भी करती थी।""(द.कु.खं.2 पृ.1203) अतः ''चेहरा और हाथों को छिपाने और चादर को इस तरह सर से पांव तक लपेट लेने पर हठ पकडना कि लिबास का कोई भाग कतई खुलने न पाए, कुर्आन के एक व्यापक आदेश में कडाई पैदा करने के सिवा कुछ नहीं। यह कडाई यदि अतीत में की गई थी तो वह उस समय के हालात में स्वीकार ली गई होंगी परंतु मौजूदा हालात में जबकि औरतों को अपनी बहुत सी जरुरतों को पूरा करने और अपनी बहुतेरी जिम्मेदारियों को अंजाम देने के लिए घर से निकलना पडता है, परदे के हुक्म में इस कडाई के पैदा करने से उनके लिए बडी कठिनाई और अवरोध उत्पन्न हो सकते हैं और इसका नतीजा यह भी निकल सकता है कि औरतें परदे को अव्यवहारिक बताकर बिल्कूल ही त्याग दें। इसलिए बीच की राह का लिहाज करना आवश्यक है।""(द.कु.खं.3 पृ. 1499)

इसी सूरह में आया हुआ है ''ऐ लोगों जो ईमान (इस्लाम पर श्रद्धा) लाए हो। नबी (मुहम्मद साहेब) के घरों में दाखिल न हो मगर उस समय तक जब तुम्हें नबी की पत्नियों से कोई चीज मांगना हो तो परदे के पीछे से मांगों तुम्हारे लिए यह हरगिज जायज नहीं कि अल्लाह के रसूल को कष्ट दो और न यह जायज है कि इसके बाद भी कभी तुम उनकी पत्नियों से निकाह करो।"" (33ः53) इस पर कुर्आन भाष्यकार बैदावी की टीका इस प्रकार से है ''उमर द्वारा इस प्रकार से कहा गया 'ऐ परमेश्वर के दूत, आपके घर आनेवाले मनुष्य सीधे-सादे अथवा दुष्ट भी हो सकते हैं। इसलिए धर्मनिष्ठों (मुसलमानों) की मॉंओं (यानी पैगंबर की पत्नियों) को बुरका पहनना चाहिए इस प्रकार की आज्ञा आपके द्वारा दी जाना योग्य होगा इसके बाद पैगंबर को इन वचनों का साक्षात्कार हुआ। अपने घर की स्त्रियों द्वारा अपने कबीले की पुरानी प्रथा का पालन किया जाना चाहिए ऐसा मुहम्मद साहेब का मत होना चाहिए, ऐसा इस पर से स्पष्ट रुप से दिखाई पडता है। परंतु, मुहम्मद साहेब के परिवार की ही एक स्त्री भर यह पुरानी परिपाटी अथवा मुहम्मद साहेब की इच्छा बंधनकारक मानने को तैयार नहीं थी। उनकी पत्नी की भांजी ने-आयशा ने-इस मामले में वह स्वतंत्र है का आग्रह किया। पति के विरोध की परवाह न करते बुरका न पहनते वह लोगों के मध्य विचरन करती थी।""(126)
''हिजरी की तीसरी शताब्दी तक और उसके बाद भी मस्जिद में जाकर पुरुषों के साथ नमाज पढ़ने का अधिकार स्त्रियों को था। उमर द्वारा सार्वजनिक नमाज के साथ स्त्रियों को कुरान पढ़कर दिखलाने के लिए एक विशेष व्यक्ति की नियुक्ति की गई थी। उस समय स्त्रियों द्वारा बुरका ना भी पहना हो तो चलता था। परंतु, सार्वजनिक नमाज के समय स्त्रियों द्वारा पहनी जानेेवाली पोशाक के विषय में कानून में सूचनाएं हैं। छाती पर चोली और माथेके ऊपर ओर बुरका और शरीर पर अंगरखा होना चाहिए। चेहरा, हाथ और पांवों के निकट के ऊपरी भाग आच्छादित करने की जरुरत नहीं। इनमें से पांवों के ऊपर का भाग ढ़ंका जाए कि नहीं इस पर मतभेद हैं। पेंटट्‌यूक (बाइबल की पांच पुस्तकें) के यहूदी भाष्यकारों ने बाइबल की आज्ञाओं का पूर्णरुप से पालन हो इसके प्रति सावधान रहकर जिस प्रकार से 'आज्ञाओं की झाडबंदी" की, उसी प्रकार से कुरान के भाष्यकारों को भी कुरान में जो आदेश मूलतः कहे गए हैं उनसे भी अधिक किया जाए की अपेक्षा थी। पैगंबर ने मूलतः अपने स्वयं के घर की स्त्रियों, लडकियों को बुरके के संबंध में जो आदेश दिए थे वे कुरान भाष्यकारों ने सभी स्त्रियों पर लागू कर दिए। जिस प्रकार से पैगंबर की सुन्नाह अनुकरण करना स्तुत्य समझा जाता है। उसी प्रकार से स्त्रियों को भी पैगंबर के घर की स्त्रियों की पद्धति का अनुकरण करना योग्य है ऐसा बहुधा कुरान के भाष्यकारों का युक्तिवाद होना चाहिए।""(127)

स्पष्ट है कि परदा या बुरका इस्लाम का भाग नहीं है। इसलिए बुरके से इस्लाम की पहचान को जोडना या उसे शरीअत का स्तंभ मानना, फोटोयुक्त पहचान पत्र पर बेजा बहस करना, शर्तें डालना दकियानूसीपन है, कट्टरता है। यहीं नहीं इस दकियानूसीपन, कट्टरता के चरम का प्रदर्शन पश्चिमी देशों में भी किया जा रहा है। जो ब्रिटिश मुस्लिम सांसद के संस्थापक अध्यक्ष डॉ. कलाम सिद्दीकी के हिजाब पर के कथन से पता चलता है वे कहते हैं ''जब हम पुरुष सडक पर चलते हैं तो हम भीड का हिस्सा मात्र होते हैं। जब हमारी महिलाएं हिजाब पहनकर सडक पर चलती हैं तो अपने साथ इस्लाम का झंडा लिए चलती हैं। वे एक राजनीतिक उदघोष करती हैं कि यूरोपीय सभ्यता हमें अस्वीकार्य है, कि यह एक रोग है, मानवता के लिए महामारी है। वे एक प्रकार से जेहाद का उदघोष करते चलती हैं।""(हिंदू वॉइस जुलाई 2007 पृ.13)

बेहतर होगा कि मुस्लिमों के अध्वर्यू बने बैठे उपर्युक्त प्रकार के लोग अपना अडियल, दकियानूसी रवैया हर मामले में अपनाना छोडें वरना वह डर जो द.कु. के भाष्यकार ने अपने भाष्य में, जो पूर्व में दिया जा चूका है, व्यक्त किया है सच साबित होकर रहेगा। और इसकी शुरुआत भी हो चूकी है।
'सऊदी अरब में एक महिला पत्रकार नदीन बेदार ने अपने एक आलेख, जो इजिप्त के प्रसिद्ध अखबार 'अल मिस्त्री अलयोम" में 'माय फोर हसबेंड्‌स एंड आय", के जरिए चार निकाह करके चार शौहर रखने का अधिकार मांग कर इस्लामी जगत में हलचल मचा दी है। उसका कहना है कि इस्लाम में यदि पुरुष चार निकाह कर सकता है तो, यह अधिकार महिला को क्यों नही? यदि पुरुष सुंदरता और कामुकता के आधार भिन्न-भिन्न महिलाओं का चयन करता है तो एक महिला को भी अधिकार हो कि वह भी रंग-रुप और चाहत के आधार पर अपने अलग-अलग शौहर (पति) चूने। नदीन बेदार के विरुद्ध कुछ राजनीतिज्ञ भी अब मैदान में आ गए हैं। नदीन के समर्थक भी बाहर निकल आए हैं, उनका कहना है कि आज की वर्तमान परिस्थिति में इन कुप्रथाओं पर विचार होना चाहिए। अल अजहर विश्वविद्यालय के बाहर कुछ लोगों ने नारे लगाए और कहा या तो  महिला को चार शौहर रखने की छूट दें या फिर पुरुषों के लिए भी अनिवार्य करो कि वह केवल एक ही बीवी रखे। कई महिलाएं भी बिना परदे किए वहां खडी थी और नारे लगानेवालों का साथ दे रही थी। इजिप्त में कुछ दिन पूर्व शेख अल अजहर शेख अल तावावी ने भी परदे के संबंध में अपना वक्तव्य देकर वातावरण को गर्मा दिया था। उनका कहना था कि परदे के विषय में इस्लाम ने कोई आदर्श प्रस्तुत नहीं किया है इसलिए महिलाओं पर परदा करने की बात अनिवार्य रुप से लादी नहीं जा सकती है।"(पांचजन्य 14-2-10)

अतः बेहतर होगा कि परदे की अनिवार्यता के स्थान पर मुस्लिम महिलाओं को इच्छा स्वातंत्र्य प्रदान करने की पहल मुस्लिम समाज के सुधारवादी कहे जाने वाले लोग करें, साथ ही जो महिलाएं इच्छा स्वातंत्र्य के महत्व को समझ स्वयं होकर आगे आकर सकारात्मक पहल करना चाहती हैं, उन्हें समर्थन प्रदान करें।

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