Monday, January 23, 2012

कैसे कहें हम ईमानदार - बेदाग मनमोहन को !!

वर्ष 2010 भयंकर घोटालों के लिए जाना जाएगा तो, वर्ष 2011 उसके बचाव के लिए जानेवाली लीपा-पोती, उसके अपेक्षित परिणामों, सर्वोच्च न्यायालय की लताडों, बेतहाशा बढ़ती महंगाई-भ्रष्टाचार से त्रस्त जनता की आहों-कराहों-बेबसी और इस पर निष्क्रिय, राजनैतिक ब्लैकमेलिंग के आगे झुकते, अपनी असहायता प्रकट करते, राष्ट्र को विशाल आर्थिक हानि पहुंचते हुए देखकर भी, स्वयं के चरित्र को कलंकित करवाने तक गिरकर अपनी सत्तालोलुपता को गठबंधन की मजबूरी बतानेवाले मनमोहनसिंह के रुप में इतिहास में कभी भी सुप्रीम कोर्ट द्वारा इतनी विपरीत टिप्पणियां न की गई हों ऐसे प्रधानमंत्री के रुप में झेलने को विवश होनेवाले वर्ष के रुप में।

हमने मनमोहनसिंह को सत्तालोलुप कहा इसलिए कि यह कैसे भुलाया जा सकता है कि किसी भी कीमत पर सत्ता की निकटस्थता प्राप्त करने में वे माहिर रहे हैं। मनमोहन 1991 में आर्थिक सुधारों को लागू करने से पहले भी वित्त सचिव, रिजर्व बैंक के गवर्नर, भारत सरकार के वित्त सलाहकार पदों पर रहते नेहरुजी की नीतियों को आगे बढ़ाने में लगे रहे। जिनके बारे में उन्होंने संसद में अपना पहला बजट पेश करते हुए कहा था 'लम्हों ने खता की थी, सदियों ने सजा पाई।" इन विभिन्न वरिष्ठ पदों पर रहते उन्होंने उस समय कभी भी इंसपेक्टर राज खत्म करने की, उदारता की वकालात नहीं की। क्योंकि, ये तो जोडतोड में विश्वास रखते हैं। इसका प्रदर्शन भी वे नरसिंहाराव सरकार के कार्यकाल में जब वे वित्त मंत्री रहकर कर चूके हैं। जो जोडतोड कर के ही बहुमत वाली सरकार बनी थी। स्वयं के प्रधानमंत्रीत्व काल में भी जब वामपंथियों ने इनसे परमाणु मुद्दे पर समर्थन वापिस ले लिया था तो जोडतोड करके ही उन्होंने सरकार बचाई थी। ये वही मनमोहन हैं जो कभी नरसिंहाराव के विश्वस्त थे और आज सत्ता केंद्र बदलते ही सोनियाजी के निकटस्थ, विश्वसनीय बन बैठे हैं। इनकी चापलूसी का प्रदर्शन करनेवाला एक चित्र प्रियंका गांधी के पुत्र को दुलारते हुए भी एक समाचार पत्र में छप चूका है। इसी प्रकार की धूर्ततापूर्ण चापलूसी भरी चतुराई के कारण आज वे शीर्ष पर पहुंचने में कामयाब रहे हैं।

अपनी सौम्य और गंभीर छवि के लिए भले ही मनमोहन विख्यात हों। परंतु, इन्हीं मनमोहन के वित्तमंत्री रहते विश्वप्रसिद्ध शेयर घोटाला 'हर्षद मेहता कांड" के रुप में हुआ था। तब संसद के समक्ष उन्होंने यह वक्तव्य दिया था कि 'अगर शेयर बाजार में एक दिन उछाल आ जाए और दूसरे दिन गिरावट हो तो इसका मतलब यह नहीं है कि मैं अपनी नींद हराम कर लूं।" (प्रतिभूति एवं बैंक कारोबार में अनियमितताओं की जांच के लिए गठित संयुक्त संसदीय समिति की रिपोर्ट खंड 1, पृ. 211, लोकसभा सचिवालय, दिसंबर 1993)। उस समय जांच के लिए गठित जेपीसी द्वारा जब उनसे पूछा गया कि शेयर मार्केट में जब इतना बडा घोटाला हो रहा था उस समय आप क्या कर रहे थे। इस पर उनका उत्तर था 'मैं सो रहा था।" आप ऐसा कैसे कह सकते हैं यह जब उनसे कहा गया तो उन्होंने उत्तर दिया 'मैं मजाक कर रहा था।" यह अगंभीर उत्तर है गंभीर छवि वाले मनमोहन का।
इसी का परिणाम है कि इनका वास्तविक सामर्थ्य जान लेने के कारण ही इनके मंत्रीमंडल के मंत्री बेलगाम हैं, उन पर उनका कोई नियंत्रण नहीं यह तो ए. राजा के कार्यों से ही जगजाहिर हो गया और मनमोहन अपनी असहायता दर्शाकर चुप हो गए। ममताजी तो रेलमंत्रालय में अपनी बंगाल एक्सप्रेस चलाकर मस्त हैं। वरिष्ठ मंत्री शरद पवार अपनी भविष्यवाणियों द्वारा बहुत नाम और दाम कमा चूके और मनमोहनजी असहाय से चुपचाप देखते रहे। किसी समय इन्हीं शरद पवार के शागिर्द रहे कलमाडी कामनवेल्थ खेलों में भ्रष्टाचार में मशगूल रहे मीडिया चिल्लाता रहा पर मनमोहन अनदेखी करते रहे।

किसान आत्महत्याएं कर रहे हैं। मायक्रो फायनंस वाले मनमाना ब्याज वसूल कर समृद्ध हो रहे हैं। उधर अपने अर्थशास्त्री होने का दंभ भरनेवाले मनमोहन अपनी ही मुरली की तान में मस्त हैं। सेज के लिए उद्योगपतियों को किसानों की हजारों एकड उपजाऊ जमीनें आवंटित की जाने की नीतियों को आंख मूंदकर समर्थन दे रहे हैं। उन्हें किसानों का दर्द महसूस नहीं होता उलट महाराष्ट्र में सूखा पीडित किसानों को उनके द्वारा बांटे गए चेक बाऊंस हो गए। अनियंत्रित, अनियोजित आर्थिक विकास के चलते अमीर और अमीर तो गरीब और गरीब होकर जीने के लिए बाध्य हो रहे हैं। यह इन्हीं मनमोहनी नीतियों की उपलब्धि है कि गरीबों का सबसे सस्ता प्रोटीन कहे जानेवाली दालों की कीमतें आसमान तक जा पहुंची और इन्हें ऐसा न हो इसके लिए कोई नीति बनाई जाए का होश तक न रहा। शहरों के आसपास की सारी उपजाऊ जमीनें कहीं सेज तो कहीं टाउनशिप की भेंट चढ़ गई, सब्जियां महंगी हो गई तो अब नीति बनाई जा रही है कि शहर के आसपास सब्सीडी देकर किसानों को सब्जियां उगाने के प्रोत्साहित किया जाएगा।

इन्हीं की घातक आर्थिक नीतियों का दुष्परिणाम है कि आज नक्सलवाद इतना बढ़ रहा है कि यूएनओ भी भारत सरकार को इस गंभीर खतरे के बारे में चेतावनी दे रहा है। देश के 83 जिले पूरी तरह तो 100जिले आंशिक रुप से नक्सल प्रभावित हो गए हैं।  कृषि क्षेत्र से जुडी 65% आबादी सकल उत्पाद का 17% पाती है तो 35 से 57% सेवा सेक्टर के लोगों पर खर्च होता है। इधर हमारे प्रधानमंत्री मनमोहन तर्क दे रहे हैं कि विकास दर बढ़ने के साथ महंगाई भी बढ़ेगी ही। लेकिन कितनी इसका उत्तर उनके पास नहीं है। वैसे वे जिस विकास की दुहाई दे रहे हैं उसकी वास्तविकता तो न्यूजवीक के एक सर्वेक्षण में आ गई है जिसमें भारत को दुनिया के सर्वोत्कृष्ट देशों की सूची में 78वें स्थान पर दर्शाया गया है। इसी प्रकार की बेढ़ंगी टिप्पणी 2जी घोटाले में हुए भ्रष्टाचार के कारण हुई हानि पर देते हुए उन्होंने हानि की तुलना खाद्य और केरोसिन पर सब्सिडी से कर दी।

इस दुर्दशापूर्ण हालात में हमें पहुंचाने के जिम्मेदार मनमोहनसिंहजी के कार्यकाल की एक और उपलब्धि देखिए - इन्हीं महाशय के कार्यकाल में बोफोर्स के आरोपी क्वात्रोची को सीबीआई से क्लीनचिट मिली और उसके बाद फ्रीज किए खाते मुक्त करने का नतीजा दूसरे ही दिन क्वात्रोची ने उस खाते से पूरा पैसा निकाल लिया। स्वयं मनमोहन ने क्वात्रोची को चरित्र प्रमाणपत्र देने की कोशिशों के तहत कहा था कि लोगों को प्रताडित करना भारतीय विधिक व्यवस्था के लिए अच्छा नहीं है और क्वात्रोची मामले के चलते भारत सरकार को दूसरे देशों में शर्मिंदगी उठानी पडी है। इसी प्रकार की क्लीनचिट ए. राजा को भी वे दे चूके हैं जो अब कारागार में बंद हैं।

भ्रष्टों को बचाने प्रश्रय देने की कडी में नाल्को के अध्यक्ष श्रीवास्तव का नाम भी आता है। जिन्हें पीएमओ के इशारे पर ही इस महत्वपूर्ण पद पर बैठाया गया। सीवीसी पीजे थॉमस के मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा किरकीरी होने पर मनमोहन अब गलती जरुर स्वीकार रहे हैं। क्योंकि, उनकी मादाम सोनिया भी तो अब उनकी सरकार के कार्य करने के तरीके पर एतराज उठा रही है। उन्हीं के वरिष्ठ सहयोगी मंत्री चिदंबरम पीएमओ के दबाव की स्वीकारोक्ति दे रहे हैं। भू.पू. प्रधानमंत्री नरसिंहाराव जिनसे मनमोहन मौन रहने की कला सीखे हैं जिन्होंने बाबरी ढ़ांचा ढ़हाए जाने पर कहा था कि यहां बाबरी मस्जिद का पुनः निर्माण होगा की तर्ज पर उनसे दो कदम आगे बढ़ते हुए कहा कि देश के संसाधनों पर सबसे पहला अधिकार मुसलमानों का है और उन्हें यह तथाकथित अधिकार दिलवाने की कार्यवाही भी उन्होंने शुरु कर दी है।

मीडिया और उनके लगुए-भगुए चाहे लाख उन्हें पाक-साफ दिखलाने की कोशिशें करें। देनेवाले चाहे उन्हें देश का सबसे ईमानदार प्रधानमंत्री होने का प्रमाणपत्र दे डालें। परंतु, पंजाब के नक्सल प्रमुख हाकमसिंह से जब मनमोहन पंजाब में मात्र एक प्रोफेसर हुआ करते थे के नक्सली गतिविधियों में लिप्त होने के संदेह में पुलसिया पूछताछ हो चूकी है। यह बात हाकमसिंह ने 1991 में एक इंटरव्यू में कही थी उस समय मनमोहनसिंह देश के वित्तमंत्री थे। इन हाकमसिंह को तमिलनाडु के राज्यपाल सुरजीतसिंह बरनाला और मार्क्सवादी कम्यूनिस्ट के महासचिव रह चूके हरकिशनसिंह सुरजीत महान क्रांतिकारी बतला चूके हैं। इन सब बातों को मद्देनजर रखते हम कैसे मनमोहनसिंहजी को ईमानदार बेदाग कह सकते हैं। हमारी नजर में तो यदि मनमोहनसिंहजी अपने मंत्रीमंडल को ईमानदार बनाए नहीं रख सकते, अपने कार्यालय के अधिकारियों पर नियंत्रण नहीं रख सकते जो भ्रष्टों को बढ़ावा दे रहे हैं तो, उनकी ईमानदारी मात्र ढ़कसोला है। देश की जनता के किसी काम की नहीं।

1 comment:

  1. बहुत ही सुंदर और विश्लेषणअत्मक विवेचन

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