Friday, January 27, 2012

नदीतमा - देवीतमा ः सरस्वती

भारतीय वाड्‌मय में सरस्वती शब्द दो अर्थों में आया हुआ है। एक नदी के रुप में और दूसरा देवी के रुप में। नदी सरस्वती ब्रह्माजी की कन्या है जो स्त्री से नदी के रुप में ब्रह्माजी के शाप के कारण परिवर्तित हो गई। एक और कथानक के अनुसार प्रलयकाल में सारा ब्रह्मांड वाडाग्नि के कारण ज्वालामय हो गया। सारे देवता और दानव हमारी रक्षा करो की प्रार्थना करते हुए ब्रह्माजी के पास जा पहुँचे। ब्रह्माजी ने उस अग्नि को एक पात्र में बंद कर वह पात्र सरस्वती के हाथ में दे उसे समुद्र में डूबो देने के लिए कहा। परंतु, वह उष्ण पात्र ले जाते समय अति उष्णता के कारण वह स्वयं ही जलरुप में परिवर्तित हो बहने लगी। वह आकाश में बहती है इसलिए दिखती नहीं और बहते हुए अंत में वरुण के मुख में गिरती है।

इस नदी का उद्‌गम हिमालय के ब्रह्म सरोवर से होकर पर्वतीय यात्रा समाप्ति के बाद मैदानी क्षेत्र में पश्चिम-दक्षिण वाहिनी हो समुद्र में गिरती है। ऋगवेदिक सभ्यता-संस्कृति का उद्‌भव एवं विकास सरस्वती के तट पर ही हुआ था। विभिन्न भौगोलिक कारणों से सरस्वती का प्रवाह कालांतर में क्षीण होेते-होते सूखकर अंत में मरुभूमि में लुप्त हो गया और महत्व सिंधु को प्राप्त हो गया। परंतु, उसके तट पर बसे तीर्थ बने रहे।

यों तो साधारणतः सरस्वती को 'विद्या की देवी", 'वीणा-पाणी" या बुद्धिदायिनी के रुप में माना-जाना और पूजा जाता है। किंतु, देवी सरस्वती के रुप से बहुत कम ही लोग परिचित होंगे और वह है 'शत्रुविनाशिनी" का रुप। वस्तुतः मनुष्य के मन में एक भयंकर युद्ध जो सतत चलता रहता है वह है सुप्रवृत्तियों (देवता) और कुप्रवृत्तियों (असुर) के मध्य का। सुप्रवृत्तियों की प्रतीक मातृकाशक्ति वागेश्वरी के रुप में कुप्रवृत्तियों के नाश के लिए सक्रिय हो उठती है। यह मातृशक्ति इसलिए है क्योंकि, ब्रह्माजी के वामांग से उत्पन्न होकर इसे शतरुपा, सावित्री, गायित्री, ब्रह्माणी और सरस्वती नाम प्राप्त हुए हैं। ऋगवेद, सामवेद और यजुर्वेद की जन्मदात्री होकर इसीने ब्रह्माजी की उत्पादक शक्ति मंत्रों को जन्म दिया है। महाभारत के रचयिता महर्षि व्यास कुरुक्षेत्र के महायुद्ध की भीषण हिंसा-प्रतिहिंसा से व्यथित होकर सरस्वती नदी के एकांत, शांत एवं पावन तट पर निवास करने आए थे और युद्ध के बाद गणेशजी से 'जय" नामका अर्थात्‌ 'महाभारत" ग्रंथ लिखवाने में प्रवृत्त हो गए।

ज्ञान और विद्या की अधीष्ठातृ देवी के रुप में सरस्वती के प्रति आज भी करोडों भारतीयों के मन में जो श्रद्धा-भक्ति भाव बसता है उसे इस भूतल पर विद्या देवी के रुप में मान्यता कैसे मिली? - ब्रह्माजी ने सरस्वती से कहा पृथ्वी पर जो योग्य मनुष्य मिले उसकी जिह्वा पर तू निवास करना। उसके पृथ्वी पर आने के बाद कई वर्ष गुजर गए सत्ययुग समाप्त होकर त्रेतायुग प्रारंभ हो गया। एक बार जब वह तमसा नदी के तट के परिसर में घूम रही थी तभी एक व्याध ने कामकेली में संलग्न क्रौंच पक्षी के जोडे में से एक को बाण से विद्ध कर दिया। दूसरा जोडीदार पक्षी आक्रोश करते हुए उस विद्ध पक्षी के आस-पास घूमने लगा। यह देख मर्माहत होकर वहीं उपस्थित वाल्मिकी ने उस व्याध को श्राप दे दिया। यह करुण दृश्य देख सरस्वती का अंतःकरण चलबिचल हो वह एकदम वाल्मिकी के जिह्वाग्र पर जा बसी। और जैसे घनघोर काले बादलों में से अमृतबिंदुओं के रुप में जलबिंदू स्त्रावित हो उठे हों वैसे संस्कृत शब्द उसके मुख से फूट पडे -

मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः सभा। यत्क्रौंच मिथुनादेकमवधीः काम मोहितम्‌।। ः हे व्याध तुम कभी भी शाश्वत शांति प्राप्त नहीं कर सकोगे, क्योंकि तुमने कामवश मोहित क्रौंच पक्षियों के इस युगल में से एक को मार डालाहै।

श्लोक के शब्दों पर विचार करते वाल्मिकी आश्रम में लौट आए। वास्तव में यह वाल्मिकी और कोई नहीं एक समय के नरवध कर यात्रियों को लूटनेवाले डाकू वाल्मिकी थे। जिन्हें नारद मुनि ने मरा मरा मंत्र का जाप कर पापों का परिमार्जन करने के लिए कहा था और उस मंत्र का जाप करते-करते वह कब राम राम में बदल गया यह उन्हें पता भी न चला। और पुण्यसंचय हो अनजाने वे वाल्मिकी से महर्षि वाल्मिकी बन गए। तभी ब्रह्माजी भी उनसे मिलने आए वाल्मिकीजी ने ब्रह्माजी से उक्त करुणा के ज्वार से उत्पन्न उस दुख की अभिव्यक्ति उस घटना का वर्णन कर वह श्लोक उन्हें सुनाया। ब्रह्मदेव ने उसे उन्हीं के आशीर्वाद का फल बताया। इसी में रामकथा का बीज छुपा हुआ है।  ब्रह्माजी ने उन्हें सूक्ष्म दृष्टि देते हुए रामकथा लिखने का आशीर्वाद प्रदान किया। एक पक्षी के कारण साक्षात सरस्वती ने उन्हें आदिकवि होने के सम्मान का अधिकारी बना दिया। परंतु, यही सरस्वती जब कुंभकर्ण की जिह्वा पर सवार हुई तो उसने ब्रह्मा से वर मांगा - स्वप्न वर्षाव्यनेकानि। देव देव ममाप्सिनम। अर्थात्‌ मैं कई वर्षों तक सोता रहूं, यह मेरी इच्छा है। इस प्रकार से देवताओं की रक्षा करने का श्रेय सरस्वती को होने के कारण वह और भी पूज्य हो गई । अतः विद्याध्ययन आरम्भ करने के पूर्व इस श्लोक का उच्चारण छात्रों द्वारा किया जाता है सरस्वती नमस्तुभ्यं वरदे कामरुपिणि। विद्यारम्भं करिष्यामि सिद्धिर्भवतु मे सदा।। अर्थात्‌ हे वरदायिनी, कामनापूर्णकरनेवाली सरस्वती देवी! आपको मेरा प्रणाम है। मै (अब) विद्याध्ययन आरम्भ करता हूं। (अतः) इसमें मुझे सदैव सफलता प्राप्त हो। सरस्वती विद्या की देवी है इसका उल्लेख ऋगवेद में है। आर्यों ने इसीके तट पर निवास कर यज्ञयाग किए। यज्ञ से सरस्वती इच्छा पूर्ण करती है, सहजता से प्रसन्न होती है। बाद में उसके सतत स्तवन-पूजन से उसका संक्रमण वाणी मेें हो वह नदी देवता से वाणी देवता में रुपांतरित हो गई। उसके पास नीर-क्षीर-विवेक बुद्धि होने के कारण समस्त वस्तु मात्र में योग्य चुनाव करने का ज्ञान होने के कारण उसका वाहन हंस होकर वह भाषा, कला और अलंकारों की जननी है। उसका स्वरुप है शुभ्रतम वस्त्र और हीरे के अलंकार धारण करनेवाली। चतुर्भुज होकर उसके हाथों में अक्षमाला, वीणा, पुस्तक व कमंडल है। वह हंस या कमल पर विराजमान होती है।
शनैः शनैः सरस्वती का यह रुप भारतीय स्थापत्य कलाओं के साथ भी संबद्ध हो गया। सरस्वती जैनागमों में भी बडी अनुपमलयता के साथ चित्रित की गई है। बौद्ध वाड्‌मय में भी सरस्वती प्रथमतः विद्या की अधिष्ठात्री देवी के रुप में और तद्‌नंतर मंजुश्री के रुप में अभिचित्रित की गई है।

 सामान्यतः सरस्वती प्रतिमा के साथ एक मुख और दो हाथ चित्रित हैं। एक हाथ में कमल और दूसरे हाथ में वरदमुद्रांकित है। एक तिब्बती प्रतिमा में सरस्वती के तीन हाथ और छह मुख हैं। इसका वर्ण श्वेत नहीं अपितु, रक्तिम है। मुद्रा वीरत्व की है। 'विष्णुधर्मोत्तर पुराण" में सरस्वती अभिनृत्य मुद्रा में चित्रित है। इस प्रकार से सरस्वती विविध प्रतिमाओं में महिमामंडित है। इसके श्वेत अंग सत्गुणों के प्रतीक हैं जो जीवन के अभीष्ट हैं। कमल गतिशीलता का प्रतीक है जो राग-द्वेष से परे निरपेक्ष भाव से जीने की सीख देता है। इसका रंग, रुप एवं गंध सभी कुछ मधुर, मंजुल एवं संयत है। सरस्वती के हाथ में शोभित पुस्तक सब कुछ जान लेने, समझ लेने के प्रतीक के रुप में प्रेरणा का स्त्रोत है। सरस्वती की वीणा में साम संगीत के सारे विधि-विधान सन्निहित होकर, वीणावादन शरीर को स्थैर्य प्रदान करता है। वीणावादन से शरीर का अंग-अंग परस्पर गुंथकर समाधि अवस्था को प्राप्त हो जाता है।

नवरात्री की महासरस्वती सरस्वती का ही रुप होकर उसकी आठ भुजाएं हैं। देवी सरस्वती को ही शारदा, ब्राह्मी, वागी, वाणी , गायित्री, भारती, कुंजकन्या पुटकारी भी कहते हैं। जैनधर्म की विद्या की देवता सोलह होकर उन पर सरस्वती तथा श्रुती देवी का वर्चस्व है। ऐसी यह देवी वंदनीय होकर भी बहुत थोडे से लोग ही इसे चाहते हैं बाकी सब के सब देवी लक्ष्मी के पीछे लगे रहते हैं। जबकि वसंत पंचमी जो कि देवी सरस्वती की जयंती है को श्री पंचमी भी कहा जाता है। श्री से लक्ष्मी का बोध होता है और इस दिन देवी सरस्वती की आराधना-पूजा की जाती है। इस प्रकार से यह दिवस लक्ष्मी और सरस्वती के मंजुल सामंजस्य को दर्शाने का दिन है। यही सामंजस्य प्रातः काल में सबसे पहले हथेलियों के दर्शन कर जिस श्लोक का उच्चारण किया जाता है उसमें भी नजर आता है। यह श्लोक इस प्रकार से है - कराग्रे वसते लक्ष्मीः कर मध्ये सरस्वती। करमूलेत्‌ गोविंदम्‌ प्रभाते कर दर्शनम्‌।। इस श्लोक में धन की अधिष्ठात्री देवी लक्ष्मी तथा विद्या की देवी सरस्वती और भगवान विष्णु का वास हथेलियों में बतलाकर उनकी स्तुती की गई है। छत्रपति शिवाजी महाराज के गुरु समर्थ रामदास के प्रसिद्ध ग्रंथ 'सार्थ श्रीदासबोध" में तो पूरा एक समास ही शारदास्तवन के नाम से है में इसे शब्द सृष्टि के मूल के रुप में मूलमाया कहा गया है।

No comments:

Post a Comment