Saturday, February 4, 2012

विशुद्ध धार्मिकता और धर्मांतरण

ईसा मसीह ने अत्यंत सरल शब्दों द्वारा प्रेम, बंधुत्व, सेवा, क्षमा और परोपकार की शिक्षाओं का आदर्श विश्व के सामने प्रस्तुत किया। उनकी सेवा के आदर्शों को सामने रख ईसाई बंधुओं ने सेवा कार्य के कीर्तिमान स्थापित कर मानव इतिहास में जो अविस्मरणीय योगदान दिया उससे कोई भी इंकार नहीं कर सकता। परंतु, आज इक्कीसवीं शताब्दी में अन्य धर्मियों को ईसाई बनाने का अट्टहास धर्म के रुप में उन्हें क्यों आवश्यक लगता है? क्या इसे ही वे ईसा की सेवा समझते हैं? इससे तो सामाजिक अशांति ही निर्मित होती है। वस्तुतः ईसा की सेवा होगी उदार दृष्टि अपनाने से जैसेकि 'दा विंची कोड" और 'इंक्वीजीशन" के काले दाग धोने के विषय में वैश्विक ईसाई समुदाय ने अपनाई।
वैसे भी जब ईसा को क्रूस पर चढ़ाया गया तब सात वचन बोले गए जो संपूर्ण विश्व में 'सात वाणियों" के नाम से प्रसिद्ध हैं। उनमें पहली वाणी में उन्होंने प्रार्थना की थी कि जिन्होंने उन्हें क्रूस पर चढ़ाया है उन्हें हे पिता क्षमा कर। तो, अंतिम सातवें वचन में तीन घंटे क्रूस पर यातना सहने के पश्चात यीशु ने अपने पिता को आत्मा समर्पित कर यह सबक दिया कि माता-पिता की आज्ञा से बढ़कर और कोई सेवा नहीं। तो, फिर यह सेवा को माध्यम बना धर्मांतरण का अट्टहास क्यों?

वस्तुतः धार्मिक स्वतंत्रता के महत्व को कोई भी नकार नहीं सकता। सांसारिक झंझटों से त्रस्त हो मनुष्य मन, बुद्धि से जब अंतर्विश्व की ओर मुडने लगता है तभी सच्चे धार्मिक जीवन की शुरुआत होती है। इस दृष्टि से विचार करें तो धर्म आंतरिक तृष्णा, अशांति से उपजी एक शोध यात्रा है। इसे किसी विशिष्ट धर्म का नाम चस्पॉं करना बेइमानी है। स्पष्ट है इसमें धर्मांतरण इस शब्द को कोई स्थान प्राप्त हो ही नहीं सकता। हां, संकुचित मानसिकता के लोग ही धर्म के नाम पर संगठित हो अपना संख्याबल बढ़ाने के नाम पर इस तरह की अनुचित गतिविधियों को प्रश्रय देने लगते हैं।
ईसा मसीह के प्रति गांधीजी के मन में बसनेवाला आदरभाव, श्रद्धा स्पष्ट एवं पारदर्शक था। ईसा के 'सर्मन ऑन द माउंट" से उन्हें प्रेरणा मिली थी। उनके कमरे की दीवार पर ईसा का सुंदर चित्र भी जब वे दक्षिण अफ्रीका में रहा करते थे तब टंगा रहता था। वहां हेनरी पोलक और उसकी पत्नी मीली पोलक उनके निकटवर्ती थे। उनसे जब मीली ने पूछा कि वे 'ईसाईधर्म क्यों नहीं स्वीकारते?" गांधीजी ने बडा ही सुंदर उत्तर दिया 'ईसाईधर्म के वचनों का मैंने अध्ययन किया है और मैं उनसे बडा प्रभावित भी हुआ हूं। तो, भी हिंदू रहकर भी मैं उन अच्छे वचनों को आत्मसात कर आदर्श, विवेकी ईसाई हो सकता हूं। ईसा की आदर्श शिक्षा, विचारों को आत्मसात करनेे के लिए धर्मांतरण करने (यानी ईसाईधर्म स्वीकारने) की मुझे आवश्यकता नहीं।

गांधीजी के मन में ईसाईधर्म के प्रति किसी भी तरह की दुर्भावना नहीं थी। यह कोई भी मान्य करेगा। वे ईसाईधर्म का आदर ही करते थे। फिर भी उनके द्वारा व्यक्त किए गए विचार चिंतन योग्य हैं -

'आज भारत में और विश्व में अन्यत्र जिस पद्धति से धर्मांतरण और तत्सम बातें चल रही हैं उस पार्श्वभूमि पर धर्मांतरण की कल्पना मुझे मान्य ही नहीं है। वैश्विक शांति, प्रगति की प्रक्रिया में बाधा खडी करनेवाली ये बातें हैं। एकाध हिंदू हिंदूधर्म छोडकर ईसाईधर्म स्वीकारे ऐसा एकाध ईसाईधर्मीय को क्यों लगता है? इस प्रकार की अपेक्षा और आग्रह क्यों होना चाहिए? वह हिंदू और किसी देवता का भक्त रहने की कसक क्यों?" (हरिजन ः 30जनवरी 1937)

'मानव सेवा के पडदे की आड में धर्मांतरण जैसी बातें घटित करवाने का काम निश्चित ही निषिद्ध और अनुचित है, ऐसा मुझेें लगता है। यहां के लोगों में इस प्रकार के मामलों में पराकाष्ठा का रोष और विरोध है। धर्म का विषय पूरी तरह व्यक्तिगत स्वरुप का है, ह्रदय, अंतःकरण को छूनेवाला है। एकाध ईसाई डॉक्टर द्वारा किए गए उपचार से मैं व्याधी मुक्त हुआ इसलिए मैं मेरा धर्म छोडकर तत्काल ईसाईधर्म क्यों स्वीकारुं? और उस डॉक्टर द्वारा भी इस प्रकार (यानी धर्मांतरण) की अपेक्षा क्यों की जाना चाहिए?" (यंग इंडिया 23अप्रैल 1931)

'हिंदूधर्म असत्य, झूठा है ऐसा आज भले ही ईसाई बंधु खुलकर न कहते हों तो भी हिंदूधर्म झूठा, मिथ्या है, ईसाईधर्म एकमेव सत्य धर्म है इस प्रकार की भावना उनके मन में, अंतःकरण में निश्चित रुप से है ऐसा मुझे लगता है। आज के उनके प्रयत्न हिंदूधर्म को जड से उखाड फेंकने के होकर दूसरा धर्म दृढ़ करने की दृष्टि से चल रहे होने का ध्यान में आता है।" (हरिजन 13मार्च 1937)

'मेरे हाथ में अधिकार, सत्ता, शासन आने पर मैं धर्मांतरण के सभी प्रकार बंद कर दूंगा।" (हरिजन 5 नवंबर 1935)

मिशनरियों के घर में आगमन के कारण हिंदुओं का पारिवारिक जीवन भंग हो जाता है, ऐसा भी उन्होंने एक प्रश्न के उत्तर में कहा था। एक व्यक्ति को धर्मांतरित करने का खर्च कितना आता है का आंकडा बतलाकर आगे की फसल का बजट प्रस्तुत करने का उल्लेख उन्होंने किया था। प्रा. क्रेजेन्स्की को उन्होंने कहा था कि, धर्मांतरण सत्य के फव्वारे को सोखनेवाला सबसे बडा प्राणघातक विष है।  उन्होंने मिशनरियों को आश्वासन दिया था कि स्वतंत्र हिंदुस्थान में ईसाइयों का तिरस्कार होकर उन्हें नष्ट कर दिया जाएगा का भय निराधार है।

उनका मत था कि, भय, जबरदस्ती, भूखमरी, ऐहिक लाभ के कारण हुए धर्मांतरण सच्चे न होने के कारण इस प्रकार के पश्चाताप दग्ध हिंदुओं को निःसंकोच शुद्धिविधि के बिना भी स्वधर्म में लिया जाना चाहिए। उनका यह मत मनुस्मृति (1ः230,232) से सुसंगत है। सभी धर्म एक ही वृक्ष की शाखाएं हैं। उनकी यह भी मान्यता थी कि एक डाली से दूसरी डाली पर जाने के कारण कोई अशुद्ध नहीं होता। तथापि, स्वधर्म में लौटे हिंदू का अभिनंदन करने में अनुचित कुछ भी नहीं।

1931 में उन्होंने कहा था कि शुद्ध सेवा की भावना से काम करने के स्थान पर धर्मांतरण के उद्देश्य से विदेशी मिशनरी काम करनेवाले हों तो वे देश छोडकर चले जाएं, यह मुझे अधिक अच्छा लगेगा। अर्थात्‌ धर्मांतरण के स्थान पर केवल परोपकार करें यह गांधीजी का मिशनरियों को कहना था। 
एक अंग्रेज जो भगवद्‌गीता से प्रभावित हो हिंदू बनना चाहते थे को उन्होंने भगवद्‌गीता और अधिक अच्छी तरह से समझने के लिए  बाइबल का पुनः अध्ययन करे कहा था और हिंदू बनने की कोई आवश्यकता नहीं यह भी कहा था। विनोबाजी ने घोषणा की थी कि संगठित धर्मों के दिन समाप्त होकर अब प्रामाणिकता से सृष्टि की एकता का प्रतिपादन करनेवाले अध्यात्म के दिन आ गए हैं। स्वामी विवेकानंदजी ने कहा था कि प्रत्येक व्यक्ति का अंतर्विश्व और इसलिए उसकी आध्यात्मिक आवश्यकता इतनी अनन्य, विलक्षण है कि वह दिन मानव इतिहास में सुदिन होगा जिस दिन हर एक व्यक्ति का एक पृथक धर्म होगा। यह सर्वश्रुत है कि श्रीरामकृष्ण ने सभी धर्मों की साधना की थी। बिदरशाही के एक मुसलमान अधिकारी को संत माणिक प्रभु के विचार बहुत भाते थे। 'परंतु, आप मुसलमान क्यों नहीं बनते?" उसके इस प्रश्न का उत्तर माणिक प्रभु ने इस प्रकार से दिया था - 'हां! मुझे भी कुछ ऐसा ही लगता है। परंतु, क्या करुं? कुरान में अल्लाह को 'रब-अल्‌-आलमिन" (विश्वाधिपति, सारे विश्व का ईश्वर) कहा गया है। 'रब-अल्‌-मुसलमीन" नहीं!
इन उपर्युक्त विचारों को दृष्टि में रखते कम से कम अब इस 21वीं शताब्दी में तो भी यह धार्मिक वृत्ति सभी को मान्य होना चाहिए, यदि यह मान्य हो जाए तो फिर धर्मांतरण और उससे उपजने वाली कलह का जीवन में स्थान ही नहीं बचेगा और जब तक ऐसा नहीं होता तब तक अवैध धर्मांतरण को निषिद्ध, अनुचित माना जाना चाहिए और उसके लिए एक आचार संहतिा निर्मित की जाना चाहिए।

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