Thursday, February 16, 2012

दो समाजों की कट्टरता

गत दिनों प्रकाशित मेरे एक लेख 'समझें मुस्लिम मानस को" में हिंदुओं की धार्मिक कट्टरता का उल्लेख आया था। इस पर मेरे कुछ मित्रों द्वारा सनातन धर्म को मैं कट्टर कह रहा हूं इस पर क्षोभ प्रकट किया गया था। उस संदर्भ में कहना चाहता हूं कि, मैं ने जिस कट्टरता का उल्लेख किया था वह धर्म पालन के संदर्भ में था। उदा. मस्तक पर तिलक कैसे लगाएं तो हिंदूधर्म में कई तरह की तिलक लगाने की पद्धतियां प्रचलित हैं। जो विभिन्न संप्रदायों की विविध प्रकार की और विशिष्ट होती हैं। हर संप्रदाय का तिलक लगानेवाला अपने तिलक के संदर्भ में वह खडा है कि आडा आदि के संदर्भ में अत्यंत आग्रही होता है और वह चाहे जो हो जाए उसी प्रकार से लगाता रहता है जिस प्रकार से कि वह संप्रदायानुसार पूर्व से लगाता चला आ रहा है। इस प्रकार के और भी अनेकानेक उदाहरण दिए जा सकते हैं। यह कट्टरता हमारी अपनी अंतर्गत है परंतु, उस प्रकार की हिंसक और घातक नहीं जिस प्रकार की इस्लाम में है। क्योंकि, न तो हमारे यहां काफिर की संकल्पना है ना ही उनसे कयामत तक लडते रहने की आज्ञा जैसीकि कुरान भाष्य में दी हुई है ः हदीस में आता है ः''मेरी उम्मत (मुस्लिमसमुदाय) का एक समूह सत्य (यानी इस्लाम) पर रहकर कियामत तक लडता रहेगा और गालिब होगा।""(दअ्‌वतुल कुरान खंड2 पृ.1149) और न ही दूसरे धर्मों के आराध्यों को हमेशा के लिए नरकगामी बताने की संकल्पना जैसीकि कुरान भाष्य में इस प्रकार से हैं ः ''बहुदेववादियों तुम और तुम्हारे ये बुत जिनकी तुम पूजा करते हो जहन्नम का ईंधन बननेवाले हैं .. अर्थात्‌ बुत भी और उनको पूजनेवाले भी सदा जहन्नम रहेंगे। यहां यह पहलू विचारणीय है कि कुरान मूर्तिपूजा का वह अंजाम जो आखिरत (कयामत) में होनेवाला है मूर्तिपूजकों के सामने दोटूक अंदाज में बयान करना है।""(द.कु.ख.2पृ.1110)

हमारे यहां भी एकेश्वरवाद है, वेदों में मूर्तिपूजा नहीं है, स्वामी दयानंदजी सरस्वती ने भी मूर्तिपूजा का विरोध किया परंतु, कभी अपने अनुयायियों को यह नहीं कहा कि जाओ मूर्तिपूजकों के मंदिरों को ढ़हा दो, मूर्तियों को तोड दो। हमारे यहां तो अपने-अपने धर्मपालन के संदर्भ में कोई कितना भी कट्टर क्यों ना हो तो भी जितनी अंतर्गत धार्मिक स्वतंत्रता हिंदूधर्मांतर्गत है उतनी किसी भी धर्म में नहीं। तभी तो हमारे यहां सिखधर्म के संस्थापक गुरुनानकदेवजी जो निराकार के पूजक हैं के पुत्र श्रीचंद साकार के पूजक होकर प्रसिद्ध उदासीन आश्रम के संस्थापक हैं। अद्वैत का दर्शन देनेेवाले आद्यशंकराचार्य मूर्तिपूजकों के लिए मंत्रों और श्लोकों की रचना करते हैं और मूर्तिपूजक उनका पूरी श्रद्धा और भक्तिभाव से उच्चारण करते हैं, उनके मंत्रों का जाप फल प्राप्ति हेतु पूरी श्रद्धा के साथ करते हैं। चार्वाक महांकाल की पेढ़ी पर बैठकर 'यावज्जीवेत सुखं जीवेद ऋणं कृत्वा घृणं पिवेत, भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः" का उद्‌घोष करते हैं और उन्हें भी हम मान्यता देते हैं, उनका उल्लेख एक ऋषि के रुप में करते हैं।

जबकि इस्लामी कट्टरता में किसी भी प्रकार की न तो अंतर्गत ना ही बाह्य स्वतंत्रता है। वह कट्टरता तो अपने अलावा किसी अन्य को जीने ही नहीं देना चाहती। जिस पर अब हम गौर करेंगे। इस्लाम का ध्येय तो अल्लाह ने ही कुरान में इस प्रकार से घोषित कर रखा है ः''और यहां तक उनसे (श्रद्धाहीनों/काफिरों से) लडो कि फसाद (की जड)(यानी श्रद्धाहीनता) बाकी न रहे और एक अल्लाह ही का दीन (इस्लामधर्म) हो जाए।"" (2ः193) मुहम्मद साहेब के ही वचन (हदीस) हैं ः 'मुझे लोगों के विरुद्ध तब तक युद्ध करने के लिए कहा गया है जब तक कि, वे यह कहेंगे नहीं 'अल्लाह केवल एक ही है।" (मुस्लिमः29से33; बुखारीः7284,85;दाउदः2484; इब्नमजहः71,2) पैगंबर ने कहा ः 'एक भूमि पर दो धर्म रहना योग्य नहीं।"(दाउदः3026;मुवत्ता मलिक1588)

यह एकमेव अल्लाह कुरान की सर्वाधिक महत्वपूर्ण, मौलिक, मध्यवर्ती और आधारभूत संकल्पना है। (दिव्य कुरान (मराठी भाषांतर) पृ.26) कुरान के अनुसार 'मेरी (श्रद्धावान यानी मुसलमान की) नमाज और मेरी कुर्बानी, और मेरा जीना और मेरा मरना, अल्लाह के लिए है।(6:162) अल्लाह के लिए कुरान में अन्य 99 संज्ञाएं या विशेषण आए हैं। उनके लिए रहमान, रहीम और मालिक  ये तीन विेशेषण कुरान में बार-बार उपयोग में लाए गए हैं । कुरान में अल्लाह 2800 बार तो ये अन्य तीन शब्द कुल 790 बार आए हैं । (Religion of islam - 159 से 61) अल्लाह का मूल रूप 'अल-इलाह" है। इसमें 'इलाह " का अर्थ ईश्वर होता है। 'अल" अरबी भाषा का (अंग्रेजी के 'द " जैसा) एक उपपद है। यह उपपद सामान्य नाम के पूर्व लगाया कि, वे दोनों मिलकर एक विशेष नाम तैयार होता है । अर्थात्‌ मूलत: 'अल्लाह" यह एक देवता का विशेष नाम है। (The Tarjuman Al-Quaran- Maulana Azad - पृ.14) सामान्य नाम का विशेष नाम करने का यह अरबी तरीका है। उदा. जब किताब कहें तो, सामान्य पुस्तक हुई परंतु उसके पूर्व 'अल" विशेषण लगाने पर, 'अल-किताब" यह विशेष नाम बनता है और उसका अर्थ 'कुरान" यह विशिष्ट ग्रंथ ऐसा होता है। उसी प्रकार 'अल" यह उपपद 'इलाह" के पूर्व में (अर्थात्‌ देवता के पूर्व) लगाया कि, 'अल्लाह" यह विशिष्ट देवता का विेशेष नाम तैयार होता है। 'अल्लाह" नामका एक विशिष्ट देवता ऐसा इसका अर्थ होता है। इसीलिए मुहम्मद पिकथॉल ने उनके कुरान अनुवाद में 'इलाह" के लिए 'गॉड" तो 'अल्लाह" के लिए भर अल्लाह ऐसा अनुवाद किया हुआ है । (The meaning of the Glorious Quaran pickthall - पृ.31)

'अल्लाह" पैगंबर के पूर्व से ही (मुहम्मद साहब की) कुरैश जाती के देवता का नाम था। अरब लोग भी सर्वोच्च देवता के रूप में 'अल्लाह" को मानते थे। (A History of Muslim Philosophy m.m.sharif - पृ.127) अल-उज्जा, लात, मनात ये देवियां उस 'अल्लाह" की कन्याएं हैं ऐसी भी उनकी श्रद्धा थी। अल्लाह के साथ ही इन देवियों को भी और उसके साथ-साथ अन्य देवी-देवताओं को भी अरब लोग मानते थे। इसे ही 'अनेकेश्वरवाद" कहते हैं। अरबी भाषा में इसे 'शिर्क" कहते हैं।(127) इस 'शिर्क" को समाप्त करके विशुद्ध एकेश्वरवाद की प्रस्थापना करना ही कुरान की भूमिका है। पूर्व से ही अरबस्थान में माने जाने वाले अल्लाह को ही कुरान में एकमात्र ईश्वर का स्थान प्राप्त हुआ है।

इस अल्लाह की विशिष्टता यह है कि इस अल्लाह की कृपा, दया, प्रेम, मार्गदर्शन, क्षमा, बदला, सहायता, लडाई में विजय यह सब श्रद्धावान (मुसलमान) को ही मिलता है। श्रद्धाहीन (यानी गैर-मुस्लिम अर्थात्‌ ही काफिर) के लिए ठीक इसके विपरीत रहता है। इस्लाम के अनुसार 'श्रद्धा" यह सद्‌गुणों, नीतिमूल्यों, सदाचार, न्याय का मूल स्त्रोत है, तो श्रद्धाहीनता (कुफ्र) दुर्गुणों, दुराचार, अनीति, अन्याय का मूल स्त्रोत है। श्रद्धा रखने पर मनुष्य सदाचारी, सत्यवचनी, सद्‌गुणी, सह्रदयी, संयमी, न्यायी, क्षमाशील, शांतिप्रिय, समतावादी, परोपकारी, नीतिमान, मानवतावादी बन सकता है, तो श्रद्धाहीनता के कारण इसके विपरीत घटित होता है। इसीलिए सदाचारी (सत्कर्मी) वगैराह बनने के लिए पहले श्रद्धावान बनना आवश्यक है, ऐसी इस्लाम की भूमिका है।

कलमा 'लाइलाह इल्ललाह मुहम्मदुर्रसूलुल्लाह" अल्लाह एकमेव ईश्वर है और मुहम्मद उसके पैगंबर हैं, को 'कलमा - ए- शहादत" या 'कलमा तैयबा" कहते हैं। जो इस प्रकार की श्रद्धा रखता है वह श्रद्धावान (ईमानवाला) अर्थात्‌ मुसलमान और जो श्रद्धा नहीं रखता वह गैर-मुस्लिम। इसे ही अरबी भाषा में 'काफिर" कहते हैं। काफिर मतलब जो 'कुफ्र" करता है। 'कुफ्र" मतलब 'नकार देना"। जो श्रद्धा को नकारता है वह 'काफिर", ऐसा सीधासादा अर्थ है। 'डिक्शनरी ऑफ इस्लाम" में काफिर का अर्थ दिया गया है ः 'काफिर वह है जो कुरान और मुहम्मद की सीख पर श्रद्धा नहीं रखता।" कुछ इसी प्रकार का भाष्य दअ्‌वतुल कुर्आन का भी है ''काफिर से मुराद (अभिप्रेत) वह व्यक्ति है जो हजरत मुहम्मद के लाए हुए दीन को कुबूल करने से इंकार कर दे।""(खंड3-2367) हदीस सौरभ की सामान्य पारिभाषिक शब्दावली के अनुसार ''कुफ्र- 1. अधर्म, 2. इन्कार, 3. कृतघ्नता। 'कुफ्र" का मूल अर्थ होता हैः ढ़ांकना, छिपाना। इस्लाम के इन्कार करनेवाले को कुफ्र का 'अपराधी" या 'काफिर" कहा जाता है।""(पृ.564) स्पष्ट कहें तो नास्तिक अथवा अनेकेश्वरवादी अथवा मूर्तिपूजक अथवा कुरान पर श्रद्धा न रखनेवाला। इनमें से प्रत्येक श्रद्धाहीन (काफिर) ही होता है।

मुहम्मद साहब के पश्चात उनके उत्तराधिकारी के रुप में अबूबकर इस्लाम के राजसिंहासन पर विराजमान हुए, उनके पश्चात उमर, उस्मान और अली राजप्रमुख बने। इन्हें मुहम्मद साहब के प्रतिनिधि या उत्तराधिकारी के रुप में खलीफा कहा जाता है और इनके शासन को 'इस्लामी राज्यशासन" या 'खिलाफत" कहा जाता है। इन्हें इस्लाम के आदर्श खलीफा और इनके शासनकाल को इस्लाम का स्वर्णयुग माना जाता है, जिसका कालखांड मात्र तीस वर्ष है (सन्‌ 632से61)। आदर्श खिलाफत का भले ही कभी का अंत हो गया हो परंतु यह खिलाफत संस्था सन्‌ 1924 में तुर्कस्थान के कमाल अता तुर्क द्वारा समाप्त किए जाने तक चलती रही और वर्तमान में जो अंतरराष्ट्रीय जिहाद आतंकवादियों ने छेड रखा है वह इसी आदर्श खिलाफत की स्थापना हेतु चल रहा है।

इस आदर्श खिलाफत में हुए भीषण रक्तपात के संबंध में प्रसिद्ध इतिहासकार फिलिप हिट्टी का निष्कर्ष इस प्रकार है ः ''इस्लाम में खिलाफत के प्रश्न पर जितना रक्तपात हुआ है उतना किसी अन्य पर से नहीं।""(History of Arabs, Macmillan 1951-p. 39 उद्‌.)

पहले तीन खलीफाओं के काल में अरबस्थान के बाहर कितनी लडाइयां हुई इसकी गिनती किसीने रखी नहीं और रखना संभव भी नहीं था। अकेले उमर के काल में ही उल्लेखनीय 36 हजार गांव और शहर जीते गए थे। इतिहासकारों ने केवल चुनिंदा लडाइयों को ही दर्ज किया है। प्रत्येक लडाई में उभय पक्षों की सैन्यसंख्या और मृत्युसंख्या उपलब्ध नहीं। उमर के काल तक किसी भी लडाई में मुस्लिमों की सैन्यसंख्या 40 हजार से अधिक नहीं। उनकी मृत्युसंख्या नगण्य होने से अधिकांश स्थानों पर वह इतिहासकारों ने ही दी नहीं है। पहले दो खलीफाओं के काल में हुई लडाइयों में से 17 लडाइयों की शत्रुओं की मृत्युसंख्या उपलब्ध है। उस अनुसार 11 वर्ष में (एक वर्ष पहले खलीफा का और 10 वर्ष दूसरे खलीफा के) 9लाख 17हजार शत्रुओं के सैनिक मारे जाना दर्ज है। इस काल की बची हुई अनेक लडाइयों की शत्रुओं की निश्चित मृत्युसंख्या न देते 'हजारों मारे गए", 'भीषण कत्लेआम" इस प्रकार के उल्लेख मिलते हैं। यह सब अतर्क्य और अविश्वसनीय लगे इस प्रकार की यह अद्‌भूत वास्तविकता है।

इतिहासकारों का निष्कर्ष है कि, यदि अबूबकर नहीं होते तो पैगंबर की मृत्यु के बाद ही इस्लाम का अंत हो गया होता। मुहम्मद हायकल का कहना है कि, ''पैगंबर की मृत्यु के बाद ऐसी स्थिति आ गई थी कि, यदि अल्लाह ने अबूबकर के माध्यम से सहायता न की होती तो, अपन (मुस्लिम) निश्चित रुप से नष्ट हो गए होते।"" (the history of islam & muslims, vol.2 dr. shekh muhammad p. 74) पैगंबर की मृत्य के बाद लगभग सभी अरबी टोलियों ने इस्लाम के विरुद्ध विद्रोह का झंडा फहरा दिया था। इस्लाम के तत्त्वों से सहमत होने के कारण नहीं बल्कि भौतिक लाभों के लिए, डर या विवशता के कारण वहां के टोलियों ने इस्लाम का स्वीकार किया था इस कारण यह घटित हुआ था। नए नकली पैगंबर पैदा हो गए थे। इस संकट से इस्लाम और इस्लामी राज्य को अबूबकर ने बचाया। इस्लाम को त्यागनेवाले विद्रोहियों और नकली पैगंबरों को व्यापक सैनिकी अभियान चलाकर तेरह महीने में समाप्त कर फिर से अरबस्थान को इस्लाममय कर दिया। इस्लाम का त्याग या नए पैगंबर की घोषणा करना मृत्युदंड योग्य गुनाह मुहम्मद साहब के वचन होने के कारण घोषित कर उसके लिए उन्होंने अनेक लडाइयां लडी। उनमें से केवल दो लडाइयों में ही 27000 विद्रोही मारे गए। इस कार्य में अबूबकर ने जो धर्मनिष्ठा, धैर्य और कठोरता दिखाई उसीके कारण इस्लाम जीवित रह सका।

कुछ इसी प्रकार की विद्रोह की स्थिति दूसरे खलीफा उमर की मृत्यु के बाद अरबस्थान के बाहर निर्मित हो गई थी। उमर के सामर्थ्य, प्रशासन और मजबूत व्यक्तित्व और भय के कारण वे प्रांत भले ही अधीनस्थता स्वीकार चूके थे परंतु, वस्तुतः उन्हें अपना धर्म, अपना राज्य प्रिय था उन्होंने कोई स्वेच्छा से मुस्लिमों का मांडलिकत्व स्वीकारा नहीं था। उमर की मृत्य होते ही उन्होंने विद्रोह कर दिया। तीसरे खलीफा उस्मान ने ये सारे विद्रोह समाप्त कर दिए अब इसमें रक्तपात होना तो अटल ही था। उदा. इस्तखार का विद्रोह समाप्त करने के लिए 40,000 विद्रोही मारे गए थे।

चौथे खलीफा अली जो मुहम्मद साहब के चचेरे भाई और दामाद भी थे ने अपने जीवनकाल में 100 से अधिक लोगों को द्वंद युद्ध में मार डाला था और कुल मिलाकर छोटी-मोटी 95 लडाइयों में भाग लिया था। (Ali : the superman p. 320) उन्होंने लडाइयों में स्वयं के हाथों से 10,000 शत्रुओं को मार डाला था।

इस अली के कार्यकाल में ही इस्लाम में खारिजी नामका आद्य पंथ निर्मित हुआ था और उन्होंने खिलाफत का जो तात्त्विक प्रस्तुतीकरण किया उस कारण इस पंथ का बहुत महत्व है। उन्होंने इस्लाम का पहला मूलतत्त्ववादी माना जाता है। (why i am not a muslim-ibn warraq, p.244) वे विशुद्ध इस्लाम के समर्थक थे। शिया पंथ राजनैतिक आधार पर निर्मित हुआ है तो, यह पंथ धार्मिक आधार पर निर्मित हुआ है। इन्होंने खलीफा अली के विरुद्ध जिहाद की घोषणा कर दी। कुछ लोगों के मतानुसार इनकी संख्या 12,000 तो कुछ के अनुसार 25,000 थी। इन्होंने अली समर्थकों पर अत्याचार करना प्रारंभ कर दिया। इन्होंने मुहम्मद साहब के वरिष्ठ सहयोगी अब्दुल्ला बि. खबाब को क्रूरतापूर्वक मार डाला। उसके साथ उसकी गर्भवती पत्नी, बच्चे और अन्य सभी सहकारियों को भी मार डाला। (the history of islam vol.1akbarshah p 489) अली ने समझौते की दृष्टि से पश्चाताप व्यक्त करनेवालों को सार्वत्रिक क्षमा की घोषणा की परिणामस्वरुप कई मैदान छोड चले गए। अंत में केवल 4000 कट्टर धर्मनिष्ठ सैनिक बचे। (muhammad & his successors,vol.2- irving 347) परंतु, अली की प्रचंड सेना के सामने उनका टिकना असंभव था। उस रोंगटे खडे कर देनेवाली लडाई में लगभग सभी खारिजी मारे गए। 4000 में से बमुश्किल 9 लोग बचे। (347)

इस खलीफा अली की इस्लाम के पवित्र महीने रमजान के 17वे दिन शुक्रवार (यानी बद्र युद्ध दिवस। इस दिवस को इस्लाम के इतिहास में बहुत मान्यता है। जब भी मुसलमानों का किसी गैर-मुस्लिम से संघर्ष या लडाई होती है उस समय वे बद्र युद्ध का स्मरण प्रतिस्पर्धी करवा देते हैं। 1973 के इजिप्त-इजराईल युद्ध में मुस्लिम इजिप्त ने इस युद्ध का सांकेतिक नाम 'ऑपरेशन बद्र" रखा था। आज काश्मीर में कार्यरत एक पाकिस्तानी संगठन का नाम 'अलबद्र" हैं।) को इन्हीं खारिजियों ने मस्जिद में नमाज पढ़ते समय हत्या कर दी। इसी प्रकार सेे  तीसरे खलीफा उस्मान भी अंतर्गत संघर्ष में मारे गए थे। दूसरे खलीफा उमर की भी मस्जिद में नमाज का नेतृत्व करते समय एक गुलाम ने हत्या कर दी थी।

अली की हत्या इस्लाम के इतिहास की बहुत बडी क्रांतिकारी घटना सिद्ध हुई। ऐसा माना जाता है कि उनकी हत्या के बाद आदर्श खिलाफत का अंत हो गया। दो इस्लामिक खिलाफतें अस्तित्व में आ गई। मुस्लिम समाज दो परस्पर विरोधी गुटों में विभाजित हो गया। उनके शिया और सुन्नी दो पंथ निर्मित हो गए। अली को माननेवाले शिया और न माननेवाले सुन्नी। मुहम्मद साहब ने कहा था कि, मेरे मृत्यु के बाद मेरे समाज में 73 पंथ निर्मित होंगे। उनमें से पहला बडा पंथ अली की हत्या के बाद अस्तित्व में आया। सारे मुसलमान परस्पर भाई हैं (49ः10) और एक दूसरे का खून बहाना हराम है इस इस्लामी सीख को भूलकर विविध कारणों पर से आपस में संघर्ष करने लगे। विशेष रुप से खिलाफत के लिए खूनखराबे का रास्ता तैयार हो गया।

इन खलीफाओं ने जितनी भी लडाइयां अन्य देशों के विरुद्ध लडी और भीषण रक्तपात किया वह मात्र राज्य प्राप्ति के लिए नहीं थी। वह किसलिए थी इसका उत्तर उदारवादी, सुधारवादी कहे जानेवाले मौ. वहीदुद्दीनखान की पुस्तक islam as it is में मिलता है- 'इस्लाम यही (एकमात्र) वैश्विक धर्म है' ऐसा कहकर उन्होंने जिस 'वैश्विक दर्शन' पर यह धर्म खड़ा किया गया है वह दर्शन भी बहुत अच्छी तरह प्रतिपादित किया है। 'यह दर्शन सर्वोत्कृष्ट रूप से अभिव्यक्त करने वाला' कहकर उन्होंने आगे एक ऐतिहासिक घटना और संवाद उद्‌धृत किया है। ( islam as it is पृ.112) : ''मुस्लिमों ने (पैगंबर के) बाद के काल में ईरान पर आक्रमण किया, तब एक बार ईरान के सेनापति रूस्तम ने मुस्लिम सेनापति से पूछा: 'मेरे देश पर तुमने आक्रमण क्यों किया है?' सेनापति की ओर से उत्तर दिया गया : 'हमें अल्लाह ने भेजा है। उसने हमें इधर इसलिए भेजा है की हम लोगों को वस्तु की (प्रकृति की) पूजा करने से परावृत करके एकमात्र अल्लाह की उपासना की ओर मोडें; और उन्हें इहलोक के संकुचित विचारों से दूर करके उनकी दृष्टि उदार और सरल मार्ग की ओर लगाएं,  और इस प्रकार उन्हें (अनेक) धर्मों के अत्याचार से मुक्त करें और इस्लाम के न्याय की ओर मोड़ें।'' इस पर मौलाना का अभिप्राय इस प्रकार है कि :''जिस सर्वव्यापी वैश्विक दर्शन पर इस्लाम की निर्मिती की गई है वह दर्शन इस उत्तर में सार रूप में आया हुआ है।'' (113) स्पष्टतया संसार के सभी लोगों को एकेश्वरवादी और श्रद्धावान (यानी मुसलमान) बनाना और इस्लाम की न्याय व्यवस्था में लाना, यह वह वैश्विक दर्शन होकर उसके लिए जिहाद का अल्लाह द्वारा बताया हुआ मार्ग है, ऐसा  इसका अर्थ है। संसार को इस्लाम प्रदान करने के इस सार्वत्रिक दर्शन के लिए ही अल्लाह द्वारा ईरान की ओर सेना भिजवाई गई थी।

इसके विपरीत पूरा इतिहास खंगालकर देख लिया जाए तो ढूंढ़े से भी एक भी उदाहरण नहीं मिल सकता कि जो यह कहे कि इस प्रकार रक्तपात के मार्ग से कहीं भी हिंदूधर्म का विस्तार किया गया हो। हमारे पूर्वज जो प्राचीनकाल में विश्वभर में गए थे वे 'कृण्वतोविश्वमार्यम्‌" की ध्वजा हाथों में लेकर गए थे एक हाथ में तलवार और एक हाथ में धर्मग्रंथ लेकर नहीं। और इस श्रेष्ठ कार्य के लिए उन्हें संतति की आवश्यकता थी और इसीलिए उस काल में स्त्रियों को 'अष्टपुत्रा सौभाग्यवती भव" का आशीर्वाद देने की प्रथा थी।

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