Saturday, February 25, 2012

नवदृष्टि के जनक - बुद्धिवादी वीर सावरकर

वीर सावरकरजी ज्ञानमार्गी होने के साथ ही हर एक विषय का स्वतंत्र एवं मूलगामी विचार करनेवाले होने के कारण उनकी विचार सृष्टि बहुरंगी है। जिसके कारण जनसाधारण मंत्रमुग्ध सा हो जाता है। बुद्धि प्रामाण्यता एवं इहवादी दृष्टिकोण होने के कारण कई बार वे चार्वाकवादी भी लगते हैं। क्योंकि, इहलोक और केवल इहलोक को माननेवाला व्यक्ति और समाज के हित देखने के लिए दंडनीति  को माननेवाले चार्वाक का विचार करें और सावरकरजी के बुद्धिवादी सामाजिक मतों को देखें तो वे चार्वाक कुल के ही लगते हैं।

सावरकरजी के सामाजिक विचारों के महत्वपूर्ण सूत्र हैं बुद्धिप्रामाण्य और प्रत्यक्षनिष्ठा और इसी विज्ञाननिष्ठ भूमिका से उन्होंने हिंदूधर्म की सामाजिक रुढ़ियों की समीक्षा की थी। उदा. 1935 में डॉ. आंबेडकरके संभावित धर्मांतरण के संबंध में अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा था ''चाहें तो डॉ. आंबेडकर एक बुद्धिवादी संघ निकालें।"" इस पत्रक में सावरकरजी ने इस बुद्धि संघ के आधार तत्त्वों को स्पष्ट करते हुए कहा था, 'आज की परिस्थितियों में जनहित को प्रत्यक्ष साधने के नियम ही जिसका आधार, तर्कनिष्ठ और प्रत्यक्षागत तत्त्वज्ञान ही जिसके उपनिषद और विज्ञान ही जिसकी स्मृति ऐसा बुद्धिवादी संघ स्थापित करें और इसके अनुयायियों को अंधश्रद्धा के और बेकार की बातों के पिंजरे से छुडवाकर एक झटके से नवीनतम ऐसे बुद्धि स्वतंत्रता के उच्चतम और आरोग्यप्रद वातावरण में ले जाकर छोडें यही इष्ट है।"" (समग्र सावरकर खंड 3, पृ.571)

इसी पत्रक के प्रारंभ में धर्म छोडने की भूमिका बुद्धिवादी होनी चाहिए यह ध्वनित करते हुए सावरकरजी ने कहा - 'जिसमें कुछ पुराने और आज की परिस्थितियों में निरर्थक ही नहीं तो अनर्थक भी हो चूके आचार और संकेत जो होते ही हैं, उन्हें जनहित के लिए सुधारना जिन्हें अपना कर्तव्य लगता है और पारलौकिक समझी जानेवाली बातों पर जो प्रत्यक्षनिष्ठ तर्क के पार जाकर विश्वास करने के इच्छुक नहीं, ऐसे पॉजिटिव्ह अथवा रॅशनिलिस्ट आदि बुद्धिवादियों ने एकाध धर्म छोडा तो उसका कारण सहज ध्यान में आता है। इस अर्थ से यदि डॉ. आंबेडकर हिंदूइज्म को छोड रहे हों तो इसमें कोई बडी बात नहीं।" इसका मथितार्थ यह है कि बुद्धिवादी दृष्टिकोण से इसमें सावरकर को कुछ भी आक्षेपार्ह नहीं लगता।

धर्मविज्ञान की दृष्टि से कुरान और बाइबल का अध्ययन कर सावरकरजी ने डॉ. आंबेडकरजी को यह कहलवाया था कि, 'कुछ भी हो तो भी बुद्धिवादी दृष्टिकोण से विचारा जाए तो समग्र रुप से समस्त धर्मों में यदि कोई ग्राह्यतम धर्म होगा तो वह हिंदूधर्म ही है।" (जात्युच्छेदक निबंध, पृ. 222) परंतु, यह निष्कर्ष निकालते समय सावरकरजी की दृष्टि चिकित्सक और बुद्धिनिष्ठ ही थी। सावरकरजी ने स्पष्ट कहा था कि, समाज संस्था की पुनर्रचना किसी भी धर्मग्रंथ के आधार पर न हो।

यह बुद्धिवादी दृष्टिकोण उनमें बचपन से ही था। जिज्ञासा का उद्‌गम उनमें बचपन में ही किस प्रकार से जागृत हो गया था इसका वर्णन सावरकरजी ने स्वयं के आत्मचरित्र में किया है। अपने ज्ञानमार्ग का उपयोग राष्ट्रोत्थान के लिए करने का उनका निश्चय युवावस्था से ही था। सावरकरजी सिद्धांतों के पक्के और निग्रही सुधारक थे, वाचाल नहीं। उनका आचार सूत्र था 'वरं जनहितं ध्येयम्‌"। 'सुधार यानी अल्पमत और रुढ़ी मतलब बहुमत।" इस कारण अपने अल्पमत या एकाकी पडने की चिंता उन्होंने कभी नहीं की। परंतु, वास्तववादी होने के कारण भले ही वे स्वयं भगवान सत्यनारायण की पूजा नहीं करते थे, किंतु यदि किसीने की तो वे उसका उपहास भी नहीं उडाते थे प्रत्युत झुणका-भाकर (बेसन और ज्वार की रोटी), सत्यनारायण की पूजा जैसी सामाजिक सुधार घटित करवाने में उपयुक्त ठहरनेवाले आंदोलनों का वे समर्थन करते थे।

उनके सुधारवादी मानस के हठ का पता उनकी पत्नी के देहावसान के पश्चात उनका पिंडदान आदि अनावश्यक विधि न करने का निश्चय आप्तजनों के आग्रह, अनुयायियों के सत्याग्रह, प्रदर्शन करने के बाद भी उन्होंने नहीं बदला। इतने हठी होने के बावजूद सुधारवाद के लिए रत्नागिरी में अस्पृश्यता निवारण और शुद्धिकरण आंदोलन के लिए कार्यकर्ताओं का संगठन अपने वास्तववादी होेने के कारण ही खडा कर दिखाया।

यह सुधारवाद भी उनमें प्रारंभ से ही था। जिसका परिचय 1902 में रचित रचना 'बालविधवा दुःस्थिति कथन" से पता चलता है। इस कविता में हिंदू समाज की विधवाओं का दुःख वर्णित है इसके लिए उन्हें पुरस्कार भी मिला था। भावना प्रधान कविताओं की रचना उन्होंने अंदमान के कारावास में की थी। जो मराठी साहित्य की अनमोल धरोहर है। समाज सुधार के विचार-भावनाएं उनमें प्रारंभ से ही थी। युवावस्था में आगरकरजी और मिल्स स्पेंसर की उपयुक्ततावादी नीति की पकड उनके मानस पर हो गई थी। उपयुक्ततावाद पर उन्होंने अपने आत्मचरित्र में कहा है -

'जिस नीतिशास्त्र के सूत्र और आचार पर अपने क्रांतिकारी आंदोलन को खडा करना चाहिए और समर्थन करना चाहिए वह यही  (यूटिलिटी) नीतिशास्त्र, यही क्रांति की मनुस्मृति ऐसा मैं कहता था, ऐसा मैं मानता था और महाभारत के कृष्ण के अनेक प्रसंगों के भाषणों पर से मैं यह सिद्ध करता था कि, भगवान कृष्ण ही उपयुक्ततावाद के प्रणेता ही नहीं, आचार्य भी थे। उन्होंने वह आचरण में लाकर दिखलाया। उनके सभी आचरणों का समर्थन उन्होंने इसी तत्त्व पर किया था।" (माझ्या आठवणी पृ. 10) भगवान श्रीकृष्ण सावरकरजी के आराध्य थे।

परंतु, समाज संस्था की पुनर्रचना किसी भी धर्मग्रंथ के आधार पर नहीं होना चाहिए यह सावरकरजी ने स्पष्ट रुप से कहा था। समाज की रचना करते समय नीति का, सामाजिक उपयुक्तता की दृष्टि से ही विचार किया जाना चाहिए। सावरकरजी ने अपने सामाजिक विचारों में मुख्यतः हिंदुओं के सामाजिक दोषों की ही चिकित्सा और चर्चा की होने पर भी भारतीय राष्ट्र के एक घटक के रुप में मुसलमानों को भी अपना सामाजिक परीक्षण और अपने धार्मिक उन्माद, रुढ़ियों का उच्छेद करें, ऐसा उन्हें भी कहा है। मुसलमान अगर विज्ञाननिष्ठ और प्रगत हो गए तो उसमें हिंदुओं का तो कल्याण है ही उससे अधिक उनका स्वयं का भी बडा कल्याण है।

उनके सामाजिक तत्त्वज्ञान का आधार ही विज्ञाननिष्ठा था और नए युग का वह दीपस्तंभ है, नए युग की प्रगति का दीपस्तंभ है यह वे साधार उदाहरणों सहित कहा करते थे। वे हिंदुओं का मानसिक आधुनिकरण करना चाहते थे क्योंकि उनको विश्वास था कि विज्ञानवादी हिंदू समाज ही भारत को आधुनिक और समर्थ बनाएगा।

यंत्र से बेकारी बढ़ेगी इसका उत्तर देते हुए सावरकरजी ने कहा था यह अर्थरचना का दोष है। यहां भी विश्व में चल रही दौड में अपना राष्ट्र पीछे न रह जाए यही उद्देश्य है। सावरकरजी के दो ही ध्येय थे 1). हिंदुओं का उत्थान; 2). देश की स्वतंत्रता। उन्हें अपने ज्ञान, अपनी बुद्धिमतता, अपने बुद्धिप्रामाण्य, विज्ञाननिष्ठा को राष्ट्र के उत्थान के लिए ही उपयोग में लाना था। उनका युवावस्था से ही निश्चय था - 'तुजसाठी (तेरे लिए) मरण ते जनन, तुजविन (तेरे बिना) जनन ते मरण (मृत्यु)"

सावरकरजी ने जो यह नई दृष्टि दी थी उसकी राष्ट्र ने उपेक्षा की उसीका परिणाम आज राष्ट्र भोग रहा है। परंतु, अभी भी वह समय गया नहीं है आज भी अगर राष्ट्र ने उनकी इस नवदृष्टि का वैज्ञानिक और समाजशास्त्रीय वृत्ति से अध्ययन किया तो, राष्ट्रहित सधेगा मार्गदर्शन उन्होंने ग्रंथरुप में दे ही रखा है। अंत में सावरकरजी का यह विचार प्रस्तुत कर लेख समाप्त करता हूं कि, 'प्रत्येक पीढ़ी के प्रश्न अलग होते हैं भले ही वे स्वमत के आग्रही थे तो भी वे यह मानते थे कि, आज की पीढ़ी पुरानी पीढ़ी कंधे पर खडी होने के कारण उसे निश्चय ही दूर का अधिक दिखता है।"

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