Saturday, January 11, 2014

 गंभीरता से विचार करें राज साहब !

एक लम्बे समय से राज ठाकरे और उनकी मनसे द्वारा हिंदी और हिंदीभाषी उ.प्र., बिहारवासियों का विरोध, उत्पीडन किया जा रहा है, उनके मुंबई में उपजीविका के लिए आने पर उन्हें प्रताडित किया जा रहा है। निश्चित ही यह अनुचित है। पूरे देश के नागरिकों को संविधान द्वारा प्रदत्त शिक्षा, व्यवसाय, उपजीविका के लिए पूरे देश में कहीं भी आ-जा सकने, बसने के अधिकारों का हनन है। मुंबईवासियों के इस दृष्टिकोण से हम सहमत हैं कि यदि ये इसी प्रकार आते रहे तो, हम और हमारे बच्चे कहां जाएंगे। मुंबई में स्थान सीमित है; तीनों ओर समुद्र है; इतने लोग इसमें कैसे समाएंगे। यहां की नागरिक व्यवस्था चरमरा रही है।

उ.प्र., बिहार इन प्रदेशों ने उन्नति नहीं की इसलिए उन लोगों को इतनी दूर अपना घर-बार छोडकर पराए स्थान पर कष्ट उठाने के लिए आना पड रहा है। जहां दो वक्त की रोजी-रोटी की व्यवस्था हो वहीं जा कर लोग बसते हैं। उन्हें लगता है कि यह व्यवस्था मुंबई में हो सकती है इसलिए वे वहां आते हैं और पाते भी हैं। हमारा कहना तो यह है कि इस संबंध में सबसे बडी गलती मुंबईवासियों और उनके राज जैसे नेताओं की ही है। कैसे? आज से एक दशक पूर्व युती यानी भाजपा-शिवसेना की सरकार थी और उस समय राज ठाकरे उस युती की शिवसेना के एक प्रमुख घटक थे। उस समय कोंकण (मुंबई भी उसीका हिस्सा है) जो शिवसेना का गढ़ था, वहां गरीबी, बेरोजगारी भी बहुत है, के लोगों को यदि एक मुहिम जैसा चलाकर, जैसाकि वीर सावरकर ने, जिन्हें हिंदुत्ववादी होने के कारण युती के बडे नेता बडे सम्मान की दृष्टि से देखते हैं, द्वितीय विश्व युद्ध के समय सैनिकीकरण का अभियान चलाया था और अपना लक्ष्य प्राप्त करने में सफलता भी पाई थी, अपने लोगों को रोजगारमूलक शिक्षा देकर उन्हें मुंबई में लाकर काम-धंदे से लगाकर व्यवस्थित ढ़ंग से बसाया होता तो, उनका भी भला होता और जिन्हें वे समस्या मान रहे हैं, जिनके कारण उनकी भाषायी, प्रादेशिक अस्मिता उन्हें खतरे में नजर आ रही है, खडी न होती। परंतु, यह तो उन्होंने किया नहीं किया। और आज जब वे उ.प्र., बिहार के लोग उस (सेवाक्षेत्र) जगह को भरने के लिए आ रहे हैं क्योंकि, निर्वात कहीं भी रह नहीं सकता। तो, आपको अडचन हो रही है। और आप देशतोडक-घातक  कार्यवाही केवल अपना वोट बैंक बनाए रखने-बढ़ाने के लिए कर रहे हैं। शायद आप उपर्युक्त कार्य संगत के असर के कारण न कर पाए हों। आपकी युती भाजपा के साथ थी, जो विपक्ष में रहती है तो धारा 370, समान नागरिक संहिता, राम मंदिर जैसे मुद्दे उठाती है अपने घोषणा-पत्र में रखती है। और जब सत्ता में आती है तो सब भूल जाती है तथा आड लेती है एनडीए के घोषणा-पत्र की कि क्या करें गठबंधन सरकार है जब पूरी तरह से हमारी सरकार आएगी तब करेंगे। मानाकि आप (भाजपा) असहाय थे। परंतु, आप बांग्लादेशी घुसपैठियों को तो रोक सकते थे। परंतु, नहीं! आप गोहत्या बंदी तो कर सकते थे। परंतु, वह भी आपने नहीं किया. निष्क्रिय रहे। और आज गो-यात्राएं निकाली जा रही हैं। इसका अर्थ यह है कि समझौता केवल और केवल सत्ता के लिए ही था।

अब संघ भी मैदान में रक्षक की भूमिका में कूद पडा है और अपने स्वयंसेवकों को महाराष्ट्र में उत्तर भारतीयों की रक्षा का निर्देश दिया है। तथा भाजपा के अध्यक्ष नीतिन गडकरी ने भी हम संघ से सहमत हैं ऐसा कहा है। संघ परिवार की यह भूमिका एकात्मता की दृष्टि से निश्चिय ही प्रशंसनीय है और इस प्रकार से उन्होंने अपना हिंदू वोट बैंक सुरक्षित कर लिया है। परंतु, शिवसेना की 'आमची मुंबई" की भूमिका, मराठी प्रेम और स्वयं को मराठी भाषीयों के रक्षक के रुप में प्रस्तुत करना भी कोई नया नहीं है। इसके पूर्व वे दक्षिण भारतीयों के खिलाफ अभियान चला चूके हैं। लेकिन तब संघ चुप्पी साधे रहा। इसी प्रकार से 'गुरुजी जन्म शताब्दी वर्ष" के दौरान पूरे वर्ष भर संघ परिवार एक ही बात बार-बार दोहराता रहा कि सिक्खधर्म नहीं है, जैनधर्म नहीं है, बौद्धधर्म नहीं है। ये सब सम्प्रदाय हैं। धर्म केवल हिंदूधर्म है। अब यह अधिकार संघ को किसने दिया कि वह यह तय करे कि सिक्खधर्म धर्म नहीं सम्प्रदाय है? संघ द्वारा इस प्रकार के वक्तव्य बार-बार दिए जाने पर सिक्खों द्वारा यहां तक कहा गया कि संघ प्रमुख सुदर्शन पंजाब की भूमि पर इस प्रकार के वक्तव्य देने की जुर्रत न करें वरना ठीक नहीं होगा। तब भी यह आलाप चलता ही रहा। परंतु, जैसे ही पंजाब के विधानसभा चुनावों को निकट आते देखा तो भाजपा-अकाली गठबंधन की आवश्यकता को देख तत्काल शताब्दी समारोह के समारोप के समय सुदर्शनजी ने मंच से सूर बदलते हुए सिक्खधर्म को सम्प्रदाय के स्थान पर धर्म करार दिया। क्या इस प्रकार की वोट बैंकवाली स्वार्थी एकात्मता उचित है। उचित तो यह होगा कि संघ केवल और केवल राष्ट्रहित वाली एकात्मता पर ही अडिग रहे। उसे स्वार्थ और वोट बैंक की राजनीति से दूषित न करे।

हमने राज ठाकरे के साथ-साथ मुंबईवासियों पर भी जो ऊंगली उठाई है वह इसलिए कि जब ये उ.प्र. बिहारवाले शुरुवात में 'आमची मुंबई" में काम-धंदे की तलाश में आए तब कहां वे आपकी मराठी का विरोध कर रहे थे, मजाक उडा रहे थे। अगर उसी समय आपने उन्हें मराठी सीखाई होती, उनसे मराठी में ही बोले होते तो वे भी सोचते कि यहां रहना है तो, जिस प्रकार से हमने वडा-पाव को अपनाया है वैसे ही मराठी को भी अपनाना होगा; मराठी सीखना पडेगी; वे सीखते और आपमें समरसता पैदा हो जाती। आपके मुंबई में जो समस्या है वह पूणे-नागपूर में तो नजर नहीं आती। लेकिन आपने तो 'बंबईया भाषा" को ही जन्म दे दिया और आज मराठी का रोना रो रहे हैं। और टेक्सी चलाने के लिए मराठी का बंधन डालने का प्रयत्न कर रहे हैं। सीधी सी बात है यदि कोई पंजाबी भाषी को बंगाल में टेक्सी चलाना हो तो उसे बंगाली में ही बोलना पडेगा, पंजाबी से काम नहीं चलेगा। क्योंकि, बंगाल के लोग आग्रहपूर्वक बंगाली में ही बोलेंगे। परंतु, आज इतनी छोटी सी बात के लिए आप कानून बनाने की इच्छा रखते हैं और आलोचना का शिकार हो रहे हैं। 

अब तो हद हो गई कि आपको एक उच्चस्तरीय समिति सलाह दे रही है कि 'राज्य के मंत्रियों, अधिकारियों को राज्य के बाहर से आनेवाले गैर-मराठियों व विदेशी मेहमानों से भी मराठी में ही बात करना चाहिए।" तर्क यह दिया जा रहा है कि, 'मराठी का उपयोग करने से इस भाषा को विस्तार मिलेगा, साथ ही इसी बहाने दुभाषियों के रुप में कई लोगों को रोजगार भी प्राप्त होगा। यह तर्क निश्चय ही अच्छा है। परंतु, राष्ट्र-राज्य का हित सर्वोपरी है। यदि आप विदेशी मेहमानों से राष्ट्र-राज्य के हित के लिए अंग्रेजी में बात कर सकते हैं, विदेशों में जाकर अंग्रेजी में भाषण दे सकते हैं, उसके लिए आप बाकायदा अंग्रेजी सीखते भी हैं। तो, हिंदी क्यों नहीं सीख, बोल सकते? क्योंकि, हिंदी को संपूर्ण राष्ट्र के लिए समन्वय की भाषा के रुप में मानना ही पडेगा। इस मामले हम श्रीमती सोनिया गांधी जो एक विदेशी मूल की हैं का आदर्श सामने रख सकते हैं। जिन्होंने इस देश की बहू बनने के लिए इस देश की संस्कृति को स्वीकारा, हिंदी सीखी। उसी प्रकार से जिन्हें हिंदी आती है वे तो निश्चय ही हिंदी बोल सकते हैं उनके लिए भी यह अट्टहास क्यों कि हम तो दुभाषिये के माध्यम से ही बात करेंगे, मराठी में ही बोलेंगे! हां, जो ग्रामीण परिवेश से होने के कारण हिंदी अच्छी तरह से समझ-बोल नहीं पाते वे यदि दुभाषिये की सहायता लें तो कुछ समझ में भी आता है। हमारी दृष्टि में तो उपर्यक्त प्रकार का थोथा मराठी प्रेम सिवाय राजनीति के और कुछ नहीं है। 

इसी प्रकार से राज ठाकरे की मनसे ने '40 दिन में मराठी सीखें या मुंबई छोडे" का एक नया फरमान जारी कर दिया है। क्या उ.प्र., बिहारवाले विदेशी हैं जो उन्हें वहां से निकाल बाहर करने की बात की जा रही है, हम इसका विरोध करते हैं। हिम्मत हो तो बांग्लादेशी घुसपैठियों को जो थोक में वहां रह रहे हैं, उन्हें निकाल बाहर कर दिखाएं। वस्तुतः होना यह चाहिए आप वहां के मराठी भाषीयों से कहें कि वे केवल मराठी में ही बात करें। यदि उ.प्र. का भैया अपने लंगडा या दशहरी आम की कीमत सौ रुपये बतलाता है तो आप मराठी में कहिए ना कि 'पन्नासच देईन"। सौदा पटाने के लिए वह पचहत्तर कहेगा तो आप टूटी-फूटी हिंदी में कहें 'मी तो साठच दूंगा।" 'साठ" तो हिंदी-मराठी दोनो ही भाषाओं में कहा जाता है। यदि उ.प्र. के भैया को वहां रहकर काम-धंदा करना है , दो पैसे कमाना है तो, वह अपने आप मराठी सीखेगा, बोलेगा। उसके लिए मारपीट करने, मुंबई छोडो का फरमान जारी करने की जरुरत क्या है? यह नितांत अनुचित है।

राज ठाकरे का मराठी प्रेम और हिंदी विरोध जब विधानसभा के चुनावों में थोडीसी सफलता के बाद विधानसभा की शपथ विधि समारोह तक जा पहुंचा तो उन्हें अपने मराठी प्रेम के प्रदर्शन का माध्यम एक 'सदस्य विशेष" का हिंदी में शपथ लेना ही नजर आया, अंग्रेजी में शपथ लेने का विरोध करने की हिम्मत वे न जुटा पाए। लेकिन वे भूल गए कि हिंदी राष्ट्रभाषा होना चाहिए की सबसे पहले आवाज उठानेवाले लोकमान्य तिलक थे। उन्हीं के शिष्य वीर सावरकर का तो महान मंत्र ही था 'हिंदी-हिंदू-हिंदुस्थान" तथा उन्होंने न केवल हिंदी राष्ट्रभाषा होना चाहिए का अभियान चलाया था बल्कि भाषा शुद्धि का अभियान भी चलाया था। सर्वमान्य और सर्वज्ञात शब्द 'महापौर" का सृजन के अलावा आपरेशन को 'शल्यक्रिया", फिल्म को 'चित्रपट" जैसे नए-नए शब्द हिंदी को देनेवाले-रचनेवाले भी वीर सावरकर ही थे। हिंदी में सबसे पहली कहानी लिखनेवाले मराठी भाषी श्री माधवराव सप्रे थे। जिनके नाम से भोपाल में एक संग्रहालय है जिसकी स्वर्णजयंती अभी हाल ही में कुछ वर्षों पूर्व मनाई गई। वैसेही उस काल के हिंदी के मान्यवर पत्रकार श्री ग. वा. पराडकर थे, यह भी उन्होंने ध्यान में लेना चाहिए। 

अगर राज ठाकरे का मराठी प्रेम सच्चा है तो वे हिंदी का बेजा विरोध छोडकर सबसे पहले मराठी-हिंदी का शब्दकोश उठाकर देखें कि उनकी प्रिय मराठी में कितने विदेशी भाषा के शब्द घुसकर बैठे हैं। उनकी घुसपैठ इतनी व्यापक है कि उनका उच्चारण धार्मिक कर्मकांडों में भी किया जा रहा है। उदा. छबीना-(फा. शबीनः)- रात्री में निकलनेवाली मूर्ति की या देवता की यात्रा। इसी प्रकार से महाराष्ट्रीय लोगों में अपने से बडे, आदरणीय लोगों के लिए सबसे अधिक प्रयोग में लाए जानेवाले शब्द हैं आबासाहेब-बाबासाहेब। आबा और बाबा ये शब्द पिता या नाना-दादा के लिए अरबी में उपयोग में लाए जाते हैं। इसी प्रकार से बायको (धर्मपत्नी) यह तुर्की शब्द है जो सभी लोग धडल्ले से अपनी श्रीमतीयों के लिए उपयोग में लाते हैं।

जिन छत्रपति शिवाजी के उत्तराधिकारी बनते हैं, जो आपके आदर्श हैं। उन्होंने यह जानकर ही कि, ''संस्कृत और मराठी का संबंध मॉं-बेटी का है के कारण श्री रघुनाथ पंडित से लिखवाया हुआ राज्यव्यवहारकोश स्वराज्य के दैनंदिन व्यवहार से तुरत एकरुप हो गया। फारसी और अरबी के शब्द जाकर सहज सामान्य जनता को समझ में आनेवाले संस्कृत प्रचुर शब्द जीवन में घुलमिल गए। पेशवा, सुरनीस, सरनौबत, मुजुमदार ऐसे अनगिनत विदेशी शब्द जाकर उनके स्थान पर पंतप्रधान (प्रधानमंत्री), सचिव, अमात्य, सेनापति जैसे अपने शब्द रुढ़ हो गए। भाषा शुद्धि का मूल और मर्म महाराज अचूक समझे थे। एक बार संज्ञाएं बदली कि संवेदनाएं भी बदल जाती हैं। स्वत्व का आविष्कार अपनेआप हो जाता है। उसका परिणाम मन राष्ट्रीय और जागृत होने में होता है। महाराज ने महाराष्ट्र की संवेदनाएं जगाई। मातृभाषा राष्ट्र का प्राण हैं। भाषा मतलब संजीवनी।""

 परंतु, राज ठाकरे का अतिरेक तो अब चरम तक पहुंच चूका है। उनका कहना है कि 'केवल मराठी बोलने, लिखने और पढ़ने से काम नहीं चलेगा। नौकरियां उन्हींको मिलेंगी जिनका जन्म महाराष्ट्र में हुआ हो। यह तो एक प्रकार से अलग राष्ट्रीयता की शुरुआत ही कही जाएगी। अब उनका आक्षेप उन्हींकी मनसे के 40 दिन में मराठी सीखो के फरमान पर भी है। यह इस देश की मिट्टी से द्रोह  है। महाराष्ट्र में जन्मे वीर सावरकर तो आजीवन इस देश-राष्ट्र को ही अपना देवता मानते रहे और राष्ट्र के लिए ही जीए। राज ठाकरे यह न भूलें कि पहले राष्ट्र फिर महाराष्ट्र है।

मराठी के समान ही हिंदी का जन्म भी संस्कृत में से ही हुआ है। यह हिंदी शुद्ध अवस्था में संस्कृत प्रचुर बनी रहे इसके लिए उत्तरभारत के पंडितों ने भी अथक प्रयत्न किए थे। इसीलिए तो हिंदी हिंदी रही हिंदुस्तानी ना बन सकी। राजर्षि पुरुषोत्तमदास टण्डन ने कहा है - ''मुझे संस्कृतनिष्ठ हिंदी के आंदोलन की प्रेरणा वीर सावरकर से ही प्राप्त हुई थी।"" आप भी ऐसा ही कुछ महान कार्य अपनी माय-बोली मराठी के लिए करें। और आप यह कर भी सकते हैं। इसीलिए हम आपसे कह रहे है कि 'गंभीरता से विचार करें राज साहब!"  क्योंकि, हमारे विचार से तो यही आपकी ओर से आपके आराध्य वीर शिवाजी, लोकमान्य तिलक और वीर सावरकर को सच्ची आदरांजली होगी। हॉं, इतना जरुर सच है कि सापेक्षतया उन्नत राज्यों पर बाहर के लोगों का जो भार बढ़ रहा है उस विषय में केंद्रशासन को विचार करने की आवश्यकता है। 

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