Thursday, January 16, 2014

कथा हैदराबाद के निजाम की

 

वर्तमान में भाजपा-कांग्रेस के मध्य चल रहे पटेल-नेहरु संबंधी विवाद के कारण हैदराबाद तथा उसका निजाम चर्चा में है। देश को आजाद हुए 66 वर्ष बीत चूके हैं और निजाम को मरे भी एक लंबा अरसा बीत चूका है। परंतु, निजाम संबंधी आकर्षण कम नहीं हुआ है व किसी ना किसी बहाने निजाम चर्चा में आ ही जाता है। आज से कुछ वर्ष पूर्व लंदन के वेस्ट मिनिस्टर बैंक में जमा करोडों रुपये की संपत्ति और उस पर दावा करनेवाले उसके चारसौ से अधिक वारिसों के कारण यही निजाम चर्चा में आ गया था। तो, उसके पूर्व सन्‌ 2002 में उसके रत्नालंकारों के भंडार की हैदराबाद में प्रदर्शनी के कारण वह मीडिया में चर्चित हो गया था। 


जिस निजाम मीर उस्मान अली खान पर से चर्चा चल रही है वह आसफजहां खानदान का होकर उस खानदान ने दख्खन पर सवा दो सौ वर्षों तक राज किया था। अंतिम निजाम उस्मान अली खान जो छोड गए उसमें अपार संपदा, भव्य महल, संग्रहणीय आभूषण और बहुमूल्य पैंटिंग्स तो हैं ही 2700 से अधिक जायज और नाजायज वारिस भी हैं जो इस अचल संपत्ति के बंटवारे के लिए न्यायालय के दरवाजे खटखटा रहे हैं। और इन सबसे उकताकर अधिकृत वारिस प्रिंस मुकर्रमजहां तुर्की में दो कमरे के फ्लॅट में रह रहे हैं। जब हैदराबाद संस्थान को खालसा किया गया था तब सरकार ने निजाम के साथ सम्मानजनक व्यवहार करते हुए करमुक्त सालाना 50 लाख रुपये वेतन मंजूर किया था। इसीके साथ राजप्रासाद की देखरेख के लिए 25लाख, जागीर की कमाई के बदले 25लाख और दो राजपुत्रों के लिए 25लाख इस प्रकार से कुल 75लाख निजाम को मिलते थे और 1950 से 56 तक वे बतौर राजप्रमुख भी थे।  

 

लेकिन अब हैदराबाद के निजाम की विरासत के 150 से अधिक नाती-पोते जो कभी शान से रहा करते थे आज हैदराबाद के विभिन्न इलाकों में बिखरे हुए होकर गरीबी में जीवन निर्वाह कर रहे हैं। उनकी आर्थिक स्थिति इतनी दयनीय है कि उन्हें खुदको निजाम का वंशज कहने में भी शरम आती है। टूटेफूटे मकानों में निवास करते इन वंशजों में से कोई सायकल की मरम्मत कर रहा है तो कोई फलफ्रूट बेचकर गुजारा कर रहा है। 

 

इन उजडे निजाम वंशजों के पूर्वज जहां अपनी रईसी के लिए जाने जाते थे वहीं वे अपनी कंजूसी के लिए भी विख्यात थे। अंतिम निजाम उस्मानअली 185 कॅरेट का जेकब डायमंड पेपरवेट की तरह उपयोग में लाया करता था। अपनी मोटरगाडियों के शौक के लिए भी वह प्रसिद्ध था। लेकिन कंजूस इतना था कि 'किंग कोठी" पॅलेस में वह अत्यंत गंदे व फटीचर पहनावे में घूमता था। सस्ती चारमीनार सिगरेटें फूंकता था। अपने अंतिम समय में अपने पासके सोने के प्रचंड संग्रह को उसने विशेष संदूकों में लादकर हैदराबाद से मुंबई ले जाकर 150 रुपये तोले में बेचा जिससे उसे 6 करोड रुपये प्राप्त हुए। परंतु, जिन संदूकों में सोना ले जाया गया था उन संदूकों और तालों को वापिस लाने के निर्देश उसने दिए थे।

 

सन्‌ 2002 में हैदराबाद में जब इस निजाम के रत्नालंकारों की प्रदर्शनी लगाई गई थी तब उसकी रईसी व कंजूसी के इतने चर्चे हुए कि ऐसा आभास होने लगा कि मानो 54 (आज से 65) वर्ष पूर्व स्वतंत्र मुस्लिम राज्य का दिवास्वप्न देखनेवाला निजाम उस्मानअली खान कोई और ही हो। जिसने पंडित नेहरु और सरदार पटेल जैसे राजनैतिक धुरंधरों को भी बातचीत के जाल में वर्ष भर तक उलझाए रखा था। जिन लोगों को ऐतिहासिक घटनाओं का भान न हो उन लोगों के लिए तो यह आश्चर्यजनक ही है कि यह निजाम स्वयं इस्लामी जगत का खलीफा बनने की ख्वाहिश भी रखता था। उसका विश्वभर की मुस्लिम जनता पर अच्छा प्रभाव  था। ब्रिटिश उसे खलीफा के रुप में मान्यता दें इस दिशा में उसने प्रयत्न भी किए थे। परंतु, ब्रिटिशों ने मान्यता नहीं दी। अंततः भारतीय मुस्लिम नेताओं ने निजाम को भारत का 'शेख उल इस्लाम" पद धारण करने की विनती की। ब्रिटिशों के विरोध के कारण निजाम ने यह पद स्वीकारने से मना कर दिया। निजाम ने अपने एक लडके का विवाह पदच्युत खलीफा की बेटी से तो अपने दूसरे बेटे का विवाह खलीफा की पोती से करवाया था।

 

निजाम को खलीफा बनाने के प्रयत्न तब किए गए थे जब कमाल अतातुर्क ने 1924 में खिलाफत समाप्त कर दी थी। खिलाफत समाप्त होने के पश्चात भारतीय मुस्लिम नेता आगाखान, अमीरअली कमालपाशा से मिले व अब्दुल अजीज की खिलाफत कायम रखने की विनती की। इंकार करने पर उन्होंने कमालपाश स्वयं ही खलीफा पद स्वीकारें की विनती की। कमालपाशा ने उनसे पूछा 'तुम ब्रिटिशों के गुलाम नागरिक हो। मेरे दुनिया का खलीफा बनने पर तुम मेरी आज्ञाओं का पालन करोगे क्या? अगर पालन नहीं करनेवाले हो तो मेरे खलीफा बनने का क्या फायदा?" अब इस्लाम और भारतीय मुस्लिमों का क्या होगा की चिंता से ग्रस्त हो नई खिलाफत की स्थापना के लिए भारतीय मुस्लिम नेता लग गए। इसी सिलसिले में अलीबंधुओं के नेतृत्व में वे ईरान के शाह रजापहेलवी से भी मिले। परंतु, उसने इंकार कर दिया तब भारत में ही खिलाफत स्थापित करने की दृष्टि से वे निजाम से मिले थे।  

 

यह निजाम इतना शातिर था कि 1947-48 में हैदराबाद को मुस्लिम संघराज्य बनाने के लिए उसने जो षडयंत्र किए थे वे उजागर होने पर सारा ठिकरा रजाकारों के आंदोलन पर फोडकर स्वयं को पाकसाफ बताने की कोशिश की थी। 26 मार्च 1948 को निजाम के प्रधानमंत्री लायकअली ने घोषित किया था कि, 'निजाम हुतात्मा होने के लिए तैयार हैं। निजाम और लाखों मुसलमान मरने के लिए तैयार हैं।" परंतु भारत की सेना 13 सितंबर 48 को हैदराबाद गई और जुल्मी शासन का अंत हो गया। 

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