Friday, January 10, 2014

आखिर हिंदू गर्व किस बात पर करें ? 1


स्वामी विवेकानंद ने हिंदुओं का अस्मिता बोध जगे, हिंदुओं में आत्मसम्मान, आत्मगौरव का भाव वृद्धिंगत हो के लिए 'गर्व से कहो हम हिंदू हैं" का उद्‌घोष किया था। परंतु, इस नारे को परवान चढ़ाने का श्रेय संघ-परिवार को जाता है। हिंदुओं के लिए तो यह उद्‌घोष प्राणप्रिय है। परंतु साथ ही यह भी एक कटु सत्य है कि इस नारे का जयकारा लगानेवाले कइयों से यदि यह पूछा जाए कि क्यों कहें हम गर्व से हिंदू हैं तो, इसका उत्तर वे दे नहीं पाते, बगले झांकने लगते हैं। वास्तव में अधिकांश नारा लगानेवाले लोग मात्र यांत्रिक ढ़ंग से नारा लगाते रहते हैं, कुछ लोग अवश्य अज्ञानी होते हैं तो, कुछ लोग अपनी भाव-भावनाओं को शब्दों में अभिव्यक्त करने में स्वयं को असमर्थ पाते हैं इसलिए उत्तर दे नहीं पाते। कुछ लोग अवश्य इसका उत्तर अपनी-अपनी पद्धति से दे देते हैं।


मेरा स्वयं का मत यह है कि, एक समाज के सातत्य और शाश्वत अनुजीवन के लिए आधुनिकीकरण एक निश्चित एवं आवश्यक उपचार है। इसके अंतर्गत समाज सुधार, आचरण संहिता में तालमेल बैठाना आता है, राष्ट्रीय समाज के भिन्न-भिन्न घटकों में पारस्परिक संबंधों को अनुशासित करनेवाले नियमों में संशोधन, समय-समय पर सामाजिक संगठनों के कार्यकलापों का नियमन करनेवाली विधियों का परिष्कार और जहांकहीं-जबकभी विकृति उत्पन्न हो जाए तो उसे दूर करना आता है। इस दृष्टि से विचार किया जाए तो, 19वी शताब्दी में जब भारत में आधुनिक युग का सूत्रपात हुआ, हिंदू समाज-सुधारकों राजाराममोहन राय और स्वामी विवेकानंद तथा स्वामी दयानंद ने अनुभव किया कि परंपरागत हिंदुत्व अव्यवस्थित था एवं प्रगति तथा परिवर्तन से मेल नहीं खाता था और हिंदुत्व का आधारभूत संशोधन इसके पुनरुत्थान के लिए आवश्यक था। मेरी दृष्टि में हमें गर्व हमारे इस प्रकार के समाजसुधारकों पर होना चाहिए जिन्होंने कि इस परिपाटी को उस काल में भी और बाद में भी आगे बढ़ाया।


इस कडी में कई समाज सुधारक हुए हैं। महाराष्ट्र में तो इसकी अखंड परंपरा सी ही है। जिसमें विष्णुबुआ ब्रह्मचारी, ज्योतिबा फुले, न्यायमूर्ति रानडे, लोकमान्य तिलक, आगरकर, वीर सावरकर, डॉ. आंबेडकर, शाहू महाराज, बाबा आमटे, आदि हुए हैं। इन समाज सुधारकों की प्रचुरता के कारण इनका वर्गीकरण तक किया गया है। 1. धर्मश्रद्ध सुधारक, 2. धर्मश्रद्धाहीन सुधारक, 3. कर्मयोगी सुधारक, 4. सुधारकों के सुधारक, 5. राष्ट्रवादी सुधारक, 6. समाजशास्त्रज्ञ सुधारक। महाराष्ट्र के बाहर ईश्वरचंद्र विद्यासागर, पंडित मदनमोहन मालवीय, ठक्कर बापा, महात्मा हंसराज आदि हुए हैं। शताब्दियों के कालखंड में इस देश में अनेकानेक समाज सुधारक हुए हैं। परंतु, हम केवल 19वी और 20वी शताब्दी के कुछ चुनिंदा समाज सुधारकों के कार्यों पर ही विषय समझने की दृष्टि से संक्षेप में विचार करेंगे।


1. सर्वप्रथम हम भारतीय प्रबोधन के आद्य शिल्पकार बंगाल के राजा राममोहनरॉय (1772-1833) जिन्होंने स्वयं के वैचारिक कार्य की शुरुआत धर्मचिकित्सा से की और मूर्तिपूजा पर आघात करनेवाली एक पुस्तिका आयु के 16वे वर्ष में लिखी जिसका पर्यवसान घर-त्याग के रुप में सामने आया के कार्यों से शुरु करेंगे। अपनी धर्मचिकित्सा से वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि वेद-पुराण, उपनिषद, स्मृतियां सभी मनुष्य निर्मित हैं तथा इनकी आलोचना की जा सकती थी। इन पुराणों में आधुनिकता को अपनाने की कोई गुंजाइश नहीं। उन्होंने किसी भी सुधार के लिए सार्वभौमिक मूल्यों के मानदंडों की सिफारिश की। वे धर्मांतरण विरोधी होकर ईसाई मिशनरियों के कटु आलोचक भी थे। उनके विशाल मानवतावादी दृष्टिकोण से ही उनकी उदारमनस्क आधुनिकता निर्मित हुई थी। उनकी आधुनिकता यूरोपीयन बुद्धिवाद पर आधारित न होकर धर्मश्रद्धा से स्फुरित नीतितत्त्वों पर थी और इनसे निष्पन्न हुई मानवता ने ही स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व इन अभिजात तत्त्वों का समर्थन किया था।


सतीप्रथा की वीभत्स रीति के विरुद्ध उन्होंने जो प्रखर शस्त्र उठाया था उसका उद्‌गम उनकी संस्कारित मानवता में ही था। ब्रिटिश भी इस रीति के विरुद्ध थे परंतु, अपने विरुद्ध विद्रोह ना हो जाए के भय से चुप थे, किंतु राममोहन रॉय सतत प्रयत्नशील रहे और अंततः 1829 में सर विल्यम बैंटिक ने सतीप्रथा कानून लागू किया। सती, विधवा पुनर्विवाह या मुद्रण स्वतंत्रता बाबत किए हुए उनके यत्नों का जो महत्व है उससे अधिक महत्व उनके शिक्षाविषयक किए गए कार्यों का है। घातक परंपराओं से जकडे भारत और सारी घातक परंपराओं को फेंक देनेवाले भारत के मध्य का पुल उन्हें कहा जाता है। राजा की उपाधि उन्हें मुगल सम्राट अकबर द्वितीय ने दी थी।


2. महाराष्ट्र के बाहर के अधिकांश लोगों के लिए विष्णुबुवा ब्रह्मचारी (1825-1871) का नाम अनजान है। इस उपेक्षित पहले हिंदू मिशनरी ने मार्क्सवाद प्रसृत होने के पूर्व ही साम्यवाद पर आधारित स्वतंत्र निबंधमाला लिखकर खलबली मचा दी थी। वह भी इतनी कि 'इलेक्सट्रेटेड लंदन न्यूज" में उनका फोटो हिंदुस्थान का क्रांतिकारी कहकर छापा गया था। उनके सामाजिक मत भी इसी प्रकार से प्रगतिशील थे। जातिभेद नष्ट हों, संबंध-विच्छेद एवं पुनर्विवाह कुछ मर्यादा में योग्य माना जाए। उनके ये मत उस काल में क्रांतिकारी ही थे। वे अस्पृश्यता नहीं मानते थे। उनका प्रतिपादन था शाकाहार ही सच्चा आहार है परंतु, मांसाहार को निषिद्ध नहीं माना था। अंधश्रद्धा द्वारा लादे हुए निर्बंध उन्हें मान्य ना थे। वेद-पुराण पर उनकी पूर्ण श्रद्धा थी परंतु, बुद्धिप्रामाण्य पर उनका विश्वास था। 1850 से 1857 तक मुंबई की चौपाटी पर चले उनके व्याख्यान इतने प्रभावी थे कि ईसाई मिशनरियों को अपना बाडबिस्तर समेटना पडा था। परिणाम सरकार ने उनके भाषणों पर प्रतिबंध लगा दिया। इसके बाद वे कलकत्ता, मद्रास आदि स्थानों पर प्रचारार्थ गए।


3. एक जाति, एक धर्म, एक भगवान के उपदेष्टा केरल के लोकप्रिय संत श्रीनारायण गुरु (1854) ने समाज की अव्यवहारिक, घातक और अनिष्टकारी प्रवृतियों को समाप्त किया, जिससे हिंदू समाज को खंडित होने से रोका जा सका। श्रीनारायण गुरु ने निम्न जाति के स्थाई विकास के लिए शिक्षा पर बल दिया। निम्न जातियों में आत्मसम्मान की भावना जागृत की इसके लिए संगठित व सबल होने का मंत्र दिया। अनेक कुरीतियों से समाज को मुक्त करने की दिशा में प्रयास किया। भूत-प्रेतों की मादक पदार्थों द्वारा पूजन की पद्धति को समाप्त किया। उन रुढ़ियों को समाप्त कर दिया जिनकी उपयोगिता समाज के लिए नहीं थी। उनका विशेष ध्यान इस ओर था कि निम्न जातियों के हिंदुओं में उच्च जातियों द्वारा दुर्व्यवहार के फलस्वरुप परस्पर मनोमालिन्य निर्मित ना हो जिससे कि हिंदू समाज ही खंडित हो जाए। उन्होंने सफलतापूर्वक अपने अनुयायियों को धर्मांतरित होने से रोका।


4. दूसरी ओर स्वामी दयानंद सरस्वती (1824-1883) ने वेदों को छोडकर सभी हिंदू पुराणों के अवमूल्यन का सुझाव दिया। उन्होंने स्त्री शिक्षा और स्त्री-पुरुष समानता पर प्रमुख बल दिया। समाज में शिक्षा के प्रचार-प्रसार के लिए अभियान चलाया। देश में जाति-पाति, ऊंच-नीच, छूआछूत, सतीप्रथा, बाल विवाह, नरबलि, गौहत्या, अंधश्रद्धा, धार्मिक संकीर्णता, पाखंड आदि समस्याओं से मुक्ति के लिए एक नए स्वर्णिम समाज की स्थापना के उद्देश्य से आर्यसमाज की स्थापना की। पट्टाभिसीतारमैया ने उन्हें राष्ट्रपितामह की उपाधि दी थी।


5. साधारणतया महामना पंडित मदनमोहन मालवीय की जो छवि जनमानस में बसी हुई है वह है राजनीति के मंच पर 'नरम" और धर्म तथा समाज के आंगन में 'कट्टर रुढ़िवादी"। परंतु, उनकी यह छवि एकपक्षीय व एकांगी है। उनके जीवन-चित्रपट में विविध रंगों से सराबोर झांकियों की कमी नहीं जिनमें हम उन्हें अपनी 'नरम नीति" व कट्टरवादिता को क्षणभर में एकओर रख एकदम 'गरम" व क्रांतिकारी 'सुधारवादी" के रुप में परिणत होते हुए भी पाते हैं। उदाहरणार्थ, जो मालवीयजी 1922 में देशभावना की परवाह ना करते हिंदू-विश्वविद्यालय के प्रांगण में 'प्रिंस ऑफ वेल्स" को माला पहनाते दिख पडते हैं वही मालवीयजी 1930 के स्वतंत्रता की लडाई में मुंबई की सडकों पर बरसते पानी में रातभर सशस्त्र पुलिस के सम्मुख सीना तानकर डटे दिख पडते हैं। जिन्हें गोलमेज परिषद के लिए गंगाजल ले जाते हम पाते हैं वही मालवीयजी काशी के धर्मध्वजियों को ललकारते हुए 'अछूत" कहे जाने वाले तिरस्कृत अपने देशबंधुओं को सह्रदयता से धार्मिक मंत्रदीक्षा देते हुए भी हमने पाया है।


मालवीयजी के सनातन धर्मसिद्धांतों के प्रति आस्थावान होने का अर्थ यह नहीं कि वे सुधार एवं प्रगतिविरोधी थे। वे ही तो थे जिन्होंने अकेले ही अपनी हिंदूजाति को शिक्षा का धनी बनाने हेतु, 'हिंदू विश्व-विद्यालय" जैसी आधुनिक संस्था खडी कर दी थी। क्या ऐसे महामना पर स्वप्न में भी इस पुण्यभूमि की प्रगति की राह रोकने का आरोप लगाया जा सकता है। वस्तुतः उनकी तथाकथित 'कट्टर रुढ़िवादिता" की तह में दृढ़ सिद्धांतवादिता थी जो 'प्रगति" के नाम पर इस प्राचीन भूमि के सांस्कृतिक उत्तराधिकार के आधारभूत सिद्धांतों का व्यापार कर उसे बेच डालने को तैयार नहीं थी। मालवीयजी देश के अनेक अन्य सुधारवादी विचारकों की भांति पुरातन की नींव पर पुनर्निर्माण और पुनर्संस्कार द्वारा पुनरोदय के पोषक थे वह विध्वंस और आमूलचूल परिवर्तन द्वारा एक सर्वथा अपरिचित संस्कृति को देश पर लाद देने के समर्थक नहीं थे। वह हमारी जीवनधारा में बाद को उत्पन्न विकृतियों को दूर करने की आतुरता के संकोच से रंचमात्र भी पीछे ना थे।


6. गांधीजी का उन धर्मशास्त्रों में विश्वास नहीं था, जो जातिप्रथा को पवित्र घोषित करते हैं। इस संबंध में उन्होंने कहा ''यह दुख का विषय है कि आज धर्म का मतलब क्या खाना है और क्या नहीं है के अर्थ में लिया जाता है। कौन बडा है कौन छोटा इसीकी व्याख्या की जाती है। इससे बडी नादानी और कुछ नहीं हो सकती। जन्म और आचार किसीकी श्रेष्ठता नहीं नाप सकते। चरित्र ही एकमात्र मापदंड है। कोई भी शास्त्र जो जन्म के आधार पर किसी मनुष्य को छोटा या अछूत घोषित करता है, हमारी श्रद्धा का पात्र नहीं हो सकता। यह ईश्वर की अवहेलना है।""


7. शक्ति-सामर्थ्य के उपासक स्वामी विवेकानंद ने धर्म हिंदुस्थान का प्राण है का उद्‌घोष करते हुए कहा था- अपन हिंदू हैं। 'हिंदू" शब्द से मुझे कोईसा भी बुरा अर्थ ध्वनित नहीं करना है। इसमें कुछ बुरा अर्थ है इससे मैं सहमत नहीं। भूतकाल में सिंधू के एक ओर रहनेवाले वे हिंदू इतना ही इसका अर्थ है। जो अपना द्वेष करते आए हैं उन्होंने इस शब्द को बुरा अर्थ चिपकाया होगा। परंतु उसका क्या! हिंदू शब्द में जो उज्जवल है, जो आध्यात्मिक है उसका निर्देश हो; अथवा जो लज्जास्पद है, जो पांवोंतले कुचले गए हैं, जो दीन हैं इस प्रकार का बोध हो यह अपने पर निर्भर करता है। हिंदू शब्द को किसी भी भाषा का अधिकाधिक गौरवपूर्ण अर्थ अपनी कृति से ला देने के लिए अपन सिद्ध हो जाएं। आगे वे कहते हैं ः अपन भारतवासी हैं इस पर गर्व करो और गर्व से कहो ः


''मैं भारतवासी हूं। प्रत्येक भारतवासी मेरा भाई है। अज्ञानी भारतवासी, दरिद्र और दलित भारतवासी, ब्राह्मण भारतवासी और भंगी भारतवासी ये सारे मेरे भाई हैं।"" कमर में कौपीन हो तो भी उच्चरव में घोषणा कर ः ''प्रत्येक भारतवासी मेरा बंधु है। भारतीयत्व ही मेरा जीवन, भारत के देवी-देवता मेरे भी देवी-देवता। यह विशाल भारतीय समाज यानी मेरे बाल्यकाल का हिंडोला, यौवन का नंदनवन, और वृद्धावस्था की वाराणसी।"" ऊठ बोल ः ''हिंदुस्थान की धूली ही मेरा स्वर्ग। हिंदुस्थान का सद्‌भाग्य ही मेरा सद्‌भाग्य।"" अरे भाई दिनरात इसीका जयजयकार कर।


उनका कहना था ः उदार बनो। मतांध, एकांतिक मत बनो, आत्मपरीक्षण करो। ध्यान रखो, जीवन का एकमात्र चिंह है गति और विकास। अपने को अभी बहुत कुछ सीखना है। मरने तक नई और श्रेष्ठ बातें सीखने के लिए प्रयत्नशील रहना है। अन्यों के पास जो जो अच्छा है उसे सीखो, योग्य पद्धति से आत्मसात करो, धोखा है तो पाश्चात्यों के अंधाधुनिकीकरण का। पाश्चात्य देशों का आधुनिकीकरण तभी हो पाया जब शिक्षा और संस्कृति सफेदपोशों तक ही मर्यादित न रहते समाज के सभी स्तरों तक पहुंची। ब्रिटिशों द्वारा हिंदुस्थान को जीतना इसलिए आसान रहा क्योंकि उनकी राष्ट्रभावना जागृत थी और हमारी नहीं। क्योंकि उनके यहां निचले स्तर तक शिक्षा और संस्कृति थी। शिक्षा, केवल शिक्षा के कारण ही आत्मश्रद्धा का जन्म होता है।


उनकी दृष्टि में बाल-विवाह घृणास्पद है, छूआछूत, गूढ़वाद, अंधश्रद्धा अवनति व साक्षात मृत्यु चिंह हैं। अंतरजातिय विवाह की आवश्यकता है। बहुजनों की शिक्षा लोकभाषा में होना चाहिए। शिक्षा के सिवाय स्त्रियों का सच्चा विकास होगा नहीं। स्त्री पुरुष समान हैं। स्त्रियों का अभ्युदय हुए बगैर भारत का कल्याण होना असंभव है।


इस प्रकार से यदि हम देखें तो जितने भी समाज सुधारक इन प्रमुख उदाहरणों के सिवाय भी हुए हैं सभी ने प्रमुखता से स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व के साथ ही साथ धर्मचिकित्सा कर स्त्री शिक्षा-स्वतंत्रता-अधिकार, स्त्री-पुरुष समानता का बोध जगाया। छूआछूत, ऊंच-नीच, अंधविश्वास आदि पर कडे प्रहार कर कुरीतियों को नष्ट करने, समाज को सबल बनाने, हिंदू अस्मिता जगाने के लिए भगीरथी प्रयास किए। परंतु, इन सामाजिक सुधारों में कम से कम महाराष्ट्र में तो भी एक कमी रह गई थी और वह यह कि आंदोलनों का सारा जोर व विस्तार नगरीय क्षेत्र तक ही मर्यादित था। परंतु, 80% ग्रामीण भाग जो किसानी-मजदूरी से संबंधित हैं कीसमस्याओं को प्रधानता ना मिल सकी।


8. इस वैचारिक खाई को पाटने महात्मा फुले, कर्मवीर शिंदे, प्रा. श्री. म. माटे, वीर सावरकर आगे आए। इनमें महात्मा फुले आद्य समाज सुधारक हैं। उन्होंने किसानों के सर्वांगीण विकास के लिए कितना सुक्ष्म और चौतरफा अध्ययन किया था यह उनके ग्रंथ 'शेतकऱ्याचा आसूड" (किसान का कोडा) से दिख पडता है। उन्होंने अनाथ निर्दोष बच्चों के पालन-पोषण के लिए पहला अनाथाश्रम खोला। उन्होंने अपना पूरा जीवन शोषित-पीडित और दलित सर्वहारा की मुक्ति के लिए सतत संघर्ष करते हुए गुजार दिया। प्रेस की स्वतंत्रता को सीमित करने के लिए लार्ड लिंटन ने एक्ट लागू किया था, उसके विरोध में उनके साप्ताहिक दीनबंधु ने ही आवाज उठाई थी। .........

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