Saturday, January 4, 2014

छोड दें अल्लाह के राज की बातें

छोड दें अल्लाह के राज की बातें


यदि हम इस्लामी जगत पर दृष्टि डालें तो यह दिख पडेगा कि पूरा का पूरा इस्लामी जगत आपसी विवादों, झंझटों, प्रतिस्पर्धाओं में उलझा हुआ है। ये सब मतभेद वैचारिक तो हैं ही लेकिन इस कदर हिंसक, जानलेवा हैं कि मानो ये एक ही धर्म के पालन करनेवालों के न होकर एक दूसरे के कट्टर दुश्मनों के हों। पाकिस्तान में ये झगडे शिया-सुन्नी-कादियानी या अहमदियाओं के बीच हैं। जो अत्यंत हिंसक होकर वहां रोज ही किसी ना किसी मस्जिद या सार्वजनिक स्थान पर हिंसा के मंजर नजर आना आम है। अहमदियों को तो पाकिस्तान ही नहीं वरन्‌ अनेक इस्लामिक देशों में गैर मुस्लिम ही घोषित कर दिया गया है। पडोसी बांग्लादेश भी इस्लामी कट्टरपंथ का सामना कर रहा है।


भारत में यही कलह बरेलवी देवबंदियों के बीच नजर आती है। ये दोनो ही संप्रदाय सुन्नी हैं और भारतीय मुस्लिमों की जनसंख्या का बहुसंख्य हैं। इनमें भी बरेलवी बहुसंख्य हैं यही स्थिति पाकिस्तान एवं बांग्लादेश में भी है। बरेलवी लचीली विचारधारा रखते हैं जबकि देवबंदी कट्टर होते हैं, संख्या में कम होने के बावजूद वे अधिक संगठित और आक्रमक होते हैं। उनके भारत में अनेक संगठन एवं प्रकाशन संस्थाएं हैं। विभाजन पूर्व हिंदुस्थान के बरेलवी पाकिस्तान आंदोलन में बडी संख्या में सहभागी हुए थे। जबकि बहुसंख्य देवबंदियों ने पाकिस्तान निर्माण का विरोध किया था। 1885 में कांग्रेस की स्थापना का देवबंद ने स्वागत किया था। इन्हीं देवबंदियों को राष्ट्रीय मुसलमान कहा गया। इनका विरोध भारतप्रेम के कारण ना होकर वे संपूर्ण भारत को इस्लाममय देखना चाहते थे इसलिए था। वर्तमान में पाकिस्तान में कार्यरत 'जमीयत उलेमा इ इस्लामी" नामका देवबंदी संगठन उन चंद देवबंदियों का है जिन्होंने पाकिस्तान का समर्थन किया था। जिन्हें शब्बीर अहमद उस्मानी ने संगठित किया था। कांग्रेस का समर्थन करने के लिए देवबंदी उलेमाओं ने 1919 में 'जमियत उलेमा इ हिंद" नामका भारतव्यापी संगठन खडा किया था। मौ. आजाद उसके अनेक वर्षों तक अध्यक्ष रहे थे।


कुरान और पैगंबर की सुन्नाह पर आधारित 'विशुद्ध इस्लाम" पर देवबंदी जोर देते हैं। मुस्लिमों के दैनिक जीवन के व्यवहार में प्रवेश कर चूकी गैरइस्लामी प्रथाओं का समूल नाश करने के लिए देवबंदी प्रयत्नशील रहते हैं। पैगंबर के बतलाए मार्ग पर ना चलने के कारण ही मुस्लिमों की दुर्दशा हो गई है एवं खोया हुआ वैभव प्राप्त करने के लिए मुसलमानों को पुनः विशुद्ध इस्लाम का अचूक पालन करना चाहिए। समाज सुधार के नाम पर इस्लाम में किसी भी तरह के बदलाव का देवबंदी तीव्र विरोध करते हैं। देवबंदियों का आग्रह रहता है कि सच्चे मुसलमान को राष्ट्र की नहीं अपितु वैश्विक मुस्लिम 'उम्मा" की सीमाओं को स्वीकारना चाहिए। तबलीगी जमात और सिमी इसीके अपत्य हैं। कंधारकांड का आतंकवादी मसूद अजहर देवबंदी ही है। पाकिस्तान के जनरल मुशर्रफ और जनरल जिया उल हक भी देवबंदी ही हैं।


बरेलवी पैगंबर के साथ-साथ खलीफा और इस्लाम के सेवक के रुप में पीर, फकीर और औलियाओं को भी मानते हैं। कब्र के सामने घुटने टेकना, उसके चुंबन लेना, उस पर फूल बिखेरना, चादर चढ़ाना, उनके नाम पर भोज आयोजित करना तथा मृतकों के नाम से फातेहा पढ़ना जिसे हम श्राद्ध भी कह सकते हैं। बनाए हुए पकवानों को वितरित किया जाता है (नजर और नियाज)। इस प्रकार से कब्र के सम्मान करने पर अल्लाह का 'तबर्रुक" (आशीर्वाद) प्राप्त होता है और यह इस्लाम से सुसंगत ही है यह बरेलवियों का मानना है। विवाह के अवसर पर नाच-गाना करते हैं। भले ही नमाज के लिए उपस्थित ना हों परंतु, पीर के स्मृतिदिन पर हाजिर रहना अनिवार्य मानते हैं। कुरान के अतिरिक्त हदीस व शरीअत संबंधी अन्य पुस्तकों के साथ-साथ इस्लाम के इन उपर्युक्त बुजुर्गों की पुस्तकों का अध्ययन भी बरेलवी करते हैं और उन्हें अपने जीवन में आचरण में लाने का प्रयत्न भी करते हैं। देवबंदी ऐसा कुछ नहीं करते बल्कि विरोध ही करते हैं।


'अल्लाह का पैगंबर पर प्रेम रहे और उन्हें शांति मिले" (पीबीयूएच, सलल्लाहू अलैहिवसल्लम) का उद्‌गार बरेलवी बडी जोर से और विशिष्ट प्रसंगों पर (विशिष्ट प्रार्थना के बाद, अजान अथवा नमाज की पूर्व सूचना के समय) निकालते हैं, यह देवबंदियों को मान्य नहीं। बरेलवियों का मानना है कि पैगंबर अतिमानवी थे तो देवबंदी उन्हें 'इन्सान इ कामिल" परिपूर्ण मनुष्य मानते हैं। पैगंबर के जन्मदिवस का उत्सव समारोहित करना देवबंदियों को मान्य नहीं। इससे अल्लाह के एकत्व को ठेस पहुंचती है, ऐसा उनका कहना है। जबकि बरेलवी मानते हैं कि पैगंबर 'इल्म ए गायब" (गूढ़ ज्ञान) थे। बरेलवी संस्थापक अहमद रजाखान के कुरान भाष्य पर सऊदी में बंदी है। सन्‌ 2002 में जनरल मुशर्रफ ने आतंकवाद के आरोप तले जिन 12 संगठनों पर बंदी लाई थी उनमें 'दावत ए इस्लामी" भी शामिल था। यह देवबंदियों की तबलीगी जमात का समानांतर संगठन है। दावत ए इस्लामी का आग्रह रहता है कि महिलाएं बुरका पहने, मुस्लिम घर में टीव्ही ना रखे। इसके सदस्य जब आपस में मिलते हैं तो एक दूसरे को 'मदीना ए मदीना" कहते हैं। मतभेद होना कोई बडी बात नहीं परंतु यह मतभेद वैचारिक न रहते कई बार बरेलवी और देवबंदी आपस में सशस्त्र-हिंसक संघर्ष पर भी उतर आते हैं।


इस प्रकार के संघर्ष देश ही नहीं विदेशों में भी नजर आते हैं। प्रायः अन्य धर्मीय लोग अपने-अपने पवित्र स्थलों पर तो भी हिंसक संघर्ष को टालते हैं। परंतु, मुस्लिम तो हज जैसी पवित्र तीर्थ यात्रा जिसे हर मुसलमान ने जीवन में एक बार तो भी करना चाहिए और जो इस्लाम के पांच स्तंभों में से एक है पर भी अपने मतभेदों को भूला नहीं पाते और हिंसक हो जाते हैं। ईरान-इराक के बीच चले आठ वर्ष लंबे युद्ध के दौरान कुवैत और सऊदी ने इराक का साथ दिया था। बदला लेने के लिए ईरान ने हजयात्रा का पूरा लाभ उठाया और सऊदी कोटे को नकार कर दो लाख से अधिक ईरानियों को हजयात्रा पर भेज दिया जो रास्ते भर सऊदी और अमेरिका हाय हाय के नारे लगाते रहे। तीन साल तक हजयात्रा के दौरान सशस्त्र संघर्ष होता रहा। हजयात्रा के दौरान अनेक बार दंगे और मारपीट की घटनाएं होती रहती हैं।


शिया-सुन्नी विवाद तो जगजाहिर है। कुछ कट्टर सुन्नी विद्वान शियाओं का उपहास 'रफीदी" (नकारनेवाले) के रुप में करते हैं। कुरान की कुछ आयतों (3ः7, 3ः110) का अर्थ शिया अलग निकालते हैं। दैवी न्याय के विषय में दोनों में मूलभूत अंतर है। परलोक में अल्लाह को प्रत्यक्ष देखना संभव है यह सुन्नी धारणा है तो, ऐसा संभव नहीं यह शिया धारणा है। भले ही शिया-सुन्नी एक ही कुरान को मानते हैं परंतु, दोनो को प्रमाण के रुप में मान्य हदीस संकलन भिन्न-भिन्न हैं। अजान (नमाज की पुकार), नमाज के समय और उसकी पद्धति में शिया-सुन्नियों में मतभेद हैं। शिया पांच की जगह तीन बार ही नमाज पढ़ते हैं। शिया जमीन पर 'तुरबा" (करबला की मिट्टी अथवा पत्थर का टुकडा) रखते हैं और सिर झुकाते समय टुकडे को मस्तक लगाते हैं। शिया और सुन्नी दोनों में ही कई पंथोपपंथ हैं।


दकियानूसी कहकर देवबंदियों की आलोचना होती है तो आतंकवादी कहकर तबलीगी और वहाबी दोषी माने जाते हैं जबकि सहिष्णु कहकर सूफियों को जाना जाता है वैसे सूफी सहिष्णुता में कितना तथ्यांश है यह एक अलग विषय है। परंतु, सूफी जो शिया अथवा सुन्नी कोई भी हो सकता है किंतु अधिकांशतः सुन्नी ही होते हैं। सूफियों का मत है कि शियाओं की 'इमामह" संकल्पना सूफी विचारों से विसंगत है। अनेक शियाओं ने सूफियों का जबरदस्त विरोध किया है।सेलजूक और ऑटोमन सुन्नी तुर्कों ने शियाओं पर अत्याचार किए थे। ईरानी शिया आका मुहम्मदअली ने अनगिनत सूफियों का कत्लेआम कर 'सूफी-कुश" की पदवी हासिल की थी। ईरान शिया शासित है और वह शिया शासित कैसे हुआ -''सन 1490 के आसपास इस्माईल नामक युवक ने संपूर्ण ईरान जीत लिया, उसे सुन्नीयों से अत्यंत घृणा थी। वह स्वयं शिया था। उसने सुन्नीयों के सामने दो विकल्प रखे। एक तुम मत परिवर्तन कर शिया बन जाओ अथवा मरने के लिए तैयार हो जाओ। देखते ही देखते ईरान के सुन्नी शिया बन गए।"" ईरान के विदेशमंत्री रहे जावेद जरीफ का कहना है 'मुसलमानों के शिया और सुन्नी समुदाय के बीच तनाव न केवल क्षेत्र विशेष बल्कि दुनिया भर में शांति को खतरा है।"


मुस्लिम समाज मेें अंतरकलह एवं मतभेद केवल उन्हीं देशों में ही नहीं है जहां वे अल्पसंख्य हैं बल्कि इस्लामी देशों में भी है। मध्य एशिया से लेकर दक्षिण पूर्वी एशिया तक के मुस्लिम देश आपसी टकराव के शिकार हैं। इस्लामी कट्टरपंथी उन राष्ट्रों की सरकारों का तख्ता पलटने तक का प्रयास करते हैं जो उदारवादी पश्चिमी दृष्टिकोण रखते हैं। जिन राष्ट्रों पर अमेरिका और पश्चिमी राष्ट्रों का विशेष प्रभाव है वे तो इनके निशाने पर ही रहते हैं। इजिप्त, ट्यूनिशिया, सऊदी अरब, अल्जीरिया आदि। सूडान और नाइजेरिया भी पीडितों में शामिल हैं। सीरिया में सुन्नी चरमपंथी सक्रिय हैं, गृहयुद्ध छिडा हुआ है। सुन्नियों के पीछे सऊदी तो शियाओं के पीछे ईरान होकर वहां इन दोनों द्वारा एक छद्‌म युद्ध लडा जा रहा है।


कुर्दों को 1946 में ईरान ने कुचला तो, 1987-88 में इराक के सुन्नी सद्दाम हुसैन ने 'अन्फल मुहिम" चलाकर कुर्दों का संहार किया। शियाओं को भी कुचला। लाखों कुर्द और शिया विस्थापित हो शरणार्थी के रुप में जीने के लिए विवश कर दिए गए थे। तुर्की ने कुर्दों को शह दी तो ईरान ने शिया विद्रोहियों को। इसी सद्दाम ने 20वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में कुवैत को हडप लिया था। ईरान-इराक युद्ध आठ वर्ष चला लाखों मुसलमान इस युद्ध में मारे गए। उत्तरी यमन और दक्षिण यमन में भी संघर्ष लंबे समय तक चला। अस्थिरता का शिकार बना हुआ मिस्त्र मुस्लिम ब्रदरहुड से परेशान है। तुर्की में भी इस्लामी कट्टरपंथी हावी होना चाहते हैं। लेबनान में शिया चरमपंथी हिजबुल्लाह सक्रिय है। सऊदी की शह पर लेबनान में अराजकता फैलाई जा रही है। आफ्रीका का माली, सोमालिया भी त्रस्त हैं।


शायद ही कोई मुस्लिम राष्ट्र हो जहां आजादी के बाद प्रजातांत्रिक सरकार का गठन हुआ हो और वह भलीभांति काम कर रही हो। सभी मुस्लिम देश कट्टरपंथी आंदोलन की गिरफ्त में हैं। सिंगापूर, मलेशिया और इंडोनेशिया तक में कट्टरपंथी कार्यरत हैं। अनेकानेक आतंकवादी संगठन जैसेकि अलकायदा, अलशबाब, इख्वानुल मुस्लिमीन, तालिबान, बोकोहराम, मोरो लिबरेशन फ्रंट आदि, सक्रिय हैं। इन इस्लामी कट्टरपंथियों से सारी दुनिया परेशान है ये गैरमुस्लिमों को ही नहीं वरन्‌ अपने मुस्लिम बंधुओं को भी नहीं बख्शते। मुस्लिम समाज का एक बहुत बडा भाग करें तो क्या करें की मनःस्थिति में है। क्योंकि, उन्हें धर्म के नाम पर हमेशा से ही संरक्षण मिलता रहा है।


अब महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि इस समस्या का क्या समाधान निकाला जाए! जब तक इस्लाम में धर्म और राजनीति के घालमेल को समाप्त नहीं किया जाता जैसाकि ईसाई धर्म में हो चूका है तब तक हल निकलनेवाला नहीं है। धर्म और राजनीति के बीच भेद रेखा खिंचनी ही पडेगी। धर्म के नाम पर सब जायज है यह छोडना ही पडेगा। मतभेदों को दूर करने का सबसे अच्छा मार्ग है प्रजातंत्र। विचारों के आदान-प्रदान की स्वतंत्रता को मान्यता देनी पडेगी। केवल शासन पद्धति ही नहीं अपितु सामाजिक रचना भी प्रजातंत्र में विश्वास रखनेवाली बनानी पडेगी।


मुसलमान इस्लामी देशों में तो दूसरे धार्मिक अल्पसंख्यकों की सुरक्षा, सुविधा, उनके जायज अधिकारों का हनन करें और गैरमुस्लिम देशों में अल्पसंख्यक बनकर उपर्युक्त सारी चीजें हासिल करने की मांग करें यह गलत है। दार उल हरब को साम-दाम-दंड की नीति अपनाकर दार उल इस्लाम बनाने की मानसिकता को त्यागना पडेगा। धर्मांतरण हिंसा है को मानना पडेगा। भूतकाल में अरब टोलियों ने जो देदीप्यमान इतिहास बनाया था उसकी ओर देखकर वर्तमान में भूतकाल का जीवन जीने की मानसिकता को त्यागना ही होगा। यह समझना पडेगा कि उसी प्रकार से देशों को जीतना संभव नहीं। आज वो शक्तियां भी मौजूद नहीं, आज की शक्तियां एकदम अलग हैं। अब कोई उद्धारकर्ता आनेवाला नहीं है, यह संभव ही नहीं है। हर देश को इस्लामी बनाकर सारी दुनिया को इस्लाममय बनाने का सपना देखना यानी अल्लाह के राज की बातें करना, हुकुमते इलाही के सपने को साकार करने के प्रयत्न करने के दकियानूसी सिद्धांत को छोडना ही पडेगा। वरना सारी दुनिया में हिकारत एवं शक की नजरों से देखे जाते रहोगे, अपमानित होते रहोगे।

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