Friday, January 10, 2014

आखिर हिंदू गर्व किस बात पर करें ? 2

आखिर हिंदू गर्व किस बात पर करें ? 2

9. विवेकानंद के पश्चात राष्ट्रवादी सुधारक के रुप में वीर सावरकर के सामाजिक कार्यों की दो विशेषताएं थी अस्पृश्योद्धार और विज्ञाननिष्ठ रुढ़िभंजकता। अस्पृश्यता यानी कई वर्षों से दृढ़ हो चूकी विषवल्ली। अस्पृश्यता का निमूर्लन करने के लिए रत्नागिरी की स्थानबद्धता के काल में सावरकर ने पराकाष्ठा के प्रयत्न किए। दिनभर महारों और चमारों की बस्तियों में घूमे। उनमें साक्षरता निर्मित की। स्वच्छता की परिपाटी दी। उनसे गीतापठन, गायत्रीपठन, कीर्तन, सहभोजन के कार्यक्रम गणेशोत्सव में करवाए। पतितपावन मंदिर की स्थापना की और सभी को मंदिर प्रवेश की अनुमतिवाले भारत के पहले मंदिर के रुप में प्रसिद्ध हुआ। उन्होंने समाज को अंतर्मुख किया और उनमें अभिवृद्धि के लिए ज्ञानामृत का प्रसाद दिया। स्पर्शबंदी, रोटीबंदी, शुद्धिबंदी, आदि नासमझ रुढ़ियों पर प्रखर आक्रमण कर इन बेडियों से मुक्त करने के लिए 'समाजचित्र" पुस्तक की रचना की। निरर्थक रुढ़ियों को तोडने के लिए केवल प्रबोधन ही नहीं किया अपितु स्वयं के आचरण से इन कार्यों में आदर्श निर्मित किया। इस कार्य में वे लीन हो गए थे और कहा था ''मेरी मृत्यु के बाद मेरे शव को ब्राह्मण, महार, मराठा, डोंब आदि सभी जातियों के लोग कंधा दें, ऐसा होने पर ही मेरी आत्मा को शांति मिलेगी।""


स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात पंचवर्षीय योजनाएं आयोजित की गई। जब इंदिरागांधी प्रधानमंत्री थी उन्होंने 20 सूत्रीय कार्यक्रम द्वारा आर्थिक कार्यक्रम दिया था। परंतु, बहुत थोडे ही लोगों को मालूम होगा कि, इन दोनो ही कार्यक्रमों के मूल आधार के रुप में जंचे ऐसा 10 सूत्रीय कार्यक्रम 'वर्गहितों का राष्ट्रीय समन्वय" इस नाम से लगभग 75 वर्ष पूर्व ही सावरकर ने देश को दिया था।


तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरु की इच्छा थी कि धर्म के नाम पर स्त्रियों और दलितों पर होने वाला अन्याय थमे, इसलिए उन्होंने हिंदू कोड बिल पारित करवाया, बहुत जूझने के बाद ही वह पारित हो सका था। समान नागरिकता कानून को मूलभूत अधिकारों में गिना जाए और इस बाबत न्यायालय में न्याय मांगा जा सके की व्यवस्था की जाए की मांग मीनूमसानी ने की थी। इस मांग को डॉ. आंबेडकर, श्रीमति अमृतकौर और हंसा मेहता आदि का जोरदार समर्थन था। सावरकर भी इसी मांग के समर्थक थे। इस कानून के बिना समान नागरिकत्व भ्रम सिद्ध होगा, ऐसा इन लोगों का प्रतिपादन था। बिल्कूल अल्पमत से यह मांग उस समय नामंजूर हो गई, परंतु सूचकों की नैतिक विजय हुई। क्योंकि, राज्य के निर्देशक तत्त्वों में 44वी धारा सर्वसम्मती से स्वीकृत की गई । यह धारा कहती है 'भारतीय नागरिकों के लिए एक समान सिविल संहिता प्राप्त कराने का प्रयास करेगा।" नेहरुजी को लगता था कि यह समान नागरिकता की दिशा में उठाया हुआ पहला कदम है। परंतु, इस कदम के बाद आगे आज तक कोई कदम नहीं उठाया गया।


उस एक हिंदूकोड बिल से समाज में क्रांतिकारी परिवर्तन आया। वास्तव में हमें इन और इन जैसे हो चूके अनेकानेक समाजसुधारकों पर ही गर्व करना चाहिए जिनके कारण हमारा समाज आधुनिकता के दौर में पहुंचा, हम इतने प्रगत हो सके। परंतु, यह प्रयास तब अधूरे से जान पडते हैं जब हम देखते हैं कि आज भी समाज में भेदभाव, ऊंच-नीच की भावना जीवित है, कट्टरता बढ़ रही है, सहिष्णुता कम हो रही है। स्वामी दयानंद सरस्वती ने तो 'पाखंड खंडिनी पताका" फहराई थी पर हमारा पाखंड कम होने का नाम नहीं ले रहा। उदाहरणार्थ ः पंढ़रपूर की यात्रा जो पिछले सात सौ वर्षों से चल रही है के दौरान वारकरी संप्रदाय के अनुयायी एक दूसरे के प्रति सम्मान दर्शाने के लिए एक दूसरे के पांव छूते हैं। उधर यात्रा से लौटते ही ऊंच-नीच, जातीय असहिष्णुता पर उतारु हो जाते हैं। आज भी दलित को घोडी चढ़ने से रोकने की घटनाएं होती हैं। 'गर्व से कहो हम हिंदू हैं" कहना हमारा तभी सार्थक सिद्ध होगा जब हम यह पाखंड छोड उपर्युक्त समाजसुधारकों के बताए मार्ग पर बढ़ेंगे, उनके समाज सुधार के कार्यों को अनवरत आगे बढ़ाते रहेंगे।


यह लेख अधूरा ही रह जाएगा मुस्लिम समाज, जो भारत का एक अविभाज्य भाग है, की चर्चा के बगैर । यदि हम उस 19वी शताब्दी पर दृष्टि डालते हैं तो हमें ज्ञात होगा कि उस शताब्दी के सबसे बडे मुस्लिम नेता सर सय्यद अहमद थे। वे मुसलमानों में सुधार चाहते थे। उन्हें आधुनिक शिक्षा देना उनका ध्येय था। इसके लिए उन्होंने अलीगढ़ कालेज की स्थापना की थी। इस कारण उनकी प्रशंसा शिक्षा महर्षी के रुप में की जाती है। परंतु उनके इस कार्य का परिणाम देशविभाजन के रुप में सामने आया।
मुस्लिम समाज के साथ शोकांतिका यह है कि उनके समाज में समाज सुधार की वह परंपरा ही नहीं है जो हिंदुओं में है जिसके कारण कि वे आधुनिकता के दौर में पहुंच सके। ऐसी बात नहीं है कि उनके यहां आधुनिक बनो, शिक्षाग्रहण करो, स्त्री स्वतंत्रता और उनके अधिकारों की बात करनेवाले, कुरीतियों का त्याग करो का उपदेश देनेवाले है ही नहीं, ऐसे समाज सुधारक हुए भी हैं और हैं भी लेकिन अल्प। जैसेकि, हमीद दलवाई, असगरअली इंजीनिअर, अब्दुल कादर मुकादम, शाहिर अमरशेख (मेहबूब हसन शेख 1916-1969) आदि। परंतु उनका समाज इतना दकियानूसी है कि वह कुरीतियों का त्याग करना ही नहीं चाहता और इन समाज सुधारकों की उपेक्षा एवं एक प्रकार से बहिष्कार ही करता है। और उनके विचार अरण्यरुदन बनकर रह जाते हैं।


असगरअली इंजीनिअर, आदि जैसे सेक्यूलर, उदारवादी, पुरोगामी, समाजवादी, सुधारवादी, राष्ट्रवादी, मानवतावादी विचारों के लोगों को प्रामाणिकतापूर्वक लगता है कि मुस्लिम परिवर्तनशील बनें, आधुनिक मूल्यों का स्वीकार करें, आधुनिक बनें इसके लिए वे कुरान के नए अर्थ निकालकर उनमें आधुनिक मूल्य हैं दिखाने का प्रयत्न करते रहते हैं। परंतु, उनका समाज ही उनके इन नए विचारों को स्वीकारने को तैयार नहीं। वे अंग्रेजी अखबारों में आजीवन लिखते रहे और पुरोगामी के रुप में हिंदुओं से प्रशंसा प्राप्त करते रहे। उनके समाज ने तो उन पर यहां ही नहीं बल्कि विदेशों में तक प्राणघातक हमले किए। जब वे एक परिषद में काहिरा गए थे तब वहां उनके साथ जबरदस्त मारपीट की गई थी और वे मरते-मरते बचे थे।


हमीद दलवाई जो समाजवादी विचारों के थे। उनके और उनके जैसेही कुछ स्वतंत्र विचारों के मुसलमानों का मत है कि सर्वसामान्य मुस्लिम समाज जिस विचारसरणी का आचरण करता है उससे उनका हित होनेवाला न होकर उनका सच्चा हित इसीमें है कि उन्हें हिंदूसमाज से एकरुप हो जाना चाहिए। दलवाई का कहना था ''हमारे धर्म में हस्तक्षेप मत करो, हमें विशेषाधिकार दो, इन मांगों को मुसलमानों ने छोड देना चाहिए।"" ''इस्लाम की फालतू घोषणाओं के पीछे न लगते मुस्लिम युवाओं को इस्लाम का अर्थ व्यक्तिगत धर्माचरण करने की छूट मानकर व्यवहार करना चाहिए। अधिक लडोगे तो अधिक बिगडेगा और मुस्लिम समाज के साथ सहानुभूति रखनेवाले समाज का विश्वास भी गमा बैठोगे। बहुसंख्यकों का विश्वास संपादन करना यही अल्पसंख्यकों का कर्तव्य है।"" हमीद दलवाई के इन विचारों को सुननेवाला मुस्लिम समाज ना होकर हिंदू समाज हुआ करता था। इसका अर्थ हमीद दलवाई के विचारों से मुस्लिम समाज और उनके नेता कितने दूर थे यह पता चलता है।


गांधीजी की पुनर्जन्म सिद्धांत, कर्म सिद्धांत में आस्था थी और यही जाति व्यवस्था का आधार थी। यह आधार वर्णाश्रम व्यवस्था को खींचता था। हालांकि जीवन के अंतिम दिनों में गांधीजी यह मानने लगे थे कि जाति व्यवस्था से जुडी वर्णाश्रम व्यवस्था, अस्पृश्यता का भाव गलत है और इस विषवृक्ष को हर कीमत पर काट देना चाहिए।


सावरकरजी का कहना था धर्म की पोथी में क्या सत्य है और क्या असत्य, इसका निश्चय हम विवेक की कसौटी पर करें। वर्तमान जातिभेद जन्मजात न होकर पोथी की उपज मात्र है। हमारे धर्मबंधुओं को बिनाकारण पशु से भी अधिक 'अस्पृश्य" मानना यह मनुष्य जाति का ही नहीं अपितु हमारी स्वयं की आत्मा का भी घोर अपमान है। दर्शन मात्र से जो अपवित्र हो जाता है वह ईश्वर ही नहीं। जिस रुढ़ि के कारण तनिक भी सामाजिक लाभ न होते हुए मानवमात्र कष्ट का भागी बनता है वह तो अधर्म है। जिस समाज की जहां होना चाहिए वहां तो आस्था नहीं होती और जहां नहीं होना चाहिए वहां होती है, वह समाज मटियामेट हो जाता है।


डॉ. अंबेडकर जिन्होंने अपने अंतिम समय में बौद्ध धर्म को स्वीकार लिया था, जो हिंदू धर्म का ही संस्कारित संपादित रुप है। बौद्ध चिंतन का मूल बीज भाव है कि बैर बैर का अंत नहीं होता, हो नहीं सकता। अबैर से ही बैर का अंत हो सकता है यही सनातन धर्म है। उनका कहना था हमें भारतीय होने की व्यापक मानववादी भूमि पर सोचने की हर कीमत पर आदत डालनी चाहिए। उनके शब्द हैं 'मुझे अच्छा नहीं लगता जब कुछ लोग कहते हैं कि हम पहले भारतीय हैं और बाद में हिंदू अथवा मुसलमान। मुझे यह स्वीकार नहीं है। धर्म, संस्कृति, भाषा आदि की प्रतिस्पर्धा, निष्ठा के रहते हुए भारतीयता के प्रति निष्ठा नहीं पनप सकती। मैं चाहता हूं कि लोग पहले भी भारतीय हों और अंत तक भारतीय रहें, भारतीय के अलावा कुछ नहीं।"

2 comments:

  1. एक सारगर्भित लेख समाज में चाटना अवस्यक है लेकिन ''गर्व से कहो हैम हिन्दू हैं'' के लिया जितना हमारे पास है विश्व में किसी के पास नहीं.

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  2. bilkul sahi kaha aapne lekin batate rahna aavashyak hai. aakhir hum hanumanji ke bhakt jo thhahre jis prakar se hanumanji ko unki shaktya yad dilani padi samudrollankhan ke samay thik usi prakar hume bhi satat chetate rahna padta hai

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