Friday, January 10, 2014

श्री गजानन महाराज और श्रीसाईबाबा में समसमानता


श्री दासगणू रचित "श्रीगजानन विजय-ग्रन्थ' में "सन्त इस भूमि पर चलते फिरते परमेश्वर हैं' का उल्लेख अनेक बार आया है; उनका यह कथन निस्संदेह सत्य ही है। क्योंकि, सन्त षडरिपुओं (काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह, मत्सर) का दमन कर सदैव आनन्द मग्न, ईश चरणों में लीन अवस्था को प्राप्त कर चूके होते हैं। अपने परोपकारी चरित्र के कारण वे सत्कर्मों के प्रेरक ठहरते हैं। उनकी प्रेरणा से, उनके कहने पर अनेक धनी लोग, समाज हित के लिए अनेक कार्य उदा.ः मन्दिर, धर्मशाला, जरुरतमंद बालकों के लिए स्कूल, कॉलेज, छात्रावासों का, निर्धन-असहाय लोगों के लिए अस्पतालों आदि का निर्माण तथा अन्नछत्रों का संचालन करते नजर आते हैं। उनके विद्वतता भरे पवित्र वचनों व उन पर आधारित पवित्र-ग्रन्थों से प्रेरित हो अनेक लोग सद्‌मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित हो जाते हैं और यह देख-पढ़-सुन और अनुभव कर विद्वतजन भी उनके चरणों में शीश नवां अपने को कृतार्थ समझते हैं। वे अपनी कृपा से लोगों के इच्छित मनोरथ पूरे करते हैं। परंतु स्वयं निरीच्छ हमेशा ईश्वर भजन-पूजन, स्मरण में डूबे रहते हैं। इस धरती पर सन्त ही, परमेश्वर हैं जान। वे सागर बैराग के मोक्ष प्रदाता मान।।


गजानन महाराज भी इसी प्रकार के एक पहुंचे हुए सिद्ध पुरुष थे। ""जिनकी वृत्ति शिरडी के श्रीसाई बाबा के समसमान थी। यह सरसरी तौर पर देखने मात्र से ही पता चल जाता है। वे एकदूसरे कोअंतःसाक्षी से जानते थे, ऐसा माना जा सकता है। जिस दिन गजानन महाराज समाधि में लीन हुए उस दिन दिनभर साईबाबा शोकमग्न रहे। जिस गजानन महाराज का देहावसान हुआ, उस दिन साईबाबा जमीन पर लौट लगाकर विव्हल होकर अनेक बार चिल्लाए कि मेरे प्राण जा रहे हैं। श्री दादासाहेब खापर्डे (जिनका उल्लेख श्रीगजानन विजय ग्रन्थ के दसवें और पंद्रहवें अध्याय में लोकमान्य तिलक के संदर्भ में व श्रीसाई सच्चरित्र के सातवें और सत्तावीसवें अध्याय में आया है) का यह भी कहना था कि, श्रीगजानन महाराज ने अपने परिवारों के सम्पूर्ण कल्याण का कार्य देह त्याग करते समय श्रीसाई बाबा पर सौंपा था। इसलिए उसके बाद और तभी से वे स्वयं और हमारी मातुश्री दोनो ही श्रीसाई बाबा को गुरु स्थान पर मानने लगे थे। अर्थात्‌ ही यह अंशतः श्रद्धा का विषय है।'' (श्रीगजानन विजय ग्रन्थ अभिप्राय पृ.13 बा.ग.खापर्डे सुपुत्र श्री दादा साहेब खापर्डे) श्री खापर्डे ही नहीं अपितु नागपूर के प्रसिद्ध धनी व्यक्ति बूटी और नाशिक के धुमाल वकील भी दोनो सन्तों के समान रुप से भक्त थे।


यह ""दादासाहेब खापर्डे कोई सामान्य व्यक्ति नहीं थे। वे एक धनाढ्‌य और अमरावती के सुप्रसिद्ध वकील तथा केन्द्रीय धारा सभा (दिल्ली) के सदस्य थे। वे विद्वान और प्रवीण वक्ता भी थे। इतने गुणवान होते हुए भी उन्हें बाबा के समक्ष मुंह खोलने का साहस न होता था। अधिकांश भक्तगण तो बाबा से हर समय अपनी शंका का समाधान कर लिया करते थे। केवल तीन व्यक्ति खापर्डे, नूलकर और बूटी ही ऐसे थे, जो सदैव मौन धारण किए रहते तथा अति विनम्र और उत्तम प्रकृति के व्यक्ति थे। दादा साहेब विद्यारण्य स्वामी द्वारा रचित पंचदशी नामक प्रसिद्ध संस्कृत ग्रंन्थ जिसमें अद्वैत वेदान्त का दर्शन है, उसका विवरण दूसरों को तो समझाया करते थे, परंतु जब वे बाबा के समीप मस्जिद में आए तो वे एक शब्द का भी उच्चारण ना कर सके। यथार्थ में कोई व्यक्ति, चाहे वह जितना वेदवेदान्तों में पारंगत क्यों न हो, परंतु ब्रह्मपद को पहुंचे हुए व्यक्ति के समक्ष उसका शुष्क ज्ञान प्रकाश नहीं दे सकता।'' (श्री साई सच्चरित्र, रचयिता कै. श्री गोविन्दराव रघुनाथ दाभोलकर "हेमाडपन्त', हिन्दी अनुवादक श्री शिवराम ठाकुर श्री साईबाबा संस्थान विश्वस्त व्यवस्था, शिर्डी 2007)


"शुष्क ज्ञान प्रकाश नहीं दे सकता' इस कथन को भूल जाने के कारण ब्रह्मगिरी गोसावी (जिसका उल्लेख श्रीगजानन विजय-ग्रन्थ के आठवें अध्याय में आया है) फजीहत को प्राप्त होता है तो, कीर्तनकार गोविन्दबुवा अपनी योग्यता को दादासाहेब खापर्डे के ही समान जानने के कारण महाराज के सामने मौन हो, झट शरणागत हो महाराज के शेगांव में आगमन के महत्व को जान गांववासियों को उपदेश देते हैं कि "तुम्हे अमूल्य निधि प्राप्त हो गई है उसे सम्भालो तुम्हारा गांव अब प्रति पंढ़रपूर बन गया है। क्योंकि, महाराज स्वयं पांडुरंग हैं, उनकी सेवा करो, उनकी आज्ञा का पालन करो, उनके वाक्यों को वेद वाक्य मानो।' (श्रीगजानन विजय दूसरा अध्याय) इसका सुफल भी उन्हें प्राप्त होता है ( नववां अध्याय) और वे महाराज की कृपा के पात्र बनते हैं।


कीर्तनकार गोविन्द बुवा ने महाराज को जो पांडुरंग कहा है उसका साक्षात्कार महाराज ने पंढ़रपूर में बापूना काले को विट्ठल रुप में दर्शन देकर करवा दिया तो, साईबाबा ने "नाम सप्ताह' में स्वयं भगवान विट्ठल को प्रकट करवा कर दासगणू को जो कहा था कि - ""विट्ठल अवश्य प्रकट होंगे। परंतु, साथ ही भक्तों में श्रद्धा एवं तीव्र उत्सुकता का होना भी अनिवार्य है। ठाकुरनाथ की डंकपूरी, विट्ठल की पंढ़री, रणछोड की द्वारका यहीं तो है। किसको दूर जाने की आवश्यकता नहीं है। क्या विट्ठल कहीं बाहर से आएंगे? वे तो यहीं विराजमान हैं। जब भक्तों में प्रेम और भक्ति का स्तोत्र प्रवाहित होगा तो विट्ठल स्वयं ही यहां प्रगट हो जाएंगे।'' (श्रीसाई सच्चरित्र अध्याय 4 पृ.20) कुछ इसी प्रकार के वचन महाराज ने "श्रीगजानन विजय'18वें अध्याय में बापूना काले को विट्ठल रुप में दर्शन देने के बाद जब बाकी सह तीर्थयात्रियों द्वारा हमें भी विट्ठल दर्शन करवाने की प्रार्थना करने पर कहे थे। तो भक्तों द्वारा सोमवती पर्व पर तीर्थस्थल ओंकारेश्वर की यात्रा और नर्मदास्नान के संदर्भ में कहे थे - मेरे पास ही नर्मदा, क्यों जाऊं ऊंकार। मैं मठ में ही बैठकर, करुं नर्मदा पार।। फिर समझाय गजानना, मन्दिर में जो कूप। इसमें है जो जल भरा, वही नर्मदा रुप।। और भक्तों को देवी नर्मदा के दर्शन के करवाने के साथ ही देवी नर्मदा के स्वयं के मुंह से उनका अपना परिचय भी दिलवा दिया कि - कन्या मैं उंकार की, नाम नर्मदा होन।। (ग.वि.अध्याय चौदह) इतना ही नहीं तो सत्रहवें अध्याय में सभी पवित्र तीर्थों के स्नान का पुण्य लाभ सभी लोगों को करवाने के लिए नरसिंगजी के कुंवे से सप्तसिंधु को प्रकट करवाने का चमत्कार कर दिखलाया। इसी प्रकार की समसमानताएं तो अनेक हैं परंतु, एक महत्वपूर्ण समानता जो दोनो के ही चरित्र वर्णन के ग्रन्थों "श्रीगजानन विजय' एवं "श्रीसाई सच्चरित्र' के तेरहवें अध्याय में है जिनका उल्लेख दोहों के रुप में कवि श्री सुमन्तानन्दजी ने अत्यंत श्रद्धा एवं भक्ति से भरकर इस प्रकार से किया है - अध्यात्म आरोग्य पर, तेरहवां अध्याय। कवि सुमन्त अरु गजानना, दोनो के मन भाय।। हम सब इस अध्याय से, ऐसी शिक्षा पायं। अध्यात्म आरोग्य का, संगम दिया कराय।।


श्रीदासगणू ने भी श्री गजानन महाराज के चरित्र पर रचे गए "श्रीगजानन विजय-ग्रन्थ' में साईबाबा का उल्लेख अनेक बार किया हुआ है। क्योंकि, वे मूलतः साईबाबा के ही भक्त थे और उन पर पूर्व में ग्रन्थ रचना कर भी चूके थे और अंत में श्रीगजानन महाराज को संत शिरोमणि मान उन पर इस विजय ग्रन्थ की रचना की थी। ईश्वर की ओर जाने के तीन मार्गों का ज्ञान अपने परम भक्त बालाभाऊ को करवाते समय उन्नीसवें अध्याय में गजानन महाराज ने साईबाबा को अपना बंधू बतलाया है। इस प्रकार का उल्लेख श्रीदासगणू ने अपने विजय ग्रन्थ में किया है।

No comments:

Post a Comment