Saturday, January 4, 2014

आक्रमक वहाबी विचारधारा से पीछा छुडाता मुस्लिम जगत

आक्रमक वहाबी विचारधारा से पीछा छुडाता मुस्लिम जगत


इस समय इस्लामी जगत आतंकवादी कृत्यों का प्रतीक बन चूकी वहाबी विचारधारा के विरोध में आंदोलित है। विश्वप्रसिद्ध अल -अजहर के उस्ताद हों या भारत के मौलाना या अन्य इस्लामिक विद्वान सभी दुनिया भर के मुसलमानों को वहाबी विचारधारा से सावधान रहने की अपील कर रहे हैं।


इस आक्रमक वहाबी विचारधारा का प्रणेता है मुहम्मद इब्न अल्‌ वहाब (1703-92)। वहाब अल्लाह के 99 नामों में से एक है। इस इस्लामिक विद्वान ने विशुद्ध इस्लाम का समर्थन किया था व उसे सऊदी राजाश्रय भी मिला था। उसके विचारों को विश्वव्यापी ख्याति भी मिली। उसीके कारण बाद में विशुद्ध इस्लाम को प्रस्तुत करनेवाले को 'वहाबी" कहा जाने लगा। वहाब पर हनबाली न्यायप्रणाली का विद्वान इब्न तैमय्या का प्रभाव था। वह कुरान का शब्दशः अर्थ ग्राह्य मानता था। युद्धलूट के संबंध में तैमय्या के विचार इस प्रकार के हैं ः ''सचमुच सत्य यह है कि, अल्लाह ने युद्धलूट उसकी सेवा करनेवाले (यानी श्रद्धावान अर्था्‌त मुसलमान) के लिए निर्मित की है क्योंकि, उसने प्राणीमात्र को उसकी सेवा करने के लिए ही जीवन दिया है... जो उसकी सेवा नहीं करते उनकी (यानी श्रद्धाहीन अर्थात्‌ गैरमुस्लिम) मालमत्ता जो उसकी सेवा करते हैं उन श्रद्धावान सेवकों के लिए उसने (अल्लाह ने) कानूनसम्मत की हुई है।"" 'मूलतः वह धन-संपत्ति श्रद्धावानों की ही थी परंतु, श्रद्धाहीनों ने उसका अपहार कर लिया था। परंतु, युद्धलूट के रुप में अल्लाह ने वह मालमत्ता मूल हकदार मालिक को वापिस कर दी।" इस तैमय्या के बारे में मौ. मौदूदी का कहना है ः ''वे बहुत श्रेष्ठ दर्जे के धार्मिक एवं इस्लामी कानून के विद्वानों में से एक थे। विशेष रुप से पिछली दो शताब्दियों में उनके विचारों का मुस्लिमों पर प्रचंड प्रभाव हुआ है।""


भारतीय उपखंड का (मुस्लिमों का) पहला जनप्रिय नेता के रुप में प्रशंसित सय्यद अहमद बरेलवी (शहीद) के जिहाद आंदोलन को वहाबी आंदोलन भी कहा जाता है। वस्तुतः सय्यद अहमद के कार्य व विचार स्वतंत्र होकर केवल 'विशुद्ध इस्लामवाद" यह एक ही मुद्दा दोनो के बीच समान है। सय्यद अहमद के आंदोलन को वहाबी कहना सरासर गलत है। उनके आंदोलन का नाम 'तारिकत-इ-मुहम्मदिया" है (मुहम्मद का मार्ग) है। उस पर सच्चा प्रभाव था तो भारतीय शाहवलीउल्लाह और पुत्र शाह अब्दुल अजीज का। अतः उनके आंदोलन को 'वलीउल्लाह" कहना उचित होगा। परंतु अधिकांश ने सय्यद के आंदोलन को वहाबी ही कहा है। इस वलीउल्लाही आंदोलन को बाद में पाकिस्तान निर्माण के लिए हुए आंदोलन का पूर्वसंकेत माना जाता है साथ ही 1857 के संघर्ष को भी उनके आंदोलन का परिपाक माना जाता है।


वहाबी दावा करते हैं कि हम ही विशुद्ध इस्लाम का प्रतिनिधित्व करते हैं यह कोई पृथक विचारसरणी नहीं है। इसीलिए वे स्वयं को 'सलफी" कहते हैं। 'सलफी" व 'वहाबी" शब्द अनेक बार पर्यायवाची के रुप में प्रयुक्त किए जाते हैं। परंतु, इस प्रकार का उपयोग अनुचित है। 'सलफ" यानी पूर्वजसे 'सलफी" शब्द आया है। 'सलफी" का शब्दशः अर्थ 'प्रारंभ का मुसलमान"। मुस्लिमों की पहली तीन पीढ़ियों को आदर्श माना जाता है। इनमें सहाबा या सहाबी (यानी पैगंबर के साथी), ताबईन (जिन्होंने सहाबी को देखा है), तबअताबईन जिन्होंने 'ताबईन" को देखा है। यह इस्लामी धारणा है कि इन प्रारंभिक मुसलमानों ने इस्लाम को प्रायोगिक रुप में किस प्रकार से जीया जाए यह दिखलाया था। उनके दिखलाए मार्ग को अनुकरणीय माना जाता है (मिनहाज-अस्‌-सलफ)। सलफीयों का यह काल तीनसौ वर्षों का है। उस जमाने में जिस प्रकार का व्यवहार होता था वैसा ही व्यवहार आज भी मुसलमानों द्वारा किया जाना चाहिए की विचारसरणी को 'सलफी" माना जाता है। सलफी विचारप्रणाली में दो प्रवाह हैं वहाबी और कुत्बी।


इस्लाम में चार न्यायप्रणालियां हैं। हनाफी, शाफई (शफी), हनबाली और मालिकी। इन चारों में से किसी भी एक न्यायप्रणाली से वहाबी बंधे हुए नहीं हैं। इनका पूरा जोर कुरान और हदीस (पैगंबर की उक्तियां एवं कृतियां) के हूबहू पालन पर रहता है। वहाबी इज्मा (किसी एक बात पर बहुमत होना) या कियास (विचार, अनुमान) जो इस्लामी कानून के मानवी स्त्रोत हैं पर विश्वास नहीं करते। ये अल्लाह के एकत्व पर अत्यंत श्रद्धा रखते हैं इसी कारण इन्हें 'अद्‌ दावा लिल तौहीद" भी कहते हैं। उनकी भूमिका यह है कि इस्लाम के चार खलिफाओं का काल जो इस्लाम का स्वर्णयुग कहलाता है (खिलाफते राशिदून) का शासनकाल आदर्श होकर उसके बाद के खलीफा मार्गभ्रष्ट थे। यदि मुस्लिम शासक इस्लामी कानून का अक्षरशः पालन करता हो तो ही मुस्लिम समाज उसके प्रति निष्ठा रखे।


अल्लाह के सिवाय यहां तक कि पैगंबर तक का आवाहन करना गैर-इस्लामी है। मक्का-मदीना-अलअक्सा को छोडकर अन्य किसी भी मस्जिद की यात्रा करना, पैगंबर का जन्मदिन मनाना, कब्रों पर चादर-फूल चढ़ाना या कब्र के सामने घुटने टेकना या बलि चढ़ाना, मृतक के सामने मातम मनाना या कुरानपठन करना को इनका विरोध रहता है। फोटो लेना, संगीत-नृत्य का भी ये विरोध करते हैं। गंडा-ताबीज के तो ये घोर विरोधी हैं। वहाबीयों की मस्जिदें अत्यंत सादी होती हैं। ये सोने के अलंकार व रेशमी वस्त्रों के पहनने को भी पसंद नहीं करते और ये विचार इस्लाम से सुसंगत ही हैं।


कुत्बी सय्यद कुत्ब शहीद (1906-66) के अनुयायियों को कहते हैं। कुत्बी स्वयं को 'सलफी" कहते हैं। कुत्ब का प्रभाव इस्लाम का पहला मूलतत्त्ववादी कहा जानेवाला संगठन 'अखवानुल मुस्लिमून" यानी मुस्लिम ब्रदरहुड (स्थापना 1928 में हसन अल्‌ बन्ना द्वारा) के साथ ही उसके बाद बने अनेक संगठनों पर भी है। सय्यद कुत्ब के अनुसार इस्लाम केवल दो ही समाजों को जानता है ः एक इस्लामी समाज और दूसरा अज्ञानयुक्त समाज (गैरइस्लामी)। इस्लाम का अनुसरण न करनेवाले मुस्लिम शासक को पदच्युत कर देना चाहिए जबकि वहाबीयों का कहना रहता है इस्लामी राज्य के मुस्लिमों को मुस्लिम शासक के साथ वफादार रहना चाहिए। इसीलिए ऐसा कहा जाता है कि सऊदी शासक के विरुद्ध कार्रवाई करनेवाला ओसामा बिन लादेन वहाबी ना होकर कुत्बी था।


सय्यद कुत्ब की जिहाद के संबंध में भूमिका हैः 'पृथ्वी पर 'अल्लाह का राज्य" स्थापित करना इस्लाम का ध्येय है। 'इस्लाम मनुष्य को उदात्त बनाने के लिए, पृथ्वी के और इसलोक के, रक्त और मांस के बंधनों से उसे मुक्त कराने के लिए आया हुआ है"। वे लिखते हैं : ''सत्य और असत्य इनका सहअस्तित्व पृथ्वी पर रह नहीं सकता। जब इस्लाम पृथ्वी पर अल्लाह का राज्य स्थापित करने की और मानव को दूसरों की पूजा से मुक्त करने की, सार्वजनिक घोषणा करता है, तब उसका विरोध वे ही करते हैं कि जिन्होंने पृथ्वी पर अल्लाह के राज्य पर कब्जा कर रखा है। वे (लोग) कभी भी शांति लाने वाले नहीं हैं। फिर इस्लाम उन्हें नष्ट कर उनके सामर्थ्य से मानव को मुक्त कराने के पीछे पड़ता है......यह हमेशा चलने वाली स्थिति है। जिहाद का स्वतंत्रता युद्ध जब तक (पृथ्वी पर) संपूर्ण (अथवा एकमेव) धर्म अल्लाह का नहीं हो जाता, तब तक रूकने वाला नहीं है।""


कुरान के ध्येय के विषय में वे लिखते हैं :''यह धर्म यानी कुछ केवल अरब मनुष्यों की स्वतंत्रता की घोषणा नहीं यह केवल अरबों तक सीमित रहने वाला मर्यादित संदेश नहीं ...'उसका ध्येय अखिल मानव जाति है । उसकी व्याप्ती 'विश्व" है! ...अल्लाह केवल कुछ अरबों का देवता नहीं ... वह विश्व का देवता है! और यह धर्म संपूर्ण विश्व को अपने अल्लाह की ओर लेकर जाने वाला है।"" इस संदर्भ में जिहाद का उद्देश्य बतलाते हुए वे लिखते हैं :''यह सार्वत्रिक क्रांति घटित करवाना जिहाद का कार्य है... यह क्रांति होने पर सर्वत्र शांति का साम्राज्य अवतरित होगा-विचारों में, घरों में, समाज में और अंत में मानव जाति में शांति!"" 'शांति शाश्वत है, युद्ध अपवाद है," इस प्रकार का सिद्धांत प्रतिपादित कर 'एकमात्र अल्लाह के धर्म से जब लोग दूर जाने लगते हैं तब युद्ध की आवश्यकता निर्मित होती है" यह दिखला देते हैं । वे घोषित करते हैं :''इस्लाम में कानूनसम्मत जिहाद एक ही है, वह है संसार पर अल्लाह के धर्म का प्रभुत्व निर्मित करने के लिए किया हुआ युद्ध!"" उनके मतानुसार कुरान की दृष्टि से यही 'अल्लाह के कार्य के लिए संघर्ष" है!


इब्न अब्द-अल-वहाब का जन्म 1703 में सऊदी अरेबिया के आईना गांव में हुआ था। बचपन में ही पिता से उसने हदीस व हनबाली न्यायप्रणाली व कुरानभाष्य की शिक्षा ग्रहण की। हजयात्रा पश्चात कुछ समय मदीना में बीताने के बाद वह नज्द में स्थायी हो गया। नज्द में रहते उसके ध्यान में यह बात आई कि अनेक मुस्लिम कब्रों तथा विशिष्ट मस्जिदों को पवित्र समझ उनको भेंट देते हैं। कुछ मुसलमान मद्यपान व तंबाकू का सेवन भी करते हैं। कुछ लोग जपमाला उपयोग में लाते हैं। पैगंबर द्वारा प्रतिबंधित रेशमी वस्त्र भी पहनते हैं, तो कुछ सूफियों के चक्कर में भी पडे हुए हैं। मुस्लिमों का यह आचरण विशुद्ध इस्लाम से विसंगत था।


अल्लाह के एकत्व के अति आग्रह को जमीनी धरातल पर लाने के लिए उसे राजनैतिक समर्थन की आवश्यकता महसूस हुई। नज्द क्षेत्र के दिरिय्या प्रदेश के प्रमुख मुहम्मद इब्न सौद (मृ.1765) के साथ उसने 1744 में गठबंधन कर लिया। यह गठबंधन राजनैतिक ही नहीं रहा अपितु इब्न सौद ने वहाब की लडकी से विवाह भी कर लिया। इस गठबंधन के अनुसार इब्न सौद श्रद्धाहीनों के विरुद्ध जिहाद करेगा इसके बदले में वह मुस्लिम समाज का इमाम अथवा नेता होगा तो वहाब धार्मिक मामलों का नेता होगा। वहाब के विचारों से असहमत लोगों के विरुद्ध किया गया जिहाद तीस वर्ष चला और रियाद की पराजय के बाद 1773 में सौद घराना सत्ता में आया। इसी सौद घराने पर से सऊदी अरेबिया नाम पडा। सौद के पुत्र अब्दुल अजीज ने 1801 के अप्रैल में धर्मभ्रष्ट शियाओं के तिरस्कार के कारण इमाम हुसैन की दरगाह को ध्वस्त कर दिया था। वहाब (मृ.1791) के बाद भी आज तक उसका प्रभाव कायम है।


वहाबी पंथ के अनुयायी सऊदी का शाह और उनका शाही परिवार कट्टर होकर इस्लाम के अन्य पंथों को न तो उनकी मान्यता के अनुसार हज करने देता है ना ही उनकी सम्मानित धार्मिक पुस्तकों को तक सऊदी में लाने देता है और जो कोशिश करता है उस पर कोडे बरसाये जाते हैं। इसलिए भारत सहित अनेक देशों के लोग सऊदी के इस आतंक और अत्याचार से पीडित हैं। कुछ वर्ष पूर्व भारत के एक सम्मानित मौलाना को बिना हज किए इसलिए भारत रवाना कर दिया गया क्योंकि वे अपने पंथ की इस्लामी सिद्धांतों पर आधारित पुस्तक का पठन कर रहे थे। पहले उन्हें जेल में डाला गया, फिर भारत भिजवा दिया गया। उनकी पत्नी को स्नानागार तक में बंद करने की गंदी हरकत की गई। इसके विरोध में सन्‌ 1886 में मुंबई सहित अनेक स्थानों पर विरोध प्रदर्शन आयोजित किए गए थे।


सऊदी अथाह धन-दौलत के बलबूते अपनी यह खतरनाक विचारधारा पूरी दुनिया में निर्यात कर रहा है। खाडी के देशों के अलावा इजिप्त, सूडान, अफगानिस्तान, पाकिस्तान, बांग्लादेश, इंडोनेशिया आदि में इस विचारधारा का प्रभाव उत्तरोत्तर बढ़ रहा है। जनरल जिया उल हक के कार्यकाल में पाकिस्तान में वहाबीयों का प्रभाव बढ़ा। सेना में अधिकारियों के प्रमोशन की कसौटी इस्लाम पर श्रद्धा तय कर दी गई। वहाबी मदरसे के स्नातकों को सेना में प्रवेश दिया गया। नतीजा आज पाकिस्तान विनाश के कगार पर है। बांग्लादेश में भी शिक्षा और सेना के क्षेत्र में वहाबी प्रसार बढ़ रहा है। वहां खुदा हाफिज ना कहते सऊदी पद्धति का अल्लाह हाफिज कहना रुढ़ हो रहा है। सऊदी धन के बल पर भारत में भी वहाबी विचारधारा का प्रसार बढ़ रहा है। अहले हदीस नामका संगठन का भारत में विस्तार उसीका एक भाग है। सन्‌ 2007 में वहाबी गुट के मुफ्तियों ने एक फतवा जारी कर ताजमहल और हुमायूं के मकबरे समेत विश्वभर के मकबरों को नेस्तनाबूत करने का ऐलान किया था। 

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