Thursday, March 27, 2014

बढ़ता शहरीकरण एक अभिशाप

पिछले कुछ वर्षों में देश के सभी राज्यों में शहरीकरण अत्यंत तीव्र गति से हुआ है और इसके दुष्परिणाम भी उसी तीव्रता से दृष्टिगोचर होने लगे हैं। इस तीव्र गति का एक सबसे बडा कारण है जनसंख्या विस्फोटजो भारत की विकास की राह का बहुत बडा रोडा साबित हो रहा है। शहरीकरण की समस्या सीधी जनसंख्या विस्फोट से ही जुडी हुई है। बढ़ती आबादी के कारण ही रोजगार और संसाधनों तथा सुविधाओं का अभाव हो रहा है एवं गांवों से शहरों की ओर पलायन हो रहा है।

एक जानकारी के अनुसार लगभग 48000 गांव बेचिराग (उजाड) हो गए हैं। गांवों की रौनक समाप्त होती जा रही है। लोगों में यह प्रवृत्ति बल पकडती जा रही है कि अपना गांव छोडकर निकट के बडे गांव या शहर में जाकर बसना। ग्रामीण लोग शहरों की चकाचौंध ही नहीं अपितु शहरों में स्वास्थ्य सुविधाओं, शिक्षा और रोजगार मिलने की लालसा में आकर्षित हो गांवों से पलायन कर शहरों का रुख कर रहे हैं। क्योंकि गांवों में या तो ये सुविधाएं उन्हें हासिल नहीं या हैं भी तो दोय्यम दर्जे की। गांवों की दुर्दशा यह है कि गांवों तक के पहुंच मार्ग कच्चे हैं उन्हें पक्की सडक की सुविधा नहीं, बिजली-पानी नहीं, ऐसे में वे करें भी तो क्या करें सिवाय शहरों की ओर पलायन के।

यह अवश्य है कि शहरीकरण के अपने कुछ लाभ हैं जैसेकि शहरीकरण के कारण शिक्षा का स्तर सुधरता है, रोजगार के अवसर अधिक उपलब्ध होते हैं साथ ही आसपास के गांवों का भी विकास होता है। देश का विकास मुख्यतः शहरों के विकास से जुडा होता है। जातिगत भेदभाव कम होते हैं। बुद्धिजीवियों को अधिक अवसर मिलते हैं। उद्यमियों, व्यवसायियों को समाज में विशेष दर्जा मिलता है, संपत्ति में बढ़ोत्तरी होती है। गांवों की अपेक्षा परंपरागत आचार-विचारों से मुक्ति मिलने कारण व्यक्तिगत स्वतंत्रता अधिक मिलती है। लेकिन इसके कुछ दुष्परिणाम भी समाज को भुगतने पडते हैं जैसेकि रोकटोक ना होने कारण व्यक्तियों में कुप्रवृत्तियां बलवती होती हैं। क्योंकि,  गांवों में संबंध भावनाओं पर आधारित होते हैं जबकि शहरों में उपयोगिता पर इसके कारण जो सामाजिक बंधन कुप्रवृत्तियों को थामने के काम आते हैं वे शिथिल हो जाते हैं।

शहरीकरण के दुष्परिणाम

शहरीकरण से कांक्रीट के जो बियाबान पैदा होते हैं वे सबसे बडी हानि पहुंचाते हैं तो वो है बडे पैमाने पर वृक्षों के सफाये कारण पर्यावरण को। घनी आबादी नागरिक सुविधाओं पर बोझ बन जाती हैं। बढ़ती मोटर गाडियां, उद्योग कई तरह के प्रदूषण को जन्म देते हैं। बडी आबादी द्वारा उत्पन्न कचरा निपटान, जल-मल निकास की सुविधाएं कम पड जाने के कारण पर्यावरण बडे पैमाने पर दूषित हो रहा है। महंगी होती जा रही स्वच्छ पेयजल सुविधा और उसकी कमी एवं यातायात की समस्याएं गंभीर रुप धारण कर रही हैं। भूमि की कम उपलब्धता और अधिक कीमतों के कारण  झुग्गी-झोपडियों वाली गंदी बस्तियां जन्म लेती हैं जो समाज में जघन्य अपराधों का कारण बनती हैं। मकान छोटे और महंगे होने के कारण पूरे परिवार को कई तरह की समस्याओं का सामना करना पडता है। जगह की कमी के कारण बच्चों के खेलने की सुविधा ना के बराबर  होती जा रही हैं। घरों में प्रकाश और स्वच्छ हवा की कमी के कारण स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं भी उत्पन्न हो रही हैं। निजता नामकी चीज को बचा पाना असंभव सा होता जा रहा है। संयुक्त परिवार के अपने जो लाभ थे उनसे भी हम दिन ब दिन वंचित होते जा रहे हैं। 

बडे शहरों में वह सामाजिक ताना-बाना नहीं होता जो गांवों और छोटे शहरों में होता है, बडे शहरों में लोग अजनबी की माफिक रहते हैं। गांवों या छोटे स्थानों की तरह सुख-दुख में साथ नहीं देते, एक दूसरे का सहारा बनने की कोशिश नहीं करते। इस अकेलेपन एवं सामाजिक दूरियों के कारण डिप्रेशन, आत्महत्या, ह्रदय रोग, मधुमेह, ब्लडप्रेशर जैसे रोग बडे शहरों में अधिक होते हैं बनिस्बत छोटे स्थानों के। ग्रामीण भाग में जन्मे बच्चे शहरों में जन्मे बच्चों की अपेक्षा अधिक दृढ़ एवं स्वस्थ भी होते हैं।
बढ़ता शहरीकरण तेज गति से शहरों के आसपास की कृषिभूमि को निगलता जा रहा है। किसी भी शहर को देखिए छोटा हो या बडा कृषिभूमि और वह भी सिंचित पर कई तरह की टाऊनशिप के रुप में कांक्रीट के जंगल आकार ले रहे हैं जो कालांतर में तो क्या वर्तमान में ही देश और समाज के लिए कई प्रकार से हानिकारक सिद्ध हो रहे हैं। यह टाऊनशिप अब एक नए रुप में गांवों को हानि पहुंचाते नजर आ रही हैं। कुछ टाऊनशिपों का निर्माण छोटे परंतु संपन्न गांव के निकट जो किसी बडे शहर के भी निकट हो को दृष्टि में रख किया जा रहा है। जो उस संपन्न गांव के निकट के गांवों के लोगों को वहां रहने के लिए आकर्षित करेंगे जो कालांतर में कई गांवों को भूतहा बनाने में अपना सहयोग देंगे।
इन बढ़ते शहरों की आबादी अपने मनोरंजन और बदलाव के लिए शहरों के आसपास के दर्शनीय, सुंदर प्राकृतिक स्थानों जैसे झरने, तालाबों और पहाडियों, तीर्थस्थलों एवं ऐतिहासिक स्थलों की ओर सप्ताहांत व्यतीत करने के लिए उमड पडती है और वहां के पर्यावरण को हानि पहुंचाने के साथ ही साथ वहां के सामाजिक वातावरण को दूषित करने से बाज नहीं आती। इस प्रकार यदि हम देखें तो बढ़ता शहरीकरण अनेकानेक रुप से हानिकारक सिद्ध होता जा रहा है। कुल मिलाकर शहरीकरण से कितना लाभ और कितनी हानि पहुंच रही है तो हानि ही अधिक नजर आएगी और बढ़ता शहरीकरण घातक ही नजर आएगा। उदाहरण के लिए बढ़ते वाहनों की संख्या को ही लें। उदारीकरण की नीतियों के बाद आम व्यक्ति की क्रय शक्ति बढ़ी है परिणाम स्वरुप सडकों पर वाहनों की संख्या भी उसी अनुपात में बढ़ी है। इन वाहनों के ईंधन पर बहुमूल्य विदेशी मुद्रा खर्च हो रही है जो हमारा व्यापार घाटा बढ़ाने में ही योगदान देती है। ये वाहन बेतहाशा प्रदूषण फैलाते हैं सो अलग। आज जहां देखों वाहनों की कतारें और लगते हुए ट्रेफिक जाम से आम आदमी त्रस्त है, जरा कल्पना कीजिए बीस वर्षों बाद क्या होगा।

घातक होते शहरीकरण की रोकथाम 

देश की स्वतंत्रता के बाद गांधीजी ने कहा था- चलो गांव की ओर। अब जब लोग इस बेतहाशा तेज गति से बढ़ते शहरीकरण से घबरा से गए हैं। तो, आज गांधीजी का यह नारा क्या अपना औचित्य सिद्ध नहीं कर रहा है। क्या यह उचित नहीं होगा कि इस बढ़ते शहरीकरण के घातक होते स्वरुप को थामने के उपाय अभी से समय रहते किए जाएं। इसके लिए सत्ता, साधनों, सुविधाओं, कारखानों का विकेंद्रिकरण किया जाए। छोटे और उपेक्षित पडे जिलों पर ध्यान केंद्रित किया जाए, पिछडे जिलों को संवारा जाए। वहां की जनता का स्तर सुधारने के लिए अच्छे शिक्षा और स्वास्थ्य केंद्र खोले जाएं। ऐसी नीतियां अपनाई जाएं कि वहां अच्छे स्तर के शिक्षा संस्थान खुले और वहां से निकलनेवाले विद्यार्थियों के रोजगार के उपाय किए जाएं। ग्रामीणों के लिए स्थानीय रोजगार निर्मित किए जाएं। छोटे कस्बों-नगरों की ओर रहने के लिए लोग आकर्षित हों इस दृष्टि से वहां सुंदर बगीचों, अच्छे साफ-सुथरे बस स्टैंड बनाए जाएं। वहां बसनेवालों को कम ब्याज पर हाउसिंग लोन सरकारी बैंकों द्वारा दिया जाए। वैसे तो कई छोटे शहरों में  महाविद्यालय खुल रहे हैं। परंतु, इंग्लैंड-अमेरिका की तरह बडे शहरों के स्थान पर छोटे कस्बों में विश्वविद्यालय भी स्थापित हों।

बडे नगरों में या उनके आसपास ही चलाना चाह रहे बडे उद्योगों को मध्यम दर्जे के शहरों के निकट स्थापित करने के लिए  प्रोत्साहित किया जाए । बडे शहरों के आसपास नियुक्त सरकारी अधिकारी-कर्मचारियों को उनके कार्यस्थान पर ही रहने के लिए बाध्य किया जाए, उनके बडे शहरों में रहकर निकट के गांवों-कस्बों में प्रतिदिन अप-डाउन करने को हतोत्साहित किया जाए। बडे शहरों में नियुक्त सरकारी अधिकारी-कर्मचारियों को बारी-बारी से छोटे स्थानों पर अनिवार्य रुप से स्थानांनरित किया जाए। 

विदेशों में कई बडे नेता राजनीति से निवृत्त होने के बाद अपने मूल छोटे गांवों में रहवास के लिए लौट जाते हैं, ऐसा हमारे यहां क्यों नहीं हो सकता। हमारे नेता तो हमेशा राजधानी या किसी बडे शहर में निवास क्यों करना चाहते हैं जबकि उनमें से अधिकांश ग्रामीण परिवेश से ही आए हुए होते हैं। सांसद, विधायक इस प्रकार का आदर्श प्रस्तुत करें। चाहे तो सरकार उन्हें गांवों या छोटे शहरों-कस्बों में बसने के लिए आवासीय भूमि वगैराह दे। जनता की बडे शहरों में बसने की मानसिकता में बदलाव के लिए वे इस प्रकार का आदर्श प्रस्तुत करें आज नहीं तो कल उनका यह आदर्श अपना योग्य परिणाम बतलाकर रहेगा। आम जनता को भी बडे शहरों में बसने की नीति पर शहरीकरण के घातक दुष्परिणामों को देखते हुए पुनर्विचार करना चाहिए।

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