Saturday, March 8, 2014

पैगंबर का चित्र 2

पैगंबर का चित्र किसी समाचार पत्र में छपना और मुस्लिमों का उत्तेजित होकर विरोध प्रदर्शन करते हुए सडकों पर उतर आना कोई नई बात नहीं। अब की बार यह वाकया नार्वे की राजधानी ओस्लो में दोहराया गया। कुछ वर्ष पूर्व डेनमार्क में पैगंबर के चित्र छपने पर भी पूरी दुनिया भर के मुसलमान सडकों पर उतर आए थे। और हाल ही में डेनमार्क के कोपेनहेगन में एक मुसलमान को पैगंबर का रेखा-चित्र बनानेवाले कार्टूनिस्ट पर हमले के लिए हथियारबंद होकर उसके घर में घूसने का प्रयास करते हुए पुलिस ने घायल कर गिरफ्तार कर लिया। पैगंबर का चित्र छपने पर मुसलमानों का उत्तेजित होना इसलिए स्वाभाविक है क्योंकि, इस प्रकार का चित्रीकरण इस्लाम को मान्य नहीं। क्योंकि, पैगंबर का कथन है 'उससे बडा अपराधी/अन्यायी कौन है कि जो मेरी निर्मिति जैसी निर्मिति करने (यानी चित्र बनाने, मूर्ति बनाने) का प्रयत्न करता है।" (बुखारी 5953, मुस्लिम 5275) इसी प्रकार से पैगंबर का एक और कथन है- 'चित्र बनानेवाले सभी चित्रकार नरक में जाएंगे।" (मुस्लिम 5272, मजह 5121, मुवत्ता मलिक 1743) 'जिन्हें अल्लाह द्वारा कठोरतम दंड मिलेगा वे (लोग यानी) चित्रकार हैं।"(बु. 5950; मु. 5266,68,73; मजह.3653)  इसी प्रकार से एक हदीस कथन है - 'आयशा (पैगंबर की पत्नी) ने कहा 'प्रतिमा और क्रास हो उस घर में पैगंबर रहते नहीं थे, यदि (वहां) गए तो उन्हें नष्ट कर डालते थे।" (बुखारी 5953) इस प्रकार की और भी कई हदीसें हैं। 

इस प्रकार से चित्र या मूर्ति बनाने की मनाही होने के बावजूद 'हदीस सौरभ" (लेखक-मुहम्मद फारुक खॉं) में पृ. 192 से 194 पर 'मुखारबिन्द" शीर्षक तले तीन हदीसें दी हुई होकर कहा गया है कि ''आपके मुखाकृति आदि के विषय में 'रिवायतें" बहुत हैं। यहां उदाहरणार्थ केवल 'तीन रिवायतें (हदीस बयान करना)" दी गई हैं। शायद इन्हीं पर से चित्रकार या कार्टूनिस्ट उनका रेखा-चित्र बनाते हों। जो भी हो परंतु, मराठी पत्रिका विवेक के 1981 के दीपावली विशेषांक में मलकानीजी ने एक लेख में लिखा है 'ईरान में लगभग सभी घरों में पैगंबर मुहम्मद के चित्र लगे हुए हैं।"

पैगंबर के चित्र के कारण ही 'मुंबई में बडे दंगे का आरंभ 17 अक्टूबर 1851 को हुआ। श्री बैरामजी गांधी नामके एक पारसी सज्जन उन दिनों 'चित्रज्ञान-दर्पण" नामका एक समाचार पत्र चलाते थे। वे प्रत्येक अंक में किसी विशिष्ट व्यक्ति का चित्र प्रकाशित कर उसका परिचय देते थे। इसी क्रम में एक बार उन्होंने मुहम्मद पैगंबर का चित्र के साथ परिचय प्रकाशित किया। इस्लाम के अनुसार मुहम्मद का चित्र प्रकाशित करना हराम होकर उस अपराध का दंड बडा ही भयंकर होता है। इसकी गांधीजी को शायद कल्पना न हो। 17 अक्टूबर जुम्मे के दिन सुबह दस बजे मुसलमानों की भीड दीन-दीन चिल्लाते हुए मुंबई की जामा मस्जिद से निकल पडी। टोलियों में घूमते दंगाई जहां भी पारसी दिखाई दे उसे पीटते चले गए। जब मामला पुलिस से न सम्हल सका तब सेना को बुलाया गया। वैसे इस दंगे में पुलिस कमिश्नर फ्रेंक साऊटर ने बडी कडाई बरती थी। एक माह तक पारसी मुसलमानों की शत्रुता चलती रही, मारपीट चलती रही। अंत में सरकार के प्रयासों से पारसी तथा मुसलमानों की एक संयुक्त सभा आयोजित की गई जिसमें चित्रज्ञान दर्पण में मुहम्मद साहेब का चित्र प्रकाशित करनेवाले गांधीजी ने क्षमायाचना की और मुंबई के पहले दंगे का अध्याय समाप्त हुआ।" 

इसी प्रकार से 'द इंडियन पोस्ट' नामके अंग्रेजी समाचार-पत्र ने 15 अगस्त 1988 के अपने अंक के एक नियमित स्तम्भ 'द वीक इन हिस्ट्री" में इस प्रकार संक्षिप्त जानकारी प्रकाशित की थी कि '20 अगस्त 570ई. को इस्लाम के संस्थापक मुहम्मद का जन्म मक्का के एक गरीब कुरैशी अरब परिवार में हुआ था।" इसके साथ ही मुहम्मद साहेब का एक छोटा सा स्केच (चित्र) प्रकाशित किया गया था। पर यह क्या संपादक महाशय को धन्यवाद की जगह धौंस-धमकियां मिली। तंजिम ई अल्लाह हो अकबर का बारह सदस्यीय प्रतिनिधि मंडल उसी दिन 'द इंडियन पोस्ट" के कार्यालय पर जा धमका और रोष व्यक्त करते हुए विद्वान संपादक श्री विनोद मेहता को कल के अखबार में खुली माफी मांगने की हिदायत दे आया। बेचारा संपादक घबरा गया और उसने उनकी बात मान ली।" 

इसी प्रकार की असहिष्णुता केवल चित्र प्रकाशन तक ही सीमित नहीं है जरा-जरा सी बात पर मुस्लिम समाज उत्तेजित हो जाता है और सडकों पर उतर आता है। इसके भी कई उदाहरण दिए जा सकते हैं। उदा. 'गैर मुस्लिमों द्वारा अल्लाह शब्द के उपयोग के संबंध में मलेशिया में हाईकोर्ट द्वारा कैथोलिक न्यूजलेटर हेराल्ड को अपने बहासा मलेशिया संस्करण में ईश्वर के संदर्भ में अल्लाह शब्द का उपयोग कर सकता है का फैसला देने को लेकर कई चर्चों को निशाना बनाना।" नीदरलैंड जैसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का चरम रखनेवाले देश में 'मुस्लिम महिलाओं के विरुद्ध हिंसा कुरान सम्मत होने का चित्रीकरण 'सबमिशन" नामक चित्रपट में करने के अपराध में वॅन गॉग को गोली मारी। वॅन गॉग द्वारा घुटने के बल बैठकर दया की भीख मांगने के बावजूद पहले गोली मारी फिर छुरे से हमला किया। बाद में कुरान की आयतें लिखी हुई चिट्ठी छुरे की सहायता से उसके सीने में घोंपी। जिसमें अमेरिका, यूरोप, नीदरलैंड को नष्ट करने की दर्पोक्ति थी। पहले भी वॅन गॉग द्वारा सेमेटिक परंपरा पर लेखन किया गया था। यह भी एक उसका अपराध था।" 

'मुंबई का दूसरा दंगा भी पारसी और मुसलमानों में ही हुआ था। सन्‌ 1874 में एक पारसी सज्जन रुस्तमजी जालभाई ने आयर्विंग नामक अमरीकी लेखक के कुछ लेखों को अनुवादित कर प्रकाशित किया। इस प्रकाशन में मुहम्मद पैगंबर के संबंध में जो कुछ था वह मुसलमानों की दृष्टि से उनके रसूल का अपमान करनेवाला लेखन था। बस फिर क्या था 13 फरवरी को मुसलमान जामा मस्जिद से निकल पडे और पारसी दिखा कि पिटाई करते चले गए। अरब, पठान, सिंधी मुसलमानों ने पारसियों की सम्पत्ती की लूट मचाई, पारसियों की दो अग्यारियों में भी तोडफोड की। ऐसी अवस्था में प्रशासन को सेना की सहायता लेनी पडी।"

इसी प्रकार से कुछ वर्षों पूर्व एक फिल्म 'मुस्तफा" का नाम बदल कर 'गुलाम ए मुस्तफा" रखने के लिए विवश किया गया था। कहा गया था कि 'मुस्तफा" इस्लाम के पैगंबर मुहम्मद का एक नाम था। वैसे इसे असलियत माना नहीं जा सकता इसलिए कि यह उनका नाम था ही नहीं। हां, इतना जरुर है कि जब मुसलमानों की मुहम्मद साहेब के प्रति श्रद्धा बढ़ी तो जैसाकि मनुष्य मात्र का स्वभाव है, सम्मान के साथ-साथ उनके लिए श्रेष्ठता सूचक शब्दों का, उपाधियों का होने लगा। 'मुस्तफा" अरबी भाषा का शब्द होकर उसका अर्थ होता है, पुनीत, निर्मल, शुद्ध। मतलब कुछ मुसलमान 'मुहम्मद साहेब" को 'मुस्तफा" याने पुनीतात्मा" कहने लगे। किसी देवता, प्रेषित, सन्तपुरुष के लिए सम्मानजनक विशेषण को निमित्त बनाकर विवाद को यदि चलाया जाए तो फिल्मवालों के लिए नामकरण एक आफत ही बन जाएगा। अब यही देखिए भगवान विष्णु के एक हजार नाम हैं तो भगवान शिव के सातसौ। तैंतीस करोड देवी-देवताओं को माननेवाला यह बहुदेववादी हिंदू समाज यदि इस प्रकार की दकियानूसी पर उतर आए तो!
  
नार्वे के इन उपर्युक्त प्रदर्शनकारियों ने हाथ में तख्तियां ले रखी थी जिन पर लिखा था 'सभी धर्मों को सम्मान दो, मुस्लिमों को नीचा दिखाना बंद करो।" प्रथमदृष्टया मुस्लिमों की मांग उचित ही नजर आती है। परंतु, मांगने से सम्मान नहीं मिलता। यदि आप सम्मान चाहते हैं तो, आपको भी दूसरों को सम्मान देना होगा; उनसे सहिष्णुता का व्यवहार करते हुए उनकी भावनाओं-आस्थाओं के प्रति सम्मान दर्शाना होगा। तभी आप उनसे सम्मान की, बराबरी से व्यवह्रत किए जाने की आशा कर सकते हैं, मांग कर सकते हैं। लेकिन मुस्लिम अपने आचरण द्वारा कहीं भी इस प्रकार का यानी कि दूसरे धर्मों को सम्मान और बराबरी का दर्जा देने का, सहिष्णुता का व्यवहार करते नजर नहीं आते। वे तो सर्वश्रेष्ठता की ग्रंथी से पीडित नजर आते हैं। 

यदि मुसलमान अपने पैगंबर के चित्रीकरण से आहत महसूस करते हैं, 75 लाख की आबादीवाले एक छोटे से देश स्विट्‌जरलैंड में मीनारों पर प्रतिबंध से मुसलमानों की धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकारों काहनन होता है और वे वैसाही चाहते हैं जैसाकि वे प्रदर्शन ेके दौरान तख्तियों पर लिखकर दर्शा रहे थे तो, मुसलमानों को अपनी अतिअसहिष्णुता को त्यागकर मुहम्मदसाहेब के मक्काकालीन जीवन का आदर्श सामने रख संयम, सहिष्णुता, शांति की नीतियों का अवलंबन करना होगा। जैसाकि उनके कई मुस्लिम धार्मिक विद्वान, नेता और विचारक कहते रहते हैं। इस संबंध में मौ. वहीदुद्दीन का यह अभिप्राय यथार्थ है ः 'मुसलमानों के मनों में सबसे प्रभावी विचार इस्लाम का हित किस प्रकार से होगा यह होना चाहिए, स्वयं का व्यक्तिगत हित नहीं। उनकी सारी चिंता का विषय इस्लाम के संदेश का प्रसार होना चाहिए। अगर स्वयं के हित और धर्मप्रसार का हित इनमें विरोध आया तो धर्मप्रसार के हित को अग्रक्रम मिलना चाहिए। धर्मप्रसार के हित के लिए ही पैगंबर ने (इस प्रकार की प्रतिकूल परिस्थिति में) संयम का उपदेश दिया हुआ है।"

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