Thursday, March 13, 2014

मानवता के संहारक - रासायनिक एवं जैविक हथियार 

मानव का इतिहास युद्धों से भरा है। प्राचीन काल से ही शत्रु को मारने, उसे समाप्त करने के लिए नई-नई विधाओं का प्रयोग युद्ध इतिहास का अंग रहा है। इराक ने कुर्दों पर घातक रसायनों का हमला कर एक लाख से अधिक कुर्दों को मार डाला था। हाल ही में सीरिया के राष्ट्रपति असद ने गृहयुद्ध के दौरान जिस प्रकार से रासायनिक हथियारों को उपयोग में लाया है वैसा उपयोग इतिहास के लिए कोई नया नहीं है। इनमें से एक शत्रु को विभिन्न पद्धतियों से विष का प्रयोग कर समाप्त करना भी है। विष भी तो एक रसायन ही है।

 हमारे भारत के इतिहास में भी शत्रु पर विष प्रयोग कर उसे मारने के प्रयास के उदाहरण हैं। दुर्योधन द्वारा भीम को भोजन में विष देकर में गंगा में बहा देने का उदाहरण तो बहुत ही प्रसिद्ध है। विषकन्याओं का उल्लेख भी मिलता है। आचार्य वाग्भट के अष्टांग ह्रदय यानी सार्थ वाग्भट ग्रंथ के 35 और 36 वें अध्याय विष के संबंध में ही हैं। चालुक्य नरेश सोमेश्वर के मानसोल्लाह ग्रंथ में विष के तीन प्रकार स्थावर, जंगम और कृतिम रुप से मानव द्वारा निर्मित किए गए विषों का वर्णन मिलता है। परंतु, हमारे यहां विष या विषैले रसायनों का प्रयोग युद्ध में बडे पैमाने पर कर एक प्रकार का सामूहिक नरसंहार करने के उदाहरण नहीं मिलते। इसका श्रेय अन्य देशों को ही जाता है।

ईसा से 1000 वर्ष पूर्व के चीनी ग्रंथों में विषैली वायु तैयार कर उन्हें युद्ध में उपयोग लाने के वर्णन मिलते हैं। ईसा से सात शताब्दी पूर्व असीरियनों (मेसोपोटोमिया की सभ्यता के लोग) द्वारा शत्रु के पीने के पानी के कुंअॆ में विष डालने के उदाहरण दर्ज हैं।  स्पार्टा के योद्धाओं ने एथेन्स के कुओं में बडे पैमाने पर विष डालकर अनेक यूनानियों को मार डाला था। ईसा से लगभग 600 वर्ष पूर्व ग्रीकों द्वारा युद्ध में विषैले रसायनों का प्रयोग कर नदी को विषैली बनाने का उल्लेख मिलता है। ई. पू. 431 से 404 के काल में विश्वप्रसिद्ध स्पार्टा का युद्ध में विषैले रसायनों द्वारा विषैली गैस तैयार कर दम घोंटकर शत्रुओं को मारा गया था। जिसे आज हम जैविक या बायोलॉजिकल युद्ध कहते हैं उसका भी प्रयोग इस युद्ध में हुआ था।

यूनानी पुराणों में विषैले बाण किस प्रकार तैयार किए जाते थे के वर्णन विस्तार से मिलते हैं। आज भी गैंगरीन, टिटेनस जैसी बीमारियों के नाम सुनकर हमारे रोंगटे खडे हो जाते हैं। वे बीमारियां इन बाणों के लगने के बाद हो जाया करती थी। यूनानियों ने तो ऐसे रसायन तैयार कर लिए थे कि जब वे इन्हें पानी पर छोडते तो पूरे पानी में ही आग लग जाती और दुश्मनों की नौकाएं जल जाती। रोमनों ने भी विषैले हथियार तैयार करने में महारत हासिल कर रखी थी। ईसा से लगभग 184 वर्ष पूर्व ख्यात योद्धा हन्निबल ने तो विषैले सांपों से भरे मटके ही निर्णायक हथियार के रुप में यूनानियों के जहाजों पर पर्गोमान के युद्ध में फैंक कर लडाई को जीत लिया था। ईसा से लगभग 80 वर्ष पूर्व रोमननों ने ऐसी गैस का निर्माण किया था जो दुश्मन को अंधा कर देती थी। इसके द्वारा उन्होंने कई युद्ध भी जीते। इस गैस का उपयोग बाद में ईसाइयों ने तुर्कों को रोकने के लिए किया था। ई.स. 673 में ईसाइयों ने मुसलमानों को रसायनों का प्रयोग कर कॉन्सटंंटिनोपोल की लडाई में पानी में जलाकर मार डाला था।

विषैले रसायनों के अतिरिक्त जैविक युद्ध के तंत्र को भी ट्रॉय के युद्ध में अपनाया गया था। यह युद्ध ईसा से 1100 से 1300 वर्ष पूर्व हुआ था। ईसायुग के आरंभिक दिनों में यूरोप में ऐसी भयंकर अमानवीय प्रथा कि किसी खतरनाक अपराधी को किसी मृत देह से बांधकर किसी महाभयानक रोग से ग्रस्त हो तिल-तिलकर मरने के लिए छोड दिया जाता था। यूरोप के इतिहास में काफ्फा (यूक्रेन) के युद्ध में मंगोल तार्तारों ने प्लेग से मृत रोगियों के शरीरों को एक बडी गुलैल की सहायता से शत्रुओं पर फैंका। कभी-कभी वे मनोरंजन के लिए मरे हुए चूहे भी शत्रुओं पर फैंका करते थे। समय के साथ प्लेग ने शत्रुओं में जोर पकडा। उसी काल में वहां व्यापार के सिलसिले में आए हुए इटली के व्यापारी इन रोगों के वाहक बनकर यूरोप पहुंचे और धीरे-धीरे पूरे यूरोप में प्लेग फैल गया और इसमें करोडों लोग बलि चढ़ गए। तुर्कों ने भी संक्रमित मृत पशु शरीरों को दुश्मनों के जल स्त्रोतों में फिंकवा कर इस महामारी को फैलाने में अपना योगदान दिया। लगभग तीन सौ वर्ष पूर्व नेपोलियन ने भी इस प्रकार के क्रूर अमानवीय तरीके को अपनाया था। 18वीं शताब्दी में उत्तरी अमेरिका में ब्रिटिशों ने रेडइंडियनों की आबादी को कम करने के लिए चेचक की महामारी को फैलाया था। इससे हजारों लोग मारे गए। रुस ने भी स्वीडिश नगरों में प्लेग संक्रमित पशुओं को फैंक कर बीमारी को फैलाया था।

तो यह था मानवता के संहारक रासायनिक एवं जैविक हथियारों के प्रयोग का संक्षिप्त इतिहास जिसे और भी भयंकर तरीके से दोनो विश्वयुद्धों में दोहराया गया और आज भी यह खतरा सिर पर मंडरा रहा है। सच कहें तो पहिले महायुद्ध में रासायनिक हथियारों ने जो कहर बरपाया था उसे देखते हुए सभी राष्ट्रों ने इन हथियारों से तौबा कर लेनी चाहिए थी। परंतु, ऐसा हुआ नहीं बल्कि अनेक देशों में जहरीली गैस निर्माण की प्रयोगशालाएं धडल्ले से बनने लगी। रसायन शास्त्र के नए-नए प्रयोग कर अमेरिका ने इसमें महारत हासिल कर ली। 

अमेरिका ने मस्टर्ड गैस से भी अधिक घातक, विषैली लेविसाइट नामक रसायन प्रथम विश्वयुद्ध समाप्त होने के पूर्व ही तैयार कर लिया था। परंतु, युद्ध थम जाने की वजह से मित्र राष्ट्रों द्वारा उपयोग में लाया न गया। इसके संपर्क में आनेवाले को ऐसा लगता था कि आँखों में खंजर घोंपे जा रहे हों चमडी उबले हुए आलू के छिलके की भांति निकल जाती थी। इटली और फ्रांस ने भी इसका निर्माण कर लिया था। जापान ने तो रसायन शास्त्र के इस क्षेत्र में बहुत बढ़त बना ली। मस्टर्ड गैस के साथ लेविसाइट गैस भी बना ली। हारने के बावजूद जर्मनी ने भी इस काम को फैला दिया। 'गैस वेफर्स 1918" नामका एक यंत्र जो फॉस्जेन बम की मार सतत कर सके विकसित कर लिया। इंग्लैंड ने भी 'एम डिव्हाइस" नामक अत्यंत जहरीली आर्सेनिक गैस तैयार कर ली। यह गैस किसी भी मुखौटे को भेद सकने में सक्षम थी। 1925 में जिनेवा में एक संधि द्वारा रासायनिक हथियारों के निर्माण को रोकने की पहल की गई। परंतु, विभिन्न कारण बताकर वह करार सबने मिलकर असफल करके ही दम लिया।

अब नए हथियारों के इस्तेमाल की भूमि बनी हमारी भारत की धरती। 1919 में सरहद प्रांत के विद्रोहियों पर ब्रिटिश फौजों ने  इन घातक रासायनिक हथियारों का प्रयोग किया। कितने मारे गए इसका कोई हिसाब नहीं क्योंकि, मृतकों की संख्या को दर्ज करने  की जहमत अंग्रेजों ने उठाई ही नहीं। फ्रांस, स्पेन, रशिया भी पीछे नहीं रहे। रशियनों ने 'प्रोजेक्ट टॉम्का" नाम रखा इन रसायनों की निर्मिती का। 1935 में इटली ने इथोपिया पर टनों मस्टर्ड गैस से हमला किया था। मनुष्य व खेत दोनो बर्बाद हो गए। पीडितों को इतनी यातनाएं भुगतनी पडी कि ऐसा लगने लगा इससे तो मौत भली। परंतु, मुसोलिनी ने आनंद व्यक्त किया।

1936 में जर्मनी ने कुख्यात नर्व्ह गैस यानी 'टबून" का निर्माण कर लिया। बाद में 1939 में 'सरीन" (आयसोप्रोपाइल मिथाइल फॉस्फोनोफ्लुरिडेट) नामका ऐसा खतरनाक रसायन तैयार जैसा कि आज तक निर्मित हो नहीं पाया है। परंतु, अखिल मानव जगत का सौभाग्य कि हिटलर को द्वितीय महायुद्ध में इसे आजमाने की बुद्धि नहीं हुई अन्यथा मित्र राष्ट्रों की विजय असंभव हो जाती।

जापान के अमर्याद क्रौर्य का वर्णन किए बगैर रासायनिक एवं जैविक युद्ध का इतिहास अधूरा रह जाएगा। जापान की चीन से दुश्मनी ऐतिहासिक है और वह भी छठी शताब्दी से चली आ रही है। जापान ने चीन पर 1932 में जैविक हमला किया था जिसमें एक हवाई जहाज से विषाक्त प्लेग के विषाणु छोड गए थे। 1940 के प्रारंभ में जापान जैविक युद्ध यूनिट 731 के तहत विभिन्न रोग जैसेकि टायफाइड, कॉलरा, प्लेग, एंथ्रेक्स आदि बीमारियों के जीवाणु विकसित करने में लगा था और इसके लिए चीनी कैदियों पर प्रयोग किए गए थे और प्रभावों के अध्ययन के लिए कैदियों को जिंदा ही चीरा-फाडा गया था। इन सबके पीछे दिमाग था शिरो इशी नामक के वैज्ञानिक का और यह सब कुछ सम्राट हिरोहितो की जानकारी में उन्हीं के आदेश पर किया गया था। परंतु युद्धोपरांत उसे दंडित करने के स्थान पर अमेरिका में उसे विश्वविद्यालय में पढ़ाने और शोधकार्य के काम पर लगाया गया। यह इसलिए कि अमेरिका को उसका शोधकार्य चाहिए था। इसी युद्ध में जैविक युद्ध संबंधित कुछ कागजात रशिया के भी हाथ लग गए थे। जिसका लाभ उसने भी अपने जैविक युद्ध कार्य को आगे बढ़ाने में किया।

द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात भी इस क्षेत्र में कार्य जारी है। डबल्यू एच ओ के अनुसार लगभग 17 देशों के पास जैविक हथियारों के उत्पादन की क्षमता है। प्रयोगशालाओं से जीवाणुओं के रिसाव का खतरा है और इस प्रकार की दुर्घटनाएं घट भी चूकीहैं। जीवाणुओं के आतंकवादियों के हाथ लगने का खतरा भी सिर पर मंडरा रहा है। इस प्रकार के कुछ हादसे विभिन्न देशों में हो भी चूके हैं। कुछ वर्ष पूर्व भारत में भी इंडियन मुजाहिदीन ने जैविक हमले की धमकी दी थी। इस मामले में अमेरिका भी चिंता प्रकट कर चूका है कि भारत जैविक हमले का शिकार हो सकता है। परंतु, खतरनाक जीवाणुओं की यात्रा बदस्तूर जारी है न जाने यह कब थमेगी।  

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