Thursday, March 20, 2014

समय का तकाजा - वृद्धाश्रम

चारों ओर वैश्वीकरण की हवा बह रही है, इसके फलस्वरुप शहरीकरण भी बडी द्रुतगति से हो रहा है, छोटे शहर महानगरों में तब्दील होने के मार्ग पर हैं तो महानगर कास्मोपोलिटिन होते चले जा रहे हैं। प्रगति के नए-नए दालान खुलते चले जा रहे हैं। नई पीढ़ी आतुरता से उसमें सहभागी होकर ऊँची उडान भरने की तैयारी में हैं, तो कुछ ऊँची उडानें भर भी रहे हैं। जिंदगी तेज रेस में तब्दील हो गई है। इन सबका परिणाम पहले से ही विघटित होती चली जा रही संयुक्त कुटुंब-परिवार की प्रणाली और भी तेज गति से विघटित हो रही है। नई पीढ़ी अपना मूलस्थान छोडकर दूर बडे शहरों में काम-धंदे के निमित्त जाकर बस रही है। विदेश जाना और वहीं सॅटल हो जाना बिल्कूल सामान्य होते चला जा रहा है, उसमें कुछ अनुचित भी जान नहीं पडता, यह तो होगा ही। यह तो समय का तकाजा है। क्योंकि, कालानुसार सबकुछ बदलता है यह तो प्रकृति का नियम ही है। जो समय के साथ कदम मिलाकर नहीं चलते वे पीछे रह जाते हैं।

पहले भी लोग काम-धंदे, नौकरी-व्यवसाय के सिलसिले में घर छोडकर जाया करते थे। परंतु, कुछ समय या सेवानिवृत्ति पश्चात साधारणतया अपने मूलस्थान पर वापिस लौट आया करते थे। परंतु, अब सब उल्टा हो रहा है। इस कारण नई-नई समस्याएं पैदा हो रही हैं, सामने आ रही हैं। और इन सब में सबसे ज्यादह यदि कोई पीसा जा रहा है तो वह है वृद्धों का वर्ग। वे इस भागदौड भरी तेज गति से दौड रही दुनिया में दुर्लक्षित हो रहे हैं, उपेक्षित हो रहे हैं, एकाकी हो गए हैं। संयुक्त परिवार जो पहले से ही हम दो हमारे दो के कारण छोटे हो गए थे अब विघटन के बाद और भी छोटे हो गए हैं। एकल परिवारों का चलन बढ़ रहा है ऐसे में इन वृद्धों को कौन कंपनी देगा, इनकी ओर ध्यान देगा। इस कारण समाज में  पारिवारिक समस्याएं, चिंताएं भी बढ़ रही हैं। परंतु, समाज में जैसा होना चाहिए वैसा जागरण वृद्धों की समस्याओं की ओर नहीं है। इस कारण उन समस्याओं के हल के प्रति भी कुछ विशेष प्रयत्न किए जाएं, उसके लिए अपने समाज की कुछ विशिष्ट कालबाह्य होती चली जा रही मान्यताओं को भी बदला जाना चाहिए इसकी ओर जो उपेक्षा है उस ओर ध्यान आकर्षित करनेे का हमारा यह एक अल्प सा प्रयास है, इस दृष्टि से कुछ प्रसंगों का उल्लेख हम कर रहे हैं। 

एक बडे शहर का एक मध्यमवर्गीय परिवार जिसमें विधवा मॉं, बेटा-बहू और उनके जवान होकर नौकरी में लग चूके दो पुत्र एक बेडरुम, हाल,किचन के फ्लेट में निवास, मॉं, एक कमरे में बिस्तर पर ह्रदयरोग और लकवे से पीडित। उसकी सेवा के लिए दो नर्सें जो बारी-बारी दिन और रात देखरेख के लिए मौजूद रहती हैं। घर की ओर ध्यान देने के लिए बेटा नौकरी छोडकर घर में बैठा है। ऐसी परिस्थिति में विवाह योग्य बेटा (पोता) विवाह करे तो कैसे? हो तो कैसे? परिवार के सभी सदस्य अंदर ही अंदर घुट रहे हैं। ऐसे न जाने कितने परिवार हर बडे शहर में मौजूद हैं जहां तीन पीढ़ियां एक साथ मौजूद हैं जो इसी प्रकार की मिलती-जुलती कम या ज्यादह गंभीर-कठिन परिस्थितियों-समस्याओं से दो-चार हो रहे हैं। कहीं-कहीं तो चार पीढ़ियां भी मौजूद हैं। इसी प्रकार के एक परिवार में जहां पहली पीढ़ी 90 पार तो दूसरी पीढ़ी अस्सी के दशक में चल रही है, तीसरी पीढ़ी भी ढ़लान पर है, चौथी पीढ़ी का एकमात्र प्रतिनिधि के रुप में 24 वर्षीय पुत्र नौकरी के लिए अपना घर-शहर छोडकर दूर जा चूका है। उस परिवार का अपना तनाव यह है कि यदि दूसरी या तीसरी पीढ़ी को कुछ हो गया तो पहली पीढ़ी के सदस्य का क्या होगा? उसकी देखभाल कौन करेगा? परंतु, पुराने संस्कारों, रीति-नीतियों-रिवाजों और समाज क्या कहेगा का भय साथ ही वृद्धाश्रमों के बारे में यह कल्पना कि यह तो समाज के परित्यक्त-असहाय, निर्धन, बेसहारा-निराश्रित लोगों का ठिकाना है जो समाज से प्राप्त दया दृष्टि से दिए गए दान से संचालित होते हैं वहां जाने से इन वृद्धों को और उनके परिजनों को भेजने से रोकती है। और पूरा परिवार तनाव, घुटन तथा चिंताग्रस्त अवस्था में जीते रहता है।

इसी प्रकार से बढ़ते विदेश गमन के कारण भी वृद्धजन अकेले पडते जा रहे हैं। बेटा-बहू विदेश जाकर वहीं स्थायीरुप से बस चूके हैं। परंतु, माता-पिता वहां जाना नहीं चाहते और यहां अकेले रहना दूभर हो रहा है, असुरक्षा महसूस होती है, अपनी दैनिक आवश्यकताओं, कामकाजों के लिए जो वृद्धावस्था के कारण स्वयं कर नहीं सकते या करने में कठिनाई महसूस करते हैं उसके लिए किसी दूसरे को याचना करने में भी संकोच होता है। यही परिस्थिति उन परिवारों की भी है जिनके बेटे-बहू बडे शहरों में स्थायी हो गए हैं और खुद ही महंगी अपर्याप्त आवास समस्या से पीडित हैं जो दिनोदिन बढ़ती ही जा रही है तो माता-पिता को कहां रखें। हमें परिवारों के लिए वृद्धों की उपयोगिता, उनसे परिवार के बच्चों को मिलनेवाले आधार-सुरक्षा, संस्कारों से कोई इंकार नहीं पर जो समस्याएं मुँह बॉंए खडी हैं उनका क्या? जो पूरी तरह निराधार, निराश्रित-निर्धन हैं उनके लिए तो समाज के दान-सहयोग से चलनेवाले वृद्धाश्रम हैं। परंतु, जो स्वाभिमानवश और उस श्रेणी में न आने के कारण और स्वयं का खर्च उठा सकने की हैसियत रखते हैं वे भला वहां क्यूं जाएंगे या जाना नहीं चाहते या उनके परिजन भेजना चाहेंगे, भेजना नहीं चाहते, वे क्या करें? उनकी भी तो कोई व्यवस्था होना चाहिए? यह समस्या दिनोदिन बढ़ना ही है क्योंकि एक सर्वेक्षण के अनुसार आगामी दस वर्षों में 7 करोड लोगों का गांवों से शहरों की ओर आवज्रन होगा और उसके लिए नए 500 शहरों की आवश्यकता होगी। तब यह वृद्धों की समस्या कितना विकराल रुप धारण कर लेगी, कितने परिवार इस समस्या के कारण चिंता, तनाव और घुटन में जीएंगे इसकी कल्पना ही कितनी भयावह है। बढ़ते जीवनस्तर और चिकित्सकीय सुविधाओं के कारण भी मनुष्य की आयु बढ़ी है, ऐसे में वृद्धों की संख्या भी भविष्य में निश्चित रुप से बढ़ेगी ही।

ऐसी परिस्थिति में परिजनों में कटुता न बढ़े, आपस में प्रेमभाव, मधुर संबंध बने रहें इसके लिए ऐसे वृद्धाश्रमों की नितांत आवश्यकता है जहां वृद्ध घर जैसी सुविधाओं के साथ, जो उनकी आयु के अनुकूल हों, सुकून से निवास कर सकें, समान आयु के वृद्धों के साथ अपना समय बीता सकें, स्वयं को सुरक्षित महसूस कर सकें। ऐसे वृद्धाश्रमों में सुविधा की दृष्टि से विभिन्न आर्थिक स्तर भी रखे जा सकते हैं। ऐसे वृद्धों के लिए अलग से बहुमंजिला भवन बनाए जा सकते हैं जिनमें हर स्थान पर जहां वे चलें-फिरें, उपयोग में लाए रेलिंग लगे हों जिनका सहारा लेकर वे सुरक्षित ढ़ंग से चल-फिर सकें। यदि संभव हो तो इस प्रकार के वृद्धाश्रमों में स्वयं के स्वामित्व के या भाडे के फ्लैट, कुटिया रुपी छोटे मकान, बंगले आदि भी मुहैया करवाए जा सकते हैं। एक व्यापक परिकल्पना के रुप में वृद्धों के लिए एक अलग टाउनशिप की योजना भी विचारार्थ ली जा सकती है। जहां विभिन्न सुविधाएं विभिन्न आर्थिक स्तरों के अनुरुप हों। ऐसे वृद्धाश्रमों में नियमित चिकीत्सकीय सुविधाओं के रुप में डॉक्टर, नर्स-नर्सिंग होम आदि के अतिरिक्त जिरेट्रीशियन (वृद्धावस्था के कारण होनेवाले रोगों के उपचार का विशेषज्ञ) नियुक्त किए जा सकते हैं या समय-समय पर वे वहां विजिट के लिए आएं इस प्रकार की भी व्यवस्था की जा सकती है।

इन विचारों को आलोचना का विषय बनाने की बजाए स्वयं को उस स्थान पर रखकर, यथार्थ के धरातल पर रहकर देखें, सोचें तो यह एहसास होगा कि नई पीढ़ी जो अत्यंत कठिन परिस्थितियों, प्रतियोगी माहौल का सामना कर रही है की उन्नति के लिए यदि हम उनसे अलग रहकर उन्हें व्यर्थ के तनाव-चिंताओं से मुक्त कर सकें तो यह मधुर संबंध एवं परस्पर के हित बनाए रखने की दृष्टि से हितावह ही होगा, यही समय का तकाजा भी है। वृद्धों या वरिष्ठजनों के स्वतंत्र रहने की सामयिकता अब अटलनीय बन गई है। क्योंकि, वर्तमान में कुटुंब प्रमुख का मुख्य लक्ष्य रहता है स्वयं का एक छोटासा आवास और अपनी संतान की अच्छी शिक्षा-दीक्षा का प्रबंध।

इस दृष्टि से समाज सेवा के क्षेत्र के अग्रणी कहे जानेवाले, जिनमें से कई तो निराश्रितों के लिए वृद्धाश्रम समाज का दायित्व समझ संचालित कर ही रहे हैं, विचार, चिंतन-मनन कर कुछ सकारात्मक पग उठाने के लिए आगे आएं तो बेहतर होगा, कई व्यवसायिक कंपनियां जो प्रतिवर्ष अपने वार्षिक बजट में समाज सेवा के लिए कुछ राशि का प्रावधान रखती हैं भी आगे आ सकती हैं। बिल्डर-कॉलोनाइजर भी केवल वृद्धों के लिए के प्रकल्प पर व्यवसायिक दृष्टिकोण से विचार कर इस क्षेत्र में आ सकते हैं। हमें व्यक्तिगत लाभों-स्वार्थों के लिए की जा रही रोज की भागदौड में से थोडा सा समय निकालकर वृद्धों के लिए सोचना चाहिए क्योंकि हर युवा को एक दिन वृद्ध होना ही है और जो आज वृद्ध हैं वे भी कभी युवा थे और उन्होंने भी अपनी युवावस्था में समाज के लिए कुछ ना कुछ तो किया ही होगा, कुछ ना कुछ तो दिया ही होगा। अतः वर्तमान में कार्यरतों का यह कर्तव्य भी बनता है कि वे इन वृद्धों के लिए कुछ सोचें। जिससे कि वे अपना समय सुख-चैन, शांति से बीता सकें।

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