Friday, March 7, 2014

8 मार्च विश्व महिला दिवस - 
भारत प्रभावित बर्मा की गांधी - औंग सान सू की

औंग सान सू की का बर्मी उच्चारण होता है ऑन सान सू की। बर्मी लोग उसे आदरवश 'दाउ" भी कहते हैं जो बर्मी में आदर और स्नेह सूचक शब्द है। कभी-कभी उन्हें 'द लेडी" भी कहते हैं। उन पर 'द लेडी" नामकी एक फिल्म भी बनी है। 'द लेडी" शब्द उनके बर्मी अनुयायियों में उनकी लोकप्रियता का सूचक है। यह नाम विश्व स्तर पर बहुचर्चित इसलिए है कि इस महिला ने बर्मा जिसे अब हम म्यांमार के नाम से जानते हैं में प्रजातंत्र की स्थापना के लिए किए हुए संघर्ष में हिंसा और रक्तपात का सामना अत्यंत जीवटता से शांतिपूर्वक अहिंसा के मार्ग से किया। इसीलिए उसकी तुलना न केवल गांधीजी से की जाती है अपितु नेल्सन मंडेला से भी की जाकर उसे बर्मा की नेल्सन मंडेला भी कहा जाता है। 

बर्मा (ब्रह्मदेश) 1886 से 1939 तक ब्रिटिश भारत का अंग रहा है। ब्रह्मदेश का हमसे बडा प्राचीन संबंध है। सबसे पहले सम्राट अशोक ने ईसा पूर्व 300 वहां बौद्ध धर्म का प्रचार करने के लिए बौद्ध भिक्षुओं को भेज ब्रह्मदेश को भारतीय संस्कृति से जोडा। 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के बाद अंतिम मुगल बादशाह जफर को यहीं की रंगून (जिसे अब येंगो कहा जाता है) जेल में रखा गया था। आजादी की लडाई के दौरान लोकमान्य तिलक को भी म्यांमार की मंडाले जेल में कैद रखा गया था। यहीं पर उन्होंने विश्वप्रसिद्ध 'गीता रहस्य" लिखा था। बर्मा के अंतिम सम्राट 'थे बाउ" की मृत्यु अपना निर्वासन काल भारत में गुजारते हुए महाराष्ट्र के कोंकण के जिले रत्नागिरी में हुई थी। 

सू की के पिता जनरल औंग सान बर्मा की आजादी की लडाई के सबसे लोकप्रिय नेता और आधुनिक बर्मी सेना के संस्थापक थे। उन्हें बर्मा का राष्ट्रपिता कहते हैं। बर्मा की आजादी के छः माह पूर्व उनकी हत्या 19 जुलाई 1947 को कर दी गई और उसके ठीक एक महीना पहिले 19 जून को सू की का जन्म हुआ। 19 जुलाई को बर्मा की जनता शहीद दिवस मनाती है। दाउ सू की ने अपने हत्यारों के खिलाफ कभी भी बदले की भावना से काम नहीं किया। बल्कि हिंसा का जवाब प्रेम से दिया, शांतिपूर्ण संघर्ष कर। यह कदम उनकी मां खिन की के प्रभाव व प्रेरणा के फलस्वरुप था। जिन्होंने अपने पति की हत्या के बाद भी, जो देश में प्रजातंत्र लाना चाहते थे की हत्या के बाद भी शांति से काम लेकर अपने दुश्मनों को न केवल माफ किया बल्कि अपनी पुत्री को उन्हीं की गोद में पलने-बढ़ने दिया। उनके इस कदम से देश गृहयुद्ध से बच गया। यह खिन की पर भारतीय संस्कारों और संतों के विचारों का प्रभाव था। सू की ने अपने पिता के हत्यारों और उनके समर्थकों से ही जाना की उनके पिता ने किस प्रकार से देश के लिए बलिदान दिया।

भारत के महत्व को देखते हुए सैनिक शासकों ने खिन की को 1960 में बर्मा का राजदूत बनाकर भारत भेजा। वे बर्मा की पहली  कूटनीति मिशन की प्रमुख थी। बचपन में जब वे अपनी मां खिन की के साथ नेहरुजी से मिलने गई तब इंदिरा गांधी ने ही उन्हें महात्मा गांधी की पुस्तक पढ़ने के लिए दी थी। सू की ने इंदिरा गांधी को अपनी दूसरी मां के रुप में देखा। सू की मानसिक और वैचारिक रुप से परिपक्व हो इसलिए उनकी मां ने उन्हें महात्मा गांधी की कार्यपद्धति से प्रेरणा लेने को कहा। भारत में रहकर सू की ने भारत की स्वतंत्रता की लडाई में साहित्यकारों के योगदान का भी अध्ययन किया। वह समझ गई कि सभी समुदायों को साथ लिए बगैर संघर्ष में सफलता मिल नहीं सकती। अलग-अलग प्रांतों की मांग के लिए लडने की बजाए एक ही प्रांत यानी बर्मा के लिए लडा जाए। यह राष्ट्रीय भावना बर्मा के विभिन्न कबीलों जैसे कि कारेन, काछेन, जिनपाउ लिछू, शान, बर्मी आदि में निर्मित की, भाईचारा निर्मित किया। इसका उल्लेख उन्होंने अपनी पुस्तक 'फ्रीडम फ्रॉम फियर" में किया है।

इसका एक अन्य उद्देश्य यह भी था कि ईसाई मिशनरियों द्वारा सेवा की आड में अलगाववाद को भडकाने के प्रयासों को भी विफल करना। वह अपने भाषणों में प्रायः कहती 'मैं कारेन हूं",'मैं शान हूं", 'मैं बर्मी हूं" की भावना को हमें राष्ट्रीय एकता के लिए त्यागना होगा। भारत में रहते उन पर गांधीजी के आदर्शों और विचारों का गहरा प्रभाव पडा और वे उनके प्रेरणा स्त्रोत बन गए। उनके विपक्षी मोर्चे के कार्यालय का नाम भी 'गांधी भवन" ही है। उन पर नेहरुजी के राजनीतिक चिंतन का इतना प्रभाव था कि उन्होंने अपनी रचनाओं में पिता के साथ-साथ उनका जिक्र भी कई स्थानों पर किया हुआ है। उनके प्रजातंत्र समर्थक एक पोस्टर में नेहरुजी के भाषण की भी एक पंक्ति इस प्रकार से है - ''अगर कोई सरकार अपने देश के लोगों पर नियंत्रण रखने के लिए भय और आतंक का इस्तेमाल करती है, इसका मतलब वह सरकार प्रभावहीन है।""

सन्‌ 1974 में जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में हुए आंदोलन का भी उसने अध्ययन किया था। जुलाई 1989 के आंदोलन के दौरान अपने समर्थकों की रक्षा के लिए गांधीजी के सत्याग्रह वाले शस्त्र को अपने से अधिक शक्तिशाली शत्रु सैनिक शासन के विरुद्ध अपनाया और 12 दिन के अनशन के पश्चात अपनी मांगें मनवाने में सफल रही। इसी दौरान उन्हें 'बर्मा की गांधी" की उपाधि से नवाजा गया। सू की के शांतिपूर्ण आंदोलन को कुचलने के कार्य में बर्मा के सैनिक शासन का सहयोगी था चीन। ऐसे कठिन समय में सू की ने महात्मा गांधी की आत्मकथा और भारत के स्वतंत्रता संघर्ष की कहानियों का दोबारा अध्ययन किया। नजरबंद रहते ही उसने पति माइकल एरिस से 'रामायण" और 'महाभारत" की थाई और कंबोडियाई भाषावाले संस्करण मंगवाए। इन्हीं ग्रंथों में डूबकर उसने कठिन चुनौतियों का सामना करने की शक्ति पाई। वह जान चूकी थी कि भारत की स्वतंत्रता की लडाई में संत-महात्माओं ने जनजागृति कर लोगों में चेतना जगाने का काम किया था। और अंग्रेज भी इनकी चमत्कारीक गाथाओं से भय खाते थे।

 स्वामी विवेकानंद की यह पंक्ति भी उन्होंने  उद्‌धृत की है - 'उठो, जागो और लक्ष्य तक पहुंचे बिना रुको मत।"  इससे प्रेरित हो उसने भारत में रहते योग-ध्यान प्रारंभ कर दिया था। जिससे उसका मनोबल हमेशा बना रहा। कारावास में अकेले रहते उसने कठिन योग-व्यायाम करने के साथ आध्यात्मिक चेतना जाग्रत करनेवाली कुंडलिनी योग-अभ्यास कर स्वयं को निर्भय और दृढ़ निश्चयी बना लिया। ऐसी जुझारु नोबल पुरस्कार से लेकर सखारोव और जवाहरलाल नेहरु अवॉर्ड और अनेकानेक अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त दाउ सू की की कथा अभी समाप्त नहीं हुई है। उनकी लडाई जारी है, देखना यह है कि दुबली-पतली कायावाली, महिला प्रतिरोध की प्रतीक सू की की यह लडाई कहां जाकर, क्या हासिल कर थमती है। 

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